वर्ष २०१० काशी के प...
 
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वर्ष २०१० काशी के पास की एक घटना

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श्रीशः उपदंडक
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उस रात हल्की बारिश सी पड़ रही थी,

समय होगा कोई रात के एक बजे का,

नदी का किनारा,

और नदी के बीचोंबीच एक नाव,

हिचकोले खाते हुई,

हमारे किनारे आ रही थी!

उसमे बैठने वालों में से एक ने,

पैट्रोमैक्स की लाइट ले रखी थी,

वही आगे बढ़ने में सहायक थी,

हम अपने कामचलाऊ सी उस पनाहगार में,

बैठे हुए थे,

सुलपा चल रहा था!

बारिश से बचने के लिए,

तिरपाल लगायी गयी थी!

एक बात तय थी,

बारिश हो चुकी थी और अब,

क्रिया कोई नहीं हो सकती थी!

बस अब वो लोग आ जाएँ, तो

आराम ही किया जाए, पीछे बने स्थान में बने कक्षों में,

हालांकि सर्दी नहीं थी,


   
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श्रीशः उपदंडक
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फिर भी, हवा चलती थी तो,

पसलियों को चूम लेती थी!

और पसलिया रीढ़ की हड्डी पर दस्तक दे मारतीं!

वो पनाहगाह बड़ी भी ज़यादा नहीं थी,

बस दिन में कभी कोई मच्छी मारने के लिए,

जब जाया करता था, वो यही आकर सुस्ता लिया करता था,

हम कुल छह लोग एक दूसरे से सट के खड़े थे,

सुलपा चल ही रहा था,

बस वहीँ था जो उस समय गरम था,

नहीं तो बारिश की उस फुहार ने सबकुछ ठंडा कर रखा था!

यहाँ से एक सहायक ने अपनी पैट्रोमैक्स जला रखी थी,

और अब नाव बस कुछ ही दूरी पर थी!

नाव में आने वाले थे बाबा खेड़ंग नाथ!

बुज़ुर्ग थे कोई अस्सी वर्ष के,

और साथ में दो नव-यौवनाएं,

जिनको इस क्रिया का केंद्र बनाया गया था!

सहायक भागे दो,

नदी में उतरे,

और जाकर नाव की रस्सी सम्भाल ली,

खींचा उसे,

और आ गयी नाव किनारे पर,

“जय हो!’ ‘जय हो!’ से अभिवादन हुआ उनका!


   
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श्रीशः उपदंडक
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वे दोनों नव-यौवनाएं भाग कर उस पनाहगाह में आ गयीं!

और बाबा खेड़ंग नाथ भी आ गए,

और फिर सभी चल पड़े वापिस,

स्थान की ओर,

आज क्रिया टल गयी थी,

हाँ, नाव एक पेड़ से बाँध दी गयी थी,

उसका खिवैय्या भी हमारे साथ ही चल पड़ा!

वे दोनों नव-यौवनाएं बड़ी नटखट सी थीं!

आगे आगे दौड़ पड़ीं!

उछलते कूदते!

और हम लोग,

पहुँच गए उस स्थान में,

बत्ती थी नहीं उस रात,

बस वही या तो मोमबत्ती जलाओ,

या फिर लालटेन,

हमारे कक्ष में लालटेन थी,

वहीँ जलवायी,

और फिर हम बिस्तर में लेटे,

अब कुछ करना था नहीं,

सो, सो गए,

घंटे भर में नींद आ गयी,

और अब आराम से सोये!


   
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श्रीशः उपदंडक
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सुबह हुई साहब!

बारिश अब भी पड़ रही थी!

बाहर देखा तो हर वस्तु बारिश ने अपनी बना ली थी!

बेचारे श्वान भी, जिसको जहां जो जगह मिली,

वहीँ घुस गया था!

आकाश देखा,

तो लगा जैसे किसी परदे में से छन छन के बारिश की बूँदें,

गिर रही हैं!

तभी बिजली कड़की!

