खड़ा हुआ, और अपने चारों ओर, एक घेरा खींच लिया! खेचरा, वायु रूप में संहार किया करती है! यही इसको सबसे प्रबल बनाता है! एक क्षण के कुछ ही अंश पर, शत्रु का नाश कर देती है! शत्रु का अस्थि-पिंजर भी काला पड़ जाता है! शेष अंग भस्म हो जाय करते हैं! मैंने त्रिनडा-
विद्या का संधान जारी रखा! और मेरे सामने, वो खेचरा नाच रही थी! हाथ उठा उठा कर! उसके केश इतने सघन होते हैं कि. उसकी देह दिखाई ही नहीं देती! देह इन्हीं केशों में लिपटी रहा करती है! धौला ने नाद लगाई! और खड़ा हो गया! अपना उद्देश्य बताया!
और उसका नृत्य समाप्त हुआ, पल में ही लोप हई वो!
और मुझसे वायु टकराई! इतनी तेज, इतनी तेज के नेत्र बंद,
और मुंह खुला! मुंह में धूल घुस गयी! कसैला हो चला मुंह! जीभ सूख गयी! काक सूख गया! मेरे केश बेतरतीब उइ चले,
मेरे मुंह पर, मेरी जटाएं थप्पड़ सा मारने लगी! फ़ड़फड़ा रही थीं वो! बहूत तेज वायु थी! यदि मैंने विद्या का संधान न किया होता, तो निःसंदेह मेरा अंत हो गया होता! मेरी विद्या सह गयी उसके वार को!
और वो वापिस लौट आई! झम्म से गड्ढे में कूदी! और गड्ढा बंद हो गया! मैंने नेत्र खोले, सब ठीक था, मेरे पास मदिरा रखी थी, मैंने कुछ यूंट उसके पिए, ताकि गला तर हो, जीभ तर हो, काक तर हो, नहीं तो बुरा हाल होता, आवाज़ भी नहीं निकलती मेरी! दांत कसैले हो चले थे! किरकिरियां चबने लगी थीं! मेरे सामने धौला बैठा था! आती-पालती मारे! मुस्कुराता हुआ! उसने मुझे मुंह खोलने को कहा, मैंने मुंह खोला, उसने अपने हाथ का अंजुल मेरे मुंह से टिकाया, ताजा जल! मीठा जल! मेरे कंठ से होकर गुजरा! मैंने पेट भर पानी पी लिया! उसने अब मेरा त्रिशूल वापिस किया, अपना त्रिहल उठा लिया!
और फिर वे तीनों आ गए! रन्ना, तेवत और तीसरा, जिसका नाम मैं अभी तक नहीं जानता था! "वाह बालक! आशा से अधिक!" बोला तेवत! धौला ने अब मुझे खड़ा किया! मेरे पास तक आया, सर पर हाथ रखा! तेवत ने भी ऐसा ही किया! "मिल गया प्रवेश!" बोला तेवत! मैंने धन्यवाद किया उन सभी का! "बस! अब हाज़िम रह गया है! और कोई नहीं, बहुत क्रुद्ध रहता है हाज़िम, बतलाये देता हूँ!" बोला तेवत!
वो तो होगा ही! क्यों नहीं होगा! आखिर बाबा की नींद में खलल जो डाल रहा हूँ मैं! वो क्यों पसंद करेगा की कोई खलल डाले! वे चारों लौट गए!
और लोप हुए! मैं बैठा रहा, एक घंटा, दो घंटे! तीन घंटे! चार बज गए सुबह के अब कोई नहीं आना था! प्रभात छूने ही वाला था धरा को!
अब कोई नहीं! अब मैं उठ गया! सामान बटोरा मैंने,
और एक जगह रख दिया, एक झोपड़ी सी थी, वहीं रख दिया,
और वापिस हुआ,
फिर अपना निजी सामान अपने बैग में रख दिया, तंत्राभूषण ने रख दिया, शर्मा जी वहीं बैठे थे, चिंतित और व्याकुल! मुझे देखा तो उठ खड़े हुए, मैं सकुशल था! उनकी चिंता जाती रही! अब
मैंने उन्हें सब बताना शुरू किया! आरम्भ से अब तक! अब, आज रात ही होना था कुछ! अच्छा हआ, मुझे समय मिल गया था! हम दोनों लौटे,
वे तीनों, कार में ऊँघ रहे थे, शर्मा जी ने दरवाजे का शीशा बजाया, डर गए तीनों ही! बस चीख निकलने की देर थी! हम दोनों को सकुशल देखा उन्होंने तो,
एक ओर हैरत में पड़े, दूसरी ओर, उन्हें शान्ति भी पड़ी! कि चलो अब तो कुछ न कुछ हो ही जाएगा! हम लौट चले वापिस तभी ही,
और सीधा दीपक जी के यहां आ गए, अब सुबह हो चुकी थी, नींद आ रही थी बहुत ज़ोर से, हम दोनों तभी जाकर सो गए, नींद खुली कोई दो बजे,
अब स्नान आदि से फारिग हुए, फिर चाय पी, नाश्ता किया,
और उसके बाद फिर भोजन, अब्ब शर्मा जी ने सारा हाल कह सुनाया उन्हें! उनके तो होश ही उड़ गए। फैक्ट्री अधर में घुसती दिखाई दी!
चेहरों के रंग उड़ गए! अब तो पीछे पड़े हमारे, कि कैसे भी करके, शांत करवा दो बाबा जी को! चाहे कुछ भी जो करना पड़े! मैंने उन्हें दिलासा दी, अभी तो हाज़िम से भिड़ना था पहले, न जाने क्या हाल हो! शाम हुई, मैंने भोग आदि का सामान आदि खरीदवा लिया,
और चल पड़े उधर ही, आज हो ही जाना था फैसला! अब वहाँ जाकर, साफ़-सफाई की, एक बड़ा सा दिया जलाया, कुछ अभिमंत्रण किया!
और फिर आसन लगाया अपना, वे तीनों बाहर ही थे, सड़क के पास, शर्मा जी मुझसे दूर बैठे थे, नज़र रखे हुए, मैंने रात के समय,
सारी तैयारी के बाद, अलख उठा दी!
और किया अब अभिमंत्रण कुछ कौड़ियों का! ये कौड़ियां, अभिमंत्रित हो कर, आमंत्रण देती हैं किसी भी शक्ति को! यही किया था मैंने! मित्रगण! कौड़ियां गिरी!
और भूमि में कम्पन्न हुआ! और दहाड़ सी हुई! भूमि हिलने लगी! कैसे भूकम्प आया हो वहाँ!
मित्रगण!
अब जो मैंने देखा, उस से पहले और आज तक, कभी नहीं देखा! वहाँ जैसे आठ देव-कन्याएं प्रकट हुई थीं! आकाश से उतरती हुई! घूम घूम कर! सजीले वस्त्र थे उनके! पुष्ट देह थी सभी की! लाल और सफ़ेद रंग के वस्त्र थे! सुगंध ही सुगंध फैली थी वहाँ! वे भूमि से कुछ ऊपर ही आकर ठहर गयीं! उनके हाथों में फूल थे! लाल लाल फूल! जैसे कोई लाल कनेर! मैं हैरान था! चकित था! किसी का आगमन था शायद यहां!
