जन्म-जन्मांतर का बन्धन! क्या ये भी कोई सूत्र हो सकता है? क्या इसमें कोई सच्चाई हो सकती है? क्या ये, सच में सम्भव है? अगर अर्णव ही हरबेर्टो है तो जिशाली कहां है? क्या हुई थी वो? या है कहीं? या होगी कभी? इतना बड़ा संसार! कैसे लगे खबर! और फिर ये मेरी एक अटकल ही तो है! जानेर, डच भाषा में ही बातचीत किया करता था उस से, तो जिशाली भी करती होगी इसी भाषा में ही! जिशाली के बारे में पूर्ण रूप से लिखा नहीं उसने! बस इतना कि वो जानेर के रिश्ते में थी और उसका घराना भी, जानेर की तरह से ही धनाढ्य रहा होगा! जिशाली के बारे में और कुछ ज्ञात नहीं होता, न उसके निवास के बारे में ही, न शहर या गांव के बारे में ही! खैर, मैंने आगे पढ़ना शुरू किया! ये हिस्सा कुछ प्रेम से से भरा था, मैं समझ सकता था! अर्णव किसी हाल से गुजर रहा था, ये उसके अलावा कोई नहीं जान सकता था! डॉक्टर्स भी नहीं! खुद उसके माँ-बाप भी नहीं! उसे कुछ सुकून मिलता होगा तो इसी प्रेम कहानी से! अपनी प्रेयसी को याद करते हुए ही! कैसा भाग्य लिखवा कर लाया था वो भी! क्यों उसे ही चुना गया था! क्या था उसका भविष्य? वो था, रहा तो अब? कहां है? होगा क्या? सवाल इतना बड़ा और उत्तर उसका कहीं नहीं!
"इधर ठीक है!" बोला हरबेर्टो!
वो एक बेंच था पत्थर का बना हुआ! उसको अपनी जेब से रुमाल निकाल कर पहले साफ़ किया उसने, और फिर जिशाली को बिठाया उधर!
"हरबेर्टो?" बोली वो,
"हां?" कहा उसने,
"आपने बताया था कि यहीं से आप, जल्दी ही अपने देश जाओगे?" बोली वो,
ये नहीं समझ आया उसे! कब कहा था? कब?
"अभी तो कोई खबर नहीं!" बोला वो,
"मुझे ले जाओगे?" बोली वो,
"अरे? क्यों नहीं?" बोला वो,
वो हंस पड़ी! तेज तेज! खिलखिलाकर! हंसने लगा वो भी! तेज तेज!
"मुझे यकीन है!" बोली वो,
"और मैं तैयार हूं!" बोला वो,
"अब मालाबार कब आओगे हरबेर्टो?" बोली वो,
कंधे पर सर रखते हुए उसके!
"कोशिश है, जल्दी ही!" बोला वो,
"आ जाओ!" बोली वो,
"मेरा बस चले तो अभी चला जाऊं जिशाली!" बोला वो,
"आना ही होगा, हम दस दिन ही हैं यहां!" बोली वो,
"क्या?" चौंक पड़ा वो!
"हां, दस दिन!" बोली वो,
"फिर?'' घबराते हुए पूछा उसने,
"फिर? वापिस!" बोली वो,
"नहीं!" कहा उसने,
"क्यों नहीं?" बोली वो,
"नहीं!" कहा उसने,
"बताओ?" बोली वो,
"क्यों जाओगी?" पूछा उसने,
"जाना ही होगा!" कहा उसने,
"नहीं जाने दूं तो?" बोला वो,
"क्यों?" कहा उसने,
"मत जाना अब!" बोला वो,
वो मुस्कुरा पड़ी! हाथ पकड़ लिया उसका! सुनहरे बालों को सहलाने लगी हाथों के! और हरबेर्टो, खो गया ख्यालों में!
"जिशाली?" बोला वो,
"हम्म?" कहा उसने,
"नहीं जाना अब!" बोला वो,
"कैसे रोकोगे?" बोली वो,
"कैसे? मतलब?" बोला वो,
"कैसे?" बोली वो,
"मुझे समझाओ?" बोला वो,
"अधिकार!" बोली वो,
"अधिकार?" कहा उसने,
"हां!" कहा उसने,
"मेरा अधिकार है तुम पर!" बोला वो,
"बिलकुल है!" कहा उसने,
"मेरा भी!" बोली वो,
"बिलकुल!" कहा उसने,
"चलो, जब आओगे तो इस बारे में बातें होंगी!" कहा उसने,
"हां, ठीक!" कहा उसने,
"तब संग ही रखना मुझे!" बोली वो,
"हां! हां! हमेशा! अपने सीने से लगाकर!" कहा उसने,
और जिशाली की गर्दन पर जकड़ बनाते हुए, लगा लिया अपने कंधे से चेहरा उसका! और हरबेर्टो ने, उसके माथे के ऊपर, चूम लिया उसको! अपनी ठुड्डी के नीचे माथ रख लिया उसका!
