आये, बसंत विहार, रोहताश जी से बात हुई उनकी, सारा दुखड़ा रो दिया उनके सामने, रोहताश जी ने मदद करने का वायदा किया,
और, मुझे याद है, वो कोई साढ़े सात बजे का समय था,
मैं किसी काम में व्यस्त था, मेरा फ़ोन बजा, ये रोहताश जी थे, हालचाल पूछे,
और फिर सीधे ही काम की बात पर आ गए, उन्होंने मुझे बताया कि ये तीन लोग बहुत बड़ी मुसीबत में हैं, घर बिक जाएंगे, बच्चे, पत्निया, सड़क पर आ जाएंगी,
- पायाशी नकी। बड़ी ही विचित्र समस्या थी उनकी! आखिर मैंने उन तीनों से मिलने का फैसला किया,
और एक स्थान पर अगले दिन दो बजे आने को कह दिया! अगले मैं. शर्मा जी के साथ उस स्थान पर जा पहुंचा, वे तीनों वहीं मिले, बड़े ही परेशान थे, जेब से, गोलियों के पत्ते झाँक रहे थे, ऐसी हालत थी! अब मैंने उसने सारी बात सुनी, शुरू से लेकर आखिर तक, उन्होंने मुझे पहले दिन से लेकर,
आज तक की सारी कहानी सुना दी! वो ओझा, मारा गया था अपनी गलती से, उसने बिना जाने ही छत्ते में हाथ डाल दिया था, उसे ऐसा करना ही नहीं चाहिए था, वो बाबा , जो लड़की को साथ लेकर बैठा था, उसका भी कार्य अनुचित था, उसने भी कम ही आँका था, इसीलिए मरते मरते बचा, बाबा शिवराज, प्रबल थे, लेकिन गच्चा खा गए, चुनौती दे डाली वो भी ब्रह्म-राक्षस को! ये जानते हुए कि वो जिव्हा भी कील सकता है, जब मंत्र ही नहीं पढ़ पाओगे तो रक्षा क्या ख़ाक होगी! इसीलिए सभी ने गलती की थी!
बाबा शिवराज तो और भी एक कदम आगे बढ़ गए थे, धमकी दे डाली थी कि उसको जाना होगा वहां से, बिना सत्य का पता लगाए!
समस्या गंभीर नहीं, अत्यंत गंभीर थी! वहाँ क्या है? ये चौंसठ ब्रह्म-राक्षस एक साथ कैसे? ये तो अकेले ही रहते हैं? फिर?
एक साथ कैसे? ये जानना ज़रूरी था, यहीं थी असली गुत्थी! या तो ये कोई ब्रह्म-स्थली थी, अथवा कोई अन्य सिद्ध-स्थान! जिसकी ये रक्षा कर रहे हों!
था तो कुछ ऐसा ही, मैंने उनसे कहा कि, कल मैं आता हूँ उनके पास, मुझे जगह दिखाइए, वे खुश! मान गए! कहने लगे सुबह आ जाएंगे लेने, मैंने कहा कि हम ही पहुँच जाएंगे!
और बात तय हो गयी! वे भी गए,
और हम भी, मैं डेरे पहुंचा, मैंने बाबा खम्मट को फोन लगाया, बाबा खम्मट कानपुर के समीप ही एक डेरे में रहते हैं, वो ब्रह्म-राक्षस को साध लिया करते हैं, उन्हें सिद्ध कर लिया करते हैं, प्रसन्न कर लिया करते हैं! लेकिन कोई काम नहीं लेते उनसे!
उन्होंने मुझे एक बात बतायी, कि हो न हो, वहाँ कोई सिद्ध-स्थान है! इसीलिए मुझे चेताया कि मैं पहले जांच लें, फिर आगे बढूँ!
कुछ और बातें भी बतायीं उन्होंने, मैंने अंटी में बाँध ली! आया अगला दिन, उनका फ़ोन आया,
और हम निकल गए वहाँ के लिए, यातायात से लड़ते हुए,
जा पहुंचे दिल्ली के इस कोने से, उस कोने तक! वहाँ पहुंचे, चाय पी, नाश्ता किया,
और फिर चल पड़े हम! हम जा पहुंचे, निर्माण का सामान वहीं बिखरा पड़ा था,
दीवारों में दरारें पड़ी थीं! मैंने जाते ही, वहाँ की मिट्टी से अपना तिलक, और शर्मा जी को तिलक किया! ये सम्मान था! उस शक्ति का सम्मान जो यहां थी! बस अब जानना था कि कौन सी है ये शक्ति! कौन हैं वो! मैं आगे गया, क्रिया का सामान पड़ा था, हड्डियां पड़ी थीं, भोग के सामान की, यहां वहाँ, सामान बिखरा पड़ा था,
सबसे पहले मैंने उनसे साफ़ करवाया वो स्थान, सभी ने मिलकर साफ़ किया,
और उसके बाद, मैंने सफ़ेद रंग के फूल. ग्यारह जगह रखे, एक मंत्र पढ़ा, ये आदर-सूचक मंत्र होता है!
और फिर क्षमा-मंत्र, यदि मैं गलत कर रहा होऊं, तो क्षमाप्रार्थी हूँ! चरणों में पड़कर! फिर उस ज़मीन के मध्य, एक दिया जलाया, चार मुंह वाला,
और उसमे, एक सिक्का चांदी का,
और एक सिक्का सोने का डाला, एक बताशा,
और एक साबुत हल्दी की गाँठ! और हम हट गए वहाँ से, कोई दो घंटे के बाद मैं गया वहाँ, शर्मा जी के साथ!
आश्चर्य! वहाँ! कम से कम सौ दुरंगे सांप बैठे थे! सर उठाकर,हमें ही देख रहे थे! तो ये थे वो सांप जो काट रहे थे! रक्षा-प्रणाली की सबसे पहली पंक्ति! मैं आगे बढ़ा, वो दिए से, साबुत हल्दी उठायी,
और भूमि पर रख दी, एक मंत्र पढ़ा, हल्दी में आग लग पड़ी!
वो सांप! लौट पड़े, जंगल की ओर! मिल गया प्रवेश मुझे उस स्थान में!
अनुमति प्राप्त हो गयी! अनुमति तो मिल गयी थी! लेकिन इसका अर्थ ये कदापि न था कि, मैं वहाँ मनमर्जी करूँ! ऐसा करना वैसा ही होता जैसे किसी बड़े से छत्ते में, हाथ डाल दूँ! फिर अंजाम वैसा ही होता जैसे,
अभी तक सभी का हुआ था! अब तो और सम्भल कर चलना था! ये जानना था कि आखिर यहां हैं कौन! कौन सी शक्ति है जो यहां वास कर रही है!