और तभी! प्रकाश कौंधा! मेरी आँखें मिच गयीं! और जब आँखें खोलीं, तो मेरे सामने वहीं ठीक सामने, कोई सात फ़ीट का एक पुरुष खड़ा था! सफ़ेद दाढ़ी थी उसकी! केश भी सफ़ेद थे! छाती के केश भी सफ़ेद थे! वे कन्याएं, उस व्यक्ति पर फूल बिखेर रही थीं! वो व्यक्ति केशों से तो वृद्ध दीखता था, लेकिन वैसे जबान ही लगता था! चौड़ा सीना था! भुजाएं बलशाली थीं!
जांघे ऐसी पहलवान जैसी! गोरा रंग था! भौहें भी सफ़ेद ही थीं! मालाएं धारण की थीं उसने, भुज-बंध पहने थे, कलाई से लेकर कोहनी तक, रूद्र-माल पहने था वो! अपना सोने का त्रिशूल अपने समक्ष रखे, मुझे ही देख रहा था! लेकिन ये था कौन? फूलों का ढेर लग गया!
और वे देव-कन्याएं घूमते घूमते, आकाश की ओर उड़ चलीं! फूल बिखेरते हुए!
ये कौन है? इतना प्रबल? कहीं बाबा स्वयं तो नहीं? असमंजस में था मैं! घोर असमजंस! मैं खड़ा हुआ, हिम्मत कर,
और हाथ जोड़ लिए, "प्रणाम बाबा!" मैंने कहा,
वो ऐसे ही खड़ा रहा! कोई प्रतिक्रिया नहीं की! अब मैं आगे बढ़ा, जैसे ही बढ़ा, लगा मेरे पाँव पकड़ लिए हैं भूमि ने! हिल नहीं सका मैं! एक रत्ती भी नही! ऐसा कभी नहीं हुआ था मेरे साथ, मैंने ताभण-विद्या का जाप किया! फूंक मारी अपने आप पर!
और मुक्त हो गया मैं! आगे बढ़ा! "ठहर जाओ!" वो बोला, मैं ठहर गया, "कौन हो तुम?" उसने पूछा, मैंने परिचय दिया अपना, "आप कौन हैं बाबा?" मैंने पूछा, "हाज़िम!" वो बोला,
ओह! ओह! हाज़िम! धन्य हुआ में! एक ऐसा सेवक जो, लगातार पैंसठ वर्षों तक,
सेवकाई करता रहा! जिसने पहरेदार बिठाए यहाँ! मैंने हाथ जोड़ लिए पुनः! पाँव पड़ना चाहता था, पर मुझे ठहरने को कहा गया था! "क्या चाहते हो?" उन्होंने पूछा, मैंने बता दिया! "ये तो असम्भव है बालक!" वो बोले, कहर सा टूट पड़ा मुझ पर तो! ये सुन कर! जी किया,
रो पडूं!
दौड़ के पाँव पकड़ लें! भीख मांग लूँ दर्शन की!
आंसू निकल आये थे मेरे! हाज़िम ही वो आखिरी दीवार थी, जिसके पार बाबा के दर्शन होने थे!
लेकिन ये दीवार! अभेदय थी!
लड़ना मेरे बसकी नहीं था! ये मैं अच्छी तरह से जानता था! मैं आगे बढ़ा चला! बाबा हाज़िम. मुस्कुराते चले, मुस्कुराते चले! मेरा मार्ग प्रशस्त हुए जा रहा था! मैं दौड़ पड़ा! सीधा बाबा हाज़िम के पास!
और जैसे ही झुका, बाबा पीछे हो गए! अब मैं घबराया! सच में! बहुत घबराया! "बाबा?" मैंने कहा, "बोलो बालक!" बोले बाबा हाज़िम! "म्झे धन्य कीजिये! मैं आपके पाँव छूना चाहता हूँ!" मैंने कहा, बाबा हँसे! मुझे देखा,
और अपना त्रिशूल, मारा दबा कर भूमि में! मैंने झटका खाया!
जा गिरा पीछे! अपने आसन पर! लेकिन! न खरोंच, न दर्द! मैं खड़ा हो गया! "बाबा??" मैंने कहा, क्रोध में, मझे, क्रोध था उस समय! क्रोध!
अप्रत्याशित क्रोध!
शायद, यही मेरा बल था! क्रोध में अग्नि होती है, तीव्र अग्नि! मैनेन्तभी, रिकतुष्क-विद्या का संधान किया! अब चाहे हाज़िम साहब हों सामने, या साक्षात कोई देवता! मेरा मार्ग तभी छूटता जब मैं, मृत्यु को प्राप्त होता! मैंने त्रिशूल पर, विद्या संचरण किया, और त्रिशूल,
एक थाप के साथ, भूमि में गाड़ दिया! चीखें उभरीं! कई प्रेत स्वाह हुए! और बाबा हाज़िम! टस से मस न हए! खड़े रहे! हँसते हुए,
जैसे मैंने कोई मंत्र नहीं, लोरी-पाद्य सुनाया हो! सही बात है! बाबा हाज़िम कहाँ,
और मैं कहाँ! वो सिद्ध!
और मैं? कुछ नहीं! हाड़-मांस का पुतला! बाबा हाज़िम को कोई फर्क नहीं पड़ा! वो तो बस, मुस्कुराते रहे!
और अब उन्होंने जो किया,
वो मैं सोच भी नहीं सकता था! वायु उठी! मेरे कदम बिगड़ गए, मैं लड़खड़ाया. गिर गया अलख के पास,
और वहाँ अट्टहास हुए। भयानक अहहास! वायु ऐसी कि, शरीर के प्राण ले ले!
बस! मैं ऐन्जाल का संधान किया! दो बार ही जपा होगा, कि वहां, उस शांत माहौल में, आग लग गयी! सारे पे, पौधे दधक उठे! ये महा-माया थी! अब मैंने श्री डोमाक्ष जी की विदया का संधान किया!
और सब! पल में समाप्त! बाबा हाज़िम, चकित! हैरान! ये कैसा मानव है! लेकिन, मैं तो अड़ा हुआ था! हा! हा! हा! अट्टहास हआ उनका! मैं खड़ा था, अब चुपचाप! बाबा हाज़िम, मुझे ही देख रहे थे! उन्होंने मारा एक मंत्र! मैंने जान लिया,
ये संहारक है।
मैंने भी महारुद्र के मंत्र को लड़ा दिया! चिंगारियां उठी! भूमि में कम्पन्न हुआ!
और उसके बाद! सब शांत! अब, बाबा हाज़िम और मैं, एक ही स्थान पर खड़े थे! कैसी हार!
और कैसी जीत! अब तो जीवन की जंग थी! बाबा हाज़िम लगातार हँसे जा रहे थे!
और इस से, मेरा मनोबल, बढ़े जा रहा था! बाबा हाज़िम, अपनी इच्छा से ही वार करते थे। काश!