अब मेरे पास, तीन नोट्स ही बचे हैं! कुल मिलाकर, जब मैंने गिने तो नौ पन्ने! इन्हीं नौ पन्नों में शायद कुछ हाथ आये! लेकिन जहां हाथ कांप रहे थे, वहीं दिल पर भी बोझ था, कि इसके बाद, लिखने को अर्णव नहीं रहा...अर्णव ने क्या लिखा होगा? मैंने वो नोट्स, अपनी मेज़ पर रख दिए...थोड़ा बाहर की तरफ देखा, खिड़की से बाहर, तो गुलमोहर के झड़ते हुए पत्ते दिखाई दिए, पीले हो, अब नीचे गिर रहे थे...पतझड़ आ गया था, कमाल है ना! कहीं पतझड़ कैसा सुखद सा होता है जब हवा में कुछ गर्माहट सी भरी होती है, और कहीं पतझड़, ज़िन्दगी के अंत का सूचक बन जाता है! एक नवजीवन देता है और एक जीवन संग ले जाता है! ये एक ऐसी दुनिया है, जिसमे मिथ्या को ऐसा ज़ोरदार बल दिया गया है, कि इस मिथ्या को रचने वाले को भान ही नहीं रहा! उलझ गया और जहां था, वहीं छोड़ दिया! कुछ का जवाब मिल गया है और कुछ नहीं! शायद रचने वाले ने ही अल्पविराम की स्थिति बनाये रखी हो!
मैं एक बार फिर से अपनी कुर्सी पर बैठा और टेक लगा ली, मैंने फिर से आगे पढ़ना शुरू किया!
नोट नम्बर बीस.....
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ये नोट जहां से शुरू हुआ था, उसमे जिशाली और जानेर का ज़िक्र नहीं था! शायद वे लौट गए थे, उनके दरम्यान क्या बात हुई होगी, इसका सिर्फ क़यास ही लगाया जा सकता है, एक मोटा मोटा सा अनुमान ही! कि वो फिर लौटेगा उधर, मालाबार! उसने यहां कोशिश की होगी उन्हें रोकने की, लेकिन जिशाली ने अपना मंतव्य पहले ही ज़ाहिर कर दिया था! उसे वहीं जाना होगा!
थोड़ा आगे बढ़ा...
और अचानक से मैं खुश हो गया! हरबेर्टो को, स्थानांतरण मिल चुका था, वो लौट रहा था वापिस मालाबार! उस समय वो कितना खुश रहा होगा, इसका अंदाजा मैं लगा सकता हूं! उसने जानेर को कोई दस दिन पहले खबर की थी, एक खत डाल कर, हालांकि उसको अभी तक कोई जवाब नहीं मिल सका था, कारण भी स्पष्ट था, उन दिनों मौसम ठीक नहीं था, समुद्र में जहाजों का आवागमन या तो कम या कभी कभी रोक दिया जाता था!
और फिर अगले नोट के पहल;इ ही भाग में मैंने पाया कि वो, मालाबार जा पहुंचा था! बेहद ही खुश! उसे अगली सुबह जानेर से मिलना था! उसने खत में जानेर को उधर बुलवा लिया था! रात आंखों में ही कटी थी उसकी!
अगली सुबह.........
वो तैयार था, अपनी ड्यूटी का चार्ज भी उसने नहीं लिया था, सुबह का कोई आठ बजे का समय उसने जानेर से मिलने का मुक़र्रर किया था, लेकिन नौ बजने पर भी जानेर, वहां नहीं पहुंचा था, क्या कारण हो सकता था?
दस बजे होंगे, और फिर ग्यारह बज गए! प्यासा, प्यास से मरे जाए! सुबह का नाश्ता भी गले से नहीं उतर सका था! उस दिन शुक्रवार था, आज चर्च में जाने का दिन होता था, सभी लोग तैयारी में लगे थे! वो भी जाता था, लेकिन कम ही! उस रोज वो चर्च चला गया, दो बजे के आसपास फारिग हुआ, अपने दफ्तर पहुंचा, मालूमात भी की, नहीं कोई नहीं आया था उसको पूछने! न ही कोई मिलने और न ही कोई खबर ही पहुंची थी! शाम हुई, बुरा हाल, आंखें बाहर ही बिछी हुई थीं उसकी, शाम रात में बदली और रात फिर गहरी हुई! लेट गया, अनजान से ख़याल दिलोदिमाग पर हावी रहे!
