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Live Accounts Of A Doctor, A Physician, Ms Sneha 2015

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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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Topic starter  

मैं नीचे चला आया, और शहरयार जी को सब बता दिया, उनसे, हमारे आगे के क़दम के बारे में नवोदित से बात करने के लिए कह कर, इत्तिला दी गयी, उन्हें कोई ऐतराज़ नहीं था! करीब बीस मिनट के बाद, वो स्नेहा भी नीचे आ गयी, शहरयार जी से नमस्ते हुई, और हम स्नेहा को आगे बिठा, चल दिए, रास्ता उसे ही पता था, सड़क पर भीड़ तो थी, लेकिन ऐसा होना आजकल आम सी बात ही है! करीब पौने घंटे के बाद हम उस नर्सिंग-होम पहुंचे, नर्सिंग-होम अच्छा-खासा बना हुआ था, एक बड़ी सी होर्डिंग लगी थी उधर, अंदर गए हम और सीधा रिसेप्शन पर जा पहुंचे!  रिसेप्शनिस्ट को कहा कि अमुक तारीख की एंट्री दिखाए, उसने दो रजिस्टर निकाले, फिर दोनों ही पढ़ कर, एक स्नेहा के हाथ में दे दिया, स्नेहा ने अब वही तारीख खोजी, तमाम एंट्री निकलती चली गयीं, सात बजे, साढ़े साथ, आठ आदि आदि, बारह बजे तक कोई एंट्री हमारे वाली नहीं दिखी, उसने दिमाग़ पर ज़ोर लगाया, और फिर अगला पृष्ठ पलटा, उस पर उंगली थिरक चली! नहीं! कोई एंट्री नहीं थी उस में! उस रात, रात ग्यारह के बाद न तो एम्बुलेंस ही कहीं गयी थी, और न ही कोई डॉक्टर ही किसी विजिट पर गया था! मैंने वो रजिस्टर देखा, एक एंट्री दिख तो रही थी, लेकिन उसमे कुछ ज़्यादा नहीं था, उसे ओमिशन में डाल दिया गया था, अर्थात 'एक्शन नॉट टेकन' वाले भाग में!
उसने मेरे हाथ से रिजिस्टर लिया और फिर से जांच की, और एक जगह रुक गयी, उसने रजिस्टर बंद कर, उस रिसेप्शनिस्ट को दे दिया, स्नेहा की जान-पहचान थी, इसीलिए सब आराम से निबट गया था!
"डॉक्टर मंजू हैं?" पूछा उसने,
"कमरा नंबर दो सौ बारह में" बोली वो लड़की,
और दौड़ पड़ी वो! हम भी साथ ही चल पड़े, ये कमरा दूसरे तल पर था, सीढ़ियां चढ़ते चले गए! आ गया वो कमरा, वहां से एक स्लोप-वे बना हुआ था, ये शायद नीचे पार्किंग तक चला जाता था, शायद!
"आप आइये!" बोली मुझ से,
"हां!" कहा मैंने,
शहरयार जी बाहर ही खड़े रहे, और मैं, स्नेहा कमरे के अंदर चले गयें, एक केबिन था, वहीं जा घुसी वो, मैं बाहर रहा, मुझे अंदर बुला लिया, मंजू, स्त्री-रोग विशेषज्ञ थीं, प्रसूता विभाग की! अब स्नेहा ने सीधे ही बातें शुरू कीं, वे जानती थीं एक-दूसरे को, तो कोई विशेष समस्या नहीं हुई!
"आपको, इस तारीख पर कहीं होम-विजिट पर भेजा गया था?" पूछा उसने,
"हां, खबर मिली थी, आपने ही कॉल की थी!" बोली वो,
"आप गयी थीं वहां?" पूछा उसने,
"हां?" बोली वो,
"क्या हुआ था?'' पूछा उसने,
"वहां इस पते पर कोई नहीं था! हमने दो बार आपके यहां कॉल भी की थी, बताने को, तब हम वापिस हो गए थे!" बोली वो,
"कोई नहीं था? उस पते पर?'' चौंकी वो,
"हां, कोई नहीं था वहां, और वो घर तो लगता ही नहीं?" बोली वो,
"क्या कह रही हो आप?" बोली स्नेहा!
