दीपक साहब चल दिए थे हमारे साथ, संग उनके मैं, शर्मा जी और उनके छोटे भाई, अंगद, भी थे, उन्होंने एक नयी ज़मीन ली थी, एक फैक्ट्री बनाने के लिए, ज़मीन शहर से दूर,
औद्यौगिक क्षेत्र में थी, जिस दिन वहां नींव भराई का काम शुरू हुआ, उस दिन एक मजदूर को, किसी जहरीले सांप ने काट लिया,
सांप कहाँ से आया था, पता ही नहीं चल सका, दुरंगा सांप था वो, यही पता चला था, शायद मनियार रहा हो या फिर छोटा कोई रस्सेल्स-वाईपर, सांप तो भाग गया था, लेकिन मज़दूर की जान पर बन आई थी, उसको उल्टियाँ लग गयीं थीं, चक्कर आने लगे थे और बेहोशी आ रही थी, अंगद साहब ने जल्दी से अस्पताल पहुंचाया, काफी गहन चिकित्सा के बाद उस मजदूर की जान बचा ली गयी थी, अगर चिकित्सक को सांप के बारे में सटीक जानकारी मिल जाए, तो इलाज फ़ौरन ही शुरू हो जाता है, नहीं तो पहले खून के परीक्षण किये जाते हैं, इसी समय में अक्सर इसा हुआ व्यक्ति, प्राणों से हाथ धो बैठता है,
चलिए जी, जान बची लाखों पाये! काम फिर से शुरू हुआ, चौमासे खत्म हो चुके थे, इसीलिए अब काम कारवां एके लिए, सही और उपयुक्त समय था ये,
काम फिर से शुरू हुआ,
और फिर दुबारा भी, एक मज़दूर महिला को, वैसे ही किसी सांप ने काट लिया! सांप कहाँ से आया था, कहाँ को गया, कुछ पता नहीं चला! फिर से, मज़दूर की तरह, ले कर भागे उस औरत को,
अस्पताल पहुंचाया,
और फिर इलाज हुआ, वो औरत भी बचा ली गयी थी! अब दीपक साहब ने,
और मज़दूरों के साथ, उस जगह की जांच-पड़ताल की, वहां को बिल नहीं था, पत्थर नहीं थे, चट्टान नहीं थीं, गड्ढे नहीं थे, बस झाड़ियाँ थीं, अब सांप कहाँ से आये थे, कुछ समझ नहीं आया! उस ज़मीन में,
आग लगवा दी गयी, तेल छिड़का गया और फिर झाड़ियों में,
आग लगा दी गयी, शाम तक झाड़ियाँ जलती रहीं,
और फिर अगले दिन वो सब कूड़ा-करकट, उठवा कर फेंक दिया गया! अब अगर कोई सांप, बिच्छू आदि आता, तो पता चल जाता, बचाव भी हो जाता! काम फिर से शुरू हुआ, उस दिन तो कुछ नहीं हुआ,
लेकिन अगले दिन, वहाँ पर, चीलें उड़ती दिखाई दी, आसपास के पेड़ों पर बैठती,
और शोर मचाती! एक दो दिन तो बर्दाश्त किया, लेकिन जब उन्होंने अपनी संख्या बढ़ायी,
और हमला करना शुरू किया, तो मजदूर घबरा गए! अब इन चीलों का क्या इलाज किया जाए, ये सवाल मुंह बाए खड़ा था! अपशकुन होने लगे थे! क्या किया जाए? ऐसा कभी होता तो है नहीं! ये कैसा अजीब सा हो रहा था वहाँ! काम रोकना पड़ा,
आखिर में, ढोल के शोर से, एयर-गन की मदद से, वे चीलें उड़ाई गयीं! लेकिन अभी भी हमला कर ही देती थीं! अगला दिन आया,
और उस दिन कोई चील नहीं दिखी! शायद, चली गयीं थीं सभी की सभी! काम शुरू हो गया! नींव भर गयीं! अब जाकर, चैन आया सभी को! लेकिन कोई पांच दिन के बाद, एक मज़दूर के बालक को, सोते हए, कोई सांप आ इसा, जब वो बालक उठा नहीं, तो माँ को चिंता हुई,
माँ ने देखा, मुंह से झाग निकल रहे थे, शरीर नीला पड़े जा रहा था, अब सब घबराये, आनन-फानन में गाड़ी से उसको अस्पताल पहुंचाया गया, जान तो बच गयी, लेकिन, हफ्ते भर वो बालक वहीं रहा, अब सांप कहाँ से आया था, कुछ पता न चल सका! ये रहस्य बना ही रहा! मज़दूर लोग, घबराये हए तो थे ही, लेकिन रोजी के मारे, काम करते रहे, भय को दबाते रहे, फिर कोई दस दिन तक कुछ नहीं हुआ,
सब आया-गया हो गया! भूल-भाल गए! अब मज़दूर लोग तो बेचारे अपने परिवार समेत, वहीं झोंपड़ी बना कर रह रहे थे, ठेकेदार सुबह ही आता था, और शाम गए, जाता था, एक सुबह की बात है, तीन-चार मज़दूरों ने ठेकेदार को बताया कि, रात गए, उन लोगों ने कुछ अजीब अजीब सी आवाजें सुनी थीं, ये आवाजें, फुसफुसाहट सी थीं, इसलिए,
स्पष्ट नहीं समझ सके, सभी डर गए थे और अपनी अपनी झोपड़ी में कैद हो गए थे, ठेकेदार ने वहम समझा इसे! दीपक और अंगद ने तो मज़ाक भी उड़ा दिया, कि ठेकेदार की दी हुई दारु, जल्दी ही खत्म कर लेंगे वो! दो दिन और बीते, आवाजें लगातार आती रहीं, लेकिन किसी को नुक्सान नहीं हुआ,
अब ठेकेदार से बात की उन्होंने फिर, ठेकेदार ने एक रात वहीं बिताने की सोची!
और रह गया एक रात! कर लिया विचार! मच्छरदानी, दारु, मुर्गा, हण्डा सब लाया था, साथ में एक और दोस्त भी था उसका, खाया-पिया,
और लम्बी तान मार के, दोनों ही, फोल्डिंग-पलंग पर पाँव पसार, सो गए! रात को कोई दो बजे, आवाजें आयीं! ठेकेदार उठा!
अपने दोस्त को उठाया! आवाजें चारों तरफ से आ रही थीं! अब घबराये वो! हवा निकली! "कौन है?" बोला बो ठेकेदार का दोस्त! फुसफुसाहट बंद! कुछ न हुआ! फिर से लेट गए!
लेकिन नींद अब नहीं आने वाली थी!
जो मज़दूरों ने कहा था, वो सच था! अब तो उन्होंने भी सुन ली थीं वो आवाजें! रात कोई तीन बजे, आवाजें फिर से आयीं! इस बार साफ़ साफ़! जैसे कोई औरत रो रही हो! कोई पीट रहा हो उसको!
आदमी गुस्से में था, कोड़े की सी आवाज़ आ रही थी, उनसे कोई, बीस मीटर दूर!
