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Live Accounts Of A Doctor, A Physician, Ms Sneha 2015

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श्रीशः उपदंडक
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लाइव अकाउंट, स्नेहा -३ 
................................
आज बुधवार था, मैंने कुछ सवालात तैय्यार किये थे, इनका माक़ूल जवाब मिल जाना चाहिए था, मिला जाता तो ये मामला जल्द से जल्द सुलझ सकता था, नहीं तो मेहनत तो थी ही!
वो ही कमरा, मैं कुर्सी पर बैठा हूं, स्नेहा, उधर के सोफे की दूसरी सीट पर बैठी है, सामने एक स्टूल रखा है, ये काफी बड़ा है और इसकी चमक बड़ी ही ख़ास है, लाल रंग की सी चमक, जो अपनी ओर ध्यान खींच लेती है! आज स्नेहा ने लाल रंग की अच्छी, सूती साड़ी पहनी है, उस पर हरे रंग के टांके से लगे हैं, गोटा चमकदार और चौड़ा है! लाल रंग का, आधी कोहनी तक आता ब्लाउज जो कुछ चिपका सा ज़्यादा है! ब्लाउज ऊपर गले तक न दिखने वाले बटनों से बंद है!
"कैसे हो?" पूछा मैंने,
"ठीक!" बोली वो,
"आज कुछ खुश सी हो!" कहा मैंने,
"हमेशा होती हूं!" बोली वो,
"उस रोज तो नहीं देखा?" कहा मैंने,
"ये आपका क़ुसूर!" बोली वो,
"हो सकता है!" कहा मैंने,
"आज मेरा चेहरा जो देख रहे हो!" बोली वो,
"और उस दिन?" पूछा मैंने,
"चेहरे के अलावा सब!" बोली वो,
"क्या सब?" पूछा मैंने,
"मेरा वो हाथ?" बोली वो,
चौंकने की वजह थी, चौंक पड़ा मैं! उसे कैसे पता?
"कुछ ओर?'' पूछा मैंने,
"हां!" बोली वो,
"क्या?'' पूछा मैंने,
"कमरे को!" बोली वो,
"कमरे में क्या?" पूछा मैंने,
"सब!" बोली वो,
"हां, सही कहा!" कहा मैंने,
"हां तो स्नेहा, वो इक्कीस हज़ार रूपये, वो विक्की का कॉल आना, आपकी बात होना, यहीं तक बताया आपने!" कहा मैंने,
"हां!" बोली वो,
"अब आगे बताओ!" पूछा मैंने,
"आप पूछो?" बोली वो,
"उम्मीद है, जवाब मिलेंगे!" कहा मैंने,
"क्यों नहीं मिलेंगे?'' पूछा उसने,
"तब नहीं मिले थे!" कहा मैंने,
"कब?" बोली वो,
"चलो जाने दो! पूछूं?" कहा मैंने,
"हां!" बोली वो,
"तो तुम उस दिन के बाद, फिर कभी मिलीं रोज़ी से?" पूछा मैंने,
"हां!" बोली वो,
"कब?" पूछा मैंने,
"पहली मुलाक़ात के दस दिन बाद!" बोली वो,
"ये नहीं बताया था?" पूछा मैंने,
"पूछा नहीं था!" बोली वो,
"ठीक! तो दस दिन बाद!" कहा मैंने,
"हां!" बोली वो,
"दूसरी मुलाक़ात कब हुई?'' पूछा मैंने,
"अरे? दस दिन बाद?'' बोली वो,
"हां! ठीक! दस दिन के बाद दूसरी मुलाक़ात हुई! कितने बजे?'' पूछा मैंने,
''वो ही, सुबह!" बोली वो,
"साढ़े-छह सात?" बोला मैं,
"हां!" कहा उसने,
"खुद गयीं या बुलाया था?' पूछा मैंने,
"बुलाया था!" बोली वो,
"रोज़ी ने?'' पूछा मैंने,
"बिलकुल!" कहा उसने,
"अब ज़रा तफ़सील से बताओ, क्या हुआ था!" पूछा मैंने,
"मैं करीब सात बजे पहुंची! गार्ड मिला, दरवाज़ा खोला, उसने नमस्ते की! मैंने देखा कि एक सफेद गाड़ी वहां नहीं है! बोली वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"नैंसी मुझे वहीं मिल गयी नीचे!" बोली वो,
"वहीं थी या, आयी थी नीचे?" पूछा मैंने,
"वहीं थी!" बोली वो,
''क्या उसको पता था आपके आने का?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोली वो,
"अच्छा! ठीक! फिर?'' पूछा मैंने,


   
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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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"तो आप फिर ऊपर चलीं, मिलने रोज़ी से!" कहा मैंने,
"हां, नैंसी मेरे साथ ही चली!" बोली वो,
"आप ऊपर आये, नैंसी ने दरवाज़ा खोला होगा, पहले आप अंदर गए होंगे, फिर वो नैंसी?" कहा मैंने,
"हां, ठीक ऐसे ही!" कहा मैंने,
"तब आप, आगे चले नहीं, इस बार नैंसी आगे चली!" कहा मैंने,
"इसका मतलब ये हुआ, कि रोज़ी इस बार उस कमरे में नहीं थी जहां आप पहले मिले थे उस से!" कहा मैंने,
उसने मुझे अजीब सी निगाह से देखा, चुप ही रही! लेकिन भावों में कोई ख़ास बदलाव नहीं आये!
"जवाब दीजिये?'' कहा मैंने,
"हां, उस कमरे में नहीं थी!" बोली वो,
"अब बताइये, कहां थी?'' पूछा मैंने,
"उस पहले वाले कमरे के साथ वाले कमरे में!" बोली वो,
"अच्छा, फिर?" कहा मैंने,
"हमारे कदमों की आवाज़ हो ही रही थी, मैंने बैली पहन रखी थीं और उनसे चलने में आवाज़ होती थी!" बोली वो,
"इसका मतलब रोज़ी खुद उस कमरे के दरवाज़े तक आयी!" कहा मैंने,
"हां!" बोली वो,
"ठीक, बताइये फिर क्या हुआ?" पूछा मैंने,
वो चुप हुई, फिर खड़ी हो गयी! और..........
(वो दृश्य)
"अरे? आप?" बोली रोज़ी,
रोज़ी के चेहरे पर आश्चर्य था! और आंखों में, बेहद ही अपनापन! जैसे कोई अपना खास, आ गया हो मिलने! जिसे देख बांछें खिल गयी हों! रोज़ी धीरे से आगे बढ़ी, अपने दोनों हाथ खोले और स्नेहा को गले से लगा, भींच लिया! चूंकि रोज़ी का पेट उभरा हुआ था, ये महसूस किया था स्नेहा ने, लेकिन उस से गले लगना, उसे सुकून की बारिश में भिगो सा चला गया था!
"हां! कैसे हो आप?" पूछा स्नेहा ने!
"बहुत अच्छी! अब तो और अच्छी!" बोली रोज़ी!
दोनों एक दूसरे को देख, मुस्कुरा पड़ी थीं!
"आओ, बैठो स्नेहा!" बोली रोज़ी!
स्नेहा मुस्कुरा ही रही थी! बैठते हुए उसने नज़रें न हटायीं रोज़ी से!
"बहुत अच्छा लगा आपने मुझे मेरे नाम से पुकारा!" बोली स्नेहा!
"आप भी बैठो न?" बोली स्नेहा,
"हां, अभी!" बोली वो,
और बैठ गयी, अपनी कुर्सी पर!
"स्नेहा?" बोली रोज़ी,
"हां?" बोली वो,
"क्या लोगी बताओ?" बोली वो,
"पानी!" बोली स्नेहा!
"नैंसी?" आवाज़ दी उसने,
नैंसी दौड़ी दौड़ी आयी!
"दीदी के लिए पानी लाओ और कुछ बना लो?" बोली रोज़ी!
"बना ही रही हूँ दीदी के लिए, कॉफ़ी!" बोली नैंसी!
"ये लड़की बहुत ख्याल रखती है!" बोली रोज़ी,
"बहुत प्यारी बच्ची है!" बोली स्नेहा!
"और घर में सब ठीक है स्नेहा?" पूछा रोज़ी ने,
"हां! सब ठीक! आप बताइये!" बोली स्नेहा,
"सब ठीक! वो विक्की भी आपकी बहुत तारीफ़ कर रहे थे, कह रहे थे कि स्नेहा बहुत अच्छी दोस्त बन गयी हैं आपकी, उनकी पसंद-नापसंद का ख्याल रखना!" बोली वो,
"सच में क्या! मुझ से बातें हुई थीं उनकी!" बोली स्नेहा,
"हां, बता रहे थे!" बोली वो,
"घर पर हैं क्या? कहीं मैं गलत समय पर तो नहीं आ गयी?'' पूछा स्नेहा ने,
"नहीं स्नेहा! विक्की तो रात को ही निकले हैं बाहर, दो दिन बाद आएंगे! और समय? स्नेहा, आप कभी भी आइये, मुझे तो ख़ुशी ही होगी!" बोली रोज़ी!
"रोज़ी?" बोली स्नेहा,
"हां?" बोली वो,
"क्या कोई जादू जानते हो आप?" पूछा स्नेहा ने,
"जादू?" बोली रोज़ी,
"हां, जादू?" बोली स्नेहा,
"नहीं तो?" बोली रोज़ी,
तभी नैंसी कॉफ़ी ले आयी! इस बार भी वही क्राकरी और वो ही नारियल-कुकीज़!
"ये लो!" बोली रोज़ी!
"आप भी!" बोली स्नेहा,
"हां, कैसा जादू?" पूछा रोज़ी ने,
"आप से उस दिन मिली, मिल कर गयी! बस! तब से दिमाग में रोज़ी ही रोज़ी! रोज़ी ही रोज़ी!" बोली स्नेहा, उंगली घुमाते हुए!
"हुए यहां भी! मेरे साथ भी! स्नेहा ही स्नेहा!" बोली रोज़ी!
"आप बहुत अच्छी हैं रोज़ी!" बोली स्नेहा,
"और आप भी बहुत अच्छी हैं स्नेहा!" बोली रोज़ी!
दोनों, खिलखिला कर हंस पड़ीं!