और इसका पता लगाने के लिए, मुझे इन ब्रह्म-राक्षस के समुदाय से, टक्कर लेनी ही थी! स्थिति विकट थी! ज़रा सी चूक होती, न न मैं केवल खाली ही होता, देह भी खाली हो जाती प्राणों से! एक एक कदम संभाल आकर उठाना था! उस शाम मैंने कुछ नहीं किया, बस वो दिया जलते रहने दिया, उसमे पड़े सिक्के निकाल लिए थे मैंने,
और उस रात वहीं सोने का प्रबंध भी करवा लिया, वे तीनों डरे हुए थे बहुत, उनकी विवशता थी वहाँ सोना, नहीं तो वो कभी नहीं सोते उधर! ठेकेदार अपने मित्र के यहां से दरी चादर ले आया था, वहीं बिछा ली हमने, वहीं पड़ी पटियायों पर,
उस रात मात्र भोजन किया मैंने, मदिरा और मांस का प्रयोग नहीं किया, कहीं कोई सात्विक शक्ति होती तो बखेड़ा खड़ा हो जाता! उस रात, कोई तीन बजे की बात है, मैंने कुछ आवाजें
सुनी, ये किसी औरत की आवाज़ थी, वो किसी और औरत को, फुसफुसा कर कुछ बातें कर रही थीं, मैं चुपचाप लेटा रहा, न उठा, न गर्दन ही घुमायी, गौर से उनके शब्द पकड़ने की कोशिश की, आवाज़ साफ़ नहीं थी, एक तो फुसफुसाहट, ऊपर से दूसरी औरत का लगातार हाँ, हूँ कहाँ, कुछ समझ में नहीं आ रहा था, फिर आवाजें पास आती गयीं, मेरे एकदम पास, मैंने तभी उर्वाक्-मंत्र का जाप किया, कोई प्रेतात्मा मेरा अहित नहीं कर सकती थी अब, शर्मा जी भी चुपचाप सब सुने जा रहे थे, वे तीनों, अपनी अपनी कार में सो रहे थे, अब सो रहे थे कि डर के मारे पस्त थे, पता नहीं! अब आवाजें मेरे सिरहाने आ गयीं, अब समझ आया मुझे कुछ कुछ, बावनिया वीर, चौंसठ पहेरिया, अर्थात पहरे देने वाले! अर्थात वो चौंसठ ब्रह्म-राक्षस! तीन पहठी! अर्थात तीन छोटे कुँए! अब पहठी के आगे का शब्द समझ नहीं आया मुझे, दो डिम्बाल! अर्थात, भूमि में बने दो मंदिर!
या यूँ मानो कि जैसे गुफा! ऐसा अक्सर मध्यकालीन भारत में हुआ करता था, कई ऐसे मंदिर हैं जो इस प्रकार बने हैं, इसका अब यही अर्थ हुआ, कि ये स्थान बहुत पुराना है! अब कौन है यहाँ, इसकी मालूमात करनी ज़रूरी थी! आवाजें बंद हो गयीं अचानक से! अब एक बात और! बावनिया वीर! अब इसकी जांच करनी थी,
और यही सबसे बड़ी बात थी जो मुझे, लगातार चिंतित किये जा रही थी!
खैर.
मैंने अब सुबह होने तक का इंतज़ार किया, फिर नींद नहीं आई, मैं और शर्मा जी अब आपस में बातें करने लगे, यही कि यहां जो भी शक्ति है, उसका पता अवश्य ही चलना चाहिए, ऐसे ही हम बातें करते रहे,
और सुबह का उजाला आया पृथ्वी पर, पक्षी चहचहाने लगे, स्वागत किया उन्होंने सूर्य महाराज का! रात कुछ विशेष नहीं हुआ था, अब दिन में यहां आना था, अतः हम सभी वहाँ से निकल आये, दीपक साहब के घर गए, नहाये-धोये, और भोजन किया, उसके बाद आराम किया, तीन बजे के बाद से हम सोये नहीं थे, अब मैंने बाबा खम्मट से बात की, उन्हें सबकुछ बताया, अब उन्होंने मेरा मार्गदर्शन किया,
और बहुत कुछ समझाया, कुछ विशेष बातें, जो बहुत काम आता! करीब दो बजे, हम निकल पड़े वहां के लिए, मैं अपना बैग ले लिया था, और जो सामान ताज़ा चाहिए थे, वो रास्ते से ही खरीद लिया था, हम पहुँच गए वहाँ,
गाड़ी एक पेड़ के नीचे लगा दी, उन लोगों को वहीं रहने दिया,
और मैं शर्मा जी के साथ, आगे बढ़ता हुआ, उसी जमीन पर आ गया, सन्नाटा पसरा था वहाँ! कोई पक्षी नहीं, कोई आवाज़ नहीं, बस कीकर के पेड़ और वो भी शांत, जैसे हमारा ही इंतज़ार कर रहे हो! अब मैंने पहला मंत्र-प्रयोग किया वहाँ, मैंने कलुष-मंत्र जागृत किया,
और अपने और शर्मा जी के नेत्र पोषित किये, और जैसे ही नेत्र खोले, दृश्य स्पष्ट हो गया!
भूमि में अनगढ़ पत्थर थे! बड़े बड़े! कुछ पत्थर तो बड़े विशाल थे! तभी कुछ स्तम्भ भी दिखे, ये मानव-निर्मित थे! अब कुछ समझ आया! यहां कोई निर्माण हुआ था, बहुत समय पहले, लेकिन कब? इसका आंकलन अभी लगाना मुश्किल था! हम और आगे चले,
एक कुआँ दिखाई दिया, कुआं पटा हुआ सा लगा, जैसे पत्थरों से पाट दिया हो उसे!
और कुछ नहीं था वहाँ,
बस लकड़ियाँ,
और बड़े बड़े शहतीर! जो बेतरतीबी से बिखरे थे वहां, जैसे कोई तूफान गुजरा हो वहाँ से!
और इन सबको उखाइ गया हो! बस इतना ही पता चला!
और ये पर्याप्त नहीं था! अभी कुछ भी हाथ नहीं लगा था! अब मैंने प्रत्यक्ष-मंत्र का जाप किया, मिट्टी की एक मुट्ठी उठायी,
और फेंक दी सामने, मिट्टी भूमि पर गिरी!
और सामने, ठीक सामने, भूमि अपने आप धसकने लगी! उसमे छोटे छोटे से धमाके होने लगे! जैसे गरम गरम दूध में होते हैं! हम खड़े रहे! मिट्टी शांत हुई! नज़रें, हमारी वहीं गड़ी थीं! अचानक से मिट्टी ऊपर की तरफ उठी! जैसे नीचे से किसी ने ऊपर की ओर, ज़ोर लगाया हो! विचित्र था वो!
और देखते ही देखते, उस मिट्टी, का कोई चार फ़ीट का एक टीला सा बन गया! वो टीला बड़ा अजीब सा दीखता था, एक छोटा सा पहाड़ जैसा! सफ़ेद सफ़ेद टुकड़े थे उसमे, जैसे चूने के पत्थर हों, मैं आगे बढ़ा, शर्मा जी भी आगे बढ़े, मैंने एक टुकड़ा उठाया,
उठाते ही गिरा नीचे, बहुत गरम था, तपता हुआ! बहुत गरम! मैंने आसपास देखा, पास में ही एक कीकर का पेड़ था, उसकी छाल छील ली,
और अब उसमे वो टुकड़ा रख लिया, गौर से देखा उसे, उलट-पलट कर! ये तो हड्डी थी! किसी मनुष्य के हाथ की हड्डी! हाथ की ऊँगली की हड्डी!
एक पोरुआ था,
और ये यहां असंख्य थे! कम से कम डेढ़-दो सौ तो होंगे ही! लेकिन ये किसलिए? किसलिए दिखाए गए थे मुझे? कोई न कोई कारण तो था ही, मैंने और टटोला मिटटी को, टुकड़े को वहीं उसी मिटटी में छोड़ दिया, नीचे बैठ कर, एक लकड़ी से, उस मिटटी को कुरेदने लगा, तभी मझे कानों की दो बालियां दिखाई दीं, मैंने उठायीं, वो भी गर्म थीं, छाल पर रखीं, साफ़ की, ये चांदी की थी, कम से कम एक तोले की तो रही होंगी, आपस में गुथी हुई थीं, मैंने रख ली अपने पास, फिर से मिटटी को टटोला,
झक्क सी आवाज़ हुई! मैं खड़ा हो गया एकदम, एक झटके से ही! मिटटी नीचे बैठने लगी थी!