अब दोनों पड़े पीले! दिमाग सन्न! घिघिया गए दोनों! मुंह से शब्द बाहर नहीं आये! डर के मारे नाई ढीले हो चले दोनों के
और तभी वो औरत, ज़ोर से हंसी! खिलखिलाकर!
जैसे,
बहुत खुशी मिली हो उसे! अब्ब न कोड़े की आवाज़ थी,
और न वो गुस्सैल आदमी की गुर्राहट! फिर से जैसे उस औरत ने छलांग लगाई, धम्म!
और ये धम्म की आवाज़, उन दोनों के पास हुई! अब तो वे भाग छूटे! भागे सीधा मज़दूरों के सरदार के पास! हैड-मज़दूर के पास! बनवारी नाम था उसका!
आवाजें दी उसे! बनवारी भागा भागा आया वहाँ! दूसरे मज़दूर भी आ जुटे वहाँ! बनवारी ने बहुत पूछा, बहुत पूछा! लेकिन वे दोनों, कुछ न बोल सके! वहीं देखते रहे! और जब संयत हुए, तो दोनों अपनी गाड़ी ले, खिसक लिए, सुबह आने को कह गए थे! मज़दूर बेचारे और डर गए, लेकिन रात तो काटनी ही थी, सो, अपनी अपनी झोपड़ी में जा घुसे, सुबह हुई, सुबह ही दीपक और अंगद साहब, वर वे दोनों, ठेकेदार और उसका दोस्त,
आ गए उस जगह,
सबकुछ बता दिया था दीपक को उन्होंने, वहाँ सच में ही कुछ गड़बड़ है, कोई भूत, कोई प्रेत! अब दीपक साहब को यकीन करना पड़ा, अब उपाय भी करना था, तो, ये निर्णय लिया गया कि यहां एक शान्ति-पाठ करवा दिया जाए, कोई भटकती हुई आत्मा आदि हो, तो शान्ति मिले उसे, उसी दिन, पंडित जी को ले आये, सारा सामान खरीद लिया गया, दिन में, दो बजे का मुहर्त निकाला पंडित जी ने,
और दो बजे करीब पूजा-पाठ आरम्भ हुआ! दो घंटे चला ये कार्यक्रम! पंडित जी ने, जल के छींटे छिड़क दिए, हर जगह! हर कोने में! अब मज़दूरों को भी हिम्मत मिली! कि अब नहीं होगा कुछ! मानसिक शान्ति से बड़ा बल और क्या! उस दिन काम नहीं हुआ, सभी ने आराम किया, उस रात भी कुछ नहीं हुआ, हाँ, वो ठेकेदार नहीं ठहरा था वहाँ! अगले दिन और सामान मंगवाया गया था, निर्माण हेतु, काम आरम्भ हुआ उस दिन,
और दिन शान्ति से बीता वो भी! इसी प्रकार एक हफ्ता करीब बीत गया, शान्ति से, कुछ न हुआ, कोई फुसफुसाहट नहीं हुई,
और कोई आवाज़ भी नहीं आई! अब शान्ति थी वहाँ, ठेकेदार भी प्रसन्न था अब! एक शाम की बात है, ठेकेदार अपने घर जाने को चला तो, उसका पाँव किसी चीज़ पर पड़ा, किसी नरम चीज़ पर, उसने नीचे देखा,
और जैसे ही देखा, उसने हड़बड़ा के पाँव हटाया! ये एक सांप था, एक दुरंगा सांप, ऊपर से काला, और नीचे से भूरा, इस से पहले कि वो चीखता, उस सांप ने उसको उसकी पैंट के ऊपर से ही, उसकी पिंडली पर इस लिया!
और भाग चला वहाँ से! ठेकेदार चिल्लाया, पिंडली में तो आग लगी थी ज़हर से! उछल रहा था बार बार, अब उसको भी जैसे तैसे ले जाया गया अस्पताल!
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इलाज चला, और अगले ही दिन, छुट्टी मिल गयी उसे,
लेकिन वो अपने काम वाली जगह पर, चार दिन तक नहीं आया! अब तो मज़दूरों में फिर से भय छा गया! कई तो मना ही करने लगे, तभी उनको मनाने के लिए, वो ठेकेदार आया था। उसने कोशिश की,
और मज़दूर मान गए, काम आरम्भ हो गया! अभी कोई दो दिन काम चला था, कि एक रात बारिश हुई, जमकर! मज़दूर बेचारे, अपनी झोंपड़ियों में ही बैठे रहे, खान-पान जैसे तैसे ही हो पाया, उस रात, उन मज़दूरों ने बताया था कि, उस रात की बारिश में, दो स्त्रियों को देखा था उन्होंने, नाचते हुए, उन स्त्रियों ने, काले कपड़े पहने थे, चोगे जैसे, वो गा रही थीं, नाच रही थीं, हंस रही थीं, खेल रही थीं बारिश में!
उनको, सभी ने देखा था, लेकिन दूर से, आसपास न तो कोई गाँव था, न कोई बस्ती, न कोई कस्बा, तो वे औरतें आई कहाँ से? ये न समझ सके वे मजदूर बेचारे! चुपचाप अपनी अपनी झोपड़ियों में से, एकटक देखते रहे! कोई चार बजे करीब, वे चीखें मारती हुई, एक दिशा में जाकर गायब हो गयीं! बस! अब तो कोई काम करने को राजी नहीं था वहाँ! जब जान ही न रहेगी,
हु
तो रोजी क्या करेगी! अब सभी ने निर्णय ले लिए कि कल सुबह ही, वे सब चले जाएंगे वहाँ से, नहीं करना काम यहां अब! यहां तो भूत बसते हैं! कोई आ गया चपेट में तो, जान से जाना पड़ेगा! सुबह हुई, बनवारी ने ठेकेदार को फोन किया, ठेकेदार आया, बनवारी ने सभी मजदूरों का फैसला कह सुनाया, ठेकेदार ने बहुत समझाया, बहुत समझाया, लेकिन नहीं माने! सभी इन अपना अपना सामान तैयार कर लिया था, बस अब हिसाब होना बाकी था, हिसाब भी किया गया दोपहर तक,
सभी मज़दूर चले गए, बनवारी और कुछ, हिम्मत वाले मज़दूर ही रह गए वहाँ!
अब पता चली दीपका साहब को, उनके होश उड़े! भागे भागे आये! ठेकेदार से बातें कीं! ठेकेदार ने नए मज़दूर लाने को कह दिया,
और कोई चारा था नहीं! काम रुक गया! दीपका साहब को हुई चिंता, माथे पर शिकन पड़ी! अंगद साहब दुखी हुए, इस फैक्ट्री के लिए तो, सबकुछ दांव पर लगा दिया था उन्होंने! अब कैसे हो?
