उस से कहीं ज्य़ादा!
“काजल छोटी है तुमसे?” मैंने पूछा,
“हाँ, एक साल” वो बोली,
“अच्छा!” मैंने कहा,
और उसका गिलास और भर दिया,
और फिर दूसरी बोतल भी निकाल ली,
ज़रूरत पड़ने वाली थी इसकी अब!
हमने भी अपने गिलास खाली किये!
अब हुई ख़तम सलाद!
क्या करें?”
“मैं लाती हूँ” वो बोली,
और ले गयी प्लेट!
“बहुत तेज है ये तो!” वे बोले,
“हाँ! बहुत तेज!” मैंने कहा,
थोड़ी ही देर बीती होगी,
कि पूजा सामान ले आयी!
ये तो महाप्रसाद था!
वाह!
ये हुई न बात!
“ये कहाँ से लायीं?” मैंने पूछा,
“अरे ढूंढो तो क्या नहीं मिलता!” वो बोली,
सच में!
अवाक!
अवाक रह गया मैं!
बाइस साल की उस लड़की ने अवाक कर दिया!
सच में!
क्या नहीं मिलता!
मैं उसको कच्ची बुद्धि से अवाक था!
कच्ची बुद्धि,
कच्ची ही उसकी परिभाषाएं!
कच्चापन!
“हाँ, ये तो है” मैंने कहा,
“ये बाबा खेड़ंग के लिए तैयार है, बहुत है, आप चिंता न करें” वो बोली,
“मजा बाँध दिया पूजा तुमने तो!” मैंने एक टुकड़ा उठाते हुए कहा,
वो हंस पड़ी!
खिलखिलाकर!
“लो, तुम भी लो!” मैंने कहा,
अब गिलास भरे!
और ले लिया पूजा ने!
और गटक गयी!
तभी बादल गरजे!
गड़गड़ाहट!
चौंक पड़ी वो!
डर लगता है गर्जन से?” मैंने पूछा,
“नहीं तो, बस कान दुखते हैं” वो बोली,
“अच्छा! अच्छा!” मैंने कहा,
और फिर से गिलासबाजी!
“काजल को भी ले आतीं?” मैंने पूछा,
“वो सो गयी होगी” उसने कहा,
“अच्छा!” मैंने कहा,
स्पष्ट था!
वो नहीं चाहती थी कि काजल यहाँ आये!
मित्रगण!
पूजा जैसी साध्वियां बहुत चतुर होती हैं!
बहुत चतुर!
मैं उसके चातुर्य की परीक्षा ही ले रहा था!
अभी तक तो वो ठीक ही थी!
कोई प्रयोजन नहीं था उसका अभी!
वो फिर से उठी,
प्लेट उठायी,
“कहाँ चलीं?” मैंने पूछा,
“आती हूँ अभी” वो बोली,
चली गयी!
और फिर थोड़ी दे में लौटी!
और सामान भर लायी थी!
“अरे वाह! सारा ही उठा लायीं क्या?” मैंने पूछा,
“अभी बहुत है वहाँ, आप खाइये!” वो बोली,
बैठ गयी!
और मैंने गिलास बना दिए!
तभी बारिश ने जैसे हमारा ध्यान अपनी ओर खींचा!
ज़बरदस्त बारिश!
बादल दहाड़े!
और हवा चली!
अब तो आंधी चल रही थी बाहर!
खिड़कियाँ भनभना गयीं!
ऊपर पड़ी सीमेंट की टीन, टपाटप बारिश में,
मृदंग बजाने लगी!
बहुत ज़बरदस्त थी बारिश!
“अरे पूजा?” मैंने पूछा,
“हाँ?” वो बोली,
“टिहरी में कौन सा गाँव है तम्हारा?” मैंने पूछा,
अब उसने गाँव का नाम बताया,
“पढ़ी-लिखी हो?” मैंने पूछा,
“हाँ!” उसने कहा,
“बढ़िया है ये तो!” मैंने कहा,
“माता पिता जी कहाँ हैं?” मैंने पूछा,
“पिता जी नहीं हैं, माता जी हैं, एक बड़ी बहन है, वो कोलकाता में है” उसने कहा,
“ऒह..अच्छा” मैंने कहा,
फिर से एक और गिलास!
और सभी ने पिया!
सामान इतना था,
कि पेट भर गया!
आज तो हो गया भोजन!
पूजा भी अब नशे में थी!
सो भेज दिया उसको मैंने,
वो लड़खड़ाती हुई,
चली गयी!
और फिर हम लेट गए!
नशा था काफी!
और आ गयी नींद!
और फिर हुई सुबह!
रात भर, जैसे,
बादल हमारे कक्ष पर ही बैठे रहे!