और देखते ही देखते, वो मिटटी न केवल नीचे चली गयी, बल्कि उसमे गड्ढा भी हो गया! गड्ढा को दो फीट गहरा, एक फ़ीट चौड़ा! ऐसा तो मैंने कभी पहले नहीं देखा था, गड्ढे तो बहूत देखे थे, लेकिन ऐसा कहीं नहीं देखा था! अभी मैं गइढे को देख ही रहा था, कि एक पेड़ के पास फिर से झक्क सी आवाज़ हुई, हम भाग लिए वहाँ,
क्या देखा, कि वो पेड़ नीचे धंस रहा है! पुरा कीकर का पेड़! कोई दो फीट धंसा,
और फिर रुक गया, कमाल था! जमीन खा गयी थी उसको! प्रत्यक्ष-मंत्र लड़ाया था, लेकिन कोई सामने नहीं आया था! कोई अभी भी खेल खेल रहा था! मैंने फिर से एक बार और देख-मंत्र लड़ाया, फिर भी कुछ नहीं हुआ, त्वङ्ग-मंत्र का सहारा लिया, मिट्टी मारी फेंक कर भूमि पर! भूमि पर जैसे ही मिट्टी पड़ी, वहाँ ज़मीन में जगह जगह छेद होते चले गए! जगह जगह, हमारे आपस, सामने,
पीछे,
आगे, दायें-बाएं। ये छेद बिलों की तरह से थे! जैसे चूहे अक्सर बिल बना दिया करते हैं! शाम तलक मैं ऐसे ही उलझा रहा, कुछ हाथ नहीं लगा, वे तीनों डर के मारे गाड़ी से बाहर ही नहीं निकल रहे थे! उनको ऐसा भय था कि, उतरते ही कोई दो टुकड़े कर देगा उनके! संध्या समय, मैंने फिर से एक दिया जलाया वहाँ, इसमें पीपल का एक पत्ता, सिन्दूर और काले तिल डाले,
और एक मंत्र से अभिमंत्रित तेल डाला था, दिया जला,
और उसी लौ स्थिर हो गयी! अर्थात, वहाँ कोई न कोई तो था! लेकिन सामने नहीं आया था अभी तक! अब दूसरा रास्ता ही अपनाना था, ज़बरदस्ती करना! मज़बूरी थी ऐसा करना! नहीं तो, मैं नहीं चाहता था! अब मैंने शर्मा जी को पीछे खड़े रहने को कहा, वे पीछे खड़े हो गए, मैंने उनको, उनके तंत्राभूषण धारण करवा दिए थे,
स्वयं भी धारण कर लिए थे! अब मैंने उस दिए के पास ही, अपना आसन बिछा लिया! अब खेल शुरू करना था! मैंने काले तिल लिए, अभिमंत्रित किये,
और सामने फेंक मारे!
फेंकते ही, सारे तिल, ज़मीन पर गिरने से पहले ही, राख बन गए! चटक चटक की आवाज़ कर, सभी जल गए! फिर मैंने कनेर के बीज फेंके,
वे भी जल गए! फिर मैंने रोंगी के बीज फेंके,
वो भी जल गए! कोई मेरे अभिमंत्रण को काटे जा रहा था! लेकिन सामने आये बगैर! बड़ा अजीब था वो सब! कोई शत्रु भी नहीं, लेकिन कोई शत्रुता अवश्य निभाने लगा था! मैं आधे घंटे, सर धुनता रहा, कोई नहीं आया! तब हारकर मैंने, विपाल-मंत्र पढ़ डाला! मुट्ठी भर लौंग फेंक कर मारी! और इस बार नहीं जली वो! भूमि पर गिरी!
और सभी एक जगह एकत्रित हो गयीं! अब हुआ अट्टहास! भयानक अट्टहास! क्रूर अट्हास! कान फाइता अट्टहास! मैं खड़ा हुआ,
और सामने देखा, धुआं सा उठ रहा था उन लौंग के ऊपर से!
अट्हास लगातार हुए जा रहा था!
और भक्क! भक्क से वे सभी लौंग, जल उठीं!
मैं जान गया था, मेरा मंत्र काट दिया गया है! लेकिन मैं अपने उद्देश्य में सफल हआ था!
और फिर आकृतियाँ उभरीं! कुछ स्त्रियां, चोगा पहने! कुछ पुरुष, लंगोट पहने! कुछ कन्याएं, हाथ में, हंडिया पकड़े! ये अजीब माया थी! मैं जिसे बुला रहा था, वो नहीं आया था! ये तो सेवकगण
ही चले आये थे! "चला जा यहां से, जा, चला जा!" एक औरत ने कहा, वो औरत, कोई साठ साल की रही होगी! ये सब, शर्मा जी नहीं देख पा रहे थे! वे द्विपाल मंत्र की जद से बाहर खड़े थे! "कौन हो तुम?" मैंने पूछा, "कुमंगा हूँ मैं!" वो बोली, उस औरत के बाल अजीब से थे, लक्क्ड़ बग्घे की तरह से, चितरीदार!
लेकिन वो औरत बहुत विशाल देह की थी, मैं तो उसके कंधे तक ही आता! या शायद कंधे से भी नीचे! "कुमंगा! क्यों यहां उत्पात मचाया है?" मैंने पूछा, बड़ी ही, क्रूर, क्रोधभरी हंसी हंसी उसने!
और तभी उसने ऐसे ही भूमि में लात मारी! धूल उठी,
और तभी, मेरे पांवों में, एक कटा हुआ मुंड आ गिरा! ये किसी तीस वर्ष के जोगी जैसा था! आँखें निकाल दी गयी थीं उसकी, लेकिन वो अभी भी, कराह रहा था! तो ये अंजाम दिखाया था मुझे उस कुमंगा ने! मैं नहीं घबराया! ऐसी माया मैंने बहुत देखी थीं! मैंने उसी सर को, एक लात मारी, सर चीखता हुआ लोप हो गया!
रक्त के छींटे, मेरे जूते पर निशान छोड़ गए थे!
मंगा और वे सबहि ये देख, बहुत तेज हँसे! बहुत तेज! "जा! लौट जा!" वो बोली, "नहीं! मैं नहीं जाने वाला!" मैंने कहा!
अब फिर से हँसे वे सब! मेरा उपहास उड़ाया उन्होंने! कोई बात नहीं! मैंने उसका उत्तर देना था! मैंने मिट्टी उठायी, उसमे थूका, उसको एक महामंत्र से अभिमंत्रित किया,
और फेंक दिया सामने! वे लोप! चीख-पुकार मच गयी! भाग गए सभी! मुझे धमकाने वाले, खुद ही चले गए थे! चेतावनी देने आये थे!
चेतावनी मिल चुकी थी! कुछ पल शान्ति के गुजरे! और फिर से अट्टहास हुआ! वैसा ही प्रबल अट्टहास! वे सब भाग खड़े हुए थे। महामंत्र की चपेट में आते ही, इस लोक से तो पत्ता कट ही जाता उनका! हो जाते काल के किसी अज्ञात अंश में सदा के लिए कैद! लेकिन ये कुमंगा और उसके से साथी, पहले तो आये नहीं थे? जैसा कि मुझे बताया गया था, या फिर हो सकता है, मुझे आँका जा रहा हो!
खैर, मैं तैयार था!
