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वर्ष २०१० काशी के पास की एक घटना

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श्रीशः उपदंडक
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और उत्तर दिया– हे कौशान वेताल! त्रिदिव! यूँ तो ये त्रिदिव इस रत्नगर्भा में इसके प्रत्येक सैकत में है! पर आपके प्रश्न के आशय में मैं यही कहूंगा कि ये त्रिदिव नगेश ही है इस सम्पूर्ण रत्नगर्भा में!

वेताल ने अट्ठहास लगाया!

उड़ चला!

पेड़ की उड़ते हुए परिक्रमा कर डाली!

प्रकाश बिखेरता हुआ!

कभी इस डाल,

कभी उस डाल!

कभी खड़ा होता,

कभी लटक जाता!

और अट्ठहास!

भयानक अट्ठहास!

हम,

एकटक देखें उसे,

उसकी क्रीड़ा को!

कभी कुछ,

और कभी कुछ!

कभी नीचे,

और कभी उड़कर ओझल हो!

वो बना हुआ था!

अर्थात उत्तर सही था!

मैं तो बाबा से बहुत प्रभावित हुआ!


   
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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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सही और सटीक उत्तर था उनका!

सच में!

ये त्रिदिव,

नगेश है इस रत्नगर्भा में!

कोई संदेह नहीं!

अकाट्य सत्य!

और फिर से कूदा नीचे वेताल!

सर को झटका देते हुए!

और फिर से प्रश्न!

प्रश्न– सबसे बड़ा दुर्गुण, ये अमर्ष ही है न? है या नहीं? यदि है तो क्यों? और यदि नहीं, तो क्यों?

अरे!

ये क्या!

कैसा प्रश्न!

अमर्ष!

दुर्गुण!

हाँ!

सबसे बड़ा दुर्गुण है अमर्ष!

अट्ठहास!

भीषण अट्ठहास!

प्रबल अट्ठहास!

बाबा ने प्रश्न दोहराया!


   
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श्रीशः उपदंडक
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सोचा!

विचारा!

अपने व्यक्तिगत अनुभव टटोले!

खोला पिटारा!

और उत्तर दिया– हे कौशान! हे वेताल! सत्य कहा आपने! सबसे बड़ा दुर्गुण ये अमर्ष ही है! इस से बड़ा कोई दुर्गुण नहीं! इस अमर्ष को गीला भी नहीं किया जा सकता! सुखाया भी नहीं जा सकता! छोड़ा भी नहीं जा सकता! और त्यागा भी नहीं जा सकता! बस नियंत्रित किया जा सकता है! मातृभूमि की रक्षा हेतु ये अमर्ष ही सबसे बड़ा मित्र होता है! तभी रक्षा सम्भव है! तब ये गुण हो जाता है! परन्तु! ये अमर्ष सबसे बड़ा दुर्गुण है! क्योंकि हम मनुजों के नदीश में कई नदिया, विभिन्न विभिन्न प्रकार के भाव लाया करती हैं! अमर्ष भी ऐसी ही एक नदी में बहता है! और फिर नदीश में समा जाता है! परन्तु मात्र यही अमर्ष है, जो मनुजों के इस मन रुपी पारावार को भी कलुषित कर सकता है, प्रदूषित कर सकता है! अपनी सत्ता स्थापित कर सकता है! अन्य कोई भाव इसके समक्ष उठता ही नहीं! मात्र यही! यही है वो अमर्ष हे वेताल कौशान!

वेताल ने सुना!

चुप रहा!

और फिर अट्ठहास किया!

भीषण अट्ठहास!

पाँव पटके उसने!

इतना प्रसन्न!

और हम भी प्रसन्न!

वेताल को उसके प्रश्नों के उत्तर,

मिलते जा रहे थे!

त्वरित!

त्वरित रूप से!


   
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श्रीशः उपदंडक
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मैं भी प्रसन्न था!

 

वेताल प्रसन्न था!

तभी बना हुआ था!

नहीं तो अब तक वो चला गया होता!

और हम भूमि पर गिरे होते!

वो पेड़ के भवरें काट रहा था!

पाँव उछालता था!

अपने पेट पर हाथ मारकर!

अट्ठहास करता था!

बाबा और हम,

सभी उसके किस क्रिया-कलाप को,

साँसें थामे देख रहे थे!

फिर एक झटके से सामने कूदा वो!

और बाबा के सामने आ खड़ा हुआ!

बाबा को देखा,

और फिर से प्रश्न किया!

प्रश्न- उदक और आसव! क्या अंतर है इनमे? कोई अंतर है तो क्या? और नहीं तो कैसे?

फिर से वैसा ही प्रश्न!

बस लेशमात्र का अंतर!

और देखो तो बहुत दीर्घ अंतर!

बहुतिक रूप से एक,


   
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श्रीशः उपदंडक
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परन्तु,

गुण में सर्वथा भिन्न!

क्या प्रश्न किया था वेताल ने!

प्रश्न और तीक्ष्ण से हो चले थे!