   
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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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"एक बात कहूं स्नेहा?" बोली रोज़ी
"हां! आपको पूछने की ज़रूरत ही नहीं!" बोली स्नेहा!
"मेरा भी यही हाल है!" बोली वो,
"क्या?" पूछा स्नेहा ने,
"उस दिन के बाद से, मैं आपको न तो मन से ही निकाल सकी, न दिल से ही और न ख्यालों से ही, और न ही भूल ही सकी!" बोली रोज़ी!
जिस लहज़े से रोज़ी ने ये शब्द कहे थे, वे शब्द, जैसे चम्पा के फूलों की उभरी कांचल पंखुड़ी से लगे थे स्नेहा को! न जाने ऐसा क्या था! वो ज़िंदगी भर शब्दों से ही घिरी रही थी, पढ़ाई, और फिर उसका डॉक्टर का पेशा, लेकिन ऐसे शब्द भी होते हैं जिसने अंदर का रोम रोम ही बिफर जाए, बिन आवाज़ के कांच टूट जाए, ऐसे शब्द न सुने थे स्नेहा ने! उस पल, स्नेहा से रहा न गया! रहा? न गया! रहा न गया मतलब? मतलब स्नेहा के दिल की बात जो वो कह न सकी थी, खुल कर रोज़ी ने कह दी थी, जैसे, वो स्नेहा, खुद ही कहना चाहती हो, लेकिन, हिचकिचा रही हो!
"ओह रोज़ी!" बोली स्नेहा और अपनी कुर्सी से उठ, उस सोफे पर आ बैठी जहां रोज़ी बैठी थी, अपनी बाहों में जकड़ लिया रोज़ी को उसने! और रोज़ी के नाख़ून, स्नेहा की कमर पर जकड़ते चले गए!
मित्रगण! अब मैं क्या कहूं? इसे क्या नाम दूं? कैसे पारिभाषित करूं? क्या ये स्नेह है? या फिर प्रेम? या फिर प्रेम ही, तब, कैसा प्रेम?
"मुझे तुमसे लगाव हो गया है स्नेहा!" कहते हुए, आंसू निकल पड़े रोज़ी के!
"ओह! रोज़ी! रोज़ी!" बोली स्नेहा और उसकी आंखें भी गीली जो गयीं!
अब क्या कहूं मैं? बंधन टूट गए? नहीं! ये कहना तो ठीक नहीं! कोई बंध बंधने लगा? हां! ये कुछ जंचता है! हां, एक अजीब सा बंधन, बंधने लगा उन दोनों के बीच! बहुत देर तक ऐसे ही रहते हुए, अलग हुआ, रोज़ी की गरदन पर मुड़े कॉलर को, स्नेहा ने ठीक किया! स्नेहा ठीक करती रही, और रोज़ी उसे ही देखती रही!
अब वो ज़िक्र, जो मैंने नवोदित से मिलने पर पूछा था!
उस शाम, मैं, शहरयार और रवीश जी मिले थे, जगह थी, रवीश जी का घर, यहां खाने-पीने का इंतज़ाम कर कर रखा गया था! तो हम चारों ही बैठे थे, साथ में एक बड़ी ही करिश्माई चीज़ खाने में थी! ये थी, मक्की के उबले दाने, जिन पर, खट्टी, लाल इमली की तीखी ज़ायक़े वाली चटनी डाली गयी थी! इस स्वाद का कोई सानी नहीं, कोई तोड़ नहीं और कोई विकल्प भी नहीं! ये, शहरयार जी लाये थे, एक टिफ़िन में भर कर!
"भाई साहब!" बोले रवीश जी,
"जी?" बोले वो,
"एक कट्टा मंगवा देता हूं, घर पर रखो!" बोले वो,
"अरे हुक्म करो आप बस!" कहा शहरयार ने,
"ये कहां से बनाना सीखा?" पूछा उन्होंने,
"घर में बनता ही रहता है!" बोले वो,
"भाई लाजवाब!" बोले वो,
"कूकड़ी उबली, कहते हैं इसे!" बोले वो,
"जैसा नाम वैसा स्वाद!" बोले नवोदित जी!
बातें होती रहीं और इसी बीच....
"कुछ हाथ आया?" बोले नवोदित,
"अभी तो नहीं, उम्मीद है!" कहा मैंने,
"अच्छा! कुछ बताना चाहूंगा!" बोले वो,
"क्या?" पूछा मैंने,
"आठ महीने से स्नेहा, अपने आप में नहीं, आप जान गए होंगे?" बोले वो,
"हां, जान गया हूं!" कहा मैंने,
"वो जिस घटना की बात करती है, उसे करीब साल भर हुआ, मतलब, आठ महीने ये और चार महीने पहले के और!" बोले वो,
"अच्छा, समझा!" कहा मैंने,
"तो मैं बता रहा हूं कि उसका जहां व्यवहार बदला वहीं वो, मुझ से कतराने भी लगी!" बोले वो,
"मतलब, खुल कर बताइये?" कहा मैंने,
"पहले वो, बेड-टाइम में एक्टिव थी, या कहूं कि सुपर-एक्टिव थी, रेस्पॉन्सिव थी, लेकिन साल भर से, वो 'कोल्डनैस' का शिकार सी हो गयी!" बोले वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"कब से?'' बोले शहरयार जी,
"साल भर मान लो!" बोले वो,
"अचानक ही?" पूछा मैंने,
"हां, कह सकते हैं!" बोले वो,
"मतलब उन्होंने रिस्पांस करना बंद कर दिया?" पूछा मैंने,
"हां!" बोले वो,
"ये बदलाव आया!" बोले रवीश जी!
"तो आप तो डॉक्टर हैं, खुल के बात की?" पूछा मैंने,
"हां, कई बार!" बोले वो,
"क्या रहा?'' पूछा मैंने,
"उसने बोला, उसका मन नहीं, मूड नहीं होता, हमेशा यही? आदि आदि और फिर, गुस्सा, वही मर्द की ये और वो, हवस आदि आदि!" बोले वो,
"ओहो! समझ गया!" कहा मैंने,
ये बहुत ही बड़ा बदलाव था! इसे दरकिनार नहीं किया जा सकता था, इसको आधार बना कर मैं उस से सवाल दाग़ सकता था!
"पहले तो वो खुद ही कई बार कहती थी, मैं ही मना कर देता!" बोले वो,
"समझ रहा हूं!" कहा मैंने,


   
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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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"वैसे आप एक डॉक्टर हैं, कुछ दवाएं भी दे सकते थे?'' पूछा मैंने,
"दी थीं!" बोले वो,
"तब?" पूछा मैंने,
"लगता था कि जैसे उन दवाओं का कोई भी असर नहीं हो रहा था उसके ऊपर!" बोले वो,
"चलिए, छोड़िये सब!" कहा मैंने,
"जी?" बोले वो,
"आपने ये निर्णय कैसे लिया कि उनको मानसिक-इलाज चाहिए?'' पूछा मैंने,
"उसका व्यवहार बदल रहा था!" बोले वो,
"किसी का भी बदल सकता है?" कहा मैंने,
"लेकिन वो आक्रामक हुए जा रही थी!" बोले वो,
"आक्रामक? कैसे?'' पूछा मैंने,
ये जानना तो बेहद ही ज़रूरी था मेरे लिए!
"आक्रामक जैसे, उसे दो बार कुछ भी कहना, आफत मोल लेने जैसा था!" बोले वो,
"चिड़चिड़ापन?" पूछा मैंने,
"हां!" बोले वो,
"और कुछ?" पूछा मैंने,
"अकेले सोना!" बोली वो,
"अकेले?'' पूछा मैंने,
"हां, उसे मेरे संग सोने में अब नींद नहीं आती थी!" बोले वो,
"ओह! और?'' पूछा मैंने,
"अपने में ही खोये रहना!" बोले वो,
"मतलब जवाब नहीं देना?" कहा मैंने,
"हां!" बोले वो,
"ड्यूटी जा रही थीं?" बोला मैं,
"जब मन करता!" बोले वो,
"नियम से नहीं?" पूछा मैंने,
"नहीं!" कहा उन्होंने,
''किसी से मिलना-जुलना?" पूछा मैंने,
"सब छोड़ दिया!" बोले वो,
"समझा!" कहा मैंने,
"तब इलाज के लिए कैसे मानीं?" पूछा शहरयार जी ने,
"उसने खुद कहा!" बोले वो,
"क्या?'' पूछा मैंने चौंक कर!
"हां बोली, कि यदि मुझे लगता है कि उसे कोई दिमागी परेशानी है तो वो जांच या किसी भी इलाज के लिए तैय्यार है!" बोले वो,
"तो तब इलाज शुरू हुआ!" कहा मैंने,
"जी हां!" कहा उन्होंने,
''और डॉक्टर ने क्या कहा?" पूछा मैंने,
"पहले मूड-स्विंग!" बोले वो,
"फिर?'' बोला मैं,
"बोले कोई पुरानी याद!" बोले वो,
"फिर?" पूछा मैंने,
"कोई बुरा अनुभव!" बोले वो,
"क्या ऐसा कुछ था?'' पूछा मैंने,
"कभी नहीं!" बोले वो,
"डॉक्टर को बताया?'' पूछा मैंने,
"हां!" बोले वो,
"तब?" पूछा मैंने,
"तमाम परीक्षण!" बोले वो,
"और वे सब नॉर्मल!" कहा मैंने,
"बिलकुल!" बोले वो,
"और?" पूछा मैंने,
"तब कुछ दवाएं!" बोले वो,
"कुछ सुधार?" पूछा मैंने,
"रत्ती भर भी नहीं!" बोले वो,
"कोई ऊपरी इलाज?" पूछा मैंने,
"दो बार!" बोले वो,
"असर?'' पूछा मैंने,
"बिलकुल नहीं!" बोले वो,
"क्या बताया?" पूछा मैंने,
"सब ठीक है!" बोले वो,
"समझ गया!" कहा मैंने,
"तब आपसे सम्पर्क हुआ!" बोले वो,
"हां!" कहा मैंने,
"कुछ हो पायेगा?'' बोले वो,
"उम्मीद तो है!" कहा मैंने,
"ठीक!" बोले वो,
"रख दे!" बोले रवीश जी,
एक लड़का कुछ सामान ले आया था, खाने-पीने वाला!
"कोई ऐसी बात जो याद हो?" कहा मैंने,
"कैसी?" बोले वो,
"कुछ अलग ही?" पूछा मैंने,


   
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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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"कुछ विशेष?'' बोले वो,
"हां, कुछ अलग, या यूं समझिये, कि कुछ ऐसा जो उनकी फ़ितरत में न शुमार रहा हो!" कहा मैंने,
"हां! याद आया!" बोले वो,
"बताएं?" कहा मैंने,
"वो लाल गाउन!" बोली वो,
"गाउन?'' मैंने अचरज से पूछा,
"हां वो गाउन!" बोले वो,
"क्या ख़ास उस गाउन में?" पूछा मैंने,
"स्नेहा में एक आदत है, वो तन ओढ़कर ही रहती है, ब्लाउज हो तो बाजुओं तक, गला, खुला नहीं, स्लीवेसलैस तो कोई कपड़ा नहीं!" बोले वो,
"तो क्या वो गाउन ऐसा ही था?" पूछा मैंने,
"वो गाउन है! आज भी है उसके पास!" बोले वो,
"क्या है उस गाउन में?'' पूछा मैंने,
"वो पूरा का पूरा पारदर्शी सा है, बाजुएं तो जैसे झीनी ही हैं! बटन नहीं हैं, उसमे बाँधने के लिए बस बैंड्स ही हैं!" बोले वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"वो कब देखा था आपने?'' पूछा मैंने,
"एक रात को!" बोले वो,
"आपने पूछा?'' पूछा मैंने,
"हां!" बोले वो,
"क्या बोलीं?'' पूछा मैंने,
"कि उसे पसंद आया ले लिया!" बोले वो,
"खुद खरीदा?'' पूछा मैंने,
"नहीं बताया!" बोले वो,
"कुछ भी नहीं?" कहा मैंने,
"जी नहीं!" बोले वो,
"इसका मतलब इस तरह का कोई कपड़ा उन्होंने पहले कभी पसंद नहीं किया!" कहा मैंने,
"बिलकुल नहीं किया!" बोले वो,
"समझ गया!" कहा मैंने,
"वो अक्सर ही सूट-सलवार या कुर्ती-जींस, या कोट-जींस ही पहनती है!" बोले वो,
"आपने कभी देखा नहीं वो गाउन, जांचते हुए?'' पूछा मैंने,
"कुछ नहीं लिखा, कोई पैच नहीं!" बोले वो,
"तो एक ही है?'' पूछा मैंने,
"हां!" बोले वो,
"अक्सर पहनती हैं?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोले वो,
"कभी-कभार?" कहा मैंने,
"जी!" बोले वो,
''क्या लगता है आपको?" बोले रवीश जी!
"हो न हो, कुछ ऊपरी सा मामला है!" कहा मैंने,
"किया-कराया?" बोले वो,
"हो सकता है!" कहा मैंने,
"हो जाएगा?'' बोले वो,
"जड़ पकड़ में आये!" कहा मैंने,
लाइव अकाउंट, स्नेहा -२ : ज़ारी..
.............................................
"तो आपने कॉफ़ी पी!" कहा मैंने,
"हां!" बोली वो,
"फिर?" पूछा मैंने,
"कुछ नहीं, बस बातें!" बोली वो,
"कैसी बातें?" पूछा मैंने,
"कुछ आपस की ही!" बोली वो,
"आपस को मैं क्या समझूं?" बोला मैं,
"आप न ही पूछें!" बोली वो,
"ठीक है!" कहा मैंने,
"रोज़ी अकेली है!" बोली वो,
"अकेली?" पूछा मैंने,
"हां!" बोली वो,
"उसके हस्बैंड?" बोला मैं,
"कम ही रहते हैं!" बोली वो,
"कोई रिश्तेदार?" पूछा मैंने,
"दूर हैं!" बोली वो,
"मिलने नहीं आते?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोली वो,
"क्यों?'' पूछा मैंने,
"मुझे नहीं पता!" बोली वो,
"पूछा नहीं?" कहा मैंने,
"ज़रूरत क्या?'' पूछा उसने,
"हां, ये भी अच्छा जवाब है!" कहा मैंने,
"कारण है!" बोली वो,
"वो आप जानो!" कहा मैंने,