आ जाए जो आना है सामने! मैंने फिर से एक और मंत्र पढ़ा,
और फेंक दी मिट्टी सामने, जल-तरंग सी उठ गयीं! बदन भीग गया मेरा! जैसे ओंस में भीग गया होऊ मैं! किसी ने काट दिया था मेरा मंत्र!
अट्टहास गूंजा! धुंध सी छायी!
और मेरे से कोई दस मीटर दूर, एक दिव्य-पुरुष प्रकट हुआ! कैसा सुंदर रूप था उसका! भव्य! शालीन! श्वेत वस्त्र धारण किये हुए, राजसिक पोशाक में, गले में फूल मालाएं धारण किये हुए! आभूषणों से युक्त!
दिव्य-आभूषण! किसी बैल जैसी कद-काठी थी उसकी!
केश, सघन और श्याम! नीचे कमर तक लटकते! घुघराले,
अलबेटे खाये हए केश! चौड़ा चेहरा! तावदार मूंछे! घोड़े के समान भुजाएं उसकी! भीमकाय! लगता था जैसे कि, किसी वृक्ष को एक हाथ से ही उखाड़ फेंके! ऐसा बलशाली! यही था वो ब्रह्म-राक्षस! जिसने बाबा शिवराज को रिक्त किया था,
और हमेशा के लिए उनका वर्ण श्याम कर दिया था, ताकि स्मरण रहे! कि किसी ब्रह्म-राक्षस से टकराने का अर्थ क्या होता है! उनके प्राण बख्श दिए थे, ये उपहार दिया था उनको! प्राणों का उपहार!
अब मुझे बचना था इस उपहार से! "जाओ! लौट जाओ!" उसने हाथ आगे करके कहा! मैं चुप रहा, उसके भावों को देखता रहा, "जाओ, लौट जाओ" वो बोला, "क्यों?" मैंने कहा, "जाओ, जाओ वापिस" वो बोला, "हे देव! मुझे बताइये, कि क्यों?" मैंने कहा, देव! यही कहा था मैंने! आदर किया था मैंने उसका! सम्मान दिया था उसको!
वो हंसा! लेकिन ये अट्टहास नहीं था! इसमें क्रोध नहीं था! इसमें निर्देश था! "जाओ, लौट जाओ! चले जाओ!" वो बोला, "मुझे कारण तो बताइये?" मैंने पूछा, "बस! और प्रश्न नहीं, आज्ञा का पालन हो, जाओ, लौट जाओ!" वो बोला, अब हठ!
औघड़ हठ! बिन कारण तो यमराज के पास भी न जाऊं! "मैं बिना कारण जाने नहीं जाऊँगा देव!" मैंने कहा,
वो आगे आये, उसके ताप से, घास, पेड़ों के पत्ते, सब कुम्हलाने लगे, मेरे आभूषण न होते तो मैं भी झुलसने लगा होता! "अब जाओ! मैंने कहा जाओ!" अब वो क्रोध से बोला! "नहीं, नहीं जाऊँगा!" मैंने कहा, "मूर्ख हो तुम!" वो बोला, कोई बात नहीं! मूर्ख ही सही! कारण तो ज्ञात हो! "जाओ? नहीं तो भस्म हो जाओगे!" वो बोला, "मैं, नहीं जाऊँगा!" मैंने कहा,
अब उसे क्रोध आया! नेत्रों का रंग बदला, श्याम नेत्र, अब लाल हो गए, पीले रंग से दहक उठे! उसने अपना हाथ आगे किया, ये जम्ब-प्रहार होता है, मात्र ब्रह्म-राक्षस ही ये वार किया करते हैं! यदि ये वार छू जाए, तो आपका सौ किलो का शरीर, एक ग्राम के करोड़वें अंश में
परिवर्तित हो जाएगा, पलक झपकते ही! मैंने फ़ौरन ही भल्ल-कवच विद्या का संधान कर दिया! भल्ल-कवच! एक अभेद्य कवच होता है! एक सौ बहत्तर दिनों की साधना पश्चात, मीन-मेद से बनी हुई माला साधक गल्ले में धारण कर, इसकी साधना करता है! सिद्ध होते ही, ये कवच आपके हाथों के दोनों अंगूठों में अनुपात बिगाड़ देता है!
परन्तु इस कवच को, न तो ब्रह्म-पिशाच और न ही ब्रह्म-राक्षस ही भेद पाते हैं! भल्ल-कवच के ईष्ट महा-रौद्र हैं! तो मैंने उस भल्ल-कवच का संधान किया, और जैसे ही वो जम्ब-प्रहार टकराया मुझसे, ऐसा लगा कैसे पिघलता हुआ कांच मेरे शरीर के इर्द-गिर्द लिपट गया हो, और भी अचानक ही, भनाक की आवाज़ अकर्ता हुआ, खंडित हो गया हो! यही हुआ! वो ब्रह्म-राक्षस, चकित हो गया! उसके नेत्रों का रंग बदल गया! भाव बदल गए! उसे आश्चर्य हुआ,
आश्चर्य की अंतिम सीमा तक! ये कौन मानव है? जम्ब-प्रहार, कैसे झेल गया? कौन है ये? "क्षमा करें देव!" मैंने कहा, वो एकटक मुझे देखता रहा!
और मित्रगण! एक एक करके, वहाँ सभी, चौंसठ के चौंसठ, वो ब्रह्म-राक्षस प्रकट होते गए!
सभी मुझे देखते हुए! दृश्य ऐसा था कि, जैसे में देवराज के दरबार में खड़ा होऊ! सभी देव-तुल्य थे! सभी अलौकिक! वे सभी चकित थे। जम्ब-प्रहार, कैसे अवशोषित कर लिया इस मानव ने? कौन है ये? "कौन हो तुम?" एक ने पूछा, प्रश्न स्वाभाविक था! मुझे यही उम्मीद थी! उत्तर मेरे दिमाग में था ही!
अब मैंने उन सभी को प्रणाम किया! उनके हाथ अभय-मुद्रा में नहीं उठे! बल्कि , एक दूसरे को देखा उन्होंने! अब अपना परिचय देना आरम्भ किया मैंने, वे सुनते रहे, मेरे सामर्थ्य आंकते रहे! मैं चुप हुआ फिर, एक आगे आया, भीनी भीनी सुगंध उठ रही थी उस से, एक देव-सुगंध! पीले वस्त्र थे उसके! काले रंग के चमकदार फीते से, उसकी कमर पर बंधे थे! गले में, मालाएं थीं, बजलुठ की मालाएं! आज बजलुठ दुर्लभ है प्राप्त करना, एक झाड़ी होती है, एकदम स्याह रंग की,
अक्सर पत्थर फाड़कर बाहर आती है, हिन्दुकुश पर्वत पर पायी जाती है,
सोम के पौधे के साथ, ये बजलुठ उसके बीज होते हैं, पानी में डूबते नहीं, आग में जलते नहीं, तोड़ने से टूटते नहीं, हथौड़े में दाग आ जाएगा, लेकिन ये नहीं टूटेंगे! महा-तंत्र में इसकी बहुत प्रशंसा की गयी है! इसके बीज को छआने से ही, मिर्गी का रोग सदा के लिए समाप्त हो जाता है,
सेब से छुआने पर, सेब फीका हो जाता है,
और किसी बाँझ महिला को ये सेब खिला दिया जाए, तो उसको संतान-प्राप्ति होती है! दीपावली पर पूजन करने से, घर धन-धान्य से भर जाता है! कैसा भी रोग हो, उसको हर लेती है! श्री महाऔघड़ अपने गले में धारण करते हैं इसकी, ग्यारह मालाएं! इसी कारण से ये, महा-तंत्र में उपयोगी है! उन सभी ने पहनी थी वे मालाएं लेकिन किसने दी? कौन है वो? कौन है वो शक्ति ? "कारण बताइये देव?" मैंने पोछा, वो पीछे हटा, सबसे पहले वाला सामने आये, "महासिद्ध अज्जाल!" वो बोला,
अब दिमाग घूमा!
