वर्ष २०१४, वो कोटाल...
 
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वर्ष २०१४, वो कोटाल! फ़िरोज़ाबाद! उ.प्र. की एक घटना!

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श्रीशः उपदंडक
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 दो मोटरसाइकिल्स, दौड़े चले जा रही थीं, शहर से थोड़ा दूर, जलेसर रोड़ की तरफ! इन दोनों मोटरसाइकल्स पर, एक पर, धर्मवीर और उसकी प्रेमिका, दूसरी पर, प्रवीण अपनी प्रेमिका के संग चले जा रहे थे! सभी ने मुंह पर बुक्कल मारे थे, गति भी अच्छी-खासी ही थी, प्रवीण का परिवार अच्छा-ख़ासा था और राजनैतिक पकड़ भी रखता था! धर्मवीर एक ऐसा नौजावन था, जिसमे पास सपने तो हज़ार थे, लेकिन साधन नहीं! इस कमी ने जैसे उसमे कुछ सामाजिक-रोष सा भर दिया था और उसकी उठ-बैठ कुछ दोयमदरज़े क़िस्म के लोगों में भी थी! नशा-पानी, यारी-दोस्ती, कम मेहनत-रक़म ज़्यादा जैसे कुछ काम भी कर लिया करता था! अभी दोनों ही कॉलेज में थे! खैर, जवानी की उम्र, गुनाह भी गुनाह न लग, मजा ही लगता है! सो ही इनके लिए था! हां, जो लड़कियां थीं, वो देहात की थीं, अलग अलग गांव की, आजकल ज़माना आधुनिक हो चला है, मोबाइल, कंप्यूटर आदि आदि, तो अब सम्पर्क साधने में कोई दिक्कत परेशानी नहीं हुआ करती, जैसी कि 'हमको' हुआ करती थी! तो वे लड़कियां, थीं तो बारह में ही, मतलब बारहवीं की ही, लेकिन जिन्होंने ऐसे, यार' बना लिए थे, वो क्या तो पढ़ती ही होंगी और क्या नहीं, भगवान् ही राखा! फेल-फाल हो गयी होंगी तो थीं, वयस्क ही! अब वयस्क होने पर तो आप जानते ही है, कि जैसे एक तूफ़ान ही देह में दौड़ पड़ता है! कुछ देह में बदलाव आने लगते हैं तब बात और ही आगे बढ़ती जाती है! तो साहब, इनको तो मैं एक ही बात में पूरा करूंगा, कि राम मिलाई जोड़ी, एक अंधा एक कोढ़ी!
चलिए, आगे बढ़ते हैं! मौसम न गरम ही तह और न सर्द ही, बीच का ही मौसम था, दिन जल्दी ढलता नहीं इन दिनों, तो धर्मवीर की बाइक चली आगे, और उलटे हाथ पर, एक कच्चे से रास्ते पर चल पड़ी! पीछे पीछे, प्रवीण भी ले चला! अब ये क्षेत्र ऐसा है कि जगह जगह जंगलों में, खंडहर आपको मिल ही जाएंगे, तो ऐसे जोड़ों के लिए ये एक अच्छा-ख़ासा ऐय्याशखाना साबित होते हैं! अब सामान आदि तो वे ले ही आते हैं, पानी और अटरम-शटरम! और फिर ये तो आये ही इसलिए थे! तो जी कम से कम दो किलोमटेर अंदर चले गए ये लोग! एक सुरक्षित सी जगह भी दीख गयी, जहां वो 'खेल' खेल सकते थे, कोई आये उधर, ऐसा तो हरगिज़ ही नहीं होता, न चरवाहा ही आये कोई, न कोई छत्ता-तोड़ा ही!
"जल्दी तो नहीं?" बोला धर्मवीर उस लड़की अंजू से,
"है अभी!" बोली वो,
"तो बस फिर क्या!" बोला वो,
अब उसने प्रवीण को देखा, वो दिखा नहीं!
"प्रवीण?" बोला वो ज़ोर से,
"कहां गया?" पूछा लड़की ने,
"यहीं होगा!" बोला वो,
"ओ प्रवीण?" बोला खड़ा हो कर वो!
"हां?" दी आवाज़ प्रवीण ने,
"कहां है?" पूछा उसने,
"यहीं हूं!" बोला वो,
"दीख नहीं रहा?" बोला वो,
"पीछे!" बोला वो,
"अच्छा! सब ठीक?" बोला वो,
"हां, देख रहा हूं!" बोला वो,
"क्या?" पूछा उसने,
"कोई सांप-बिच्छू तो नहीं?" बोला वो,
"अबे यहां कहां होंगे?" बोला धर्मवीर,
"भरोसा नहीं भाई!" बोला वो,
"देख ले!" बोला वो,
और फिर साहब, बातें हुईं और खेल भी शुरू हो गया! अब सभी खेल में खिलाड़ी! सबकुछ ठीक ठाक ही चल रहा था कि अंजू को एक आवाज़ सी सुनाई दी! उसने फौरन, उठ कर बाहर की तरफ देखा!
"क्या हुआ?" पूछा धर्मवीर ने,
"कोई है क्या?" बोली वो,
"यहां कौन आएगा?" बोला वो,
"मैंने आवाज़ सुनी!" बोली वो,
"कैसी आवाज़?" बोला वो,
"एक औरत की!" बोली वो,
वो हंसने लगा ये सुन!
"अरे हमारे जैसे ही होंगे!" बोला वो,
तभी आवाज़ फिर से आयी!
"सुनी?" बोली अंजू!
"हां!" बोला वो,
और कपड़े पहन, चला बाहर देखने! बाहर तो कोई नहीं?
"प्रवीण?" बोला वो,
"हां?" बोला पीछे से,
"आवाज़ सुनी?" बोला वो,
"कैसी आवाज़?" बोला प्रवीण,
"एक औरत की?" बोला वो,
"औरत?" बोला वो,
"हां!" कहा उसने,
"नहीं तो?" बोला प्रवीण!
इस बार आवाज़ फिर से आयी, और इस बार ऐसी कि जैसी किसी ने पायल पहनी हों, भारी भारी, जैसे कोई दौड़ कर गयी हो उनके आसपास से!
"सुनी?" बोला वो,
"आया!" बोला वो,
तब प्रवीण कपड़े पहन, अपनी प्रेमिका को साथ ले, आ गया धर्मवीर के पास! सब चुप हो, देखने लगे आसपास! लेकिन कोई आवाज़ नहीं!


   
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श्रीशः उपदंडक
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वहम तो नहीं यार?" बोला प्रवीण!
"वहम होता तो एक को होता? मुझे, तुझे, इसे?" बोला वो,
"क्या कहना चाहता है?" बोला वो,
"थोड़ा देख लो!" बोला वो,
"कहीं कोई मुसीबत ही न हो जाए!" बोला वो,
"कौन है यहां?" बोला वो,
"क्या पता?'' बोला वो,
"मैं देख कर आऊं?" बोला प्रवीण,
"अकेले?" बोला वो,
"तो क्या?'' बोला वो,
"मैं भी चलता हूं!" बोला वो,
"नहीं, कोई तो ठहरो यहां?" बोली अंजू!
"या एक काम करते हैं!" बोला वो,
"क्या?" कहा धर्मवीर ने,
"थोड़ा रुक जाते हैं, इंतज़ार करते हैं!" कहा उसने,
"ठीक है!" बोला वो,
और वो तब चारों वहीं उस खंडहर की छत के नीचे सिमट कर बैठ गए, कोई आवाज़ नहीं हुई! इसी तरह से आधा घंटा बीत गया!
"वहम ही होगा यार!" बोला प्रवीण!
"अब तो लगता है!" बोला वो,
"सारा मजा ही खबराब हो गया!" बोला वो प्रवीण!
"शाम होने वाली है, निकल लो अब!" बोली वो दूसरी लड़की वंदना,
"हां!" बोली अंजू भी!
"चलो फिर!" बोला वो,
और वे छत से बाहर जैसे ही आये कि इस बार पायल फिर से बजी! ऐसे बजी कि जैसे सामने ही कोई थिरक रहा हो! लेकिन नज़र आये कोई नहीं! अब तो भय ने मारा गोला और जान पर बना फफोला!
"क....कौन है?" बोला धर्मवीर हिम्मत जुटा कर!
लड़कियां कांपें! एक दूसरे में सिमटें!
"कौन?" बोला प्रवीण!
कोई जवाब नहीं!
और तभी, जैसे सामने से कोई तेजी से गुजर गया! पायल की आवाज़ दूर तक चली गयी और हवा में रह गयी एक गंध! ये गंध सभी को आयी!
"ये कैसी महक?" बोली अंजू,
"अजीब सी है?'' बोला प्रवीण,
"कड़वी सी?" बोला धर्मवीर,
"ये कच्चा कोयला! हां, उसकी गंध है!" बोली वंदना!
"तुझे कैसे मालूम?" बोला प्रवीण,
"पास में धोबी है, तभी आती है, घर के पास ही!" बोली वो,
"कच्चा कोयला?" बोला धर्मवीर,
"यहां?" पूछा उसने,
"कौन जलाएगा?" पूछा अंजू ने!
और भम्म! भम्म से छत की मिट्टी और, चूना और पत्थर के टुकड़े गिरने लगे! आव देखा न ताव! दौड़ पड़े बाहर के लिए! मुंह से निकले कुछ नहीं! भड़भड़ाकर गिरी वंदना! उठाने लगी अंजू! जैसे ही उठी, वो भी गिर पड़ी! अब वे दोनों लड़के, रुक गए! भागे उनकी तरफ! खींचा उन्हें और दौड़ लिए!
टन्न!
एक भयंकर सी टंकार! जैसे किसी ने बड़ी ही भारी गदा किसी चट्टान पर दे मारी हो! जहां को भागें, वहीं टंकार! फंस के रहे गए खिलाड़ी! लड़कियों की रुलाई फूटी! लड़कों के पसीने ऊपर से रेंग, एड़ियों तक आये!