काश! ये योग्यता. मुझे हांसिल होती! मित्रगण! इसके बाद जो हुआ,
वो मुझे आज तक याद है! बाबा ने, अपना त्रिशूल क्रुद्ध होकर, ऐसा मारा भूमि पर कि.. मेरी अलख, मेरा सामान, सब रद्द-बद्द हो गया! मेरी अलख, शांत हो गयी, सांस न रही उसमे!
मेरा त्रिशूल, भूमि से उखड़ कर, नीचे पड़ा था! क्या बल था! क्या शौर्य था! अकल्पित! मेरा क्रोध तो जैसे, हवा हो चला था! अब तो भय था! मित्रगण! सोचिये, एक ऐसा भी, कि प्राण के लाले पड़े हों,
और फिर एक ऐसा क्षण, जिसमे आपका शत्र, आपको अपना ही लगे!
ये कैसा असमंजस! मित्रगण! मैंने एक निर्णय लिया! एक ऐसा निर्णय, जिस से महासिद्ध अवश्य ही जागते! मैंने तंबराल-विद्या का संधान किया! मेरे संधान करते ही, वहाँ बारिश हुई, मांस और लोथड़ों की बारिश! धूल की बारिश, अस्थियों की बारिश!
और प्रकट हुई एक महा-विद्या! लंगरिका- सहोदरी!
लेकिन! ये क्या? उसका प्रकाश तो उठा, लेकिन प्रदीप्ति से रहित? इसका अर्थ?
अर्थ यही कि, बाबा हाज़िम ने प्रकट ही नहीं होने दिया! मेरे सारे प्रहार, काट डाले गए! मैं तो,निहत्थे समान हो गया! मेरे तरकश के सभी बाण, लक्ष्य-चूक लौट आये थे! मैं सन्न! अब तो प्राण संकट था! या तो प्रेत बम इस स्थान की,
सेवा करो, या फिर अपने किये को भुगतो! बाबा हाज़िम शांत थे, अशांत तो मैं ही था! मेरी कई विद्याएँ, सुप्तावस्था में चली गयीं थी! बस! अब तो! साक्षात्कार करना था! बाबा हाज़िम के क्रोध का!
अब मैं बेकार था! मेरी सारी विद्याएँ निष्फल हो गयीं थीं! अब मात्र मैं खिलौना था! मैं, हार चुका था! मैं उस समय की हालत नहीं बयान कर सकता, लगता था जैसे कि, हाथ आया अवसर खो दिया हो मैंने! बड़ी ही विकट समस्या थी मेरे लिए, जिस औघड़ के लिए, देव-कन्याएं आ रही हों अभिवादन करने, उसका मैं क्या बिगाड़ सकता था! ऐसी कौन सी शक्ति थी मेरे पास, जिस से मैं प्रसन्न करता हाज़िम को!
कोई नहीं! मैं तो अंदाजा भी नहीं लगा सकता था! मैंने फिर से एक बार और, हाथ जोड़े,
और अपने घुटनों पर बैठ गया, हाथ जोड़ कर,
अब केवल याचना बाकी थी! हाज़िम, बिना किसी भाव के मुझे देखे जा रहे थे,
और मैं, किसी आशीर्वाद की आशा में, घुले जा रहा था! "जाओ, अभी जाओ, फिर कभी लौट के न आना!" वे बोले, ये तो कोड़ा था! मरते में दो लात और मारना! "नहीं बाबा! ऐसे नहीं जाऊँगा मैं!" मैंने कहा, मेरा उत्तर अप्रत्याशित था! उन्हें क्रोध आया या नहीं, पता नहीं! "जाना ही होगा!" वे बोले. "नहीं" मैंने मना किया, "ये उचित नहीं!" वे बोले,
अब नहीं पता! उचित या अनुचित! "नहीं बाबा! मैं नहीं जाऊँगा! बिना दर्शन किये तो कदापि नहीं!" मैंने कहा, "नहीं! जाना ही होगा, अब व्यर्थ की बातें छोडो, और निकलो यहां से!" उन्होंने कहा, "नहीं बाबा नहीं!" मैंने कहा, "नहीं! जाओ अब!" वे बोले, वे बोले और लोप हुए! मैं, खड़ा ही रह गया! खाली हाथ! क्या कर सकता था! कुछ नहीं!
वे चले गए थे।
उनका उत्तर न ही था! मैं क्या करता! बैठ गया वहीं!
और लिया एक निर्णय! पीड़ित! पीड़ित कर दूंगा सभी को! किसी को नहीं छोड़ेगा! मैंने तभी के तभी, भलेख-क्रिया आरम्भ की! इस क्रिया से कोई भी अशरीरी आराम से,
नहीं रह सकता, जैसे हमारा दम घुटता है, ऐसा ही होता है, मैंने क्रिया आरम्भ की,
और मचा दिया कोहराम! चीख-पुकार मच गयी! आवाजें आने लगीं ऐसी! यदि कोई व्यक्ति भी इस भलेख-क्रिया को नदी किनारे करता है तो, समेत प्रेत आ खड़े होते हैं समक्ष! वो व्यक्ति उनसे वचन प्राप्त कर सकता है! लेकिन ये क्रिया साधना ही अपने आप में एक साधना है! मैंने वही किया! प्रेत भागने लगे! तड़पने लगे! प्रेतों में हाहाकार सा मच गया! मैं हंस रहा था! उनको तड़पता देख, हंस रहा था मैं!
ठहाके लगा रहा था!
और तभी! तभी मेरे सामने एक चौड़े फाल वाला त्रिशूल आ गिरा! जमीन में धंसा हआ! पीले रंग का और एक काले रंग का, कपड़ा बंधा हुआ था उस पर!
और तभी कौंधा प्रकाश!
हाज़िम प्रकट हुए थे! उनके प्रकट होते ही, मेरी अलख शांत हो गयी! बुझ गयी थी! वो क्रोध में थे! भयानक क्रोध में! मैं खड़ा हुआ! प्रणाम किया उन्हें!
आगे बढ़ा, उन्होंने हाथ के इशारे से मना कर दिया!
और भलेख-क्रिया समाप्त हो गयी! उन्होंने भंजन कर दिया था भलेख का, उसश्वक्क-क्रिया से! यही काट है एक मात्र! वहीं किया था उन्होंने! वे आगे आये, अपना त्रिशूल उखाड़ा, और मुझे वहाँ से जाने का इशारा किया अपने त्रिशूल से! अब वहाँ, सभी मौजूद थे!
वे चार,
कुमंगा आदि! मैं नहीं गया! इटा रहा वहीं! जितना इटा जा सकता था,
उतना तो डटना ही था! मैंने अवज्ञा की थी बाबा हाज़िम की! उन्होंने क्रोध में मुझसे फिर जाने को कहा,
और मैं फिर से नहीं गया! अपितु अपना त्रिशूल भी उखाड़ लिया भूमि में से! इसका अर्थ हाज़िम समझ चुके थे!
की मैं ऐसे नहीं जाने वाला! मैं अलख पर बैठ गया फिर,
ईंधन झोंका!
और अब महानाद किया! बाबा हाज़िम को अब आया क्रोध! वे चारों औघड़,
और दूसरे भी, लोप हो गए! बाबा ने एक बार फिर से चेतावनी दी मुझे!