बाबा ने प्रश्न दोहराया!

कुछ सोचा!

अपनी अनुभव की किताब से,

कुछ पन्ने पलटे!

ऊँगली फिराई,

और एक जगह रुक गए!

एक थाप दी वहीँ,

उसी विषय पर,

थाप,

अपनी ऊँगली की गाँठ से!

और फिर वेताल को देखा,

जैसे वो किताब,

उन्होंने पीछे कर ली हो अपने,

दोनों हाथ ले जाकर!

और फिर उत्तर दिया!

उत्तर– हे कौशान! हे वेताल! उदक और आसव! भौतिक रूप से एक ही हैं! परन्तु इनका ध्येय पृथक पृथक है! उदक हम मनुजों का जीवन-द्रव्य है! इसके बिना कोई मनुज तो क्या कोई प्राणी जीवित नहीं रह सकता! ये उदक जीवन दायक है! समस्त संसार में यही द्रव्य है जिसके कारण ये सृष्टि रुकी हुई है! हमारे शरीर में उसका बहुत बड़ा अंश है! ये जीवन-दायक है! इसमें


   
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श्रीशः उपदंडक
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विभिन्न प्रकार के जीव-जंतु अपना जीवन यापन करते हैं! ये प्राण-दायक है उनके लिए! इसलिए ये अमृत है इस धरा पर! अब आसव! आसव से प्यास नहीं बुझती! मद चढ़ता है! आसव से इस मार्ग में, हमारे मार्ग में ध्यान केंद्रित होता है! भय नहीं रहता! और हम अपने मार्ग पर प्रशस्त हो जाया करते हैं! ‘उसको’ मेरे भोजन, मेरे वस्त्र, मेरे शरीर, मेरे गीत-गान, मेरे भोग आदि से कुछ नहीं लेना! ‘उसे’ तो मेरे करण से लेना है जो लेना ही! क्योंकि, ये पंचतत्व यहीं रह जायेंगे! ये इस धरा के हैं, उसके नहीं, उसकी तो ज्योति है, बस वही आगे जायेगी! इसी कारण से हम आसव का सेवन करते हैं! ताकि खेट से बचे रहें! आसव आवश्यक है मेरे मार्ग के लिए, परन्तु सभी के लिए नहीं, सभी के लिए उदक आवश्यक है हे! कौशान वेताल! ये है मूल अंतर!

वाह!

वाह!

वाह बाबा वाह!

प्रशंसनीय!

बहुत प्रशंसनीय!

यही है मूल अंतर!

यही ही!

और कोई समझता भी नहीं!

उसको मेरे करण से लेना है सबकुछ!

मेरे वस्त्र, गीत-गान, शरीर, स्नान, व्रत, भोग, चोला, श्रृंगार!

इनसे कुछ नहीं लेना!

ये ही सत्य है!

यही है,

एक मूल सत्य!

जो कोई नहीं जानता!

या जानना नहीं चाहता!


   
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श्रीशः उपदंडक
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मूढ़ लोग!

हाँ मूढ़ लोग!

जाया करते हैं,

और फिर प्राकृतिक आपदा के शिकार हो जाया करते हैं!

तब कहाँ होता है ये??

ये मतलब वो!

वो!

वही,

वही रचयिता!

घर में बैठी चिड़िया को अन्न दे नहीं सकते,

घर में रेंग रही चींटी को अन्न का एक दाना दे नहीं सकते,

बाहर भूखे श्वानों को भोजन दे नहीं सकते!

हाँ!

भंडारा कराते हैं!

भूखों का पेट भरते हैं!

भूखे!

कौन भूखे?

जो खा रहे हैं?

या जो खिला रहे हैं?

कौन?

अरे मूढ़ बुद्धि!

उसने हाथ दिए हैं मनुष्य को,


   
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श्रीशः उपदंडक
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कमाने को!

श्रम करने को!

बुद्धि दी है,

विवेक दिया है!

किसलिए?

क्योंकि हम कर्म-योनि में हैं!

तो भूखा कौन?

भूखे वो!

जो इस कर्म-योनि में नहीं हैं!

पक्षी!

पशु!

कीड़े-मकौड़े!

आदि आदि!

इनको खिलाओ!

इनका पेट भरो!

ये अपनी मूक ज़ुबान से आपकी गवाही देंगे!

मानुष का क्या,

खाया,

पिया,

और भूल गया!

हाँ, विवश, बीमार, लाचार आदि को खिलाओ!

वस्त्र दो,


   
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श्रीशः उपदंडक
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इलाज करवाओ!

और ये!

ये सम्भव नहीं!

क्यों?

क्योंकि,

यात्रा पर जाना है!

डुबकी लगानी है!

छात्र चढ़ाना है!

वस्त्र चढाने हैं!

श्रृंगार देना है!

अब पैसा तो लगेगा न!

इसीलिए नहीं!

वाह रे वाह!

कैसा है तेरा विवेक!

कैसा है तेरा ज्ञान!

खैर!