फिर सब शांत! चारों तरफ देखा उन्होंने! लगा, पूरा जंगल ही जाग गया है, क्या पत्थर, क्या बेल, क्या पेड़ और क्या पौधे, सब उन्हें ही घूर कर देख रहे हों! सभी ने एक-दूसरे के हाथ पकड़ लिए और!
भच्च!
धर्मवीर का सर पिचक गया! फूट गया! भेजा, छोटे छोटे टुकड़ों में छितर गया! उसके बदन ने खायी लहर और उसके हाथों की पकड़, ऐसी मज़बूत हो गयी कि उसने किसी को छोड़ा नहीं! खून के फव्वारे फूट पड़े! लप्प-लप्प कर प्यासी ज़मीन सारा खून पीती रही! इस से पहले कि शेष तीन कुछ करते, कि अंजू के कमर के ऊपर का हिस्सा, कम से कम चार फ़ीट दूर जा गिरा! मुंह से बस, खून और गौं-गौं की ही आवाज़ निकले! ज़मीन पर लेटा वो हिस्सा, उन दोनों हो देखे, कोशिश करे उठने की और फड़के बार बार! कब तक फड़कता! पेट की आंतें भस्स की सी आवाज़ करते हुए, बिखर चलीं सामने! गैस निकल छूटी!
और इधर पांवों का हिसस, भागा दो कदम आगे और आपस में ही गुथ, फड़कता हुआ, खड़ा होने के लिए संघर्ष करे! लेकिन हो कैसे! पांव ही घूम गए थे! ये सब एक या दो पल के भीतर ही हुआ था!
प्रवीण ने भागने की सोची और जैसे छाती पर किसी ने चट्टान दे मारी! छाती खुल गयी! पसलियां खुल गयीं! रीढ़ की हड्डी, बची हुई पसलियों के साथ, पीछे को हुई और टूट गयी! गिरते ही, ऊपर के जिस्म और नीचे के जिस्म को, तीन फ़ीट की आंतों ने घुमा-फिरा लिया दोनों ही हिस्सों पर! पेट फूला और 'पैररर' की आवाज़ करता हुआ ऊपर उठा और एक साथ ही पिचक गया!
इतने पर भी वंदना की चीख निकली और जब तक चीख खत्म होती, तब तक जिस्म के दो हिस्से ही गए उसके, कंधे अलग अलग, एक से सर लटका रहा गया, आंतें बाहर झांक पड़ीं पेट पर, सांप की कुंडली की तरह! टांगें दो-फाड़ हो गयीं! एक उठी रह गयी पत्थर नीचे आने से और दूसरी उठते हुए, दाएं कंधे की तरफ जा गिरी, कान से उसकी टांग का अंगूठा छू गया!


   
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श्रीशः उपदंडक
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कुछ पल पहले जो शान्ति थी, वो फिर से पसर गयी! कोई आया, खेला और लौट भी गया! क्या कारण था? क्यों तो आया और क्यों लौट भी गया! लेकिन सवाल ये, कि कौन आया! न ही नज़र आया और न ही कोई सुराग ही मिला! एक बात और, लाशों के टुकड़ों से बहता खून, अधिक दूर तक भी नहीं बहा, उसे, ज़मीन ने ही सोख लिया था! 
कुछ दिन हुए, ढुंढेर मची, पुलिस-रपट सब हुई, लेकिन वही ढाक के तीन पात! लाशों के तुके, जानवर ले गए होंगे, रह गए होंगे तो कुछ हड्डियों के जोड़ सा मज़बूत सी हड्डियां! लक्कड़बग्घा तो खोपड़ी की हड्डी भी चबा जाए! खैर जी! जो होना था सो हो लिया! अब ऐसी खबरें कुछ दिनों तक तो सुर्खियां बनी रहती हैं, लेकिन बाद में सब, वही इतिहास हो जाता है! लोग भी भूल-भाल ही जाते हैं जल्दी ही! सो ही, इनके साथ भी हुआ!
अभी करीब चालीस दिन भी न बीते होंगे, कि उस जगह से करीब दो सौ मीटर आगे ही, ऐसा ही हादसा होने का इंतज़ार कर रहा था!
वो शमा का वक़्त था, करीब पांच बजे का, अंधेरा तो नहीं हुआ था, लेकिन आकाश में बादल बने थे और सूरज से अठखेलियां उनकी ज़ारी थी! उसी जगह से करीब वहीं, पास में ही, तीन और लड़के गाड़ी से उतरे! साथ में दो लड़कियां थीं, एक लड़का, ड्राइविंग सीट पर ही बना रहा, जब वे दोनों लड़के, उन दोनों ही लड़कियों को ले, अंदर, खंडहर की तरफ चले गए, उसके दस मिनट बाद ही, वो लड़का, जो उस मारुति-डिजायर में था, बीयर की एक कैन खाली कर, उलटी तरफ मुड़ चला था! अब जब उसे फ़ोन आता कि 'काम' हो लिया, वो तब, लौट आता! जब वो चला, उस समय करीब पांच बजकर, बीस मिनट हुए थे!
आगे कस्बे पर, वो कार लेकर खड़ा रहा, कुछ खाता-पीता भी रहा! चालीस मिनट बीते, लेकिन कोई फ़ोन नहीं, जब कि तय ये हुआ था कि छह बजे वे 'फारिग' हो उसे फ़ोन करेंगे और वो उन्हें लेगा, वापिस हो लेगा! लेकिन यहां तो साढ़े छह हो गए!
तब उसने गाड़ी मोड़ी, धीरे धीरे गाड़ी चला, वो उस जगह जा पहुंचा, कुल देर लगी, बीस मिनट! उसने सड़क के दुरी तरफ गाड़ी लगाई, और नज़र दौड़ाई, कोई नज़र नहीं आया! उसने फ़ोन निकाला, देखा, कोई मिस-कॉल  भी नहीं?
तब उसने खुद ही नंबर डायल किये, एक एक करके तीनों के फ़ोन डायल किये, एक के पास फ़ोन था नहीं, लेकिन तीनों ही नंबरों पर कोई कॉल नहीं गयी! वो बड़ा ही हैरान! नेटवर्क भी ठीक था, बैलेंस भी पूरा था! फिर? क्या किया जाए?
गाड़ी आगे ली, और फिर मोड़ी! फिर से नंबर डायल किये, कोई जवाब नहीं! वो गाड़ी से बाहर निकला, आवाज़ दी, लेकिन, कोई जवाब नहीं! अब फूले उसके हाथ-पांव! कारण, गाड़ी जिसकी थी, वो लड़का, अंदर, जंगल में गया था, जो लड़कियां थीं, वो दोनों भी शादीशुदा ही थीं! हालांकि, उन महिलाओं के पतियों को उस के विषय में ज्ञात तो नहीं था, लेकिन कहीं कोई ऊंच-नीच हुई तो लेने के देने पड़ सकते थे! अब वो करे, तो करे क्या! खैर, गाड़ी थोड़ा अंदर की तरफ लगाई और उतर आया बाहर!
"हेमू?" आवाज़ दी,
कोई उत्तर नहीं मिला!
"पिंटू?" आवाज़ दी दूसरे को!
अब भी कोई जवाब नहीं!
गाली-गलौज की उसने वहीं खड़े खड़े!
"हेमू?" फिर से आवाज़ दे!
कोई जवाब नहीं!
"पिंकी?" अबकी बार एक महिला को!
कोई जवाब नहीं!
उसका तो पसीना उतरा! घड़ी देखी, सात से ऊपर का वक़्त!
"अरे पिंटू?" बोला वो,
कोई जवाब नहीं!
अब कुछ नहीं हो सकता था, तो आगे बढ़ लिया, गालियां देते हुए, आवाज़ें देते हुए! अब कोई हो तो आवाज़ दे वापिस?
"रेखा?" आवाज़ दी, एक जगह रुक कर!
नहीं आया उत्तर कोई!
"हेमू? पिंटू?" चीखा वो!
अब भी कोई उत्तर नहीं! उसने आसपास देखा, चारों तरफ, अब वहां जंगल ही जंगल! अंदर जाए, पता नहीं कौन सा जानवर फ़िराक में हो? और तो और, ये सब कहां गए? अचानक उसे, ठीक बाएं ही कुछ दिखा, वो एक पेड़ था, उस पेड़ के पीछे. लगता था कि कोई है, ये कोई महिला थी, जिसके बाल खुले थे, लेकिन खुले अजीब से ही थे! अब पता नहीं क्यों खुले थे, ये तो वो महिला जाने! वो बढ़ा लिया आगे! और जैसे ही उधर आया कि उसके पांव कांपे! घिग्घी बंध गयी! इतनी भी हिम्मत नहीं हुई कि चिल्ला सके! नग्न महिलाओं के जिस्म, स्तन से नीचे तक काट दिए गए थे! सर थे नहीं, जिस्म एक दूसरे के ऊपर रखे थे! उनके स्तन के नीचे के जिस्म, चीर दिया गए थे बीच से! हर तरह लोथड़े पड़े थे, कीड़े-मकौड़े, चींटे सभी लिपटे हुए थे उन पर! और उनसे आगे, वो लड़के! एक का सर आधा फाड़ कर, पास में रखे पत्थर पर रखा था, आधा भेजे के साथ बहता हुआ, नीचे तक सरक आया था! एक आंख ऊपर और एक आंख नीचे ज़मीन पर! एक लड़के की छाती ऐसे फाड़ी थी, कि एक बड़े से पत्थर की नोंक को उसके आर-पार भोंक दिया गया था! दोनों बाजुएं उखाड़ कर, एक सर के पास झूल रही थी, और एक को, ऐसे टिका दिया गया था जैसे इशारा कर रहा हो कहीं! उस सर, पसलियों की, कंधों की हड्डियों को जोड़े हुए, ज़मीन पर औंधा पड़ा था! सामने पेड़ को देखा उसने! वो धम्म से नीचे गिर पड़ा! उस महिला के पांव ऊपर शाख में फंसे थे और उसकी देह को ऐसे खींच कर रस्सी सा बना दिया गया था कि रीढ़ की हड्डी और पसलियां एक ही तरह से, चिपक गयी थीं, बस, सर नीचे झूल रहा था, मुंह खुला था उसका, जबड़ा कुचला था, जीभ हलक़ के पीछे से निकाल दी गयी थी!