और मैंने चेतावनी, इस कान सुनी और उस कान निकाल दी! अब तो तय हो गया कि मैं नहीं जाने वाला! बाबा हाज़िम ने क्रोध में अपना त्रिशूल जमीन में गाड़ा! ज़मीन में से आवाजें गूंज उठीं! भयानक आवाजें! जैसे चिल्लाते हुए लक्कड़बग्घे भाग निकले हों झुण्ड में! उन्होंने फिर से एक बार पुनः सोचने को कहा!
और मैंने सिरे से खारिज किया! अब तो औघड़ मद चढ़ा था! या तो मारना था, या फिर दर्शन ले लेने थे! बस! यही था अब तो निर्णय! मैंने अपनी अलख में फिर से ईंधन झोंका!
और नाद किया! अलख भड़क उठी! वहन बाबा ने नेत्र बंद किये,
और अपना त्रिशूल घुमा कर ज़मीन में मारा! जमीन में से तरंगें उठ पड़ी! मेरे नीचे से निकलीं! मुझे झिंझोड़ते हुए!
और वहाँ पर, मांस के पिंड गिरने लगे! ढप्प ढप्प! बदबू फैल गयी! कुछ मेरे ऊपर भी गिरे, उनका रक्त और श्लेष्मा चिपकने लगा मुझसे! मैंने तभी किन्द्रक-विद्या का संधान किया,
जाप किया और जाप करते ही, त्रिशूल को भूमि से छुआ दिया! सभी मांस-पिंड गायब हो गए! बाबा ने फिर से त्रिशूल ज़मीन में मारा!
और फिर से वहाँ अंगार प्रकट हो गए! मैंने फिर से त्रिशूल छुआया और सब लोप कर दिए! अब बाबा ने अट्टहास किया! पीछे हुए, हवा में उठे,
और घूमे! घूमते ही उन्होंने अपने त्रिशूल पर बंधा डमरू खोला,
और बजाने लगे! वहाँ तभी नल-कन्याएं प्रकट होने लगी! कम से कम आठ! गोरा वर्ण था उनका, लेकिन थीं अत्यंत ही स्थूल! मांस लटक रहा था उनका जैसे! कद भी नाटा था उनका, बस कोई चार फ़ीट तक ही! हाथों में तलवारें थीं! केश सफ़ेद थे उनके! मुंह और शरीर रक्त से सने थे! मैं इनकी काट जानता था, धामुरी-मंत्र का जाप किया,
और जैसे ही मुझ पर वार करने के लिए बो भागी, मैंने मिट्टी मार फेंकी सामने! धामुरी-मंत्र ने काम किया!
और सभी लोप हुई! बाबा ने अट्टहास किया! अभी तो खेल बस शुरू ही हुआ था! बाबा नीचे भूमि पर उतरे! मुझे घूर के देखा,
और मंत्र जाप किया! मेरे बदन में आग सी लगने लगी!
लगा सर और सीना सब फटने वाला है! लगा ये आग मुझे अंदर से ही जला देगी! मैंने मंत्र पढ़ा, और पढ़ते ही, अलख की भस्म चाट ली! जलन समाप्त हुई! फटन भी समाप्त हुई! बाबा ने फिर से अट्टहास किया!
और अब मैं खड़ा हो गया! फिर से डमरू बजा!
और फिर से कुछ ना कुछ होना था! वही हुआ!
आकाश से, दो कन्याएं उतरते दिखीं! नग्न कन्याएं, हाथों में डमरू लिए,
शरीर पर कोई वस्त्र ना था, केश कमर तक थे, देह अत्यंत सुडौल थीं उनकी, कद कमसे कम साथ फ़ीट रहा होगा, वे आते ही, बाबा हाज़िम की भवरें काटने लगी! ऐसा प्रबल और अद्भुत औघड़ तो मैंने देखा क्या, सुना भी नहीं था! उसकी शक्तियां बेमिसाल थीं! पल में ही प्रकट होती थीं!
ना कोई आह्वान ना कोई जाप! बस अपने डमरू में बाँध रहा था उसने! उसकी ऐसी ताल निकलती थी कि बस, जैसे सुने ही जाओ! सुने ही जाओ! नशा होने लगता था उसकी ताल सुन कर! श्मशान में साधना करते श्री महाऔघड़ के बजते इमरू,
का ध्यान हो उठता था! अद्भुत हैं बाबा हाज़िम! अद्भुत!
और कोई शब्द नहीं हैं मेरे पास! उनकी व्याख्या करने हेतु! वे शौभ-कन्याएं थीं! ये कन्याएं सर्प-कन्यायों समान होती है, नैऋत्य कोण वासिनी हैं! एक महा-विद्या की सेविकाएं हैं ये! उनकी भुजाओं में बंधी रखती हैं। शौभ-कन्या भवरे काट रही थीं उनके! जैसे वे कोई देव हो! सच में! वे देव समान ही थे!
और फिर वे सीधी खड़ी हुई! और मेरी ओर देखा, मैंने मन ही मन और्धाग-विद्या का जाप किया! ये विद्या स्वयं मुझे मेरे दादा श्री ने सिखाई थी! तीन माह लगते हैं सीखने में,. यदि सिद्ध हो जाए तो ऐसी कोई भी कन्या आपका, अहित नहीं आकर पाएगी! शौभ-कन्या के योनि नहीं होती, मुंह ने सर्प-जिव्हा हुआ करती है, ये मात्र विध्वंसक हुआ करती हैं!
और इसीलिए वो आयीं थीं! अब मैंने गुरु-नमन किया! अपन त्रिशूल उठाया, उसपर विद्या का आवरण चढ़ाया!
और जैसे ही वे शौभ कन्याएं मेरी ओर झपटीं, मैं घूमा और, अपना त्रिशूल, छुआते चला गया उनसे! विद्या की चपेट में आते ही,
HU
बाबा हाज़िम के चरणों में गिर पड़ीं! वे फिर से झपटी, मैंने महाकाल का महानाद किया,
और फिर से आती हुईं उन कन्यायों को, त्रिशूल की चपेट में ले लिया! टक्कर हई!
और वे हुई लोप! भाग खड़ी हुईं! मैंने संतुलन बनाया अपना, त्रिशूल को चूमा, भूमि में गाड़ा,
और खड़ा हो गया! बाबा हाज़िम, सब देखते रहे! लेकिन कोई भाव नहीं आया उनके चेहरे पर! शून्य ही रहा उनका चेहरा! वे हवा में उठे, हवा में ही आसन लगा, बैठ गए, सोच में पड़े, कि एक तुच्छ सा मानव, कैसे लड़ रहा है, कैसे भिड़ रहा है!
जान की बाजी लगाए हुए है। प्राणों की भी परवाह नहीं! मैं तो टिका हुआ था, अपने संचित ज्ञान के बल पर, अपने गुरु के विश्वास पर, अपनी विद्याओं के बल पर! अपने गुरुओं से सीखी विद्याओं के बल पर! बाबा ने फिर से डमरु उठाया, बजाया,
इस बार ताल अलग थी!
आकास जैसे नीचे आ गया! सबकुछ शांत हो गया वहाँ! मेरी अलख मोमबत्ती से हो गयी! बाबा ने तेज बजाना शुरू किया डमरू!