बाबा अजाल! महासिद्ध!
बाबा अजाल! महासिद्ध अजाल! तो ये अजाल-स्थली है! इसी कारण से वे लोग,
जो आये थे यहां, नहीं टकरा पाये थे! मैं सोच में पड़ा अब! जिसके पहरेदार स्वयं चौंसठ ब्रह्म-राक्षस हों,
वो स्वयं कितना परम शक्तिशाली होगा! बावनिया वीर! अब कुछ समझ आने वाला था! लेकिन दिमाग ऐसे उलझा था कि, एक सवाल का उत्तर मिलता नहीं था, कि दुसरा सवाल उपजा आता था खोपड़ी में! मैं सोच में डूबा था! "जाओ अब! जाओ!" वो बोला, मैं चुप! उन्हें ही देखता रहा! मैं अब, दर्शन करना चाहता था, उस महासिद्ध बाबा अजाल के! कैसे जाता मैं? नहीं जा सकता था! सवाल ही नहीं उठता था! अब तो भले ही जान जाए, लेकिन दर्शन किये बगैर नहीं जाऊँगा! ठान लिया! बिलकुल ठान लिया! नहीं जाना! अब चाहे कुछ भी हो! "जाओ, बहुत हुआ!" वो बोला,
"नहीं! नहीं जाऊँगा मैं!" मैंने कहा, वो मेरा जवाब सुन, सन्न! ये कैसा हठी है?
और ये कैसा हठ? तभी एक एक करते हुए,
वे सभी लोप होते रहे! रहा गया वही मात्र एक! "सुनो! अब जाओ! बस!" वो बोला, "नहीं! मैं बिना दर्शन किये नहीं जाऊँगा!" मैंने कहा, वो मुस्कुराया! हंसा, पीछे हटा!
और अपने घुटनों पर, हाथ मारते हुए, अट्टहास किया! "प्राणों से प्रेम है तुम्हे?" उसने हँसते हुए पूछा, मैं आशय समझ रहा था! मुझे चेतावनी दी जा रही थी! प्राणों का भय दिखाया जा रहा था! ताकि मैं चला जाऊं वहाँ से! "नहीं!" मैंने कहा, उसे ये सुनते ही, ज़ोर का अट्टहास किया! कान फटने को आ गए। :जीवन से मोह चुक गया?" उसने पूछा, "कैसा मोह? कोई मोह नहीं! देव! आप तो स्वयं उनके दर्शन तो क्या, पहरेदार हैं, मैं तो मात्र एक झलक का ही अभिलाषी हूँ?" मैंने कहा, "नहीं! ये सम्भव नहीं!" वो बोला, "आप चाहें तो सम्भव है!" मैंने कहा, "नहीं, अब जाओ तुम, इस से पहले मुझे क्रोध आये" वो बोला, लेकिन धीरे से, बहुत धीरे से, "आप कर लें क्रोध! कर दें मुझे भस्म! जहाँ तक सम्भव होगा, मैं टिका रहूँगा!" मैंने
कहा, "इतना दुःसाहस?" वो बोला, अब कोर्ध में भड़क गया वो! ताप बहुत बढ़ गया वहां! बहुत अधिक! मेरी आँखें भी जलने लगी! मैं बार बार आँखें पोंछता अपनी! वो ज़मीन से उठा, मेरी तरफ हाथ बढ़ाया, मैंने फौरन ही उम्दुक्षा विद्या का संधान किया! द्वितीय वार उस ब्रह्म-राक्षस का धौंकरीत-प्रहार होता! बाबा खम्मट की शिक्षा काम आने लगी थी! उसने वार किया, मैं अपने स्थान से पीछे हट गया, ऐसा वेग था उसका!
आग की तरह से लपट वाला! उम्दुक्षा विद्या ने पलट वार किया, धौंकरीत विद्या लौट पड़ी, भूमि से टकराई और फट गयी भूमि वहाँ! गड्ढा हो गया! अब तो सच में चकित हो गया वो! अवाक ही रह गया! होना भी था! एक मानव! एक तुच्छ मानव! उसके प्रहारों को काट रहा था! ब्रह्म-राक्षस को तो ये शक्तियां योनि-प्रदत्त र्थी, लेकिन एक मानव, जो गिनती की, साँसें लाया है लिखवाकर, सीखा है उसने ये सब, इसी धरा पर! अपनी लग्न से! अपने गुरु के आशीर्वाद से!
वो सकते में पड़ गया था!
और मैं प्रसन्न था! एक एक कदम आगे बढ़ता जा रहा था मैं! भले ही वो क़दम, एक दुधारी तलवार पर चलने के समान हो! वो आगे आया, मुझे घूरा, मेरे करीब आया, "सुनो! चले जाओ, चले जाओ, समझ जाओ" वो बोला, समझ जाओ? क्या समझ जाओ? मुझे नहीं समझ आया, "क्या समझ जाऊं हे देव?" मैंने पूछा, "महासिद्ध की निंद्रा भंग न करो!" वो बोला, निंद्रा!
अच्छा ! बाबा अपनी चिर-निंद्रा में हैं! इसी कारण से, ये पहरे पर इटे हुए हैं! उसने सच ही कहा! मैं ही दखल दे रहा था! पर क्या करूँ? ऐसा अवसर कैसे छोड़ दूँ? हठ करना मेरा अधिकार है।
हठ तो करूँगा ही उन महासिद्ध से! "समझ गया हूँ मैं देव! परन्तु..." मैंने चुप हुआ कहते कहते, "परन्तु क्या?" उसने पूछा,
मुझे लालच है कुछ" मैंने कहा, "लालच!" उसने कहा,
और ज़ोर से ठहाका लगाया! "ये!" बोला वो, भूमि में से बड़े बड़े स्वर्ण-कलश निकल आये! अथाह धन था उनमें!
बेपनाह दौलत! इतना धन मिल जाए, तो कई सहस्त्र पुश्तै सुधर जाएँ! क्या नहीं मिलता धन से आजकल! इस कलयुग में सबसे अधिक पूजे जाने वाला देवता है ये!
आज उसकी आराधना कौन करता है निःस्वार्थ? कोई नहीं! उसके पीछे भी धन ही अधिकाँश रहा करता है! व्यवसाय चल जाए, तो धन मिले, काम बढ़ जाए, तो धन मिले! वहाँ धन बिखरा हुआ था! अथाह धन! कई टन सोना! हीरे आदि! ट्रक के ट्रक भर जाएँ, फिर भी बचा रह जाए! उसने मुझे देखा, हाथ का इशारा किया! "ले जाओ! सारा तुम्हारा हुआ!" वो बोला, मैं हंसा! "नहीं देव! नहीं!" मैंने कहा, "नहीं! अच्छा, तो ये?" उसने कहा,
ओह! ये क्या! काम-सुंदरी वल्लभा! इसके लिए तो तांत्रिक लोग,
औघड़ लोग, जीवन लगा देते हैं! कैसी कैसी साधनाएं नहीं करते! ऐसी कौन सी इच्छा है, जो पूर्ण न हो! बिना कहे हुए भी! प्रतिपल संग रहने वाली, आयुवर्धक, कामवर्धक! सिद्धि-मार्गी! काम-पुष्पा!