"ब...ब.....बचाओ......बचाओ......" कहते हुए धीरे से, हाथ-पांव पर चल, पीछे हुआ, पलटा और दौड़ लिया बाहर की तरफ! जैसे ही...................!!


   
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श्रीशः उपदंडक
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उस लड़के के होश फ़ाख़्ता हो चले थे! ये दिमाग़ की एक ऐसी स्थिति होती है, जहां, प्रचलित मान्यताएं, विश्वास आदि सब चकनाचूर होने लगता है! उसने जो मंज़र देखा था, उसे देख तो बड़े से बड़े जीवट वाला भी एक बार को थूक गटक जाए! वो भाग छूटा था! सीधा बाहर की तरफ! हाथ-पांव कांप रहे थे! किसी तरह से दौड़ता हुआ वो, बाहर सड़क तक आ गया! सड़क पर यातायात देखा तो थोड़ा भय सूखने लगा, सहसा फिर से मंज़र याद हो उठा! और वो भागा अपनी कार की तरफ! कार का दरवाज़ा हड़बड़ाहट में खोला और जा बैठा, आनन-फानन में, गाड़ी स्टार्ट की और भाग छूटा जहां को गाड़ी का मुंह था!
उस देहाती क्षेत्र में, खबर जा फैली! उस लड़के का क्या हुआ, नहीं पता, खबर अब बाहर आ गयी थी, तो जांच-पड़ताल हुई शुरू! कटे-फ़टे अवशेष भी मिल गए! लेकिन ऐसा किया किसने, क्यों किया, ये सब, उस जंगल के अंदर ही क़ैद रहा! कोई कहता कि आदमखोर है कोई जंगल में, कोई कुछ कहता और कोई कुछ!
मित्रगण! वही हुआ फिर जो होता है, ये सुर्खी भी, फीकी पड़ने लगी! हां, कागज़ों में ज़िंदा रही, शायद आज तक भी होगी! जो हुआ, सो हुआ, भूल-भाल गए लोग! भूलना हमारी फ़ितरत में शुमार है, तो शुमारी सामने आ ही गयी!
ढाई महीने बीत गए! स्थान, उसी क्षेत्र का, पीछे का क्षेत्र! यहां एक झील भी है, तो लोग-बाग़ आ ही जाते हैं अपना समय बिताने, कुछ परिवार के साथ, कुछ मित्र-वर्ग और कुछ ठीक वैसे ही, जैसे पहले ही आये थे! लेकिन इस बार, ये तीन लोग थे! दो लड़के और एक लड़की! इनके साथ जो थे, वो लड़का, अपनी प्रेमिका को ले, बस बैठा था, जा कर कहीं घुसा नहीं था! जैसा कि वो दो लड़के, जो 'बारी-बारी' के खेल को खेलने के लिए आये थे!
दिन का कोई एक बजा होगा, जंगल का ये क्षेत्र शांत ही रहता है और उस रोज़ भी शांत ही था, उस रोज़ सुबह दस तक बारिश हुई थी, हवा तेज थी, नमी तो थी, लेकिन शीतलता ने नमी को धकेल कर रखा था!
उस पेड़ के पीछे, वो लड़की और वो लड़का, मशगूल थे, और पहरेदारी पर दूसरा लड़का लगा था! अब जिनको ऐसी आदत हो, वो हर रिस्क लेने को तैयार ही रहते हैं! तो वो पहरेदार लड़का, बीयर की कैन लिए, थोड़ा आगे जाकर, एक पत्थर पर बैठा था, उस जगह किसी के आने का कोई सवाल तो नहीं था, लेकिन फिर भी आंखों में रखा जाए, तो एहतियात ही बरती जाती है! अब इन मूर्खों को, यहां जो कुछ हुआ था, या तो वो पढ़ा नहीं था, या पढ़ कर, एक तरफ फेंक दिया था या फिर, जोश कुछ ज़्यादा ही रहा होगा! अब जो लड़का बीयर का लुत्फ़ उठा रहा था, उसको कुछ सुनाई दिया! उसने कान लगा कर आहिस्ता से सुना! ये कुछ खुसर-फुसर सी थी! उसने दरकिनार कर दिया! अब भला यहां कौन आएगा! आएगा तो उनकी तरह ही होगा! जो उनकी तरह का होगा, वो भला क्यों तंग करेगा! तो वो आराम से, गले से छाती तक के बटन, कमीज़ खोल कर, आराम से बीयर छान रहा था!
अचानक से आवाज़ आयी! किसी ने जैसे वो पेड़ हिलाया था, वो डर तो गया था, कि कहीं कोई लंगूर या बंदर ही न हो! खड़ा हुआ, इत्मीनान से देखा, कोई जो होता सो दीखता!
तभी पीछे से, एक आवाज़ आयी, वो पलट कर पीछे घूमा!
"कौन है?'' बोलै वो,
कोई उत्तर नहीं!
उसने दो घूंट और भरे!
"कौन है?" पूछा उसने,
जवाब नहीं मिला! उसने उस पेड़ को देखा, जहां पर, वो लड़का और लड़की, इस दीन-दुनिया से बेखबर, 'ऊंची-उड़ान'  भर रहे थे! नज़र आ रहे थे, तो वहां कोई दिक्क्त नहीं थी! यही था कोई, बंदर सा जानवर  या कोई चील सा पक्षी! वो थोड़ा सा पीछे हुआ! घड़ी देखी तो अभी पच्चीस मिनट हुए थे!
बची हुई बीयर, निबटा दी! मुंह पोंछा और एक पेड़ के नीचे जा कर, मूत्र-त्याग भी कर दिया! और फिर से वहीं आ बैठा!
"बब्बू?" आवाज़ दी उसने,
पेड़ के पीछे से कोई जवाब ही नहीं आया!
"बब्बू?" बोलै वो,
"रुक?" आयी आवाज़,
"जल्दी निबटा यार?" बोला वो!
"हां! रुक तो!" बोला वो,
"रुका हूं!" बोला वो,
और फिर से शान्ति सी छा गयी! 
अब साहब, बब्बू ने उधर देखा, जहां वो, बीयर पीने वाला दोस्त उसका, बिटटू , था नहीं! बब्बू खड़ा हुआ, लड़की को कुछ कहा और देखने लगा उधर! लेकिन बिटटू का कोई पता नहीं!
पांच मिनट! दस मिनट!
लड़की को छोड़ वहीं, अब बब्बू चला बिटटू का पता काढ़ने! कहां मर गया पता नहीं? आया वो उस पत्थर तक! कैन वहीं पड़ी थीं, नमकीन की थैली भी! एक गिलास भी, लेकिन बिटटू कहीं नहीं!
"बिटटू?" बोला वो,
आसपास देखा, कहीं नहीं!
"ओये? बिटटू?" आवाज़ दी फिर से,
कोई जवाब नहीं!
"क..................?" अब जब उसने ये बोला! ऊपर पेड़ से जैसे कुछ गिरा नीचे! बब्बू घबराया! देखा उसे! और देखते ही चीख गले के अंदर ही जा धंसी! ये बिटटू का कटा सर था! और फिर तो जैसे टुकड़े, आसपास बरसने लगे! हाथ, पांव, आंतें, गुर्दे, तिल्ली, फटा हुआ दिल! पसलियां! किसी ने जैसे चीर कर, टुकड़े कर दिए थे उस बिटटू के! कुछ न दिखा उसे फिर! जैसे ही हुआ पीछे! तभी उसके सर पर जैसे कोई पत्थर सा टूटा! सर की चीथड़े ही उड़ गए! बदन हवा में आगे जा गिरा! ज़मीन पर दो तीन बार ऐंठा और फिर एक एक अंग उखाड़ दिए किसी ने उसके!
अब वो लड़की! जैसे ही उसे कुछ समझ आता कि उसकी गर्दन ही उमेठ दी किसी ने! गर्दन की हड्डी चरमरा गयी! सर उखाड़ लिया, साथ में हंसली की हड्डियां भी उखड़ आयीं! बीच में से, आंतों का गुच्छा बाहर आ गिरा! साठ किलो वजन की वो लड़की, अब दस दस किलो के टुकड़ों में कटी फ़टी पड़ी थी!
लेकिन इस बार भी एक अजीब सी बात! खून कहीं नहीं! जैसे ज़मीन ही सोंख लेती हो ज़मीन! और दूसरी सबसे अजीब बात! कि जो भी वहां ऐसी मौत मरता था, उसकी चीख ही नहीं निकलती थी! ये क्या माज़रा था असल में?


   
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श्रीशः उपदंडक
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अब एक बात स्पष्ट थी, जो समझी जा सकती है, कि ये जो कोई भी था, उन्हीं का नाश करता था जो वहां घिनौना काम किया करते थे, नहीं तो वो दूसरा लड़का और लड़की, उन्हें कुछ नहीं हुआ था, उनके अनुसार ही जांच आगे बढ़ी थी! लेकिन अभी भी पक्के तौर पर कुछ नहीं कहा जा सकता था!
खैर, जब बातें बढ़ीं ज़्यादा तो कुछ अन्य प्रकार के लोगों को भी खबरें लग गयीं! ये वो लोग होते हैं जिसको 'खचड़' कहा जाता है! ये अक्सर श्मशानों के आसपास, रेलवे-स्टेशन पर पड़े रहना, या ऐसी जगह के समीप रहना, जहां से इनको कुछ 'कच्चा' हाथ लग जाए! या ये वो लोग हैं जो किसी तांत्रिक अथवा किसी ओझा, गुनिया के अधीन काम करते हैं, ये 'पकड़' में माहिर हो जाते हैं और फिर, होता है इनका अजीब सा खेल!