हफ्ता बीतने को आया,
और ठेकेदार ने इंतज़ाम कर लिया, नए मजदूरों का! ले आया जगह पर सभी को,
और फिर अगले दिन से, काम शुरू हो गया! दो दिन काम सही चला, तीसरे दिन, एक मज़दूर ने वहाँ पर, ज़मीन में धंसती हुई मिट्टी को देखा, वहाँ से मिट्टी, नीचे धसक रही थी,
एक सूराख से, भंवर खाती हई, उस मज़दूर ने एक डंडा लिया,
और उस सूराख में घुसेड़ा! जैसे ही घुसेड़ा! वो डंडा सीधा अंदर चला गया! एकदम अंदर! ये देख, मज़दूर भागा!
और अपने दूसरे साथियों को बताया, वे भी आये, उन्होंने भी उस धसकती मिट्टी को देखा, वे भी हैरान! एक ने, एक और डंडा डाला, वो भी सीधा अंदर! अब घबराये वो, कि ज़मीन धसकने वाली है! भागो! सभी भाग लिए दूर वहाँ से!
और करीब दो घंटे के बाद वापिस लौटे,
मिट्टी अब नहीं धसक रही थी!
अब शांत थी, बस वहाँ एक गड्ढा सा हो गया था! नीचे कुछ न कुछ तो था! जहां मिट्टी धंसी थी! लेकिन अब जांच कौन करे!
खैर, काम हो गया शुरू! लग गए सभी काम पर, वो दिन सही बीता, रात भी सही बीती! कोई भय वाली घटना नहीं हुई! अगली सुबह, जब काम आरम्भ हुआ, तो उसी मज़दूर की नज़र उस गड्ढे पर पड़ी, गड्ढा अब काफी बड़ा हो चुका था! करीब चार फ़ीट चौड़ा!
अपने आप, किसी ने नहीं खोदा था उसे! वो हैरत में पड़ा अब, अपने साथियों को बताया इस बारे में, कुछ साथी आये वहाँ, सभी हैरान रह गए, उन मज़दूरों में से एक मज़दूर था किशन, उस किशन ने, गइढे में पानी डाला, पानी ठहर गया, नीचे नहीं गया! अब ये भी हैरत वाली बात थी! तभी गड्ढे में हरकत हुई! जैसे कोई मछली भाग रही हो उसमे! और झम्म से फव्वारा सा फूट पड़ा! अब भागे सभी! अपना कस्सी-फावड़ा छोड़! सभी खिसक लिए वहाँ से, खड़े हो गए दूर जाकर! फिर कोई फव्वारा नहीं फूटा!
अब फिर से हिम्मत बंधी! वे सभी फिर से, उस गड्ढे तक गए! कमाल था!! उसमे पानी की एक बूंद भी न थी!
अब सभी अचरज में पड़े! ऐसा न कभी देखा, न सुना! अभी सब गड्ढे को देख ही रहे थे कि, सामने खड़ा एक कीकर का ठूठ पेड़, कड़ाक की आवाज़ करता हुआ, बीच में से फट पड़ा! सभी डर गए, फिर से दूर हटे!
और तभी जैसे ज़मीन में चाकी सी चली! घूर्म-घूम की आवाजें आने लगी! अब हिम्मत टूटी सभी की वहाँ से, दौड़ लिए सभी के सभी! वो गइटा चौड़ा होता गया! और चौड़ा! बहुत चौड़ा! कम से कम आठ फ़ीट से ज्यादा! जो निर्माण उसके समीप हआ था, उसमे दरार पड़ती चली गयी! कुछ हिस्सा उस दीवार का, ढह गया! अब सभी समझ गए कि यहां कुछ न कुछ तो है! सभी ने हाथ खड़े कर दिए अपने! उसी शाम, बड़ी हिम्मत कर, अपना अपना सामान बाँध लिया उन्होंने,
और ठेकेदार को बुला लिया, सबकुछ बता दिया ठेकेदार को! ठेकेदार की तो ये सुनकर गरारी ही फेल हो गयी! पसीने छूट गए! घाटा सामने दिखाई देने लगा! उसने बहुत समझाया सभी को, लेकिन कोई नहीं समझा! वो जगह भूतहा है! कोई बेकार में मारा जाएगा वहाँ! छोटे बालक-बालिकाएं भी हैं, उनको भी खतरा है! ऐसे बहुत सारी बातें! हिसाब-किताब किया,
और सभी मज़दूर चलते बने वहाँ से! ठेकेदार की समझ में कुछ न आया! दीवार कैसे ढह गयी?
क्या है यहाँ? कौन कर रहा है ऐसा? क्या हो रहा है? पूजा तो करवा ही ले थी? अब क्या कमी रह गयी? इन्ही सवालों में उसकी गरारी घूमती रही!
अब क्या किया जाए? उसने बात की दीपक साहब से,
जब उन्हें पता चला तो, गश ही आने वाला था उन्हें तो, इन दिनों अंगद साहब की मधुमेह भी काफी गड़बड़ा गयी थी! दीपक साहब का उच्च-रक्तचाप कहर बरसाने लगा था! झटके लगते थे उन्हें सोच सोच कर ही! आखिर में एक नया विचार आया! क्यों न किसी ओझा-गुनिया को दिखाया जाए? हो सकता है कि, समस्या पकड़ ही ले जाए?
और हो जाए निदान? अब हुई जी खोजबीन किसी बढ़िया ओझा या गुनिया की, तीन दिन के बाद, चारों दिशाओं में गाड़ी घुमाने के बाद, एक ओझा मिल गया! नूह के एक गाँव में मिला, नाम था बल्लन भगत! वो राजी हो गया साथ चलने को, एक बार देख ले, तो फिर काम कर ही देगा! ले गए जी साथ में उसे, उसने कुछ सामान मंगवाया था, कुछ सुइयां, कुछ मांस, एक बोतल शराब, अगरबत्ती और पीली सरसों! अब वहाँ पहुंचे!
बल्लन ने सभी को एक तरफ बिठा दिया, अगरबत्ती ली, उनको एक साथ जलाया,
और उस जगह में जगह जगह ज़मीन में गाइ दिया! कम से कम बीस जगह! उसके बाद, अपनी कोहनी के ऊपर के स्थान पर, दोनों ही भुजाओं पर, दो सुइयां घुसेड़ ली! नसों में! दो पिंडलियों में, नसों में,
और अब देख शुरू! थोड़ा आगे पीछे हुआ, गर्दन दायें बाएं घुमायी,
और बैठ गया! मांस की पन्नी खोली, और दो टुकड़े निकाले, सामने एक पत्ते पर रखे, शराब ली, बोतल खोली,
और उस मांस के ऊपर छिड़क दी, अब शराब की बोतल उठाकर, चल पड़ा आगे! वाह रे ओझा! ये जो विधि लगाई थी उसने, ये भूमि में धन देखने की विधि है! खबीस को साथ ले चलने के लिए होती है! प्रेत आदि का वास देखने की नहीं! हाल तो खराब होना ही था! और हो गया!
जैसे ही एक जगह उसने शराब की बूंदें डाली, उसकी कमर पर, एक लात जमाई किसी ने!
वो हवा में उड़ता हआ आगे गिरा! कोई छह फ़ीट! मुंह से कराह निकल गयी! बोतल छूट गयी हाथ से!