फिर सुबह हुई, आज नियम के मुताबिक़, ड्यूटी का चार्ज लेना था, नहीं लिया, आज वो, जाने वाला था जानेर के गांव!
सुबह आठ बजे, एक बग्घी ली, और उस बग्घी वाले को बताया, नाम पता नहीं था गांव का, बस दूरी के हिसाब से तय हुआ था सब! उसने एक सवारी ही ली थी, सरकारी नहीं, वो नहीं चाहता था कि किसी को कोई खबर ही मिले!
"अर्णव?" आयी आवाज़,
उसकी आंखें खुल गयीं! हड़बड़ा के आसपास देखा! कुछ समझ में आये इस से पहले वो अचानक ही बैठ गया! सामने नर्स थी!
"क्या बात है अर्णव?" बोली वो,
"जानेर!" बोला वो,
"जानेर?" बोली वो, हैरत से,
"हां, जा रहा हूं!" कहा उसने,
"कहां?" बोली वो,
"नाम नहीं पता!" बताया उसने,
"किसका?" पूछा उसने,
"गांव का!" बोला वो,
"गांव?" बोली वो,
"हां!" कहा उसने,
और फिर से लेट गया!
"चलो!" बोला वो,
और शांत सा लेट गया! बिना हिले डुले!
"अर्णव?" बोली वो,
उसने छुआ उसे, तेज बुखार था उसको! बहुत तेज! वो घबरा गयी! फौरन बाहर चली गयी! जब आयी साथ तब कुछ दवाएं साथ में थीं! लेकिन अर्णव? वो कहां था? वो उस बिस्तर पर नहीं था! न अपनी व्हील-चेयर पर ही! न ही उस कमरे में! कहां था? वो घबरा गयी, बाथरूम देखा, दरवाज़ा खुला था, कोई अंदर नहीं था, न ही कोई उस शौचालय में ही था!
वो चिल्लाते हुए उसका नाम बाहर भागी! आसपास देखा, कोई नहीं था! उसकी चिल्लाहट सुन, घर के और लोग भी दौड़े चले आये थे! अंश आगे भागा और अचानक ही...रुक गया...एक तरफ.....!!
मित्रगण! मैंने गिने हैं! अब कुल छह ही पृष्ठ बाकी हैं! बस इन्हीं में सब छिपा हुआ है! मेरी सांसें भी तेज हो चली थीं! क्या हुआ होगा? कहां चला गया था वो बेचारा? क्या हुआ था उसके संग?
जब अंश वहां तक पहुंचा, तब उसने देखा, अर्णव, सीढ़ी के सहारे, एक तरफ, गिरा पड़ा था! उसे झट से उठाया उसने! और उठाकर, ले चला, हर तरफ अफरातफरी मच गयी थी! मचनी भी लाजमी ही थी! उसे, लाया गया उसके कमरे में, वो बेहोश था, नब्ज़ अभी चल रही थी, डॉक्टर को कॉल कर दी गयी थी, तब तक सभी लोग वहां आ पहुंचे थे! माँ और पिता जी का हाल खराब था, अर्णव के मामा जी के होश उड़े थे, नर्स से मालूमात की तो उसने भी अनभिज्ञता ही ज़ाहिर की....
खैर, डॉक्टर आया, उसकी जांच की और फौरन ही उसे अस्पताल जाने की सलाह दी, उसका ब्लड-प्रेशर गिर गया था, आनन-फानन में अस्पताल ले जाया गया!
पूरे चौबीस घण्टों से ज़्यादा उसकी यही स्थिति रही! और अगले दिन, सुब ही उसको होश आया, होश आते ही, कमाल हो गया था! अर्णव, कहीं से ऐसा नहीं लगता था कि वो बीमार है! उसने सभी से बातें की! खाना भी खाया! सभी बेहद खुश हुए! डॉक्टर्स को अब तसल्ली हो चली थी कि अर्णव अब ठीक हो जाएगा! जिस तरह से ये रोग शुरू हुआ था, उसी तरह से अब खत्म भी होने वाला था!
उस शाम, उसने अंश से अपने नोट्स के लिए कुछ कागज़ मांगे! पहले के नोट्स भी लाये गए थे! उस रात करीब डेढ़ बजे के बाद, उसने लिखना शुरू किया! ये, उसका आखिरी नोट था..........
