रविवार की शाम थी वो, कुछ कुछ ठंडी सी! अभी हालांकि ठंड की आहट ही सुनाई दे रही थी, लेकिन उसके आने से पहले की ठंडक आ पहुंची थी! अक्सर ऐसे समय में सुबह और शाम अच्छी गुलाबी सी ठंडक होने लगती है! पेड़, पौधे, लताएं भी अपना हरा रंग और चटख कर प्रसन्न होने लगते हैं! ये अवसर था एक महफ़िल का, महफ़िल में, मेडिकल-क्षेत्र के लोग बैठे थे, कुछ डॉक्टर्स, कुछ फार्मासिस्ट्स और कुछ पैथोलॉजी विभाग के, कुछ सरकारी और कुछ निजी अस्पताल या नर्सिंग अस्पताल चलाने वाले, व्यवसायी अधिक, और डॉक्टर्स कम! मैं भी यहां आमंत्रित था, कारण ये महफ़िल जिसने सजाई थी, वे मेरे ही ख़ास परिचित हैं, अक्सर मुझे शरीक किया करते हैं, इस से उन्हें मुझ से कोई लाभ मिले न मिले, चाहे मेरे विचार इन आधुनिक डॉक्टर्स को 'दकियानूस' ही लगें, मुझे इनसे अवश्य ही लाभ हुआ करता है, जानकारी मिल जाया करती है! और आजकल तो साहब, ज़माना ये है कि आपका कोई डॉक्टर परिचित होना भी चाहिए, ये ज़माना ही ऐसा है कि आज कोई सामान्य रूप से स्वस्थ है ही नहीं! तो बातें चल रही थीं, लोग अपना अपना गुट बनाये यहां भी अनुसंधान, राय-मशविरा कर रहे थे, कोई कहीं व्यस्त था और कोई कहीं व्यस्त! मैं शहरयार जी के साथ ही बैठा था, सामने रखे पनीर-कबाब और टिक्के अपनी सुगंध फेंक रहे थे, साथ में दोने में रखीं दो तरह की चटनियां थीं एक तीखी हरी वाली और एक सफेद से रंग की दही वाली! कुछ महिलायें भी वहां थीं, वे भी अपने अपने तौर पर कहीं न कहीं व्यस्त थीं, कुछ छोटे छोटे से बालक आते थे, कुछ बतलाते अपने मम्मी-पापा से और चले जाते! तभी वो वेटर एक और प्लेट रख गया, ये कबाब थे मुर्गे के, सही से सिंके हुआ, साथ में कटे हुए नीम्बू और नैपकिन्स भी! जो मदिरा यहां चल रही थी, कहने को तो बेहद ही महंगी थी, लेकिन जिसमे कोई ज़ायक़ा ही न हो, कड़वी लगे उस से अच्छा तो कोई शीतल-पेय ही पी लो! इसका ख़याल रखा गया था और हमारे लिए हमारी पसंद की मदिरा ला कर रख दी गयी थी, हालांकि कुछ नए नए से डॉटर उस बोतल को उठा कर देख लेते थे ताकि हमारा 'स्टैंडर्ड' समझ आ जाए उन्हें! अब मदिरा से क्या स्टैंडर्ड भांपना भला!उसका रंग अलग हो सकता है, बोतल अलग हो सकती है लेकिन गुणधर्म तो एक ही होता है!
"अरे? लीजिये?" बोले मेरे परिचित! उनका नाम रवीश है! वे हड्डियों के विशेषज्ञ हैं, कुल मिलाकर, अच्छे आदमी हैं!
"ले ही रहे हैं!" कहा मैंने,
"आप बैठो यार?" बोले शहरयार जी,
"अभी बस!" बोले वो,
तभी कमरे में उस हॉल में किसी बुज़ुर्ग डॉक्टर का आना हुआ, शायद कोई आचार्य जी थे, उनके शिष्यों ने गिलास हाथ में पकड़े ही, सर झुकाया उन्हें और एक कुर्सी खींच कर आगे कर दी!
"अभी आया!" बोले वो,
और उठ कर चले गए, सीधा आचार्य जी के पास ही! कुछ बातचीत हुई और फिर वे लौट आये!
"आप उन्हें देख रहे हो?" बोले रवीश जी,
"आचार्य जी को?" पूछा मैंने,
"नहीं, वो काले कोट में, उधर बाएं में, जिनके बाल माथे पर आये हैं!" बोले वो,
"हां, देख लिया!" कहा मैंने,
"उनका नाम नवोदित है!" बोले वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"चार साल तक कनाडा में थे!" बोले वो,
"अब लौट आये?'' पूछा मैंने,
"आना पड़ा!" बोले वो,
"कोई पारिवारिक वजह होगी?" पूछा मैंने,
"हां, कुछ वही!" बोले वो,
"और अब?" पूछा मैंने,
"अब मियां-बीवी यहां नर्सिंग होम, खोल रखा है, वहीं हैं!" बोले वो,
"दिल्ली में?" पूछा मैंने,
"हां!" बोले वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"लौटे कब?" पूछा शहरयार जी ने,
"एक साल पहले!" बोले वो,
"अच्छा, चलो ठीक!" कहा मैंने,
"एक मिनट रुको!" बोले वो और उठे, और जा पहुंचे नवोदित के पास, कुछ बातें हुईं, नवोदित ने हमें देखा और चल पड़े हमारी तरफ ही!
"नमस्कार!" बोले वो,
"नमस्कार डॉक्टर साहब!" कहा मैंने,
"कहां के साहब!" बोले वो,
''डॉक्टर हैं तो साहब जी ही हैं!" बोले शहरयार जी!
"बैठिये!" बोले वो,
और हम, खड़े हुए थे, बैठ गए तब!
रवीश जी ने हमारे पैग बना दिए, और कबाब की प्लेट आगे कर दी! मैंने एक टुकड़ा चम्मच से पनीर का काटा और खा लिया!
"और सब ठीक ठाक?" पूछा मैंने,
'जी, अब तो है, कह सकता हूं, आराम है!" बोले वो,
"कुछ, मेरा मतलब कुछ हुआ था क्या?" पूछा मैंने,
"जी, हुआ था!" बोले वो,
"क्या हुआ था?" पूछा मैंने,
"समझ नहीं सकता मैं भी!" बोले वो,
"ऐसी क्या बात हुई?" पूछा मैंने,
"मेरे साथ तो नहीं!" बोले वो,
"तब?" बोला मैं,
"मेरो पत्नी के साथ!" बोले वो,
"उनके साथ?" पूछा मैंने,
"हां!" बोले वो,
"क्या यहां आयी हैं?" पूछा मैंने,
"वो कहीं नहीं जातीं!" बोले वो,
"क्यों?" पूछा मैंने,
"बदलाव हुआ है!" बोले वो,
"कैसा बदलाव?" पूछा मैंने,
"बताऊंगा!" बोले वो,
"हां, जानना चाहूंगा!" कहा मैंने,
"क्या इस रविवार आप फ्री होंगे?" पूछा उन्होंने,
"हां, होऊंगा!" कहा मैंने,
"आप बता दें, मैं लेने आ जाऊंगा!" बोले वो,
"आपका पता तो होगा रवीश जी के पास?" पूछा मैंने,
"जी!" बोले वो,
"तब हम आ जाएंगे!" कहा मैंने,
"जी, अवश्य!" बोले वो,
''अभी कुछ ठीक नहीं इसका मतलब?" बोले शहरयार जी,
"जी, क्या बताऊं?" बोले वो,
'चलो बात करेंगे फिर!" कहा मैंने,
"जी!" बोले वो,
और हमने अपने अपने गिलास उठा लिए तब!
"नवोदित साहब!" कहा शहरयार जी ने,
"जी सर?" बोले वो,
"सर? खैर कोई बात नहीं! हां, मैं पूछ रहा था कि आप हमारे बारे में जानते हैं? हम कोई भी, किसी भी मेडिकल-फील्ड से जुड़े हुए तो नहीं हैं!" बोले वो,
"जानता हूं सर! सब जानता हूं! मुझे कई बार रवीश जी ने कहा था आपसे मिलने के लिए, लेकिन फंसा ऐसा, कि कुछ न बन पड़ा, दी तरफ चलना पड़ा मुझे!" बोले वो,
"दो तरफ, समझ गया!" कहा मैंने,
"जी, कहते हैं न, जो यक़ीन नहीं करता और वो जब यक़ीन करे तब टूट कर यक़ीन करता है!" बोले वो,
"यानि के मैं समझूं अब कि आप यक़ीन करते हैं!" बोले शहरयार जी,
गिलास में बर्फ तैर गयी थी मेरे, बर्फ के साथ कुछ पानी में रंगीन से धागे बन गए थे, पाने से खूब जद्दोज़हद हुई थी उस बर्फ की! और साथ में रखे बरफ के बर्तन में अब पानी उछाल मारने लगा था! बर्फ पिघल रही थी! तब मैंने चिकन का एक टिक्का उठाया, उसे हरी चटनी में डुबोया और मुंह में रख लिया, थोड़ा सा कड़ा था, लेकिन था बढ़िया मसालेदार! भूना भी सही तरह से गया था! माइक्रोवेव के सिंके में और लकड़ी की भट्टी में सिंके गोश्त की बात ही अलग होती है, जहां माइक्रोवेव में ये सिंकना बाहरी होता है वहीं भट्टी में पूरा सिंक जाता है! टुकड़ा तोड़ो तो अंदर से भी भाप निकल उठती है, और भट्टी के जलने का स्वाद ही गज़ब सा स्वाद ला देता है!
तभी सामने एक महिला आयी, उसने लिबास ऐसा पहना था, कि न तो संभाले ही बने न कुछ छिपाते ही बने, जबकि आज कुछ ठंडक थी, फिर भी उस महिला ने जो लिबास पहना था, उसमे उसकी पूरी की पूरी ही कमर नुमाया थी, अब पता नहीं वो अटकी कहां थी और बंधी कहा थी! कंधे साफ़ दीख रहे थे और कंधों पर जो कपड़ा था, वो कपड़ा कम धागा ही कहा जाएगा! बरबस सभी का ध्यान वहां चला गया था, कमर से नीचे भी कुछ यही हाल था, खैर, उस महिला को जब पहनने में शर्म नहीं तो देखने वाले क्यों क़तराते!
"जब मैं कनाडा में था, तब ये सब शुरू हुआ था!" बोले वो,
"आपकी पत्नी संग थीं?" पूछा मैंने,
"नहीं, मैं अकेला ही था वहां!" बोले वो,
"ओहो! तब ज़्यादा समस्या हुई होगी?" कहा मैंने,
"यूं समझिये एक पांव घर में और एक पांव विदेश में!" बोले वो,
"समझ सकता हूं!" कहा मैंने,
"न वहां मन लगता था, न यहां आने का ही!" कहा उन्होंने,
''आने का क्यों नहीं?" पूछा मैंने,
"कुछ व्यवसायिक शर्तें ऐसी थीं जिनका पालन ज़रूरी था!" बोले वो,
"ये तो होता है!" बोला मैं,
और हमने अपना पैग आधा किया उठाकर, डॉक्टर साहब ने 'रॉथमैंस' का पैकेट आगे कर दिया हमारे, और लाइटर भी, लाइटर कांच का बना था, नीले और गुलाबी रंग का एक जोड़ा उस पर बना था, साथ में बंद, कामुक से होंठों में जब वो तरल गैस हिलती थी, तो लगता था होंठों में जुम्बिश हुई हो!
"वैसे ऐसा कैसे हुआ था?" पूछा शहरयार जी ने,
"मुझे कम ही जानकारी है!" बोले वो,
"आपने पूछा नहीं?" पूछा मैंने,
"दिमाग पर कोई सदमा अधिक न लगे, इसीलिए!" बोले वो,
'हां, ये भी तो वजह है!" कहा मैंने,
"वैसे स्नेहा, बेहद समझदार और सुलझी हुई है!" बोले वो,
"स्नेहा? आपकी धर्मपत्नी?" कहा मैंने,
"जी!" बोले वो,
"वो भी डॉक्टर ही हैं?" पूछा मैंने,
"जी, वो भी!" बोले वो,
"काफी पढ़ा-लिखा परिवार है आपका!" कहा मैंने,
"कह सकते हैं!" बोले वो,
"तो वो यहीं रहीं?" पूछा मैंने,
"जी हां!" बोले वो,
"और तब कुछ ऐसा घटा?" पूछा मैंने,
"जी बिलकुल!" बोले वो,
"अब तो जल्दी से जानने की इच्छा है!" बोले शहरयार जी,
"रविवार बता दूंगा!" बोले वो,
"स्नेहा बातें तो करती हैं?" पूछा मैंने,
"हाना,व ऐसे तो बिलकुल ठीक ही है!" बोले वो,
"उबर गयीं सदमे से, जैसा आपने बताया?" बोले वो,
''पूरी तरह से? ऐसा तो नहीं कहूंगा!" बोले वो,
"ओह! मतलब अभी भी कुछ न कुछ है!" कहा मैंने,
"हां, मुझे भी लगता है!" बोले वो,
"कोई इशू है आपके?" पूछा शहरयार जी ने,
"जी, एक बेटा हुआ है!" बोले वो,
"कब?" पूछा मैंने,
"सोलह मैं, दिसंबर!" बोले वो,
"ये अच्छा हुआ!" कहा मैंने,
"हां, ध्यान भी बंटेगा उनका!" कहा मैंने,
"अभी आता हूं!" बोले वो,
"जी!" कहा मैंने,
वे उठे और चले गए, उस हॉल से बाहर!
"आदमी तो भले हैं!" बोला मैं,
"हां!" बोले वो,
"पता नहीं क्या हुआ होगा?'' पूछा मैंने,
"वो ही बताएंगे!" बोले वो,
"या फिर स्नेहा खुद ही!" बोला मैं,
"ये ही बात है!" कहा उन्होंने,
बचा हुआ गिलास भी ख़तम कर दिया हमने, पनीर का टुकड़ा लिया, भुनी हुई शिमला-मिर्च के साथ, और चबा लिया!