ये लम्बा विषय है!

और कुछ मित्र असहमत भी होंगे!

मैं क्षमा चाहता हूँ उन मित्रों से!

ये औघड़-मत है,

लिख दिया बस!

किसी मित्र को बुरा लगा हो,


   
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श्रीशः उपदंडक
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तो क्षमा चाहता हूँ!

क्षमा करें!

हाँ!

वेताल प्रसन्न था!

वो पेड़!

ऐसे हिलता था,

जैसे,

बातें सुन रहा हो हमारी!

वो सेमल का पेड़ अब तो!

सिंहासन था!

उस भीषण कौशान वेताल का!

 

वेताल प्रसन्न था!

उसके प्रश्न बहुत गूढ़ थे!

और उत्तर तो और भी गूढ़!

सब जैसे दर्शन-शास्त्र का हिस्सा लग रहे थे!

परन्तु,

ये ही सत्य है!

सत्य को ढांपा नहीं जा सकता!

रंगा नहीं जा सकता!

छिपाया नहीं जा सकता!

जिस प्रकार!


   
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श्रीशः उपदंडक
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एक नन्हा सा बीज,

अपनी सुकोमल देह के संग,

भूमि को फाड़ कर अंकुरित हो जाता है,

वैसे ही ये सत्य है!

सत्य को आप किसी भी वस्तु या मिथ्या-लौह से ढक दीजिये,

सत्य का अंकुर उसको फाड़कर आ ही जाएगा बाहर!

हाँ,

समय लग सकता है!

पर,

आएगा अवश्य ही!

मिथ्या में रहना!

स्वपन में रहना!

कल्पनाओं में विचरण करना!

असम्भव की आकांक्षा करना,

लोभ में डूबे रहना,

काम में लिप रहना,

सच को झूठ,

और झूठ को सत्य सिद्ध करने में,

हम मनुष्यों का कोई सानी नहीं!

कोई भी!

न इस लोक में,

और न कोई उस लोक में!


   
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श्रीशः उपदंडक
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अपने लक्ष्य के लिए तो हम,

अपने पिता से,

माता से,

भाई से,

बहन से,

भार्या से,

मित्र से,

सभी से विवाद कर लें!

और नहीं तो भला-बुरा भी कह दें!

और तो और,

हाथापाई भी कर दें!

क्या फ़र्क़ पड़ता है!

बस लक्ष्य सिद्ध होना चाहिए!

बाद में चाहे कुछ भी हो!

कुछ भी!

और जब होगा,

तो पश्चाताप भी नहीं करेंगे!

चूंकि, बताया न,

हम जैसा इस संसार में कोई है ही नहीं!

धन के लिए,

सारे रिश्ते-नाते हम फीके कर देते हैं!

काम के लिए,


   
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श्रीशः उपदंडक
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सभी मर्यादाएं तोड़ डालते हैं!

जानते सब हैं!

अंतरात्मा की बात नहीं मानते बस!

कैसे मानें!

कैसे!!

अरे!

तेरे हाथ में आया लड्डू मेरे लड्डू से बड़ा क्यों है?

एक पिता ने,

पूरा जीवन लगाकर,

श्रम कर,

अपने परिवार के ऊपर छत दे दी!

और हम,

उसके पुत्रों ने,

वही छत विभक्त कर दी!

बिकवा भी सकते हैं!

चूंकि हम में अपने माता पिता से,

बुद्धि अधिक है!

हम आधुनिक हैं न!

अब वो क्या जानें!

क्या जानें!

पुरानी पीढ़ी!

पुराने विचार!


   
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श्रीशः उपदंडक
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परिवर्तन!

अरे हम लायेंगे परिवर्तन!

अब चाहे घर बीके,

चाहे,

खेत!

क्या फ़र्क़ पड़ता है!

हमारे शौक़ न ख़त्म हों बस!

कमी न पड़े कोई भी!

चाहे भार्या रोती रहे!

चाहे बालक रो रो के सो जाएँ!

कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता!

अपनी अपनी क़िस्मत!

बस!

इसीलिए!

अब बताइये!

है कोई हम जैसा?

है कोई ऐसा?

कि जिस थाली में खाये,

उसी में छेद करे?

जो सहारा दे,

उसको लालची कहें?

है कोई?


   
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श्रीशः उपदंडक
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मुझे तो नहीं मिला अभी तक!

आज तक नहीं!

अरे!

मानस देह है!

मानस के विचार!

आसपास देखो!

क्या हो रहा है!

क्षण प्रतिक्षण,

अवसान हो रहा है!

दिवस जा रहे हैं,

रातें बीत रही हैं!

हम,

मृत्यु के समीप जा रहे हैं!

तो काहे का लोभ?

काहे का झगड़ा?

काहे की भूमि?

काहे की आकांक्षा?

कैसे तृष्णा?

कैसा मोह?

किसलिए?

जब पैदा होते हैं तो माँ से जुड़े रहते हैं हम!

काट कर अलग किया जाता है!


   
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