पत्थर पर गिरी और फूट गयी! फिर एक और लात पड़ी उसे!
वो चिल्लाया अब! मदद की गुहार लगाई उसने!
और वहाँ वे जो तीन खड़े थे, पाँव तले ज़मीन खिसक गयी थी! कुआं बन गया था पाँव तले! वो कैसे करते मदद! वो तो ओझा था, इन्ही चीज़ों का अभ्यस्त! अगर वे वहाँ गए, तो हड्डी-पसली एक हो जानी थी! वे बस खड़े खड़े, कांपते कांपते देखते ही रहे! मुंह खुले थे, बदन का पानी सूखा था!
और उधर! ओझा खून उगल रहा था मुंह से! हाथ पाँव, सब टूट चले थे! ऐसी धुनाई की थी उसकी किसी ने! सारे कपड़े खून से तर-बतर थे! वो अब चिल्ला भी नहीं रहा था! कहीं मर न जाए, इसीलिए हिम्मत कर, भाग चले उसे उठाने के लिए! उसको उठाया, गाड़ी में डाला,
और गाड़ी दौड़ा दी! अब्ब जो मंज़र उन्होंने देखा था, अब वो सब सच था! जैसा उन मज़दूरों ने बताया था! अब जान हलक में अटकी थी! न खाते बने, न फेंके बने! अस्पताल ले जाया गया उसे, हालत खराब थी उसकी बहुत, उसके अंदरूनी अंग फट चुके थे,
जिगर में भारी अंदरूनी चोट पहंची थी, पसलियां टूट चुकी थीं, छह दिन संघर्ष करने के पश्चात, वो ओझा, जीवित न रह सका, सांस की डोर टूट गयी, मौत हो गयी उसकी, पुलिस की लिखत-पढ़त हुई, जितनी मदद कर सकते थे उसके परिवार की,
कर दी थी, लेकिन वो ज़मीन? क्या है उधर? ये सबसे बड़ा सर दर्द था, अब तलाश थी, किसी योग्य व्यक्ति की,
जो सब संभाल सके!
और कोई एक महीने के बाद, एक आदमी मिला उन्हें, वो आदमी, रुद्रपुर में रहता था! नाम था बजरंग बाबा! मस्त मौला और बढ़िया तांत्रिक! तैयार था वो उस ताक़त से भिड़ने के लिए, जो यहां कब्ज़ा किये बैठी थी! जा पहुंचे अब वे तीनों बाबा बजरंग के पास! कह सुनाई सारी कथा अब तक की, बाबा ने कुछ सवाल भी किये, कुछ अन्य सवाल भी किये, घरबार के बारे में, कारोबार के बारे में,
और फिर एक रकम बाँध कर, बाबा जी चल दिए उनके साथ, बाबा के साथ उनके दो चपाटे भी थे,
ये बाबा की हर चीज़ का ख़याल रखते थे, यहां तक की, हगने-मूतने का भी!
आ गए वे साहब सभी दिल्ली, उस रात बाबा को वहीं ठहराया, खूब खिदमत की उन्होंने बाबा जी की, चपाटे भी खूब मजे ले रहे थे!
जो कहते थे, वही मिल रहा था!
क्या कबाब और क्या शराब! सबकुछ!
अगले दिन, ले गए बाबा जी को उस स्थान पर, बाबा जी ने मुआयना किया, मिट्टी उठायी,
और देख लड़ाई! जांच की,
और चेहरे के भाव, सख्त होते गए! चेहरे से आत्मविश्वास जाता रहा, पूरी ज़मीन का मुआयना कर डाला, कुछ अभिमंत्रित बीज भी दबा दिए उन्होंने वहां ज़मीन में!
और फिर कुछ मंत्र पढ़े! पानी मंगवाया, उस पानी से, जमीन में एक जगह, एक वृत्त खींचा,
और फिर मंत्र पढ़े, जैसे ही मंत्र पढ़कर, पानी के छींटे दिए, बाबा पीछे हट गए! उठगए!
और भागे पीछे! उनको घबराया देख,
चपाटे भी भाग निकले!
और वे तीनों, ठेकेदार और दीपक और उनके भाई, भागे गाड़ी की तरफ दो गाड़ियां लाये थे, सबने चालू कर ली, बाबा जी बैठे, और चलने को कहा! वे चल दिए। ये ज़मीन तो बखेड़ा लेकर आई थी उन दोनों भाइयों के लिए, वे तो फैक्ट्री बनाने चले थे, लगता था घर भी बिक जाएगा अब! एक जगह बाबा जी ने गाड़ी रुकवा दी,
और अब बताया उन सभी को, की उन्होंने जब वहाँ क्रिया की थी, और एक वृत्त खींचा था देखने के लिए, तो उन्हें एक त्रिशूल दिखाई दिया था, त्रिशूल के बड़े फाल पर, एक शिशु-मुंड आर-पार था, इसका अर्थ ये हआ कि यहां पर कोई बहुत ही बड़ी शक्ति का वास है,
और वो शक्ति यहां पर अभी भी सक्रिय है! अब उन तीनों ने ये सुना तो दिमाग में धमाके हए कई! ठेकेदार को पसीना आया, कि घाटा हुआ, अंगद साहब की मधुमेह चिल्लाई,
और दीपक साहब का रक्तचाप बढ़ा! अब तीनों पाँव पड़ लिए उनके! अब तो उनके बचाव का रास्ता बाबा जी के चरणों से ही जाता था! बाबा जी थोड़े सकुचाये,
और रक़म बढ़ा दी, जान का खतरा था, इसीलिए! रकम की तो कोई चिंता थी ही नहीं! बस उस ज़मीन का काम हो किसी भी तरह!
अब बाबा जी ने कुछ सामान मंगवाया,
और एक लड़की का प्रबंध करने को कहा! लड़की 'साफ़' होनी चाहिए, मासिक आता हो उसे, चेहरे, वक्ष और नितम्ब पर कहीं भी कोई चोट, तिल आदि का निशान न हो! ये सबसे पहली शर्त थी! अंगद और दीपक तो इस क्षेत्र में अंगूठा-टेक ही थे! लेकिन ठेकेदार खेला-खाया आदमी था! उसने हामी भर ली, उसके जानकार थे कुछ, जो ऐसे काम में रूचि रखते थे, उनसे ही कहना था उसे! तो बात तय हो गयी! कोई चौथे दिन लड़की का भी प्रबंध हो गया, लड़की देहाती थी, लेकिन थी खूबसूरत, उसके माँ-बाप बाबा की क्रिया के लिए तैयार थे, मुंह-मांगी रकम मिली थी, एक घंटे की ही तो क्रिया थी बस! मित्रगण!
आगरे के आसपास का क्षेत्र ऐसे ही कामों में लगा हुआ है, कभी धन उतारने की क्रिया में, कभी उल्लू बाँधने की क्रिया में, कभी रस्सी के खेल में, कभी धन उखाड़ने के खेल में! लड़कियाँ अक्सर मिल ही जाती हैं! अब आया जी वो दिन, जिस दिन ये क्रिया करनी थी,
उन तीनों ने उस क्रिया स्थल को, ऐसे ढक दिया था कि कोई, देख नहीं सकता था अंदर! अंदर बस वो बाबा जी, दो चपाटे,
और वो लड़की, बस यही रहने वाले थे!