मैं उठा,
बाहर देखा,
बारिश तो नहीं थी,
लेकिन बादला गुस्से में,
भभक रहे थे!
कभी भी फट सकते थे!
अब तो जैसे, वे विश्राम कर रहे थे!
आज निकलना ही बेहतर था!
क्रिया अब सम्भव नहीं थी!
शर्मा जी भी उठ गए!
और फिर मैं स्नान करने चला गया,
वापिस आया,
फिर शर्मा जी गए,
वे भी वापिस आये!
अब सर्दी सी लगने लगी थी!
सहायक आया,
और दे गया चाय!
चाय मिली,
अमृत मिला!
सुड़क गए सारी!
फिर और भी ले ली!
वो भी सुड़क गए!
और बैठ गए कमरे में!
अभी बारिश नहीं थी!
तो सोचा,
अब निकल ही लिया जाए!
हमने सामान उठाया अपना,
और चले अब बाबा मलंग के पास,
जिन्होंने बुलाया था हमको यहाँ,
उनसे बातें कीं,
और फिर सामान उठाया अपना अब!
विदा ली,
और निकल गए!
तभी आवाज़ आयी पीछे से,
मैं रुका,
ये काजल थी!
आयी!
“जा रहे हैं?” उसने पूछा,
“हाँ” मैंने कहा,
“रुकिए ज़रा” वो बोली,
और भाग गयी पीछे,
और ले आयी पूजा को!
“जा रहे हो?” पूजा ने बाल बांधते हुए पूछा,
“हाँ” मैंने कहा,
“आज तो मौसम ठीक है?” उसने कहा,
“कहाँ ठीक है?” मैंने कहा,
उसने आकाश को देखा,
“हो जाएगा ठीक?” उसने कहा,
“नहीं होगा!” मैंने कहा,
उसने फिर सामान उठा लिया मेरा!
बेचारी से उठा भी नहीं!
हाँ, कोशिश की!
“आज रुक जाओ, अगर मौसम ठीक नहीं हुआ तो हम भी चलेंगे!” वो बोली,
चलो जी!
ऐसा ही सही!
मैंने सामान उठाया,
और आ गया अपने उसी कमरे में!
रुक गए आज के लिए भी!
और देखिये!
तभी बारिश होने लगी!
और बारिश हुई तड़ातड़!
पूजा भागे भागे आयी!
“लो, देख लो!” मैंने कहा,
“तो भीग भी तो जाते?” वो बोली,
एहसान जताते हुए!
बैठ गयी!
और मैं बाहर देखता रहा!
बारिश की लड़ें गिर रही थीं!
ताबड़तोड़!
बारिश तो जैसे पीछे ही पड़ गयी थी हमारे!
“चाय चलेगी?” बोली पूजा,a
“ज़रूर!” मैंने कहा,
और तो ठुमकते हुए चली गयी!
और हम बैठ गए!
थोड़ी ही देर में,
पूजा आ गयी!
पूरा लोटा और गिलास लेकर!
साथ में काजल भी!
खाने को भी ले आयी थी!
“खाने को क्या ले आयी काजल?” मैंने पूछा,
“आलू की कचौड़ियां हैं” काजल बोली,
”अरे वाह! तुमने तो दावत कर दी हमारी!” मैंने कहा,
हंस पड़ी काजल!
गिलासों में डाल दी गई चाय!
और हम पीने लगे!
साथ ही साथ,
वो गरम कचौड़ियां भी खाते चले गए!
”अरे काजल? तुम खाओ?” मैंने कहा,
“हम खा चुके हैं” वो बोली,
“तो और खा लो!” मैंने कहा,
हंस पड़ी!
फिर एक कचौड़ी दे दी उसको!
“लो! खाओ” मैंने कहा,
उसने ली,
और खाना शुरू किया,
“पूजा? चाय नहीं पियोगी?” मैंने पूछा,
“मैं पी चुकी हूँ” वो बोली,
“अच्छा!” मैंने कहा,
मजे बाँध दिए!
दोनों लड़कियों ने दावत कर दी हमारी!
चाय पी ली!
कचौड़ियां खा लीं!
और बर्तन रख दिए!
“वाह काजल, पूजा, बहुत बहुत धन्यवाद!” मैंने पेट पर हाथ फेरते हुए कहा,
हंस पड़ी वो!
जब मुझे डकार आयी तो!
“एक बात बताओ पूजा?” मैंने पूछा,
“हाँ?” वो बोली,
“रोका क्यों हमें?” मैंने पूछा,
“और कोई नहीं है यहाँ, बातें करने के लिए!” वो हंसते हुए बोली!