"पंजाबी तड़का है इन कबाबों में!" बोले वो,
"हां, सही पहचाना!" कहा मैंने,
"वो देखो ज़रा?" कहा मैंने,
"बताओ?" बोले वो,
"ये नया ज़माना है जी!" कहा मैंने,
"जब इस लड़की ने ऐसी वाहियात पोशाक पहनी है तब माँ तो शायद पहनती ही न हो!" बोले वो,
मेरी हंसी ही छूट गयी उनके बात सुनकर!
"देख लो आप?" बोले वो,
'देख लिया!" कहा मैंने,
"यहां बूढ़े गिद्ध भी गर्दन उठा रहे हैं, चाहे घर में दवा के सहारे उठाते हों!" बोले वो,
"क्या कहें!" बोला मैं,
"मरने दो जी! अखबार वालों को खबरें कहां से मिलेंगी फिर, जब सब ही सुधर जाएंगे! उनकी रोजी न छिन जायेगी!" बोले वो, हंसते हुए!
तो हमारी महफ़िल देर रात तक चलती रही, खाना आदि भी लिया और फिर रविवार का एक कार्यक्रम बना, हम चल दिए थे वहां से! रवीश जी ने कहा था कि यदि समय रहा और कोई ज़रूरी काम न हुआ तो वो भी साथ हो लेंगे हमारे, अब इस से अच्छा और क्या होता! दरअसल इस से कोई हिचकिचाहट नहीं होती, कई बार ऐसे सवाल या उत्तर बन पड़ते हैं कि सभी से उस विषय में खुल कर बात नहीं की जा सकती!
तो इस तरह शनिवार हुआ, शनिवार को रवीश जी से बात हुई, फिलहाल तक उनके पास कोई ज़रूरी काम नहीं था, उन्होंने नवोदित से बातें भी कर ली थीं, वे सारा दिन घर पर ही रहते! और हमारा ही इंतज़ार कर रहे थे, स्नेहा से इस बाबत बात भी कर ली थी, स्नेहा को हमसे बातें करने में कोई आपत्ति नहीं थी! बस वो कहीं जाना नहीं चाहती थी, और हम कहीं ले जाना नहीं चाहते थे, घर में ही बातें होतीं यही ठीक भी था!
और फिर हुआ इतवार, दस बज गए, रवीश जी कोई कोई काम नहीं आया था, वे हमें लेने आ रहे थे, ग्यारह बजे वे आ गए और हम उनके साथ चल पड़े, सीधे ही नवोदित के घर की तरफ! सवा घंटा सलग गया और! यातायात तो रविवार को भी कम नहीं होता अब! लोगों के काम ही ऐसे हैं कि बढ़ते ही चले जाते हैं घटने की बजाय!
घर पहुंचे, यहां का क्षेत्र समृद्ध था, मैंने जहां-तहां डॉक्टर्स के ही आवास देखे, बड़े बड़े, गाड़ियां खड़ी हुईं, उनके नौकर, गाड़ियों को साफ़ कर रहे थे, गार्ड्स आदि सभी वहीं मुस्तैद थे! एक ऐसे ही ति-मंजिला घर के सामने गाड़ी रुकी हमारी, गार्ड बैठा था, रवीश जी को देख सलूट मारा उसने और फिर हमसे भी नमस्कार की, रवीश जी यहां आते जाते रहे होंगे, ये तो पता चल गया था! घर सच में अच्छा बना हुआ था, सफेद रंग का पत्थर लगा था, स्टील से बना एक गेट था, गेट के साथ ही उनका नाम भी स्टील के अक्षरों से लिखा था! बिगुल-बेलिया की बेलें लगी थीं, सफेद और संतरी फूल खिले थे, बड़े बड़े अंग्रेजी गुलाब लगे थे, नीचे लगी चम्पा पर भी बहार आयी थी! वहीं एक मादा श्वान अपने बच्चों को दूध पिला रही थी लेट कर, उसके पास ही एक बड़ा सा बर्तन भी रखा था, मकान में रहने वालों ने उस गली के श्वान को अच्छी पनाह दी थी, दूध, भोजन का ख़याल रखा जा रहा था!
"हैं क्या?" पूछा गार्ड से उन्होंने,
"हां जी!" बोला वो,
और दरवाज़ा खोल दिया, हम तीनों अंदर चले गए, सीढ़ियां चढ़े, सीढ़ियों के नीचे दवाओं के डिब्बे रखे थे, अखबार भी और कुछ सेनेटरी-पाइप्स भी रखे थे, खैर हम ऊपर चढ़ते चले गए, एक दरवाज़े की घंटी बजायी और दरवाज़ा खुला, बार जूतेखाने में जूते उतार कर रख दिए, और सामने से नवोदित ही आये! हमें देख प्रसन्न हुए और अंदर बुला लिया! गुजराती कुर्ते में अच्छे डॉक्टर लग रहे थे वे!
हम अंदर आये और उस आलिशान से बने ड्राइंग-रूम में बैठ गए! शानदार रूप से सजाया गया था वो ड्राइंग-रूम! इटालियन सोफे थे वो, गद्दे भी, एक बड़ा सा कोकाकोला रंग का मोटा सा कालीन बिछा था, छत से खूबसूरत डिज़ाइन झांक रहा था, बरबस ध्यान खींचता था अपनी तरफ!
तो हमें पानी पिया, और फिर चाय-बिस्कुट आ गए, वो भी लिए हमने, कुछ इधर-उधर की बातें हुईं और फिर सीधे ही हम स्नेहा के ज़िक्र पर आ गए!
"आइये, मिलवा देता हूं!" बोले वो,
"जी चलिए!" कहा मैंने,
"मैं यहीं हूं!" बोले शहरयार जी,
"ठीक है!" कहा मैंने,
और मैं चल पड़ा, एक कमरे के बाहर रुके, दरवाज़ा खोला उन्होंने अंदर गए और अगले ही पल बाहर आ गए,
"आइये!" बोले वो,
मैं अंदर आया, अंदर आते ही, गवर्नेस ने उस छोटे बालक को उठाया, गद्दा लिया, फीडर-बोतल ली और बाहर चली गयी!
"बैठिये!" बोले वो,
सामने बिस्तर पर स्नेहा बैठी थी, सुशील से, शांतचित्त वाले, सुंदर और मज़बूत सी कद-काठी वाली महिला थी स्नेहा! हाथ बड़े ही मज़बूत थे उसे, कंधे चौड़े और केश लम्बे, नीचे कमर तक झूलते हुए!
"ये हैं स्नेहा!" बोले वो,
"जी!" कहा मैंने,
"और स्नेहा? ये वो ही हैं जिनके बारे में मैंने और रवीश ने बताया था!" बोले वो,
उसने सर हिलाया और हाथ जोड़ नमस्कार की, अब उसकी आंखें देखीं, सुंदर सी सजल आंखें थीं, लेकिन आँखों के इर्द-गिर्द सोच के बादल छाये हुए थे, लगता था आंखों को आराम नहीं दिया गया था, मशक़्क़त ज़्यादा ही हुई थी उनकी! नाक में एक छल्ला पहना था, बेहद ही प्यारी सी नाक थी स्नेहा की, वो छल्ला छतीस से सैंतीस हो उठता था जब भी प्रकाश उस से टकराता तो! एक सुंदर सी देह, अब शायद ढलान की ओर चलने को आतुर हो, ऐसा लगता था!
''आप बातें करें, मैं आता हूं!" बोले वो,
और चले गए बाहर, दरवाज़ा डोर-पुशर से बंद हो रहा था धीरे-धीरे और बंद हो गया था फिर!
"कैसी हैं?" पूछा मैंने,
"ठीक हूं!" बोली वो, धीरे से,
"आप भी डॉक्टर हैं न?" पूछा मैंने,
"जी" बोली वो,
"इनके साथ ही?" पूछा मैंने,
"हां" बोली वो,
"क्या हैं?" पूछा मैंने,
"सीनियर फिजिशियन" बोली वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"नर्सिंग-होम में ही?" पूछा मैंने,
"जी" बोली वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"ओ.पी.डी." बोली वो,
"अच्छा! और कहां के रहने वाले हैं?" पूछा मैंने,
"देहरादून" बोली वो,
"और डॉक्टर साहब?" पूछा मैंने,
"वो भी" बोली वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"मुझे बताया गया कि कुछ समस्या है आपके साथ?" पूछा मैंने,
"समस्या?" बोली वो,
"हां?" कहा मैंने,
"तब तो कोई समस्या ही नहीं होती!" बोली वो,
"तो कुछ और ही बात?" पूछा मैंने,
"हां!" बोली वो,
"क्या?'' पूछा मैंने,
"क्या कभी कुछ ऐसा होता है जिस पर आप यक़ीन न करो और यक़ीन करना ही पड़े?" बोली वो,
"हां!" कहा मैंने,
"क्या ऐसा?" बोली वो,
"बहुत कुछ!" कहा मैंने,
"बताएं?" बोली वो,
"पहले आप बताएं?" बोली वो,
"कुछ ऐसा जो आप देखो और वो हो ही न?" कहा मैंने,
मैंने कहा और उसने झटके से सर उठाया अपना! अविश्वास में! और........
अविश्वास में! हां! यही कहूंगा मैं! उसे मेरे उत्तर का ऐसा प्रश्नात्मक ही उत्तर सुन, अविश्वास ही हुआ था! या यूं ही कहें कि उसे मुझ से ऐसे उत्तर का अपेक्षा कदापि नहीं थी! अभी मुझे उस से मिले हुए, आधा घंटा ही भले ही बीता हो, लेकिन मुझे ये अहसास उसे दिलाना ही था कि जैसे मैं उसको जानता हूं! और यहां से आरम्भ होता हे ये एक अनोखा ही संस्मरण!
लाइव अकाउंट, स्नेहा-१
................................
"क्या आपका ये उत्तर महज़ एक अंदाजा ही था या फिर आपने अपने तज़ुर्बे के मुताबिक़ ऐसा जवाब दिया?" पूछा उसने,
"मैं कहूंगा कि दोनों ही!" कहा मैंने,
"अंदाज़े की गुंजाईश कितनी?" पूछा उसने,
"कुछ कम ही!" कहा मैंने,
वो चुप हो गयी! उठी और फिर से बैठ गयी! इस बार, अपने दोनों हाथ अपने पेट पर बांधते हुए!
"क्या मैं ये उम्मीद लगाऊं कि जो मैं बताउंगी उसको आप किसी भी हाल पर मज़ाक़ नहीं समझेंगे?" बोली वो,
"हरगिज़ नहीं!" कहा मैंने,
"और क्या मैं आप पर विश्वास कर सकती हूं?" पूछा उसने,
"खुद हां कहूंगा तो शायद कच्ची बात रहे, आप बातें करते रहें और खुद ही अंदाजा लगाएं, क्योंकि ये मैं जान गया हूं कि इंसानी भावों पर आपकी पकड़ बेहद मज़बूत है!" कहा मैंने,
वो मुस्कुरा गयी! शायद उसको अब कोई मिला था जो उसको एक ही बार में, बिना कुछ दोहराये समझ रहा था!
"हमारे क्षेत्र में, ऐसी बातों को अंधविश्वास, डिसऑर्डर आदि कहते हैं!" बोली वो,
"बखूबी जानता हूं!" कहा मैंने,
"और अंत में मैंने भी ऐसा कुछ कहा तो?" बोली वो,
"तब मुझे समझना होगा कि मैं आपको न तो समझ ही सका और न समझा ही सका जिस तरह से ये सब होना चाहिए था!" कहा मैंने,
वो फिर से मुस्कुरायी और मैं भी!
"आपने चाय ली? मंगवाऊं?" पूछा उसने,
"ले ली है! आप तक़लीफ़ न उठायें, ज़ारी रखें!" कहा मैंने,
"तो शुरू करूं?" बोली वो,
"इंतज़ार में हूं!" कहा मैंने,
"ठीक!" बोली वो,
"जी!" कहा मैंने,
"मैं इस शहर में, जब शादी हो कर आयी, मैं अपनी मेडिकल-प्रैक्टिस कर रही थी!" बोली वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"उसके बाद, नवोदित का बाहर जाना तय हुआ और वे कनाडा चले गए! समय, कटता भी है और काटा भी जाता है!" बोली वो,
"आपने काटा, समझ गया!" कहा मैंने,
"दिल्ली में ही, उत्तरी दिल्ली में, नवोदित के चाचा जी का भी अपना एक अच्छा-ख़ासा नर्सिंग-होम है, तो मैंने वो ज्वाइन किया, मैं वहां पर ड्यूटी करने लगी!" बोली वो,
"दिन में?'' पूछा मैंने,
"दिन में भी, ऑन-कॉल भी और कई बार रात को भी!" बोली वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"समय कट ही रहा था, नवोदित के माता-पिता, मेरे सास-ससुर आते जाते रहते थे, मेरे ज्येष्ठ हैं, वो फरीदाबाद में रहते हैं, एक बड़े भाई की तरह से हैं वो, बेहद समझदार और संतुलित विचारधारा के व्यक्ति हैं!" बोली वो,
"जी!" कहा मैंने,
अब वो चुप हुई! कुछ उधेड़बुन में लगी हो, ऐसा लगा, कई बार कोई पुरानी घटना, अपने तारों को जोड़ती है तो कोई आगे और कोई पीछे, ऐसे हो जाती है, यहां भी कुछ ऐसा ही हो रहा था, दिमाग में कई विचार, यादें परस्पर साथ ही साथ चल रहे थे उसके!