तो मित्रगण!
उस रात क्रिया आरम्भ हुई! रक्षा घेरा खींचा गया!
सभी को रक्षण-जल पिलाया बाबा जी ने, उस लड़की को भी! अब लड़की को निर्वस्त्र कर, अपने सामने बिठा लिया! ये 'भोग' था! भोग! उस लड़की का, अपने किसी सिपाहसालार के लिए! जो खुश होता तो 'भोग' मांगता! ऐसे भोग के पश्चात भी, लड़की का कौमार्य भंग नहीं होता! अब जी उठायी अलख! मंत्रोच्चार आरम्भ हुआ! चपाटे मदद करते जाते! बाबा जी, झूमते जाते! आह्वान कर रहे थे अपने ही, किसी 'खबीस' का! बीस मिनट गुजरे, थाल जो सामने रखा था, अचानक से उछला,
और कांपने लगा! बाबा ने चावल के अभिमंत्रित दाने मारे फेंक कर उस पर! थाल एकदम शांत! अब लड़की लगी झूमने! बाबा का माथा ठनका! ये क्या? ये क्या हुआ? इसे क्या हुआ? अब लड़की खड़ी हुई, मारी भोग के थाल को दबाकर लात!
आँखें लाल उसकी!
चेहरा लाल! चपाटे बेहाल! दोनों चपाटों को पकड़ लिया बालों से! अब बाबा जी हुए खड़े, अपना त्रिशूल अभिमंत्रित किया,
और छुआ दिया लड़की को! लड़की ने पछाड़ खायी!
और फिर बैठ गयी! घूरती रही! दोनों चपाटे बाबा के पीछे आ खड़े हुए! "चला जा! चला जा!" मर्दाना आवाज़ में बोली लड़की! चपाटे कांपे! बाबा ने उसके हाथ हटाये कंधे से! "कौन है तू? ये बता?" बोले बाबा, "चला जा! चला जा!" वो फिर बोली, बाबा भी डटे ही रहे! नहीं हिले! लड़की उठी, चिल्लाई!
अपने बाल खींचे! "हाज़िम! हाज़िम!" चिल्लाने लगी!
और खड़ी हो गयी! मित्रगण!
उसके बाद तो ऐसा खेल हुआ कि, बाबा जी जिंदगी भर याद रखने वाले थे उसे! उस लड़की के हाज़िम कहते ही, क्रिया-स्थल फट पड़ा! वो झोंपड़ी, वो टीन, सब चकनाचूर हो गए! वे दोनों चपाटे, हवा में उछले और दूर जा गिरे!
जैसे किसी ने फेंक के मारा हो उसे!
और बाबा जी,
बाबा जी का रंग काला पड़ गया एकदम! वे तो कराह भी न सके!
और फेंक दिए गए बाहर! भक्क काला!
और ये काम! ये काम बस एक ही कर सकता था! एक ब्रह्म-राक्षस!
और कोई नहीं! और किसी के बस में नहीं कि किसी की समूल विद्या का हरण हो जाए, और उसका शरीर काला पड़ जाए! भक्क काला! चपाटों में से एक का सर फट गया! खुल गया! एक की पसलियां और गर्दन टूट गयी! बाबा जी के दोनों पाँव टूट गए! सभी बेहोश! हाँ, वो लड़की! वो लड़की अब शांत थी! कपड़े पहनते ही, भाग निकली बाहर! उसे कुछ न हुआ था! उन तीनों को ये सब देखकर, काटों तो खून नहीं! बर्फ की तरह से ठंडे पड़ गए थे!
चेहरे जर्द हो चले थे। भय के मारे, कॉप रहे थे, उस लड़की के पिता सहमे हए थे!
और जल्दी से वहाँ से जाने की जिद पकड़े हुए थे! हिम्मत जुटाई उन्होंने, उन सबको उठाया, गाड़ी में डाला,
और निकल पड़े वहाँ से! सीधा अस्पताल, सभी को भर्ती करा दिया गया!
इलाज फ़ौरन ही शुरू हो गया! जिसका सर खुला था, उसकी हालत गंभीर थी, पत्थर घुस गए थे सर में, सारी रात वे वहीं रहे, लड़की को और उसके पिता को, पैसे देकर भेज दिया गया था, वे तो खिसक लिए थे वहाँ से! हाँ, लड़की से पूछा था कि क्या हुआ, उसने यही कहा कि उसे कुछ याद नहीं, कुछ भी! बस इतना कि बाबा ने क्रिया अभी आरम्भ ही की थी, उसके बाद कुछ याद नहीं! इलाज चला, सब बच गए, लेकिन बाबा! अब नाम के बाबा ही थे! उनको वे तीनों उनके स्थान तक, छोड़ कर भी आये, दवा-दारु का सारा खर्च भी दिया! लेने के देने पड़ गए सभी को! वे छोड़ आये! पहुंचे दिल्ली, अब क्या करें? कहाँ जाएँ? किसको बुलाएं? ज़मीन बेक दें? लेकिन
कैसे? कहीं फिर ऐसा ही हुआ तो? कर्ज का क्या होगा? सोचें दोनों भाई! ठेकेदार अलग परेशान! माल वाले, पैसे मांग रहे हैं!
क्या करें?
किस घड़ी में काम पकड़ा ये? दीपक साहब तो टूट गए थे, अंगद साहब में कुछ जान बाकी थी, बहुत बड़ी विपदा आन पड़ी थी! ये चीजें होती तो हैं, सुना ही था, देखा नहीं था,
और जब देखा, तो यक़ीन भी हो आया! लेकिन अब हो क्या? कहाँ जाएँ? हुई जी खोजबीन शुरू फिर से! कोई पंद्रह दिन बीत गए, आखिर में एक बाबा मिल ही गया! बाबा शिवराज! सुना था कि, बड़े बड़े प्रेत पानी भरते हैं बाबा के सामने! चाकरी करते हैं! बस मान जाएँ एक बार चलने के लिए! पहंचे जी, हरिद्वार! सीधा बाबा के पास! हाथ जोड़े, पाँव पड़े, दक्षिणा दी,
और तब जाकर बाबा ने, सारा किस्सा सुना! सुनते ही गाल फाड़ के हंसा! बस! बस इतनी सी बात! हो जाएगा काम! चुटकी बजाते ही काम हो जाएगा! मान गए बाबा! लेकिन मोटी रक़म के बाद!
दक्षिणा उनके स्थान के लिए! मानना पड़ा! मान गए सभी! अब मरता क्या नहीं करता! वही हाल था!
आखिर, दिन सोमवार, सुबह, चल पड़े दिल्ली के लिए! बाबा जी की आवभगत होती रही! साथ में चार चेले भी थे! रास्ते भर, शराब और कबाब के लुत्फ उठाये जाते रहे!
