"सोचो?" बोला वो,
"क्या?" बोला दूसरा,
"वो पागल ये क्यों कहने आयी, रख दो?" बोला वो,
''अबे कहीं जी तो नहीं लगा गया उसे कल्लो से?" बोला वो, हंसते हुए!
"नहीं, लेकिन ये अन्धो माँ कोई तो होंगी?" बोला वो,
"तेरी दादी है!" बोला वो,
"मज़ाक़ नहीं यार?" बोला वो,
अब आवाज़ गायब हो गयी थी! कोई आवाज़ नहीं थी अब!
"रख दो यार!" बोला वो,
"अच्छा?" बोला वो,
"हां, रख दो?" बोला वो,
"सामने दौलत है बे?" बोला वो,
"मुझे नहीं चाहिए!" बोला वो,
''तो चल निकल यहां से?" बोले वो तीनों!
"जा रहा हूं!" बोला वो,
"और सुन बे?'' बोला पहला,
वो रुक गया!
"किसी को बताई तो? जानता है न?" धमकाया उसने,
"मुझे क्या ज़रूरत!" बोला वो,
और वो लड़का वहां से, जैसे आया था, वैसे ही निकल भी गया! चुपचाप निकलता चला गया वहां से!
"चला गया साला डरपोक!" बोला दूसरा!
"मरने दो साले को!" कहा उसने,
"तू एक काम कर?" बोला वो,
"क्या?" बोला वो,
उसने आगे पीछे देखा!
"वो संदूकची कहां है?" पूछा उसने,
"यहीं तो थी?" बोला वो,
"जगपाल तो नहीं ले गया?" पूछा उसने,
"अरे नहीं, खाली हाथ गया है!" बोला एक दूसरा,
"तो कहां गयी?" पूछा उसने,
"यहीं रखी थी?" बोला वो,
"ढूंढ?" बोला वो,
"यही थी?" बोला एक,
"ओ?" बोला पहला,
"क्या?" कहा दोनों में,
"ये देख?" बोला वो,
"अरे?" कहा उसने,
वो संदूकची, फिर से वहीं अपनी जगह आ गयी थी! बड़ी हैरत की बात थी!
"ये? यहां कैसे?" बोला वो,
"अरे वो डाल गया होगा!" बोला तीसरा,
"हां!" बोला पहला,
"यही बात है!" कहा उसने,
"इसे तो निकाल ले?" कहा उसने,
और एक ने, संदूकची जैसे ही छुई!
"तेरे पांव?" बोला एक,
"हैं?" बोला वो चौंक कर!
जब उसने देखा, तो उसके जूते खून से लाल! खून के थक्के बहते जा रहे थे उसके जूतों में से!
"आह?" चिल्लाते हुए, नीचे गिरा!
नीचे गिरा तो देह गिरी नीचे! जाते, वहीं के वहीं! जैसे, पांवों से ऊपर का हिस्सा गल गया था! चीख-पुकार मच गयी! एक जो भागा, तो उसकी बेल्ट से नीचे का हिस्सा वहीं आगे भागता चला और ऊपर का, धम्म से नीचे गिरा!
"बचाओ?" चिल्लाया वो,
रगड़ रगड़ कर पीछे हुआ और तब टांगें खुलीं! खुलते ही कपड़ा सा फट गया! आधा हिस्सा एक तरफ और आधा हिस्सा एक तरफ! बीच एम् जो दिल था धड़कता हुआ, ज़मीन से छूटे ही ज़ोर ज़ोर से ऊपर उछले लगा! और उसका खेल खतम!
तीसरा भागा वहां से, जैसे ही पीछे देखा, एक बाजू उखड़ गयी! भयानक चीख मची! बाजू गिरी तो पेशी से लटक गयी! दूसरे हाथ से पकड़ना चाहा, तो वो भी उखड़ गयी! बिन बाजुओं का शरीर भागता रहा आगे, अब न चीख थी और न ही कोई पुकार! और फिर सर, सर के ऊपर जैसे किसी ने पत्थर फोड़ दिया हो! खून के फव्वारे फूट पड़े! देह पीछे झुक गयी! कंधे चटक गए! लेकिन टांगें, भागना न भूलीं! वो भागे और जा एक पेड़ से टकरायीं! पेड़ के शहतीर को बीच में जकड़ा! और ऊपर की तरफ, चढ़ने की कोशिश की हो ऐसा लगा!
भचाक!
टांगों के टुकड़े हो गए! हड्डियों का बुरादा सा गिरने लगा! हर तरफ बस, मांस के लोथड़े ही लोथड़े!
और फिर! सन्नाटा पसर गया! जैसे, न कोई आया था और न कोई गया था! जंगल शांत हो गया! फिर से वही हुआ! ज़मीन सारा खून सोख गयी! पल भर में ही, मांस की गंध पा, की मकौड़े आ जुटे! बिलों में इंतज़ार करती चीटियां, बाहर आ गयी! उड़ने वाले, रेंगने वाले, सभी कीड़े इकट्ठे से हो लिए! जिसको जो मिला, चिपट गया उनसे! कोई आंखों में घुसता और कोई नाक में घुसता! पल भर में ही, सब ख़त्म हो गया! रह गया तो बस वो तमंचा, जो इस्तेमाल न हुआ था!
उधर, दिन ढले, वो लड़का अपने घर जा पहुंचा! रात हुई और उसको अपने उन दोस्तों की कोई खबर नहीं लगी! सोचा, ले आये होंगे माल, अब तक तो कहीं दूर ही जाकर, मजे रहे होंगे! रात बीती, सुबह हुई, सुबह गयी दोपहर हुई! और उसके घर के सामने एक जीप रुकी! वो पहचान गया, ये उन तीनों लड़कों में से एक, ऋषि के बड़े भाई थे, उनको खबर मिली थी, कि वे चारों साथ ही निकले थे! जीप को देख, जगपाल और उसके पिता जी बाहर ही चले आये, नमस्कार हुई, कुर्सियां बिछीं और फिर सीधे ही बात काम की!
"जगपाल?" बोले वो,
"जी?" कहा उसने,
"कल ऋषि साथ तेरे?" बोले वो,
"हां?" बोला वो,
"कहां गए थे?" पूछा उन्होंने,
"जंगल की तरफ" बोला वो,
"क्या करने?" पूछा उन्होंने,
वो चुप हो गया!
"समझ गया, मस्ती मारने, बीयर?" बोले वो,
सर न हिलाया, आंख उठा कर ही हां कह दी! पिता जी पास बैठे थे, इसीलिए!
"और कौन था साथ?" बोले वो,
"महेंद्र और सतीश" बोला वो,
"ये सतीश कौन?" पूछा उन्होंने,
तो बता दिया उसने, वो लड़का बाहर के किसी गांव का था, कॉलेज में साथ पड़ता था, दोस्ती हुई और साथ ही चल दिया था उनके!
"तेरे साथ कब तक थे वो?" पूछा उन्होंने,
"क्या बात हुई?" पूछा पिता जी ने उसके,
"वे लौटे नहीं!" बोले वो,
"लौटे नहीं?" बोले पिता जी अचरज से,
"हां, कल से ही!" बोले वो,
"कोई फ़ोन?" पूछा उन्होंने,
"नहीं!" बोले वो,
"कमाल है?" बोले वो,
"ढूंढ भी लिया, कहीं नहीं मिले?" बोले वो,
"समझ गया!" बोले पिता जी,
"तो सोचा, जगपाल से पूछ लें?" बोले वो,
"नहीं, ठीक है!" बोले वो,
"क्या हुआ था?" पूछा उस से,
"कुछ नहीं?" बोला वो,
"तो तू जल्दी कैसे लौटा?" पूछा उन्होंने,
"ऐसे ही?" बोला वो,
"मतलब ही नहीं!" बोले वो,
"सच बता दे?" बोले पिता जी!
"कुछ नहीं हुआ?" बोला वो,
"देख, अब जाएंगे हम पुलिस में!" बोले वो,
"अरे बता दे?" बोले पिता जी,
अब फंस गया वो!
"बता?" बोले वो,
और जगपाल ने, वहां जो कुछ हुआ था, सब बता दिया! सुन कर होश ही उड़ गए उनके तो!
"औरत?" बोले भाई साहब,
"हां" बोला लड़का,
"कैसी थी? काली?" बोले वो,
"बिलकुल" बोला वो,
''और वो वहीं रहे?" बोले पिता जी,
"हां!" बोला वो,
"तूने समझाया नहीं?" बोले वो,
"खूब कही!" कहा उसने,
"सोना मिला?" बोले भाई साहब,
"मुझे नहीं पता!" बोला वो,
"कहीं मस्ती मारने तो नहीं चले गए?" बोले पिता जी उनसे,
"तो फ़ोन तो करता कोई?" बोले वो,
तभी एक और मोटरसाइकिल रुकी! ये महेंद्र के चाचा और पिता जी थे, वे भी परेशान थे बहुत! अब वे आये, तो सब समझा दिया गया! वे भी हैरान!