   
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श्रीशः उपदंडक
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''खैर! आप जानो! मैं चलूंगा अब!" कहा मैंने,
"इतनी जल्दी?'' पूछा उसने,
"जल्दी कहां?" बोला मैं,
"अभी तो आना हुआ?'' बोली वो,
"दो घंटे हो गए हैं!" कहा मैंने,
"नहीं तो?" बोली वो,
"आपको भान न होगा!" कहा मैंने,
"रुकिए तो?" बोली वो,
"क्या रूकूं?" बोला मैं,
"क्यों?' बोली वो,
"आप कुछ बताती तो हैं नहीं!" कहा मैंने,
"बता तो रही हूं?" बोली वो,
"छिपाती जा रही हैं!" कहा मैंने,
"क्या छिपाया है?'' बोली वो,
"सभी तो?'' कहा मैंने,
"मसलन?" बोली वो,
"रोज़ी और आपके बीच जो 'प्रेम' उपजा है, उसका कारण क्या हो सकता है?" पूछा मैंने,
"आपको क्या लगता है?'' बोली वो,
ये था वक़्त उसकी सोच पर हथौड़ा मारने का!
"विज्ञान में तो इसको समलैंगिक-प्रवृति कहना हुआ न?'' कहा मैंने,
"और आपको?'' बोली वो,
"मैं कौन सा अलग हूं? मैं तो डॉक्टर भी नहीं?" कहा मैंने,
"आपको क्या लगता है?'' बोली वो,
"यही?' कहा मैंने,
"कैसी सोच है आपकी? उठिये? उठिये?'' बोली गुस्से से वो,
बात! बन रही थी! जैसा मैंने सोचा था, ठीक वैसे ही!
"आपको कहने की ज़रूरत नहीं! मैं खुद ही चला जाता! आपका दिमाग आपके काबू में है ही नहीं मिस स्नेहा! अगर नवोदित साहब का ख़याल न होता तो मैं बेहद ही माक़ूल सा जवाब आपके माथे पर चस्पा कर देता!" कहा मैंने, और झट से उठ खड़ा हुआ, अपना मोबाइल उठाया और निकलने के लिए मुड़ा बाहर!
"रुको? मैंने कहा रुको?'' बोली वो,
मैं रुका नहीं, बस धीमे हो गया!
वो कमरे से बाहर आ गयी थी, फौरन दौड़ी और खिड़की को ज़ोर से खोला उसने! स्टूल पर चढ़ गयी! गुस्से से मुझे देखा, सांसें तेज होने लगी थीं उसकी!  मैं रुक गया!
"रुक जाओ! रुक जाओ यहां नहीं तो कूद जाउंगी यहीं से!" बोली वो,
"नहीं कूद सकतीं!" कहा मैंने,
उसने गुस्से से पांव मार वो स्टूल गिरा दिया एक तरफ!
"क्या जवाब? हैं? क्या जवाब?" बोली वो,
"पहले नीचे उतरो?" कहा मैंने,
"नहीं! नहीं!" बोली वो,
"तब मैं चला जाऊंगा!" बोला मैं,
"तो मैं कूद जाउंगी!" बोली वो,
"मैं नवोदित नहीं जो डर जाऊं!" कहा मैंने,
"रुक जाओ!" बोली धीरे से अब!
मैं आगे बढ़ा, उसके पास, हाथ आगे बढ़ाया, उसने हाथ दिया, मैंने कस के पकड़ लिया!
"उतर आओ अब!" कहा मैंने,
वो उतर आयी! कांपती सी!
"क्या हुआ था?' पूछा मैंने,
"पता नहीं!" बोली वो,
"अक्सर करती हो?" पूछा मैंने,
"पता नहीं!" बोली वो,
"तो ऐसा क्यों सोचती हो कि सब तुम्हारी हां में हां मिलाएं?" पूछा मैंने,
"अब बताओ स्नेहा!" कहा मैंने,
"क्या?" बोली वो,
"क्या छिपा रही हो?" बोला मैं,
"कुछ नहीं!" बोली वो,
"क्यों पीछा करती हो!" कहा मैंने,
"किसका?'' उसने मायूसी से पूछा!
"स्नेहा! मुझे जवाब मिल गया!" कहा मैंने,
"क्या?" बोली वो,
"आओ, उधर बैठो!" कहा मैंने,
और बिठा दिया उसे! खुद खड़ा ही रहा, पता नहीं कब ताव खा जाए वो और सच में कहीं कूद ही न जाए!
"रोज़ी कहां रहती है?" पूछा मैंने,
"पता नहीं!" बोली वो,
"उसके बच्चा हुआ?" पूछा मैंने,
"पता नहीं!" बोली वो,
''वो नैंसी मिली?" पूछा मैंने,
"पता नहीं!" बोली वो,
"वो गार्ड?" पूछा मैंने,
"नहीं पता! नहीं पता!" बोली वो और फकारते हुए रो पड़ी! टूटी थी या नहीं, नहीं कह सकता! उखाड़ना था, उखाड़ दिया था!
"वो घर?" पूछा मैंने,
"नहीं पता!" बोली वो,
"तुम्हें? नहीं पता?" पूछा मैंने,
"नहीं पता!" बोली वो,
"मैं बताऊं?" पूछा मैंने,
और तब वो खड़ी हो गयी! आंसू बहाते हुए, आंसू नीचे गले तक ढुलक आये और..........!!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"मुझे फूल-गोभी, राजमा-चावल बेहद पसंद हैं!" बोली वो,
"तो ये सब था!" कहा मैंने,
"हां, राजमा भी वो आता है न लाल??'' बोली वो,
"हां, छोटे वाला!" कहा मैंने,
"वो, हां!" बोली वो,
"इतनी सटीक पसंद!" कहा मैंने,
"अरे मैं तो हैरान थी!" बोली वो,
"बात ही हैरानी की है!" बोला मैं,
"तो खूब दावत हुई!" बोली वो,
"कितनी देर?" पूछा मैंने,
"करीब दो घंटे?" बोली वो,
"मतलब जनदिन अच्छे से मनाया!" कहा मैंने,
"हां!" बोली वो,
"उसकी तबीयत कैसी थी?'' पूछा मैंने,
"तब तो ठीक थी!" बोली वो,
"अच्छा! और कितने दिन रह गए थे अब, प्रसव में?" पूछा मैंने,
"करीब एक महीना या कम ही?'' बोली वो,
"कोई और नहीं होता था पास?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोली वो,
"अच्छा! मतलब वे सब तीन ही थे वहां!" कहा मैंने,
"हां!" बोली वो
"और? और पता है?" बोली वो, तपाक से!
"क्या?'' पूछा मैंने,
"उसने मुझे अपनी कुछ पुरानी तस्वीरें दिखायीं!" बोली वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"जब उसकी शादी हुई थी, तब की और कुछ पहले की भी!" बोली वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"बहुत सुंदर है! बहुत सुंदर! बहुत सुंदर है रोज़ी!" बोली वो,
"बताओ, ज़रा? कैसे?" पूछा मैंने,
"मुझ से लम्बी है, मैं पांच, पांच हूँ, वो पांच सात होगी!" बोली वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"उसके बाल, यहां तक आते हैं, घुंघराले से!" बोली वो,
"यहां तक? कमर के नीचे तक?" कहा मैंने,
"हां, सुनहरे से बाल हैं!" बोली वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"हल्की हरी सी आंखें, प्यारे से सुर्ख लाल होंठ और, जैसा आपके है न यहां पर?" बोली वो,
चिबुक पर, उसका आशय था!
"ऐसा गड्ढा है, बड़ी प्यारी लगती है हंसते हुए!" बोली वो,
एक बात! वो ठीक वैसे ही बता रही थी, जैसा उसने खुद देखा था, जैसे वो खुद उसके सामने ही खड़ी हो, उस वक़्त भी!
"और वो वेस्टर्न ऑउटफिट ही पहनती है! उसी में सुंदर लगती है, मैंने उसे एक साड़ी दी थी! उसको पहनाई! इतनी सुंदर! इतनी सुंदर कि...............नज़र ही न लगा जाए मेरी!" बोली वो,
"गोरा रंग होगा?" बोला मैं,
"बहुत गोरा! बताया था न? अंग्रेज सी लगती है!" बोली वो,
"तभी!" कहा मैंने,
"हां, अंग्रेज जैसी!" बोली वो,
"स्नेहा?" कहा मैंने,
"हां?" बोली वो,
"कुछ विशेष पूछूं?" पूछा मैंने,
"कैसा?'' बोली वो,
"कुछ पर्सनल?" बोला मैं,
"हां? पूछिए?'' बोली वो,
"आप रोज़ी से स्नेह करती हैं या फिर.....प्रेम?" पूछा मैंने,
"ये कैसा सवाल है?'' बोली वो,
"बताओ यदि गलत न लगे तो?" बोली वो,
"दोनों ही!" बोली वो,
"उसकी शख़्सियत से प्रेम करती हो या उसकी जिस्मानी खूबसूरती से?" पूछा मैंने,
थोड़ा रुकी वो, जैसे कुछ सोचा हो!
"दोनों से ही!" बोली वो,
"ज़्यादा क्या?" पूछा मैंने,
"दोनों!" कहा उसने,
"बताओ तो?'' कहा मैंने,
"उसकी जिस्मानी खूबसूरती का मुक़ाबला नहीं! और उसकी शख़्सियत का भी!" बोली वो,
"देखो, मुझे बताओ!" कहा मैंने,
उसने नज़रें नीचे कर लीं!
"मुझे कुछ भी अजीब नहीं लगेगा, न ही दोहराऊंगा!" कहा मैंने,
फिर भी चुप!
"नवोदित जी से भी नहीं कहूंगा!" कहा मैंने,
"प्रॉमिस?" बोली वो,
"हां, प्रॉमिस!" कहा मैंने,
"उसकी जिस्मानी खूबसूरती मुझे ज़्यादा आकर्षक लगती है!" बोली वो,
"इसमें कोई अजीब बात नहीं!" कहा मैंने,
"मुझे लगा कि पता नहीं क्या सोचो?" बोली वो,
"कुछ नहीं सोचा!" कहा मैंने,
"ओह!" बोली वो,
"वो अपने कैजुअल कपड़ों में अच्छी लगती है या साड़ी में?" पूछा मैंने,
"साड़ी में!" बोली वो,
अब मैं खड़ा हुआ, पानी का भरा गिलास उठाया, और पिया, एक बार को उसको देखा, जो समझना था, समझ ही लिया था, तख़्ती पर दर्ज़ हो गया था!
"अब ये बताओ स्नेहा?" कहा मैंने,
"क्या?'' बोली वो, मेरी पूरी बात सुने ही!
"अब तक के हिसाब से, न उसने ही कुछ छिपाया आपसे, न आपने ही! आप और वो, अंतरंग हो गए! मानता हूं! कोई अजीब सी बात नहीं है इसमें! अक्सर ऐसा होता है! लेकिन अब एक अहम सवाल!" पूछा मैंने,
"क...क्या?" बोली वो,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"ज़्यादा कुछ नहीं, महज़ एक सवाल ही!" कहा मैंने,
"पूछिए?'' बोली वो,
"लेकिन उस से पहले, जैसे मैंने प्रॉमिस किया, उसी तरह से प्रॉमिस करना होगा!" बोला मैं,
"वो क्या?'' पूछा उसने,
"यही कि जिस बेबाकी से आपने मेरे सवालों का जवाब दिया, उसी बेबाकी से, इस सवाल का भी जवाब दोगी!" कहा मैंने,
"सवाल क्या है?'' पूछा उसने,
"प्रॉमिस तो करो?'' कहा मैंने,
"मैं आप पर विश्वास कर रही हूं न?" बोली वो,
"ये मेरे लिए प्रसन्नता की बात है!" कहा मैंने,
"उस से ज़्यादा और क्या?" पूछा उसने,
"सवाल कुछ ऐसा ही है!" कहा मैंने,
"बताइये?'' बोली वो,
"प्रॉमिस!" कहा मैंने,
"ठीक है! प्रॉमिस!" बोली वो,
"आप कुल कितनी बार गयीं रोज़ी से मिलने?'' पूछा मैंने,
"बहुत बार!" बोली वो,
"मतलब, गिनती नहीं!" कहा मैंने,
"कहा जा सकता है!" बोली वो,
"तो क्या, आपने अपनी, उस, 'प्रेमिका' को......?" मेरी बात काट दी उसने!
"प्रेमिका?" बोली वो,
"और नहीं तो क्या?'' कहा मैंने,
"नहीं!" बोली वो,
"आप उसकी प्रेमिका, और वो आपकी प्रेमिका!" कहा मैंने,
"ये ठीक! हां!" बोली वो,
"तो, आपने, अपनी, उस, प्रेमिका, को कभी, अपने घर पर आने के लिए नहीं कहा?" पूछा मैंने,
"कहा!" बोली वो,
"क्या उत्तर था?" पूछा मैंने,
"उसने मना नहीं किया!" बोली वो,
"और आयी भी नहीं? है न?" बोला मैं,
"हां, नहीं आयी!" बोली वो,
"क्यों नहीं आयी?" पूछा मैंने,
"वो प्रेग्नेंट थी!" बोली वो,
"मान लिया!" कहा मैंने,
"फिर?'' पूछा उसने,
"उसका प्रसव कहां हुआ?'' पूछा मैंने,
"विक्की ले गए थे!" बोली वो,
"ये जानते हुए भी कि आप खुद एक डॉक्टर हैं?" बोला मैं,
"हां? तो क्या नयी बात?" बोली वो,
"कोई उनके परिचित होंगे वो डॉक्टर?" पूछा मैंने,
"हो सकता है!" बोली वो,
"तो बेबी हो गया!" कहा मैंने,
"हां!" बोली वो,
"आप कहां मिलीं उस से फिर?'' पूछा मैंने,
"बेबी से या फिर रोज़ी से?'' बोली वो,
"एक ही बात है!" कहा मैंने,
"उसके घर पर!" बोली वो,
अब मैं चुप हो गया! वो इंतज़ार करती रही कि मैं कुछ बोलूं! मैं मुस्कुराया और उसे देखा!
"स्नेहा?'' बोला मैं,
"हां?" बोली वो,
"खुद को बहुत समझदार समझती हो आप?'' पूछा मैंने,
"क्या मतलब?" बोली वो,
"आधा सच और आधा झूठ!" कहा मैंने,
"मैंने?" बोली वो,
"हां, आपने!" कहा मैंने,
"क्या झूठ?" बोली वो,
"अब तो और पक्का हो गया कि आपने झूठ भी जोड़ा इसमें!" कहा मैंने,
"क्या कह रहे हैं आप? आप मुझ पर तोहमद लगा रहे हैं?" बोली वो, गुस्से से,
"नहीं! कोई तोहमद नहीं!" कहा मैंने,
"फिर ये सब क्या था? कौन सा झूठ?'' बोली वो,
"झूठ ये कि जब विक्की का उलक्ष आपने अभी किया, कि वो उसको ले गए थे, आपको कैसे पता चला था?" पूछा मैंने,
"कॉल की थी!" बोली वो,
"किसने उठाया था?" पूछा मैंने,
"किसी ने भी नहीं!" बोली वो,
"तब?" पूछा मैंने,
"तब क्या?'' बोली वो,
"तब कैसे जाना आपने?'' पूछा मैंने,
"मैं......!" बोली वो,
"हां? बोलो?" बोला मैं,
"आप जाइये! जाइये आप!" बोली वो,
"चला जाऊंगा! झूठे लोगों से कोई वास्ता भी नहीं रखता मैं!" कहा मैंने,
"फौरन चले जाइये?" बोली वो,
मैं एकदम मुड़ा और नीचे भागता चला आया! रुका ही नहीं!
"चलो! जल्दी!" कहा मैंने,
"कहां? बोले वो,
"बाहर!" कहा मैंने,
"सब ठीक?" बोले शहरयार!
"हां!" कहा मैंने,
और हम दौड़ कर बाहर आये! उस कमरे से! हॉल से होते हुए, नीचे तक! गेट तक और!
खट्ट!
दरवाज़ा बंद हो गया! ये इलेक्ट्रॉनिक-लॉक था, अंदर से बंद हो गया था, बंद, स्नेहा ने किया था! हम दोनों ही पीछे मुड़े! स्नेहा धीरे धीरे, हमारी तरफ बढ़े आ रही थी! एकदम शांत सी! नंगे पांव! और तभी............!!