और प्रकट हुआ एक महाभट्ट! यक्ष सा लगा मुझे! उस महाभट्ट के मस्तक पर एक त्रिपुण्ड कढ़ा था!
और मेरे भी! हम एक ही पंथ के थे! पर इस समय शत्रु थे! मैंने भी एक जाप आरम्भ किया, रौद्रौलिक जाप! इस जाप से, घड़ों में बंद, कैद में पड़े प्रेत, डाकिनी, शाकिनी, आदि आदि, सभी मुक्त हो जाया करते हैं! ये महाभट्ट कौन था, नहीं पता चल रहा था, लेकिन रंग-रूप से, कौलिक-पुरुष लगता था! जैसे डाकिनी हुआ करती हैं! वो चिंघाड़ा! अपना खड़ग उठाया,
और भाग लिए मेरी तरफ! मैं खड़ा था ही, त्रिशूल आगे किया,
और भाग लिया उसके ओर! हम टकराये!
मैं दूर जा गिरा!
और वो! वो कहाँ गया पता नहीं! मेरे जाप ने, लोप कर दिया था उसे! मैं खड़ा हुआ,
अपने त्रिशूल नहीं छोड़ा था मैंने, बस, अपनी अलख से, बीस फीट दूर जा गिरा था, घास में, मेरी गर्दन में दर्द हो रहा था, हाथ लगाया, कुछ कांटे धंसे थे, वो कांटे निकाले,
और आया अलख तक! भस्म और तेल, मिलकर लगा लिया उन ज़ख्मों पर! रक्त बंद हो गया!
और मैंने सामने देखा, बाबा हाज़िम नहीं थे वहाँ! वे भी लोप हो गए थे! कोई नहीं था अब वहां!
और तब मुझे कुछ सुनाई दिया, कोई भागे आ रहा था, ये धौला था! शौला ने आते ही, मेरे त्रिशूल लिया,
और गाड़ दिया, फिर अपना त्रिशूल दिया मुझे, बहुत भारी था, अपना त्रिशूल देकर, भाग गया! कुछ समझ नहीं सका मैं!
क्यों आया था वो? क्यों दे गया त्रिशूल? तभो प्रकाश कौंधा!
और बाबा हाज़िम प्रकट हुए! इस बार,
औघड़ वेश-भूषा में, भस्म मले,
त्रिपुण्ड काढ़े, कपाल लिए, अस्थियां लिए उस कपाल पर, चिन्ह बने थे! मुझे नहीं समझ आया कि क्या थे वो, कोई पुराना ही मसला था! बाबा बैठ गए, कपाल सामने रखा, अस्थियां उसके सर पर रखीं! और अपना त्रिशूल उठाया, कपाल पर हाथ फेरा! आकाश में एक हाथ उठाया, आकाश की ओर,
और मारा पृथ्वी में घुसा! मित्रगण! उन्होंने घुसा मारा!
और मैं हवा में उठा! जैसे किसी ने मुझे, भारहीन कर दिया था! मुझे कुछ समझ नहीं आया, करीब पंद्रह फ़ीट ऊपर आ गया था मैं, नीचे गिरता तो हइडियां टूट जानी थीं! मेरे हाथ में बो त्रिशूल था! मैंने मंत्र पढ़ा! करूंड़-मंत्र!
और त्रिशूल फेंक मारा नीचे! त्रिशूल नीचे जा गड़ा!
और मैं धीरे धीरे नीचे आता चला गया! लेकिन इतने में ही, मेरी साँसें उलझ गयी थीं! बाबा हाज़िम हँसे! ठहाका मारा!
अट्टहास किया!
और वो अस्थियां उठायीं कपाल से! ऊपर की ओर की,
और मारी कपाल के मुंड पर! मुझे छींक आई! मेरी नाक,
कान, आँख,
मुंह
लिंग, गुदा, सभी से रक्त बह चला! भयानक पीड़ा हुई! छींकें लगातार आती,
और खून के थक्के बाहर गिरते जाते! मैंने त्वरित रूप से, एक मंत्र पढ़ा! मेरी जान निकलती जा रही थी, एक एक शब्द बोलते हए! छीक नहीं रुक रही थीं, मंत्रोच्चार में भी बाधा उत्पन्न हुए जा रही थी, किसी तरह मैंने यौमिक-मंत्र पढ़ा,
और मन्त्र जागृत होते ही, मेरी सारी पीड़ा समाप्त हो गयी। रक्त रुक गया, मेरी जान में जान आई!
और नव-चेतना का संचार हुआ! अब जाकर मुझे अपने जिंदा होने का एहसास हुआ! वहाँ बाबा हाज़िम, हंस रहे थे! ठहाके लगा रहे थे!
और मैं, इटा हुआ था!
सबकुछ सहते हुए भी! सहना ही था, दर्शन इतने दुर्लभ जो हो उठे थे,
ये हाज़िम नाम की दीवार, अभेद्य थी! मैं तो बस प्रतीक्षा में था, कि कब मैं इस दीवार में सेंध लगाऊं! लेकिन दीवार इतनी मज़बूत थी,
और मेरे ही वार, मुझ पर चोट करते थे। तभी बाबा उठे, इमरू बजाया,
और भूमि हिली! कम्पन्न हआ भूमि में, किसी अनिष्ट की आशंका मन में घर करने लगी! जमीन में से, पीले रंग का धुआं निकला,
और उस धुंए ने, देखते ही देखते, एक स्त्री का रूप धारण किया!
ओमेशिक! ओमेशिक डाकिनी! अब कोई आह्वान नहीं करता इसका, अब दुर्लभ है ये! आज के तंत्र में इसका स्थान भुला दिया गया है! ओमेशिक डाकिनी, यक्षिणी समान होती है, विशेष शक्तियों से युक्त,
मृत शरीर में भी प्राण फूंकने वाली! ऐसा सामर्थ्य है इसका! ये अत्यंत ही कामुक, शालीन, स्नेही, काम-प्रसून,
और असीम आनंद देने वाली होती है! भूमि में इसका वास है! पीले इसके वस्त्र है,
देह, सफ़ेद कनेर के फूलों समान है! वो चली, मेरे पास आई, मुझे देखा, काम-बाण चलाये! "साधक!" वो बोली, मैं खड़ा हुआ, प्रणाम किया उसको, वो मुस्कुराई, "मेरा वरण करो! और समस्त सुख भोगो!" उसने कहा, सुख! कैसा सुख! सभी सुख एक समान हैं! सभी के सभी!