"आप खुद जा कर देख लो?" बोली वो,
"उस घर में कोई नहीं मिला या घर ही नहीं मिला?" मैंने पूछा,
"न कोई मिला ही और न वो घर, उस पते पर कोई नहीं रहता, वो तो खाली, कबाड़ सा पड़ा है, शायद पता गलत मिला था हमें, या कोई चूक हुई थी!" बोली वो,
"आओ स्नेहा!" कहा मैंने,
वो तो ऐसी, जैसे अभी गिर पड़ेगी! चेहरे पर अजीब से हाव-भाव थे! धीरे हुई, मैंने सहारा दिया और इस तरह हम बाहर आ गए!
"आओ!" बोले वो,
"बैठो!" कहा मैंने,
और स्नेहा को बिठा दिया! वो बैठ गयी!
"पानी?" पूछा मैंने,
"नहीं" उसने धीरे से कहा,
"शायद कोई चूक हुई सुनने में?" कहा मैंने,
"हां" बोली वो,
"आपने कुछ और ही बताया हो, इन्होने जल्दबाजी में कुछ और ही सुना हो?" बोला मैं,
"हां" बोली वो,
मैं उसे ढांढस बंधा रहा था!
"तो क्या कहती हो?" पूछा मैंने,
"क्या?' बोली वो,
"हम चलें?' बोला मैं,
"रोज़ी के घर?" बोली वो,
"हां?" कहा मैंने,
"हां! चलो!" बोली वो,
गाड़ी स्टार्ट हुई और हम चले!
''इंसान हैं! चूक हो जाती है!" कहा मैंने,
"सही कहा जी!" बोले शहरयार!
"इन्होने कहा कुछ और होगा, और सुना कुछ और होगा?'' कहा मैंने,
"बिलकुल!" बोले वो,
"क्यों स्नेहा?" पूछा मैंने,
"पता नहीं!" बाहर देखते हुए बोली वो,
मैं मसुकुरा गया उसको देख कर!
"एक बात कहूं?" कहा मैंने,
"हां?' बोली वो,
"याद है?" कहा मैंने,
"क्या?" बोली वो,
"यही कि आपने रोज़ी से पूछा था कि रात को डॉक्टर आये?" बोला मैं,
"हां?............ह......??" चौंक पड़ी वो!
"याद है?" कहा मैंने,
वो कुछ न बोल सकी! बर्फ सी जम गयी!
"तभी तो आपको वहां से इक्कीस हज़ार रूपये मिले थे!" कहा मैंने,
उसने आंखें कीं बंद तभी! सर पकड़ लिया और............!!!


   
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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
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Topic starter  

"स्नेहा?" कहा मैंने,
वो कुछ न बोली, मैंने पीछे नज़र घुमाई अपनी, सर नीचे किये बैठी थी, मन में न जाने क्या क्या उमड़-घुमड़ रहा था उसके, और उमड़ता भी क्यों न, जब हालात इस तरह के हों और उन से बनी इमारत की जड़ें और बुनियाद के सवालात सामने हों तब तो कोई भी, मन से पक्का भी, सोचा का पक्का भी पल भर को ही सही, गच्चा खा ही जाए!
"मुझे घर जाना है!" बोली वो,
"घर किसलिए?" पूछा मैंने,
"मुझे घर ही जाना है" बोली वो,
"ठीक है, आराम आकर लें, तब तक, नवोदित भी आ ही जाएंगे!" कहा मैंने,
"हाना, घर जाना है!" बोली वो,
"शहरयार जी, चलो!" कहा मैंने,
"चलिए जी!" बोले वो,
और इस तरह से हम एक बार फिर घर पर आ गए, मैं नीचे ही बैठ गया,  उनके साथ, कुछ आधे या एक घंटे में नवोदित भी आने ही वाले थे, मैंने आज पहले ही उन्हें आने को कहा था, आज ये मामला, ख़तम हो जाता, कम से काम मेरी तरफ से तो! 