   
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श्रीशः उपदंडक
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इस समय तो स्थिति वाक़ई ही गंभीर बन गयी थी! उसके दिमाग़ में न जाने क्या दौड़ रहा था, क्या करे या कर ही बैठे! मैंने शहरयार जी को हाथों से पकड़, पीछे किया, उनके तो होश ही उड़ कर, सामने लगे शमी के पेड़ की सबसे ऊंची शाख पर जा लटके थे! उन्हें कुछ समझ नहीं आ रहा था!
इधर, वो चल कर आ रही थी, स्नेहा तो इस समय अपना तो अपना, सभी का जैसे ख़याल ही रखना छोड़ चुकी थी, शुक्र है कोई था नहीं वहां, नंगे पांव, पर्पल रंग के स्लैक्स में, ऊपर उसने कुर्ती पहनी थी, सब ढुल-मुल रहा था, ब्रेज़िएर दोनों तरफ से नज़र आ रहा था, चुन्नी थी नहीं, देखे भी शर्म आ रही थी हमें तो!
वो एकदम पास तक आ गयी, आते ही, शहरयार जी को जैसे देखा ही नहीं, या फिर नज़रों से दरकिनार सा कर दिया!
"ऐसे नहीं जाओगे!" बोली वो,
जो लहजा उसने इस्तेमाल किया था, मैं तो गड़बड़ा ही गया उसमे! वो क्या लहजा था, एक मानें तो उसमे कुछ मीठी सी इल्तज़ा थी, दूसरा मानें तो जैसे दुश्मन हाथ लगा था और अब दुश्मनी निकालनी थी, तीसरा ये कि जैसे उसने कोई गुज़ारिश सी की हो, चौथा ये कि जैसे उसको, 'झिंझोड़' कर, निकल भागा हो कोई, जिसके साथ वो पुरसुक़ून होना चाहती थी, औरतों में मुंह पर क्या और गले में क्या! ज़ुबान पर क्या और दिमाग़ में क्या, चेहरे पर सीरक और अंदर आंच! अब जिसको सलामती चाहिए हो, वो बल का प्रयोग तो करे नहीं, नहीं तो गया काम से! बस, अब छल ही काम आता है, युक्ति, जिसके सहारे काम बने!
"बस स्नेहा, बस!" कहा मैंने,
"कहा न?" बोली वो,
"सुन लिया!" कहा मैंने,
"ऐसे? नहीं जाओगे?" बोली वो,
"तब कैसे?" पूछा मैंने,
"अपनी बात ख़त्म करो?" बोली वो,
"बात क्या स्नेहा, अब तो क़िस्सा ही ख़तम!" कहा मैंने,
मैंने ये कहा और वो लपक कर मुझ पर जो टूटी है, मैं ही जानूं! मैंने उसको काबू में किया, शुक्र है चिल्लाई नहीं, नहीं तो दिनदहाड़े इज़्ज़त की चिड़िया फुर्र हो जाती हमारी तो!
"स्नेहा?" कहा मैंने,
उठा लिया था उसे मैंने कमर की तरफ से, पांव चला रही थी अपने दोनों!
"सुनो?" कहा मैंने,
फिर अचानक से उसने विरोध छोड़ा, मेरे बाजुओं में ही झूल गयी!
"सुनो, मदद करो!" कहा मैंने,
"हां!" बोले वो,
हम किसी तरह से उसे उसके कमरे तक ले आये! बिस्तर पर रख दिया उसे! मुझे अभी भी लगता था कि वो, महज़ नाटक सा ही कर रही है इसीलिए...........
"आप एक काम करें?" कहा मैंने शहरयार से, इशारा करते हुए!
"जी?" बोले वो,
"नवोदित को कॉल करें और बता दें, कि ये सब अब हमारे बस का नहीं, इनके दिमाग़ में कुछ गड़बड़ है, जिसका इलाज हमारे पास तो है नहीं, अभी करो कॉल!" कहा मैंने,
झट से तभी वो उठ गयी! और उठते ही, मेरी बाजू पकड़ ली! खींचना चाहा, लेकिन मैं हिला ही नहीं उस से! मैंने इशारे से शहरयार को कह दिया था कि बाहर जाएं! वे जैसे ही बाहर गए...
कि स्नेहा ने बुक्कल फाड़ा! रोने लगी! मैंने भी चुप नहीं किया उसे, अब रो ले जितना बस में हो! फिर वो शांत हुई, सिसकियां भरने लगी! मैं पानी ले आया था, बिन पूछे गिलास उसके सामने कर दिया, उसने लिया और एक घूंट पी कर, रख दिया एक तरफ!
"सच बता दो!" कहा मैंने,
"सब बता तो दिया?" बोली वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
"सच ही बताया?" बोली वो,
"आधा सच!" कहा मैंने,
"पूरा का पूरा?" बोली वो,
"नहीं स्नेहा!" कहा मैंने,
उसने ज़ोर से बिस्तर में घूंसा मारा! और परेशान सी होने लगी, सर पकड़ लिया, आंखें बंद कर लीं अपनी!
''क्यों तंग कर रहे हो मुझे?" बोली वो रोते हुए,
"नहीं करता!" कहा मैंने,
"मत करो, प्लीज़!" बोली हाथ जोड़ते हुए!
"हाथ नहीं जोड़ो स्नेहा!" कहा मैंने,
"मैं बहुत परेशान हूं!" बोली वो,
आ गयी दिल में दबी बात, ज़ुबान पर! जान गया मैं कि अब बस रेशा ही रह गया है, टहनी, टूट गयी है!
"परेशान?" पूछा मैंने,
"सर हिलाकर हां कहा उसने!
"कैसे परेशान?" पूछा मैंने,
"मुझे नहीं पता!" बोली वो,
सच कहा था अब तो! उसे सच में ही नहीं पता था!
"कब से परेशान हो?" पूछा मैंने,
"पता नहीं!" बोली वो,
"किस से परेशान हो?" पूछा मैंने,
"खुद से!" बोली वो,
"आप एक डॉक्टर हो!" कहा मैंने,
"इंसान पहले हूं!" बोली वो,
"मसला सुलझा नहीं आपसे?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोली वो,
"क्यों?" पूछा मैंने,
"कुछ समझ नहीं आता मुझे!" बोली वो,
"क्या?'' पूछा मैंने,
"कुछ भी नहीं समझ आता!" बोली वो,
"कुछ? क्या है ये कुछ?" पूछा मैंने,
"नहीं पता!" बोली वो,
"झूठ नहीं बोलो!" कहा मैंने,
"नहीं बोल रही!" बोली वो,
"क्या कुछ?" पूछा मैंने,
दनादन कई सवाल दाग़ दिए मैंने! अब बस कुछ ही देर, बस कुछ ही! लगता था मुझे तो, अगर ये शातिर न हुई तो!
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Jun 04, 2017#297