“अच्छा! तो बातें करने के लिए हमे रोक लिया!” मैंने कहा,
“हाँ, आप अच्छे हो बहुत!” वो बोली,
मैंने उसके सर पर हाथ मारा!
हलके से!
“बढ़िया है पूजा ये तो!!!” मैंने कहा,
मुस्कुरा पड़ी!
“अरे काजल? कम बोलती हो क्या?” मैंने पूछा
मुस्कुरायी,
और बर्तन उठा लिया,
और चल पड़ी बाहर!
“ये तुम्हारी बहन काजल बहुत अच्छी लड़की है पूजा!” मैंने कहा,
“और मैं?” उसने पूछा,
“तुम तो हो ही!” मैंने कहा,
खिलखिलाकर हंसी वो!
मैं देखता रह गया!
एक शहर की लड़की!
एक ये!
दोनों के नसीब अलग अलग!
एक शानोशौकत में,
एक ठेठ देसी!
एक का पहनावा पाश्चात्य!
एक ये लहंगे में!
एक का श्रृंगार पार्लर में हो,
और एक मात्र काजल लगाए,
वो भी खुद का ही बनाया हुआ!
एक का संसार बहुत व्याप्त!
और एक का सीमित!
एक वो,
और एक ये!
लेकिन ये!
ये विशेष है!
ये एक साध्वी है!
बाद में ब्रह्म-साध्वी बन जायेगी!
किसी ऊंचे औघड़ के समान!
आदर, सम्मान!
झुक जायेंगे दूसरे औघड़ इसके समक्ष!
“भोजन कब करोगे?” उसने पूछा,
“यहाँ हमारी तो चलती नहीं, जब भी करवा दो आप!” मैंने कहा,
आप!
मैं अपने पिछले मनोभाव से आप कह गया था उसको!
उसने भी ध्यान दिया!
“ठीक है, मैं ले आउंगी” वो बोली,
और फिर वो चली गयी!
हम लेट गए!
कोई और काम नहीं था!
आराम किया,
कचौड़ियों ने जगह बनायी पेट में!
और हम आराम करते रहे!
हुई दोपहर!
और फिर आ गईं दोनों!
भोजन लायी थीं!
रखा उन्होंने भोजन!
आलू गोभी की सब्जी!
भाई वाह!
साथ में अचार!
लाजवाब!
और रोटियां!
भोजन लगा दिया गया!
“ये रोटियां काजल ने बनायी हैं!” वो बोली,
“अरे वाह!” मैंने कहा,
“और सब्जी मैंने!” वो बोली,
“बहुत खूब!” मैंने कहा,
और हमने अब खाना खाया!
मजा आ गया!
घर जैसा भोजन था!
डेरे में बना जैसा भोजन नहीं!
कि मोटे मोटे टुकड़े गोभी के!
और आलू ऐसे,
कि कई बार तो साबुत ही निकल जाएँ!
लेकिन ये बढ़िया खाना था!
मैंने बहुत धन्यवाद किया उसका!
बहुत धन्यवाद!
और फिर हमने भोजन कर लिया!
बरतन ले गयी वो!
और फिर शाम को आने को कहा गयी!
“कहाँ बढ़िया था!” शर्मा जी बोले,
“हाँ, सच में!” मैंने कहा,
“तरस आता है मुझे ऐसी लड़कियों पर! अरे घर बसायें अपना! क्या रखा है इस बखेड़े में!” मैंने कहा,
और फिर कुछ सोच कर,
चुप हो गया!
वही,
गरीबी!
मित्रगण!
फिर हुई शाम!
बारिश थम चुकी थी!
पहली बार नीला आकाश नज़र आया!
लेकिन बादल अभी भी मंडराए थे!
काले काले बादल!
खैर,
अब हुई शाम.
तो लगी हुड़क!
दारु की हुड़क!
सूरज अस्त और औघड़ मस्त!
मैं और शर्मा जी,
आये कमरे से बाहर!
बाहर, पानी में कोई बूंदाबांदी नहीं थी!
रहम किया था वर्षा ने हम पर!
और तभी, गलियारे में,
वो दोनों ही,
सामान लाती दिखायी दीं!
सामान ले आयीं वे दोनों!
आज तो दो तरह का सामान था!
पानी, गिलास,
और सभी सामान-सट्टा साथ था उनके!
मैंने सामान पकड़ा और रख लिया,
रख दिया नीचे,
अब चारपाई या पलंग तो था नहीं,
नीचे ही खटिया जमाई थी हमने!
कोने में सामान रखा था कुछ,
शायद दरियां आदि थीं,
बत्ती अब तक नहीं आयी थी,
तो मैंने अब वो हंडा ही जला लिया!
“आओ बैठो!” मैंने कहा,
