और हम सब बैठ गए!
जैसे रेगिस्तान में खानाबदोश रात्रि समय,
अपना डेरा जमा लेते हैं,
मानो वैसे ही हम बैठ गए!
“बनाओ शर्मा जी” मैंने कहा,
उन्होंने बोतल निकाली,
और चार गिलास निकाले,
और बना दिए!
पूजा ने बोतल उठायी,
उसका नाम पढ़ा,
और रख दी,
“दिल्ली का माल है!” मैंने कहा,
“हाँ, बढ़िया है, कड़वा नहीं है!” वो बोली,
“हाँ, मैं यही पीता हूँ” मैंने कहा,
“बढ़िया!” वो बोली,
और जी फिर हमने,
चारों गिलास,
अपने अपने उठाये,
और खींच मारे!
काजल को शायद दिक्कत हुई पीने में,
मैंने उसके चेहरे के भाव देखे,
शायद पीती नहीं थी,
या फिर अभी शुरुआत थी!
चलो जी फिर,
कर दिया उपकार दारु पर!
जीवन सफल हो गया उसका!
अब उठाये हमने टुकड़े प्रसाद के,
और चबाने लगे!
बढ़िया, कुरकुरा बनाया था!
“ये किसने बनाया?” मैंने पूछा,
“ये?” उसने पूछा,
“हाँ” मैंने कहा,
“ये दीपू ने” वो बोली,
“बढ़िया बनाया है!” मैंने कहा,
“मैंने कहा था उसको, बढ़िया बनाना!” वो बोली,
“अच्छा!” मैंने कहा,
तभी साहब!
बिजली कड़की!
गूँज उठा कमरा!
कानों पर हाथ रख लिया दोनों बहनों ने!
“देखा पूजा? कोई फायदा नहीं हुआ रुकने का!” मैंने कहा,
“हाँ, ये तो है” वो बोली,
“इसीलिए हम जा रहे थे!” मैंने कहा,
“अच्छा जी, गलती हो गयी, जो रोका आपको!” वो बोली, देखते हुए! मुझे!
मैं हंस पड़ा!
उसको देखा!
गम्भीर हो गयी थी!
“ऐ? क्या हुआ?” मैंने पूछा,
“कुछ नहीं!” वो बोली,
“अरे? बताओ तो?” मैंने कहा,
“कुछ नहीं” वो बोली,
“अच्छा, चलो गलती हो गयी, बस?” मैंने कहा,
मुझे देखा,
मुस्कुरायी!
“चलो अब गिलास बनाओ!” मैंने कहा,
उसने गिलास बना दिए!
चारों के,
और हम चारों ने गटक लिए!
तभी बादल गरजे!
और बारिश शुरू हो गयी तेज!
खिड़की भर्रा गयी!
ऊपर रखी टीन, टपटप बारिश से,
सुर में सुर मिलाने लगी!
फिर से एक और गिलास!
और फिर से हमने खाली किये!
“ये लो! ये देखो, कितना बढ़िया है!” पूजा बोली,
ये प्रसाद से लबालब एक टुकड़ा था!
“तुम खाओ!” मैंने कहा,
“आप खाओ!” उसने कहा,
“खाओ न?” मैंने कहा,
“आप खाओ” वो बोली,
“लाओ” मैंने ले लिया,
और खाने लगा,
वाक़ई में बढ़िया था!
“पूजा?” मैंने कहा,
“हाँ?” बोली वो!
“कल जाना ही पड़ेगा मुझे वापिस” मैंने कहा,
“चले जाना, नहीं रोकने वाली मैं” वो बोली,
हंसते हुए!
मैं भी हंसा!
उसके चेहरे के भाव से हंसा!
“तुम भी जाओगी वापिस?” मैंने पूछा,
“हाँ, और क्या?” वो बोली,
“कब मिलोगी दुबारा?” मैंने पूछा,
“किसलिए?” उसने पूछा,
“साथ बातें करने के लिए!” मैंने कहा,
खिलखिलाकर हंस पड़ी!
“पता दे दूँगी!” वो बोली,
“ठीक है” मैंने कहा,
“आ जाना!” वो बोली,
“और ये शर्मीली मिलेगी वहाँ?” मैंने पूछा,
“हाँ, मिलेगी!” वो बोली,
काजल हंस पड़ी!
“ऐ काजल? मिलोगी?” मैंने पूछा,
हाँ में गर्दन हिलायी उसने!
मित्रगण!
ये दोनों नव-यौवनाएं,
यहाँ लायी गयीं थीं,
कौशान-वेताल की साधना के लिए!
इसीलिए ये यहाँ आयी थीं!
लेकिन,
बारिश ने साधना तो क्या,
भागना भी रोक दिया था!
ये वेताल साधना आवश्यक थी!
वर्ष में यही माह था,
और यही कुछ दिन!
यदि समय निकला तो फिर से एक वर्ष का इंतज़ार!
बस!
