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वर्ष २०१० काशी के पास की एक घटना

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श्रीशः उपदंडक
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लेकिन कौशान नहीं!

ये विशेष है!

इसके पास सामर्थ्य है!

एक बार आशीर्वाद प्राप्त हो जाए तो फिर कोई बाधा नहीं आएगी!

आप सीढ़ियां,

चढ़ते चले जाओगे!

एक एक करके!

आरूढता को प्राप्त हो जाओगे!

बस!

यही प्रयोजन था मेरा यहाँ आने का!

अट्ठहास!

उसने अट्ठहास किया!

वो समझ गया!

परन्तु!

वो योग्य को ही देगा वो अभय-कृपा!

इसीलिए प्रश्न करता है!

प्रश्न ऐसे,

कि समझ ही न आयें!

एक उत्तर गलत,

तो कौशान कभी नहीं आएगा!

चाहे कितना ही आह्वान करो!

अट्ठहास!


   
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श्रीशः उपदंडक
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प्रबल अट्ठहास!

और हुआ प्रश्न काल आरम्भ!

ये था सबसे कठिन समय!

इसमें चूके तो तो समझो सब ख़तम!

अब आपको कुछ प्रश्न बताता हूँ!

प्रश्न- ऐसा कौन है जो सदैव दतचित्त रहता है?

बाबा ने सोचा!

और उत्तर दिया — व्यालधर!

अट्ठहास!

प्रबल अट्ठहास!

भयानक अट्ठहास!

उत्तर सही था!

तभी अट्ठहास किया था उसने!

और अभी भी वहीँ था!

प्रश्न- उपहत्नुमुग्रः शांत कैसे होते हैं?

बाबा ने सोचा!

और उत्तर दिया– त्रिपथगा सलिल से!

अट्ठहास!

ज़ोरदार अट्ठहास!

उत्तर सही था!

वो बना हुआ था,

अभी तक!


   
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श्रीशः उपदंडक
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प्रश्न- द्विप और शार्दुल! उच्च कौन?

ये बड़ा गम्भीर और विस्तृत प्रश्न था!

उत्तर भी ऐसा ही!

द्विप मायने हाथी!

और शार्दुल मायने सिंह!

परन्तु,

ये तो संकेत मात्र हैं यहाँ!

मित्रगण!

अब आप समझ सकते हैं कि,

क्या आशय है मेरा!

और क्या आशय है इस प्रश्न का!

बाबा ने सोचा!

और उत्तर दिया- शार्दुल!

अट्ठहास!

प्रबल अट्ठहास!

वो प्रसन्न मुद्रा में था!

प्रश्न- कुहुकिनी और शफरी! उच्च कौन?

फिर से प्रतीकात्मक प्रश्न!

क्लिष्ट प्रश्न!

और उत्तर भी ऐसा ही!

बहुत गूढ़ था ये प्रश्न!

अत्यंत गूढ़!


   
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श्रीशः उपदंडक
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नहीं समझ आ सकता था!

साधारण को तो नहीं!

बाबा ने सोचा!

विचारा!

और उत्तर दिया– शफरी!

फिर से अट्ठहास!

प्रबल अटटहास!

वो अट्ठहास करता!

और हम दरकते!

चटकने लग जाते!

कहीं उत्तर गलत तो नहीं हुआ?

कहीं कोई,

चूक तो नहीं हुई?

ऐसा न ही हो!

बस,

यही सोचें हम सब!

प्रश्न- विटप और उदधि!! उच्च कौन?

बहुत भयानक प्रश्न!

गूढ़!

मकड़-जाल!

और उत्तर भी,

ऐसा ही!


   
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श्रीशः उपदंडक
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अत्यंत गूढ़!

प्रतीकात्मक शब्द!

बाबा ने फिर से विचारा!

और उत्तर दिया- विपट!

अट्ठहास!

और अट्ठहास!

झूम गया वो!