"वो सर्दी के दिन थे, नवंबर का आखिरी हफ्ता था!" बोली वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"मुझे अच्छी तरह से याद है कि साढ़े आठ बज रहे थे, क्योंकि आनंद उसी समय कॉफ़ी लेकर आया था, जैसा वो अक्सर किया करता था!" बोली वो,
"आनंद?" पूछा मैंने,
"वार्ड-बॉय!" बोली वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"उस कमरे में, मैं, एक डॉक्टर सूरी जी, एक दक्षिण भारतीय नर्स सविता और एक डॉक्टर साहिला थीं!" बोली वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"बाहर ही रिसेप्शन था और उस पर कुछ लोग खड़े हुए थे, मेरी तरफ की खिड़की से मुझे सब दीख रहा था!" बोली वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"रूम नंबर दो सौ आठ में एक पेशेंट था, उसकी हालत शाम से ही खराब थी, तो डॉक्टर सूरी ही उसे अटेंड कर रहे थे, कॉफ़ी ख़त्म की उन्होंने और वे फिर राउंड पर चले गए, उनके साथ साहिला भी चली गयी!" बोली वो,
"ठीक!" कहा मैंने,
"रात करीब सवा नौ बजे, रिसेप्शन पर एक कॉल आयी!" बोली वो,
"जी!" कहा मैंने,
"ये किसी गवर्नेस की कॉल थी और वो चाहती थी कि किसी डॉक्टर से उसकी बात करवाई जाए!" बोली वो,
"ऐसा क्या था?'' पूछा मैंने,
"बता रही हूं!" बोली वो,
"जी, ज़रूर!" कहा मैंने,
"डॉक्टर कोई था नहीं तो रिसेप्शन से वो लड़की, जिसका नाम, नीतू था, मेरे कमरे में चली आयी, मुझे सारी बात बताई, अब ये एक डॉक्टर का फ़र्ज़ है कि वो ज़रूरतमंद की मदद करे, पता नहीं क्या हो दूसरी तरफ!" बोली वो,
"बेशक!" कहा मैंने,
"तो मैं उठ कर उसके साथ चली गयी! वहां आयी तो कॉल कट चुकी थी, कॉलर-आईडी के अनुसार वो एक लोकल ही कॉल थी, मैंने कुछ देर इंतज़ार किया और फिर से घंटी बजी!" बोली वो,
"वो ही गवर्नेस?" पूछा मैंने,
"हां!" बोली वो,
"फिर?'' पूछा मैंने,
"मेरी बातें हुईं!" बोली वो,
"क्या?" पूछा मैंने,
"दूसरी तरफ एक लड़की थी, उसने अपना नाम नैंसी बताया, और ये भी कि उसकी लैंडलॉर्ड लेडी अभी सात महीने की गर्भवती हैं! अचनाकस से बहुत दर्द उभरा है, और उस लेडी को इस समय डॉक्टर की ज़रूरत है!" बोली वो,
"सो तो होगी, सात महीने का गर्भ था उस स्त्री को, ठीक! समझ गया!" कहा मैंने,
"मैंने उसको बता कि यहां इस समय हमारे पास कोई स्त्री-विशेषज्ञ नहीं है, वो कहीं और कोशिश कर लें या फिर गाड़ी हो तो फौरन ही किसी अस्पताल ले जाएं उन्हें!" बोली वो,
"सही सलाह दी आपने!" कहा मैंने,
"लेकिन वो लड़की नैंसी अड़ी ही रही, बोली कि कहीं और तो नाम भी नहीं लिखवाया, कोई पंजीकरण भी नहीं है, उनके क्षेत्र में कोई नर्सिंग-होम भी नहीं और सबसे बड़ी बात, उनके पास कोई साधन भी नहीं कि उस लेडी को वो कहीं ले जाएं!" बोली वो,
"ओह! फिर?'' पूछा मैंने,
"हमारे यहां कोई नहीं था इसा, ले भी आते तो ज़्यादा कुछ हम कर भी नहीं सकते थे, वो बार बार ज़िद कर रही थी, उस जल्दी के बारे में सोचिये, बच्चे के बारे में सोचिये, यही कहे जा रही थी!" कहा उसने,
"तब? तब क्या हुआ?" पूछा मैंने,
"जब मैंने असमर्थता बताई तब फ़ोन कट गया!" बोली वो,
"फिर?'' पूछा मैंने,
"मैंने सोचा शायद फिर से फ़ोन आये, लेकिन आधा घंटा बीत गया, कोई फ़ोन नहीं आया, मैं अंदर आ कर, फिर से इस बात को भुला कर, अपने काम में ही मसरूफ़ हो गयी, मुझे भी मरीज़ देखने थे, दवा देनी थी!" बोली वो,
"ठीक बात!" कहा मैंने,
"करीब सवा ग्यारह बजे हल्की सी बूंदा-बांदी सी हुई, बाहर सर्द हवाओं का प्रकोप शुरू हुआ था, सभी अपने अपने कोने में जा दुबके थे, बाहर सिर्फ वही गाड़ियां खड़ी थीं जो अपने अपने मरीज़ों के साथ वहां रुके थे, या बस सामने एक चाय का खोमचा खुला था, सामने ही भट्टी सुलग रही थी, दो-चार लोग आग ताप रहे थे, ये शायद रिक्शेवाले थे या आसपास के ही कुछ लोग, पक्का नहीं कह सकती!" बोली वो,
"हां, सर्दी में कहीं अलाव जला हो, तो कोई भी आये मना नहीं करता, और वो तो चाय का खोमचा था, इसी बहाने चाय भी बिक ही रही होगी उसकी!" कहा मैंने,
"हां, यही हो रहा था!" बोली वो,
"फिर साढ़े ग्यारह बजे, दुबारा से उसी नंबर से कॉल आयी, इस बार भी वही लड़की नैंसी थी लाइन पर, उसने जैसे रटे-रटाए से सवाल और अपनी मज़बूरी ज़ाहिर की!" बोली वो,
"ओह! इसका मतलब वो स्त्री अभी तक दर्द में ही थी, कुल मानो तो करीब दो घंटे तक?" कहा मैंने,
"हां!" बोली वो,
"फिर?'' पूछा मैंने,
"मैंने कॉल अटेंड की थी, रिसेप्शन पर जो लड़की थी, वो आराम करने लगी थी, सर्दी की वजह से अक्सर ऐसा हो जाता है!" बोली वो,
"सही बात, हम सभी एक से ही इंसान हैं!" कहा मैंने,
"इस बार मैंने, हां सही कहा आपने, एक जैसे ही इंसान हैं! हां, तो इस बार मैंने उस नैंसी से उस लेडी के हस्बैंड के बारे में पूछा, तो पता चला वो किसी कार्य से चार दिनों से बाहर थे, एक हफ्ते बाद ही आएंगे!" बताया उसने,
"ओहो! ये भी मुसीबत!" कहा मैंने,
''गाड़ी वो ही ले गए थे!" बोली वो,
"समझ गया मैं!" कहा मैंने,
"फिर से फ़ोन कट गया!" बोली वो,
"शायद मौसम ज़्यादा ही खराब रहा होगा?" पूछा मैंने,
"पता नहीं!" बोली वो,
"तब? तब आगे क्या हुआ?" पूछा मैंने,
"मैंने उसकी मज़बूरी पढ़ ली थी शायद, और मैंने उसे एक नंबर दिया, कि वो वहां कॉल करे, ये नंबर एक दूसरे नर्सिंग-होम का था, यहां मैटरनिटी की सभी फैसिलिटीज थीं, हो सकता है, उसकी मदद हो जाए!" कहा उसने,
"ये आपने बहुत अच्छा किया!" कहा मैंने,
"तो इस तरह मैं भी निश्चिन्त हो गयी कि चलो अब उसे मदद मिल जायेगी, साधन नहीं है तो कोई बात नहीं, एम्बुलेंस ले आएगी!" कहा उसने,
"अच्छा किया आपने!" बोला मैं,
"लेकिन करीब बारह बज कर दस मिनट पर फिर से कॉल आयी, इस बार भी वही लड़की, नैंसी थी!" बोली वो,
"अच्छा?'' पूछा मैंने,
"हां!" बोली वो,
''अब किसलिए?'' पूछा मैंने,
"मेरी बात हुई तो नैंसी ने कहा कि जो नंबर मैंने उसे दिया था, उस पर घंटी नहीं जा रही है, शायद खराब है वो नंबर, कोई दूसरा हो तो कृपा कर, देवें!" बोली वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"हां, तो मैंने उस नंबर पर कॉल की, कॉल उठी, लेकिन वो कॉल नर्सिंग-होम न जा, कहीं किसी की फैक्ट्री में लग गयी थी, रोंग-नंबर!" बोली वो,
"ओह! इसका मतलब नैंसी ने ठीक कहा था!" कहा मैंने,
"हां!" बोली वो,
"तब?" पूछा मैंने,
"तब मैंने दूसरा नंबर तलाश किया, वो मिल गया, उस पर बात हुई, बता दिया कि कोई नैंसी नाम की लड़की कॉल करेगी तो कॉल अटेंड कर ली जाए, उसकी मालकिन को इलाज की सख्त ज़रूरत है!" बोली वो,
"ये तो और भी अच्छा किया आपने!" बोला मैं,
"नैंसी की कॉल आयी और मैंने उसे वो नंबर दे दिया! बात अच्छी तरह से समझा दी थी! बातों ही बातों में मैंने ये पूछ लिया था कि क्या नैंसी के अलावा घर में और कोई नहीं, साथ जाने वाला?" बोली वो,
"अच्छा, फिर? क्या जवाब दिया?" पूछा मैंने,
"उसने मना किया, उस समय घर में बस वो दो ही थीं!" बोली वो,
"ओह! मुसीबत कभी बता कर नहीं आती!" कहा मैंने,
"ये सच कहा आपने!" बोली वो,
"ऐसा ही होता है!" कहा मैंने,
तभी वो गवर्नेस अंदर आयी, कुछ कपड़े ले गयी बाहर!
"अच्छा फिर?'' पूछा मैंने,
"करीब डेढ़ बजे, कॉल फिर से आयी!" बोली वो,
"ओह!" कहा मैंने,
"ये नैंसी ही थी, उसने बताया कि बात हो गयी है और वहां से एक डॉक्टर आ रहे हैं क्योंकि वो स्त्री जाने की स्थिति में नहीं है!" बोली वो,
"चलो! ये भी अच्छा हुआ!" कहा मैंने,
"मुझे भी सुकून पहुंचा!" बोली वो,
"पहुंचना ही था!" कहा मैंने,
"तब उस रात बाद में कोई कॉल नहीं आयी फिर! अब मुझे यक़ीन हो गया था कि उसकी मदद हो गयी होगी!" बोली वो,
"हो ही गयी होगी! तभी तो कोई कॉल नहीं आयी!" कहा मैंने,
"हां, मुझे भी यही लगा!" बोली वो,
और अपना तकिया, कमर के पीछे से हटा लिया, सामने रख दिया, उस पर, अपने घुटने टिका लिया, तिरछी हो, बैठ गयी थी!
"चलिए! किसी ज़रूरतमंद की मदद हुई, सुकून मिला!" कहा मैंने,
"हां, यही सोचा था मैंने भी!" बोली वो,
"तो ठीक ही सोचा था!" कहा मैंने,
"ये आपका मानना ही है!" बोली वो,
"मतलब?" पूछा मैंने,
"मैंने मदद की, ठीक! सुकून पहुंचा ठीक! लेकिन एक सवाल?" बोली वो,
"वो सवाल क्या?" पूछा मैंने,
"कि वो है कौन?" पूछा उसने,
"हां!" कहा मैंने,
"खैर, ज़िंदगी में इतनी भागम-भाग रहती है कि वक़्त नहीं मिलता दोबारा सोचने का! रुक जाओ, तो पीछे छूट जाओ!" बोली वो,
"हां! यही बात है!" कहा मैंने,
वो चुप हो गयी, कुछ उथल-पुथल सी मची उसके दिल में, मैं भी समझ ही गया था कि कहानी यहीं कहीं घूमती है! इसके इर्द-गिर्द ही!