इसीलिए आये थे हम यहाँ!
मुझे बाबा मलंग ने बुलाया था!
बाबा मलंग भी बुज़ुर्ग थे! लेकिन पहुंचे हुए थे!
मेरे साथ कई साधनाओं में सहयोगी थे!
तभी फिर से बादल गरजे!
और फिर से प्रकाश कौंधा!
फिर कानों पर हाथ!
और फिर से एक और गिलास!
उस रात हमने खाना खाया और दारु का भरपूर आनंद उठाया!
जब बजे रात के ग्यारह,
तो मैंने भेजा उन दोनों को अब वापिस,
वे गयीं और हमने दरवाज़ा बंद किया,
बारिश के क्या कहने!
क़सम खा रखी थी कि क्रिया तो होने ही नहीं देनी!
कोई लाभ नहीं था!
अब बस कल वापिस ही जाना था,
और अन्य कोई विकल्प नहीं था!
बस जी,
रात हुई गहरी,
और बारिश ने क़हर ढाया!
हम तो दुबक के चादर तान सो गए!
कब सुबह हुई,
पता ही नहीं चला!
सुबह हुई,
मैं उठा,
खिड़की से बाहर झाँका,
तो बूंदाबांदी ज़ारी थी!
अब तक शर्मा जी भी उठ चुके थे,
आँखें मींडते हुए उन्होंने पूछा, “बारिश रुकी?”
“अजी कहाँ! बाहर देखो!” मैंने कहा,
उन्होंने बाहर देखा,
“ये नहीं रुकने वाली!” वे बोले,
“हाँ, और अब हम भी नहीं रुकने वाले!” मैंने कहा,
“हाँ, निकलते हैं आज” वे बोले,
नहाये धोये!
और फिर चाय पी,
साथ में,
ब्रेड भी खायी, सिकी हुई,
और अपना सामान बाँधा सही तरह से!
और मैं चला मलंग बाबा से मिलने,
उनसे मिला,
और अनुमति ली,
अब रुकने से कोई फायदा नहीं था,
मैं हुआ वापिस,
और जब कमरे में आया,
तो वे दोनों लडकियां वहीँ थीं!
मुझे देखा,
प्रसन्न हुईं!
“देख लो! नहीं रुकी बारिश!” मैंने कहा,
“हाँ, नहीं रुकी” पूजा बोली,
“तो अब हम चले” मैंने कहा,
“चलो ठीक है” वो बोली,
अब नंबर लिया उसने मेरा,
मैंने दे दिया,
“अच्छा पूजा, काजल, तुम दोनों बहुत पसंद आयीं हमको! फिर मिलेंगे!” मैंने कहा,
“ज़रूर मिलेंगे” पूजा बोली,
“अब चलते हैं” मैंने कहा,
अब सामान उठाया,
और हम चल पड़े बाहर,
अब चाहे भीगें या सूखे ही रहें,
अब जाना ही था!
पूजा और काजल भी संग चलीं,
हमे छोड़ने,
और फिर हम निकल पड़े,
सर पर तौलिया रखते हुए!
सीधे चलते रहे!
पीछे मुड़कर देखा,
तो दोनों वहीँ खड़ी थीं!
मैंने हाथ हिलाया,
उन्होंने भी हिलाया,
और हम मुड़ गए,
एक छान के नीचे आकर रुके,
और फिर वहाँ से सवारी पकड़ कर चल दिए अपने डेरे की तरफ!
और कोई दो घंटे के बाद,
हम पहुँच गए वहाँ!
मैं बाबा से मिला वहाँ,
और फिर अपना कक्ष ले लिया,
सीधे कक्ष में गए,
और कपड़े बदले!
गीले हो चुके थे,
सामान निकाला,
और वो भी सुखाया,
और फिर लेट गए!
चाय आ गयी,
सो चाय पी!
चाय के साथ नमकपारे भी थे,
कुर्रमकुर खाते चले गए!
और चाय ख़तम की,
“ये तो चौमासे की सी बारिश है” शर्मा जी बोले,
“हाँ, तीन दिन हो गए बरसते बरसते!” मैंने कहा,
सर्दी सी लगने लगी थी अब तो!
रोयें खड़े हो गए थे!
मैंने तो ली चादर,
पाँव सिकोड़े,
और चादर तान गुड्ड-मुड्ड होके लेट गया!
अब बारिश हो,
तूफ़ान चले,
या फिर बादल फटे!
कोई चिंता नहीं!
शर्मा जी भी लेट गए!
बादल गरजे!
और मुझे उन दोनों की याद आयी!
कानों पर हाथ रखे होंगे!
दुखते हैं कान!
हलकी सी हंसी आयी मुझे,
और आँखें बंद कर लीं,
सो गया मैं!
दोपहर हुई,
अब क्या दोपहर,
और क्या शाम!
बारिश ने सब चौपट कर रखा था!
खैर जी,
खाना खाया तब,
और फिर से लेट गया मैं!