"नहीं पता? मुझे नहीं पता?'' बोली वो,
"एक डॉक्टर हो कर?'' पूछा मैंने,
"हां? नहीं पता?'' बोली वो,
"इलाज चल रहा है न?" पूछा मैंने,
"हां?" बोली वो,
"क्या कहते हैं डॉक्टर्स?" पूछा मैंने,
"डिसऑर्डर!" बोली वो,
"कब से?" पूछा मैंने,
"नहीं जानती?" कहा उसने,
"कुछ तो बताया होगा?" पूछा मैंने,
"नव से पूछ लेना!" बोली वो,
"जब आप हो, तो आपसे ही पूछना बेहतर है! है या नहीं?" बोला मैं,
''जो जानती हूं, बता रही हूं!" बोली वो,
"एक बात कहूं?" बोला मैं,
"हां?" बोली वो,
"बता भी कुछ नहीं रहीं, बस भटका रही हो!" कहा मैंने,
"नहीं भटका रही!" बोली सुबकी लेते हुए,
"हां? भटका रही हो?'' कहा मैंने,
"कैसे? बताओ?" बोली वो,
"चलो बताओ!" कहा मैंने,
"हां?" बोली वो,
"रोज़ी के प्रसव से कितने दिन पहले तुम उस से मिलीं?" पूछा मैंने,
"छह दिन!" बोली वो,
"इतना सटीक कैसे?" पूछा मैंने,
"हम शादी में गए थे!" बोली वो,
"कौन हम?" पूछा मैंने,
"मैं, नव!" बोली वो,
"किसकी शादी?" पूछा मैंने,
नव की बुआ जी की लड़की की!" बोली वो,
"कहां रहती हैं बुआ जी?'' पूछा मैंने,
"इंदौर!" बोली वो,
"वो भी डॉक्टर हैं?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोली वो,
"गृहणी, मतलब?" कहा मैंने,
"हां!" बोली वो,
"और उनकी लड़की?" पूछा मैंने,
"उन सब का यहां से क्या लेना देना?" बोली वो,
"जो पूछता हूं बताये जाओ, प्लीज़ स्नेहा!" कहा मैंने,
"वो सॉफ्टवेयर इंजीनियर है!" बोली वो,
"शादी कहां हुई?" पूछा मैंने,
"मुंबई!" बोली वो,
"वे लोग यहां आते हैं?" पूछा मैंने,
"हां!" बोली वो,
"और तुम लोग?" पूछा मैंने,
"जाते हैं!" बोली वो,
कुछ हाथ नहीं लगा! बस इतना, कि उसे सब याद था, जैसे एक साधारण इंसान को होता है!
"तो छह दिन?" कहा मैंने,
"हां!" बोली वो,
"तो आते ही कॉल किया?'' पूछा मैंने,
"हां!" बोली वो,
"किस नंबर पर कॉल करती थीं आप?" पूछा मैंने,
उसने नंबर बोल दिया, मैंने डायल किया! कोई जवाब नहीं!
"ये जाता क्यों नहीं?" पूछा मैंने,
"पता नहीं!" बोली वो,
"कारण नंबर एक!" कहा मैंने,
"क्या?'' बोली वो,
"बताऊंगा!" कहा मैंने,
"आपके और नव के, इस रोजी के आने से पहले, पति-पत्नी वाले संबंध कैसे थे?" पूछा मैंने,
"माइंड इट?'' बोली वो,
"बताना तो होगा!" कहा मैंने,
"नॉर्मल!" बोली वो,
"मैंने सुना, कि आप कुछ 'ओवर-एक्टिव' हुआ करती थीं?" पूछा मैंने,
"हां!" बोली वो,
शुक्र है जवाब दे दिया था, मुझे उम्मीद, ज़रा कम ही थी, लेकिन हुआ उलट ही!
"और बाद में यही संबंध 'कोल्ड' कैसे हो गए?'' पूछा मैंने,
"मन नहीं करता था!" बोली वो,
"और अब भी नहीं?'' पूछा मैंने,
"बिलकुल नहीं!" बोली वो,
"कोई वजह?" पूछा मैंने,
"नहीं पता!" बोली वो,
"मन नहीं करता?'' बोला मैं,
"नहीं!" बोली वो,
"और रोज़ी के साथ.............कुछ?" बोला मैं,
वो हंसने लगी! हंसती जाती और देखे जाती!
"बताओ?" बोला मैं,
"तुम लोग!" बोली वो,
"क्या लोग?" पूछा मैंने,
"यही! ये! वो! वो! ये!" बोली वो,
"ये कटाक्ष है?" कहा मैंने,
"दृढ़ता है!" बोली वो,
"अच्छी बात है! औरत हो, कह सकती हो! अब बताओ, क्या रोज़ी संग कुछ जिस्मानी-सूकून मिलता था?'' बोला मैं,
"हर तरह का सूकून! समझे आप? खैर! आप कैसे समझोगे?'' बोली और हंसी का फव्वारा फोड़ दिया उसने!

   
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श्रीशः उपदंडक
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Jun 04, 2017#301

"नहीं समझूंगा?" कहा मैंने,
"हां! नहीं समझ सकते!" बोली वो,
"ऐसा कैसे कह सकती हो आप?'' पूछा मैंने,
"सब जानती हूं!" बोली वो,
"क्या जानती हैं आप?" पूछा मैंने,
"कि क्या ऐसी कोई बात मेरे और रोज़ी के बीच हुई?" बोली वो, 
"कैसी? कोई सेक्सुअल-कंडक्ट?" पूछा मैंने,
"हां! वो कैसी थी, तुम कैसी हो? रोज़ी के ये, रोज़ी के वो! तुमको कैसा लगा? उसको कैसा लगा? यही न? मजा आएगा न सुनने में?'' बोली वो,
"मुझे मजा आएगा या नहीं आएगा, इस से तुम्हें कोई मतलब नहीं होना चाहिए, हां, तुम्हें मजा आया या नहीं या, या उसे मजा आया या नहीं आया, मुझे भी नहीं जानना!" कहा मैंने,
"तो क्या जानना चाहते हो?" बोली वो,
"जो छिपा रही हो?" कहा मैंने,
"मैं कहूं कि कुछ नहीं छिपा रही, तब?" बोली वो,
"मुझे यक़ीन नहीं!" कहा मैंने,
"कैसे होगा?" बोली वो,
"सच्चाई जान कर!" कहा मैंने,
"ये सब सच ही तो है?" बोली वो,
"लेकिन मुलम्मा चढ़ा हुआ!" कहा मैंने,
"कैसा मुलम्मा?" बोली वो,
"झूठ का खोल!" कहा मैंने,
"तो आपके हिसाब से सच क्या है?'' बोली वो,
"दो कारण हो सकते हैं!" बोला मैं,
"क्या?" बोली वो,
"पहले एक सवाल!" बोला मैं,
"पूछो!" बोली वो,
"क्या रोज़ी को आज भी प्रेम करती हो?" पूछा मैंने,
"अपने से ज़्यादा!" बोली वो,
"तब जवाब आसान हो गए!" कहा मैंने,
"क्या?" बोली वो,
"मैंने कहा था न? दो कारण?" बोला मैं,
"हां! कहा था?" बोली वो,
"पहला ये, कि तुमने पहल की होगी उसने मना कर दिया होगा!" कहा मैंने,
मैंने जानबूझ कर ये कड़वा और तीखा सवाल किया था!
"ऐसा कुछ नहीं!" बोली वो,
"नहीं की पहल?" पूछा मैंने,
"सवाल ही नहीं!" बोली वो,
"तब उसने की होगी!" कहा मैंने,
"नहीं!" बोली वो,
"नहीं की, कभी भी?" पूछा मैंने,
"नहीं, कभी नहीं!" बोली वो,
"फिर से झूठ!" कहा मैंने,
"क्यों?" बोली वो,
"अपनी इस हालत के लिए तुम कभी भी रोज़ी को ज़िम्मेदार नहीं कहोगी!" कहा मैंने,
"हां? नहीं कहूंगी!" बोली वो,
"क्योंकि तुम उसको मिस करती हो!" कहा मैंने,
एक पल के दसवें हिस्से में, चेहरे पर उसके, रंग आये और गए!
"करती हो या नहीं?" पूछा मैंने,
"करती हूं!" बोली वो,
"तो स्नेहा जी! अब रोज़ी कहां है?" पूछा मैंने,
"अपने घर?'' बोली वो,
"यहां? दिल्ली?" बोला मैं,
"नहीं!" बोली वो,
"फिर?" मैंने चौंकते हुए पूछा!
"विक्की के साथ गयी है!" बोली वो,
"कहां?" पूछा मैंने,
"मुझे क्या पता?'' बोली वो,
"आपको बताया नहीं?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोली वो,
"नहीं?" पूछा मैंने,
"हां!" बोली वो,
"हां या नहीं?" पूछा मैंने,
"बताया था!" बोली वो,
वो गंभीर न हो और, परेशान न हो, बांध बस टूटने ही वाला था, मैंने सवालों का रुख ही बदल लिया!
"कभी विक्की ने ऐतराज़ नहीं किया?'' पूछा मैंने,
"किस बात पर?" बोली वो,
"जैसे आपका मन सेक्स से उचाट हो गया, वैसे उसका भी हुआ होगा! है न? और फिर, विक्की को तो डॉक्टर ने ताक़ीद भी की होगी?" कहा मैंने,
"उनके बीच की बातें मैं क्यों जानूं?" बोली वो,
"अरे?" बोला मैं,
"क्या अरे?" बोली वो,
"क्या उसने आपको कभी गालों पर चूमा नहीं?" पूछा मैंने,
"चूमा! फिर?" बोली वो,
"आपने भी चूमा होगा?" पूछा मैंने,
"हां, फिर?'' बोली वो,
"फिर थोड़ा आगे चलें?" बोला मैं,
"क्या मतलब?" बोली वो,
"कुछ पर्सनल?" बोला मैं,
"बोलो?" बोली वो,
अपने माथे की एक लट को, अलबेटा देते हुए! मैं नहीं बोला कुछ! मैं तो इंतज़ार में था! इंतज़ार!
"बोलो?" बोली वो,
मैं ये सुन, मन ही मन मुस्कुराया! रोज़ी के साथ गिरहबंध होकर, उसे सूकून मिलता था, अब रोज़ी न सही, इस समय, तो भी उसका नाम, उसका वजूद और उसकी वो मीठी यादें तो थीं ही! इसीलिए उसने ज़ोर से बोला था, ये शब्द!

