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वर्ष २०१० काशी के पास की एक घटना

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श्रीशः उपदंडक
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बाबा झुक गए!

हम भी झुक गए!

तभी वहाँ,

उस पेड़ को,

एक सफ़ेद से धुंए ने घेर लिया!

जैसे कि घना कोहरा!

सबकी साँसें अटकीं अब!

ये आमद थी!

महा-भीषण कौशान वेताल!

महा-रौद्र कौशान!

औघड़ों का काल कौशान!

संहारक कौशान!

बस!

किसी भी क्षण!

किसी भी क्षण!

 

वो सेमल का पेड़!

उस श्मशान में,

अब किसी भी क्षण,

सिंहासन बनने वाला था!

सिंहासन उस कौशान वेताल का!

वो कोहरा छाया हुआ था पेड़ के चारों और!


   
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श्रीशः उपदंडक
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और वो पेड़ एकदम सफ़ेद रंग सा चमक रहा था!

जैसे हिम जमी हो उसके पत्तों पर, शाखों पर!

समय रुक गया था!

श्मशान में मौजूद सभी अशरीरी भाग छूटे थे,

पनाह लेने के लिए!

कौशान के तेज से खाक़ हो जाते नहीं तो वे सब!

मैं टकटकी लगाए देख रहा था पूरे पेड़ को!

वो पेड़ शांत था!

एकदम शांत!

तभी फिर से चिंगारी सी फूटी!

सभी डरे!

पाँव फिसले!

आँखें फटीं!

बाबा डोले!

बाबा के वृद्ध नेत्र जम गए थे उस पेड़ पर!

बाबा अपना त्रिशूल उठाये,

मंत्र पढ़े जा रहे थे!

बाबा आगे खड़े थे!

और हम सब पीछे!

मैं बाबा के पीछे था,

मेरा कद सबसे लम्बा था उन सब में,

इसलिए सब सही ढंग से देख रहा था!


   
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श्रीशः उपदंडक
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कौशान को आज पहली बार देखने वाला था मैं,

इसीलिए आया था यहाँ,

देखने और सीखने!

बस,

यही दो कारण थे!

तभी पेड़ खड़का!!

जैसे किसी ने हिलाया हो उसे!

उसके पीले पत्ते घूमते हुए नीचे आ गिरे!

फिर से शान्ति!

कोई खेल रहा था हमसे!

खेल रहा था?

या चेता रहा था?

पता नहीं!

फिर से प्रकाश फैला!

चुंधिया गयीं आँखें!

कोहनी आगे करनी पड़ी!

और फिर एक अट्ठहास!

भयानक अट्ठहास!

ऐसा अट्ठहास मैंने कभी नहीं सुना था!

हम तो काँप गए!

मेरे पाँव के नीचे की मिट्टी,

तलवों के पसीनों से गीली हो गयी!


   
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श्रीशः उपदंडक
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शरीर ऐसे कांपने लगा जैसे भीगा हुआ कोई श्वान!

दांत ऐसे कटकटाने लगे जैसे नंगे बदन बर्फ में लेट गया हूँ मैं!

जिव्हा ने हलक में जाकर पनाह ले ली!

घ्राणेंद्री ने काम की हड़ताल कर दी!

कानों ने उस स्थान से परे के स्थानों की आवाज़ें ढूंढनी शुरू कर दीं!

बस!

बस आँखें ही थीं जो साथ निभाये हुए थीं!

पाँव, वो काँप रहे थे!

हाथ, वो झुनझुना रहे थे!

हृदय, वो और नीचे धंसे जा रहा था!

कलेजा, मुंह को आ रहा था!

फिर से अट्ठहास!

पेड़ से ही आया अट्ठहास!

बाबा खड़े रहे!

और हम सब भी!

तभी प्रकाश चौंधा!

और सफेद धुंए ने घेर लिया पेड़ को!


   
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श्रीशः उपदंडक
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घूमते हुए था वो धुआं!

और जैसे ही धुंआ छंटा!

ऊपर,

बहुत ऊपर,

करीब बीस-पच्चीस फीट ऊपर,

कोई लटका दिखा!

साँसें अटक गयीं!

प्रकाश से नहाया हुआ था वो!

उसके सफ़ेद केश,

भूमि तक फैले थे!

उसका शरीर लटका हुआ था एक मोटी सी शाख पर!

और फिर से एक रौद्र अट्ठहास!

मेरे बाएं खड़ा औघड़ गिरा नीचे!

धम्म!

और मेरे पीछे खड़ा हुआ भी!

धम्म!

अब हम चार लोग ही रह गए खड़े हुए!

जब किसी वेताल का आगमन होता है,

तो मंत्र शिथिल पड़ जाते हैं!

इसको महागण भी कहा जाता है!

बस ये मुक्त हैं!

स्वतंत्र!

श्री औघड़राज के प्रहरी!

उनके सरंक्षण में रहते हैं!

परम-शक्तिशाली होते हैं!

कोई भी विद्या अहित नहीं कर सकती इनका!