''एक काम करो?" बोले भाई साहब,
"बोलो?'' बोले दूसरे आये हुए,
"वहीं चलो?" बोले वो,
"ये ठीक है!" बोले सभी!
"जगपाल?" बोले वो,
"जी?" कहा उसने,
"चल, हमारे साथ!" बोले सब,
"चलो!" बोले पिता जी भी!
"चल, दिखा?" बोले वो,
"हां" कहा उसने,
तो जगपाल हो गया तैयार उन्हें ले जाने के लिए! इस बात से बेखबर कि वहां कुछ मिलेगा या नहीं? क्या हुआ होगा, ये तो उसे भी नहीं पता था! बहरहाल, सभी अपने अपने वाहन ले, चल पड़े थे जीप में जगपाल, उसके पिताजी, भाई साहब और दो लोग और थे! और वो सब वाहन, जंगल के लिए निकल पड़ीं!
तो तकरीबन एक घंटे में वे जंगल के आधे रास्ते तक पहुंच गए, अब रास्ता खराब था, तो पैदल चलो या फिर मोटरसाइकिल से, तो मोटरसाइकिल ही ली गयी और बैठ गए वे सब! एक जगह जगपाल ने रुकवाया!
"रोको!" बोला वो,
"क्या हुआ?" पूछा उन्होंने,
"यहां, आगे मोटरसाइकिल्स खड़ी हैं!" बोला वो,
"अब होंगी?" बोले वो,
"पता नहीं?" बोला वो,
"देख लेते हैं!" बोले सभी! और वे सब चल पड़े, एक तरफ! एक झुरमुटे के पास तो वास्तव में ही मोटरसाइकिल्स खड़ी थीं, ज्यों की त्यों!
"ये महेंद्र की है!" बोले उसके पिता जी,
''और ये ऋषि की!" बोले भाई साहब!
"तो वो सब कहां हैं?" अब तो सभी ने पूछी!
"जगपाल?" बोले पिता जी,
"जी?" कहा उसने,
मारे डर के तो अब वो भी चक्कर खाने को था! यदि गाड़ियां यहां खड़ी हैं तो वे सब कहां हैं? कोई ऊंच-नीच तो नहीं हो गयी उनके साथ?
"एक मिनट!" बोले भाई साहब,
जगपाल आगे आया,
"तू कब आया था साथ? मतलब कितने बजे पहुंचे थे यहां?" पूछा उन्होंने,
"करीब दो बजे होंगे?" बोला वो,
''कितनी देर रुके?" पूछा गया,
"ये सवाल बाद में कर लेना? अभी तो उनको देखो?" बोले महेंद्र के चाचा जी!
"जगपाल?" बोला वो,
"जी?" कहा उसने,
"चल? ले चल?" बोला वो,
"आओ" कहा उसने,
और ले चला अंदर जंगल के! अब कुछ खंडहर से दिखे!
"एक मिनट!" बोला वो,
आसपास देखा, और फिर एक तरफ नज़र डाली!
"इधर!" बोला वो,
"चल?" बोले सब,
वे आ गए वहां! जहां जगपाल के अनुसार वो हड्डियां मिली थीं! लेकिन अब? अब न कोई हड्डी ही थी, न कोई खुदाई के निशान ही!
"कहां था मुर्दा?" पूछा गया,
"यहीं, इसी जगह?" बोला वो,
"अब कहां है?" बोले वो,
"मुझे नहीं पता?" बोला वो,
"क्यों झूठ बोलता है?" बोले महेंद्र के पिता जी!
"झूठ?" उड़े होश जगपाल के,
"हां! कहीं तूने, भगवान न करे, वो सोना मिलने के बाद, तीनों को मार तो नहीं दिया> हथियार तो रखता ही है तू?" बोले वो,
''नहीं, मैं नहीं रखा!" बोला वो,
"सच सच बता दे बेटा?' बोले पिता जी,
"सच बोल रहा हूं?" बोला वो,
"सुनो?" एक आदमी बोला,
सभी दौड़ पड़े उधर!
"क्या हुआ?" पूछा गया,
"ये देखो?" बोला वो,
"कट्टा?" बोले भाई साहब,
"हां!" कहा उसने,
उठा लिया उसने, देखा, गोली तो भरी थी!
"ये तो फुल है?" बोला वो,
"जगपाल?" बोले महेंद्र के चाचा,
"हां?" बोला वो,
"बता दे?" बोले वो,
"बता तो दिया?'' बोले वो,
तभी पिता जी ने एक ज़ोर का झापड़ दिया उसके कान पर! गिरते गिरते बचा वो!
"झूठ?" बोले पिता जी,
"नहीं" बोला कान सहलाते हुए,
"बता फिर?" बोले वो,
"अरे सुन?" बोले भाई साहब,
उसने देखा उन्हें,
"वो औरत कहां थी?" पूछा उन्होंने,
"उधर!" बोला इशारे से,
"अरे झूठ बोल रहा है ये! उतार दो हरामज़ादे के सीने में गोली यहीं!" बोले चाचा जी,
"रुको?" बोले पिता जी,
"इसका पक्ष मत लो?" बोले महेंद्र के पिता जी,
"पक्ष की बात नहीं है!" बोले वो,
तभी!
तभी वही औरत दिखाई दी, ज़मीन पर बैठी हुई, दूर थोड़ा एक तरफ! भाई साहब को दिखाई दी वो औरत!
"वो रही!" बोले भाई साहब!
"पकड़ो साली को!" कहते हुए, भागे उधर उस औरत को पकड़ने को! जैसे ही पहुंचे वहां! कि.....................!!
"ठहरो?" बोली वो,
और खड़ी हो गयी! अब जैसे ही खड़ी हुई कि वे सभी रुक गए! वो औरत दिखने में भले ही नाटे कद की दीख रही हो, लेकिन थी सवा या साढ़े छह फ़ीट की! भक्क काली, एकदम नग्न, बड़े बड़े, लटकते हुए स्तन, गले में कुछ धारण नहीं किये हुए, न कोई आभूषण ही! बस पीले से नेत्र ही चमकें उसके! एक बार को तो सभी की घिग्घी ही बंध गयी!
"हे? कौन है तू?" पूछा एक ने,
"आजक!" बोली वो,
"आजक?" बोला वो,
"हां!" कहा उसने औरत ने,
"तेरा नाम है ये?'' पूछा एक ने,
"नाम?" बोली वो,
"हां?" बोला वो,
"अन्धो माँ!" बोली वो,
''अन्धो माँ?" अचरज से पूछा एक ने,
"वो, वहां!" बोली सामने इशारा करते हुए, अब सभी ने वहां देखा! वहां तो कुछ नहीं, बस कन्टीरी की झाड़ियां ही लगी थीं!
"पागल है ये शायद!" बोले चाचा जी,
"जाओ!" बोली वो,
"जाओ?" बोले भाई साहब,
"हां! लौट जाओ!" बोली वो,
"वो लड़के कहां हैं?" पूछा चाचा जी ने,
"गए!" बोली वो,
"कहां?" पूछा एक ने,
"उधर!" बोली ज़मीन को दिखाते हुए,
"उधर गए?" बोले वो,
"हां!" कहा उसने,
"पागल ही है!" बोला एक,
"चल? पगली? निकल?" बोले भाई साहब!
"जाओ! वापिस!" बोली वो,
"क्यों?" बोले वो,
"अन्धो माँ! जय!" बोली वो,
"कौन है ये अन्धो माँ?" बोला वो,
"माँ!" बोली वो,
"किसकी?" पूछा उसने,
"मेरी!" बोली वो,
"इसकी माँ होगी यहीं, मरखप गयी होगी यहां, ये पागल तो है ही?" बोले महेंद्र के पिता जी!
"ओ अन्धो?" बोला एक,
उस औरत ने अब गुस्सा दिखाया! दांत किटकिटा दिए!
"लड़के आये थे?" पूछा एक ने,
"हां!" बोली वो,
"कहां हैं?" पूछा उसने,
"वहां!" बोली वो,
"अरे कोई देखना?" बोले भाई साहब!
एक आदमी गया उधर! और देखीं उसने वहां, पीली पड़ी हड्डियां! छेद हो गए थे उनमें! शायद कीड़े मकौड़े खा गए थे!
"ये देखो? ये देखो?" चीखा वो,
अब सभी भागे वहां! आसपास देखा तो वही हड्डियां! कोई हाथ की तो कोई पांव की! कोई सर की तो कोई रीढ़ की!