अब कोई तांत्रिक, किसी को जीवनदान देना चाहे, तो प्रेत-बल उधार लेता है! या किसी का रोग काटना हो तो, या फिर व्यभिचार करना हो तब ये 'कच्चा' शर्तों पर काम करता है! ये करना तंत्र में क्षुद्र-कर्म कहा गया है, इसकी कोई जगह नहीं इस क्षेत्र में! परन्तु मित्रगण! जैसे साधक, वैसी ही शक्तियां और वैसे ही उनके फलित फल भी! जैसे, 'वाकि' चुड़ैल, बस काम की भूखी! साधक साधे, तब, जिस मर्ज़ी चाहे स्त्री को दास बना ले! अब चाहे कुछ भी कीजिये, इस 'वाकि' को भले ही क़ैद कर दीजिये, मियादी-वक़्त पर छूट लेगी और फिर से वही सब! इसके साधकों की कमी नहीं और आजकल तो बिलकुल भी नहीं!
मित्रगण! मेरी मुलाक़ात टूंडला के एक नामी-गिरामी व्यक्ति से हुई, वो किसी बाबा जी के भक्त हैं! उन्होंने ही मुझे इस विषय में बताया था! अब देखिये, जिस बाबा के वो भक्त थे, वो बाबा ऐसा भगाए, ऐसा भागे कि आज तक पता नहीं कि कहां धूनी रमा रहे हैं!
एक ओझा होता था उधर, कालू नाम का! अच्छी पकड़ रखता होगा तभी पूछ रहती थी उसकी आसपास! ये जंगल की खबरें, उसके पास भी उड़ती उड़ती आ चलीं! फिर क्या था! किसी अच्छे, कच्चे के लिए क्या नहीं किया जा सकता! बस! कालू ने ठान ही ली, कि क्यों न उस जंगल से, जहां पर आठ क़त्ल हो गए, कच्चा उठाया जाए! एक आया तो सात आये! यही होता है! अक्सर, जब एक परिवार ही मौत का, एक साथ शिकार हो जाए तब, वे यदि प्रेत-गति प्राप्त करते हैं, तो संग ही रहते हैं, अब एक को पकड़ो, मुक़ाबले में हरा दो, तो, अब चार हों या पांच, सब आपकी झोली में!  यही होता है घटिया कर्म! यहीं से बदनाम होता है ये तंत्र का मार्ग! यहीं से लोग कतराने लगते हैं इस मार्ग से! हाँ, तो बात कालू ओझे की!
कालू ओझा उम्र में पचास का होगा! उसकी एक पत्नी थी, एक नहीं कहना चाहिए वैसे, गांव में तो पहली थी ही, ये जो इधर, कस्बे की तरफ की थी, ये मल्लाह थी, और उम्र में, इस ओझे से बिलकुल आधी! चौबीस या पच्चीस मान लो! नाम था महुआ! मोहि बोलता था ये ओझा उसे!
एक रात....
"मोहि?" बोलै वो ओझा,
मुर्गा काटा था उसने, तो अंतड़ियां साफ़ कर रहा था वो, उस समय, सामने एक चापड़ पड़ा था, और एक लकड़ी का बड़ा था लट्ठा, जिस पर धर कर ऐसे ही वो, शिकार कि गर्दन उदय करता था!
"हां?'' बोली वो, मसाला पीसते हुए सिल पर!
"जंगल में कुछ है क्या?"
"सुना है!" बोली वो,
"क्या?" बोला वो,
"कुछ ज़ोरदार है?" बोली वो,
"किस से सुनी?" बोला वो,
"वो जो आती नहीं?" बोली वो,
"वो, संगीता?'' बोला वो,
"हां!" कहा उसने,
"फेर तो सही ही होगी!" बोला वो,
"क्या करना है?'' बोली वो,
"मारता कौन है?'' पूछा उसने,
"पता क्या?'' बोली वो,
"क्यों मारता है?" बोला वो,
"क्या पता?" बोली वो,
"एक बजह है!" कहा उसने,
"क्या?'' पूछा उसने,
"वहां, माल है!" बोला वो,
"माल?" बोली काम छोड़ते हुए,
"हां!" कहा उसने,
"कैसे पता?" बोली वो,
"खबर सुनी!" बोला वो,
"तब?" पूछा उसने,
"जाऊंगा!" बोला टुकड़े करते हुए उस मुर्गे के!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"कब?" पूछा उस औरत ने,
"कल ही!" बोला वो,
"संग कौन?" पूछा उसने,
"छपना!" बोला वो,
"संभाल लेगा वो?" बोली वो,
"हां" कहा उसने,
और दोनों घुटनों पर हाथ रख खड़ा हुआ! थाली में मुर्गे के टुकड़े दे दिए उस औरत को, औरत ने लिए और रख दिए, चूल्हे के पास ही!
"और जो कुछ और हुई?" बोली वो,
"पता चला जाएगा!" बोला वो,
"जो जान पर बनी?" बोली वो,
"ऐसा कोई नहीं!" बोली वो,
"आठ मर लिए?'' बोली वो,
"अब **** करेंगे तो मरेंगे न मरेंगे?" बोला वो,
"क्या पता?" बोली वो,
"तू यहीं रह!" बोला वो,
"ठीक है!" बोली वो,
"मैं आया!" बोला वो,
"अद्धी?" बोली वो,
"नाह!" बोला वो,
और अपने कमरे में चला गया, एक झोला उठाया, और चल पड़ा किसी जगह के लिए! यहां एक दीया जलाया, बोरा बिछा लिया, हड्डियों के टुकड़े उठा लिए, घेरबंद काढ़ लिया, कपड़े उतार नंगा हो गया, पास रखा, सरिया साथ में गाड़ में दिया!
"उठ जा ज़ोर जमाला!" बोला वो,
और हंसने लगा! झोला खोला, कुछ बाल निकाले, खोले उसने, और सामने रख दिए, चाक़ू लिया, घेरबंद काटा उन बालों का!
"उठ जा ज़ोर जमाला!" बोला वो,
और झोले से निकाल ली शराब! ढक्क्न खोला, बालों पर डाला और एक घूंट पी गया!
"उठा जा ज़ोर जमाला!" बोला वो,
हवा सी चली और उधर ही उस दीये को झुका दिया!
"कुम्हार की कै दौलतखां की?" बोला वो,
"कुम्हार की कै दौलतखां की?" फिर से बोला!
"उठा जा ज़ोर जमाला!" बोला वो,
दिया एक पटाखा सा फूट!
"सुन? ओ? सुन?" बोला वो,
चढ़ाई शराब सामने!
"कल हाज़िर रह! आदेश बजा!" बोला वो,
बस?? बस एक प्रेत पर ही चला था कोटाल के क्षेत्र! ये जो ज़ोर-जमाला है, ये प्रेत है, खजूर का प्रेत! पकड़ लिया होगा उसने, मात्र चौबीस मंत्र से सिद्ध! एक मुर्गे की बलि! और अपना दो बून्द रक्त! हो जाएगा सिद्ध!
"बांदी दौलतखां की!" बोला वो,
हां! ये था कुछ! दौलतखां की बांदी! ये है ताक़तवर सख़्तजान सी औरत! ये सिद्ध होती है नौ दिन में! उलटे का सीधा और सीधे का टेढ़ा! टेढ़ा और बखेड़ा! ये काम आती है उच्चाटन में, विद्वेषण में! धन की खोज में! ये तो निर्णय सही था इसका!
अब भोग दे, उठ लिया, जोड़ा सामान अपना, डाला झोले में और चल पड़ा वापिस! आ लिया वापिस घर! घर आते ही, टूटा उस औरत पर! रोज का नियम उसका!
"आ लिया?" बोली वो,
"हां!" बोला वो,
"हो लई?" बोली वो,
"हां!" बोला वो,
"जोड़ लिया?" बोली वो,
"सब!" बोला वो,
औरत उठी, कपड़े ठीक किये, उस ओझे को ढका और बाहर चली गयी! कुछ देर बाद लौटी, बाल गीले थे उसके, झिंझोड़ दिए!
"तीमन?" बोली वो,
''ले आ!" बोला वो,
"उठ?" बोली वो,
और हाथ दे, उठा लिया उस ओझे को, ओझे ने, धोती ठीक की अपनी, पास रखे पानी से, हाथ धोये, बाहर जा, और मुंह धो, लौट आया! अंदर आया तो खाना तैयार था! और वो, औरत, पंखा झलने, बैठ गयी उसका!


   
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श्रीशः उपदंडक
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और फिर अगला दिन आया! आज जाने क्या हो इस कालू का! धन के लालच ने तो उसको ऐसा जकड़ा कि ज़ोर-जमाल के बहकावे में आ गया! बहकावा! हां, अब स्वयं सोचिये, ऐसी कौन सी शक्ति होगी जो दासता करना चाहे? दासता तो कोई छोटा-मोटा रतुआ प्रेत भी न करे! रतुआ वो प्रेत, जिसे दूसरे प्रेत अपने साथ नहीं रखते!
तो उस दिन उसने छपना को बुलाया था! छपना वैसे तो एक गुनिया था, लेकिन 'तंगहाली' में जो मिल जाए वो सब ठीक! ढुलकिया ही बजाने को मिल जाए, बदले में कुछ भी तो भी चलता उसके लिए! तो छपना के पास चला आया वो कालू!
"छपना?" बोला कालू,
"हई?'' बोला छपना,
"जंगल में क्या चल रहा है?" पूछा उसने,
"पता नहीं?" बोला वो,
"क्यों नहीं पता? सब तो जान रहे हैं?" बोला वो,
"उसरा वाले?" बोला वो,
"हां, वो ही!" बोला कालू,
और चिलम बढ़ा दी कालू की तरफ!