मलयांगिनी! मुझे! मुझे मिल रही है! बिन किसी जोग-भोग के! वल्लभा के संग चार और काम-सहायिकाएं होती हैं, वरुण्या, माल्या , धानिका और स्वर्णिका! ये चारों ही, भार्या समान रहा करती हैं संग सदा! कैसा भी कार्य हो, वो पूर्ण होता है! ये कैसा लालच! दुविधा! दुविधा! एक ओर महासिद्ध बाबा के दर्शन! एक ओर ये वल्लभा! नहीं! कोई दुविधा नहीं! नहीं चाहिए वल्ल्भा ! नहीं! अट्टहास हुआ! वो हंसा! "लो! ले जाओ! भोग करो! ले जाओ!" वो बोला, वे सभी के सभी, चल पड़ीं मेरी ओर! मैं पीछे हटा, "नहीं देव! मैं नहीं ले जाऊँगा!" मैंने कहा,
और वल्लभा लोप! अपनी सखियों संग लोप! वो हैरान! उसका प्रस्ताव ठुकरा दिया? इतना दुःसाहस? क्रोध में भड़क गया! फट पड़ने को तैयार!
"मूर्ख?" वो चिल्लाया, मैं मुस्कुराया! मुस्कुराया उसकी खिन्नाहट पर!
आज पहली बार शायद किसी मानव ने, उसका प्रस्ताव ठुकराया था! तो मैं मूर्ख ठहरा! उसकी समझ से! कोई बात नहीं! मूर्ख ही सही! वो आगे आया, करीब, अब महसूस हुआ उसका ताप! उबल रहा था जैसे वो! किसी गरम, दहकते हुए कोयले की तरह! मुझे घूरता रहा! मैं, दम साधे वहीं खड़ा रहा, वो क्रोधित था, बहुत क्रोधित! कोई और रहा होता तो अब तक इहलीला समाप्त ही हो जाती उसकी! लेकिन मैं, गुरु-आशीर्वाद से, बाबा खम्मट की शिक्षा से, अभी तक टिका हुआ था! "देव? मुझे दर्शन करने दें?" मैंने कहा, "असम्भव!" वो चिल्लाया, "कैसे असम्भव?" मैंने पूछा, "जाओ यहाँ से, अभी निकल जाओ, नहीं तो समा जाओगे भूमि में!" उसने कहा, मैं नहीं हिला! वहीं खड़ा रहा! उसे मेरी ये हरकत, मेरी हिमाकत लगी! वो पीछे हटा! और पीछे! और अपने पाँव से थाप दी,
भूमि पर! ये तो मैं जानता था, धमकी तो दी ही थी उसने मयजे, भूमि में फँसाने की! इसीलिए, मैंने रुक्वाक्ष विद्या का संवर्धन कर लिया था! उसने थाप दी,
और भूमि फ़टी! घास-फूस, पेड़-पौधे, सब धंसने लगे नीछे! घड़ाम-घड़ाम की आवाजें आने लगीं! अब मैंने भी थाप दी, भूमि पर! फटना रुका उसका! और वो भरने लगी! ये देख अब तो वो असमंजस में पड़ा! उसने फिर से एक प्रहार किया, पेड़ तड़तड़ा उठे! मैंने उसकी काट की, और
सब ठीक हुआ! अब तो क्रोध में बिफर पड़ा वो! बारिश! अस्थियों की, लोथड़ों की, पत्थरों की, धूल-धक्कड़,
और न जाने क्या क्या! सभी की काट की मैंने! बाबा खम्मट की बतायीं हुई विद्याएँ, सारी सर चढ़ के बोली थीं! एक न चली उसकी! मैं डटा रहा, न हटा पीछे। वो गुस्से में चीखा,
और लोप हो गया! जब लोप हुआ,
तो रक्त के छींटे बिखेर गया वहाँ पर! फिर से शान्ति पसर गयी वहां!
वो दीया, वो दीया ही जल रहा था, मेरे पीछे, बस उसका प्रकाश था,
और ऊपर से आती चांदनी का! और कुछ नहीं! आधा घंटा बीत गया था, कोई नहीं आया था, अतः, मैं अब शर्मा जी के पास गया, उनसे बैग मंगवाया,
और अब मैं क्रिया करने के लिए, एक स्थान पर बैठा! सारा सामान लगा लिया, अलख के लिए ईधन भी जुटा लिया, उठा दी अलख! एक महासिद्ध के सामने, उनकी स्थली पर, एक तुच्छ सा मनुष्य क्रिया कर रहा था! रात के ग्यारह से ऊपर का समय था! कि तभी भूमि में कम्पन्न हुआ! अलख चटक के जल रही थी, मैं ईंधन झोंकता जाता,
और मंत्रोच्चार किये जाता, वहन कोई भूत-प्रेत होता, तो अपनी जान बचाने के लिए भाग खड़ा होता! तभी खड़ताल से बजे! मैं चौंका! चिमटे बजे!
और मेरे सामने चार साधू प्रकट हुए, चेहरा नहीं देख पाया उनका, काले ही थे वे सब!
सभी! उन्होंने में से कोई खड़ताल बजा रहा था! वे चारों, नाचने लगे! काले साये! चिंता खड़काते और नाचते. हूँ हूँ की आवाजें निकालते, और पाँव थिरकाते रहते, धूल-धक्क्ड़ हो गया वहाँ! धूल मेरी साँसों में भी घुसने लगी! मुझे खांसी आई!
और तभी किसी ने अलख-नाद किया! उसने दूर से ही मेरी अलख को प्रणाम किया था! अब तो तय था, ये सभी प्रबल अघोरी ही थे! वे शांत हुए!
और एक कतार से लगा, सभी खड़े हो गए! एक ने मेरा नाम लिया, मेरे पिता श्री का नाम लिया, मेरी माता श्री का नाम लिया!
और फिर मेरे दादा श्री का नाम लिया! "अलख!" वे सभी बोले, मैं भी बोला उनके संग! अब उनमे से एक आगे आया! अब देखा मैंने उसे साफ़ साफ़! उसका कद कोई साढ़े छह फ़ीट का रहा होगा! रंग काला था उसका,
या फिर काला रंग पोता हुआ था उसने! माथे से एक रेखा सफेद रंग की, नाभि तक गयी थी! शरीर पर सफ़ेद रंग की अन्य रेखाएं भी थीं! कुछ चिन्ह भी थे! मैं नहीं समझ सका मात्र एक के अलावा,
ये पशुपति-चक्र था! उसके हाथों में, एक हाथ में त्रिशूल,
और एक में चिमटा था! नग्न था वो बिलकुल, लंगोट भी नहीं थी, केश नीचे भूमि तक लटके थे, उसको आसन की आवश्यकता ही नहीं पड़ती होगी, उसके केश ही उसका आसन होंगे! वो सामने आया. ठीक मेरे सामने! नीचे बैठा, उकडू! मुझे देखा! हंसा,
और फिर ठहाका लगाया! वे तीन, जो पीछे खड़े थे, वे भी हँसे! उसकी देह बहुत बलिष्ठ थी! मुझ जैसे दो तो बन ही जाते! "कौन है रे तू?" उसने पूछा, मैंने प्रणाम किया उसको! उसने फौरन ही पीछे देखा!