बस इनको प्रसन्न ही किया जा सकता है!


   
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श्रीशः उपदंडक
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यदि ये क्रुद्ध हो जाए,

तो समस्त विद्यायों का नाश करता है!

याददाश्त को मिटा देता है!

व्यक्ति ज़िंदा लाश बन घूमता है,

और सीधा फिर मृत्योपरांत,

प्रेत-योनि में जाता है!

हाँ,

अट्ठहास हुआ फिर से!

और हम कांपे!

बाबा आगे बढ़े!

और मंत्र पढ़े कुछ!

ये प्रशंसा के मंत्र होते हैं!

फिर से अट्ठहास!

और फिर!

एक शाख से दूसरी,

और दूसरी से तीसरी,

और तीसरी से चौथी,

और चौथी से पांचवी,

ऐसा करते करते,

नीचे आता चला गया!

उसके केशों का जैसे भूमि पर पहाड़ सा बन गया!

और अट्ठहास!


   
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श्रीशः उपदंडक
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अब बाबा आगे बढ़े!

और वेताल नीचे हुआ!

कलाबाजी खायी,

और सीधा हुआ!

अब देखा उसका खौफनाक चेहरा!

जिस्म!

चेहरा इतना चौड़ा जैसे किसी सिंह का!

आँखें किसी सिंह के सामान!

देह कैसी दरियाई घोड़े के समान!

देह करीब पंद्रह फीट ऊंची!

माथे पर भस्म मली हुई!

शरीर पर अस्थि-आभूषण पहने हुए!

कमर में अस्थियां लटकाये हुए!

नीचे धोती सी पहने हुए,

सफ़ेद रंग की!

जिसमे काले रंग के लड़ से बंधे थे!

अट्ठहास हुआ!

उसे अपने पेट पर हाथ मारते हुए अट्ठहास किया!

बाबा आगे बढ़े!

और एक भोग-थाल उठाया,

और उसकी शाख के नीचे रख दिया!

वेताल में अट्ठहास किया!


   
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श्रीशः उपदंडक
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भयानक अट्ठहास!

और जैसे उसको गंध आयी हो,

उस साही के मांस की!

झपाक से नीचे कूदा!

हम तो बौने लग रहे थे उसके सामने!

मैं उसके घुटने तक ही आता!

अगर नापा जाता तो!

बाबा ने फिर से मंत्र पढ़े!

वेताल ने अब हमको देखा,

आगे आया, और रुका,

जैसे मदिरा की गंध आयी हो!

हाँ, जब वो आ रहा था,

तो नेत्र भिड़े मेरे उस से,

एक सुआं सा सर में धंसा और बदन चीरते हुए,

एड़ी फाड़ता हुआ निकल गया!

ऐसा लगा!

वेताल फिर से ऊपर कूद गया!

लटक गया!

फिर से!

और नीचे देखा,

उसका शरीर बढ़ा!

गर्दन नीचे चली अब!


   
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श्रीशः उपदंडक
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और भूमि तक आ गयी!

कलेजा मुंह को आ गया!

भय के मारे जड़ मार जाने का डर था बस!

और फिर से गर्दन ठीक हो गयी!

और फिर से अट्ठहास!

और फिर लोप!

लेकिन!

वो लोप नहीं हुआ था!

वो कहीं और प्रकट होने गया था!

और फिर आ गया वहीँ!

अट्ठहास!

ज़ोरदार अट्ठहास!

अब वस्त्र बदल गए थे उसके!

धोती अब पीले रंग की हो गयी थी!

या मेरी आँखों में रक्त जम बैठा था, मात्र मेद ही बचा था!

तभी पीला सा रंग दिखा!

हाँ,

माथा भी पीला दिखा!

मैंने बताया न,

ये उन्मुक्त हैं!

कभी इस लोक,

कभी उस लोक!


   
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श्रीशः उपदंडक
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कभी यहाँ,

कभी वहाँ!

फिर वो ऊपर उड़ा

हवा में लटका!

फिर उल्टा हुआ!

और अट्ठहास!

पेड़ से ऊपर गया!

फिर अट्ठहास!

कभी सीधो हो,

कभी उल्टा!

कभी द्रुत गति से ऊपर उड़े,

कभी द्रुत गति से नीचे आये!

हम तो तमाशा सा देख रहे थे!

थूक गटको,

तो थूक नहीं!

पलक मारो,

तो मारी न जाए!

सांस खोलो,

तो दम घुटे!

पीछे हटो!

तो आगे को धक्का लगे!

क़ैद हो गए हम वहाँ!


   
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श्रीशः उपदंडक
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उस सेमल के वृक्ष के नीचे!

वो खेल दिखा रहा था!

और हम कठपुतलियों की तरह,

स्तब्ध थे!

नज़रें वहीँ गड़ी थीं!

हिले तो मरे,

बैठे तो मरे!

जैसे थे,

वैसे ही रहे!

बाबा को पता था,

तो वही भोग आदि रखते थे!