"तो चार दिन बीत गए!" बोली वो,
"इस घटना को!" कहा मैंने,
"हां!" बोली वो,
"फिर?" पूछा मैंने,
"उस रोज, करीब ग्यारह बजे रात में फिर से कॉल आयी!" बोली वो,
"उसी नैंसी की?" पूछा मैंने,
"हां!" बोली वो,
"अरे?" कहा मैंने,
"हां! नैंसी ने ही कॉल की थी!" बोली वो,
"इस बार क्या बोली?'' पूछा मैंने,
"बताया कि उस स्त्री की तबीयत खराब है, और वैसे, इतनी भी नहीं कि अस्पताल ले जाना पड़े, उन्हें उल्टियां हो रही हैं करीब घंटे भर से ही!" बोली वो,
"अच्छा, अक्सर ऐसा होता ही है?'' कहा मैंने,
"हां, तो मैंने पूछा कि कोई दवा नहीं है जो उन डॉक्टर ने दी हो?" बोली वो,
"फिर?" पूछा मैंने,
"नैंसी ने कहा कि दवा तो निबट गयी!" बोली वो,
"फिर?" पूछा मैंने,
"फिर मैंने कहा कि नीम्बू हो तो नीम्बू-पानी पिला दो उन्हें, आराम हो जाएगा!" बोली वो,
"तब?" पूछा मैंने,
"उसने बताया कि घर में नीम्बू नहीं हैं!" बोली वो,
"तब?" पूछा मैंने,
"मैंने कहा कि कोई कोल्ड-ड्रिंक हो, तो चलेगा!" कहा उसने,
"तो?" पूछा मैंने,
"तो कोल्ड-ड्रिंक था, और वो उसने दे दिया उन्हें!" बोली वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"और ये भी कहा कि हो सके तो एक बार चेक-अप करवा लें उनका, कोई तकलीफ होगी तो इलाज हो जाएगा!" बोली वो,
"हां सही कहा आपने!" बोली वो,
"लेकिन कोल्ड-ड्रिंक सिर्फ ज़ायक़े के लिए था, ये कोई सॉलूशन नहीं था, बेहतर तो यही था कि उनको कोई डॉक्टर ही देखे!" बोली वो,
"लेकिन उस साढ़े ग्यारह बजे, ठंड में, कैसे बात बने?" पूछा मैंने,
"हां! सही कहा!" बोली वो,
"तो क्या रहा?" पूछा मैंने,
"खैर, इसके बाद कोई बात नहीं हुई, शायद काम बन गया था! हां इतना ज़रूर कहा था मैंने कि एक बार जांच ज़रूर करवा लें!" बोली वो,
"ये तो ठीक कहा था आपने!" कहा मैंने,
"तो दिन दिन और बीते!" बोली वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"लेकिन एक अजीब सी बात मेरे साथ होने लगी थी!" बोली वो,
"क्या अजीब?" पूछा मैंने,
"मुझे अब रह रह कर उस स्त्री का ख़याल आता था!" बोली वो,
"आप डॉक्टर हैं!" कहा मैंने,
"हां, लेकिन दिन में हम सैंकड़ों मरीज़ देखते हैं, लेकिन ख़याल किसी का नहीं रहता! या कम ही रहता है!" बोली वो,
"ये तो है!" कहा मैंने,
"मैं किसी भी गर्भवती स्त्री को देखती, तो दो बार देखती थी, कि कहीं वो, वो तो नहीं?" बोली वो,
"ऐसा?" पूछा मैंने,
"हां!" बोली वो,
"और तो और, मुझे अब उस फ़ोन-कॉल का भी इंतज़ार रहता!" बोली वो,
"समझ गया!" कहा मैंने,
"रिसेप्शन पर घंटी बजती, तो मेरे कान वहीं लग जाते!" बोली वो,
"ये तो अजीब ही है!" कहा मैंने,
"मुझे न जाने क्यों, इंतज़ार सा रहता!" बोली वो,
"समझ सकता हूं!" कहा मैंने,
"तो इस तरह और दिन बीते, करीब आठ दिन!" बोली वो,
"तो इन गए सात दिनों में कोई कॉल नहीं?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोली वो,
"तब आराम पड़ गया होगा उन्हें!" कहा मैंने,
"हां!" बोली वो,
"या फिर कहीं और को दिखा दिया होगा!" कहा मैंने,
"हो सकता है!" बोली वो,
"समझ गया!" बोला मैं,
"लेकिन मेरा जीवन जैसे, क्या कहूं? हां, उचाट सा लगने लगा था!" बोली वो,
"उचाट सा?" पूछा मैंने,
"हां!" बोली वो,
"जैसे?" पूछा मैंने,
"कोई कमी हो जैसे!" बोली वो,
"आप शायद भावुक हैं!" कहा मैंने,
"हां, हूं तो!" बोली वो,
"लेकिन एक डॉक्टर के लिए ये, भावुक होना, कमज़ोरी ही है!" कहा मैंने,
"बिलकुल सही कहा आपने!" बोली वो,
फिर वो चुप हो गयी! घुटने बदले उसने!
"नौवें दिन फिर से रात का ही वक़्त था, मैं किसी मरीज़ की रिपोर्ट देख रही थी कि वो लड़की अंदर आयी!" बोली वो,
"कौन लड़की?" पूछा मैंने,
"रिसेप्शनिस्ट!" बोली वो,
"अच्छा? फिर?" पूछा मैंने,
"अच्छा, फिर?'' पूछा मैंने,
"मैं उठ कर गयी! मुझे जैसे बेचैनी ने मार रखा था! जैसे मैं कब से उस कॉल के इंतज़ार में बैठी थी! क्या कहूं? हां, मनाइये जैसे भूखे को भोजन मिला!" बोली वो,
"ये तो कुछ बेचैनी से अलग, बेसब्री हुई? है न?" पूछा मैंने,
"हां! बेसब्री ही!" बोली वो,
"तो आपने कॉल अटेंड की?" पूछा मैंने,
"हां, मैं दौड़ते हुए चली गयी! उस लड़की से भी तेज!" बोली वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"और फिर बात शुरू हुई! नैंसी ने सबसे पहले इस सब मदद के लिए शुक्रिया कहा! और ये भी बताया कि अब वो लेडी ठीक हैं!" बोली वो,
"लेडी? नाम क्या था उनका?'' पूछा मैंने,
"रोज़ी!" बोली वो,
"बड़ा ही प्यारा नाम है!" कहा मैंने,
"हां, बेहद ही प्यारा सा नाम है ये रोज़ी!" बोली वो,
"अच्छा, आगे?'' पूछा मैंने,
"नैंसी बार बार धन्यवाद किये जा रही थी और शायद पीछे से रोज़ी भी कुछ कह रही थीं, वो भी शुक्रिया ही किये जा रही थीं!" बोली वो,
"और उनके हस्बैंड?'' पूछा मैंने,
"उनका कोई ज़िक्र नहीं हुआ था!" बोली वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"तब अचानक से मेरे अंदर से, शायद अन्तःमन में दबी एक इच्छा सामने आ गयी!" बोली वो,
"इच्छा?'' पूछा मैंने,
"हां!" बोली वो,
"क्या इच्छा?" पूछा मैंने,
"उनसे मिलने की!" बोली वो,
"अच्छा! समझा मैं!" कहा मैंने,
"पता नहीं, मेरे मन में कहां से आ गयी ये इच्छा!" बोली वो,
"जैसा कि आपने बताया कि आप बेचैन, बेसब्र हुए जा रही थीं, तो इस तरह की इच्छा अचानक से पैदा होना, कोई बड़ी बात नहीं! ऐसा अक्सर होता भी है! ज़िंदगी में हम बहुत लोगों से मिलते हैं, कुछ भुला दिए जाते हैं और कुछ हमेशा के लिए, संजो लिए जाते हैं, तब ये रोज़ी और नैंसी, इसी तरह से आपने अपनी यादों में संजो कर रखी थी, और जो मैं देख रहा हूं, आज भी संजो रखा है!" कहा मैंने,
"हां! संजो के रखा है मैंने आज भी!" बोली वो,
"न रखा होता तो शायद कोई नयी बात नहीं होती, लेकिन आपने रखा, इसीलिए ये दोनों स्वतः ही ख़ास हो जाती हैं!" कहा मैंने,
"बिलकुल ठीक!" बोली वो,
तब उसने फिर से घुटने बदले, बाएं पांव की जुराब ठीक की और बायां पांव सीधा रख लिया!
तभी वो गवर्नेस अंदर चली आयी, मुझे देखा और फिर स्नेहा के पास चली गयी! कुछ बातें कीं उनसे!
"यदि कहीं जाना हो तो मैं बाद में आ जाऊंगा!" कहा मैंने,
"आपको बुरा तो नहीं लगेगा?" बोली वो,
"अरे नहीं!" कहा मैंने,
"विवशता जो है!" बोली वो,
"कोई बात नहीं!" कहा मैंने,
"आप एक काम कर सकते हैं?" बोली वो,
"हां? बताइये?" बोला मैं,
"कल समय हो तो आ जाइये?'' बोली वो,
"कल?" कहा मैंने,
"देख लीजिये?" बोली वो,
"ठीक है!" कहा मैंने,
"चार बजे?" बोली वो,
"ठीक, चार बजे!" कहा मैंने,
और मैं ये कह बाहर चला आया! नवोदित से बातें हुईं और फिर सारा कार्यक्रम बता, कल आने को कह दिया मैंने, उन्होंने बड़ा ही धन्यवाद किया हमें! उसके बाद, हम वहां से निकल आये! करीब डेढ़ घंटे के बाद, मैं शहरयार जी के साथ, उनके दफ्तर पर चला आया! उनके पुत्र का दफ्तर है वो, ऊपर एक कमरा है, सब साजो-सामान रखा है, तो यहीं आ कर हम बैठ गए!
"क्या मामला है?" पूछा उन्होंने,
मैंने उन्हें बताया अब!
"कमाल है!" बोले वो,
''हां!" बोला मैं,
"इसमें अभी कहीं कोई ऊंच-नीच नहीं!" बोले वो,
"बिलकुल नहीं!" कहा मैंने,
"सब सामान्य ही है!" बोले वो,
"हां लेकिन एक बात तो है?" कहा मैंने,
"वो क्या?" पूछा मैंने,
"वो बेसब्री क्यों थी?" पूछा मैंने,
"इंसानी फितरत है!" बोले वो,
"लेकिन उनका पेशा ऐसा नहीं?" कहा मैंने,
"तब क्या माना जाए?" बोले वो,
"ये बेसब्री है क्या?" पूछा मैंने,
''एक ललक?" बोले वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
"कसक?" बोले वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
"तब जुड़ाव!" बोले वो,
"हां! ये ही है!" कहा मैंने,
"एक जज़्बाती जुड़ाव!" बोले वो,
"हां!" कहा मैंने,
"जो शायद मिलने तलक ही हो?" बोले वो,
"सम्भव है!" कहा मैंने,
"मामले में पेचीदगी तो है!" बोले वो,
"लगता तो है!" कहा मैंने,
"अभी भी यादें ठीक वैसी हैं?" बोले वो,
"हां, ज़िंदा!" कहा मैंने,
"लेकिन ये सदमा कैसा फिर?" बोले वो,
"कोई वजह रही होगी?" कहा मैंने,
"कुछ और, मतलब?" पूछा उन्होंने,
"हां, शायद!" कहा मैंने,
"चलिए! देखिये!" बोले वो,
"हां, अब देखें, क्या है इस कहानी में!" कहा मैंने,
तो आगे बढ़ता हूं अब, हम अगले दिन दिन में चार बजे से कुछ पहले जा पहुंचे थे, नवोदित से बात हो गयी थी, वे घर पर न थे, स्नेहा तीन बजे घर पहुंच गयी थी, साथ में उनकी गवर्नेस भी थी, उनके अलावा और कोई वहां, उस बालक को छोड़ दें तो, कोई नहीं था! तक़रीबन चार बजे ही मैं स्नेहा के साथ उनके कमरे में बैठा था, नमस्कार आदि हुई और पानी पिया, शहरयार साहब बाहर ही बैठे थे और टीवी देखने लगे थे, वो गवर्नेस बालक को लिए बाहर ही घूम रही थी!
लाइव अकाउंट, स्नेहा- २
.....................................
"कल मुझे जाना पड़ा था कहीं, क्षमा चाहती हूं!" बोली वो,
"कोई बात नहीं, कुछ विवशताएं अक्सर आ ही जाती हैं!" कहा मैंने,
"हां, यही बात थी!" बोली वो,
"ठीक! जहां से कल छोड़ा था, वहीँ से आगे बढ़ते हैं!" कहा मैंने,
"हां, तो मेरे मन में एक इच्छा आयी थी अचानक कि मैं एक बार मिलूं उनसे!" बोली वो,
"हां, आपने बताया था!" कहा मैंने,
"तो मैंने नैंसी से ये बात कही!" बोली वो,
"मतलब आपने पता पूछा?" पूछा मैंने,
"हां, उनका पता!" बोली वो,
"अच्छा, मिला फिर पता?'' पूछा मैंने,
"हां, मिल गया था पता!" बोली वो,
"नैंसी ने दिया होगा?" पूछा मैंने,
"हां!" बोली वो,
"अभी तक आपकी उस, लेडी, क्या नाम है? हां, रोज़ी, उनसे कोई बात नहीं हुई थी!" कहा मैंने,
"हां, कोई बात नहीं हुई थी!" बोली वो,
"तब/" पूछा मैंने,
"नैंसी से मेरी करीब पंद्रह मिनट तक बातें हुई थीं, और मैंने पता भी ले लिया था!" बोली वो,
"अच्छा! क्या आपने नैंसी को कोई वक़्त दिया था? कि अब कब आओगे मिलने उनसे?" पूछा मैंने,
"नहीं, ये तो नहीं बताया था!" बोली वो,
"अच्छा! ठीक!" कहा मैंने,
"तो मेरी बातें खत्म हुईं, और मैं वापिस अपने कमरे में आ बैठी!" बोली वो,
"तब आपको कुछ तसल्ली हुई?" पूछा मैंने,
"हां, लगा जैसे घुटन से बाहर आ गयी हूं!" बोली वो,
"समझ गया!" कहा मैंने,
"रात करीब एक बजे, रिसेप्शन का फ़ोन बजा, मेरे कान सीधे ही वहां लग गए, रिसेप्शन पर अब एक लड़का बैठा था, उसने फ़ोन उठाया और बात की, मुझे लगा कि ये शायद नैंसी का फ़ोन होगा, लेकिन ऐसा नहीं था, फोन कहीं और से ही आया था वो!" बोली वो,
"अच्छा! लेकिन ऐसी स्थिति तो बड़ी अजीब ही रही होगी!" कहा मैंने,
"बहुत ही अजीब! अब तो यूं होता था, कि कई बार तो मेरा मन करता था कि मैं ही जा कर वो फ़ोन उठा लूं!" बोली वो,
"समझ सकता हूं! ये वो ही बेसब्री है, जो अब लगातार बढ़ती जा रही थी!" कहा मैंने,
"हां, ठीक वो ही!" बोली वो,
"फिर?" पूछा मैंने,
"रात करीब चार बजे मेरी आंख लग गयी, मैं वही जाकर, कमरे में सो गयी, सुबह करीब छह बजे उठी, थोड़ा, हाथ-मुंह धोया और अचानक से मुझे वो पता याद आया, मैं नयी थी यहां, वाक़िफ़ थी नहीं, मेरे पास मेरी गाड़ी तो थी, लेकिन रास्ता नहीं पता था!" बोली वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"तब मैंने पहले तो एक वार्ड-बॉय से रास्ता पूछा, वो लोकल ही था, उसने मुझे बता दिया कि कहां से जाना ठीक रहेगा, मैंने उसकी बताई हुई कुछ जगह, लिख भी लीं, और इस तरह से, मैं करीब साढ़े छह बजे वहां के लिए निकल दी!" बोली वो,
"अच्छा! और मौसम?" पूछा मैंने,
"सुबह हल्की सी बारिश हुई थी, और सर्दी बहुत थी, हल्का सा कोहरा भी था, मेरा गर्म लॉन्ग कोट मुझे गरम रखे हुआ था, मैंने एक मफलर भी गले में डाल रखा था, सर पर एक गरम कैप पहन रखी थी, हाथों में दस्ताने भी था! सर्दी का ये आलम था!" बोली वो,
"अच्छी सर्दी पड़ रही थी!" कहा मैंने,
"हां, अच्छी, दिसंबर की सर्दियां थीं वो!" बोली स्नेहा!
