तो ये देह किसकी हुई?
कौन है इस देह का असली मालिक?
वो?
नहीं!
कदापि नहीं!
उसने तो दे दिया तेरे मांस के पिंड में जीवन!
वो ज्योति!
दे दी उसने!
अब तू जाने और तेरे कर्म!
ना!
ना!
वो रोकेगा नहीं!
कभी नहीं रोकेगा!
समझायेगा भी नहीं!
तेरी उंगलियां पकड़ कर,
चलवायेगा भी नहीं!
तू जो मर्जी कर!
जैसा चाहे वैसा कर!
भुगतना तो तुझे ही है!
कोई किसी का पाप वहन नहीं करता!
कोई भी नहीं!
ना माँ!
ना बाप!
ना ही तेरे भाई-बहन!
ना कोई मित्र,
और ना ही तेरी भार्या!
जो मर्जी कर!
छोटी सी बात है!
जैसे कर्म,
वैसे फल!
बस!
यही है मूल सत्य!
एक मात्र सत्य!
जो अटल है!
वेताल उड़ रहा था!
कभी वृक्ष पर!
कभी आकाश में!
एकदम सीधा होकर!
कोई देख ले,
तो यक़ीनन दहशत से ही मर जाए!
कभी सर नीचे और,
पाँव ऊपर,
और कभी सर ऊपर,
और पाँव नीचे!
अट्ठहास करता!
हिला देता था हम सबको!
असान-मसान सब भाग चुके थे!
नहीं तो आज अंत हो जाता उनकी इस योनि का!
शमशान हिला रखा था उसने!
ऐसा अट्ठहास था उसका!
जैसे कान के पास ही सिंह दहाड़ा हो!
फिर वो नीचे कूदा!
और सम्मुख हुआ बाबा के!
और फिर से बाजुएँ बांधीं उसने!
और फिर से अपने भीषण स्वर में,
प्रश्न पूछा!
प्रश्न– तमिस्र और प्रमान किस प्रकार एक दूसरे के पूरक है? हैं भी या नहीं? हैं तो कैसे? और नहीं तो कैसे नहीं?
बड़ा ही जटिल प्रश्न था!
बड़ा ही जटिल!
जैसे दूध में मिले पानी की कुल मात्र बतानी हो!
ऐसा जटिल!
अब कोई कुशल ही बताये इसका उत्तर!
तमिस्र अर्थात तिमिर!
अर्थात अँधेरा!
प्रमान अर्थात प्रकाश,
अर्थात दिन का प्रकाश अथव दिन!
स्मरण रहे,
तमिस्र है ये,
यामिनी नहीं!
रात्रि नहीं!
केवल अन्धकार!
और प्रमान!
कोई कैसे बताये!
अत्यंत जटिल प्रश्न था ये!
और उत्तर भी उतना ही जटिल!
वेताल-चौघड़िया में फंस के रह गये हम!
बाबा ने सोचा!
और फिर विचार किया!
और फिर प्रश्न दोहराया!
पूरक!
कैसे हैं?
ये बताना था!
नहीं हैं?
तो भी बताना था!
उहापोह का प्रश्न था!
और फिर बाबा बोले!
उत्तर- हे कौशान! हे वेताल! हम अल्पबुद्धि जीव हैं! जो कुछ सीखते हैं यहीं सीखते हैं! यहीं, इस संसार में हम अंश अंश इकठ्ठा कर अपना ज्ञान बढ़ाते हैं! अब आपका प्रश्न! बताता हूँ उत्तर! जब इस ब्रह्माण्ड में सृष्टि की रचना हुई, उस समय इसी तमिस्र का शासन था, इसी की सत्ता थी! फिर इसका सीना बींधा गया! और प्रमान को इसके बीच स्थापित किया गया! आपके प्रश्न के अनुसार, ये तमिस्र ही जनक है, इसकी सत्ता आज भी वैसी की वैसी ही है! और प्रमान ज्ञान है! जितना प्रमान अर्जित किया जाता है और उस राह पर चला जाता है तो ये तमिस्र आपका स्वागत करती है! चक्षु खुल जाते हैं! ज्ञान-वर्षा आरम्भ हो जाती है! बिना कड़वे का स्वाद चखे मीठे का स्वाद पारिभाषित नहीं किया जा सकता! ये तमिस्र ही है जिसमे पर्याप्त मात्र में ये प्रमान विद्यमान है! हम मौजों को चाहिए कि इस प्रमान को एकत्रित किया जाए! ताकि तमिस्र हमारा मार्ग प्रशस्त करे! इसी प्रकार से ये तमिस्र और प्रमान एक दूसरे के पूरक हैं!
वेताल प्रसन्न!
किसी नटखट खरगोश सा!
वो उड़ चला!
और एक शाख पर बैठ गया!
फिर लटक गया!
फिर खड़ा हो गया!
फिर अट्ठहास लगाया!
पेड़ हिला!
पत्ते गिरे!
और फिर से अट्ठहास!