   
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श्रीशः उपदंडक
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"बोलो?" फिर से बोली वो,
"बोल रहा हूं!" कहा मैंने,
"हां, बोलो फिर?" बोली वो,
"तो आपके बीच अब कोई दूरी नहीं थी!" कहा मैंने,
"किस मायने की?" बोली वो,
"जिस्मानी!" कहा मैंने,
वो हल्का सा, दुत्कारने वाली हंसी, हंसी!
"हां, नहीं थी!" बोली वो,
"रोज़ी एक ऐसी महिला है जो आपके लिए एक आइडियल-वुमन है!" कहा मैंने,
"हां, नो डाउट!" बोली वो,
"उसमे आपसे कुछ ज़्यादा ही होगा?" पूछा मैंने,
"हां, ऐग्जेक्टली!" बोली वो,
"आपसे अच्छे फिगर-स्टैट्स होंगे!" कहा मैंने,
"ऑफ़ कोर्स!" बोली वो,
"इसीलिए एक दबी हुई सी इच्छा, खुल कर आ गयी सामने!" कहा मैंने,
"दबी हुई?'' वो थोड़ा चौंकी!
"हां, एक साथ तो आप में ये बदलाव आने से रहा?" कहा मैंने,
"कहना चाहते हैं मैं बाई-सेक्सुअल हूं?'' बोली वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
"फिर?'' बोली वो,
"लेस्बियन!" कहा मैंने,
"क्या बकवास कर रहे हैं आप!" बोली वो,
"सुनो तो?" कहा मैंने,
"सुन ही रही हूं?" बोली वो,
"बाई-सेक्सुअल होतीं तो आप अपने पति के साथ भी समभाव से ही रहतीं! मैंने कौन सी गलत बात कह दी?" पूछा मैंने,
"न मैं बाई-सेक्सुअल ही हूं और न लेस्बियन ही! समझे आप?" बोली वो,
"स्ट्रेट हो?" पूछा मैंने,
"व्हाट नॉनसेंस!" बोली वो,
"नथिंग!" कहा मैंने,
"तो?" बोली वो,
"एक जनरल परसेप्शन ही कहा है!" कहा मैंने,
"और?'' बोली वो,
"अब जब आपके बीच कुछ रहा ही नहीं तब इस विषय को अलग रख देता हूं!" कहा मैंने,
"यही ठीक भी है!" बोली वो,
"तो अब क्या बचा?'' बोला मैं,
"क्या?'' पूछा उसने,
"ओबसेशन!" कहा मैंने,
"व्हाट?" बोली वो,
"हां, कि ज़्यादा से ज़्यादा आप उसके क़रीब कैसे हों!" कहा मैंने,
"ये ओबसेशन है?'' बोली वो,
"मेरी नज़र में तो!" कहा मैंने,
"चाह नहीं हो सकती?" बोली वो,
"चाह नाम मत दो इसे!" कहा मैंने,
"तो?" बोली वो,
"अतिचाह! ओवर-डिपेंडेंसी!" कहा मैंने,
"किसकी?" बोली वो,
"आपकी?" कहा मैंने,
"क्यों?" बोली वो,
"जो लगा बता दिया!" कहा मैंने,
"अच्छे मनोचिकित्सक बन सकते थे आप!" बोली वो,
"धन्यवाद!" कहा मैंने,
"लेकिन नहीं बन सके!" बोली वो,
"हां!" कहा मैंने,
"सेक्स पसंद है?'' पूछा उसने,
"किसे पसंद न होगा?'' बोला मैं,
"चाहे गलत ही हो?" बोली वो,
"गलत तो नहीं!" कहा मैंने,
"जब आप एक पुरुष हो कर ऐसा कह सकते हो, तो मैं तो औरत हूं!" बोली वो,
"हां! हो औरत!" कहा मैंने,
"क्या इसमें भी कोई सवाल?" बोली वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
"तो क्या मैं रोज़ी को इसलिए पसंद करती हूं कि मुझे उस के साथ फिजिकल-प्लेज़र मिलता है?" बोली वो,
"हां! ये तो पक्का कहता हूं!" कहा मैंने,
"तो आप जानते हो!" बोली वो,
"हां, ये तो!" कहा मैंने,
"और क्या जानते हो?" बोली वो,
"ये भी, कि अगर, अब, कोई, और, रोज़ी, आपके, सामने आ जाए, या ठीक वैसी ही, तो भी आप उसे स्वीकार नहीं करेंगी!" कहा मैंने,
ये सुन वो तो खड़ी हो गयी!
"क्लेवर!" बोली ताली बजाते हुए!
मैं चुप! चुप ही रहा!
"क्या सोचते हो, क्या ये बकवास मैं सुनती जा रही हूं?" बोली वो,
"हां, सुन रही हो!" कहा मैंने,
"नहीं! गलत हो आप!" बोली वो,
"तो सही क्या है?'' पूछा मैंने,
"बता दूंगी!" बोली वो,
"कब?" पूछा मैंने,
"जल्दी ही!" बोली वो,
"उम्मीद है, मैंने आपका, आपके जज़्बातों का कोई अनुचित लाभ नहीं उठाया!" कहा मैंने,
"तभी यहां हो, अभी तक!" बोली वो,
"इसे? धमकी समझूं?" बोला मैं,
"नहीं!" बोली वो,
"फिर?" पूछा मैंने,
"कॉम्पलिमेंट!" बोली वो,
"थैंक्स स्नेहा! नाउ आई वुड बेटर, लीव!" कहा मैंने,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"ठीक है! चाय नहीं पिएंगे? या कॉफ़ी?" पूछा उसने,
"नहीं, देर हो गयी, अब बाद में पियूंगा!" कहा मैंने,
"कब आएंगे अब?" बोली वो,
"जब आप चाहें?" कहा मैंने,
"कल?" बोली वो,
"कल?" कहा मैंने,
"कोई काम न हो तो?" बोली वो,
"ठीक! कल कब?" पूछा मैंने,
"कल सुबह, दस बजे?" बोली वो,
"ठीक!" कहा मैंने,
और मैं अपने बालों पर हाथ मारते हुए, कमरे से बाहर आया, सीढ़ियां उतरा और फिर हॉल में आया, शहरयार जी को चलने को कहा, और निकल आये हम दोनों बाहर! पीछे देखा, कोहनी टिकाये हुए स्नेहा खड़ी थी, मैंने नमस्ते की तो उसने भी नमस्ते की, गाड़ी स्टार्ट हुई और हम निकल आये वहां से!
"क्या कहती है?'' बोले वो,
"बस मामला सुलझा ही!" कहा मैंने,
"कर दिया हल?" बोले वो,
"हां, बस अब ज़्यादा नहीं!" कहा मैंने,
"मुझे तो लगा था कि टेढ़ी खीर है!" बोले वो,
"है तो टेढ़ी ही!" कहा मैंने,
"मामला क्या है?'' बोले वो,
"चाहत का!" कहा मैंने,
"चाहत?" बोले वो,
"हम्म!" कहा मैंने,
"कैसी चाहत?" बोले वो,
"एक औरत की, एक औरत के लिए चाहत!" बोला मैं,
"हे भगवान!" बोले वो,
"क्या हुआ?'' बोला मैं,
"ये लौंडे क्या करेंगे?" बोले वो,
मुझे हंसी आ गयी उनकी बात सुन कर!
"चलो हमारी तो निभ गयी, ये क्या करेंगे?" बोले वो,
"नया ज़माना!" कहा मैंने,
"भाड़ में गया ये नया ज़माना!" बोले वो,
"आपके कहने से क्या होय!" कहा मैंने,
"ये भी सही है!" बोले वो,
"आज यार दिमाग़ गरम है!" कहा मैंने,
"बोलो फिर?" बोले वो,
"टाइम हुआ?" कहा मैंने,
"चार!" बोले वो,
"अभी तो टाइम है!" कहा मैंने,
"चलो, फायर वाले के यहां चलें?" बोले वो,
"सदर?" कहा मैंने,
"हां!" बोले वो,
"भीड़ होगी यार!" कहा मैंने,
"देख लेंगे!" बोले वो,
तभी मेरा फ़ोन बजा, ये फ़ोन किसी जानकार का था, उनके साथ कोई समस्या थी, बात की और चल पड़े!
"फायर वाले को फ़ोन कर दूं!" बोले वो,
"कर दो!" कहा मैंने,
कॉल की और बता दिया, फ्लैट पर ही थे, जब तक हम पहुंचते सामान तैयार हो जाता! भीड़ ऐसी कि पूछो ही मत!
तो साहब! हमने रात तक वहीं खाया-पिया और निकल आये फिर! रात आराम से बीत गयी! सुबह राय-मशविरा हुई, नवोदित से बात हुई, आज का कार्यक्रम बता दिया और फिर हम चल दिए! वहां पहुंच गए!
लाइव एकाउंट्स, स्नेहा -३
.....................................
"कैसी हैं!" पूछा मैंने,
"ठीक नहीं हूं!" बोली वो,
"क्यों?" पूछा मैंने,
"जानती तो क्यों होती?" बोली वो,
"ये भी सही कहा!" कहा मैंने,
"एक बात बताओगे?" बोली वो,
"क्या?'' पूछा मैंने,
"क्या मैं सच में पागल हूं?" बोली वो,
"नहीं तो?" कहा मैंने,
"डॉक्टर कहते हैं!" बोली वो,
"वो अभी जांच ही तो रहे हैं!" कहा मैंने,
"मुझे तो लगने लगा है!" बोली वो,
"क्या?" पूछा मैंने,
"कि मैं पागल होने लगी हूं!" बोली वो,
"ऐसे ख्याल क्यों लाती हो?" बोला मैं,
"आ जाते हैं!" बोली वो,
"निकाल दो?" कहा मैंने,
"न निकलें तो?" बोली वो,
"ज़बरन निकालो!" कहा मैंने,
"और तब भी नहीं तो?" बोली वो,
"कोशिश तो करो?" बोला मैं,
"खैर!" बोली वो,
"हां, बताइये!" कहा मैंने,
"क्या पूछा?" बोली वो,
"पूछूं?" पूछा मैंने,
"हां!" बोली वो,
"सही जवाब दोगी?" कहा मैंने,
"हां!" बोली वो,
"तो ठीक!" कहा मैंने, और कुर्सी से कमर लगा ली! और..........!!