तभी फ़ोन बजा,
मैंने उठाया,
नया नंबर था,
उठाया तो,
ये पूजा थी!
पूछ रही थी कि पहुँच गए सही?
मैंने बता दिया कि हाँ, सही पहुँच गए,
अब उसने बताया कि वो भी शाम को निकल जायेंगे यहाँ से,
क्रिया का अब कोई प्रश्न ही नहीं!
मित्रगण!
दो दिनों तक ऐसे ही बरसात पड़ी!
कभी रुके,
कभी तेज हो,
कभी छुपन-छुपाई खेले,
हाँ,
तीसरे दिन जाकर, बारिश थमी!
सूरज मुक्त हुए वर्षा के पाश से!
अब पक्षी भी उड़ने लगे!
हर तरफ थमी हलचल अब शुरू हो गयी!
दोपहर में तो सूरज ऐसे चमके कि पूछिए ही मत!
मौसम साफ़ था!
और अब निकलना था हमको दिल्ली के लिए,
मैं खाना खा रहा था उस समय,
तभी फ़ोन बजा,
ये पूजा का फ़ोन था,
मैंने उठाया,
तो उसने बताया कि,
आज से दो दिन बाद बाबा खेड़ंग नाथ क्रिया करेंगे,
यदि आ सकते हैं तो आ जाएँ,
खबर अच्छी थी!
मैंने धन्यवाद किया उसका!
और उसने खिलखिलाकर कर उत्तर दिया!
अब मैंने तभी बाबा मलंग से संपर्क साधा,
उन्होंने भी पुष्टि कर दी,
यानि कि अब दो दिन और रुकना था,
कोई बात नहीं!
वर्ष भर रुकने की बजाय ये दो दिन रुकना सही था!
मैंने बाबा मलंग को अपने आने की सूचना दे दी!
वे मान गए!
और फिर मैंने फ़ोन किया पूजा को,
फ़ोन किसी और का था,
उसने, बात करवा दी मेरी पूजा से,
मैंने बता दिया कि मैं आ जाऊँगा!
खुश हो गयी वो!
तो मित्रगण!
दो दिन काटे अब!
बारिश ख़तम हो चुकी थी!
अब धूप का राज स्थापित हो चुका था!
मौसम साफ़ था!
आया वही दिन!
और हम जा पहुंचे, बाबा मलंग के पास!
अपना सामान रखा,
और फिर हाथ-मुंह धोये!
फिर हुई शाम,
और लगी हुड़क!
इंतज़ाम किया!
आज रात को वे सब आने वाले थे!
बाबा खेड़ंग और वे दोनों लडकियां!
रात करें दस बजे आना था उनको,
बाबा कुछ शक्ति-उपार्जन के बाद ही आने वाले थे!
फिर हुई रात!
और हम चले फिर वहीँ,
उसी पनाहगाह में!
मछली पकड़ने का जाल रखा था वहाँ,
उसको हटाया और सामने देखने लगे!
नाव से ही आना था उनको!
नाव से थोड़ा ही समय लगता,
बनिस्बत इसके कि सवारी से आया जाता,
इसीलिए नाव चुनी थी!
साढ़े दस बज चुके थे,
लेकिन सामने नदी में कोई रौशनी नहीं थी,
पता नहीं क्या बात थी,
अभी सोच ही रहा था मैं कि,
सामने नदी में एक दूर, एक दिया सा जलता दिखायी दिया,
बायीं तरफ,
नदी में खूब पानी था,
ये बारिश की वजह से ही था!
वो दिए की रौशनी टिमटिमा रही थी!
ये हंडा था,
नदी में चलती नाव में रखा हंडा!
उसी की रौशनी थी,
बस आज खिवैय्ये ने दूसरी जगह से नाव नदी में उतारी थी,
शायद पहली जगह पानी भरा होगा!
वो दिया आता चला गया हमारे पास!
और फिर धुंधली सी छाया दिखायी देने लगी!
ये नाव थी!
हमारी तरफ ही बढ़ी आ रही थी!
मैं देखता रहा!
नदी के सीने पर छमछमाती आती जा रही थी वो नाव!
और फिर कुछ ही देर में,
नाव आ लगी वहीँ,
एक आदमी ने रस्सी फेंकी,
और यहाँ से दो सहायकों ने रस्सी पकड़ी और नाव को अपनी ओर खींचने लगे,
नाव खींच ली गयी,
और एक बड़ा सा फट्टा डाल दिया गया सामने,
और उतरने लगे सभी!
वे दोनों भी उतर गयीं!
उतारते ही उन्होंने ढूँढा हमे,
नज़रें मिलीं तो दौड़ी चली आयीं!
बहुत खुश थी दोनों!
उन्होंने प्रणाम किया!
मुझे भी और शर्मा जी को भी!
वे कुल छह लोग थे,
दो आदमियों ने सामान उठा रखा था,
ये क्रिया का सामान था!
बाबा भी आये,