"ये देखो?" बोला एक,
देखा सभी ने,
"जूते?" बोला एक,
"अरे इनमें तो पाँव की हड्डियां हैं?" बोला वो,
"और ये देखो?" बोला दूसरा,
"ये बेल्ट है?" बोला वो,
अब आ गया माज़रा सब समझ! एक साथ तीन काटते जेबों से बाहर आ गए! भाई साहब आगे बढ़े, कट्टा तानते हुए उस औरत पर!
"किसने मारा उन्हें?' बोले वो,
"सब" बोली वो,
"कौन सब?" पूछा एक ने,
"हम सब" बोली सीने पर हाथ फेरते हुए!
"अरे मारो? मारो इसके?" चीखे सभी!
"रुको?" चीखे भाई साहब!
"सुन पागल?" बोले वो,
"जाओ?" बोली वो,
"तेरे जैसे और कितने हैं यहां?" पूछा उन्होंने,
"सब" बोली वो,
"कहां हैं?" पूछा उन्होंने,
"इधर, इधर, इधर इधर!" बोली वो हर तरफ!
"ये कोई आदमखोर हैं शायद?" बोला एक,
"साधू सी लगती है!" बोला दूसरा.
"साला कोई नरभंग-सरभंग होगा?" बोला एक,
"देख औरत?" बोले वो,
और चले पास! जैसे ही चले कि देह के बालों में आग सी लग उठी! बाल झुलसने लगे उनके! चीख कर पीछे हटे!
और वो औरत, हंसते हुए, वहां से जाने लगी!
"जाओ, जाओ! छोड़ दिया!" बोलते हुए चलने लगी!
"सोचते क्या हो?" बोला एक,
"अरे मार दो?" बोला एक,
और तभी, धांय! जंगल गूंज उठा! गोली तो चली लेकिन वो औरत गायब! सभी वहीं देख रहे थे, और पीछे खड़े खड़े ही भाई साहब गिर पड़े! खाल फफोले सी उखड़, गिरने लगी! अब तो मची भगदड़!
वे अब सब सर पर पांव रख दौड़ लिए थे! सभी एक साथ ही भागे थे, कौन पहले आगे निकले, ऐसी नौबत आन पड़ी थी! अब सब समझ आ गया था उनको! कि ये कोई पागल या पगली का मामला नहीं था, यहां तो कोई बड़ा ही ऊपरी मसला था! कुछ लोग रुके और पीछे देखा! पीछे का नज़ारा तो और रूह कंपा देने वाला था, खून ही जमा दे! वो जो वहां गिरे थे, वो उठ खड़े हुए थे लेकिन उनके चेहरे का मांस, सब धीरे धीरे गिर रहा था नीचे, गर्दन, जबड़े और माथे की हड्डियां अब साफ़ नज़र आने लगी थीं! अजीब बात ये, कि इतना होने पर भी, वो दौड़ रहे थे, गोल गोल चक्कर लगा रहे थे! उनके कंधों, बाजुओं का मांस नीचे कोहनी को ढके कमीज़ की आस्तीन में जमा होने लगा था, ऐसा लगता था कि वो फूल गए हों! मांस लगातार टपक रहा था वहां से! ऐसा ही टांगों का हाल था, जाँघों का मांस, नीचे इकठ्ठा हो गया था, पेंट की मोहरी में, वहीं से ट्कड़े निकल निकल गिरते जा रहे थे! धीरे धीरे चाल धीमे पड़ने लगी उनकी, क्या दिल और क्या तिल्ली, क्या गुर्दे और क्या मूत्र-थैली, सब की सब, सफेद से मांस से, रस्सी जैसे लटकने लगी थीं नीचे! कुछ तो तेज ही भाग लिए ये देख! और जो रुके थे, उनके पांवों में भी पहिये लग गए! एक ज़ोर की गूंह-गूंह सी गूंजी और पछाड़ खा गए वो भाई साहब! गिरते ही देह बिखर गयी! हाथ अलग और पांव अलग, घुटने लग और कंधे अलग! ऐसा लगता था कि किसी ने जैसे तेज़ाब के फव्वारे के नीचे उन्हें बांध दिया हो!
भागते हुए लोग, अपने अपने वाहन तक पहुंचे, और सीधे ही दौड़ लिए! जबरास्ते पर चले, तो एक झाड़ी के पास, बैठु हुई वो ही औरत दिखाई दी! ठट्ठे मारती हुई, उसके हाथ में गेंहूं जैसी कोई बाल थी, चबा रही थी जैसे एक एक दाना! आनन-फानन में ब्रेक लगे, रास्ता बदला और दौड़े वहां से! सभी की सांसें उलझ गयी थीं! जीप न गड्ढे देखे न पत्थर, ऐसे ही मोटरसाइकिल्स!
और रास्ता साफ़ हुआ, गति पकड़ी कि फिर से दिखाई दी वो ही औरत! कई तो रोने ही लगे! भगवान को याद करने लगे! गति धीमी हुई और वो औरत, तेजी से भागते हुए जंगल में चली गयी! अब क्या था! अब नहीं देखा पीछे किसी ने और लगाई दौड़! इस तरह से उनके वाहन, सीधे ही थाने जा कर रुके!
जांच हुई होगी, नहीं पता चला कि हुआ क्या था, और तो और, लाश तक नहीं मिली थी किसी की भी! जब तक लाश बरामद न हो, मुक़द्दमा भी कैसा! किस पर दोष लगाएं! अज्ञात ही रहा सब!
अब जिनके मरे थे, बस, कलेजे पर पत्थर रखने के अलावा और कोई चारा तो था नहीं, सो, पत्थर रखा और सब्र का पानी पी लिया! लेकिन ये क्षेत्र अब निगाहों में आ गया था!
दस दिन बीते होंगे कि एक टोला वहां रुका! ये सरभंग थे! ये सरभंग नारकी थे, पैसे लेकर काम करने वाले, कुल आठ रहे होंगे! उनका जो बड़ा सरभंग था, उसका नाम नरसू था! नरसू का भय बहुत था!
"यही इलाका है?" बोला वो,
"हां!" बोला चेला,
"यहीं मरे?" बोला वो,
"हां!" कहा उसने,
"टोला लगाओ!" कहा उसने,
"आगे?' बोला वो,
"हां, झील किनारे!" बोला वो,
"अच्छा!" कहा उसने,
रात करीब ग्यारह बजे, सरभंग ने, जोड़ लगाई! और फेंकी देख! ये देख लगाने के लिए, किसी औरत को साथ रखते हैं, वो ही बताती जाती है सारा हाल! तो ऐसी औरत थी उनमे, नाम था मुन्नी!
"मुन्नी?" बोला नरसू,
"हाम!" बोली वो,
"शाही सवारी होनी है!" बोला वो,
"हाम!" बोली वो,
और तब बाबा ने, जोड़ लगा, बिठा दिया एक भंगू सर पर उसके! इसकी भंगू-चटोरा बोलते हैं! ये रक्त-पिपासु होता है! औरत की माहवारी का रक्त पी, बलवान होता जाता है!
"ओ भंगू?" बोला बाबा,
"हायो?" आयी मर्द की आवाज़,
"जा दौड़?" बोला बाबा,
"ना!" बोला वो,
"ना?'' बाबा ने हैरानी से पूछा!
''हायो!" बोला वो,
"क्या बात है?" पूछा उसने,
"दक्खन बंधा, पूरब बंधा! बंधा बाटों-बाट!" बोला वो,
"उत्तर जा, पच्छम जा, तोड़ै हाथोंहाथ!" बोला वो,
"लुगाई बिसानवी, रोके कर के लात!" बोली वो,
"अग्गल बन, खुश जा, जा निकाल बात!" बोला वो,
"ना!" बोली वो,
"अब भी न?" पूछा उसने.
"हायो!" बोला वो,
"बस कि नहीं?" पूछा बाबा ने,
"नाहीं!" बोला वो,
"जा फिर?" बोला वो,
''हायो!" बोला वो,
और मुन्नी ने खाया झटका, आंखें खोल दीं!
"ये क्या?" बोला चेला,
"ताक़त है!" बोला वो,
"कैसी?" पूछा उसने,
"बंधवा!" बोला वो,
''तो?" पूछा उसने,
"नरसू नाम है मेरा!" बोला वो,
"हाम!" बोली वो औरत तभी!
अब वे दोनों उस औरत को देखने लगे गौर से! कुछ किया तो था नहीं, हुंकारी कैसी भरी?
"कौन?" बोला बाबा,
"हाम!" बोली वो,
"कौन?" बोला वो,
"आजक!" बोली वो,
बाबा की त्यौरियों में झट से ही बल पड़े! ये कौन आजक? किसका? किसकी हिमाक़त? कौन है ऐसा धींगरा?