तभी एक ट्रे लिए वो गवर्नेस अंदर आयी, बिस्कुट और कॉफ़ी लायी थी, मुझे देख मुस्कुरायी और ट्रे वहीं रख दी, लौट गयी फिर!
"लीजिये!" कप देते हुए बोली वो,
"जी! आप भी लीजिये!" कहा मैंने,
उसने भी अपना कप ले लिया, हम कॉफ़ी पीने लगे फिर!
"हां, तो आप पहुंची उधर?" पूछा मैंने,
"सुबह का समय था, सड़कों पर सन्नाटा पसरा था, सड़कें गीली थीं, जगह जगह खुदाई हुई पड़ी थी, सरकारी बोर्ड रखे थे सड़क पर, फिर भी मैं, किसी तरह से उस मुख्य सड़क से उतर कर उस विहार वाले रास्ते पर मुड़ गयी!" बोली वो,
"अच्छा!" कहा मैंने, चुस्की लेते हुए!
"ये जगह बड़ी ही अच्छी लगी, खुली खुली सी! जो घर बने थे, बड़े बड़े से घर थे, काफी बड़े बड़े! कई घरों में बत्तियां जली थीं, कुछ खाली से पड़े थे, कुछ प्लॉट भी खाली थी, उनकी दीवारें तो बनी थीं, लेकिन निर्माण-कार्य नहीं शुरू हुआ था अभी!" बोली वो,
"तो वो घर वहीं था?" पूछा मैंने,
"मुझे एच-ब्लॉक जाना था, चौराहे पार करते हुए, एक जगह एच-ब्लॉक लिखा देखा. मैं ठीक ही चली आयी थी!" बोली वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"यहां से मकान नंबर अट्ठासी देखना था, मैं जहां थी, वहां इक्कीस, बाइस तेईस, ऐसे थे, इसका मतलब ये मकान आगे पड़ना था कहीं!" बोली वो,
"हां!" कहा मैंने,
"मैं आगे चली तो एक जगह कुछ लिखा देखा, वो अब दूसरा ब्लॉक था, ये ऍफ़-ब्लॉक आ गया था! रुक गयी, और फिर पीछे देखा! सारा रास्ता खाली था, कि नहीं था, जिस से रास्ता पूछ सकूं!" बोली वो,
"ओह! फिर?" पूछा मैंने,
"मैंने गाड़ी पीछे ली, एक चउराहा आया, उधर एच-ब्लॉक का रास्ता था, तो गाड़ी वहीं के लिए मोड़ ली!" बोली वो,
''अच्छा! पहले आप यहां नहीं मुड़ी थीं!" कहा मैंने,
"हां, ये रास्ता छूट गया था!" बोली वो,
और तभी...................!!
"सुनिए? जब मैंने अपनी गाड़ी मोड़ी थी, तब, मैंने एक सफेद सी गाड़ी देखी थी, वो सड़क किनारे ही खड़ी थी, उसकी बत्तियां जलीं और बुझी थीं, लेकिन जब मैं मोड़ कर वहां आयी, तब वो गाड़ी वहां नहीं थी, शायद चली गयी वो?" बोली वो,
"हो सकता है, चली गयी हो, या किसी मकान के पोर्च में जा खड़ी हुई हो?" कहा मैंने,
"ऐसा ही हुआ होगा फिर!" बोली वो,
"उसके बाद?'' पूछा मैंने,
"फिर मैंने गाड़ी मोड़ कर उस सड़क पर डाली, जहां वो मकान नंबर अट्ठासी होगा! मई चलती गयी धीरे धीरे!" बोली वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"यहां दाएं पर यूकेलिप्टस के बड़े बड़े से पेड़ लगे थे, एक चारदीवारी के बाद, चारदीवारी के पास ही फुटपाथ बना था और उस चारदीवारी के अंदर या तो कोई संस्थान था या कोई फैक्ट्री!" बोली वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"जब मैं इस सड़क पर आगे गयी तब मुझे मकान नंबर पिचासी दिखा, उसके साथ ही एक और सड़क थी, करीब साठ फ़ीट चौड़ी!" बोली वो,
''पिचासी से आगे कोई मकान नहीं था?" पूछा मैंने,
"नहीं, लेकिन मैं सड़क पर चली तब, मुड़ कर तो छियासी, सत्तासी और अट्ठासी दिखाई दिए!" बोली वो,
"तो मकान मिल गया!" कहा मैंने,
"हां, मुझे ख़ुशी हुई!" बोली वो,
"होती भी!" कहा मैंने,
"मैंने अट्ठासी नंबर के मकान के साइड पर अपनी गाड़ी खड़ी कर दी! मकान बेहद आलीशान बना था, बाहर की तरफ, गुलमोहर के बड़े बड़े पेड़ लगे थे, मैं गाड़ी से उतरी, दरवाज़ा बंद किया और मुख्य दरवाज़े की तरफ चलने लगी, दरवाज़े से पहले दीवार पर, एक फर्म का नाम लिखा था, शायद ये फर्म रोज़ी के हस्बैंड की रही हो!" बोली वो,
"ठीक!" कहा मैंने,
"तब मैं दरवाज़े तक आयी, दरवाज़ा, पीतल का बना था, उस पर फाइबर लगा था, अंदर झांकों तो कुछ दिखे नहीं, मैंने दरवाज़े के पास ही लगी एक बढ़िया सी, डोर-बैल देखी, उसके पास गयी और घंटी बजा दी, दो बार!" बोली वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"कुछ ही देर में अंदर से आवाज़ आयी, जूतों की और दरवाज़े में से एक झरोखा खुला, वो गार्ड रहा होगा!" बोली वो,
"कौन?" पूछा उसने,
""मैं डॉक्टर स्नेहा!" कहा मैंने,
"झरोखा बंद हुआ और दरवाज़ा खुल गया!" बोली वो,
"अच्छा फिर?'' पूछा मैंने,
"मुझे रोज़ी मैडम से मिलना है!" बोली वो,
"आइये आप!" गार्ड ने तमीज़ के साथ कहा, मैं अंदर आयी और दरवाज़ा बंद कर दिया उसने!" बोली वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"अंदर दो बढ़िया सी बड़ी बड़ी गाड़ियां खड़ी थीं, एक सफेद रंग की और एक सिल्वर रंग की, मकान ऐसा लगता था कि जैसे कोई महल! लाल रंग के पत्थर लगे थे, एक बगिया भी थी, उसमे गुलाब खिले थे, रंग-बिरंगे से फूल! उस मकान के बाएं में एक खाली जगह थी, उधर भी एक दरवाज़ा लगा था, दरवाज़े की परली तरफ, कुछ पेड़ लगे थे, मकान बेहद ही बड़ा था!" बोली वो,
"आइये डॉक्टर मैडम!" बोला गार्ड!
''अच्छा जी, आगे?'' पूछा मैंने,
"वो आगे आगे चला और मैं पीछे पीछे, उस मकान के उधर के हिस्से में, कमरे बने हों, ऐसा लगता था, हम सीढ़ियां चढ़े और एक दरवाज़े के पास आ रुके, गार्ड ने घंटी बजायी! दरवाज़ा खुला और एक गोरी सी छोटी सी लड़की बाहर आयी!" बोली वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"ये डॉक्टर जी हैं!" बोला गार्ड,
"डॉक्टर स्नेहा!" बोली मैं,
"अच्छा! अच्छा!" कहा मैंने,
"वो लड़की मुस्कुरा गयी और मेरे हाथ से मेरा बैग ले लिया, हाथ पकड़ अंदर ले चली! मैंने आलीशान मकान देखे थे, लेकिन ये तो सभी से बढ़िया था!" बोली वो,
"डॉक्टर जी, आइये!" बोली अपनी मीठी सी ज़बान में!
"चलो!" बोली वो,
"मैं ही हूं नैंसी!" बोली वो,
"अच्छा! प्यारी लड़की हो!" बोली मैं,
वो हंस पड़ी!
"रोज़ी दीदी?" आवाज़ दी उसने,
"कमरे में नहीं हैं?' पूछा मैंने,
"वहीं हैं!" बोली वो,
"चल रहे हैं न!" कहा मैंने,
"हां, वैसे अब तबीयत ठीक है उनकी!" बोली वो,
"अच्छी बात है!" बोली मैं,
"फिर?'' पूछा मैंने,
"हम एक कमरे में चले गए, दरवाज़ा खुला था उस कमरे का, अंदर खिड़की के पास, रोज़ी खड़ी थीं, मुस्कुराते हुए, हाथ में एक मैगज़ीन थी उनके!" बोली वो,
"दीदी? ये डॉक्टर स्नेहा जी!" बोली नैंसी!
"अरे आप?" बोली रोज़ी!
"तो आप की मुलाक़ात हो गयी रोज़ी से!" कहा मैंने,
"रोज़ी का रूप सच में रोज़ जैसा ही था, गुलाबी सा चेहरा! प्यारी सुंदर ऑंखें, शायद मस्कारा लगाया हुआ था, गोरी बहुत थी, जैसे कोई अंग्रेज महिला हो वो!" बोली वो स्नेहा!
"हां! आप तक़लीफ़ न उठायें, मैं बैठ जाती हूं!" बोली मैं,
मैंने एक कुर्सी सरका ली थी, बैठने के लिए!
"आप भी बैठिये?" बोली मैं,
"बस दिन भर, बैठना और लेटना!" बोली रोज़ी!
"पहला इशू है?'' पूछा मैंने,
"हां!" बताया उसने,
"अच्छा! और आपके हस्बैंड?'' पूछा मैंने,
"वो आज आएंगे, कहीं गए हैं!" बोली वो,
"बिज़नेस के सिलसिले में!" कहा मैंने,
"हां!" बोली वो,
"नैंसी?" आवाज़ दी रोज़ी ने,
"जी?" बोली वो,
"कुछ लेकर आओ?" बोली रोज़ी!
"अरे रहने दीजिये! अभी बस घर जा रही हूं, चाय पियूंगी वहीं!" बोली मैं,
"आप तो रोज़ ही पीती होंगी वहां!" बोली रोज़ी.
"हां!" कहा मैंने,
"तो आज यहां सही!" बोली वो,
"चलिए, कोई बात नहीं!" कहा मैंने,
"रात की ड्यूटी रहती है आपकी?" पूछा उसने,
"हां!" कहा मैंने,
"अच्छा! और दिन भर?" बोली वो,
"घर में ही!" बताया मैंने,
"अकेले?" बोली वो,
''हां!" कहा मैंने,
"अकेले तो टाइम नहीं कटता!" बोली रोज़ी!
"सही कहा आपने!" बोली मैं,
"आप दिल्ली से ही हैं?" पूछा उसने,
"नहीं!" कहा मैंने,
"तब शादी के बाद से!" बोली वो,
"हां! और आप?" पूछा मैंने,
"मैं हिमाचल से हूं!" बोली वो,
"आपके हस्बैंड?" पूछा मैंने,
"दिल्ली से!" बोलते हुए हंस पड़ी वो!
"अच्छा!" कहा मैंने,
"समानता हुई!" बोली वो,
"हां, बिलकुल!" बोली मैं,
"आपका नंबर मिला था, मतलब नर्सिंग-होम का!" बोली वो,
"कहां से?" पूछा मैंने,
"अखबार के इश्तिहार से!" बोली वो,
"अच्छा अच्छा!" कहा मैंने,
तभी चाय ले आयी नैंसी, साथ में नारियल-कुकीज़, क्राकरी-सेट बेहद ही शानदार था, विदेशी सा लगता था, प्याले षट्कोण आकार के और प्लेट चौकोर थी, जो चीनी आयी थी, वो प्लेट भी शानदार थी, चम्मच तो जैसे, गोल्ड की बनी थी!
"इस नैंसी ने कॉल की थी!" बोली वो,
"हां! बता दिया!" बोली मैं,
"ये यहीं रहती है, यही देखभाल करती है!" बोली रोज़ी!
"बहुत समझदार भी है!" कहा मैंने,
"हां, ये तो है!" बोली वो,
"लो न दीदी?" मुझ से बोली नैंसी!
"हां नैंसी! अपनी दीदी को तो दो?'' बोली मैं,
"वो थोड़ा ठंडा पीती हैं!" बोली वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"तो यहां किसी को देखने आयी थीं आप?" पूछा रोज़ी ने,
"आपको!" बोली मैं,
"क्या सच?" बोली रोज़ी!
"हां!" कहा मैंने,
"आप सच में ही बहुत अच्छी हैं स्नेहा!" बोली रोज़ी!
"आप भी कम नहीं!" बोली मैं,
और हम दोनों ही खिलखिला कर हंस पड़े!
"अब कब आना होगा?'' पूछा रोज़ी ने,
उस समय, रोज़ी की आंखों में मैंने, अकेलेपन का एक अजीब सा, महीन सा शीशा टूटते हुए देखा! मैं भावुक हूं, बखूबी जान गयी थी!
"जब भी मन करेगा आपकी सेहत देखने आ जाउंगी!" बोली मैं,
"देखा!" बोली वो,
"क्या?'' पूछा मैंने,
"आप हैं न अच्छी!" बोली रोज़ी!
मैं मुस्कुरा कर रह गयी!
"नाश्ता करेंगी?" पूछा उसने,
"नहीं रोज़ी!" मेरे मुंह से न जाने कैसे आत्मीयता वाला ये शब्द, ये नाम बरबस ही निकल गया था! मुझे पल भर को हिचकिचाहट हुई! उसको देखा तो वो मुस्कुरा रही थी!
"क्यों नहीं करेंगी?" पूछा रोज़ी ने,
"हस्बैंड भी बस जाने वाले ही होंगे!" बोली मैं,
"वे भी डॉक्टर हैं?'' पूछा उसने,
"हां!" कहा मैंने,
"ये अच्छा है!" बोली वो,
"कैसे रो.....ज़ी?" मेरे मुंह से फिर से निकला!