   
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श्रीशः उपदंडक
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आज मौसम भी बढ़िया था, धूप थी तो लेकिन आज उसमे पूर्ण यौवन नहीं था, कमसिनी सी थी! उस पर, सरपरस्ती की ओढ़नी, बादल चढ़ा देते थे! सूरज को भान तो था, लेकिन जब तक कुछ हो, धूप स्पर्श कर लेती थी ज़मीन का! ज़मीन को धूप और धूप का वो स्पर्श, जैसे चाहिए ही था, ठीक वैसे ही, जैसे स्नेहा को उस रोज़ी का!
"तो स्नेहा जी?" कहा मैंने,
"जी?" बोली वो,
"रोज़ी की सबसे अच्छी बात आप क्या बताओगे मुझे?" पूछा मैंने,
"उसकी सुंदरता!" बोली वो,
"आप भी सुंदर हैं, और आप से अधिक सुंदर हो कोई तो मानना ही पड़ेगा कि रोज़ी, सच में ही सुंदर होगी!" कहा मैंने,
"कोई शक ही नहीं!" बोली वो,
"अच्छा, वो लड़की नैंसी?" कहा मैंने,
"हां?' बोली वो,
"वो कौन थी? सॉरी! है!" कहा मैंने,
"वो एक साल से साथ ही उसके और है अभी भी!" बोली वो,
"है कौन?" पूछा मैंने,
"मतलब?" पूछा उसने,
"कोई नौकरानी या प्लेसमेंट एजेंसी से मंगवाई हुई कोई नौकरानी या कोई देखभाल करने वाली लड़की ही?" पूछा मैंने,
"इनमे से कोई नहीं!" बोली वो,
"क्या मतलब?" पूछा मैंने,
"वो, उस गार्ड की रिश्तेदार है, मतलब उसकी रिश्तेदारी में से ही कोई लड़की!" कहा उसने,
"अच्छा! समझ गया!" कहा मैंने,
"ठीक!" बोली वो,
"उसकी उम्र क्या होगी भला?'' पूछा मैंने,
"करीब सोलह या सत्रह?" बोली वो,
"बच्ची ही है!" कहा मैंने,
"हां बच्ची है, बड़ी प्यारी सी, नटखट! तेज!" बोली वो,
"हां, आजकल के बच्चे तेज ही हैं!" कहा मैंने,
"वो भी वैसी ही है!" बताया उसने,
"अच्छा, रोज़ी ने कभी अपने मां-बाप के बारे में बताया?" पूछा मैंने,
"हां!" बोली वो,
"वो कहां से हैं?" पूछा मैंने,
"ऊना, हिमाचल!" बोली वो,
"आपने कभी देखे?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोली वो,
"कोई तस्वीर?" पूछा मैंने,
"बस दो तस्वीर!" बोली वो,
"कहां की?" बोला मैं,
"उनके विवाह की!" बोली वो,
"अच्छा, मतलब शादी घर की मर्ज़ी से हुई होगी!" कहा मैंने,
"हां, मर्ज़ी से ही हुई थी!" बोली वो,
अब मैं खड़ा हुआ, अब कुछ कड़वापन लाना था, अब तक नींव मैं भर चुका था, अब बस दीवारें क़ायम करनी थी, क़ैद कर लेना था उसे उनके बीच!
"स्नेहा!" कहा मैंने,
"हां?" बोली वो,
"अब रोज़ी कहां है?" पूछा मैंने,
"अपने पिता जी के घर होगी?" बोली वो,
"अब कोई कॉल नहीं आती?" पूछा मैंने,
"सच में ही नहीं आती!" बोली वो,
"आपने जांच नहीं की?" पूछा मैंने,
"किस बात की?" पूछा उसने,
"कॉल क्यों नहीं आयी?" पूछा मैंने,
"नहीं, वो खुद आ जायेगी!" बोली वो,
"अच्छा, ऐसा बताया था उसने?" पूछा मैंने,
"कब?" बोली वो,
"जाने से पहले?" कहा मैंने,
"नहीं!" बोली वो,
"तब कैसे पता आपको कि वो कहां है?" पूछा मैंने,
"उसने मुझे एक बात बताया था कि बेबी होने के बाद, घर जाना होगा, तो वो घर ही गयी होगी!" बोली वो,
"स्नेहा?" कहा मैंने,
"हां?" बोली वो,
"इतनी भोली तुम हो ही या बन रही हो?" पूछा मैंने,
"क्या मतलब?" बोली वो,
"क्या सोचती हो, मुझे पता नहीं?" कहा मैंने,
"क्या नहीं पता?" बोली वो,
"जो आपने छिपाया?" कहा मैंने,
"क्या छिपाया?" बोली वो,
"रोज़ी!" कहा मैंने,
"मैंने. रोज़ी छिपाई?" बोली वो,
"हां!" कहा मैंने,
"कहां?" बोली वो,
"अपने ज़हन में, दिमाग़ में!" बोली वो,
"ऐसा कैसे हो सकता है?'' बोली वो,
"हो ही रहा है!" कहा मैंने,
"क्या हो रहा है?' बोली वो,
"जी कभी थी ही नहीं, उसे ज़िंदा बनाये घूम रही हो!" कहा मैंने,
"क्या बकवास है?" बोली वो,
"है क्या रोज़ी?" पूछा मैंने,
"बिलकुल है!" बोली वो,
"मैं कैसे मानूं?" बोला मैं,
"मानोगे! रुको! मानोगे!" बोली वो, और ज़ोर से उठी, दौड़ पड़ी दूसरे कमरे में जाने के लिए, मेरी नज़रों ने उसका पीछा नहीं छोड़ा!
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Jun 05, 2017#333

वो तो अंदर से जैसे उबल ही गयी थी! ठीक भी था, इस मामले ने मेरे तो बदन के जैसे रूएं ही छुड़ा दिए थे! ये तो मानसिक विकार की पीड़िता था ही, अब तनाव मुझ पर ही बनने लगा था, एक चीज़ पकड़ो, दूसरी छूटे और दूसरी थामो तो पहली भूलो! अजब सी ही पहले थी यहां, जिस पर ये सब चल रहा था! एक झूला था सी-सॉ का, कभी वो ऊपर और कभी मैं ऊपर! रुक कोई नहीं पा रहा था!
तभी वो दौड़ती हुई आयी, उसके हाथ में एक टैब था, वो उस टैब की स्क्रीन पर ज़ोर से ऊँगली चला रही थी, फिर वो रुकी! और मुझे देखा!
"झूठी हूं न मैं? झूठ बोल रही हूं न? यही बताना चाहते हो न? है न? लो! देखो अपनी आंखों से! लो!" बोली वो, और उस टैब को तख़्ती की तरह मेरी तरफ कर दिया, दोनों हाथों से पकड़ कर! मेरे तो होश ही उड़ गए! हलक़ ही सूख गया उसी क्षण! मैं आगे बढ़ा, और पहली नज़र डाली उस टैब की स्क्रीन पर! उसमे एक औरत थी! बेहद ही सुंदर! सुंदर से घुंघराले बाल! चुस्त-दुरुस्त सा बदन था उसका, ये तस्वीर कमर तक थी, उसके लम्बे पंमिंग बाल नीचे तक आये हुए थे!
"मुझे दिखाओ?" बोला मैं,
उसने टैब खींच लिया!
"दिखाओ?'' कहा मैंने,
"बोलो? झूठी हूं मैं?" बोली वो,
"नहीं, दिखाओ?" कहा मैंने,
"नहीं हूं न?" बोली वो,
"नहीं हो, अब दिखाओ?" कहा मैंने,
उसने टैब आगे कर दिया अब गौर से देखा, वो बेहद ही गोरी, किसी विदेशी महिला की तरह थी, गले में एक सोने की बारीक़ सी चैन पहनी थी, उसके गले में फब रही थी वो चैन! डीप-कट सी, कमीज थी, नीचे ही बटन थे, ऊपर से खुली थी, क्लीवेज साफ़ दिखाई दे रहा था, मिला था आपस में, एक गहरी सी रेखा बनाये हुए, मतलब उसका बदन अच्छा-खासा, हृष्ट-पुष्ट था, जैसे व्यायाम करती आ रही हो! उसके चेहरे पर सुनहरी सी आँखें थीं, आंखें बहुत सुंदर, हल्का सा शायद नीला सा मस्कारा लगाया हुआ था, जैसे सुरमा डाला हो आंखों में! नाक में दायीं तरफ चमकदार एक रत्न था, छोटा था, लश्कारा मारते हुए! ठुड्डी में एक गड्ढा था, कामुक चेहरा, लिबास, नेत्र और देह थी उसकी, कोई शक ही शेष नहीं था!
"ये रोज़ी है?'' पूछा मैंने,
"हां!" बोली वो,
और हटा लिया टैब! कवर से बंद कर लिया! मैंने जो देखा था उस तस्वीर में, वो सब याद कर लिया था, पीछे दूर, यूकेलिप्टस के पेड़ थे, दिन का समय हुआ होगा, रौशनी चेहरे पर, सामने से पड़ रही थी, एक तरफ, एक बड़ा सा गुलदस्ता रखा था, ये एक खिड़की के नीचे रखी टेबल पर रखा था! फर्श पर सितारे बने थे, सफेद और लाल रंग के, ये शायद टाइल्स का डिज़ाइन हो, ये एक कोने में ही दीख रहा था! दीवार पर दो तरह का रंग था, एक गुलाबी, जिसमे खड़की थी, दाएं, समुद्री हरा सा!
"ये कब की तस्वीर है?" पूछा मैंने,
"मतलब?" बोली वो,
"इसमें उसका गर्भ नहीं दीखता?" कहा मैंने,
"नहीं, है!" बोली वो,
"दोबारा देखो?" कहा मैंने,
उसने खोला और फिर से उंगली चलाई, तस्वीर आयी, उसने देखा, और मुझे दिखाया,
"ये तस्वीर नाभि तक ही है!" कहा मैंने,
"ये तुमने खींची थी?" पूछा मैंने,
"हां!" बोली वो,
"ये बाएं में कौन से पेड़ हैं?" पूछा मैंने,
"बाहर?" बोली वो,
"ज़ाहिर है?" कहा मैंने,
"जो हमारे बाहर लगे हैं!" बोली वो,
"गुलमोहर?" बोला मैं,
"हां!" बोली वो,
अब जैसे ही बोली वो हां! सारा का सारा मामला मेरे सामने खुल गया! अब मैं सब समझ गया कि ये सारा क्या खेल है! स्नेहा क्यों इस प्रकार से पीड़ित है, क्यों अपने मन के आगे बेबस है! मैंने जानबूझकर उस से वे पेड़ पूछे थे, उसे ध्यान भी नहीं था कि क्यों पूछा!
"ये दिसंबर की है?'' पूछा मैंने,
"हां! उसके जन्मदिन की!" बोली वो,
"वाक़ई, बहुत सुंदर है!" कहा मैंने,
"मैंने कहा न था?'' बोली वो,
"आप तो उसकी सुंदरता बयान भी न कर पायीं!" कहा मैंने,
अब मैंने उसे, सामान्य करना शुरू किया था, जहां उसके मन में कोई प्रश्न ही न रहे, लेकिन अभी भी वो मुझ से सच्चाई छिपा रही थी! मैं समझ सकता था कि क्यों!
"वैसे रोज़ी को सर्दी नहीं लगती?'' बोला मैं,
"क्यों? सभी को लगती है?" बोली वो,
"आपके दोस्त ने तो गरम कपड़ा कुछ पहना ही नहीं!" कहा मैंने,
"वो सब कपड़े गरम ही हैं!" बोली वो,
"हो सकता है!" कहा मैंने,
"तो सर्दी तो थी ही?'' बोली वो,
"हां, और बारिश?" पूछा मैंने,
"बारिश भी थी!" बोली वो,
"सच बोलो?'' कहा मैंने,
"थी बारिश!" बोली वो,
"नहीं थी!" कहा मैंने,
"अरे?" बोली वो,
"थी? मेरे कपड़े गीले हो गए थे!" बोली वो,
"मैंने कहा न? नहीं थी!" कहा मैंने,
"कैसे नहीं थी?'' बोली वो,
"बता दूं?" बोला मैं,
"हां? मैं भी तो जानूं?" बोली वो,
"ठीक है!" कहा मैंने,