पेड़ के पत्तों से गिरी मिट्टी,
हमारे सर पर गिरने लगती!
वेताल फिर से कूदा नीचे!
नृत्य सा किया!
और फिर से आ गया,
बाबा के सम्मुख!
और गरदन नीचे की उसने!
पास,
और पास,
जैसे गंध ली हो बाबा की,
और फिर झटके के साथ,
खड़ा हो गया वो!
और फिर से प्रश्न किया!
प्रश्न– इस धरा पर कालकूट क्या और अमी क्या?
फिर से जटिल प्रश्न!
कालकूट!
अमी!
दोनों ही भिन्न भिन्न!
और वैसे भी!
कालकूट तो हम पी रहे थे!
और अमी की तलाश में थे!
लेकिन ये प्रश्न ही जटिल था!
कोई उत्तर इतना सरल नहीं था!
वैसे,
अबब ने अभी तक सभी प्रश्न,
त्वरित रूप से सुने थे,
और उनका उत्तर दिया था!
मुझे पूर्ण आशा थी कि इसका भी उत्तर,
वे सटीक रूप से देंगे!
वेताल ने अट्ठहास लगाया!
और बाबा ने प्रश्न दोहराया!
फिर विचार किया!
और फिर से प्रश्न दोहराया!
कालकूट क्या!
और अमी क्या!
बाबा ने फिर से एक बार और प्रश्न दोहराया!
और फिर से विचार किया!
अब मैं समझ गया!
कि गड़बड़ है कोई!
हाँ!
कोई गड़बड़!
बाबा को उत्तर नहीं सूझ रहा था!
शायद यही वजह थी!
यही वजह!
मैं चिंतित हुआ!
और मेरे साथ खड़े वे सभी औघड़ भी!
एक दूसरे को देखने लगे हम!
और इतने में,
वेताल ने प्रश्न एक बार,
फिर से दोहरा दिया!
अब बाबा आगे बढ़े!
और बोले!
उत्तर– हे कौशान! हे वेताल मुझे विलम्ब हुआ! क्षमा चाहूंगा! इस धरा पर सबसे बड़ा कालकूट है दम्भ! ये सब को लील लेता है! सबका भक्षण कर लेता है! और अपने उद्देश्य में पूर्ण हो जाता है! अमी! इस धरा पर सबसे बड़ा यदि कुछ है, यदि वो अमी है तो मात्र दया!
दया से बड़ा अमी और कोई नहीं! ये है इसका उत्तर के वेताल!
ये सुना वेताल ने!
और उड़ चला!
प्रसन्न!
बहुत प्रसन्न!
अट्ठहास!
लगातार अट्ठहास!
पेट पर हाथ मारकर अट्ठहास करे!
उत्तर सही था!
वेताल बना हुआ था हमारे साथ!
वाह बाबा वाह!
मैं तो धन्य हो गया!
कोई पुण्य था मेरा,
जो मैं यहाँ आया!
बाबा आपको नमन!
कितना सही और किता,
सटीक उत्तर!
और फिर से अट्ठहास!
कौशान हंस रहा था!
प्रसन्न था!
जैसे कोई बालक प्रसन्न होता है,
ऐसा व्यवहार कर रहा था!
शायद उसे स्व्यं नहीं पता था,
कि वो कौशान है!
कौशान!
बेतालों का वेताल!
महा-वेताल!
इस समय तो,
वो ऐसा था कि कोई बालक भी जाकर,
उस हंसी-ठिठोली कर लेता!
मित्रगण!
बालक!
हाँ,
मैं बताता हूँ आपको!
वेताल!
आप जानते हैं कि मैं अतृप्त से बहुत प्रेम करता हूँ!
बहुत प्रेम!
अतृप्त ने देखा है वेताल!
वार्तालाप भी हुआ है अतृप्त का!
आप पूछ सकते हैं अतृप्त से!
हां,
वो कौशान वेताल,
हँसे जा रहा था!
झूमे जा रहा था!
प्रसन्नता के मारे,
अजीब अजीब से,
स्वर निकाले जा रहा था!
हँसता!
चिंकार मारता!
और झूम उठता!
बाबा खेड़ंग से प्रसन्न था वो!
उनकी योगयता से प्रसन्न था वो!
और सबसे अधिक प्रसन्न मैं!
सबसे अधिक!
वो उड़ा!
और लोप हुआ!
अट्ठहास हुआ!
और फिर प्रकट हुआ!
फिर से बाबा के समक्ष प्रकट हुआ!
और फिर,
वैसे ही,
शाख पर जा लटका!
उसके केश भूमि पर ही थे!
फिर वो कूदा!
और बाबा के सम्मुख हुआ!
“साधक! एक अंतिम प्रश्न!” वो बोला,
“हाँ हे कौशान वेताल! अवश्य! अवश्य हे वेताल!” बाबा ने कहा,
“साधक! निलय! इस संसार में सबसे अधिक महत्वपूर्ण है! है या नहीं? है तो कैसे? और नहीं तो क्यों?” पूछा वेताल ने!