"आप मुझे रोज़ी ही कहिये!" बोली वो,
मैंने हां में सर हिला दिया, मुझे महसूस हुआ था और वो, ये शायद छिपा गयी थी!
"अच्छा इसलिए कि एक-दूसरे की देखभाल हो जायेगी!" बोली वो हंस कर!
"नैंसी?" बोली वो,
और नैंसी चली कमरे से बाहर तभी!
"अब चलूंगी!" बोली मैं,
"आप से मिल कर बहुत अच्छा लगा!" बोली वो,
"मुझे भी!" कहा मैंने,
"आते रहिएगा आप!" बोली वो,
ये आप शब्द मुझे दूर किया जा रहा था उस से, एक दायरे में रहने को मज़बूर किये जा रहा था!
"आप मुझे स्नेहा कह सकती हैं!" बोली मैं,
"स्नेहा!" बोली वो,
"हां, अच्छा लगा सुन कर!" बोली मैं,
तभी नैंसी अंदर आयी और एक एनवलप रोज़ी को दे दिया! रोज़ी ने मुझे देखा, मुस्कुरायी!
"ये लीजिये!" बोली वो, मेरी तरफ हाथ बढ़ाते हुए!
"सुनिए? जब मैंने अपनी गाड़ी मोड़ी थी, तब, मैंने एक सफेद सी गाड़ी देखी थी, वो सड़क किनारे ही खड़ी थी, उसकी बत्तियां जलीं और बुझी थीं, लेकिन जब मैं मोड़ कर वहां आयी, तब वो गाड़ी वहां नहीं थी, शायद चली गयी वो?" बोली वो,
"हो सकता है, चली गयी हो, या किसी मकान के पोर्च में जा खड़ी हुई हो?" कहा मैंने,
"ऐसा ही हुआ होगा फिर!" बोली वो,
"उसके बाद?'' पूछा मैंने,
"फिर मैंने गाड़ी मोड़ कर उस सड़क पर डाली, जहां वो मकान नंबर अट्ठासी होगा! मई चलती गयी धीरे धीरे!" बोली वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"यहां दाएं पर यूकेलिप्टस के बड़े बड़े से पेड़ लगे थे, एक चारदीवारी के बाद, चारदीवारी के पास ही फुटपाथ बना था और उस चारदीवारी के अंदर या तो कोई संस्थान था या कोई फैक्ट्री!" बोली वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"जब मैं इस सड़क पर आगे गयी तब मुझे मकान नंबर पिचासी दिखा, उसके साथ ही एक और सड़क थी, करीब साठ फ़ीट चौड़ी!" बोली वो,
''पिचासी से आगे कोई मकान नहीं था?" पूछा मैंने,
"नहीं, लेकिन मैं सड़क पर चली तब, मुड़ कर तो छियासी, सत्तासी और अट्ठासी दिखाई दिए!" बोली वो,
"तो मकान मिल गया!" कहा मैंने,
"हां, मुझे ख़ुशी हुई!" बोली वो,
"होती भी!" कहा मैंने,
"मैंने अट्ठासी नंबर के मकान के साइड पर अपनी गाड़ी खड़ी कर दी! मकान बेहद आलीशान बना था, बाहर की तरफ, गुलमोहर के बड़े बड़े पेड़ लगे थे, मैं गाड़ी से उतरी, दरवाज़ा बंद किया और मुख्य दरवाज़े की तरफ चलने लगी, दरवाज़े से पहले दीवार पर, एक फर्म का नाम लिखा था, शायद ये फर्म रोज़ी के हस्बैंड की रही हो!" बोली वो,
"ठीक!" कहा मैंने,
"तब मैं दरवाज़े तक आयी, दरवाज़ा, पीतल का बना था, उस पर फाइबर लगा था, अंदर झांकों तो कुछ दिखे नहीं, मैंने दरवाज़े के पास ही लगी एक बढ़िया सी, डोर-बैल देखी, उसके पास गयी और घंटी बजा दी, दो बार!" बोली वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"कुछ ही देर में अंदर से आवाज़ आयी, जूतों की और दरवाज़े में से एक झरोखा खुला, वो गार्ड रहा होगा!" बोली वो,
"कौन?" पूछा उसने,
""मैं डॉक्टर स्नेहा!" कहा मैंने,
"झरोखा बंद हुआ और दरवाज़ा खुल गया!" बोली वो,
"अच्छा फिर?'' पूछा मैंने,
"मुझे रोज़ी मैडम से मिलना है!" बोली वो,
"आइये आप!" गार्ड ने तमीज़ के साथ कहा, मैं अंदर आयी और दरवाज़ा बंद कर दिया उसने!" बोली वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"अंदर दो बढ़िया सी बड़ी बड़ी गाड़ियां खड़ी थीं, एक सफेद रंग की और एक सिल्वर रंग की, मकान ऐसा लगता था कि जैसे कोई महल! लाल रंग के पत्थर लगे थे, एक बगिया भी थी, उसमे गुलाब खिले थे, रंग-बिरंगे से फूल! उस मकान के बाएं में एक खाली जगह थी, उधर भी एक दरवाज़ा लगा था, दरवाज़े की परली तरफ, कुछ पेड़ लगे थे, मकान बेहद ही बड़ा था!" बोली वो,
"आइये डॉक्टर मैडम!" बोला गार्ड!
''अच्छा जी, आगे?'' पूछा मैंने,
"वो आगे आगे चला और मैं पीछे पीछे, उस मकान के उधर के हिस्से में, कमरे बने हों, ऐसा लगता था, हम सीढ़ियां चढ़े और एक दरवाज़े के पास आ रुके, गार्ड ने घंटी बजायी! दरवाज़ा खुला और एक गोरी सी छोटी सी लड़की बाहर आयी!" बोली वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"ये डॉक्टर जी हैं!" बोला गार्ड,
"डॉक्टर स्नेहा!" बोली मैं,
"अच्छा! अच्छा!" कहा मैंने,
"वो लड़की मुस्कुरा गयी और मेरे हाथ से मेरा बैग ले लिया, हाथ पकड़ अंदर ले चली! मैंने आलीशान मकान देखे थे, लेकिन ये तो सभी से बढ़िया था!" बोली वो,
"डॉक्टर जी, आइये!" बोली अपनी मीठी सी ज़बान में!
"चलो!" बोली वो,
"मैं ही हूं नैंसी!" बोली वो,
"अच्छा! प्यारी लड़की हो!" बोली मैं,
वो हंस पड़ी!
"रोज़ी दीदी?" आवाज़ दी उसने,
"कमरे में नहीं हैं?' पूछा मैंने,
"वहीं हैं!" बोली वो,
"चल रहे हैं न!" कहा मैंने,
"हां, वैसे अब तबीयत ठीक है उनकी!" बोली वो,
"अच्छी बात है!" बोली मैं,
"फिर?'' पूछा मैंने,
"हम एक कमरे में चले गए, दरवाज़ा खुला था उस कमरे का, अंदर खिड़की के पास, रोज़ी खड़ी थीं, मुस्कुराते हुए, हाथ में एक मैगज़ीन थी उनके!" बोली वो,
"दीदी? ये डॉक्टर स्नेहा जी!" बोली नैंसी!
"अरे आप?" बोली रोज़ी!
"तो आप की मुलाक़ात हो गयी रोज़ी से!" कहा मैंने,
"रोज़ी का रूप सच में रोज़ जैसा ही था, गुलाबी सा चेहरा! प्यारी सुंदर ऑंखें, शायद मस्कारा लगाया हुआ था, गोरी बहुत थी, जैसे कोई अंग्रेज महिला हो वो!" बोली वो स्नेहा!
"हां! आप तक़लीफ़ न उठायें, मैं बैठ जाती हूं!" बोली मैं,
मैंने एक कुर्सी सरका ली थी, बैठने के लिए!
"आप भी बैठिये?" बोली मैं,
"बस दिन भर, बैठना और लेटना!" बोली रोज़ी!
"पहला इशू है?'' पूछा मैंने,
"हां!" बताया उसने,
"अच्छा! और आपके हस्बैंड?'' पूछा मैंने,
"वो आज आएंगे, कहीं गए हैं!" बोली वो,
"बिज़नेस के सिलसिले में!" कहा मैंने,
"हां!" बोली वो,
"नैंसी?" आवाज़ दी रोज़ी ने,
"जी?" बोली वो,
"कुछ लेकर आओ?" बोली रोज़ी!
"अरे रहने दीजिये! अभी बस घर जा रही हूं, चाय पियूंगी वहीं!" बोली मैं,
"आप तो रोज़ ही पीती होंगी वहां!" बोली रोज़ी.
"हां!" कहा मैंने,
"तो आज यहां सही!" बोली वो,
"चलिए, कोई बात नहीं!" कहा मैंने,
"रात की ड्यूटी रहती है आपकी?" पूछा उसने,
"हां!" कहा मैंने,
"अच्छा! और दिन भर?" बोली वो,
"घर में ही!" बताया मैंने,
"अकेले?" बोली वो,
''हां!" कहा मैंने,
"अकेले तो टाइम नहीं कटता!" बोली रोज़ी!
"सही कहा आपने!" बोली मैं,
"आप दिल्ली से ही हैं?" पूछा उसने,
"नहीं!" कहा मैंने,
"तब शादी के बाद से!" बोली वो,
"हां! और आप?" पूछा मैंने,
"मैं हिमाचल से हूं!" बोली वो,
"आपके हस्बैंड?" पूछा मैंने,
"दिल्ली से!" बोलते हुए हंस पड़ी वो!
"अच्छा!" कहा मैंने,
"समानता हुई!" बोली वो,
"हां, बिलकुल!" बोली मैं,
"आपका नंबर मिला था, मतलब नर्सिंग-होम का!" बोली वो,
"कहां से?" पूछा मैंने,
"अखबार के इश्तिहार से!" बोली वो,
"अच्छा अच्छा!" कहा मैंने,
तभी चाय ले आयी नैंसी, साथ में नारियल-कुकीज़, क्राकरी-सेट बेहद ही शानदार था, विदेशी सा लगता था, प्याले षट्कोण आकार के और प्लेट चौकोर थी, जो चीनी आयी थी, वो प्लेट भी शानदार थी, चम्मच तो जैसे, गोल्ड की बनी थी!
"इस नैंसी ने कॉल की थी!" बोली वो,
"हां! बता दिया!" बोली मैं,
"ये यहीं रहती है, यही देखभाल करती है!" बोली रोज़ी!
"बहुत समझदार भी है!" कहा मैंने,
"हां, ये तो है!" बोली वो,
"लो न दीदी?" मुझ से बोली नैंसी!
"हां नैंसी! अपनी दीदी को तो दो?'' बोली मैं,
"वो थोड़ा ठंडा पीती हैं!" बोली वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"तो यहां किसी को देखने आयी थीं आप?" पूछा रोज़ी ने,
"आपको!" बोली मैं,
"क्या सच?" बोली रोज़ी!
"हां!" कहा मैंने,
"आप सच में ही बहुत अच्छी हैं स्नेहा!" बोली रोज़ी!
"आप भी कम नहीं!" बोली मैं,
और हम दोनों ही खिलखिला कर हंस पड़े!
"अब कब आना होगा?'' पूछा रोज़ी ने,
उस समय, रोज़ी की आंखों में मैंने, अकेलेपन का एक अजीब सा, महीन सा शीशा टूटते हुए देखा! मैं भावुक हूं, बखूबी जान गयी थी!
"जब भी मन करेगा आपकी सेहत देखने आ जाउंगी!" बोली मैं,
"देखा!" बोली वो,
"क्या?'' पूछा मैंने,
"आप हैं न अच्छी!" बोली रोज़ी!
मैं मुस्कुरा कर रह गयी!
"नाश्ता करेंगी?" पूछा उसने,
"नहीं रोज़ी!" मेरे मुंह से न जाने कैसे आत्मीयता वाला ये शब्द, ये नाम बरबस ही निकल गया था! मुझे पल भर को हिचकिचाहट हुई! उसको देखा तो वो मुस्कुरा रही थी!
"क्यों नहीं करेंगी?" पूछा रोज़ी ने,
"हस्बैंड भी बस जाने वाले ही होंगे!" बोली मैं,
"वे भी डॉक्टर हैं?'' पूछा उसने,
"हां!" कहा मैंने,
"ये अच्छा है!" बोली वो,
"कैसे रो.....ज़ी?" मेरे मुंह से फिर से निकला!
"आप मुझे रोज़ी ही कहिये!" बोली वो,
मैंने हां में सर हिला दिया, मुझे महसूस हुआ था और वो, ये शायद छिपा गयी थी!
"अच्छा इसलिए कि एक-दूसरे की देखभाल हो जायेगी!" बोली वो हंस कर!
"नैंसी?" बोली वो,
और नैंसी चली कमरे से बाहर तभी!
"अब चलूंगी!" बोली मैं,
"आप से मिल कर बहुत अच्छा लगा!" बोली वो,
"मुझे भी!" कहा मैंने,
"आते रहिएगा आप!" बोली वो,
ये आप शब्द मुझे दूर किया जा रहा था उस से, एक दायरे में रहने को मज़बूर किये जा रहा था!
"आप मुझे स्नेहा कह सकती हैं!" बोली मैं,
"स्नेहा!" बोली वो,
"हां, अच्छा लगा सुन कर!" बोली मैं,
तभी नैंसी अंदर आयी और एक एनवलप रोज़ी को दे दिया! रोज़ी ने मुझे देखा, मुस्कुरायी!
"ये लीजिये!" बोली वो, मेरी तरफ हाथ बढ़ाते हुए!