यानि कि,

ये सन्देश था कि अभी यौवन की खुमारी शेष है वर्षा में!

क्या करें?

फिर से उस दड़बे से कक्ष में आ गए!

शर्मा जी मेरे साथ ही थे!

वे भी सारा हाल देख रहे थे,

बाहर कीचड़-काचड़ हुई पड़ी थी!

तभी एक सहायक लोटा लेकर आया,

साथ में अलग अलग रंग-बिरंगे कप!

मेरे हाथ में एक दुरंगा कप आया,

पीला और लाल,

अब चाय डलवाई उसमे!

बारिश के उस मौसम में,


   
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श्रीशः उपदंडक
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वो चाय तो मदिरा से भी दोगुना आनंददायी थी!

बैठ गए!

“कहाँ फंस गए!” शर्मा जी बोले,

“अब फंस गए तो फंस गए!” मैंने कहा,

“क्रिया तो होने से रही” वे बोले,

“देखो!” मैंने कहा,

चाय हुई ख़तम!

सहायक फिर से आ गया!

चाय की पूछी,

तो और ले ली!

इस बार वो चाय के साथ फैन लाया था,

सो वही लिया,

भूख में किवाड़ पापड़!

खैर जी,

चाय पी,

फैन खाया चाय में डुबो डुबो कर!

और फिर कप रख दिया!

तभी सामने से वहीँ दोनों नव-यौवनाएं गुजरीं!

चहकती हुई!

सुबह सुबह ही भीग ली थीं वो तो!

जैसे ही गुजरीं,

“हे? सुनो?” मैंने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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वे रुकीं,

“हाँ?” उनमे से एक बोली,

“कहाँ की हो?” मैंने पूछा,

“टिहरी की” वे बोलीं,

अब शक्लें दोनों की एक जैसी ही थीं!

“दोनों बहनें हो क्या?” मैंने पूछा,

“हाँ” वो बोली,

“क्या नाम है?” मैंने पूछा,

“मैं पूजा और ये काजल” वो बोली,

“अच्छा! और बाबा के साथ कहाँ से आयी हो?” मैंने पूछा,

“यहीं पास में से” उसने कहा और जगह का नाम बताया,

“अच्छा!” मैंने कहा,

“और आप?” उसने अपनी भौंह से पानी पोंछते हुए पूछा,

“दिल्ली से” मैंने कहा,

“बहुत दूर से?” वो बोली,

“हाँ!” मैंने कहा,

“अच्छा” वो बोली,

“कभी गयी हो दिल्ली?” मैंने पूछा,

“हाँ, एक बार” वो बोली,

“कहाँ?” मैंने पूछा,

“महरौली” वो बोली,

“अच्छा!” मैंने कहा,

और फिर चली गयीं थोड़ी देर बाद,


   
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श्रीशः उपदंडक
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मुश्किल-बा-मुश्किल अठारह या उन्नीस बरस उम्र होगी उनकी,

शायद पहली बार ही किसी क्रिया में बैठ रही थीं,

तभी फिर से बिजली कड़की!

आकाश जैसे फट पड़ा!

तेज बरसात होने लगी!

हम जा बैठे अपने कमरे में!

“बड़ा बुरा हाल है!” वे बोले,

“हाँ!” मैंने कहा,

“ये नहीं रुकने वाली आज तो!” वे बोले,

“यही लगता है!” मैंने कहा,

तभी एक सहायक आया,

और उबले हुए चने दे गया,

एक कटोरे में!

वही चबाने लगे!

प्याज और ज़ीरे का छौंक लगा था उनमे,

बढ़िया थे!

गर्मागर्म!

फिर से बिजली कड़की!

और मौसम अंधियारा हो गया!

अँधेरा छा गया!

एक दम अँधेरा!


   
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श्रीशः उपदंडक
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कमरे में भी अँधेरा पसर गया!

और झमाझम बारिश!

 

उस दिन बारिश ने कहर ढा दिया!