"सुना है, सात-आठ कट गए?" बोला वो,
"हां, सही सुनी!" बोला वो,
"कौन है?" पूछा उसने,
"ये नहीं पता?" कहा उसने,
"क्या राजी है?" बोला छपना,
"चल देख आएं?" बोला कालू,
"क्या?" बोला वो,
"कच्चा? तेरी बहन ** **?? और क्या?" बोला कालू,
"अच्छा!" बोला वो,
"तेरे पास है कुछ?" पूछा कालू ने,
"इस वक़्त तो खाली!" बोला वो,
"माल चाहिए?" बोला कालू,
चौंक ही पड़ा छपना!
"बोल?" बोला कालू,
"कहां से?" बोला वो,
"सुन, कुछ कच्चा मिल जाए, या फिर, कोई कटा हुआ, कुछ जेवर ही लग जाएं हाथ?"
"जो न मिला?" बोला वो,
"तब शुरू काज!" बोला वो,
"हाज़िरी?" बोला वो,
"हां!" बोला वो,
"किसको संग लूं?' बोला छपना,
"चौड़ी वाली!" बोला वो,
"गीता?" बोला वो,
"हां, ले लेगी वो भी!" बोला वो,
"शाम तक लाऊंगा?" बोला वो,
"क्यों? बुला ले?" बोला वो,
"अभी है नहीं!" बोला वो,
"कहां गयी?" पूछा उसने,
"बता के न गयी!" बोला वो,
"ठीक है, वो न हो, तो सींकिया को ले आइयो!" बोला वो,
"ठीक!" बोला वो,
"सामान है मेरे पास!" बोला वो,
"तो ठीक!" कहा उसने,
"शाम आजा छह तक? ठीक?" बोला वो,
"हां! ठीक!" बोला वो,
तो जी, कालू ओझा आज रात के लिए तैयार था! या तो गीता आती! आती तो ज़ोर-जमाल को सौंप दी जाती! और गीता न आती तो सींकिया आती, वो लम्बी-ठाड़ी! तो सब काम तैयार कर, कालू आ पहुंचा घर अपने!
"मोहि?" बोला वो,
"हां?" बोली वो,
"चीपना कहां है?" बोला वो,
"ऊपर!" बोली वो,
"ले आ!" बोला वो,
"अभी लायी!" बोली वो,
और मुंड का कटोरा ले आयी, ऊपर छत पर, बदरपुर में छिपा कर रखा था ये कटोरा! आज ज़रूरत पड़ती उसकी!


   
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श्रीशः उपदंडक
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तो शाम को छपना आ गया गीता को ले कर! गीता आ गयी थी, गीता का मर्द कुछ करता-कराता था नहीं, दिन भर दारु पीना और ज़रायमपेशा लोगों के साथ उठना-बैठना! तो गीता को कुछ मिल ही जाता था, जो वो इस्तेमाल कर सके! इस तरफ का जो इलाका है, वो वैसे भी ज़रायमपेशा लोगों की बहुतायत वाला माना जाता है! दिन-दहाड़े कौन सीना खोल दे गोली से, कुछ नहीं पता! पिछड़ापन और कुछ दूसरे समीकरण इस क्षेत्र को ऐसा बना देते हैं! हालांकि, अब सरकारी इमदाद से हालात कुछ बदल जाएं या बदले हैं, कहा जा सकता है! इस तरफ ये ओझा-गुनिया भी ज़्यादा ही मिलते हैं कुछ!
"कैसी है?" पूछा कालू ने,
"ठीक!" बोली वो,
"सफाई से?" बोला वो,
"हां" कहा उसने,
"मर्द कहां है तेरा?" पूछा उसने,
"पता नहीं" बोली वो,
"चल तेरी गरीबी खतम हुई अब!" बोला छपना,
"राजी!" बोली वो,
"छपना?" बोला वो,
"हां?" बोली वो,
"किसको बताई?" बोला वो,
"कोई न!" बोली वो,
तो जी, सामान रख लिया गया सारा! और साइकिल से ही चल पड़े वो उस जंगल की तरफ! जहां वो घटनाएं घटी थीं, रात आठ तक पहुंच लिए थे! एक बड़ी सी टोर्च ले ली थी! अब तीनों ही आदी थे ऐसे माहौल के, तो डरना तो सीखा ही नहीं था उन्होंने! और फिर दो तो थे ही, खिलाड़ी! वो सब संभाल ही लेते!
साढ़े आठ बजे वे तीनों अपनी एक जगह पर, पैठ बना चुके थे, झील यहां से थोड़ा दूर ही थी, और जहां वे बैठे थे वहां, खंडहर ही खंडहर थे!
अब तीनों ने जम कर शराब पी! दीया जला दिया गया और सामान सारा रख दिया!
"छपना?" बोला कालू,
"हां?" कहा उसने,
"हाज़िर करूंगा!" बोला वो,
"हां!" कहा उसने,
"गीता?" बोला वो,
"हां?" कहा उसने,
"चल?" बोला वो,
गीता उठी और कपड़े उतार, बैठ गयी सामने!
"ज़ोर जमाला!" बोला वो!
और उन दोनों ने भी बोला!
"ज़ोर जमाला! आ जा!" बोला वो,
उसने बोला और सामने शराब को चाक़ू की धरर से उस गीता के ऊपर छिड़क दिया! गीता का बदन ऐंठा! खड़ी हुई और बैठ गयी!
"कौन?'' बोला वो,
"हूं!" बोली वो,
"कौन?" बोला वो,
"ज़ोर-जमाला!" बोली वो,
"चक्कर?" बोला वो,
हंसने लगी वो!
"खिलौड़!" बोला वो,
अब वो, झूमने लगी, ज़ोर ज़ोर से!
तभी अचानक छपना को खांसी आयी! खांसी आयी तो थूकने लगा, जैसे ही थूका! खून का फव्वारा छूट पड़ा!
"ज़ोर-जमाला?" बोला वो,
छपना उठ बैठा!
"ज़ोर-जमाला?" चिल्लाया वो,
और वे दोनों धम्म से गिरे नीचे!
कुछ समझ नहीं आया कालू को!
"ज़ोर-जमाला?" चिल्लाया वो!
कोई जवाब नहीं!
"छपना?" बोला वो,
छपना उठा! और हंसने लगा! घुटनों पर बैठ गया! थाप दी ज़मीन पर!
"लौट जा!" बोला छपना!
कालू की तो ज़ुबान बंद!
और................!!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"जा लौट जा!" बोला छपना!
"हे? कौन?" चीखा कालू!
"लौट जा!" बोला फिर से,
"बता?" बोला वो,
"जा! लौट जा!" बोला वो,
"ज़ोर-जमाला?" बोला वो,
एक चीख गूंजी! और वो गीता धम्म से पीछे गिरी!
"ज़ोर-जमाला?" बोला वो,
"लौट जा!" बोला छपना!
"तू है कौन?" बोला वो,
"जा! छोड़ दिया!" बोला छपना!
"ऐसे नहीं मानेगा?" बोला कालू!
उठा और बाल पकड़ लिए छपना के! छपना हंसने लगा! और पीछे की तरफ, गिर पड़ा! तभी नज़र गयी आसपास उस कालू की! कांप गया वो! वहां एक नहीं, कई सर पड़े थे! सभी के सभी इकट्ठे!
"कौन? कौन खेलता है?" बोला वो,
छपना उठा और कालू को पकड़ कर गिरा दिया पीछे! छाती चढ़ गया उसके! और देने शुरू किये घूंसे! लहूलुहान कर दिया कालू को! कालू अपने ज़ोर-जमाला को ही बुलाता रहा! किसी तरह से कालू उठा, और उठाया अपना चाक़ू! पढ़ा एक मंत्र और काट लिया हाथ! छपना अब बैठ गया! लेकिन हंसे ही जाए! और वो गीता, सर नीचे लगाए ज़मीन से, हंसे और मुक्के मारे ज़मीन में!
"ओ री रंडी? छिनाल?" बोला कालू,
वो बस हंसे ही हंसे!
"उठा जा?" बोला वो,
तभी अचानक से छपना को किसी ने जैसे ज़मीन से उठा कर फेंका ऊपर, धम्म से गिरा नीचे!
"वाह ज़ोर-जमाला!" बोला वो,
"बोल रे?" बोली गीता!
"कौन है यहां?" पूछा उसने,
"लौट जा! जा!" बोली और ठहाके मारने लगी!
"नहीं मानेगी?" बोला वो,
और आगे बढ़ा, मूत्र-त्याग करने के लिए, कपड़े खोले, और जैसे ही मूत्र किया, रक्त छूट गया! अब ये देख कालू के होश उड़े!
और अगले ही पल!
अगले ही पल, चड़क!
चड़क से छपना का सर कुछल गया! दब गया एकदम! घुस गया शेष देह में गर्दन से ही, गला फूल गया और हो गए दो फाड़! पांव उसके उसको जंगल की तरफ ले भागे! ज़्यादा दूर नहीं गया, पत्थर से टकराया और फड़क कर, दो तीन बार झटके खाये, और छपना का खेल खत्म!
उधर वो गीता! उसे किसी ने उसकी टांगों से खींचना शुरू किया! रगड़ दिया एक चक्कर सा लगवा और फेंक मारा पेड़ों के ऊपर कहीं! चीख भी नहीं निकली उसकी तो! रहा कालू, चाक़ू पकड़, कभी इधर देखे, कभी उधर!
गिर पड़ा नीचे! बैठ गया घुटनों पर!
"छमा! छमा!" बोला हाथ जोड़ कर!
सामने से कोई भाग कर निकला! झट से सामने देखा!
"छमा!" रो पड़ा वो!
"जा!" आयी आवाज़!
"छमा! छमा देवता!" बोला वो,
"जा! छोड़ दिया!" बोला कोई,
खड़ा हुआ, और टूटी सी देह से बाहर की तरफ चला!
"छमा! छमा देवता!" बोलता बोलता, निकला वहां से! 