"क्या नाम है तेरा?" बोला नरसू,
"धंग!" आयी आवाज़,
"किसका आजक?" बोला वो,
"अन्धो माँ!" बोली वो,
"कौन अन्धो?" पूछा उसने,
"माँ" बोली वो,
"माँ?" बोला वो,
"हां, माँ अन्धो!" बोली वो,
"कोई देवी? देवी झुकूं तब!" बोला हाथ जोड़ते हुए,
"हां!" बोली वो,
"कौन देवी?" बोला वो,
"अन्धो माँ!" बोली वो,
"मुझे जानता है?" बोला वो,
"हां!" कहा उसने!
"कौन?" पूछा उसने,
"नरसिंह!" बोला वो,
"अब नरसू!" बोला वो,
"हां, ये मुन्नी, वो हन्ना और वो, कायसू!" बोली वो,
"वाह!" बोला वो,
"जाओ!" बोली वो,
"कहां?" पूछा उसने,
"यहां से" बोली वो,
"कहां जाऊं?" पूछा उसने,
"कहां जाएगा?" बोली वो,
"कहां भेजेगी?" बोला वो,
''जहां तू बोल?" बोली वो,
"तो अन्धो है?" बोला वो,
"अन्धो माँ, जय!" बोली वो,
''अच्छा! समझ गया!" बोला वो,
"कोई प्यासी है? हा! हा! हा! हा!" बोला नरसू!
"जा!" बोली वो,
"तेरे कहने से?" बोला वो,
"हां!" बोली वो,
"ये देख!" बोला वो, और अपनी धोती हटा अपना लिंग दिखा दिया उसे! धृष्टता से, लिंग हाथ में ले, उसे दिखाता रहा!
"ना जाए?" बोली वो,
"ना!" बोला वो,
"जो जाए?" बोली वो,
"तुझे ** के!" बोला वो,
"जा?" बोली वो,
"***?" बोला नरसू!
"लौट जा नरसू!" बोली वो,
"नहीं जाऊं!" बोला वो,
और पेशाब करने लगा उस औरत पर! उसके हर अंग पर पेशाब करने लगा, हंस हंस कर!
"दया करूं?" बोला वो,
"जा!" बोली वो,
"बोल?" कहा उसने,
और फिर से लिंग हाथ में, एक मंत्र पढ़ा!
"फू!" बोला वो,
और! कुछ न हुआ!
वो औरत हंसी! और खड़ी हो गयी!
"तेरी विद्या का मान न रखा होता, तो तेरे टुकड़े कर देती!" बोली वो,
"तू?" बोला वो,
"हां!" बोली वो,
"तू ठहरी ** कहीं की! किसकी?" बोला वो,
"लौट जा नरसू!" बोली वो,
अब तक, वे सभी वहीं आ गए थे, नीच लोग, हंसी-ठट्ठे कर रहे थे! सब के सब नंगे हो, उस औरत को फब्तियां कैसे जा रहे थे! मुन्नी, बस उस नरसू को देख रही थी, बार बार चेतावनी भी दे रही थी!
"बाबा?" बोला एक चेला!
"बोल!" बोला वो,
"भांज दे साली हरगोई को!" बोला वो,
''रुक जा! देखने दे!" बोला वो,
"देखो!" बोला वो,
अब नरसू बैठा, झोला निकाल लिया एक बोरे से, और उस झोले में से निकाली दो बड़ी सी हड्डियां! हड्डियां आपस में रगड़, बजाने लगा!
"तेरी ** देख अब!" बोला वो,
औरत जम कर हंसी!
"बचे बस एक ये!" बोली अपने मुंह पर हाथ फेर!
"ठहर?" आयी एक आवाज़,
नरसू ने देखा पीछे!
"सामने आ?" बोला वो,
"जा नरसू!" आयी आवाज़,
"इसका यार है!" बोला नरसू!
और सभी ठिठोली मार हंसने लगे!
"तूने जाना नहीं?" बोली वो औरत,
"क्या रे ** की **?" बोला वो,
"कौन यहां?" बोली वो,
"हां! जाना!" बोला वो,
"तो लौट जा!" बोला वो,
"ऐसे नहीं लौटूंगा!" बोला वो,
"लौट जा!" बोली वो,
"लौट जा नरसू! सलामती चाहता हो तो!" बोली वो,
"सलामती?" बोला वो,
"हां ...सलामती!" बोली वो,
"अच्छा?" बोला वो,
"जा!" बोली वो,
"कहा न? ऐसे नहीं जाऊंगा?" बोला वो,
"जा! नरसू! जा!" बोली वो,
"धन है? माल?" उंगली नचाते हुए बोला वो,
"है!" बोली वो,
"तो ला?" बोला वो,
''तेरा नहीं है!" बोली वो,
"तो?" बोला वो,
"तेरा नहीं है!" बोली वो,
"तो तेरे यार का है?" बोला ठहाका मारते हुए!
"माँ अन्धो का!" बोली वो,
"अन्धो गयी भाड़ में!" बोला वो,
"अब वक़्त कम है नरसू!" बोली वो,
"वक़्त कम है?" बोला वो,
"हां!" बोली वो,
"किसमें?" बोला वो,
"मैं देखती हूँ, कि तेरा सर चार टुकड़े हो गया, वो सामने के दो, आधे हो जाएंगे, बचेगा कोई नहीं!" बोली वो,
"और मारेगा कौन?" बोला वो,
"बेटा!" बोली वो,
"बेटा?" बोला वो,
"हां!" कहा उसने,
"कहां है बेटा?" बोला वो,
"यहीं है, देख रहा है!" बोली वो,
"कौन देख रहा है? बताएगी नहीं?" बोला वो,
"तू इस योग्य नहीं!" बोली वो,
"ओहो! तो कौन?" बोला वो,
"नरसू!" बोली वो,
"बोल **? बोला वो,
"बस!" कहा उसने,
"सुन **! धन दे, मैं चला!" बोला वो,
"धन तेरा नहीं!" बोली वो,
"जिसका भी हो, ला दे!" बोला वो,
"आदेश नहीं!" बोली वो,
"किसका आदेश?" बोला वो,
"बेटे का!" बोली वो,
"बेटा ज़िंदा है?' बोला मज़ाक़ उड़ाते हुए,
"हमेशा!" बोली वो,
''अच्छा?" बोला वो,
"हां!" बोली वो,
"सुन? अब और खेल नहीं? समझी?" बोला वो,
"जा नरसू!" बोली वो,
"नहीं जाऊंगा!" बोला वो,
"तो मरेगा!" बोली वो,
"बकवास?" बोला वो,
"बस नरसू!" बोली वो,
और तभी, उनके चेले में से एक ने चीख मारी! पेट में छेद खुल गया था! मांस के लोथड़े टूट टूट के बाहर आने लगे! वो आदमी, दौड़ा, और जंगल में चला गया भागते भागते! उसकी चीखें कुछ देर तक गूंजी और फिर शांत!
भक्क!
अलख शांत हो गयी! वे सब, इकट्ठे हो गए! ये क्या हुआ था? किसने मारा उसे? अब तो सच में ज़मीन और पांवों के बीच में, पसीना आ गया था!
"ए?" चीखा वो,
वो औरत हंसने लगी!
"कौन था? किसने मारा?" बोली वो,
"अभी भी वक़्त है!" बोली वो,
"सच बता? कौन है तू?" बोला वो,
"आजक!" बोली वो,
"सोहु?" बोला वो,
"आदेश?" बोला सोहु!
"ला?" बोला वो,
''अभी लाया!" बोला वो,
और दौड़ा उस झोले की तरफ!
दिया कुछ उसने उसे, और नरसू ने पढ़ा वो, पढ़ते ही, एक ज़ोर का प्रहार किया उस औरत पर!
"बता?" चीखा वो,
औरत हंसे!
"बता?" बोला एक और मारते हुए,
औरत फिर हंसे!
"बता?" चीखा वो,
और अब फिर से मंत्र पढ़ा, ज़ोर ज़ोर से! और छुआ दिया हाथ उस औरत को! औरत पीछे घिसड़ चली! बाबा भागा उधर! और दिया एक और वार! औरत फिर से पीछे घिसड़ चली!
"मुझे डराएगी?' चीखा वो!
और दी एक लात जमा कर उसके मुंह पर! आंख में लगी और आंख से खून बहने लगा!
"लौट जा!" बोली फिर से,
अब तो बाबा टूट पड़ा उस औरत पर!
"जा?" चीखी वो!
और बाबा, नहीं माने! लात, घूंसे और वो डंडा सा, पीटे जा उस औरत को, पीटे जाए उस मुन्नी को!
और तब बाबा ने, अपने बाएं हाथ पर थूका, थूक कर फिर मंत्र पढ़ा! और खींच के दिया उसके सर पर वही हाथ! हाथ पड़ते ही वो औरत, पछाड़ सा खा गयी पीछे! गिर गयी, पेट फूल आया और अचानक से नीचे हो गया! अब बाबा ने हिला कर देखा उसे, वो बेहोश हो गयी थी!
"नरसू से बैर?" बोला वो,
"आदेश!" बोले चेले,
"नरसू से बैर?" बोला गुस्से में,
"आदेश!" चिल्लाये वे सरभंग सभी!