रुकने का नाम ही न ले!

जैसे,

ठान रखी थी कि आज तो,

कुछ होने ही नहीं देगी वो!

हम बस बेबस से बैठे हुए थे!

कभी लेट जाते,

कभी बैठ जाते,

कभी बाहर बैठ जाते,

गलियारे में!

हर तरफ बस बारिश ही बारिश!

अब हुई दोपहर,

भोजन आ गया,

आलू पूरी थीं,

बढ़िया था,

वही खायीं!

गरमागरम पूरियां और तीखी आलू की सब्जी!

साथ में मिर्च का अचार!

छक कर खाया हमने!


   
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श्रीशः उपदंडक
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और कर लिया भोजन!

फिर से आ बैठे अपने कमरे में!

सो गए!

शाम हुई!

छह बजे थे!

उठे,

बाहर देखा,

टपाटप बारिश पड़ ही रही थी!

लगता था कि कोई क़सर नहीं छोड़ी है बरसात ने बरसने में!

अब शाम हुई तो लगी हुड़क!

अब साथ में क्या लिया जाए?

सलाद?

पता करते हैं!

अब मैं और शर्मा जी चले ज़रा भोजनालय की तरफ,

वहाँ और भी लोग बैठे थे,

नमस्कार हुई उनसे,

कोई आलू की सब्जी के साथ,

कोई अचार के साथ,

कोई पूरी के साथ ही मढ़ा हुआ था,

दारु से दो दो हाथ करने में!

मैं सहायक के पास गया,

और कुछ टमाटर,


   
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श्रीशः उपदंडक
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गाजर,

मूली,

मूली के ताज़ा पत्ते,

चुकंदर ले लिए,

साफ़ किये,

दो प्लेट ली,

और दो गिलास,

एक जग पानी,

और चल दिए कक्ष की ओर!

और फिर छीलनी शुरू की हमने वो गाजर, मूली और चुकंदर!

और काट काट के बना लिया सलाद!

अब बैग में से काला नमक निकाला और छिड़क लिया!

लो जी!

हो गया जुगाड़!

मढ़ गए हम भी अब!

गिलास बनाये और भोग देकर,

मदिरा को स्वर्ग प्राप्ति करवा दी,

जीवन सफल हो गया उसका!

“बारिश न रुकी तो?” शर्मा जी ने पूछा,

“तो कल वापसी करेंगे” मैंने कहा,

“लगता नहीं है कि रुकेगी” वे बोले,

“हाँ, आसार नहीं हैं” मैंने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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“हाँ जी” वे बोले,

बत्ती थी नहीं,

वही पैट्रोमैक्स जलवाया हुआ था,

उसका मैंटेल अब बूढा हो चुका था,

बस किसी तरह से सांस ले रहा था!

तभी बाहर से वही दोनों गुजरीं!

हंसते हुए!

मैंने आवाज दे दी!

वे रुक गयी होंगी!

अंदर झाँका पूजा ने!

”आ जाओ” मैंने कहा,

काजल का हाथ खींच कर पूजा अंदर आ गयी,

काजल भी आ गयी!

“आओ बैठो” मैंने कहा,

बैठ गयीं वो!

“कहाँ से आ रही हो?” मैंने पूछा,

“बस, घूम रही थीं” पूजा ने कहा,

“बारिश में?” मैंने पूछा,

“हां, बारिश अच्छी लगती है मुझे!” वो बोली,

“और इसे? काजल को? ये बोलती नहीं है क्या?” मैंने पूछा,

वो हंसी!

काजल भी हंसी!


   
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“वो जब बोलेगी तो आप चुप हो जाओगे!” वो बोली,

“ऐसा?” मैंने कहा,

“हाँ!” बोली पूजा!

“हैं काजल?” मैंने पूछा,

लरज़ गई वो!

आँखें चुरा लीं!

“अब क्रिया तो होगी नहीं, अब क्या करोगी?” मैंने पूछा,

“वापिस जायेंगे” वो बोली,

“हाँ यही ठीक है” मैंने कहा,

और अपना गिलास खाली किया मैंने!