और आ गए जी सभी फिर दिल्ली! उस रात जश्न सा हुआ! बाबा ने खूब मजे किये! खाया-पिया!
और फिर सामान लिखवा दिया! सुबह होते ही, सामान लेने चले गए सभी!
और आ गया सामान! दिन में जा पहुंचे उस जगह! बाबा ने अपना त्रिशूल अपने कंधे से सटाया,
और गाड़ी से उतरे! वहाँ की जांच की! नौ जगह पर, चिन्ह लगाए त्रिशूल से!
और एक जगह जा कर बैठ गए! करीब घंटे भर बैठे! सामान जो लाया गया था, वो मंगवाया गया, कुछ सामान निकाला उसमे से,
और कुछ क्रिया आरम्भ की! फिर ध्यान लगाया!
और कोई आधे घंटे के बाद, वे उठे,
सामान उठाया,
और अपने चेलों को दे दिया! फिर गाड़ी में आ बैठे! चिंतित से! सभी उन्हें ही देख रहे थे! कि क्या समस्या है वहाँ? जो ऐसा उत्पात हुआ है? "ब्रह्म-राक्षस!" वे बोले, अब ये शब्द तो सर लांघ गया सभी का! कुछ न समझे! "राक्षस?" ठेकेदार ने पूछा, "हाँ, समझ लो ऐसा ही" वे बोले,
राक्षस? यहां? भिवाड़ी में राक्षस?
बाबा सठिया गए हैं शायद! लेकिन जब ब्रह्म-राक्षस के बारे में बताया, तो वजन हल्का होने लगा एक एक शब्द सुनकर उनका! "क्रिया! महा-क्रिया करनी होगी!" बाबा ने कहा, अब वे बेचारे! कुछ नहीं समझे!
जो करना है बाबा जी वो करो! हमारे प्राण बचाओ!
नहीं तो हम यहीं दफन होने वाले हैं! अच्छी ली ये जमीन हमने तो! अब घर भी बिकेगा, वो फार्म-हाउस भी,
और हो सकता है सारी गाड़ियां भी बिक जाएँ! बुरे फंसे!
आखिर में बाबा जी ने एक लम्भी-चौड़ी फेहरिस्त थमा दी उनके हाथ में! कुछ चीजें तो उन्होंने कभी सुनी ही नहीं थीं! लेकिन मज़बूरी! लानी तो थी ही! चल पड़े वापिस!
बाबा ने अंदाजा सही लगाया था! सही हिसाब-किताब किया था! ब्रह्म-राक्षस की उपस्थिति का भान हो चला था!
अब तो संग्राम था! सीधा सीधा संग्राम!
और इनसे संग्राम का अर्थ है, या तो आर! या फिर पार! लेकिन बाबा के पास भी कुछ बाण ऐसे थे, जो लक्ष्य-भेदन करने में अचूक थे! वही काम आने थे! अब बाबा ने तैयारी शुरू की,
और रविवार की रात, क्रिया की तिथि निर्धारित कर दी!
सामान आ गया था!
और दे दिया बाबा को! बाबा ने जांचा और जो रह गया था, वो भी मंगवा लिया! काले बकरे का मांस, मेढ़े का कलेजा,
आदि आदि! ये सब प्रयोग होना था!
और फिर आ गया वो दिन! क्रिया करने का दिन! बाबा ने तैयारी तो कर ही ली थी,
अब संग्राम लड़ना था उस ब्रह्म-राक्षस से! बाबा ने क्रिया जो करनी थी, उसमे ब्रह्म-राक्षस को कैद हो जाना था, या स्थान-कीलन हो जाता उसका! शाम को ही पहुँच गए सब, बाबा के बताये अनुसार ही चेलों ने, सारा क्रिया-स्थल साफ़ कर दिया था, निर्माण भी कर दिया था!
रात हुई,
और अलख उठायी बाबा ने! भोग आदि सामग्री सजा दी गयी! थालों में मांस और मदिरा भर दी गयी!
और अलख में भोग देते ही, क्रिया आरम्भ हो गयी!
चेलों ने भी मोर्चा संभाल लिया! सामने एक बड़ा सा तसला रखा था, उसमे पानी डाल कर रखा गया था! बाबा मंत्र पढ़ते जाते,
और उस पानी में सामग्री छोड़ते जाते! और वे तीनों! ठेकेदार और दोनों भाई, कार में बैठे हए थे बेहद संजीदा होकर, इतना कि आपस में बात भी नहीं कर रहे थे! सभी को चिंता लगी थी! क्या होगा? ठीक तो हो जाएगा? बाबा संभाल लेंगे?
क्या वो राक्षस हट जाएगा? क्या काम बन जाएगा? फैक्ट्री खुल जायेगी? ऐसे सवालों ने उनके गलों को,
अपने फंदे से कस रखा था। फन्दा कभी कसता, कभी ढीला होता! कसमसा जाते तीनों के तीनों ही! बाबा ने भोग थाल उठाया,
और किसी शक्ति का आह्वान किया, करीब आधे घंटे में ही उनकी वो शक्ति प्रकट हो, मुस्तैद हो गयी! उन्होंने क्षेत्र-रक्षण, देह-रक्षण,
प्राण-रक्षण क्रियाएँ निबटा ली थीं! बस अब तो उस ब्रह्म-राक्षस को चुनौती देनी थी! अपने चाकू से, मेढ़े का कलेजा उठाया, उसका एक टुकड़ा लिया, अलख में भूना, आधा चबाया, फिर मन्त्र पढ़ा,
और निगल गए! और बचा हुआ टुकड़ा, ठीक सामने फेंक दिया! टुकड़ा गिरा!
और भूकम्प सा आया! बाहर खड़ी कारें भी हिल गयीं! भनभना गयीं! पानी भरी बोतलें थिरक पड़ीं! ब्रह्म-राक्षस ने चुनौती स्वीकार कर ली थी! सामने की भूमि में धाम की सी आवाज़ हुई!
और भूमि में एक भंवर उठने लगी! मिट्टी की भंवर! बाबा की आँखें चौड़ी हुई! चेले आपस में सट गए! गड्ढा बनता गया! बाबा ने फ़ौरन जी, अपना त्रिशूल लिया, अभिमत्रित किया,
और सामने, अपने सामने, गाइ दिया! फिर से भयानक आवाज़ हुई!
जमीन फिर से हिली, सामने रखा पानी का तसला हिला और पानी छलक पड़ा!
आधे से ज्यादा पानी छलक गया था! बाबा ने अपने एक चेले को फिर से वो तसला, भरने के लिए, चेला उठा, बाल्टी उठायी,
और तसले में पानी डाला, और फिर आ कर बैठ गया, बाबा ने फिर एक मंत्र पढ़ा, एक टुकड़ा उठाया मांस का,
अभिमंत्रित किया और उस गड्ढे में फेंक दिया! अब जो वो टुकड़ा फेंका! गड्ढे से आवाजें आने लगी! इंसानों की आवाजें! ये सुन चेले तो ऐसे डरे कि बाबा के पीछे जा बैठे! अब बाबा खड़े हुए। और सामने देखा, त्रिशूल उखाड़ा, गड्ढे की तरफ किया, मंत्र पढ़ा,
और त्रिशूल फिर से गाड़ा! त्रिशूल गाड़ते ही, गड्ढा चौड़ा हुआ,
और उसमे से, कुछ बाहर आने लगा! सफ़ेद सफ़ेद! बाबा ने झुक कर देखा! ये तो हइडियों का सा चूरा था!