प्रसन्न था!

बहुत प्रसन्न!

और हम सन्न!

सभी सन्न!

 

वो निरंतर अंतराल पर अट्ठहास कर रहा था!

प्रसन्न दिख रहा था!

झूम जाता था,

पाँव के आसपास का वो सफेद धुआं,

जैसे लिपटने को पड़ता था उस से!

हम एकटक ज़मीन में गड़े खम्बे से,

देखे जा रहे थे उसको,

और उसके हाव-भाव को!

दृश्य अलौकिक था,

और ऐसा दृश्य कभी कभार ही देखने को,


   
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श्रीशः उपदंडक
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नसीब हुआ करता है!

तो हम सभी उस दृश्य के प्रत्येक अंश को,

भसकते जा रहे थे अपने अन्तःकरण में,

बाबा खेड़ंग डटे हुए थे!

और ये बड़े ही फ़क्र की बात थी!

बाबा ने हमारे ऊपर भी एहसान ही कर दिया था!

मैं बाबा मलंग का भी एहसानमंद हो गया था!

अट्ठहास!

प्रबल अट्ठहास!

और फिर से प्रश्न!

प्रश्न- क्या वामांगिनी और रमणी में कोई अंतर है? यदि है तो मूल अंतर क्या है?

बड़ा ही सूक्ष्म प्रश्न था ये!

और उतना ही सूक्ष्म उसका उत्तर!

यूँ कहो,

कि रोम और केश में अंतर पूछा गया था!

वेताल के प्रश्न बहुत ही गूढ़ और प्रतीकात्मक थे!

कुछ सांकेतिक भी!

उनको समझना, सब के बस की बात नहीं थी!

परन्तु!

बाबा खेड़ंग उनका सही और सटीक उत्तर दिए जा रहे थे!

बाबा ने विचार किया,

कुछ सोचा!


   
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श्रीशः उपदंडक
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और बोले — वामांगिनी और रमणी में अंतर है हे कौशान वेताल! और मूल अंतर है अक्षि का! मात्र अक्षि का! वामांगिनी और रमणी दोनों ही यामामोद प्रदायक हैं, परन्तु वामांगिनी से धर्म जुड़ा है वेताल!

अट्ठहास!

भीषण अट्ठहास!

वो प्रसन्न था!

अर्थात उत्तर सटीक था!

अंतर मात्र अक्षि का ही है!

हाँ,

ये सही है!

एकदम सही!

मैं भी बाबा से प्रभावित हो चुका था अबतक!

कितने गूढ़ प्रश्न थे!

और कितने ही गूढ़ उनके उत्तर!

शब्द-चयन कौशान का भ्रामक था!

भ्रामक!

विभिन्न अर्थों वाला!

परन्तु, लक्ष्य!

लक्ष्य सटीक!

एकदम सटीक!

वो उड़ा!

वृक्ष का एक चक्कर लगाया!

और फिर से वापिस आ गया!


   
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श्रीशः उपदंडक
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और फिर से दूसरा प्रश्न!

प्रश्न– काम-पुहुप और कुसुमासव-पुहुप क्या एक ही हैं? हैं तो कैसे? नहीं तो कैसे?

ये प्रश्न पूछ,

वो हंसा!

अट्ठहास!

भयानक अट्ठहास!

प्रश्न फिर से गूढ़ था!

मात्र केश बराबर ही अंतर था!

बस समझ की बात थी!

और एक सबल मस्तिष्क की योग्यता की!

मैं प्रश्न समझ, बहुत चकित था!

ऐसा दुर्लभ प्रश्न!

ऐसा सूक्ष्म-ज्ञान!

जैसे मैं सदियों पुराने अपने देश में आ गया था!

जब ऐसे ही प्रश्न पूछा जाया करते थे!

ऐसे ही उत्तर!

ये अध्यात्म का विषय था!

और अध्यात्म में भारत का कोई सानी नहीं!