और फिर मुझे देखा! "प्रणाम! प्रणाम!" वो बोला मेरे प्रणाम स्वीकार हो गया था! मेरे लिए सम्मान की बात थी ये! "कौन है रे बालक तू?" उसने पूछा, अब मैंने अपना परिचय दिया, वो खिलखिलाकर हंसा! "जानता है मैं कौन हूँ?" उसने पूछा, "नहीं बाबा!" मैंने कहा,
"मैं तेवत हूँ! खाड़ तेवत!" वो बोला,
खाड़! अर्थात नरबलि देने वाला औघड़! मैं मुस्कुराया! "मेरे अहोभाग!" मैंने कहा, "हैं?" उसे अचम्भा हुआ! "हाँ! मेरे अहोभाग! जो बाबा अज्राल के खाड़ के दर्शन हए!" मैंने कहा,
वो हंसा! खूब हंसा! सभी हँसे वे! फिर चुप हुआ! "क्या चाहता है?" उसने पूछा, "दर्शन! बाबा अजाल के दर्शन!" मैंने कहा, वे फिर से हँसे! उसने मुझे देखा, क्रोध नहीं था उनमे! प्रेम भी नहीं था! "रन्जा! यहां आ!" वो बोला,
और पीछे से एक औघड़ भागता हुआ आ गया! वो भी वैसा ही था, खाइ तेवत की तरह!
खाड़ से कद में छोटा था! रन्ना आया, बैठा, मेरी अलख को देखा,
और फूंक मार दी! अलख बुझ गयी! बस दीये का प्रकाश ही रह गया! "फू!" खाड़ बाबा ने फूंक मारी! अलख उठ गयी! मैं जान गया! कि ये समर्थ ही नहीं!
महासमर्थ हैं! रन्ना आगे आया,
मेरे पास, कोई दो फ़ीट का अंतर! रन्ना और वो खाइ तेवत, दोनों ही, करीब चले आये थे, बड़ी ही दुर्गन्ध आ रही थी उन दोनों में से, वस्त्र पहने नहीं थे, लगता था कि रक्त-स्नान के पश्चात, जल-स्नान ही नहीं किया था उन्होंने!
गर्द जमी थी, गरदन पर, कांख में, छाती के बाल सब गर्द में लिपटे थे, हार्थों के नाखून तो कहीं से, सफ़ेद, दीख भी नहीं रहे थे! "अरे बालक! क्या करने आया है?" रन्ना बोला, हँसते हुए, उसके तो दांत भी सफेद नहीं थे, काले पड़ चुके थे! "बता चुका हूँ, दर्शन करने आया हूँ बाबा अज्राल के!" मैंने कहा,
ये सुना उन्होंने, और खूब हँसे! जैसे मैं कोई बालक हूँ,
और बालपन में कुछ मांग लिया हो! रन्ना खड़ा हो गया! अपने उन दोनों साथियों को भी बुला लिया, सभी के सभी वैसे ही थे, दुर्गन्ध से सराबोर!
आपसे में बातें कीं उन्होंने, वो खाइ, मेरी अलख जलाता रहा, बुझाता रहा! कभी हाथ तापता, कभी लकड़ी सही करने लग जाता! "बाब्बा तेवत?" मैंने पूछा, "हाँ, बोल?" वो मुझे बिना देखे ही बोला,
"बाबा, मुझे मिलवा नहीं सकते?" मैंने पूछा, उसने फिर से अलख की लकड़ी सही की,
और कोई गाना सा गाने लगा, मुझे समझ नहीं आया, बस इतना कि वो कोई लोक-गीत सा था, "बाबा?" मैंने कहा, "बताता हूँ, रुक जा!" वो बोला, मैं रुक गया, लकड़ी सही कर दी उसने, अब अलख ज़ोर से भड़कने लगी थी, "हाँ, क्या कह रहा था तू?" वो बोला, मुझे देखते हुए, "मुझे
मिलवा दो बाबा" मैंने कहा, अब वो गंभीर सा हो गया, अपनी ऊँगली से, दाद कुरेदने लगा! "देख बालक, ये इतना सरल नहीं, ये तो तू भी जानता है!, जानता है न?" वो बोला, "हाँ, जानता हूँ" मैंने कहा, "लेकिन अगर तो पछाड़ दे हम में से किसी को भी, तो द्वार खुल सकता है, तब हाज़िम ही रह जाएगा!" वो बोला, हाज़िम? अब आया था उसका नाम! अब हुआ था उसका ज़िक्र! "ये हाज़िम कौन है बाबा?" मैंने पूछा, "बाबा अजाल का पुत्र समान सेवक है, पैंसठ साल सेवकाई की है उसने, ये जो पहेरिया
थे न, चौंसठ, ये उसी के लाये हुए हैं!" वो बोला, पैंसठ साल! सेवकाई! वाह हाज़िम वाह! मित्रगण! अघोर पंथ में, धर्म, जात-पात नहीं देखी जाती! सब समान हैं उसमे, एक ही थाल में खाते हैं, एक ही छत के नीचे सोते हैं, एक ही अलख पर क्रिया करते हैं, ऐसे है अनेक सिद्ध हैं जो मुस्लिम हैं, अनगिनत, जैसे महावीर मोहम्मदा वीर, जिन्होंने पांच नाहर पकडे थे, गोरखी विद्या से, एक बाबा वहभाग सिंह को, एक कामाख्या में दिया
था, शेष तीन आज भी हैं, एक गोगा पीर के पास है! और श्री बाबा ईस्माइलनाथ, ये तो कामाख्या के प्रधान रहे, कमाल शाह पीर, कलुआ, शाह साहब भिश्ती वाले, ऐसे अनेक हए हैं! तो हाज़िम का यहां होना कोई विचित्र बात नहीं थी! कम से कम मेरे लिए नहीं! "बाबा, आप जानते हैं, मैं किसी को भी नहीं पछाड़ सकता, मैं आपके चरणों की धूल भी नहीं बाबा तेवत!" मैंने कहा, वो हँसे! "प्रयास भी नहीं करेगा? नहीं करेगा तो तुझे जाना होगा, फिर कोई औचित्य शेष नहीं है। वे बोले, बात सही थी! अब हठ किया है, तो प्रयास तो करना ही होगा! "बता?" वो बोले, "मैं तैयार हैं" मैंने कहा,
वो आगे बढ़ा, मेरे सर पर, दो तीन बार अपना भारी-भरकम हाथ मारा, थपथपाया! "वाह बालक वाह! चल, हो जा तैयार! इतना बता देता हूँ कि तेरा कोई भी अहित नहीं करेगा, मैं सैंकड़ों वर्षों बाद जागा हूँ ये सब भी, हाँ! यदि पराजित हुआ, तो वापिस जाना होगा, स्वीकार?" वो बोला, विवशता थी! "स्वीकार!" मैंने कहा, "किसको चुनता है?" उसने पूछा, "कोई भी" मैंने कहा,
वो मुस्कुराया!
और एक को आवाज़ दी, धौला नाम था उसका, काफी मज़बूत रहा होगा अपने समय पर! धौला रह गया वहाँ! बाकी सब लोप हुए! लेकिन, सब देख रहे थे मुझे! धौला मुझसे दूर जा बैठा!
आसन लगाया, केश हिलाये,
और फिर बाँध लिए, मैंने अलख में ईंधन झोंका! अलख भइकी! महानाद किया धौला ने! अपना चिमटा खड़खड़ाया! त्रिशूल उठाया,
चिमटा,
भूमि में गाड़ दिया! अब देखा धौला ने मुझे! हाथ से इशारा किया, कि मैं अभी समय रहते उठ जाऊं! मैंने अलख में ईंधन झोंकते हुए इसका उत्तर दिया! धौला ने भूमि में एक घूसा मारा! भूमि कॉपी! तरंगे मेरे नीचे से होती हुईं, गुजर गयीं! ऐसा वेग था उस धौला का! उसने अब भूमि को थपथपाया,
वो थपथपाता जाता,
और उधर स्त्रियां प्रकट होती जाती! उनका रूप देखकर मुझे, शाकिनियों का स्मरण हो आया! खप्पर लिए, जीभ बाहर निकाले, मुंड-माल धारण किये, कमर में,
अस्थिमाल धारण किये, गले में, कुल चार,
चार, प्रकट हो गयीं!