"नहीं आना!" आयी आवाज़!
"नहीं आऊंगा! सौं मुझे!" बोला हाथ जोड़े ही!
"जा!" आयी आवाज़,
"छमा! छमा!" बोलते बोलते, आ गया बाहर!
अचानक से रुका वो! जिस रास्ते से गुजर रहा था, वहां कुछ देखा उसने! देखा, कुछ लड़के खड़े थे! कुछ लड़कियां! हंसते हुए! ठिठोली करते हुए! पल भर में ही आ गयी अक़्ल! दौड़ लिया!
"छमा! छमा देवता!" बोला वो,
कालू, आ गया बाहर! भूल-भाल गया साइकिल अपनी! थका-पिटा सड़क पर, बड़बड़ाते हुए, निकल पड़ा था गांव की तरफ! रात के ग्यारह बजे थे! गिर जाता! उठ जाता! जंगल पर नज़र डालता! और बड़बड़ाते हुए चलता जाता!
"कौन था? तूने देखा" पूछा बाबा ने,
"नाह" बोला वो,
"औरत के मरद?" बोला बाबा,
"नहीं पता" बोला वो,
"पटका दिया था?" पूछा बाबा ने,
"हां" बोला वो,
"कौन था और?" पूछा बाबा ने,
"लड़के, लड़की" बोला वो,
"कौन थे वो, जाने है?" पूछा बाबा ने,
"ना" बोला कालू, रह रह कर, चुप हो जाता था!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"इसका मतलब ज़ोर बहुत है उसका!" बोला बाबा,
"हां, बहुत!" बोला वो,
"तेरे घेरे तो गए?'' बोला वो,
"सब छूट गए" बोला वो,
"समझ गया!" बोला वो,
"बताओ?" बोला वो,
"कोई है उधर!" बोला वो,
"सो तो है?" बोला वो,
"कोई छिपा हुआ!" बोला वो,
"छिपा?" बोला कालू,
"हां!" कहा उसने,
"छिपा मतलब?" बोला वो,
"मतलब नहीं पता?" बोला वो,
"धन?" बोला वो,
"धन तो होगा ही!" बोला वो,
"फिर?" पूछा उसने,
"कोई स्थान है सिद्ध!" बोला वो,
"उधर?" बोला वो,
"लगता है!" बोला वो,
"सो कैसे?" पूछा उसने,
"तुझे छोड़ दिया!" बोला वो,
"छमा से!" बोला वो,
"धन होता तो तू भी वहीं का हो जाता!" बोला वो,
"अच्छा! समझा!" बोला वो,
"अगर सिद्ध है तो बड़ा अच्छा!" बोला वो,
"कैसे?" पूछा उसने,
"सब मिलेगा!" बोला वो,
"क्या?'' पूछा उसने,
"जगह!" बोला वो,
"उस से फायदा?" बोला वो,
"बेवक़ूफ़!" बोला वो,
"छमा!" बोला वो,
"सिद्ध हाथ लगे तो सोच? हैं?" बोला वो,
"सिद्ध? हाथ?" बोला वो,
"लड़ना होगा!" बोला वो,
"ज़ोर-जमाला छुड़ा लिया!" बोला वो,
"जाने दे!" बोला वो,
"अब?" बोला वो,
"तेरी जोरू कहां है?'' पूछा उसने,
"यहीं है, बुलाऊं?'' बोला वो,
"कल ले आ!" बोला वो,
"जो आदेश!" बोला वो,
"कोई काज?" बोला वो,
"हां!" बोला वो,
"कहो?" बोला वो,
"कुंवारी का हाड़!" बोला वो,
"कोशिश करता हूं!" कहा उसने,
"लाना ही है!" बोला वो,
"अच्छा!" कहा उसने,
ये था बाबा हत्थू! ये लोटन नाम के बाबा का शिष्य था! लोटन बाबा, पहुंच रखता था, अच्छी पकड़ाई थी उसकी! बड़े बड़े मामले सुलझा लिए थे उसने! लोगों की भीड़ लगी रहती थी उसके पास!
और ये हत्थू, इस बाबा का चेला होकर, काफी कुछ सीख गया था! इसी हत्थू का ये चपाटा था, कालू! कालू जैसे लोग ही अंदर तक, समाज में पकड़ रख कर रखते हैं! ये ही ले जाते हैं अपने हिसाब से ऐसे बाबाओं के पास लोगों को!
"हाड़ कच्चा हो!" बोला वो,
"जानूं!" बोला वो,
"हाथ न फिरा हो?'' बोला वो,
"हां" कहा उसने,
"देख कारनामा फिर!" बोला वो,
"वैसे?'' बोला कालू,
"हां? बोल?" बोला वो,
"क्या है वहां?" पूछा उसने,
"कोई भारी जाड़ है!" बोला वो,
"जींद?" बोला वो,
"ना!" बोला वो,
"क्यों?" बोला वो,
"वो ऐसे न हकता?" बोला वो,
"आप जानो!" बोला वो,
"तो समझा?'' बोला वो,
"हां जी" कहा उसने,
"तो लग जा देख पर!" बोला वो,
''अभी लो!" बोला वो,
"मैं करता हूं गड्ढा!" बोला वो,
"जय हो!" बोला कालू!


   
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श्रीशः उपदंडक
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तो उसी रात से कालू ने कच्चा-हाड़ ढूंढना शुरू कर दिया! अपने चेले चपाटों को लगा दिया था काम पर, जहां से भी मिल जाए ले लो बस! और खुद भी लग गया ढूंढने में! तो उस रात तो कुछ मिला नहीं, बूढ़ा-बूढ़ी हाड़ ही मिल रहे थे, लेकिन उनका कोई फ़ायद नहीं!
सुबह हुई तो करीब दस बजे एक औरत आयी, ले आयी थी कच्चा-हाड़, ये बाएं पांव का अंगूठा था, उम्र रही होगी उसकी करीब सोलह या सत्रह, सांप काटे से मरी होगी, तो जब बहाई लाश तो काट लिया होगा उसने या फिर कटवा लिया होगा! कालू तो प्रसन्न हो उठा! और जेब से मुड़े-तुड़े दो सौ रुपल्ली पकड़ा दिए उसे! औरत खुश और उसकी की गाते हुए चली गयी!
कालू ने अब देर न की, हाड़ लिया और दौड़ पड़ा बाबा हत्थू के पास! वहां पहुंचा, हाथ-पांव सहलाये और पकड़ा दिया अहद उसे, लपेट कर लाया था कपड़े में, हत्थू ने खोल कर देखा, हाड़ ताज़ा ही था बस खून ही काला पड़ा था, सो तो धुल ही जाता!
"कै में मिल गया?" पूछा हत्थू ने,
"दो में" बोला वो, दो उंगलियां दिखाते हुए,
"ठीक मिला!" बोला वो,
"जय हो!" बोला कालू,
"कै आदमी हैं तेरे पास?" बोला वो,
"कोई न अब" बोला वो,
"औरत तेरी?" बोला वो,
"आ जायेगी" बोला वो,
"अच्छा! थका है?" बोला वो,
"ना" बोला वो,
"मालिस?" बोला वो,
"ना" बोला वो,
"चढ़ाई कर आया होगा?" बोला वो,
"ना" बोला कालू,
हंसने लगा बाबा उसकी गुद्दी सहलाते हुए!
"तो आज कहां मिलेगा?" बोला वो,
"जहां कहो?" बोला वो,
"तेरे यहां आऊं!" बोला वो,
"जय हो!" बोला वो,
अब बाबा ने पोटली खोली, और सौ सौ के तीन नोट निकाल लिए, जीभ से उंगली चाटते हुए, गिन कर पकड़ा दिए कालू को, कलौ ने माथे से लगाए और उठ खड़ा हुआ!
"सुन?" बोला हत्थू,
"हां?" बोला वो,
"मक्की ले जा?" बोला वो,
"अच्छा!" कहा उसने,
"वो उठा ले!" बोला वो,
और एक आधा सा बोरा, उसे दे दिया, इसमें मक्का थी, आ जाती काम कालू के घर के लिए ही!
उसी शाम तैयारी हो गयी! सारा सामान आ गया! कालू की जोरू सज गयी! कालू ने कस ली लंगोट आज! आज तो हत्थू ही करे जो करे! खाली तो आने से रहा हत्थू, यही जानता था कालू!
"कालू?" बोला बाबा,
"हां?" बोला वो,
"भीतर भेज दे औरत को अपनी?" बोला वो,
बिन कुछ कहे, बाहर चला गया, और तब, कुछ ही देर में जोरू उसकी आ गयी सामने उसके!
"सफाई से है?'' पूछा उसने,
"हां" बोली वो,
"कब झुकी?" बोला वो,
"रात को" बोली वो,
''आदमी के?" बोला वो,
"हां" बोली वो,
"पांव न फिसला?" बोला वो,
"नहीं" बोली वो,
"जानती है कहां जाना है?" बोला वो,
"हां" बोली वो,
"और कुछ भी जाने है?" बोला वो,
"हां" बोली वो,
और आगे बढ़, दरवाज़ा भेड़ दिया! और हत्थू ने हाथ साफ़ कर लिया तभी! अब अपने हिसाब से सफाई की उसने और कर दिया तैयार!
"कालू को भेज?" बोला वो,
''अभी" बोली वो,
और चली गयी बाहर!
"खूब झुकावै है रे?" बोला वो,
"जी" बोला वो,
"उठा सामान?" बोला वो,
कालू ने उठा लिया सामान और चल पड़ा बाहर!
"सुन?" बोला वो,
''हां?" बोला कालू,
"दो और आ रहे हैं!" बोला वो,
"ठीक" कहा उसने,
"चल अब, दिखा!" कहा उसने,
और बाबा, तैय्यार हो, उन सभी को हांक, चल पड़ा जंगल के लिए! लेकिन कालू? वो भूल गया! कि क्या कहा गया था! नहीं आना!