तभी उसने अट्ठहास किया!

और एकदम सीधा होकर,

ऊपर उड़ चला!

गायब हो गया!

और फिर से नीचे आ गया!

पता नहीं क्या हो रहा था!

अजीब सा ही व्यवहार था उस वेताल का!

और मित्रगण!

वो झनाक से भूमि पर कूदा!


   
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श्रीशः उपदंडक
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भूमि जैसे हिल गयी!

गोदी में लेने को लपकी हो जैसे!

कौशान बहुत भयंकर था!

बहुत भयंकर!

कि देख ले तो समझो विक्षिप्त ही हो जाए,

न भी हो तो,

जीवन भर जिव्हा बाहर ही न निकले!

काठ मार जाए मस्तिष्क को!

हाँ,

वो झनाक से कूदा!

भूमि में नीचे का पानी जैसे हिला!

और हिले हम भी!

बाबा आगे बढ़े!

वेताल ने नीचे गर्दन करके देखा,

बाबा ने भोग-थाल उठाया!

और अपने सर से भी ऊंचा किया!

और तभी वेताल का शरीर छोटा होना शुरू हुआ!

और करीब नौ फीट का रह गया!

अट्ठहास!

भयानक अट्ठहास!

एक बात और,

उसके पाँव नहीं दिख रहे थे,


   
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श्रीशः उपदंडक
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केवल धुंआ ही था वहाँ,

धुंए में लिपटा था जैसे वो!

हाँ, था ऐसा कि एक लात मारे तो पासपोर्ट और वीज़ा की ज़रुरत ही न पड़े!

और अगर अधिक ही तेज पड़ी,

तो फिर यमदूतों को भी ज़हमत उठाने की आवश्यकता नहीं!

सीधे ही मृत्युराज के चरणों में!

और वे समझ जायेंगे,

कि किसने भेजा है!

विशेष सम्मान के साथ ही किताबें खुल जाएंगी!

खैर!

बाबा झुके!

और बैठ गए घुटनों पर!

थाल आगे किया,

और थाल का भोग लोप हुआ!

ऐसे ही वे मृद-भांड!

और देखते ही देखते सारे भोग-थाल और,

मृद-भांड खाली होते चले गये!

भोग तो स्वीकार हो गया था!

अब शेष था प्रश्न काल!

सब मूर्ति से ही बने खड़े थे!

“मैं कौशान!” वो बोला,

बोला?


   
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श्रीशः उपदंडक
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या दहाड़ा?

कान के पर्दे फटते फटते बचे,

बस यूँ मानो!

“मैं! कौशान!” वो बोला,

ऐसा स्वर की रीढ़ की हड्डी से पसलियां छूट जाएँ!

नाभि अंदर ही घुस जाए!

और नीचे के शरीर में वलय मार जाए!

फिर से अट्ठहास!

“हे कौशान!” बाबा ने कहा,

कौशान ने देखा बाबा को!

और निकट आया!

“तूने आह्वान किया मेरा?” उसने पूछा,

“हाँ कौशान!” बाबा ने कहा,

“प्रयोजन बता!” वो बोला,

“कृपा!” बाबा ने हाथ जोड़कर कहा!

“कैसी कृपा?” कौशान ने पूछा,

“हम सब! हम सब” बाबा ने इशारा किया हमारी तरफ भी!

“हम सब! कृपा चाहते हैं आपकी! हम आरूढ़-सिद्धि करना चाहते हैं, आशीर्वाद दें!” बाबा ने कहा,

अब समझे आप!

क्यों आह्वान होता है वेताल का?

किसलिए?


   
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श्रीशः उपदंडक
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क्या प्रयोजन?

अब जो ये कहे कि मुझ से वेताल सिद्ध है,

तो समझ लो वो असत्य भाषी है!

ये सिद्ध नहीं होता!

हाँ कुछ एक वेताल हैं,

जो सिद्ध हुआ करते हैं,

जैसे अगिया, डौंडा, भेलवा, कौड़िक!

परन्तु इनमे अभय-वचन देने का सामर्थ्य नहीं!

सामर्थ्य वाले कौशान की तरह ही होते हैं!

अगिया, आग पर विजय देता है!

आग आपका कुछ नहीं बिगाड़ेगी!

परन्तु चिता में भी अग्नि नहीं लगेगी!

बहाना पड़ेगा शव!

डौंडा से कैसी भी स्त्री हो, आपकी दास हो जायेगी, देखते ही,

परन्तु आप अन्य कोई मोहन-सिद्धि नहीं कर सकते!

भेलवा आपको कभी भी भूख नहीं लगने देगा!

परन्तु अपना भोग नित्य लेगा!

कौड़िक से आप पानी पर चल सकते हैं,

परन्तु आपको माह में एक बार स्वयं का रक्त-पान करना होगा!

यदि नहीं किया, तो उसी क्षण मृत्यु!

ऐसे ऐसे हैं ये वेताल!

और ऐसी ऐसी है ये साधनाएं!


   
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