मैंने तभी कमलाक्षी-विद्या का संधान किया, मंत्र पढ़ते ही, अलख में ईंधन झोंका, अपना त्रिशूल उठाया, उस पर हाथ फेरा, वो शाकिनियों, हवे में उड़ीं! चीख-पुकार करते हुए, जैसे ही मेरे समीप आयीं, मैंने त्रिशूल भूमि में, वेग से गाइ दिया! धुआं उठा गया, और वे शाकिनियाँ गायब हुई! कमलाक्षी-विद्या मुझे बाबा भेरू ने प्रदान की थी! उनका धन्यवाद किया मैंने! बाबा भेरू अब इस संसार में नहीं हैं, लेकिन, उनकी ये विद्या आज तक उन्हें अमर बनाये हुए है! नेपाल के कई औघड़, उनके शिष्य रहे हैं, मेरी तरह! हाँ तो, वो शाकिनियाँ गायब हो गयीं! कमलाक्षी-विदया का सामना नहीं कर सकती थीं! धौला खड़ा हो गया! उसको जैसे विश्वास नहीं हुआ! उसने भूमि में फिर से थाप मारी! उड़ने वाले सर्प निकल पड़े! पंख वाले! पीले पंख थे उनके! एक एक कम से कम पच्चीस किलो भारी! अब मुझे बाबा ऋद्धा की सर्प-कंटक विद्या का सहारा लेना था, मैंने विद्या का संधान किया! वे सर्प उड़ कर चले! मेरे चारों ओर परिक्रमा करने लगे! उनका दायरा छोटा होता गया!
और मेरा रंग नीला! सर्प-कंटक विद्या जागृत हो चली थी!
जैसे ही वो सर्प उड़ते हुए, मेरे करीब आये, उनकी फुफकार कम होती चली गयी!
और जैसे ही मुझे छुआ, जैसे पानी भरा गुब्बारा दीवार पर, मारने से फूट जाता है, वैसे ही वे सर्प, मुझे टकराते ही फट पड़े! उनमे रक्त नहीं था! मांस भी नहीं था! अस्थि-पिंजर भी नहीं था! बस, रुई सी ही थी! वो रुई भी उड़ने लगी! और गायब हो गयी! धौला आगे आया! मेरे पास ही! मुझे देखा! मुस्कुराया!
और चला गया पीछे! अभी तक तो मैं ही सफल रहा था! या फिर कुशलता से विद्या-संधान किया था! धौला ने फिर से भूमि को थाप दी, चिमटा खड़काया,
और जो मंत्र उसने बुला, उसमे फट्ट आते ही, स्वर दीर्घ करना होता है! ये संहारक-मंत्र होता है! इसको कलेसिया-मंत्र भी कहा जाता है! उसने वही पढ़ा था! मेरे सामने, तभी, एक शिशु-कन्या आ गिरी! वो मृत थी!
झगया!
ये भयानक महाप्रयोग है। मैंने फौरन ही घंटाकर्ण वीर की महाविद्या का संधान किया! धौला ने जो किया था, उसका आशय समझिए पहले, वो शिशु-कन्या मृत थी, मेरी जीवन-वाहिनी उसमे धीरे धीरे वो धौला, उसमे प्रवेश करता, वो जीवित होती, कुछ ही क्षणों में, शिशु से नालिका बनती, उसके कुछ क्षणों में, कन्या , फिर षोडशी, फिर यौवन से पूर्ण कन्या!
और जब तक मेरी उम्र तक आती, मेरी जीवन-वाहिनी समाप्त हो जाती! मेरी मृत्यु हो जाती! ये महा-तंत्र है, अभी भी चलन में है! इसीलिए मैंने श्री घंटाकर्ण की महाशूल विद्या का संचरण
करना आरम्भ किया, मेरे कलेजे में पीड़ा होने लगी थी, मेरे अंडकोषों में, सूजन आने लगी थी, एड़ियों में पीड़ा होने लगी थी, सर के सबसे ऊपरी भाग में, भयानक पीड़ा होने लगी थी! मेरी जीवन-वाहिनी उसमे जाती, इसमें कुल आधे घंटे का समय लगता! मैं जुट गया संधान में! कोई बारहवें मिनट में, विद्या जागृत हो गयी!
अब मैंने अपना त्रिशूल उठाया! खड़ा हुआ,
कॉप रहा था मैं! मैंने महानाद किया,
और उस शिशु-कन्या के उदर में, अपना त्रिशूल घोंप मारा! कन्या कराहई! मेरा त्रिशूल, उसका उदर फाइ, भूमि में जा घुसा था! वो अपने हाथों से, त्रिशूल को पकड़ने की कोशिश करती रही!
औए मैं उस पर ज़ोर लगाता रहा! मंत्र पढ़ता रहा! ज़ोर ज़ोर से! तभी रक्त की छींटे पड़े मेरे मुंह पर! कन्या फट गयी थी! अंतड़ियां इधर-उधर गिर गयीं थीं! हो गया उस महा-तंत्र का अंत! प्रयोग समाप्त हुआ! मैं जा बैठा अपने आसन पर, मुंह पौछा, अब वो अंतड़ियां, हृदय और कलेजा, सब गायब हो गए! मेरे त्रिशूल पर लगा, वो रक्त भी गायब हो गया! धौला उठा! अपना त्रिशूल उठाया, मेरे पास आया, मेरे करीब! मेरा त्रिशूल उठाया उनसे,
और अपना दे गया! मुझे समझ नहीं आया कि क्यों!
अब धौला ने, गाना, गाना शुरू किया!
और अपना चिमटा बजाता रहा! सुर ताल साधता रहा उसकी! फिर चुप हुआ!
एक तरफ थूका,
और चुटकी बजाई! मैंने देखा उसको, वो हंसा! खड़ा हुआ!
और फिर धम्म से बैठ गया! ऊपर हाथ उठाये,
और भूमि में मारे दबा कर! उसने हाथ मारे,
और भूमि फट गयी बीच की, मैं वहीं देखता रहा, मित्रगण!
उस गड्ढे में जैसे, आग जल रही थी! आग का रंग फैला था उसमे!
और तभी मैंने किसी के हाथ देखे, काले रंग के हाथ!
और किसी ने सर उठाया अपना! मैं फौरन ही जान गया! इसको खेचरा कहते हैं! पाताल-वासिनी खेचरा!
खेचरा की साधना अत्यंत क्लिष्ट है! साधना हो भी जाए, तो साधक अपना रक्तपान कराता है इसको! खेचरा के सामर्थ्य का सागर, बहुत विशाल है! इस संसार में,
समस्त ब्रह्माण्ड में, ऐसी कोई योनि नहीं जिसका ये रूप न धर सके! ये त्रिदेव तक का रूप धरने में भी निपुण है! जैसे वेताल हुआ करता है, ऐसी ही ये खेचरा हआ करती है। धौला ने खेचरा सिद्ध की हुई थी! ये बहुत ही उच्च कोटि का अर्थ रखता था! मैंने फौरन ही बिनडा-विद्या का संधान किया!
ये विद्या अत्यंत गूढ विद्याओं में से एक है! इसके ईष्ट श्री वपुधारक के एक महावीर हैं, मैंने पढ़ा,