   
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श्रीशः उपदंडक
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तो वे लोग, गांव से बाहर आ गए! और जब बाहर आये तो एक पुराना मंदिर पड़ा, मंदिर तो खैर क्या था, खंडहर सा ही था, कोई आयोजन हुआ तो दीप लगया दिया, न हुआ तो दिन भर कुत्ते लोटें, मवेशी बैठें! यहीं पर, वो दो आदमी मिल गए उन्हें! अब वे हो गए पांच! और तब, वे चल पड़े!
रात करीब आठ बजे, उस जगह आ पहुंचे, कालू ने जगह बता दी तो चले अंदर सब अब! बताया उसने कि वो सब कहां हुआ था, कब कब क्या और तब तब कैसे! तो बाबा हत्थू ने, दो आदमी तो बिठाये अलग और साथ में लिया कालू को, और उस औरत को! जगह का जायज़ा लिया गया और एक जगह, छोटा सा गड्ढा खोद लिया गया! अब तैयारियां की गयीं! पौने नौ तक सारी तैय्यारियां कर ली गयीं!
और ठीक नौ बजे, वो अलख उठा दी, मंत्रोच्चार हुआ, महुआ ने कपड़े खोल एक तरफ रख दिए! और सामने आ बैठ गयी! कुछ देर हुई और तब, महुआ पर कुछ सवार सा होने लगा!
"हां?" बोला वो,
"हफ्फ!" बोली वो,
"उदर भांजे! सर भांजें! तो ती कुमारी साजै!" चिल्लाया बाबा!
"कुमारी! हफ्फ!" बोली वो,
"हां कुमारी!" बोला वो,
"हफ्फ!" बोली वो,
"पता काढ़!" बोली वो,
"बहुत हैं!" बोली वो,
"कौन?" पूछा उसने,
"आजक!" बोली वो,
"कितने?" बोला वो,
"हर तरफ!" बोली वो,
"कहां?" बोला वो,
"पीछे, आगे, इधर, उधर!" बोली वो,
"चढ़ाऊं?" बोला वो,
"ना! हफ्फ!" बोली वो,
और ज़मीन पर लेट गयी!
"कालू?" बोला वो,
"जी?" कहा उसने,
"आ जा?" बोला वो,
"आदेश!" बोला वो,
और कपड़े खोल नग्न हो आ गया सामने!
"ठः ठः हमबाल!" बोला वो,
"ना!" बोली वो,
"क्यों?" बोला वो,
"मारा जाएगा!" बोली वो,
"कौन?" पूछा उसने,
"सब!" कहा उसने,
"तेरी माँ की ** में अंजनी के ** का **!" बोला वो,
"हफ्फ! उग्घ!" बोली वो,
"कालू?" बोला वो,
कालू सर नीचे किये बैठा था! अचानक से सर ऊपर किया उसने!
"जा?" बोला वो,
"कौन है?" पूछा उसने,
"मना किया था!" बोला वो,
"तू है कौन?" बोला वो,
"मौत!" बोला वो,
"किसकी?" बोला वो,
"सब की!" बोला कालू!
"जिस ठु....!" अभी वो बोलता कि वो औरत, हवा में उठी और सर ऊपर कर, पाँव नीचे कर, खड़ी सी हो गयी! ये देख वो जो दो थे, वो तो भाग ही लिए!
"हा! हा! हा! हा!" बोला कालू!
हत्थू बाबा को आया गुस्सा! हुआ खड़ा! और एक एक लात दोनों में मारीं! दोनों ही नीचे गिरे!
"कालू?" बोला वो,
"बचा ले..?" बोला कालू,
"कौन?" बोला वो,
"बचा ले..?" बोला वो,
"बता कौन?" बोला हत्थू!
"बचा ले..?" बोला वो,और जा गिरा पीछे!
"कौन है यहां?" चिल्लाया वो,
कोई नहीं था!
हंसते हुए वो औरत उठी!
"किसको बचाएगा?" बोली वो,
मर्द की आवाज़ में!
"हैं?" उड़े होश बाबा के!
"किसको बचाएगा आज?" बोला वो!
"कौन?" बोला वो,
"सुज्जन!" बोला वो,
"सु..............??" बाबा पछाड़ खाने को तैयार!
"बोल? किसको बचाएगा?" चीख कर बोली वो मर्द की आवाज़ में!


   
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श्रीशः उपदंडक
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मारे भय के अब तो हत्थू के भी हाथ-पांव फूले! उसे याद आ गया था सुज्जन! ये तो करीब दस साल पहले  की बात थी! सुज्जन का धन ले लिया था इस हत्थू ने, और उस को, कुएं में धकेल कर मार डाला था!
"आया याद?" बोली वो,
"ह...हां.....माफ़ कर दे!" बोला वो,
"तूने किया था?" बोली वो,
और फिर, एकदम से चिल्लाई, धम्म से नीचे गिर गयी! वो गिरी, बैठ गयी! उधर अब कालू उठ कर, नाचने लगा!
"कौन बचावे?" बोला वो,
हत्थू के प्राण मुंह को आये!
"कौन बचावे?" बोला कालू, ताली पीटते हुए!
"माफ़! माफ़ करो!" बोला वो,
और तभी, उसकी गरदन, धड़ से अलग! और वो दोनों! उस तड़पते हुए धड़ पर जा, बैठ गए! बैठे और खींच खींच कर मांस नोंचने लगा उसका! धड़ के हाथों में जो खून अभी गरम बचा था, सहज प्रवृति से छुड़ाने के लिए उन्हें, मचलने लगे! और वो भी चबा डाले गए! मौत का वीभत्स तांडव मचा था इधर! वो कटा सर, कमाल था, खूब हंस रहा था, लेकिन बिना आवाज़ के!
मांस से भरे मुंह उन दोनों के, किसी आदमखोर की तरह से लगने लगे थे! खून नीचे नहीं बह रहा था, खूनआलूदा उनके मुंह, अब तो पहचान से भी गए थे! तभी चली तेज हवा! अलख के प्राण निचुड़ गए!
उस वक़्त जंगल में सिर्फ चीखें ही चीखें गूंजने लगी थीं! भयानक चीखें! तीन, आज और चले गए थे उस जंगल में! भेंट चढ़ गए थे!
मित्रगण!
ये समाचार मुझे भी प्राप्त हुआ, सुन कर मैं भी अचरज में आ गया! ऐसा कौन है वहां? जंगल में, प्रेत, महाप्रेत, चुड़ैल, रात्रिकंटा ही विराजते हैं! तो ऐसा कौन है? कहीं कोई खिलाड़ी खेल तो नहीं खेल रहा? अर्थात, कोई तांत्रिक आदि नरबलि तो नहीं चढ़वा रहा? फिर प्रश्न ये, कि तब कोई न कोई तो नज़र आता ही?
दूसरा प्रश्न, वो जंगल ही क्यों? क्या कोई अथाह धन तो नहीं गड़ा उधर, जिसकी रक्षा कोई दैज्ल कर रहा हो? अर्थात, मंत्रों एवं बलि से प्रसन्न कोई महाप्रेत? तब भी उसके आने की, नज़र आने की कोई खबर तो मिलती?
तीसरा, कहीं किसी महातांत्रिक का वो कोई स्थल तो नहीं? जो, सम्भवतः सोया हो और अब, समय आने पर जाग गया हो? या कोई रक्षक? तब भी इतनी क्रूरता से हत्याएं नहीं होतीं? हत्या ही करनी होती तो हत्या पटक कर या किसी अन्य तरीके से भी की जा सकती थीं? इतनी क्रूरता क्यों?
चौथा, जिनकी मारा गया उधर, वो सब, 'खेल' खेलने आये थे, फलस्वरूप, मार दिए गए, ठीक, समझा आता है कि किसी को वहां ऐसी गंदगी करना पसंद नहीं! तब भी कोई चेतावनी नहीं?
पांचवां कारण या प्रश्न ये कि उधर ओझा, गुनिया की कोई नहीं चल सकी थी, कोई जैसे मदद के लिए बढ़ा ही नहीं था आगे! क्यों? और फिर, सुज्जन नाम का वो प्रेत, जो, इस जंगल में था अब, वो किसके कब्ज़े में था?
अभी प्रश्न चल ही रहे थे कि एक खबर, वहां से करीब पांच किलोमीटर उत्तर से आ गयी! उधर चार लड़के आये थे, अब जिज्ञासु रहे हों, हो सकता है, आजकल, बिन देखे कई लोग यक़ीन नहीं कर पाते!
उस दिन, करीब ग्यारह बजे सुबह....
"यहीं मरे वो?" एक बोला,
"हां, सुना तो!" बोला वो,
"क्या है उधर?" बोला वो,
"क्या पता!" बोला तीसरा,
"अगर कुछ हुआ तो?" चौथा बोला,
"तो हमारे पास, हथियार हैं!" बोला दूसरा!
वे काफी अंदर तक चले आये, एक जगह बैठ गए, जहां बैठे थे, वहीं एक जगह दो लड़कों की नज़र पड़ी!
"वो क्या है?" एक ने पूछा,
"क्या?" पूछा दूसरे ने,
"अरे वो?" बोला वो, इशारे करते हुए,
"कोई पन्नी है शायद?" बोला वो,
''आ, देखें?" बोला तीसरा,
"चल, मैं चलता हूं!" बोला पहला,
वो आ गए उधर! गौर से देखा!
"ये तो हड्डी सी है?" बोला वो,
''हड्डी?" बोला दूसरा,
"हां!" कहा मैंने,
"उखाड़?" बोला वो,
"ले!" बोला वो,
और एक हड्डी खींच कर निकाली! निकाली तो कोहनी के पास से टूट गयी! अब तो दोनों ही घबरा गए!
''अरे? इधर आओ?" बोले वो दोनों!
"क्या है?" उन दूसरे दोनों ने पूछा,
''आ कर देखो?" बोला पहला,
वे दौड़ कर गए उधर! देखा उधर!