खुशी के कारण! सुख! कैसा सुख! सब क्षणिक है! स्थायी तो कुछ नहीं! मैं मुस्कुराया, अपना त्रिशूल उखाड़ा, उसकी टेक ली,
और खड़ा हुआ, "नहीं देवी! मैं वरण नहीं कर सकता!" मैंने कहा, वो हंसी! मुझे देखा, आगे आई, और मेरे वक्ष को छुआ! मेरे शरीर में तरंग उठी! पल में ही, उसकी देह, ऐसी सुकोमल हो उठी, जैसे कोई पुरुष अपनी कल्पना-स्त्री को देखता है! मैं संयत हुआ, उसका हाथ हटाया,
ये उपहार था, काम-उपहार, बाबा हाज़िम ने, जांचा था मुझे! उस ओमेशिक ने, मुझे चुंबन दिया, मेरे माथे पर, फिर चेहरे पर, हर जगह! मैंने हाथ हटा लिया उसका,
और पीछे हो गया! अब उसने मुझे, हेय दृष्टि से देखा! यही तो चाहता था मैं! वो पलटी, गुस्से में, और चली वापिस, बाबा हाज़िम से रु-ब-रु हुई,
और लोप हुई! बाबा हाज़िम, मुस्कुरा उठे! नीचे बैठे,
और फिर से डमरू बजाया! आकाश में चमक हुई, नौ पारुक्ष-कन्याएं प्रकट हुई! मित्रगण! पारुक्ष कन्या! बहुत दुर्लभ हैं! ये रति का श्रृंगार किया करती हैं! इनके स्पर्श मात्र से ही, पुरुष स्खलित हो जाता है! इनका रूप, इनकी देह. इनका हाव-भाव, सब दैविक हुआ करता है! तांत्रिक, सिद्ध किया करते हैं इन्हे!
और समस्त काम-सुख प्राप्त किया करते हैं,
इनके सिद्ध होते ही, वो पुरुष अपनी मनचाही स्त्री का, कन्या का भोग करने में सक्षम हो जाता है, मात्र नाम ही लेना है उसे उसका!
और वो खिंची चली आएगी! ये मोहन-तंत्र की अधिष्ठात्री हैं! वहीं परकश-कन्याएं, मेरे समक्ष थीं! काट यही थी कि, उनके किसी भी प्रश्न का उत्तर, ही नहीं दिया जाए!
और यही मैंने किया, उन्होंने, टटोल मार मुझे पूरा, एक एक अंग, लेकिन मैं विचलित नहीं हुआ! मैं शैव-रूप का जाप करता रहा, मन ही मन! जब वो चुक गयीं, तो वापसी हुई, हवा में उठीं,
और लोप हुई! मैं अभी तक टिका हआ था! मेरे लिए सौभाग्य की बात थी! अब हाज़िम बाबा उठे, कपाल हटा दिया उन्होंने,
और चले मेरी ओर, मैं खड़ा हो गया, हाथ जोड़कर! वे आये मेरे करीब, मैं रोक नहीं पाया अपने आप को!
और झुक गया! पाँव पड़ लिए उनके!
"उठो!" वे बोले,
मैं उठा,
आँखों से जल बह रहा था मेरे, अपनी ऊँगली से,
आंसु की धारा रोकी उन्होंने! और मेरे सर पर हाथ फिराया! और फिर, मेरे दादा श्री का नाम लिया, मेरे पिता श्री का,
और फिर मेरा! "बहुत हठी हो तुम!" वे बोले, मुस्कुराते हुए! मैं क्या बोलता, कुछ शब्द न निकले मुंह से! "बालक!" वे बोले, मैं गिरने को हुआ, उनका तेज नहीं सह पा रहा था मैं, संभाल लिया उन्होंने, मेरे दोनों कंधे पकड़ लिए थे! "आओ!" वे बोले!
मैं,
चेतना-शून्य, चल पड़ा उनके साथ, हाथ जोड़े,
अब मैं, मैं नहीं था, मैं तो मात्र, एक छाया भर था! यही लगा मुझे! एक जगह ले गए मुझे, पीले रंग का प्रकाश फूट रहा था वहाँ, उस भूमि से, किरणे जगमगा रही थीं!
आपस में ही,
लड़े जा रही थीं! उन्होंने, अपना हाथ आगे बढ़ाया,
और मेरे माथे से लगाकर, मेरे नेत्र ढक दिए!
और जब मैंने नेत्र खोले, स्थान बदल चुका था! हरे भरे वृक्ष थे वहाँ, पौधे, फूल लगे हए, हरी हरी कोमल घास थी वहाँ,
अँधेरा नहीं था! लेकिन कोई था भी नहीं, न बाबा हाज़िम,
और न कोई दूसरा! वहाँ कोई नहीं था! लेकिन मैं एक खूबसूरत से, डेरे में खड़ा था, वहां एक मंदिर भी था, पीले रंग का, पताका फहरा रही थी उसके शीर्ष पर! लेकिन वहा था कोई नहीं, सब कहाँ थे, पता नहीं, मैं आगे बढ़ा, मैं सभी का नाम पुकारा, बाबा हाज़िम, खाड़ तेवत, रन्ना, धौला का, कोई नहीं था, वो डेरा जैसे खाली पड़ा था, मैं एक ऐसे स्थान पर खड़ा था, जो एक मार्ग था, मार्ग उस मंदिर तक जाने हेतु, ये कुछ ऊंचाई पर बना था, लेकिन सीढ़ियां भी नहीं थीं, बस, ज़मीन उठती चली गयी थी, वहाँ गुइहल के फूल लगे थे,
मधुमालती के बेलें लगी थीं, केले के वृक्ष थे, फूल आ चुका था सभी में, कुछ अनार के पौधे भी थी, कुछ पर फूल आ रहे थे, एक तरफ, चंपा के पौधे थे, किसी ने बहुत ध्यान रखा था इस स्थल का!
लेकिन कोई था नहीं, मैं विस्मित सा खड़ा था! बाबा हाज़िम भी न जाने मुझे यहां लाकर, कहाँ चले गए थे! तभी पीछे एक आवाज़ हुई, जैसे कोई बाल्टी गिरी हो, मैं पीछे घूमा, पीछे देखा तो बाबा हाज़िम, अब एक बड़े से काले चोगे में खड़े थे,
साथ में वे चारों औघड़ थे! मैं चल पड़ा उनकी तरफ! वे सभी मुस्कुरा रहे थे! मैं गया और प्रणाम किया सभी को! उन्होंने प्रणाम स्वीकार किया मेरा! "आओ!" बाबा हाज़िम ने कहा, मैं चल दिया उनके साथ, वे मुझे एक पेड़ तक ले गए, वहाँ एक चबूतरा बना था, चबूतरा गोबर और मिट्टी से लीपा गया था, वे बैठ गए, मैं भी बैठ गया, "ये है बाबा अज़ाल का स्थान!" बोले बाबा हाज़िम, मैंने नमस्कार किया उन्हें, मन ही मन, आँखें बंद कर, लेकिन मन बेचैन था बहुत, बाबा अजाल कहाँ थे अभी तक? मैं बहुत जतन करके यहां तक आया था! बाबा हाज़िम मुस्कुराये! तभी एक स्त्री आई,
हाथ में मिट्टी के पात्र थे उसके पास, उसने सभी को प्रणाम किया, वो पात्र सभी ने एक एक उठाया, मुझे भी दिया, मैंने देखा, उसमे पेय पदार्थ था, मैंने यूंट भरा, खस-खस की सुगंध फैल उठी! इसको शुद्ध शहद से बनाया गया था,
वो स्वाद, उस बो स्वाद अभी तक याद है मुझे, मैं दो बार पिया था वो! बहुत मीठा था, होंठ चिपचिपा गए थे मेरे! रन्ना ने कुछ बातें की अब बाबा हाज़िम से, मेरी समझ में नहीं आया कुछ भी, कोई स्थानीय भाषा रही होगी वो! मुझे तो बेचैनी थी! बहुत बेचैनी! फिर अब मुझे वहाँ लोग दिखने लगे, बालक-बालिकाएं,
सभी प्रणाम कहते, कोई तुतला कर प्रणाम कहता, कोई पाँव छू कर प्रणाम कहता, कन्यायों का पाँव छूना किसी के भी, मना था वहाँ! आप कन्यायों के पाँव छू तो सकते थे, लेकिन कुआ नहीं सकते थे! कुछ और लोग भी आये, बड़े बड़े साफे बांधे, वे सभी कुछ न कुछ ल ही रहे थे, जीवित था वो डेरा! आज भी जीवित है वो डेरा मित्रगण!