"यहां बुलाकी हुक्का भरता है!" बोला वो,
"जो आदेश!" बोले सभी,
"सुनो?" बोला वो,
"आदेश?" बोले सभी,
"मैं अब दबा, उखाड़ता हूं!" बोला वो,
और पढ़ा मंत्र उसने, मंत्र पढ़ते ही उनके पीछे की ज़मीन उठी, और निकली वही संदूकची बाहर!
"उठाओ?" बोला वो,
दौड़ते हुए, दो ने, वो संदूकची उठा ली,
"खोलो?" बोला वो,
संदूकची खोली गयी!
"प्याला?" बोला एक,
"इसे तोड़ दो?" बोला वो,
मारा ज़मीन पर फेंक कर!
"टूटा?" बोला वो,
"नहीं!" बोले दोनों,
"यहां लाओ?" बोला वो,
ले आये वे,
"यहां रख दो!" बोला वो,
रख दिया गया,
"पीछे हट जाओ!" बोला वो,
वे पीछे हटे, पढ़ा मंत्र उसने और फूंक मारा उस प्याले पर! प्याला कांपा और ढक्क्न, ढक्क से खुल और उड़ गया हवा में!
"उठाओ?" बोला वो,
दो आये, उठाया,
"देखो क्या है?" बोला वो,
निकाला सामान बाहर! गिना!
"कुल सोलह?" बोले वो,
"बस?'' बोला वो,
"हां!" कहा एक ने,
"ला?'' बोला वो,
एक ले चला, दिए हाथ में!
"अब ये बताएंगे!" बोला वो,
तभी वो औरत भड़भड़ा के उठी!
"नहीं नरसू!" बोली वो,
''जाग गयी?" बोला वो,
"भाग नरसू!" बोली वो,
"क्यों?" बोला वो,
"आ रहे हैं!" बोला वो,
"कौन?" पूछा उसने,
"भाग नरसू!" बोली वो,
"हट?" बोला वो,
"भाग ले?" चीखी वो,
"चुप कर?" बोला वो,
''भाग जा?" बोली वो,
"नहीं मानेगी?" बोला वो,
"जा?" बोली वो,
"नहीं!" बोला वो,
"जा?" बोली वो,
"सोहु?" बोला वो,
"आदेश?" बोला वो,
"घुसेड़ दे ये इसके *** में!" बोला वो,
और फेंक दिया सामने एक खंजर!
"आदेश!" बोला वो,
और उठा लिया खंजर!
"नरसू?" बोली वो,
''बोल?" बोला वो,
"नहीं बचेगा अब!" बोली वो,
"अच्छा!" कहा उसने,
और वो सोलह सिक्के सामने बिखेर दिए!
"ए देख?" बोला वो,
"जा नरसू!" बोला वो,
"क्या जा जा?" बोला वो,
"नरसू? जा?" बोली वो,
"ऐसे नहीं मानेगी तू?" बोला वो,
और आगे चला!
''सोहु?" बोला गुर्रा कर बाबा!
"आदेश?" बोला वो,
'ला?" बोला वो,
खंजर उछाल दिया! और जैसे ही उछाला! कि उसमे आग लगी! आग लगते ही वो खंजर, ऊपर उड़ने लगा! उड़ते उड़ते गायब हो गया!
सारे चेले उसे ही देखते रहे!
"नरसू!" बोली वो,
नरसू ने उस औरत को देखा!
भक्क! भक्क से आग लग गयी उस औरत में! और तभी...........!
उस औरत में आग लगी, और उधर सभी चेले आपस में जुड़ गए! कभी न देखा था ऐसा दृश्य तो उन्होंने! उस औरत से नीली, पीली लपटें उठती जाएँ और वो हंसती जाए! तभी बाबा ने ज़मीन से मिट्टी उठायी, मंत्र फूंका और फेंक मारी उस औरत पर! लेकिन! कुछ न हुआ!
"नरसू!" बोली वो औरत,
थाप बदली उस नरसू ने और फिर से मिट्टी अपने पांव से उठा, अपने हाथ में ली, और फिर से चिल्लाते हुए मंत्र फूंका! लेकिन! अब भी कुछ न हुआ!
"नरसू! आ गया अंत!" बोली वो हंसते हुए!
"खामोश!" चीखा वो नरसू!
वो औरत फिर से तेज हंसी!
"नरसू! आ गया वो!" बोली वो,
"कौन आ गया?" पूछा उसने,
"बेटा!" बोली वो,
"किसका बेटा हराम की **?" बोला वो चीख कर!
''अन्धो माँ का बेटा!" बोली वो,
"बुला? बुला उसे?" बोला वो,
"आ गया!" बोली वो,
"कौन है? कौन है उसका बेटा?" चीख कर पूछा उसने,
और अपने हाथ में, एक लोहे का फरसा उठा लिया, लकड़ी का अजीब सा बेंटा लगा था उसमे, वो अर्धचन्द्राकार सा था!
चीखते हुए वो चल पड़ा आगे, बाहगते हुए, जैसे एक ही वार में उस औरत का सर वो उसके धड़ से उतार देगा!
"मल्लोह की तूती बाजै! बुलाकी मसान बेड़ियां साझै!" बोला वो, उठाया फरसा! और बढ़ता गया आगे!
"आ गया नरसू! आ गया उसका बेटा!" बोली वो,!
"हरामज़ादी? नाम भौंक? बता?" बोली वो,
"कोटाल!" बोला वो,
मित्रगण!
अगले ही पल, बाबा के फरसे में भक्क से आग लगी! छोड़ दिया उसने फरसा नीचे! उस औरत की आगे से, गोले फूट पड़े! ये नौ थे और वे नौ के नौ, बड़े बड़े भीमकाय से, पुरुषों जैसे लगने लगे! ज़ोर का अट्हास हुआ!
वे सब के सब, बाबा नरसू समेत. काठ के पुतले बन गए! और यकायक, आग दहक उठी उनमें! वे, न हिल सके, न चिल्ला सके, न कोई हरकत ही कर सके! नरसू की विद्याएं भी जैसे उसके लिए ही, विपरीत ईंधन सा बन जलने लगे!
और फिर एक ज़ोर की गर्जना गूंजी! वे नौ के नौ विशाला पुरुष, झक्क से गायब हो गए!
"नरसू! तुझे बहुत समझाया! चेताया! तुझे समझ नहीं आयी! हां! मैं ही हूं कोटाल! अन्धो माँ का बेटा! अपनी अन्धो माँ का बेटा! मेरी माँ, यहीं है! मैं रक्षक हूं उसका!" और फिर अट्हास हुआ!
अब जैसे ही अट्हास बंद हुआ, उन चेलों के, नरसू के शरीर के साथ ही, काठ से बने, चिर-चिर का हवा में पतंगों के समान उड़ चले! अंत हो गया नरसू और उसके टोले का! पल भर में ही विद्याएं साथ छोड़ चलीं! वर्षो से इकट्ठा किया बल, पल में, ही जल की भांति बह चला!
और वो औरत, उसकी आग पल भर में ही शांत हो गयी! वो क़तई न जली! उसकी आंखें खुलीं हो जैसे, हवा में जलने की दुर्गंध फैली थी! उसे कुछ याद न था, उसने तो अपने होश संभालते हुए, दौड़ लगा दी वहां से!
इसके बाद, महीना और बीत गया! न बाबा कोई कोई पता चला, न उसके टोले का ही! जहां बोल कर आया था, वहां से भी कोई नहीं आया, उस स्थान पर कोई भयंकर और भयानक ही शक्ति है, अब जनमानस में, जहां-तहां, भले ही छिप-छिपाकर हो रही हों, लेकिन ज़ोर पकड़ चुकी थीं!
और इसी बीच मेरा आना हुआ उधर, मैं नहीं जानता था कि हुआ क्या था, लेकिन जो कुछ भी सुना, बड़ा ही हौलनाक था!
उस रात एक प्रधान जी मेरे साथ बैठे थे, मैं उस जगह से करीब पचास किलोमीटर पूर्व में था!