"ये क्या है? हड्डी?" बोला वो,
"हां, बाजू की!" बोला वो,
"पूरा कंकाल है क्या?'' पूछा तीसरे ने,
"देखूं?" बोला वो,
"देख?" कहा उसने,
अब जब उसने खींचने की कोशिश की, तो उस हड्डी की ऊपरी बाजू में एक सोने का झुमका सा अड़ा दिखा!
''सोना?" बोला वो!
"हां! सोना ही है!" बोला वो,
"दिखा?" बोला चौथा,
"देख, लेकिन लिखा तो उर्दू में है?" बोला वो,
"पुराना सा लगता है?" बोला वो,
"अरे और खोदो!" बोला वो,
और चारों ने, कर दी खुदाई शुरू! तब.........


   
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श्रीशः उपदंडक
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अब तो चारों लग गए जी जान से! सोना मिला था, अब भले ही सिक्का सही! वो दरअसल में, एक गिन्नी थी, करीब चार ग्राम की रही होगी! अब गिन्नी मिले, सामने एक जगह से, ज़मीन से, तो जिसको कम नज़र आता हो, वो भी जुट जाए खुदाई में! सो ही उनके साथ था!
आपको एक घटना बताता हूं, ये बात आगरा की है, पुराना शहर, पुरानी सी एक लाला जी की दूकान, दूकान मिठाई की! एक पुरानी सी हवेली थी, दो भाइयों में आधी आधी बंट गयी! तो दोनों ने ही अपने पिता के नाम से दुकान खोल ली, काम चलने लगा! इधर जो बड़े वाले भाई थे, उन्हें जी हिस्सा मिला था, उसमे सुना था कि कोई नाग-देवता हैं, रात को आते हैं, तो मिठाई और दूध रख दिया जाता था! एक दिन की बात है, बारिश पड़ी और ज़मीन एक जगह से फूल गयी, उन्होंने साफ़ की तो नौ गिन्नियां उन्हें मिलीं! अब आ गया लालच! बुलाया कोई कारीगर और काम करवा दिया शुरू! न जाने कहां से किसी ज़हरीले कीड़े ने काटा या किसी बिच्छू ने, कारीगर वहीं नीला पड़ गया और अस्पताल तक ले जाते हुए मौत हो गयी! खैर, जब मेरा जाना हुआ तो मैंने देखा, कि वहां नीचे एक घड़ा था, घड़े में कम से कम पच्चीस किलो सोना! जेवर, सिक्के, अशर्फी और मनके सोने के! लेकिन कुछ सुनाई दिया कि ये सामान नहीं लेना, सामान लिया तो ये हवेली ढहे और एक बड़ी औलाद चल बसे! मैंने कर दिए हाथ खड़े! और बता दिया सब! लेकिन लालच तो लालच है, कोई बड़ा साधक आया, सामान का घड़ा दिखा, जैसे ही पकड़ना चाहा, घड़ा खिसक कर, दूसरी तरफ चला गया! रात को, कारीगर वहीं घर में रुका, सुबह खबर मिली हवेली ढह गयी और घर का एक लड़का, बिजली की तार के चपेट में आ कर मारा गया!
अब कहने का अर्थ ये है, कि ऐसा सोना किस काम का जो कान काटे! अजी हाथ जोड़ो ऐसे धन से!
अब वहां....
तो खुदाई चली हुई थी, लकड़ी से खुदाई चल रही थी, जितना साफ़ करते कुछ न कुछ दीख ही जाता! और तब दिखाई दी एक छोटी सी संदूकची! अब क्या था! 
"खोल?" बोला एक!
"निकालने तो दे?" बोला दूसरा,
"जल्दी कर?' बोला तीसरा!
"क्या है इसमें?" बोला चौथा,
"सोना!" पहला बोला,
और किसी तरह से वो संदूकची, निकाली उन्होंने! वो पीतल से बनी थी, उस में चार ताले से लगे थे, लेकिन खुल गए खींचने से ही, और उन्होंने खोल ली वो! खोली तो अंदर एक प्याला था, ढक्कन लगा हुआ!
"ये क्या है?" बोला दूसरा,
"मुझे दे?" बोला चौथा,
और उन्होंने प्याले को उल्टा-पलटा करके देखा, एक जगह ढक्कन खुलता सा लगा और उन्होंने, वहीं से वो ढक्कन खोल दिया! अब चारों ही अंदर देखने को झपट से पड़े! खनकते हुए चौदह सिक्के, आता चांदी के और छह सोने के निकले उसमे से!
"चांदी! सोना!" बोला पहला,
"वाह!" बोला वो,
"और खोद?" दूर बोला!
"ठहरो?" आयी आवाज़ एक!
अपने चारों तरफ देखा, था तो कोई नहीं!
"कौन है?" पहला बोला,
"कौन?" दूसरा बोला,
"सामने आ?" बोला तीसरा, जेब से कट्टा निकाल कर!
"आ?" बोला चौथा,
"वहम है!" बोला पहला,
"नहीं यार!" अगला बोला,
"ठहरो?" आयी आवाज़ फिर से,
अब देखा पीछे, एक काली सी औरत बैठी थी, नीचे, उकडू! नग्न, उम्र करीब पैंतीस बरस रही होगी!
"वहीं रख दो!" बोली वो,
"तेरे हैं?" पूछा एक ने,
"न!" बोली वो,
"तो?" पूछा एक ने,
"पागल लगती है, देख? नंगी है!" बोला तीसरा,
"मेरे नहीं हैं!" बोली वो,
"तो किसके हैं?" पूछा चौथे ने,
"रख दो, और जाओ!" बोली वो,
"तू कौन है?" बोला पहला,
"आजक!" बोली वो,
"आजक?" बोला तीसरा,
"हां!" बोली वो,
"कौन आजक? पागल?" बोला वो,
"अरे मार साली के दबा कर!" बोला पहला,
"ठहर जा!" बोला तीसरा,
"रख दो!" बोली फिर से वो,
"न रखें तो?" बोला वो,
"रख दो, और जाओ!" बोली पीछे इशारा करके!
"तेरे हैं तो ले ले?" बोला वो,
''मेरे नहीं!" बोली वो,
"फिर?" पूछा चौथे ने,
"अन्धो माँ के!" बोली वो,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"अन्धो माँ! अन्धो माँ!" आवाज़ें कई, गूंज उठीं!
"ओ पागल? कोई और भी है तेरे साथ?'' बोला दूसरे वाला,
"सब हैं" बोली वो,
"कौन?" पूछा उसने,
"आजक!" बोली वो,
"और ये अन्धो कौन?" पूछा उसने,
"माँ!" बोली वो,
"तेरी?" बोला वो,
"सबकी!" बोली वो,
"चल ओये? निकल यहां से?" बोला चौथा!
"रख दे!" बोली वो,
"अच्छा?" बोला वो,
"हां, रख दे, लौट जा!" बोली वो,
"चल? तू आयी है डराने?'' बोला वो,
"बताने!" बोली वो,
"ओ नंगी?" बोला दूसरा! हंसते हुए!
"चली जा! कहीं जी बिगड़ गया तो! तू ही जानेगी!" बोला दूसरा!
"रख दे!" बोली वो,
"अरे?" बोला चौथा,
"बड़ी बद्तमीज़ है?" बोला वो,
"आखिरी बार कह रहा हूं!" बोला वो,
"रख दे! लौट जा!" बोली फिर से वो,
"क्या करना है इसका?" बोला तीसरा,
"मार साली को?" बोला वो,
"क्यों दाना खराब करना?" बोला वो,
"चल?" बोला वो,
"लौट जा!" बोली वो,
"अरे?" बोला पहला,
"जा!" बोली वो,
"समझा नहीं आता तुझे?'' बोला वो,
"लौट जा अभी!
"अरे ओ?" बोला वो,
"लौट जा!" बोली वो फिर से,
"क्या करें भाई इसका?" बोला वो,
"मरने दे!" बोला वो,
"चल काम पर लग!" बोला तीसरा,
"हां!" बोला वो,
वो फिर से लग गए काम पर! पीछे देखा तो औरत गायब!
"गयी वो!" बोला लड़का पहला,
"पागल थी यार!" बोला दूसरा,
"आ गयी दिमाग खराब करने!" बोला वो,
"चल!" बोला वो,
और फिर से खुदाई शुरू!
"इस हड्डी को निकाल?" बोला वो,
"ये ले!" बोला वो,
और निकाल ली वो हड्डी!
"बड़ा ही मज़बूत रहा होगा ये!" बोला एक,
"पहले के आदमी थे!" बताया तीसरे ने,
"हां!" बोला पहला,
"जाओ!" आयी एक आवाज़,
सभी चौंक पड़े! ये आवाज़ बड़ी ही भारी थी! जैसे बादल गरज गए हों, जैसे जंगल ही थर्रा गया हो!
"जाओ!" आयी आवाज़,
"कौन है?" बोला तीसरा,
"वो पागल तो नहीं ले आयी?" बोला तीसरा,
"ढूंढना?" बोला वो,
''अभी तो यहीं थी?" बोला वो,
"जाओ!" कहा उस आवाज़ ने!
"कोई पीछे है शायद!" बोला एक,
"कौन?" पूछा दूसरे ने,
"शायद उधर?'' बोला वो,
"जा कर देख?" बोला तीसरा,
"आया!" बोला वो,
वो लड़का चल दिया उस पेड़ के पीछे देखने को! आसपास देखा, तो कोई नहीं! लौटने लगा वो!
"है कोई?" पूछा उसने,
"यार?" बोला दूसरा,
"क्या?" बोला चौथा,
"ये जगह कुछ अजीब सी नहीं?" बोला वो,
"अभी तो नहीं थी? " बोला हंसते हुए!
"कुछ गड़बड़ न हो!" बोला वो,
"फिर?" कहा चौथे ने,
"उस पागल की बात मानें क्या?" पूछा उसने,


   
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