अंतिम नोट......
एक बात बताना चाहूंगा, अर्णव ने लिखा था....कि मैं अर्णव नहीं हूं! मैं हरबेर्टो हूं! एक रॉयल डच आर्मी अफसर! नहीं जानता मैं यहां कैसे हूं! मैं कौन हूं? पता नहीं! यही कहता हूं मैं! लेकिन मैं हरबेर्टो ही हूं!
मैं इस समय एक बग्घी में हूं! मेरा बग्घी वाला एक देहाती युवक है, कम जानता है मेरी भाषा बोलना! मैं जा रहा हूं...मिलने...अपनी जिशाली से.....अपने दोस्त जानेर से! धूप खिल गयी है! खूबसूरत सा नज़ारा है यहां! कुछ लोग आते हुए नज़र आते हैं और गुज़र जाते हैं!
अब हरबेर्टो जा रहा है.....कभी न लौट आने के लिए....
मित्रगण..उसी रात वो फिर से बेहोश हुआ......और इस बार ऐसा...कि कभी न आंखें खोल सका...हरबेर्टो, अर्णव...सच में ही जा चुका था...बहुत दूर...कोई नहीं जानता कि कहां...
वो डच प्रभुत्व, इमारतें, ऑर्डर्स, यात्राएं, प्रेम-प्रसंग, दोस्ती, गार्ड्स, वो ऑफिस, समुद्र, समुद्र का किनारा आदि, सब का सब खो गया उसके बाद.....
जब डॉक्टर्स ने जांच की, तो उसकी हृदयगति रुक गयी थी, ये पता चला...अपनी छोटी सी उम्र में, उसने बेहद कष्ट झेल लिया था!
अंश ने जो बताया, वो इस प्रकार था...
उस रात करीब ग्यारह बजे, अर्णव ने अजीब सी हरकतें करना शुरू कर दिया था...वो न जाने किस से क्या बातें कर रहा था....किसी की नहीं सुनी थी उसने...उसे उस रात बेहद गुस्सा आया था...वो सभी से लड़ा...सभी को धमकाया...और लेट गया था, धम्म से अपने बिस्तर पर.....उसके दिमाग की इस फट गयी थी...नाक से, कान से खून बहने लगा था...
तो मित्रगण...
अब अर्णव शेष नहीं, न ही वो हरबेर्टो, न मेरे पास कोई साधन ही कि जिस से मुझे कुछ पता चल सके उस डच आर्मी अफसर के बारे में...बहुत समय बीत चुका उस अफसर को...हाँ, डच कागज़ात में कहीं कहीं जिशाली शब्द ज़रूर प्रयोग होता सा दिखाई देता है...लेकिन ये प्रामाणिक है या नहीं...नहीं पता...
अपनी राजनैतिक अस्थिरता के कारण, डच प्रभुत्व, इस क्षेत्र से धीरे धीरे खत्म होता गया, और नयी औपनिवेशिक महाशक्ति ब्रिटेन का उदय हो गया...अब कुछ शेष है, तो बोली, कुछ परिधान, कुछ पुरानी इमारतें, सिमैट्रीज़ और चर्च....यही लिगेसी अब शेष है...
लेकिन आज भी सोचता हूं, उस हरबेर्टो के बारे में, जो यहीं जिया था, अपनी एक भारतीय प्रेमिका के संग उसका प्रसंग रहा..क्या रहा जिशाली का? जानेर का? कुछ नहीं पता....जहां, कुछ वृष बाद के कुछ कागज़ात बताते हैं, कि जब वो जहाज जिसमे जानेर और जिशाली सवार थे, उस समय तीन जहाज समुद्र में तूफ़ान आने से, राह भटक कर, डूब गए थे, कुछ लोग जो बचे...वो ही जानें! शायद ऐसे ही एक जहाज में वे दोनों भी रहे हों...अफ़सोस....अफ़सोस...
वो कमरा, वो स्विमिंग-पूल तो आज भी है, लेकिन सूखा हुआ...उस कमरे में अर्णव की एक बड़ी ही अच्छी, हंसती हुई सी तस्वीर लगी है! एक ज़िंदादिल डच आर्मी अफसर हरबेर्टो ही कहा मैंने उसे!
मालाबार जाना हुआ मेरा, तब मुझे वो आर्मी अफसर भी याद हो आया! लगा, वहीं है वो आज भी! हालांकि आज बग्घियां नहीं हैं...वैसे बार्स भी नहीं..लेकिन वो छावनी आज भी है!
सलूट! सलूट उस डच आर्मी अफसर हरबेर्टो को!
साधुवाद!