और फिर हड्डियां बाहर आने लगी! हड्डियां! मानव की हइडिया!
कपाल! बड़े बड़े! छोटे छोटे नवजात से लेकर, प्रौढ़ तक! कपाल ही कपाल! ये देख बाबा ने थूक गटका! चेलों की तो फिरकी बन गयी!
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बदहवास हो उठे! आएं बाएं देखने लगे! मन में आये कि भाग जाएँ यहां से! लेकिन बाबा टिके हए थे! बाबा ने अपना खंजर निकाला, अपनी हथेली में एक चीरा लगाया, मंत्र पढ़ा और रक्त दूसरे हाथ में इकट्ठा किया!
आगे गए, और उन कपालो पर, हड्डियों पर, रक्त छिड़का दिया! रक्ते के छिड़कते ही, वे कपाल और हइडियां, फिर से गड्ढे में समाने लगे! बाबा ने करारा जवाब दिया था! अब तो चेलों का सीना फूल गया! वे आगे आ गये! अब बाबा फिर से अपने आसन पर आ बैठे, दो बार जम्भाल मंत्र पढ़ा! और तभी हुआ अट्टहास! भयानक अट्टहास! हर दिशा से, आकाश में, भूमि में, सामने, आगे, पीछे, दायें, बाएं! हर तरफ! बाबा ने फिर से मंत्र पढ़ा!
और अपना त्रिशूल लहराया! अपने गुरु का नाम लिया!
और बढ़ गए आगे! अब खुली चुनौती दी! खुली चुनौती! आमने सामने होने की! फिर से अट्टहास हुआ! प्रबल अट्टहास! प्रबल वायु-वेग चला!
आँखों में मिट्टी घुसने लगी, बाबा ने अपने साफे के कपड़े से अपनी आँखें ढकी! वहां के पेड़, पौधे, तेज हवा में झुक गए! पत्ते गिरने लगे! हवा का बवंडर उठा! शोर हुआ! अट्टहास पर अट्टहास! कान तो कान, सीना फाड़ देने वाला अट्टहास! बाबा डटे रहे! ये एक अच्छे औघड़ की निशानी थी! या तो आज, वो ब्रह्म-राक्षस ही रहेगा, या फिर बाबा! बाबा ने कुंडागण मंत्र पढ़ा! बवंडर शांत हुआ! हवा जैसे वापिस लौट पड़ी! अँधेरा जैसे पीछे हटने लगा! अलख जो अब तक भूमि चाट रही थी, सीधी खड़ी हो गयी! और फिर सन्नाटा! सन्नाटा पसरा! वायु अब नाम मात्र को भी नहीं था! कोई कीट-पतंगा भी नहीं था! बाबा अपना त्रिशूल लिए खड़े रहे!
अडिग! नहीं हिले! और फिर से अट्टहास हुआ! प्रकाश कौंधा! उन्होंने उसे देखा, सामने थोड़ी दूर पर, कोई आकृति थी! एक भीमकाय आकृति! कोई राजसिक पुरुष! देव-तुल्य पुरुष! बाबा के अब होश उड़े! उन्होंने कभी आमने सामने संग्राम नहीं किया था, किसी ब्रह्म-राक्षस से! ब्रह्म-राक्षस के बारे में बहुत कुछ मालूम था उन्हें!
उसके सामर्थ्य को जानते थे बाबा जी! यदि भला करने पर आये, तो पुश्तों तक को संवार दे!
और यदि बिगाड़ करने पर आये, और पुश्तों तक को दर दर का भिखारी बना दे! हाथ में आया भोजन भी छीन लिया जाएगा, ऐसा हाल करता है ये ब्रह्म-राक्षस!
और अब इसी से संग्राम था! बाबा अपने मन्त्र-बल, तंत्र-बल के बल पर, टिके हए थे!
और फिर से अट्टहास किया उसने! चेले सहम गए! भय तो बाबा ने भी खाया, लेकिन वे अडिग थे! ब्रह्म-राक्षस आगे आया,
ऐसे कि जैसे पृथ्वी ही पीछे खिसकी उसके, उसके कदम तक नहीं हिले! चमकीले सफ़ेद रंग के उस दिव्य-वस्त्र में, वो किसी देवता सादृश्य ही प्रतीत होता था! कन्धमाल लगे थे,
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बड़े बड़े! विशाल, शक्तिशाली भुजाएं थीं,
आभूषण जड़ीं! केश कमर तक लटके थे, घुघराले केश, मूंछे शानदार थीं, कलमों से मिलती हुई लगती थीं! माथे पर, एक त्रिपुण्ड था पीले रंग का! "चले जाओ!" वो बोला!
आवाज़ ऐसे, कि जैसे कोई गजराज चिंघाड़ा हो! कॉप गया था वो स्थान! बाबा भी अडिग खड़े थे! "हम नहीं जाएंगे!" बोले वो, "कारण?" उसने पूछा, "कारण तो मैं तुमसे पूछता हूँ कि क्यों यहां के मासूमों पर अत्याचार कर रहे हो तुम?" बोले बाबा, "कैसा अत्याचार?" पूछा उसने, "ये व्यवसाय की भूमि है किसी की, जाते क्यों नहीं और कहीं?" बोले बाबा,
अट्टहास किया! प्रबल अट्टहास! वृक्ष के पत्ते गिरने लगे उस अट्टहास के ज़ोर से! "ये भूमि हमारी है! हम ही रहते हैं यहाँ!" बोला वो, "अब नहीं रहोगे!" बोले बाबा!
और एक महा-मंत्र पढ़ने लगे! त्रिशूल आगे किया, सामने उस ब्रह्म-राक्षस के! वो अट्टहास पर अट्टहास लगाता रहा! बाबा अपना मंत्रोच्चार जारी रखते रहे!
और फिर महात्रिदंक-मंत्र का जाप कर डाला! अब ब्रह्म-राक्षस हवा में उठा! अट्टहास किया!