“अब चलते हैं हम” वो बोलीं,

“ठीक है” मैंने कहा,

और इठलाती हुई,

चली गयीं दोनों!

“पहाड़न हैं दोनों” वे बोले,

“गरीबी है बहुत शर्मा जी वहाँ” मैंने कहा,

“हाँ, ये तो है” वे बोले,

“ये गाँव-देहात से आ जाती हैं, और यही सब करती हैं, यही है इनका जीवन” मैंने कहा,

“हाँ जी” वे बोले,

सांस छोड़ते हुए,

तभी बिजली कड़की!

और बारिश ने नृत्य किया!


   
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श्रीशः उपदंडक
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झमाझम!

और बिजली कड़की!

सारा स्थान चमक में नहा गया उसकी!

हम मढ़े रहे!

अब क्या करते!

वर्षा ने तो सोच ही रखा था कि,

नहीं जमने देगी औघड़ों की महफ़िल!

फिर से दरवाज़े से कोई झाँका,

ये पूजा थी!

“हाँ पूजा?” मैंने कहा,

वो अंदर आ गयी!

“बैठो” मैंने कहा,

बैठ गयी वो!

“हाँ, क्या हुआ?” मैंने पूछा,

“वो आप यहीं तहहरे हैं दिल्ली से आके?” उसने पूछा,

“नहीं, मैं कहीं और ठहरा हूँ” मैंने कहा,

“कहाँ?” उसने पूछा,

और मैंने बता दिया पता उसको!

“कुछ काम है?” मैंने पूछा,

“नहीं तो” वो बोली,

अब मित्रगण!

शरारत सूझ गयी मुझे!


   
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श्रीशः उपदंडक
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“सुनो पूजा, दारु पीती हो?” मैंने पूछा,

“हाँ” वो बोली,

“पियोगी?” मैंने पूछा,

“पी लूंगी!” वो बोली,

शर्मा जी ने गिलास भर दिया एक!

और दे दिया उसको,

मैंने एक टुकड़ा चुकंदर का दे दिया उसको,

उसने झट से गिलास साफ़ कर दिया!

मैं मुस्कुरा गया!

“किसने सिखाया पीना?” मैंने पूछा,

“दो बरस हो गए” वो बोली,

दो बरस?

“कितनी उम्र है तुम्हारी?” मैंने पूछा,

“बाइस” उसने कहा,

“अच्छा!” मैंने कहा,

“हाँ” वो बोली,

“वो तुम्हारे बाबा खेड़ंग तो कुछ नहीं कहेंगे तुम्हे?” मैंने पूछा,

“क्यों कहेंगे?” उसने पूछा,

“नहीं..मुझे लगा ऐसा!” मैंने कहा,

“नहीं कहेगे” वो बोली,

और फिर से एक गिलास और भर दिया,

इस बार ज़रा भारी सा!


   
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श्रीशः उपदंडक
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वो उसको भी गटक गयी!

“काजल कहाँ है?” मैंने पूछा,

“कमरे में अपने” वो बोली,

और तभी फिर से बिजली कड़की!

चकाचौंध हो गया कमरा!

डर सी गयी वो!

कानों पर हाथ रख लिया!

“किसी क्रिया में बैठी हो?” मैंने पूछा,

“हाँ, कई बार!” वो बोली,

इसका अर्थ!

वो अभ्यस्त थी!

और अब पता चलने लगा,

कि पूजा और काजल में क्या अंतर है!

“और काजल?” मैंने पूछा,

“वो पहली बार आयी है” वो बोली,

“तुम लायीं उसको?” मैंने पूछा,

“हाँ” वो बोली,

“किसलिए?” मैंने पूछा,

“आप जानते हो!” वो बोली,

वो तो ज़रूरत से ज़यादा होशियार थी!

कहीं ज्य़ादा!

जितना मैंने समझा था,


   
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