तभी, ऊपर के कमरे से मुझे कुछ खटपट की सी आवाज़ सुनाई दी, मैं दौड़ पड़ा ऊपर के लिए अंदर देखा, तो सोफे पर बैठी हुई स्नेहा, रो रही थी! जो सामने होता या आया, गुस्से में फेंक मारा सामने! मुझे देखा और पत्थरजान से बन मुझे बुलाया! मैं चला गया!
"मुझे बताओ?" बोली वो,
"क्या?'' पूछा मैंने,
"कहां क्या गलत है इधर?'' बोली वो, उसे लगता था कि जब से मैंने तस्वीर देखी है, मेरा व्यवहार ही बदल गया है, और ये कि, जैसे मैं उसे, एक अपराधबोध से ग्रसित महिला की तरह से देख रहा होऊं!
"किधर?" पूछा मैंने,
"इस तस्वीर में?" बोली वो,
ये टैब था वही! शायद उसी तस्वीर में उलझी थी वो!
"इसमें?" बोला मैं,
"हां!" बोली वो,
"बताता हूं स्नेहा, अब गौर से सुनना!" कहा मैंने,
"बोलो?" बोली वो,
"ये गुलमोहर का पेड़ है!" कहा मैंने,
उसे देखा, वो शांत सी दिखी!
"आपके अनुसार, आप उधर, जब ये तस्वीर ली तब दिसंबर का महीना था, कड़कड़ाती ठंड! है या नहीं?" बोला मैं,
"हां?" बोली वो,
"और अब ये देखो! खिला हुआ, बाकायदा फूलों से युक्त है ये पेड़! इसका मतलब? या तो ये तस्वीर गलत है या फिर आपका ये कहना कि ये तस्वीर आपने ली है! गुलमोहर का पेड़, दिसंबर में पत्ते उतार कर रखता है, फरवरी मध्य तक उसमे नए पत्ते आते हैं! इस तस्वीर के अनुसार तो उस समय का मौसम मई-जून का होना चाहिए?" कहा मैंने,
वप अवाक ही रह गयी! तस्वीर को कई बार देखा, मैंने तो सच ही कहा था, कोई लाग-लपेट ही नहीं की थी!
"आप कुछ खा-पी लें! फिर ले चलता हूं आपको!" कहा मैंने,
"कहां?" बोली वो,
"नव आने वाली ही होंगे!" कहा मैंने,
''आपने बुलाया?" पूछा उसने,
"आप बेहद भावुक हैं, इसीलिए!" कहा मैंने,
उसने फिर से तस्वीर देखी, हां, इस बार, सवालिया नज़र से ही!
"मैं नीचे जा रहा हूं!" कहा मैंने,
पौने घंटे बाद!
"ये है पता!" कहा मैंने,
"तो उनके आगे ही रखें?" बोले वो,
"हां!" कहा मैंने,
अब हमारे सामने, एक बड़ी सी गाड़ी दौड़े जा रही थी, ये नव साहब की थी, और पीछे, हमारी गाड़ी उसके पीछे लगी थी! मंज़िल थी, रोज़ी का वो घर! 
करीब, सवा घंटे के बाद हमने एक जगह प्रवेश किया, ये शुरू में काफी पॉश सा क्षेत्र लगता था, नयी बसावट हो रही थी शायद, प्लॉट बड़े बड़े कट रहे थे, एडवरटाइजिंग के बोर्ड्स ही बोर्ड्स लगे थे!
"ये मुड़े वो दाएं!" कहा मैंने,
"वहीं!" बोले वो,
और वे अब सामने धीमे हुए! और फिर बाएं!