समय बीता, खाड़ बाबा खड़े हुए, धौला भी खड़ा हुआ,
और फिर रन्जा भी चलता बना, सबका अपना अपना काम था कुछ, मुझसे आँखें मिलाते हुए, सभी चले गए, अब रह गए मैं और बाबा हाज़िम! अब बाबा हाज़िम मुझसे मुखातिब हुए,
और मेरी खूब बातें हुईं उनसे! बाबा हाज़िम, आज के जूनागढ़ के वासी थे, मात्र तेरह वर्ष में, बाबा अजाल से मिले थे, उसके बाद कभी भी, बाबा अजाल का साथ नहीं छोड़ा! बाबा अजाल राजस्थान के थे, साथ भाइयों में, सबसे छोटे थे, बाबा अजाल ने, मात्र अठारह वर्ष की आयु में, इतना सबकुछ प्राप्त कर लिया था, जिसके लिए कई जन्म चाहिये! बाबा अज्राल के विषय में वो बताते जाते,
और मैं बैठे बैठे, भारी, और भारी होता जाता! चालीस वर्ष की आयु में परम-सिद्धत्त्व प्राप्त कर गए!
और इस प्रकार, इस सिद्धत्त्व से उन्होंने बाबा हाज़िम को भी सिद्धत्त्व प्राप्त करा दिया! मेरे समक्ष एक महा-प्रबल सिद्ध बैठे थे! मेरे लिए तो, वे श्री महाऔघड़ का ही रूप थे! मैंने चरण स्पर्श कर लिए उनके! मुझसे पहले कोई सौ वर्ष पहले, एक औघड़ आया था यहां पर, अपने लाव-लश्कर के साथ! उसको खबर मिली थी की यहां पर,
एक सिद्ध जागृत अवस्था में हैं, वो औघड़ पांच रात्रि डटा रहा,
और छठे दिन, बाबा हाज़िम के हाथों परास्त हुआ, उसका लाव-लश्कर भाग छूटा! ये रन्जा वही था! आज उन सिद्धों के संग, विचरण करता है! उसने यही नियति चुनी थी! बाबा अज्राल की सेवा चुनना! बाबा अजाल ने, स्वीकार कर लिया था उसका वो प्रस्ताव! मुझ पर भी कृपा हुई थी बाबा हाज़िम की, मैं तो पल पल, उन्ही के ध्यान में लगा था, एमी कोई काट नहीं कर रहा था, बस इतना कि जो मैंने सीखा था, उसका पालन कर सकूँ! मैंने नियम नहीं तोड़े थे, कायदे के भीतर ही लड़ा था, कोई वार नहीं किया था,
और आज, आज मैं यहां था! "उठो!" बाबा हाज़िम ने कहा, मैं उठ पड़ा,
वे चले,
मैं संग चला, वे जहां से चलते, लोग प्रणाम करते, हाथ जोड़कर! मुझे तो अपने भाग्य पर, यकीन ही नहीं हो रहा था! बाबा आगे आगे,
और मैं उनके पीछे पीछे, वे ले गए मुझे एक स्थान पर, ये स्थान बहुत सुंदर था, बहुत सुंदर! कोई प्राचीन उपवन सा लगता था! जल बहने के लिए, क्यारियां निकाली गयी थीं, पौधे लगे हुए थे, कुछ सब्जियां आदि भी, लगाई गयी थीं, हम दोनों, उस चौड़ी से मेंढ़ पर, आगे बढ़े जा रहे थे! सामने एक पेड़ों का झुरमुट था, पीपल, शीशम और बरगद के वृक्ष थे,
और इन्ही झुरमुटे में, एक झोंपड़ी सी बनी थी, काफी बड़ी! बहुत बड़ी, बड़ी और ऊंची, बाबा हाज़िम ने, वहीं से प्रणाम किया! मैंने भी किया,
और आनंद का अनुभव हुआ! सामने ही वो झोपड़ी थी! उसके आसपास की भूमि पर, असंख्य दीये झिलमिला रहे थे! लोहबान और कीवट की मिलीजुली, गंध फैली थी वहां! असीम शान्ति थी! ये पृथ्वी तो लगती ही न थी! ये तो कोई यक्ष अथवा गान्धर्व का उपवन सा लगता था! जंगली भौलम के फूल लगे थे, नीले सफ़ेद,
काले लाल, बहुत सुंदर स्थान था वो! अब बाबा हाज़िम आगे बढ़े, मैं भी बढ़ा, घास बहुत मुलायम थी वहां की,
ओस जमी थी उस पर, हम आगे चले चले गए, सामने देखा, सेविकाएं साफ़-सफाई में लगी थीं! सभी ने चटख हरे वस्त्र पहने थे! सब एक समान ही थीं! सभी ने प्रणाम किया, बाबा हाज़िम ने भी प्रणाम किया,
और फिर मैंने भी! हम आगे बढ़े,
और उस झोपड़ी के सामने आये, अब मेरा दिल धड़का! पसलियों से बाहर आ जाएगा, ऐसा लगा! नसें फड़क उठीं! संवेदनाएं जागृत हो गयीं, नेत्र गीले होने लगे, साँसें फूल गयीं मेरी! बाबा हाज़िम ने मुझे देखा, मुस्कुराये,
और मेरे सर पर हाथ फेरा! मैं सामान्य हो गया, मानवीय संवेदनाएं शांत हो गयीं, धड़कन सामान्य हो चली! हाँ, नेत्र, वे नहीं माने! गीले ही रहे! हमने पहली सीढ़ी चढ़ी! गोबर और उसमे लीपी हुई मिट्टी की,
सौंधी सौंधी महक आई! फिर दूसरी,
और फिर तीसरी, यहां दीवारों पर, चित्र बने थे! तांत्रिक चित्र! कलाई और सफ़ेद स्याही से, जिव्हायें, लाल रंग से रंगी गयीं थी! उस झोंपड़ी की चौखट कोई, चौदह-पंद्रह फीट की रही होगी! हम अंदर चले,
अंदर का महल तो जैसे, देवलोक समान था! छत पर जैसे, बादल मंडरा रहे थे! शीट फैली हुई थी, मेरे रोंगटे खड़े हो गए, एक आसन पड़ा था वहाँ, एक व्याघ्र-चर्म, एक बड़ा सा, भारी स्वर्ण-त्रिशूल! स्वर्ण का ही चिमटा! सामने वेदिका बनी थी! लोहबान और कीवट की गंध यहीं से आ रही थी! लेकिन बाबा नहीं थे वहाँ! मैं हैरान था! कि कहाँ चले गए हैं? तभी हाज़िम बाबा ने समझाया, वे भ्रमण पर हैं, अन्य सिद्धों के पास!