"क्या माज़रा है ये?" पूछा मैंने,
"पता नहीं जी!" बोले वो,
"कुछ खतरनाक ही लगता है!" कहा मैंने,
"बेहद!" बोले वो,
"कहां की घटना है?" पूछा मैंने,
"है तो यहां से दूर!" बोले वो,
"सच है?'' पूछा मैंने,
"हां!" बोले वो,
"सही में?" पूछा मैंने,
"जिसने बताया वो खुद जानकार है!" बोला वो,
"आपका?" पूछा मैंने,
"विद्या का!" बोला वो,
"उसने देखा?" पूछा मैंने,
"महसूस किया!" बोला वो,
"कहां है वो?" पूछा मैंने,
"यही होगा?'' बोले वो,
"कौन है?" पूछा मैंने,
"कुम्हार है!" बोला वो,
"वो क्या करने गया था?'' पूछा मैंने,
"जांचने!" बोला वो,
"जांचने? क्या?'' पूछा मैंने,
"कि कुछ है भी या नहीं?" बोला वो,
"तो क्या पाया?" पूछा मैंने,
"है!" बोला वो,
"तब?" कहा मैंने,
"फिर गया या नहीं, पता नहीं!" बोला वो,
"डर गया होगा!" कहा मैंने,
"हो सकता है!" बोला वो,
"मुझे दिखाओ?" कहा मैंने,
"वो जगह?" बोला वो,
"हां?" कहा मैंने,
"अजी क्या फायदा!" बोला वो,
"क्यों?" कहा मैंने,
"आजकल माहौल गरम है!" बता उसने,
"फिर?" पूछा मैंने,
"कभी बाद में!" बोला वो,
"देखूं तो सही?" कहा मैंने,
"देख लेना?" बोला वो,
तभी शहरयार जी आ गए उधर, उन्हें ये कहानी पता तो थी लेकिन कम ही, मैंने उन्हें सब बताया!
"कोटाल?" बोले वो,
"हां!" बोला मैं,
"ये क्या है?" बोले वो,
"ये एक प्रकार का वेताल है! अंधेरिया वेताल! अंधेरे में विशेष प्रभावी रहता है! ये रक्षण कार्य तो नहीं करता और न ही इसका कोई एक ही वास होता, यहां क्यों है, ये समझ से बाहर है!" कहा मैंने,
"कुछ और तो नहीं?" बोले वो,
"पता नहीं!" कहा मैंने,
"बिना जांचे पता न चले?" बोले वो,
"हां!" कहा मैंने,
"ओ रौशन?" बोले प्रधान!
"हां जी?" आयी एक आवाज़,
"अरे क्या हो गया?" बोला वो,
"लाया बस!" बोला वो,
"क्या मिला?" पूछा मैंने,
"व्हाइटहॉल!" बोले शहरयार!
"अबे!" कहा मैंने,
"और कुछ बढ़िया नहीं!" बोले वो,
"चलो ठीक!" कहा मैंने,
"साथ में अपने स्टाइल का भुना काकड़ ले आया हूं!" बोले वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"हां, छोटा!" बोले वो,
"ये अच्छा किया!" कहा मैंने,
रौशन ले आया सामान डालकर! रख दिया वहीं, पाने में बर्फ डाल लाया था! साथ में एक बड़े बर्तन में, चटनी, प्याज मूली और नीम्बू भी!
"दूसरा भी ले आ?" कहा उन्होंने उस से,
"वो भी? अभी?" बोला रौशन,
"और क्या बाद में?" बोले वो,
"लाया!" बोला वो और लौटा!
मैंने प्याज का लच्छा लिया, चटनी से लगाया, नीम्बू निचोड़ा, प्याज को भिगोया और चबा गया! तीखा स्वाद था, मजा आ गया!
"दूसरा क्या लाये?" बोला मैं,
"काकड़ ही है!" बोले वो,
"वो अलग है?" पूछा मैंने,
"ग्रेवी में है!" बोले वो,
और जेब से सिगरेट निकाल कर रख दी बाहर!
"सतीश?" कहा मैंने,
''जी?" बोला प्रधान,
"उस कुम्हार को बुलाओगे?" पूछा मैंने,
"क्यों नहीं!" बोला वो,
"कहीं धुत्त न पड़ा हो!" कहा मैंने,
"एक हाथ टूट गया है उसका! घर पर ही होगा!" बोला प्रधान!
"बुलाओ?" कहा मैंने,
"अरे ओ? ओ? ** के?" बोला प्रधान एक लड़के से,
"जी?" बोला वो,
"बद्री को ले आ ज़रा?'' बोला वो,
"वो?" बोला वो,
"हां, ले आ!" बोला वो,
"अभी लाता हूं!" बोला वो, और चला गया लेने!
इधर रौशन बर्तन भर लाया उस ग्रेवी वाले माल से!
"दिखने में तो बढ़िया है!" कहा मैंने,
"खाओ! फिर बताओ!" बोले वो,
मैंने चख कर देखा उसे, वाक़ई में बढ़िया बनवाया था शहरयार साहब ने! अदरक के खड़े कतीरे कटवा कर डाले गए थे! मजा आ गया था! काकड़ के मांस में, कभी मसाला नहीं जगह बना पता, इसीलिए उसको छेद दिया जाता है या फिर मॅरिनेट करके रखा जाता है! यहां छेद दिया गया था, स्वाद बेहद ही बढ़िया था!
"एक बात बताइये?" बोले शहरयार,
"पूछो?" कहा मैंने,
"ये कोटाल है क्या?" पूछा उन्होंने,
"ये एक वेताल ही मानिये आप! इसको वेताल-प्रहरी, सहयोगी कहा जाता है! ये श्मशान-वासी नहीं है! जहां वेताल सेमल के वृक्ष पर ही प्रकट होता है, ये कोटाल, गौलुष-वृक्ष पर प्रकट होता है!" कहा मैंने,
"ये कौन सा पेड़ है?" बोले वो,
"आषाढ़ी गोला-जामुन या गोल-जामुन या जामुना या जमुनाई के वृक्ष पर!" कहा मैंने,
"अब ये कैसे पहचान हो?" बोले वो,
"ये वृक्ष, अन्य जामुन के वृक्षों की चांदी जैसी छाल का न होकर, काली, खुरदुरी छाल का होता है!" बोला मैं,
"और फल?" बोले वो,
"फल समान ही होते हैं!" कहा मैंने,
"कोई फ़र्क़?" बोले वो,
"जहां जामुन बंद होता है, ये कुछ ही दिनों तक के लिए फल देता है!" कहा मैंने,
"वेताल और कोटाल, क्या आपस में टकरा सकते हैं?" बोले वो,
"कदापि नहीं!" कहा मैंने,
"इनकी संख्या?" बोले वो,
"ज्ञात नहीं!" कहा मैंने,
"ज्ञात ही नहीं?" बोले वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
"तब क्या सिद्ध होता है या प्रसन्न?" बोले वो,
"प्रसन्न!" कहा मैंने,
"टेढ़ी खीर!" बोले वो,
"बिलकुल!" कहा मैंने,
"तो ये यहां कैसे?" बोले वो,
"अब क्या पता कोटाल भी है या नहीं?" कहा मैंने,
"उस औरत ने तो यही बताया था?' बोले वो,
"अजीब सी बात है?" कहा मैंने,
"क्या?" बोले वो,
"जब मुनी होश में ही नहीं थी, तब कैसे ज्ञात उसे?" बोला मैं,
"हां?" बोले वो,
"इसका मतलब कहानी कुछ और भी है!" कहा मैंने,
"क्या?" बोले वो,
"देखेंगे!" कहा मैंने,
"क्या क्या है इस संसार में!" बोले वो,
"जितना जानो, उतना कम!" कहा मैंने,
"राम राम जी!" बोला बद्री, आ गया था!
"आ बद्री, बैठ!" बोला प्रधान!
वो स्टूल पर बैठ गया!
परिचय हुआ हमारा!
"बद्री?" कहा मैंने,
"जी?" बोला वो,
"गए थे वहां?" पूछा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"क्या है?" पूछा मैंने,
"जी मेरे पास एक खग्गल है!" बोला वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"उसने ही बताया!" बोला वो,
"क्या?" पूछा मैंने,
"कि कोई बहुत बड़ी चीज़ है उधर!" बोला वो,
"कुछ महसूस किया?'' पूछा मैंने,
"हां जी!" बोला वो,
"क्या?'' पूछा मैंने,
"वहां तो जैसे भग्गी मची है!" बोला वो,
"भग्गी?" कहा मैंने,
"हां जी!" बोला वो,
"मतलब बहुत हैं!" कहा मैंने,
"बहोत!" बोला वो,
"कोई देखा?" पूछा मैंने,
"खग्गल ने मना किया!" बोला वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"फिर नहीं गया!" बोला वो,
"कोई और?" पूछा मैंने,
सर हिलाया उसने ना में, कई बार!
"नहीं जी, जो गया हो, सो पता नहीं!" बोला वो,
"ठीक समझ गया! अच्छा, कल वो जगह दिखा दोगे?" पूछा मैंने,
"हां जी!" बोला वो,
"तो कल दस बजे?" बोला मैं,
"दस तो नहीं जी, कल पट्टी खुलेगी, बारह बजे?" बोला वो,
"बारह ठीक!" कहा मैंने,
"ठीक है!" बोला प्रधान!