बाबा ने विचार किया,

फिर प्रश्न दोहराया,

और फिर उत्तर दिया- हे कौशान! हाँ दोनों में ही निदाघ हैं अपनी अपनी प्रकृति में! दोनों मूलरूप से समान हैं! परन्तु बहुत दीर्घ अंतर है! कोई विरला ही समझे! बताता हूँ मैं! काम-पुहुप सारंगरहित है और कुसुमासव सारंगसहित! ये है इसका उत्तर!


   
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श्रीशः उपदंडक
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क्या सटीक उत्तर था!

वाह!

वाह!

सच में!

सच में मैं धन्य हो गया!

ये क्रिया पूर्ण हो जाए,

तो बाबा खेड़ंग के चरणों की धूल सजाऊंगा अपने माथे पर!

एक सारंगरहित है!

और एक सारंगसहित!

वाह बाबा वाह!

वेताल ने अट्ठहास लगाया!

उड़ा!

पेड़ पर लटका!

पेड़ भी हिला!

कूदा!

कभी इस शाख!

और कभी उस शाख!

पत्ते गिरने लगते!

और पेड़ ऐसे हिलता जैसे,

आंधी ने हिलाया हो!

पर आंधी तो अभी थी ही!

हमारे सामने!


   
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श्रीशः उपदंडक
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वेताल-प्रश्नों की आंधी!

ऐसी आंधी,

कि कोई भी उड़ जाए उसमे!

वो फिर से छलांग लगा कर,

नीचे कूदा!

बाबा के सामने!

और हलकी सी हंसी हंसा!

और फिर से एक और प्रश्न!

प्रश्न- याम और यामा! रत्नवति पर महत्त्व क्या??

हे मेरे भ*****!

ये कैसा प्रश्न?

पूरा ग्रन्थ लिखा जा सकता है इस पर तो?

ये कैसा प्रश्न?

कैसे देंगे इसका पारिभाषित उत्तर?

ये बाबा! बाबा खेड़ंग?

कैसे?

याम और यामा!

ओह!

ये तो पृथक होते हुए भी पृथक नहीं!

फिर कैसा उत्तर?

दोनों का ही महत्त्व है!

दोनों का ही!


   
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श्रीशः उपदंडक
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इस रत्नवति पर!

सभी के लिए!

सभी के लिए!

हर प्राणी के लिए!

सृष्टि के लिए!

एक दूसरे के पूरक हैं ये!

अब उत्तर कैसे हो?

पारिभाषित?

समस्या!

अब समस्या थी!

खेड़ंग बाबा चकित हुए!

फिर मुस्कुराये!

कौशान को देखा!

कौशान त्यौरियां चढ़ाये देख रहा था!

प्रतीक्षा में खड़ा था!

और फिर बाबा ने विचार किया!

सोचा,

और बोले- हे कौशान! याम में ज्ञान-सरसी हर दिशा में होता है! और यामा में इस सरसी का कोई चिन्ह नहीं होता! यामा हालायुक्त होती है! इस हालायुक्त समय में ज्ञान को क्रियान्वित किया जाता है! याम में चार धर्मों की पूर्ति आवश्यक है! उसकी प्रकार यामा में दो धर्मों की! ये दो धर्म विशेष हैं! इसनकी पूर्ति बिना याम का कोई महत्त्व नहीं! कुल छह प्रकार के धर्म हैं, जिनकी पूर्ति अति-आवश्यक है! मनुज अपना जीवन इसी यामा-कोष में आरम्भ करता है! वहाँ याम नाम की कोई वस्तु अथवा पदार्थ नहीं होता! अतः यामा का महत्त्व याम से अधिक है! इसी कारण से यामा को दो विशेष धर्म सौंपे गए हैं! ये है इसका उत्तर! हे कौशान वेताल!


   
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श्रीशः उपदंडक
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कौशान वेताल ने अट्ठहास लगाया!