   
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श्रीशः उपदंडक
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"समझ लो स्नेहा कि आज आप बिलकुल ठीक हो जाओगे!" कहा मैंने,
कुछ नहीं बोली वो, दरअसल वो मानती ही नहीं थी कि कोई मानसिक-व्याधि है उसके साथ!
"बस, अब कुछ ज़रूरी, या यूं कहां कि आखिरी चंद सवालात!" कहा मैंने,
"हूं!" बोली वो,
:बस सबसे पहले इतना बताओ, जब रोज़ी यहां से, मतलब दिल्ली से गयी तब वो क्या आपसे मिली थी?'' बोला मैं,
चुप हो गयी! मैंने पकड़ लिया था उसका झूठ!
"बोलो?" कहा मैंने,
न बोली कुछ!
"स्नेहा? बोलो?" बोला मैं,
"हां! मिली थी!" बोली वो,
"बस, कहानी ही ख़तम!" कहा मैंने,
अपलक मुझे देखा उसने, देखती रही!
"कहां मिलीं तुम उस से?" पूछा मैंने,
"बाहर, उस...उस सड़क पर..!" बोली वो,
चेहरा भारी हो गया उसका...कुछ ही देर में आंखों में आंखों के मेहमान तशरीफ़ लाने ही वाले थे!
"बाहर! उस सड़क पर?" मैंने इशारा किया बाहर की तरफ!
"हां, उधर ही!" बोली वो,
"आपको किसने खबर की थी?" पूछा मैंने,
"कैसी खबर?'' बोली वो,
"कि वो आपके घर आ रही है?'' पूछा मैंने,
"उसने, खुद ही!" बोली वो,
"अच्छा! वो आयी, तुमसे मिली, अकेली थी?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोली वो,
"कौन था साथ में?'' पूछा मैंने,
"वो, विक्की, नैंसी!" बोली वो,
"लाल गाड़ी या सफेद?" बोली वो,
"सफेद" बोली वो,
"गार्ड नहीं आया था?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोली वो,
"वो घर पर ही रहा होगा?'' पूछा मैंने,
"शायद!" बोली वो,
"अब फिर से वहीं आते हैं, रोज़ी के आखिरी शब्द क्या थे?'' पूछा मैंने,
चुप हो गयी! होंठ फड़कने लगे उसके! किसी भी पल रो पड़ती वो!
"बताओ?" बोला मैं,
उसने आंसू पोंछे, अपनी अनामिका उंगली से,
"बताओ स्नेहा?" कहा मैंने,
"यही, कि वो वापिस आएगी!" बोली वो,
"जब गयी उस दिन क्या तारीख थी?" पूछा मैंने,
"ग्यारह फरवरी!" बोली वो,
"और उसे लौटना कब तक था?'' पूछा मैंने,
"एक महीने बाद!" बोली वो,
"मतलब ग्यारह या बारह मार्च या कुछ एक आद दिन आगे या पीछे?" कहा मैंने,
"हां!" बोली वो,
"आपने उसका इंतज़ार किया!" कहा मैंने,
"हां!" बोली वो,
"कॉल की होगी?" पूछा मैंने,
"कई बार!" बोली वो,
"घंटी नहीं गयी!" कहा मैंने,
"हां!" बोली वो,
"आप बेचैन हो उठीं?" कहा मैंने,
"हां!" बोली वो,
"घर जाना मुनासिब समझा नहीं, क्योंकि वो मिलती ही नहीं वहां, वहां शायद गार्ड ही मिलता या फिर वो भी नहीं!" कहा मैंने,
"हां!" बोली वो,
"तो तुम इंतज़ार में घुलने लगीं!" कहा मैंने,
"हां!" बोली वो,
"घुलती ही रहीं!" कहा मैंने,
"हां!" बोली वो,
"और आज तक घुल रही हो!" कहा मैंने,
''हां! ओ रोज़ी! रोज़ी! रोज़ी!" कहते हुए मंद पड़ी और आंसू लगातार बहने लगे!
"स्नेहा? क्या कभी रोज़ी को आपकी ज़रूरत महसूस नहीं हुई?" पूछा मैंने,
वो चुप्प!
"जिस तरह से तुम घुलती रहीं, घुल रही हो, वो नहीं घुली?" बोला मैं,
चुप्प ही रही!
"तुम्हें तो आज तक यक़ीन है कि वो आएगी!" कहा मैंने,
सर हिलाया रोते हुए..........नाक पोंछी चुन्नी से!
"बेवफा निकली वो!" कहा मैंने,
"मुझे नहीं पता!" बोली वो,
"ये है तुम्हारा दूसरा पलड़ा स्नेहा!" कहा मैंने,
"मुझे नहीं पता!" बोली वो,
"एक पलड़ा ये कि वो भी शायद ऐसे ही कट रही है तुम्हारे लिए! दूसरा पलड़ा ये कि वो क्या बेवफा है? एक कॉल नहीं? एक खबर नहीं?" क्या वो भूल गयी तुम्हें? तुमसे क्या गलती हुई? क्या बुरा लगा उसे? कम से कम एक बार बता तो देती ही वो? है न?"
"ह.....ह.....हां! हां! हां!" चिल्ला के बोली वो,
"मुझे आप पर, आज से पहले तरस नहीं आया! लेकिन आज आ रहा है! न आप पागल हो, न किसी इलाज की ही ज़रूरत है न, तुम गलत ही हो, न वो ही गलत है, और....वो बेवफा भी नहीं है!" कहा मैंने,


   
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श्रीशः उपदंडक
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वो नहीं रह सकती मेरे बिना...वो नहीं रह सकती...!" बोली रोते हुए, इस बार बहुत तेज, हुलकारा भर, रोई थी वो!
"जानता हूं स्नेहा! वो नहीं रह सकती! ठीक आपकी तरह!" कहा मैंने,
"मेरी रोज़ी! कहां है? कहां है मेरी रोज़ी?" बोली वो,
"ये तो मुझे भी नहीं पता, स्नेहा!" कहा मैंने,
"मैं मर जाउंगी....मर जाउंगी.....रोज़ी....रोज़ी!" चिल्ला के बोली वो,
"नहीं स्नेहा!" कहा मैंने,
"मुझे रोज़ी से मिलवा दो?" बोली वो,
"कैसे?'' पूछा मैंने,
"वो कहां है?" पूछा उसने,
"नहीं पता मुझे!" कहा मैंने,
"तो क्यों बोली थी वो?" बोली फफक कर,
"क्या? क्या बोली थी वो?" पूछा मैंने,
"यही कि मुझे छोड़कर, कहीं नहीं जायगे वो?" बोली वो,
"जाना तो सभी को है!" कहा मैंने,
"कहां है?'' बोली वो,
"नहीं पता?'' कहा मैंने,
"उसे ढूंढ लाओ? मेरे लिए?'' बोली वो,
"कहां से?" पूछा मैंने,
"मुझे नहीं पता!" बोली वो,
"तो मैं कैसे जानूंगा?" पूछा मैंने,
"प्लीज़! प्लीज़! मेरी रोज़ी!" बोली सर नीचे करते हुए, बुरी तरह से रोई वो अब!
मैं चुप हो गया था! वो सब घटनाएं उसके दिमाग में लगातार घूमे जा रही थीं! वो नहीं अलग कर पा रही थी खुद को, कहते हैं न, जब विवशता अड़ ही जाए तो कुछ नहीं किया जा सकता! इसका इलाज, बस और बस, स्नेहा के पास ही था!
"स्नेहा?" कहा मैंने,
"हां?" बोली वो,
"क्या तुम उस गार्ड से मिलने गयीं?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोली वो,
"क्यों?" पूछा मैंने,
"पता नहीं!" बोली वो,
"तुम्हारी बात न हुई हो, ठीक, उनसे उसकी बात तो हो ही सकती थी, या वो खुद कर सकता था, नैंसी के लिए ही कम से कम?" पूछा मैंने,
"उसने बताया था मुझे!" बोली वो,
मैं चौंक पड़ा एकदम! झट से बैठ गया!
"क्या बताया था?'' पूछा मैंने,
"कि वे आएंगे वापिस, बात हुई थी उसकी!" बोली वो,
"ये कब की बात है?'' पूछा मैंने,
"उसके जाने के एक महीने बाद की!" बोली वो,
"तुम गयीं थीं वहां?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोली वो,
"फिर?'' पूछा मैंने,
"वो मेरे नर्सिंग-होम आया था!" बोली वो,
"कब?" पूछा मैंने,
"रात को!" बोली वो,
"कितने बजे?'' पूछा मैंने,
"दस बजे करीब!" बोली वो,
"आप मिले उस से?'' पूछा मैंने,
"हां!" बोली वो,
"तब बताया उसने?'' पूछा मैंने,
"हां!" कहा उसने,
मित्रगण! अब, चलती हुई मेरे दिमाग की घड़ी, ठहर गयी! ये ठहर गयी क्योंकि अब, वर्तमान में चलना था उसे! भूतकाल में बहुत चली! बहुत चली!
"स्नेहा!" कहा मैंने,
"हां?" बोली वो,
"ज़रा मुझे उस रात के बारे में बताओ, जब आपने अपने किसी जानकार डॉक्टर को, और किसी नर्सिंग-होम से, उस घर के लिए भेजा था?'' पूछा मैंने,
"कौन?" बोली वो,
"जो उस रात, रोज़ी की तबीयत खराब होने पर गया था?" पूछा मैंने,
"अच्छा, हां, क्या करना है?'' बोली वो,
"बस एक सवाल पूछना!" कहा मैंने,
"क्या?' बोली वो,
"कि क्या वो डॉक्टर वहां, उस पते पर पहुंचे थे?" पूछा मैंने,
उसने अपना सेल-फ़ोन लिया, और मिला दिया, किसी और ने उठाया, डॉक्टर थे नहीं, लेकिन जो एम्बुलेंस ले गया था, वो पहचान गया और उस से स्नेहा की बातें हुईं! स्नेहा के भाव बदलने लगे! और फ़ोन रख दिया उसने!
"क्या हुआ?" पूछा मैंने,
"कोई और था, उसे पता नहीं!" बोली वो,
"अब ज़रा वैसा ही करोगी? जैसा मैं कहूंगा?'' पूछा मैंने,
उसने भरी सी आंखों से मुझे देखा!
"मेरा विश्वास करो!" कहा मैंने,
"हां!" बोली वो,
"तो तैयार हो जाओ!" कहा मैंने,
"तैय्यार?" बोली वो,
"हां!" कहा मैंने,
"किसलिए? और कहां?" पूछा उसने,
"उस नर्सिंग-होम में, एंट्री तो दर्ज़ होगी ही? पता चल जाएगा?" क्यों?" पूछा मैंने,
"ठीक है!" बोली वो,
मामला रोज़ी का था, ज़्यादा देर न लगाई उसने! वो जाने लगी, तो मैंने उसे रोक लिया!
"मैं नीचे बैठा हूं, तैयार हो कर आ जाइये!" कहा मैंने,
"ठीक है!" बोली वो,
वो मुड़ी अंदर की तरफ और मैं मुड़ा बाहर की तरफ!


   
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