"बद्री?" बोले शहरयार जी,
"जी?" बोला वो,
"शादी हो गयी?" पूछा उन्होंने,
"हां!" बोला वो,
"अच्छा, खुछ खाता-पीता है?" पूछा उन्होंने,
"हां जी!" बोला वो,
"सतीश? एक गिलास मंगवा?" बोले वो,
"अभी लो!" बोला वो,
आवाज़ दी, लड़का आया और गिलास दे दिया, शहरयार जी ने, एक बड़ा सा 'हथगोला' पैग उसे दे दिया! बद्री की तो बचें ही खिल गयीं! उसने गिलास ले लिया!
"ले? ये ले?" बोले वो प्लेट आगे करते हुए,
बेचारा, संकोच खा गया! और हाथ कर दिया अलग!
"उठा?" बोले वो,
"ठीक है जी!" बोला वो,
"अरे उठा भाई?" बोले वो,
और उसका हाथ पकड़, एक बड़ा सा टुकड़ा उसे दे दिया! बद्री, खुश हो गया था बहुत!
"वैसे बद्री?" कहा मैंने,
"जी?" बोला वो,
"सुना है वहां माल दबा है?" पूछा मैंने,
"सुना मैंने भी!" बोला वो,
"क्या है?" पूछा मैंने,
"गुरु जी?" बोला प्रधान,
"हां?" कहा मैंने,
"ऐसा है, ये जगह जो है, ये अब खंडहर है, पहले चलती थी बहुत, लूट-खसोट भी बहुत हुई, तो माल यहां दबा दिया करते थे!" बोला वो,
"सो ही कोई ताक़त बैठ गयी जी उस पर!" बोला बद्री!
"ताक़त बिठाई जाती है, बैठती नहीं!" कहा मैंने,
"हो सकै है!" बोला वो,
"ये खग्गल किसने दिया?" पूछा मैंने,
"एक अघोरी बाबा ने!" बोला वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"सेवकाई की जी!" बोला वो,
"समझ गया!" कहा मैंने,
"कुछ कमा के देवे है?" बोले शहरयार!
"अजी कहां!" बोला वो,
"क्यों?" पूछा मैंने,
"बेकार है!" बोला वो,
"कैसे?" पूछा मैंने,
"मांगै बहुत, देवै कम!" बोला वो,
"एक बात कहूं?" बोला मैं,
"जी?" बोला वो,
"इसकी बना पिंडी!" कहा मैंने,
"फिर?" बोला वो,
"बिठा दे, खींच कर!" कहा मैंने,
"अच्छा!" बोला वो,
"नाम-पता कढ़वा फिर!" कहा मैंने,
"ये हुई न बात!" बोला वो,
और गिलास औंध गया पूरा एक साथ ही! बाएं हाथ से ही मुंह भी पोंछ लिया!
"सुना है बहुत मरे?" पूछा मैंने,
"हां जी!" बोला वो,
"तो पहले भी मरते होंगे?" कहा मैंने,
"देखो जी!" बोला वो,
"हां!" कहा मैंने,
"पहले के लोगों में थी नमाई!" बोला वो,
"सो तो थी!" कहा मैंने,
"चेतावनी मिली, लौट गए!" बोला वो,
"हां!" कहा मैंने,
"और अब?" बोला वो,
"डटे रहते हैं!" कहा मैंने,
"अब मरेंगे कि न?" बोला वो,
"फिर बहन** - भी करे हैं!" बोले शहरयार!
"बिलकुल!" बोला वो,
"सही कहा आपने!" कहा मैंने,
"अब मरेंगे तो अपने आप?" बोले वो,
"सो तो है ही! इसीलिए तो मरते हैं!" कहा मैंने,
"नया ज़माना है! लोग तब तक यक़ीन नहीं करते जब तक सर पर ही न पड़े उनके!" बोले वो,
मैंने अपना गिलास ख़तम किया, ग्रेवी ली और खायी! साथ में प्याज और वो मूली! चटनी के साथ तो ज़बरदस्त ही था ये मेल!
"ये सही कही जी आपने!" बोला बद्री!
"अब यहां यही होगा!" कहा मैंने,
"बिलकुल!" बोले वो,
"अब जाएं तो देखें!" कहा मैंने,
"और साहब, जो है पता चले!" बोले वो,
"और क्या!" कहा मैंने,
"और रही खजाने की बात?" बोले वो,
"हूं?" कहा मैंने,
"फक्कड़ के हाथ लगै खजाना, सो खुद मरे जा जाए थाना!" बोले वो,
हंस पड़े हम सभी ये बात सुन!
"तो हमें तो खजाना चाहिए ना!" बोले वो,
"क्या ज़रूरत?" बोला मैं,
"और क्या!" बोले वो,
"नरसू की सुनी?" बोला मैं,
"हां!" बोले वो,
"बताओ!" कहा मैंने,
"गया न जान से?" बोले वो,
"और क्या?" पूछा मैंने,
"अबे जब तेरी विद्या कट रही है, तो सीना थामे, चौड़ाई क्यों खड़ा है?' बोले वो,
"ये ही तो नहीं समझ आयी उसे!" कहा मैंने,
"मरने दो!" बोले वो,
"बद्री?" बोले वो,
"जी?" बोला वो,
"तो कल मिलते हैं!" कहा मैंने,
"जी ठीक!" बोला वो,
और चला गया बाहर!
हमने भी खाया-पिया और उसके बाद कुछ और बातें भी हुईं! जिस काम से आये थे सो निबटा ही लिया था!
"ये भी देख लें!" बोले वो,
"नज़र भर लेते हैं!" कहा मैंने,
"ठीक!" बोले वो,
अगले दिन करीब बारह बजे....
"आया नहीं?" पूछा मैंने,
"आ रहा होगा!" बोला प्रधान!
"चलो!" कहा मैंने,
करीब एक बजे वो आया!
"बड़ी देर कर दी?" पूछा मैंने,
"मरीज़ बहुत थे!" बोला वो,
"चल बैठ!" कहा मैंने,
"चलो जी!" बोला वो,
हम बैठ गए एक कार में, और चल पड़े वहां के लिए! रास्ता बड़ा ही अजीब सा था, कहीं कहीं तो बेहद ही बीहड़ और कहीं कहीं कुछ बसावट सी!
"बद्री?" बोला मैं,
"हां जी?" बोला वो,
"अकेला ही गया था?" पूछा मैंने,
"जी" बोला वो,
"बड़ी हिम्मत की!" कहा मैंने,
"सोचा देख आऊं!" बोला वो,
"ठीक किया!" कहा मैंने,
बातें करते रहे और फिर एक जगह उसने रुकने को कहा, गाड़ी रुकी और हमने आसपास देख, थोड़ा अंदर लगा दी गाड़ी!
"जंगल है!" बोले शहरयार!
"हां!" कहा मैंने,
"यहां तो वैसे ही मर ले आदमी!" बोले वो,
"भ्रम से ही डरे!" कहा मैंने,
"आओ जी!" बोला वो,
"चल!" कहा मैंने,
"प्रधान?" बोले शहरयार,
"इन्हें यहीं रहने दो!" कहा मैंने,
यहां एक कच्चा सा रास्ता था, कहीं संकरा और कहीं चौड़ा सा, कहीं ऊंचा और कहीं नीचे!
फिर कुछ खंडहर से!
''ऐसे खंडहर हैं यहां!" बोला बद्री,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"अभी अंदर कितना?" पूछा मैंने,
"बस थोड़ा ही आगे और...." बोला वो,
एक बात थी, उमस नहीं थी यहां, और कोई कूड़ा-करकट भी नहीं! पेड़ अच्छे खासे लम्बे थे, जंगली पेड़, कीकर तो बहुतायत से थी वहां! कुछ अंग्रेजी कीकर और कुछ देसी वाली! तंत्र, दवा आदि में मात्र देसी वाली ही प्रयोग होती हे, अंग्रेजी वाली नहीं! पहचान मैं दोनों की बताता ही आया हूं!
"कीकर बहुत है!" बोले वो,
"हां, सड़क किनारे लगाने के ठेके दिए जाते हैं, बीज बिखरते जाते हैं पानी की ज़रूरत बेहद कम इसे, बस, बन जाएगा जंगल!" कहा मैंने,
"अंग्रेजी है?" बोले वो,
"हां!" कहा मैंने,
"ये तो किसी काम की नहीं!" बोले वो,
"हां, बस पेड़ ही मानो!" कहा मैंने,
"बेलें बहुत लगी हैं इधर!" बोले वो,
"ये जयश्री है, सफेद फूल वाली, वो मंगाली और ये, नकली-गुड़मार!" कहा मैंने,
"भाई एक बात है!" बोले वो,
"क्या?" पूछा मैंने,
"वनस्पति की जानकारी बेहद ज़रूरी है!" कहा उन्होंने,
"सो तो है ही!" कहा मैंने,
रुक गया बद्री एक जगह!
हम आ गए उसके पास, खड़े हुए!