अपना हाथ आगे किया, बाबा से कोई शक्ति टकराई, बाबा का त्रिशूल हाथ से गिर पड़ा! बाबा हैरान रह गए! बाबा जाप करते रहे, वो अट्टहास पर अट्टहास करता रहा! बाबा का जाप समाप्त हुआ, वे वहीं बैठ गए, एक मुट्ठी मिट्टी उठायी,
और अपने माथे से लगाया, फेंक दी फिर सामने! ब्रह्म-राक्षस लोप हुआ! अट्टहास लगाता हुआ! अगले ही पल, जहां बाबा बैठे थे, वो भूमि धंसने लगी! वे नीछे सरकने लगे! बाबा जैसे तैसे अपना संतुलन बना, खड़े हुए, लेकिन गिर पड़े पीछे की तरफ! ये देख, उनके चेले भागे,
और जैसे ही बाबा तक आये, उनके घुटने फट गए! ज़मीन पर गिर पड़े सभी! घुटने की हड्डियां बाहर झाँकने लगी! कराह उठे सभी अपने घुटने थाम! बाबा समझ गए,
अब कुपित हो चला है वो ब्रह्म-राक्षस! उन्होंने किसी तरह से अपना संतुलन बनाया, गड्ढे से बाहर आये, अपने गले में धारण की हुई माला, एक ही झटके में तोड़ डाली! उसके मनके भूमि पर गिरे!
और वो माला, फेंक दी उस गड्ढे में! गड्ढा स्थिर हो गया! अब वे अपने चलों की तरफ जाने के लिए मुड़े, जैसे ही मुझे, सर में भयानक पीड़ा हुई। सर पकड़ नीचे बैठ गए, चीख निकल गयी उनकी! कुछ दिखाई नहीं दे रहा था! तब भी! बाबा ने तेज तेज आवाज़ में, महारुद्रम-तण्डिका का जाप कर डाला! मित्रगण!
ये अंतिम मंत्र होता है अपने रक्षण का! यदि सफल, तो प्राण बचे, यदि असफल, तो समझो इहलीला समाप्त! मंत्र ने काम किया! बाबा की पीड़ा समाप्त हो गयी! उनके चेले, लहूलुहान थे! बाबा दौड़े दौड़े गए!
और उन तीनों को बुला लाये! डरते, सहमते तीनों आये,
और जल्दी से बाबा ने वो चेले उठवा दिए उनसे! चेले चले गए, नहीं तो उनका अंत निश्चित था! गला देता वो ब्रह्म-राक्षस उनको, उनके ही रक्त से, हड्डियां भी गल जाती,
वहीं की मिट्टी में अवशोषित हो जाती! इसी कारण से उठवा दिया था उनको!
वे तीनों, अस्पताल ले भागे थे उनको वहां से! अब रह गए थे अकेले! बाबा शिराज! अकेले! अकेले ही डटे थे! क्रोध भड़क उठा उनका, उन्होंने, अपने शरीर को नौ जगह से गोदा अपने चाकू से, रक्त इकट्ठा किया,
और महा-कपालि का संधान करने लगे! ये समकक्ष है ब्रह्म-राक्षस के! लेकिन! ब्रह्म-राक्षस ऐसे करने ही नहीं देता!
वो विघ्न डालता है! प्राणहारी विघ्न! बनैले पशु आ धमकते हैं! जैसे सिंह, भेड़िये, रीछ, जंगली शूकर आदि आदि! ज़हरीले कीड़े-मकौड़े आ टूट पड़ते हैं! जैसे सांप, बिच्छू, अजगर, बरे आदि आदि! बाबा ने संधान किया!
और अगले ही पल, जैसे ही मांस की आहुति, अलख के गले में उतारनी चाही, अलख बुझ गयी! अब बाबा को आया चक्कर!
और,
अट्टहास! महाप्रबल अट्टहास! "जा! बख्श देता हूँ! लौट के नहीं आना कभी! नहीं तो यहीं अंत हो जाएगा तेरा!" बोला
वो! बाबा के सर पर तो अब, मृत्यु रुपी चण्डिका नाच रही थी!
पीछे कैसे हट जाते! अपना त्रिशूल लिया, द्विगंड-वाहिनी का संधान किया! अट्ठास किया तभी उसने! हाथ आगे किया, बाबा का त्रिशूल, दहक उठा!
गरम हो उठा! हाथ से छूटा!
भूमि पर गिरा!
और पिघलता चला गया! सबसे बड़ी ढाल, खंडित हो गयी! अब न अलख ही बची!
और न त्रिशूल ही! नहीं घबराये! अपने गले में लटकी एक माला निकाली, जैसे ही निकाली, माला खंडित हुई! एक एक दाना राख बनता चला गया! गले में बंधी हर माला, दहकती हुई, अंगार बन, भूमि पर गिरती चली गयी! भुजबंध सब टूट गए! कलाई में बंधे, रक्षा-सूत्र सब भस्म होने लगे!
और फिर अट्टहास! महा-अट्टहास! हर दिशा से! अब बाबा के पास कुछ नहीं था! अब उन्होंने अपने अंत का इंतज़ार किया! यही किया जा सकता था! "जा! लौट जा! छोड़ देता हैं!" बोला ब्रह्म-राक्षस!
जीवन का उपहार दे दिया था उसने!
और फिर अट्टहास हुआ! और इस बार! एक नहीं, एक एक करके, पूरे चौंसठ ब्रह्म-राक्षस वहाँ प्रकट हो गए! अब बाबा की सिट्टी-पिट्टी हुई गुम! सर पर पॉव रख, जीवन को संभाल, भागते चले गए वहां से! सीधे सड़क पर! ठेकेदार वापिस आया था, बाबा को सकुशल देख शान्ति पड़ी, अब बाबा ने सबकुछ बता दिया उसे, कि यहाँ कुछ नहीं किया जा सकता, यहां एक नहीं, कई, चौंसठ ब्रह्म-राक्षस हैं! एक से ही पार नहीं पड़ती, चौसठ के लिए तो चौंसठ जन्म लेने पड़ेंगे! अब ये सुनकर ठेकेदार को तो, चौसठ बार गश आया! चौंसठ! वो ले आया बाबा को सभी के पास, बाबा ने सारी कहने दोहराई, अब उन भाइयों से सुनी, तो नीलामी की मुनादी कानों में गूंज उठी! फक्क पड़ गए चेहरे सभी के, मित्रगण!
चेले ठीक हुए, लेकिन आज तक बैसाखी ही लेकर चलते हैं, बाबा आज भी वहीं हैं, अब कभी ब्रह्म-राक्षस से नहीं टकराएंगे, ऐसा मैं मानता हूँ!
अब वे तीन,
वे तीन तो अब किसी बौराये हुए कुत्ते की तरह से हो चले थे, न बैठे चैन, न लेटे चैन, न सोते चैन, न खाते चैन, सूख चले थे बेचारे, ठेकेदार अपने ही मसाले में गोते लगा रहा था, किस मनहूस घड़ी में ये काम पकड़ा था, कम तो हुआ नहीं, जेब और फट गयी! माल वाले पैसे मांग रहे हैं, और अब यहां धेला नहीं! अब क्या करें? कहाँ डूब मरें? कहाँ जाएँ? किसको लाएं?
सबकुछ तो करके देख लिया! अब क्या हो? ठेकेदार अनिल कुमार का दिमाग चला थोड़ा, उसके एक जानकार थे, कभी काम किया था उनका उसने, सरकारी नौकरी में थे वे दिल्ली में, वे ऐसे लोगों के सम्पर्क में रहते थे! नाम था रोहताश जी, एक शाम वे लोग, रोहताश जी के पास चले