"बाएं चलो!" कहा मैंने,
"हां!" कहा उन्होंने,
"ये रही वो चारदीवारी!" कहा मैंने,
"ठीक!" बोले वो,
"और वो रही वो फैक्ट्री!" कहा मैंने,
"हां, और ये चले बाएं!" बोले वो,
"शायद रास्ता खराब है! नहीं, बचे हैं शायद गड्ढे से!" बोले वो,
"हां, यहां कुछ मकान हैं!" कहा मैंने,
"हां! यहीं आयी होगी!" कहा उन्होंने,
"रुको! वे रुक गए! आप नहीं जाना! उसे, उतरने दो पहले! जता देखूं उसे! जगह यही है शायद!" कहा मैंने,
"हां, ये....उतर आयी स्नेहा!" बोले वो,
"हां, अब चलो धीरे धीरे!" कहा मैंने,


   
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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 8 months ago
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Topic starter  

हम भी पहुंचे धीरे धीरे उधर! मैंने अपनी नज़र सिर्फ स्नेहा पर ही रखी! वो तो टूट ही गयी थी, इस बार उसके बदन के साथ साथ, उसकी आंखों, हाव-भाव, पत्थर सी बन, ठीक सामने देखे जा रही थी, मैंने भी तब उधर देखा, वो एक बड़ा सा प्लॉट था, ठीक सामने साठ फ़ीट की सड़क और यूकेलिप्टस के बड़े बड़े से पेड़! अंदर उसके, उस प्लॉट के, गुलमोहर के बड़े बड़े से पेड़!
मैं जानता था कि स्नेहा पर क्या गुजरी होगी! लेकिन इस वक़्त, इस ज़हरबाद को नहीं मिटाया गया तो ये नासूर बन रिसता ही रहता! तो मैं, स्नेहा के पास चला आया!
"स्नेहा, देखो, इस पर लिखा है, इधर, ये तो बोर्ड लगा है, 'प्रॉपर्टी कंसल्टेंट्स', मुझे तो कोई घर नहीं लगता, अंदर जो है, वो भी सिर्फ कबाड़ ही, हां, पता यही है!" कहा मैंने,
स्नेहा की रुलाई फूटी! यादों की इमारत जो, आंसुओं से सींची गयी थी, पल भर में ही ख़ाक़ में तब्दील हो गयी! अब रुलाई में आवाज़ नहीं थी! इसका मतलब, आवाज़ दब गयी थी हलक़ में ही! 
नवोदित जी, हैरान परेशान! कुछ समझ आये और कुछ नहीं!
"नव साहब! इन्हें फौरन ही या तो घर ले जाइये या अपने ही नर्सिंग-होम, आशा करता हूं सब ठीक रहे! अब इस कहानी में, स्नेहा का किरदार और आपका भी, ख़तम! अब हमारा अहम् किरदार बचा है! आप अभी ले जाइये इन्हें!" कहा मैंने,
समझदार को इशारा बहुत! कोई खेल ही न बने, वो फौरन ही स्नेहा को मना, ले गए! अब मैंने सुकून की सांस भरी!
"जैसा मुझे शुबहा था, ठीक वही हुआ!" कहा मैंने,
"जी!" बोले वो,
"यही वो जगह है शहरयार जी, जहां से उस रात, स्नेहा के नर्सिंग-होम में कॉल आयी थी! और एक प्रीत पल गयी थी! एक प्रीत मनुष्य की, स्नेहा की और एक......शायद अभी जानना बाकी है!" कहा मैंने,
"कहें?" बोले वो,
"इस बोर्ड पर लिखा पता नोट कर लो! हम चल रहे हैं!" कहा मैंने,
"अभी!" बोले वो,
ये पता, दिल्ली में शालीमार बाग़ का था, तो हम वहीं के लिए चल पड़े! आखिर में, उस जगह से संबंधित कुछ जानकारी हाथ लगी! वो मकान, फरीदाबाद में रहने वाले किसी गौड़ परिवार की मिल्कियत था, और उन्होंने ही इसका ग्राहक लगवाया था, ये वर्ष दो हज़ार चौदह, सितंबर की बात है, इसमें कौन रहता था, ये नहीं पता चल सका! इसका पता, फरीदाबाद जा कर ही पता चल सकता था!