ज़बरदस्त अट्ठहास!

उड़ चला!

शाख पर जा बैठा!

उत्तर सटीक था!

एकदम सटीक!

मैं तो भावाविभोर हो उठा!

क्या ज्ञान था बाबा के पास!

वेताल!

कभी इस शाख!

और कभी उस शाख!

 

मैं बाबा के ज्ञान से हतप्रभ था!

सच में, बहुत ज्ञानी हैं वे!

ऐसा विलक्षण ज्ञान आज बहुत,

दुर्लभ है!

निःसंदेह एक आद ही होगा!

इसी कारण से वेताल साधना,

बहुत कम ही हुआ करती हैं अब!

यही कारण है इसका एक मात्र!

प्रश्न!

और उनके उत्तर!


   
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श्रीशः उपदंडक
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बहुत कठिन हैं!

अर्थ का अनर्थ हो जाए,

यदि कोई शब्द समझ नहीं आये तो!

और कहीं वेताल क्रोधित हुआ,

तो समझो लटके प्राण अधर में!

इसीलिए,

वेताल-साधना में एक योग्य गुरु की,

परम आवश्यकता होती है!

जो त्वरित प्रश्न सुने,

समझे,

और त्वरित ही उत्तर दे!

यदि नहीं दिए,

तो वेताल वापिस!

फिर कभी दुबारा आप,

कभी साधना,

नहीं कर पाएंगे!

कभी भी नहीं!

वेताल-साधना तो कभी नहीं!

यहाँ बाबा खेड़ंग की दाद देनी ही होगी!

वो झपक कर प्रश्न सुनते थे,

उसका आशय समझते थे,

और फिर सोच-विचारकर,


   
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श्रीशः उपदंडक
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त्वरित उत्तर भी दिया करते थे!

वेताल वहीं था,

अभी बना हुआ!

प्रसन्न था वो!

इसी कारण से कि,

उसके प्रश्नों के उत्तर मिल रहे थे उसको!

मित्रगण!

और भी कई ऐसी तीक्ष्ण साधनाएं हैं,

जिनमे प्रश्नोत्तर हुआ करते हैं!

प्रश्न ऐसे ही जटिल और गूढ़ हुआ करते हैं!

साधक को अपना मनोविकास करते ही,

रहना चाहिए!

ज्ञान कहीं से भी मिले,

ले लेना चाहिए,

अब कुछ भी त्यागना पड़े उसके लिए!

ज्ञान से बड़ा कोई भण्डार नहीं!

और आपका कोष भी इतना छोटा नहीं कि भर जाए!

ये कोष, जितना भरेगा,

रिक्त-स्थान और चौगुना हो जाएगा!

इस सुरसा को ज्ञान का भोजन कराते ही रहना चाहिए!

इसीलिए,

ज्ञान-संवर्धन सदैव करते रहना चाहिए!


   
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श्रीशः उपदंडक
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वेताल कूदा!

और बाबा के सम्मुख हुआ!

बाबा का एक चक्कर लगाया,

बाबा उसके केश-पाश में बंध गए जैसे!

फिर से सम्मुख हुआ!

और फिर से एक और प्रश्न!

प्रश्न- इस रत्नगर्भा में, इस समस्त रत्नगर्भा में त्रिदिव कहाँ है?

कैसा विराट प्रश्न!

और कैसा विशाल उसका उत्तर!

परन्तु,

फिर से वही प्रश्न!

पारिभाषित कैसे हो?

वेताल ने तो संकट में डाल दिया था हमे!

बाबा ने वेताल को देखा,

वेताल,

अपनी बाजुएँ एक दूसरे में फंसाये,

खड़ा था!

और फंसे हम भी थी!

इस प्रश्न और उत्तर के झंझावात में!

बाबा ने प्रश्न दोहराया!

और फिर सोचा,

विचारा!


   
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