"विक्की?" कहा मैंने,
"हां, यही नाम है रोज़ी के हस्बैंड का!" बोली वो,
"तब रोज़ी ने बताया होगा उन्हें आपके बारे में, कि आप आज गयी थीं उनके यहां!" कहा मैंने,
"हां!" बोली वो,
"पूरी बात बताओ? यहीं इसी जगह है कोई कड़ी!" कहा मैंने,
"विक्की ने मुझ से कहा कि उन्हें बहुत अच्छा लगा कि आप वहां आये! दरअसल, वो जगह लिए हुए उन्हें ज़्यादा समय नहीं हुआ, और लोग भी वहां रिजर्व्ड-नेचर के ही हैं, विक्की तो खुद ही अक्सर बाहर रहते हैं, रह जाते हैं वे दोनों अकेले, जो है वो पुराना गार्ड ही है, वही साजो-सामान, सब्जी-राशन आदि ले आता है, रोज़ी का बाहर आना-जाना हो ही नहीं पाता!" बोली वो,
"अच्छा! ये बताया!" बोला मैं,
"हां यही सब!" बोली वो,
"तब उस लिफ़ाफ़े के बारे में पूछा?" पूछा मैंने,
"हां, पूछा!" कहा उसने,
"क्या बोले वो?" पूछा मैंने,
"कि उस लिफ़ाफ़े को और उस रकम को ऐसा नहीं समझें कि हमने कोई कीमत दी है! आजकल तो लोग देख कर मुंह मोड़ लेते हैं और आप तो इतना व्यस्त रहने के बाद बी, सीधे मरीज़ा से संबंधित न होने के बाद भी, वहां, उस घर, उनके घर तक आयीं, इसका शुक्रिया अदा किया है, आप डॉक्टर हैं और आपकी फीस ही हमने दी है! कृपा करके, बुरा नहीं मानें, और अन्यथा न लें, नहीं तो रोज़ी को, उन्हें बेहद दुःख पहुंचेगा, रोज़ी, बेहद ही भावुक है और सात माह का गर्भ भी है उसे!" बोले वो,
"तर्क तो सही ही रखा विक्की ने!" कहा मैंने,
"हां, सही ही रखा था!" बोली वो,
"तब फिर?'' पूछा मैंने,
"मैं अब दुविधा में थी, रखूं या नहीं रखूं?" बोली वो,
"तब क्या किया?'' पूछा मैंने,
"मैंने खूब कोशिश की कि मैं वो रकम वापिस कर दूं, फिर सोचा, कहीं उन्हें बुरा न लगा जाए, उन्हें ख़ुशी मिली है और ऐसा मैं कुछ नहीं करूं जिस से उन्हें कोई तक़लीफ़ हो!" कहा मैंने,
"बात तो आपकी भी सही ही लगती है!" कहा मैंने,
"तब मैंने ये सारा माज़रा नवोदित से कहा, बातें हुईं और ये निर्णय निकला, कि इस बार का तो कुछ नहीं, चलो, लेकिन भविष्य में कभी जाना हो, तो मना कर देना!" बोली वो,
"ये ही हो सकता था, ठीक निर्णय लिया!" कहा मैंने,
"विक्की ने खूब तारीफ़ भी की कि वो निश्चिन्त है अब, कोई तो है ही अब देखने वाला रोज़ी को, नहीं तो वो छोटी बच्ची नैंसी या वो गार्ड, कर भी अधिक क्या सकते हैं!" बोली वो,
"सही बात है, मदद का आसरा तो खुल ही गया, चाहे रात हो या दिन!" कहा मैंने,
"जी!" बोली वो,
"फिर?'' पूछा मैंने,
"कॉफ़ी लेंगे?" बोली वो,
"हां, क्यों नहीं!" बोला मैं,
"अभी बस!" बोली वो,
और चली गयी बाहर, चार-पांच मिनट में अंदर आ गयी, ट्रे रखी! मैं चौंक पड़ा! ये तो ठीक वैसी ही ट्रे थी, वैसे ही प्याले भी, ऐसी ही उनकी प्लेट भी, जैसा कुछ ही देर पहले, स्नेहा ने मुझे बताया था, वो, रोज़ी के घर में! और फिर प्लेट उठायी, अब और चौंका मैं! ये नारियल-कुकीज़ थीं! ठीक वैसी ही! लेकिन ऐसा कैसे?
"क्या ऐसा ही क्राकरी-सेट था वो?" पूछा मैंने,
"हां!" बोली वो,
"ऐसा कैसे?" पूछा मैंने,
"ये मुझे रोज़ी ने दिया था!" बोली वो,
"अच्छा! तभी कहूं!" कहा मैंने,
"क्या कहूं?" उसने सर ऊपर उठाया, अजीब सी निगाहों से देखा मुझे, चीनी मिलाते हुए कप में रुक गयी थी, चम्मच आदि उसके हाथ में और आधी कप में ही!
मैं चौक पड़ा था! कोई और होता तो सर पर पांव रख, भाग लिया होता वहां से! उसके चेहरे पर पत्थरपन सा आ गया था, आंखें छोड़ गयी थीं और नथुने फूल गए थे, जैसे बेहद गुस्से में हो! एकटक मुझे ही घूरे जा रही थी वो!
"बोलो?" बोली वो, धीरे से,
"क्या?" कहा मैंने,
"क्या कहूं?" बोली वो,
"यही कि ये क्रॉकरी-सेट यहां भी ठीक वैसा ही!" कहा मैंने,
और अचानक से सब शांत! वो मुस्कुरा पड़ी, चम्मच हिलाने लगी कप में और कप उठा मुझे दे दिया!
"स्नेहा?" पूछा मैंने,
"हां?" बोली वो,
"स्नेहा?" बोला मैं,
"बोलो?" बोली वो,
"ज़रा देखना?'' कहा मैंने,
"क्या?" बोली वो,
"कोई है क्या?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोली वो,
"तब?" पूछा मैंने,
"माई आ रही है!" बोली वो,
"काम वाली?" कहा मैंने,
"हां!" बोली वो,
"कहां है?" पूछा मैंने,
"सड़क से अंदर आयी है!" बोली वो,
"अब?" पूछा मैंने,
"दरवाज़े पर है!" बोली वो,
"यहां?" पूछा मैंने,
"आ जाओ?" बोली स्नेहा!
दरवाज़ा खुला, माई अंदर आयी, चप्पलें उतार, रसोई में चली गयी! मैंने गर्दन हिलायी और स्नेहा को देखा! वो हंस पड़ी थी!
"घबराये तो नहीं?" बोली वो,
"ज़रा भी नहीं?" बोली वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
"एक्टिंग ठीक थी?" बोली वो,
"कमी थी!" कहा मैंने,
"किस चीज़ की?" पूछा उसने,
"विश्वास की!" कहा मैंने,
"किसलिए?" बोली वो,
"मुझे जांचने के लिए!" कहा मैंने,
वो उठी और खिलखिलाते हुए, खिड़की तक चली गयी!
अभी भी थोड़ी उथल-पुथल में ही था, बीच में ही खड़ा था! माना कि वो एक एक्टिंग ही थी, ठीक है! लेकिन इसके मायने ये थे कि अब कुछ अजीब सा आने वाला था, और अगर ये एक्टिंग नहीं थी, तब उसकी हिम्मत हो ही नहीं सकती थी कि मेरे सामने पेश हो, बिना इजाज़त के! लेकिन हर नियम हर जगह नहीं ठहरता! अपवाद हर जगह ही होते हैं! और हो सकता है, ये भी एक अपवाद ही हो! खैर, जो होता, वही तो देखना था! तो वो, उस कमरे की खिड़की के पास जा कर खड़ी हो गयी थी, साथ में ही मेज़ थी, मेज़ पर किताबें, कुछ खिलौने और दो पेपरवेट रखे थे, मैं उसके हाथ पर नज़र रखे हुआ था!
"तो उस रात ये ही बात हुई?" कहा मैंने,
"हां!" बोली वो,
"और उसके बाद?" पूछा मैंने,
उसके हाथ ने कुछ टटोला मेज़ पर, मेरी एक आंख उस पर और दूसरी आंख स्नेहा पर! फिर वो पलटी, और अपने कंधे को एक झटका दिया, झटका दिया तो माथे पर बाल आ गए, उसने बाल हटा दिया और हेयर-बैंड में बांध लिए!
"अब बाद में बात करुं?" बोली वो,
"जैसी आपकी इच्छा!" कहा मैंने,
"आज ही?" बोली वो,
"रात हो जायेगी!" कहा मैंने,
"ठहर जाइएगा!" बोली वो,
"आप अपने अस्पताल?" पूछा मैंने,
"आज नहीं जाउंगी!" बोली वो,
"छुट्टी है?" पूछा मैंने,
"ले लूंगी!" बोली वो,
"क्या ज़रूरत?" पूछा मैंने,
"फिर?" बोली वो,
"बाद में आ जाता हूं?" कहा मैंने,
"कब?" बोली वो,
"कल?" बोला मैं,
"कितने बजे?'' पूछा मैंने,
"ग्यारह बजे?" बोली वो,
ये भी ठीक!" कहा मैंने,
"मैं यहीं मिलूंगी!" बोली वो,
''और कहां मिलतीं?" पूछा मैंने,
"दरअसल, नव ने कुछ बताया आपको?" पूछा उसने,
"नव? नवोदित?" पूछा मैंने,
"हां?" बोली वो,
"क्या?" पूछा मैंने,
"मेरी तबीयत ठीक नहीं!" बोली वो,
"ठीक ही तो हो?" पूछा मैंने,
"इलाज चल रहा है!" बोली वो,
"किसका?" पूछा मैंने,
"कई बार मैं, मैं नहीं हो पाती!" बोली वो,
मैं मुस्कुरा गया! उठा और उसके पास चला!
"आप बीमार नहीं हो!" कहा मैंने,
"वो कहते हैं!" कहा उसने,
"कौन?" पूछा मैंने,
"डॉक्टर्स!" बोली वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
"मुझे भी नहीं लगता!" बोली वो,
"हो भी नहीं!" कहा मैंने,
"फिर नव क्यों कहते हैं?" बोली वो,
"परेशान हैं!" कहा मैंने,
"मुझ से?" बोली वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
''फिर?" पूछा उसने,
"आपकी हालत से!" बोला मैं,
"मैं क्या करुं?" बोली वो,
"भागो मत!" कहा मैंने,
"क्या?" थोड़ा तेज बोली वो,
"हां!" कहा मैंने,
"भागूं नहीं?" बोली वो,
"सच्चाई से!" बोला मैं,
"क़ुबूल करुं?" बोली वो,
"कर सको तो!" कहा मैंने,
"सिर्फ आपने ही समझा!" बोली वो,
"पहले दिन से ही!" कहा मैंने,
"आप बैठिये?" बोली वो,
"कल आता हूं!" कहा मैंने,
"कुछ बताती हूं!" बोली वो,
"हां?" बोला मैं,
"बैठो!" बोली वो,
अब मेरे शक के दायरे में नव भी आ गया था! और स्नेहा मुझे परिस्थिति की ही गुनाहगार ही लगती थी! इस से ज़्यादा कुछ नहीं!
मैं बैठ गया!
"बताओ?" पूछा मैंने,
"मुझे जाना है!" बोली वो,
"जाना?" पूछा मैंने,
"हां!" बोली वो,
"कहां?" पूछा मैंने,
"यहां से दूर!" बोली वो,
"कितना दूर?" पूछा मैंने,
"दूर कहीं!" बोली वो,
"समझ गया!" कहा मैंने,
"क्या?'' पूछा उसने,
"जाना है वहां!" कहा मैंने,
"कहां?" बोली वो,
"जहां कोई है!" कहा मैंने,
दौड़ कर आयी वो!
"कहां हैं?" बोली वो,
"तुम नहीं जानतीं?" पूछा मैंने,
वो फौरन ही पीछे हुई और..............!!
वो पीछे हो गयी थी! मुझे अब तक तो यक़ीन हो ही चला था कि कुछ न कुछ गड़बड़ तो स्नेहा के साथ भी है, अब भले ही वो दिमागी ही हो! ऊपरी गड़बड़ के लिए मुझे अभी इंतज़ार करना था, क्योंकि, कोई भी ऊपरी शय उसके ऊपर क़ाबिज़ होती या उस से खेल खिलवा रही होती तो मुझे यहां तक आने ही नहीं देती! तो मुझे ये दिमागी संतुलन का मामला लगने लगा था! इंसानी दिमाग में न जाने क्या क्या हमेशा ही चलता रहता है! हम जब सोये तब भी और जागें तब भी! दिमाग और ख्यालात के बारे में विज्ञान ने भले ही क़दम उठाया हो लेकिन उसकी धारणाएं हर नए मामले पर खंडित हो ही जाती हैं! कुछ छोटे से उदाहरण देखिये आप, क्यों किसी को लाल रंग पसंद है और क्यों किसी को हरा? क्यों किसी को गुलाबी और क्यों किसी को पीला? हम सभी का जन्म मन समान रूप से हुआ है और हम भी अन्य पशुओं की भाँति एक प्रजाति ही हैं तब क्यों हमारे खून का ग्रुप अलग अलग होता है? या अलग अलग ग्रुप ही क्यों होता है? विज्ञान सतत आगे बढ़ता चला जा रहा है, सम्भवतः एक न एक दिन इसका कारण भी समझ ही जाए! परन्तु तंत्र में इसका कारण कुछ अन्य ही शब्दों द्वारा बताया गया है, वहां ये रक्त-समूह नहीं है, वहाँ ये वज्जक-समूह है! अर्थात रक्त मात्र एक द्रव्य है जो परिपोषित होता है अस्थि-मज्जा से! रक्त में कणिकाएं होतीं हैं, इनका निर्माण, चलन, गतिमयता आदि का संचालन, मस्तिष्क ही करता है! इसी कारण से एक ही पिता, एक ही माता से उत्पन्न संताने, भिन्न भिन्न रक्त-समूह वाली, अलग कद-काठी वाली हो सकती हैं! अर्थात, हम मनुष्यों के अंदर, सभी प्रकार के रक्त-समूह का समान स्थान होता है! जो प्रभावी हो, वो जीवन हेतु कार्य करता है! कुल मिलाकर, इस समस्त संसार के 'हैं', 'है' यहीं इस मस्तिष्क में ही विद्यमान हैं! आवश्कयकता है तो उन्हें जीवित करने की!