"यहां तक ही आया था!" बोला वो,
"अच्छा ठीक!" कहा मैंने,
"या तो लौट जा, चाहे तो, या साथ चल!" बोले वो,
"आप जा रहे हो अंदर?" बोला वो,
"हां!" कहा उन्होंने,
"साथ चलूं?" पूछा उसने,
"तेरी मर्ज़ी है!" कहा उन्होंने,
"या रुक जाऊं?" बोला वो,
"जा, वापिस चला जा, हम आ जाएंगे!" कहा मैंने,
"ठीक!" बोला वो,
वो लौट पड़ा, और हम आगे चल दिए!
"जब भी मन में दुविधा आ जाए, तो कभी न करिये वो काम!" कहा मैंने,
"बिलकुल सही बात है!" बोले वो,
"वैसे ये जगह है तो उजाड़ ही!" बोले वो,
"ये जंगल, कहते हैं ज़िंदा हो उठता है!" कहा मैंने,
"बिलकुल होगा!" बोले वो,
"वो कुछ है क्या?" पूछा मैंने,
"ये?" बोले वो,
"नहीं वहां?" कहा मैंने,
"नहीं, कोई चिलकनी सी है!" बोले वो,
"चलो आगे आओ!" कहा मैंने,
हम आगे चल पड़े, और एक जगह, अच्छी सी जगह थी, टूटे हुए खंडहर थे, जंगली झाड़ियां लगी थीं, कुछ गेंदे के फूल भी लगे थे, इन फूलों में मेरा ध्यान खींचा बरबस ही!
"सुनो?" कहा मैंने,
"क्या?" बोले वो,
"ये फूल देखते हो?" बोला मैं,
"हां!" कहा उन्होंने,
"क्या है?" पूछा मैंने,
"गेंदे के फूल हैं!" बोले वो,
"बस?" पूछा मैंने,
"हां?" कहा उन्होंने,
"और कुछ?" पूछा मैंने,
"कुछ नहीं?" बोले वो,
"यार?" कहा मैंने,
''हां?" बोले वो,
"इस घने जंगल में, यहां खंडहरों में, इस बीयाबान में, जहां कोई मंदिर नहीं, कोई दरगाह नहीं, कोई पूज्य-स्थल नहीं, ये फूल कैसे आये?" पूछा मैंने,
"अरे हां?" बोले वो,
"चलो, मान सकते हैं, कि लोग ही ले आये होंगे!" कहा मैंने,
"कैसे लाये होंगे?'' बोले वो,
"क्यों?" पूछा मैंने,
"यहां तो एय्याशी करने आते हैं लोग! पूजा करने कौन आएगा?" बोले वो,
"मान लो कि, नरसू जैसा कोई लाया हो?" कहा मैंने,
"हां, सम्भव है!" बोले वो,
"तो इसका मतलब हम सही जगह हैं?" पूछा मैंने,
"समझ गया!" बोले वो,
"क्या?'' बोला मैं,
"यहां ही आये होंगे!" बोले वो,
"हां!" कहा मैंने,
"तो देखो फिर?" बोले वो,
"अभी!" कहा मैंने,
और मैंने तब, एक चुटकी मिट्टी उठायी, मन ही मन में यहां बस रहे प्रेतगण, या कोई भी महाशक्ति हो, उसको नमन किया! क्योंकि, आया मैं था, उनके क्षेत्र में, वे नहीं आये थे! प्रेत चाहे छोटा हो या बड़ा, अपना अस्तित्व बनाये रखता है! मैंने ये भी कहा कि मैं किसी को भी क्षति पहुंचाने, पकड़ने, भेदने, धन के लालच में यहां नहीं आया हूं! और क्षमा करें यदि मुझ से कोई भी अमुक कार्य उनके विरुद्ध हो ही जाए तो!
तो मैंने उस मिट्टी की चुटकी को पढ़ कर सामने छिड़क दिया! और संधान करने लगा कलुष का! अचानक से गले में कांटे से चुभे! वमन करने का मन हो उठा! मैंने नेत्र खोल दिए, श्वास सामान्य हो गयी! मेरे कलुष का संधान, कट गया था, अर्थात, आज्ञा नहीं मिली थी या, यहां जो भी था, उसके समक्ष कलुष चला ही नहीं!
कलुष नहीं चला! ये तो आनंद का विषय था! ये स्थान तो मेरी कल्पना से भी अधिक शक्तिशाली था! जहां मुझे भयभीत होना चाहिए थे वहीं मैं आनंदित हुआ! मित्रगण! ये घोर सत्ताएं यूं ही कहीं नहीं टकरा जाया करतीं! बड़े से बड़ा तांत्रिक, तंत्रज्ञ इनकी खोज में सदा ही रहा करता है! इसने पार नहीं पायी जा सकती! कारण, हम मनुष्य मात्र पंचभूत से सृजित हैं और इन पंचभूतों की अपनी ही सीमाएं हैं! आप चाह कर भी इनके नियम भंग नहीं कर सकते! मेरा कलुष कट गया, मैं प्रसन्न हो गया!
"कलुष कट गया!" कहा मैंने,
वे तो ऐसे चौंके जैसे आकाश नीचे गिरने को हो!
"क्या??'' बोले वो,
"हां!" कहा मैंने,
"तो ये क्या चेतावनी है?" बोले वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
"फिर?" बोले वो,
"सत्ता-प्रभाव!" कहा मैंने,
"कोई विकट ही सत्ता है!" बोले वो,
"हां! यहां व्याप्त!" कहा मैंने,
"अब?" बोले वो,
"पता तो करना होगा!" कहा मैंने,
"किस से?" बोले वो,
"करते हैं!" कहा मैंने,
"कोई......तो नहीं?'' बोले वो,
"नहीं!" कहा मैंने मुस्कुरा कर!
"आप देखो!" कहा उन्होंने,
"ये फूल देखते हो?" कहा मैंने,
"हां!" बोले वो,
"इनका पुण्डक बड़ा है न?" पूछा मैंने,
"हां!" बोले वो,
"गोल सा, बड़ा सा!" कहा मैंने,
"हां!" बोले वो,
"ये फूल यहां नहीं होता!" कहा मैंने,
"फिर?" बोले वो,
"ये मूलतः पूर्वी भारत में होता है!" कहा मैंने,
"क्या बात है!" बोले वो,
"इसका क्या अर्थ हुआ?'' पूछा मैंने,
"कोई आया होगा?" बोले वो,
"या कोई लाया होगा!" कहा मैंने,
"ये फूल?" बोले वो,
"हां, या और भी बहुत कुछ!" कहा मैंने,
"क्या मतलब?" बोले वो,
"एक बात सोचो! यहां, जो बताया गया, कि कोटाल है! ठीक है! अब कोटाल, स्वच्छंद रहता है, किसी सत्ता से भय नहीं उसे, काबू होता नहीं, सिद्ध कर नहीं सकते और वो, यहां है, क्या समझूं? कैद?" बोला मैं,
"कैद?" बोले वो,
"हां?" कहा मैंने,
"कैद कौन करेगा!" बोले वो,
"तब इसका क्या मतलब हुआ?'' पूछा मैंने,
"क्या ऐसा कोई साधक..........?" बोले वो,
"हां! यही सम्भव है!" कहा मैंने,
"ये तो उलझ गया!" बोले वो,
"हां!" कहा मैंने,
"वही हर रहा है प्राण?" बोले वो,
"उसके सेवक!" कहा मैंने,
"इस निर्दयता से?'' पूछा उन्होंने,
"उदाहरण मात्र!" कहा मैंने,
"यदि कोई साधक है तो बड़ा मुश्किल!" बोले वो,
"स्वाभाविक है!" कहा मैंने,
"यदि कोटाल ही है, तब?" बोले वो,
"तब? क्यों है?" पूछा मैंने,
"अरे एक मिनट?" बोले वो,
"क्या?" पूछा मैंने,
"वो संदूकची?" बोले वो,
"वो प्याला?" कहा मैंने,
"वो सिक्के?'' बोले वो,
"हां!" कहा मैंने,
"मदद मिलेगी!" बोले वो,
"बिलकुल मिलेगी!" कहा मैंने,
"कोई आज्ञा देगा?" पूछा उन्होंने,
"क्यों नहीं!" कहा मैंने,
"कब?" बोले वो,
"अभी देखते हैं!" कहा मैंने,
"ठीक!" बोले वो,
"आओ?" कहा मैंने,
"चलो!" बोले वो,
हम आगे चले गए, कुछ सौ मीटर और एक अजीब सी जगह दिखाई दी! कुछ खटका सा व मुझे!
"ज़रा पीछे चलो?" बोला मैं,
"किधर?" बोले वो,
"उन पत्थरों के पास!" कहा मैंने,
"आओ!" बोले वो,
"हां!" बोला मैं,
और हम दोनों उधर, उन पत्थरों के पास आ गए, अब सामने देखा, मेरा खटका सही था!