उसी शाम हम फरीदाबाद पहुंचे! कुछ परशानी अवश्य ही हुई उस परिवार तक पहुंचने में, परन्तु हमें जो मिले, जिन्होंने मदद की, वो विक्की के बड़े भाई ही थे! पहले पहल तो उन्हें हैरानी हुई कि हम उन्हें कैसे जानते हैं, खैर, हमने ज़ाहिर नहीं होने दिया, लेकिन जो जानना चाहा था वो सब जान लिया!
वर्ष २०१४ के जून में, रोज़ी सवा सात महीने के गर्भ से होगी, वे चार लोग, रोज़ी, विक्की, नैंसी और वो गार्ड, दिल्ली की तरफ वापिस आ रहे थे, अम्बाला सा, अम्बाला में कोई पारिवारिक उपलक्ष था, दिल्ली आते समय, उसी हाईवे पर, राई नामक जगह से छह किलोमीटर पहले, उनकी लांसर गाड़ी को, एक बेकाबू ट्रक ने टक्कर मार दी, टक्कर इतनी ज़बरदस्त थी, कि वे चिल्ला भी न सके, एक दूसरे को देखने की बात तो दूर...........ये अंत था, उन चारों का, उस रात...
अब सवाल ये, कि क्यों वो कॉल उधर आयी? क्यों स्नेहा ही चुनी गयी? क्यों वो इक्कीस हज़ार और क्यों ये सब? क्या रोज़ी को पता नहीं था कि स्नेहा के ऊपर क्या बीतेगी?
कॉल उधर क्यों आयी? इसका चुनाव अवश्य ही विक्की ने किया होगा, वो ही ऐसा प्रेत था जो वहां से बाहर आ जा रहा था!
स्नेहा क्यों चुनी गयी? स्नेहा का व्यवहार, उसका इस संसार के प्रति, मनुष्यों और अपने मरीज़ों के प्रति व्यवहार देखा गया होगा! वो सीधी, सच्ची एवं छल-कपट से दूर थी!
इक्कीस हज़ार? वो सब, इसलिए कि जो भी खर्चा हुआ हो या होगा, ये उसी की एवज थी, यदि स्नेहा ने वो रूपये स्वीकार नहीं किये होते, तब ये किस्सा कुछ अलग ही रूप लेता!
क्या बीतेगी स्नेहा पर? ये जानती थी रोज़ी! उनके बीच क्या बात हुई, मैं कभी न जान सकूंगा, मैं सिर्फ परिस्थितियों के बुने जाल को सुलझाने में, अपनी अक़्ल से कितना सफल रहा, ये भी नहीं कह सकता! उस रात, जब वो आयी थी, मिले आखिरी बार, बाहर सड़क पर, तब यही तो बताया था उसने! जो मुझे स्नेहा ने कभी नहीं बताया और इसी कारण से वो घुलती रही! एक दुविधा ने घर बना लिया और वो, उसकी वासी हो गयी! तब उस रात वो गार्ड कहां था? शायद, गार्ड उस समय वहां नहीं रहा होगा, ये समय का ताना-बाना है, वो या तो बाद में आया होगा, या सीधा ही पहुंचा होगा अम्बाला या फिर कुछ और भी सम्भव है! 
और अब वर्तमान?
अब मैं मात्र दो बार स्नेहा से मिल पाया, पहले जब वो दाखिल थी नर्सिंग-होम में, टूटी हुई सी, लेकिन वो, रिकवर कर रही थी अपने आपको! मैं खुश था! मनुष्य व्है जो समझ कर आगे बढ़ता जाए!
और दूसरी बार तब, जब स्नेहा को बिटिया हुई! इस दावत में मैं शरीक था, बस एक बार ही मिल सका!
अब जो था, वो हो गया!
क्या रोज़ी लौटेगी? क्या ये सम्भव है?
दोनों के उत्तर भविष्य की गोद में हैं! खैर, अब सबसे अहम् और बड़ा सवाल! कि वे लौटे क्यों? जवाब है, अपनी संतान को जन्म देने के लिए ही! बस, इसीलिए ये सब ताना-बाना बुना गया!

घंटी तो अब भी बजती है रात को नर्सिंग-होम की, चौंक तो जाती है, लेकिन मुस्कुरा भी जाती है!
साधुवाद!


   
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