जिस समय मनुष्य की संवेदना, किस कटु-अनुभव की आरी से छिलते हुए आगे बढ़ती है, तब मनुष्य के मस्तिष्क में दो प्रवाह आगे बढ़ते हैं, कि कैसे बढूं, जिस से आहत न हो सकूं और दूसरा ऐसा क्या कि ये पुनः न हो सके! अब ये जो दूसरा कारण है, यहीं मनुष्य का मस्तिष्क संतुलन बनाने में समय लेता है और इसे ही मानसिक-व्याधि कहा जाता है!
तो इस स्नेहा के साथ भी कुछ ऐसा ही चल रहा था, कुछ न कुछ ऐसा अनुभव अवश्य ही हुआ था उसे जिसे, इसके मस्तिष्क ने स्वीकारा होगा, देखा होगा, परन्तु किसी अन्य कारण से अब लालायित ही है, अभी तक, शायद उसके लिए जो अब शेष है ही नहीं या, फिर जो कभी था ही नहीं, या कोई ऐसा मिथ्याभास जिसे सत्य मान लिया होगा इस स्नेहा ने! अब मेरे लिए, ये सब दुधारी तलवार पर चलने जैसा हुआ! अर्थात, उसके द्वारा कहा या एक एक शब्द अब मुझे जांचना भी था और उसका क्या तालमेल है वर्तमान से, ये भी जानना आवश्यक ही था!
तो वो पीछे हट गयी थी, हटी इसलिए कि मैंने उसके अन्तःस्थल पर कहीं न कहीं एक खरोंच छोड़ी थी, या कुछ मन में पुनः उखाड़ दिया था, यदि वो कोई घाव या ज़ख्म होता तो निःसंदेह प्रतिक्रियावश मुझ पर गुस्सा करती, या हाथापाई पर भी उतर ही आती या मुझ पर कुछ न कुछ फेंक के मारती! तो ऐसा कुछ न था!
"ओह! मुझे माफ़ कीजिये!" बोली वो,
"किसलिए?'' पूछा मैंने,
"मेरे व्यवहार के लिए!" बोली वो,
वो आगे आयी, बिस्तर तक, पलंग तक पलंग का बायां प्लेटफार्म-डोर खोला और एक डिब्बी निकाली, ये शायद दवा थी, मैंने पढ़ा एक बार को तो, ये 'वरसीडेप' की गोलियां थी, उसने एक गोली निकाली, पानी लिया खिड़की के पास रखे जग से, गिलास में डाला और गोली निगल ली!
फिर मेरी तरफ देखा,
"माफ़ कीजिये!" बोली वो,
मैंने हां में सर हिलाया अपना!
"ऐसा कब से है?" पूछा मैंने,
"आठ महीनों से!" बोली वो,
"रोज़ी के मिलने के बाद से?" पूछा मैंने,
"हां!" बोली वो,
"तब रोज़ी से मिलने को मैं अच्छा मानूं, आपके लिए, या बुरा?'' पूछा मैंने,
"आप रोज़ी को कुछ न कहिये!" बोली वो,
"बुरा लगता है?" पूछा मैंने,
"कुछ न कहिये!" बोली वो,
"तब मैं बुरा लगता है, ऐसा मानूंगा!" कहा मैंने,
"अब नहीं कहिये कुछ भी रोज़ी को?" बोली वो,
"कहां कह रहा हूं?" कहा मैंने,
"आपने कहा!" बोली वो,
"बुरा तो कहा ही नहीं रोज़ी को मैंने?" कहा मैंने,
"आशय तो यही था?'' बोली वो,
"आशय? कैसा?" पूछा मैंने,
"कि मिलना बुरा है?'' बोली वो,
"नहीं तो?" कहा मैंने,
"रोज़ी!" बोली वो,
और उस पल मैंने गौर किया! कि स्नेहा, रोज़ी से 'प्रेम' करती थी, एक भावुक सा 'प्रेम' जिसको मैं शब्दों में तो क़तई ही ज़ाहिर नहीं कर सकता!
"आप कभी नहीं कहियेगा!" बोली वो,
"नहीं कहूंगा!" कहा मैंने,
तभी बिस्तर पर रखा फ़ोन बजा, ये फ़ोन स्नेहा का था, स्नेहा ने अटेंड की कॉल, बातें कीं और मुझे हाथ के इशारे से बैठे रहने को कहा! मैं बैठा ही रहा! तब तलक मैंने कमरे पर सरसरी निगाह डाली! सबकुछ सलीक़े से रखा था, ये बात कि उस घर में अभी कोई बाल-बच्चा नहीं था! कमरे में कागज़ों की भरमार थी, ये सभी मुझे तो मेडिकल-क्षेत्र से ही संबंधित लगते थे, कुछ पैड्स रखे थे, शायद दवा लिखने के लिए, दो बड़े बड़े से कैलेंडर थे, एक लक्ष्मी देवी का और एक पर कोई जड़ी-बूटी सी बनी थी! दीवार पर एक बड़ी ही, सफेद डायल वाली दीवार घड़ी लगी थी और मेरे पीछे, स्नेहा और नवोदित के विवाह-समय का एक बड़ा सा फोटो लगा था!
"मुझे जाना होगा अभी!" कहा मैंने,
"कोई बात नहीं!" कहा मैंने,
"अब कब मिल सकते हैं?'' पूछा उसने,
"तीन दिन तो नहीं!" कहा मैंने,
"कहीं जा रहे हैं?" बोली वो,
"हां!" कहा मैंने,
"तो फिर बुधवार?" बोली वो,
"मैं कॉल कर लूंगा!" कहा मैंने,
"मैं कर लूंगी!" बोली वो,
"ठीक है!" कहा मैंने,
"और हां?" बोली वो,
मैं पलट चुका था, रुक गया, दुबारा पलटा!
"मैं फीस दूंगी!" बोली वो,
'किस बात की?" बोला मैं,
"आपके समय की!" बोली वो,
"कैसा समय?" पूछा मैंने,
"यहां आने में, जाने में समय भी लगता है और पैसे भी!" बोली वो,
"क्या कह रही हैं आप!" बोला मैं,
"क्यों?" बोली वो,
"मैं कोई डॉक्टर नहीं, कोई विशेषज्ञ नहीं!" कहा मैंने,
"मुझे ख़ुशी होगी!" बोली वो,
"मुझे नहीं!" कहा मैंने,
"लेनी तो होगी?" बोली वो,
"नहीं लूं तो?" कहा मैंने,
"ऐसा नहीं होता!" बोली वो,
"छोड़िये!" कहा मैंने,
और मैं सीधा कमरे से बाहर चला आया! मुझे देख शहरयार जी खड़े हो गए, टीवी का रिमोट रख दिया और हम बाहर के लिए निकल पड़े! गाड़ी में बैठे, स्टार्ट की और निकल पड़े!
"आज चिल्ला रही थीं मोहतरमा?" बोले वो,
"हां!" कहा मैंने,
"क्यों?" बोले वो,
"कुछ बता रही थीं!" कहा मैंने,
"क्या लगता है?'' बोले वो,
"कुछ न कुछ गड़बड़ है!" कहा मैंने,
"मोहतरमा में?" बोले वो,
"उनके दिमाग में!" कहा मैंने,
"और घर में?" बोले वो,
"वो ठीक है!" कहा मैंने,
"और नवोदित?" बोले वो,
"उनका संबंध नहीं लगता मुझे, देखना ये है कि दोनों के बीच कैसी निभती है!" कहा मैंने,
"एक बात कहूं?" बोले वो,
"हां?" बोला मैं,
"ये डॉक्टर जितने भी हैं, सब के सब बीमार ही हैं!" बोले वो,
"सो तो सही कहा!" कहा मैंने,
"ये अंदर से खोखले, कुंठाग्रस्त और धनलोलुप ही हैं अधिकांश!" बोले वो,
"हां, सही कहा!" कहा मैंने,
"बस ये है कि इनका पेशा सम्मान वाला है!" बोले वो,
"हां!" कहा मैंने,
"तो निभती कैसी है?" बोले वो,
"हां!" बोला मैं,
"रवीश जी से पूछ लो?" बोले वो,
''वो ही ठीक है!" कहा मैंने,
"चलें शाम को कल?" पूछा उन्होंने,
"चलो!" कहा मैंने,
"बात कर लूंगा!" बोले वो,
"ठीक!" बोले और गाड़ी एक बस-स्टॉप के पास रोक दी!
"क्या हुआ?'' पूछा मैंने,
"भुट्टा!" बोले वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"खूब नीम्बू?" बोले वो,
"बिलकुल!" कहा मैंने,
और तभी, पास से ही...............
तभी पास से ही एक फ़क़ीर गुज़रा! फ़क़ीर ने हाथ बढ़ाया, मैंने उसे देखा, उसने मुझे, वो कुछ समझा मैं कुछ! खैर मैंने, अपनी जेब से एक दस का नोट थमा दिया, मानता हूं ये सब ठीक नहीं, लेकिन मेरा कर्म बस, उसे नोट थमाते ही खतम हुआ, बस, यही जान लिया था! आगे वो कुछ भी करे! हम भी तो करते ही हैं न? छल-कपट, मुनाफ़ा, चाटुकारिता आदि आदि! न मुझे कुछ उस से दुआ चाहिए थी न उस को मुझ से कोई बड़ी ही उम्मीद थी! 'अल्लाह ख़याल रखे!' ये ही बहुत था उसका कहना!
"ये लो!" बोले वो,
"हां, लाओ!" कहा मैंने,
और हम गाड़ी में आ बैठे! भुट्टा खाने लगे! दमदार दानों वाला, बढ़िया से सेंका हुआ, तीखा नीम्बू-नमक लगाया हुआ था!
"मजा आ गया!" कहा मैंने,
"होता क्या है, कि कभी कभी हम बड़ी चीज़ के ही तलबग़ार होते हैं, लेकिन जानते हैं नहीं कि उतनी ही छोटी चीज़ हमें, उस से भी ज़्यादा मजा दे सकती है!" बोले वो,
मैं हैरान हो गया! चुप हो गया! शांत सा पड़ गया!
"क्या हुआ? गलत कहा?'' बोले वो,
"बिलकुल नहीं!" कहा मैंने,
"तो क्या हुआ?" पूछा उन्होंने,
"आपने मेरे एक बड़े सवाल का उत्तर दे दिया! एक नयी ही राह दे दी!" कहा मैंने,
"ऐसा क्या बड़े साहब?" बोले वो,
"बड़ी चीज़! छोटी चीज़!" कहा मैंने,
"हां!" बोले वो,
"तलबग़ार!" कहा मैंने,
"हां?" बोले वो,
"बड़ी चीज़ का तलबग़ार!" कहा मैंने,
"क्या?'' बोले वो,
"वो स्नेहा!" कहा मैंने,
"स्नेहा? ये वाली?" बोले वो,
"हां!" कहा मैंने,
"तब छोटी?'' बोले वो,
"रोज़ी!" कहा मैंने,
"नहीं समझा मैं! चूल्हे की रोटी खा खा के, बुद्धि पर मिट्टी जम गयी!" बोले वो,
"सुनो!" कहा मैंने,
"हां, सुन रहा हूं!" बोले वो,
"अबे? मरेगा?? साले?? आंखें और फाड़ के देख रहा है? हट?" बोले वो, एक लड़के को, जो रिस्की-ड्राइविंग करते करते सामने आ गया था, तभी पड़ी बत्ती! तो बिफर पड़े वो उस लड़के पर!
"हां? क्या? उतरूं क्या?" बोले वो उस से,
और उस लड़के ने, आंखें फेर लीं अपनी!
"जो एक पड़ जा न इसकी गुद्दी पर, तो टेंटुआ कहां से निकला, डॉक्टर भी हैरान हो जा!" बोले वो,
ये सुन मेरी तो हंसी का फव्वारा ही फूट पड़ा! क्या देसी कहावत कही थी उन्होंने! वे भी हंस पड़े ये बोलते हुए!
"हां जी? क्या कह रहे थे?" बोले वो,
"हां! मैंने स्नेहा पर ही ध्यान लगा दिया सारा! लेकिन उस रोज़ी पर नहीं!" कहा मैंने,
"सुना तो स्नेहा ही रही है?" बोले वो,
"और सुन तो मैं ही रहा हूं!" कहा मैंने,
"तो बताएगी भी तो वो ही?'' बोले वो,
"यही तो चूक हो गयी!" कहा मैंने,
"अब कब मिलना है?" बोले वो,
"बुधवार!" कहा मैंने,
"अच्छा!" कहा उन्होंने,
"कॉल करेगी वो!" कहा मैंने,
"अच्छा!" बोले वो,
"रोज़ी!" कहा मैंने,
"हां जी, रोज़ी!" बोले वो,
"इसके बारे में जानना ज़रूरी है!" कहा मैंने,
"सो तो है ही!" बोले वो,
"ठीक है! अब यहां इस सफ़े में जो लिखा है, वो पढ़ने में सीधा है लेकिन मायनों में उल्टा!" कहा मैंने,
"क्या?'' बोले वो,
"स्नेहा, बड़ी! ठीक?" कहा मैंने,
"हां?" बोले वो,
"रोज़ी, छोटी! ठीक?" कहा मैंने,
"सफ़े में?" बोले वो,
"हां!" कहा मैंने,
"मतलब इन्हें अब उलटे में रखो!" बोले वो,
"हां!" कहा मैंने,
"अच्छा!" कहा उन्होंने,
फिर वो, एक पुराना सा गाना गुनगुनाने लगे! बोल थे, 'ये मेरा दीवानापन है या मुहब्बत का सुरूर', अच्छा गए रहे थे, स्टेयरिंग पर उंगलियां थाप दिए जा रही थीं! और हमारी गाड़ी, जमना जी के पुल से, सरपट भागी जा रही थी!