ऐसा ही होता है, ये परम सिद्ध, ऐसा ही किया करते हैं! इच्छा की गति से विचरण करते हैं! बाबा ने मुझे बिठा दिया, और स्वयं भी बैठ गए,
मैं तो माहौल देखता रहा वहाँ का, मालाएं पड़ी थीं, अजीब अजीब से पात्र थे वहाँ! मैं तो जैसे स्वप्न में विचरण कर रहा था! दीवारें ऐसी थीं,
जैसे चांदी का मुलम्मा मढ़ दिया हो उन पर, छत नज़र नहीं आ रही थी, लगा जैसे, आकाश में हो वो छत! बादल थे वहाँ, सघन बादल!
और फिर एक दिव्य प्रकाश कौंधा! मैं तो देख भी न सका! बिजली सी चमकी! बाबा हाज़िम खड़े हुए, मैं भी खड़ा हुआ,
और जिसको सामने देखा, मैं तो पत्थर बन गया! एक सात साढ़े सात फ़ीट का व्यक्ति, सफ़ेद दाढ़ी-मूंछे, दाढ़ी पेट तक थी उनके!
आँखें चमकदार थीं! केश अत्यंत सघन थे! गले में मालाएं धारण किये हुए थे, चेहरा, बहुत चौड़ा था, कंधे,
बहत चौड़े और मज़बूत थे! माथे पर त्रिपुण्ड बना था, भुजाओं पर, रूद्र-माल धारण किये हुए थे, कलाइयों में, लाल रंग के मजीठे बांधे हुए थे, चेहरे पर ऐसा तेज,
कि जैसे स्वयं सूर्य उनके चेहरे को, प्रकाशित कर रहे हो! वे वृद्ध अवश्य थे, परन्तु आज के आधुनिक मनुष्य की तीस की उम्र के पास के से लगते थे! ऊपर का तन उघड़ा हुआ था, बस मालाएं ही उनका वो वस्त्र था! नीचे कमर के, काले रंग की धोती पहने थे! मैं तो आश्चर्यचकित था! ऐसे दिव्य-रूप की तो मैंने कभी कल्पना भी न की थी! अब बाबा हाज़िम ने प्रणाम किया उन्हें, उन्होंने हाथ उठाया, बाबा हाज़िम के कंधे पर रखा और मुझे मुस्कुरा के देखा! मेरे तो शब्द ही खो गए! हलक सुख गया!
आँखें फ़टी रह गयीं! मुझे कुछ और न सूझा, झट से उनके चरणों में गिर पड़ा! आंसू बहाता रहा! मुझे उठाया बाबा हाज़िम ने!
और अब बताया कि ये ही बाबा अजाल हैं! मेरे आंसू मेरी दृष्टि को, झिलमिल कर रहे थे, मैंने आंसू पोंछे, बाबा अजाल मुस्कुराये! मेरे सर पर हाथ रखा! सच कहता हूँ मित्रगण! जी किया कि, अब नहीं जाऊं वहाँ से कभी! यहीं बस जाऊं
और देह-त्याग पश्चात, सेवक बन जाऊं बाबा का,
हमेशा हमेशा के लिए! साकार हो जाए ये मानव जीवन मेरा! अब बाबा अजाल ने, मेरे सभी पूर्वजों के नाम ले डाले, वो भी, जिनके बारे में कभी सुना भी नहीं था मैंने, मेरी आने वाली संतितियों के भी, सभी नाम ले डाले! जैसे शून्य में नाम लिखे हों उनके!
और वे, मात्र पढ़ रहे हों! मेरे दादा श्री का नाम लिया,
और हाथ उठाया, अभय-मुद्रा में,
और मेरे सर पर रख दिया! मैं तो धन्य हो गया! "पिपरिका!" वे बोले, पिपरिका!
बहुत तरसा हूँ इस विद्या के लिए, कोई नहीं मिला आज तक! कोई भी नहीं! कहाँ कहाँ नहीं गया मैं! क्या क्या नहीं किया मैंने! कोई नहीं मिला! तभी वायु में से, एक अग्नि-पिंड सा प्रकट हुआ! उस पिंड ने, परिक्रमा की, उनकी और बाबा हाज़िम की, मेरे सर के ऊपर आया,
और धंस गया, मुझे शब्द सुनाई देने लगे,
मैं अचेत हुए जा रहा था, ब्ब हाज़िम ने थाम लिया था मुझे, अन्यथा, मैं अचेत हो ही जाता! मुझे पिपरिका का आदि और अंत, सब स्मरण हो चला! जैसे कभी बालपन में ही सीख लिया हो! मैं झुका, और बाबा अज्राल के पाँव पकड़ लिए, उन्होंने झुकते हुए, मुझसे उठाया,
और अपने अंगूठे से, एक टीका लगा दिया मुझे! भस्म का टीका, अपने गले पर मली भस्म से! अब मैं तो धन्य हो गया! रोम रोम पुलकित हो उठा! बाबा अजाल मुस्कुराये,
और पल में ही लोप हुए! मैंने तो पलक भी न झपकी थे! अब बाबा हाज़िम ने, मेरे कंधे पर हाथ रखा,
और बाहर चलने को कहा, मैं बार बार पीछे देख लेता था! बार बार! हम चल दिए वहाँ से, धीरे धीरे, रन्ना मिला,
खाइ तेवत भी, धौला भी, सभी गले मिले!
और अब मैं चला वहाँ से, बाबा हाज़िम के साथ!
अब बाबा हाज़िम ने कुछ निर्देश दिए, उस भूमि के विषय में!
मैं सब मानता गया!
और फिर बाबा ने मेरे माथे पर हाथ रखा, और फिर नेत्रों पर, फिर हाथ हटा दिया, हम वहीं आ गए थे,
जहां से चले थे! बाहर, यहां मेरा संसार था! अब विदाई का समय था! मन तो नहीं कर रहा था, लेकिन, आदेश था बाबा हाज़िम का! मैं उनके संसार के लायक नहीं था अभी! बाबा हाज़िम ने अब गले से लगाया मुझे, मेरे आंसुओं के सैलाब ने बाँध तोड़ दिया! मैं खूब लिपट के रोया उनसे! "हम यहीं हैं! कभी भी आ जाना!" वे बोले,
ओह! ये तो उपहार था! अब मैंने पाँव पड़े उनके! मैं जैसे ही उठा, वे लोप हो गए! मैं वहीं बैठ गया! सुबह के पौने छह हो चुके थे! करीब आधे घंटे के बाद, मैं चला वहाँ से! वापिस, शर्मा जी लेटे हुए थे, एक पटिया पर, मुझे देखा, भागे भागे आये! मैं बैठ गया उनके साथ!
और सारी बात बता दी उन्हें! उन्होंने गले से लगाया, और हाथ चूम लिए मेरे! मित्रगण!