और पूछते ही,
बाजुएँ मोड़ खड़ा हो गया!
निलय!
अर्थात आवास!
घर!
क्या प्रश्न पूछा था उसने!
ये निलय,
आवास,
किसका?
ईंटों से बना घर नहीं!
मिट्टी से बना भी नहीं!
आत्मा का घर!
वो निलय!
ये था आशय उस वेताल का!
कि महत्वपूर्ण है कि नहीं!
है तो कैसे!
नहीं तो क्यों!
राय मांगी थी उसने!
और अब सब,
इसी राय पर निर्भर था!
कि आरूढ़-कुंजी मिलेगी,
अथवा नहीं!
बाबा ने विचार किया!
सोचा!
और फिर अनुभव की किताब के,
पन्ने पलटे!
ऊँगली फिराई!
अगला पन्ना!
और अगला पन्ना!
और फिर रुक गयी ऊँगली!
बाबा ने देखा वेताल को!
वेताल मुस्कुराते हुए देख रहा था!
बाबा ने फिर उत्तर दिया!
उत्तर– “हे कौशान! हे वेताल! हमारा अहोभाग्य कि हम आपसे संपर्क में आये! आपने जो प्रश्न किया है, वो ही अपने आप में अत्यंत महत्वपूर्ण है! ये हमारा शरीर, निलय है! उस ज्योति का जिसे रचा है रचियता ने! परन्तु! इस निलय के गुण-धर्म अलग है, और ज्योति के अलग! यही
कारण है, कि इस निलय के बहकावे में आकर हम अपनी ज्योति को मद्धम कर लिया करते हैं! उसमे कलुषिता का आवरण चढ़ा दिया करते हैं! दुष्कर्म कर इस पावन निलय को दूषित कर दिया करते हैं! पावन! हाँ, पावन! यही कहा मैंने! हम मनुज, दरअसल इस पावन शब्द का मान ही नहीं जानते! हम तो इंद्रियों के दास हैं!
इसीमे, समस्त जीवन काट देते हैं! भोजन करते हैं, इस निलय के लिए, परन्तु, उस ज्योति को ईंधन नहीं देते! समय ही नहीं होता! हे वेताल! फलस्वरूप, निलय क्षीण हो जाया करती है, ये पंचतत्व का अकाट्य नियम है! परन्तु, जो विरला, इस निलय और उस ज्योति में तारतम्य बिठा कर चलता है, वो आरूढता को प्राप्त होता है! इसी कारण से ये निलय कुंजी है! आरूढता की! इसके लिए किसी सिद्धि, किसी तंत्र-मंत्र की आवश्यकता ही नहीं! कोई भी ऐसा करने में समर्थ है! अपनी ज्योति को हम कभी महत्त्व नहीं देते! और इसी कारण से हम दुःख के प्रिय हो जाया करते हैं! जो विरला ये जानता है, वो इस दुःख से सदैव दूर रहता है! ये है इसका उत्तर हे कौशान! हे वेताल!”
वाह!
वाह!
बाबा खेड़ंग वाह!
धन्य!
मैं धन्य हुआ!
आपके चरणों में मेरा मस्तक!
बाबा!
क्या परिभाषा दी है आपने!
सत्य!
अकाट्य सत्य!
वेताल उड़ चला!
अट्ठहास!
भीषण अट्ठहास!
उछल-कूद करे!
पाँव पटके!
अट्ठहास करे,
तो उसका उदर हिले!
और हिलें हम भी!
तभी अट्ठहास हुआ!
और वो बाबा के समक्ष हुआ!
अपने शरीर में!
करीब पंद्रह फीट!
और उसने हम सभी को देखा!
और फिर से छोटा हुआ!
और सम्मुख हुआ बाबा के!
“साधक! वचन माँगा था न! मैं प्रसन्न हुआ! बहुत प्रसन्न! अत्यंत प्रसन्न! जाओ, कल्याण हो! आरूढता को प्राप्त हो जाओ आप!” उसने कहा और बाबा के सर पर हाथ रखा!
और हमारी तरफ हाथ किया!
जल के छींटे से छलक पड़े!
एक मेरी आँख में पड़ा!
आशीर्वाद प्राप्त हुआ!
और हम सभी भूमि पर लेट गए!
और फिर प्रकाश!
अलौकिक प्रकाश!
और फिर से अन्धकार!
सब ख़तम!
वेताल चला गया था!
हम सफल रहे थे!
मैं भागा!
और बाबा के चरणों में लेट गया!
पकड़ लिए चरण!
बाबा झुके,
और मुझे उठाया!
और गले से लगा लिया!
और सर पर हाथ लगाया!
मैं धन्य हुआ!
मित्रगण!
हमने जो चाहा,
वो प्राप्त हुआ!
मैंने उसके बाद कई सिद्धियाँ कीं,
और सफल रहा!
वेताल का वचन था,
सिद्ध होना ही था!
खैर,
हम चले वहाँ से,
और मैं गया सीधा उन दोनों के पास!
वे तो सो गयीं थीं!