निज रूप में ही!
क्या लिखा था अर्णव ने भी! उसकी ऐसी समझ, सच में, मुझे तो विवश करती थी कि वो सच में ही सामान्य था, न सिर्फ सामान्य ही बल्कि, उस दायरे से आगे सोचे वाला भी था!
तो जी, शाम विदा हुई, कुछ पता लेकर, कुछ ख़ुशबू उस माहौल की, वहां फैली, कच्चे करौंदों के महक की! कुछ रात में खिलने वाले फूलों की! वो, अब विदा हो गयी थी! लालटेन की रौशनी खूब जल रही थी! अंधेरे से बैर जो रखती है ये लालटेन में क़ैद वो लौ! तो, वो विदा हुई, कुछ शान्ति सी पसरी! न हरबेर्टो ही कुछ बोले और न कुछ जानेर ही! जानेर, कुर्सी में धंसा हुआ, जैसे एक एक घड़ी काट रहा हो! आखिर में, वो उसका दोस्त था! और दोस्त, वो दुआ है जो हमेशा साथ रहती है! वो दौलत है, जो कभी खाली नहीं करती किसी को भी! ऐसी ही कुछ दोस्ती थी इन दोनों की!
अचानक ही, एक चाकर ने, आवाज़ दी, आवाज़ में कर्तव्य अधिक और जान कम सी थी! घूम गया जानेर, सर घूम गया हरबेर्टो का भी उस तरफ! वो एक युवक था! मुस्कुराता सा हुआ! उठ कर चल पड़ा जानेर उसके जानिब! कुछ बात हुई और लौट आया वो जानेर! होंठों पर एक कच्ची सी मुस्कान, शरारत सी भरी! हरबेर्टो भी भांप गया, सो खड़ा हो गया! बाजू की फीत कस ली, छाती से बंधी हुई क्रॉस-फीतें भी कस लीं! समझ गया था वो भी, कि शिकारी आन पहुंचा है! शिकार करने को! शिकार भी उसका, जो खुद शिकार होना चाहे!
"आओ!" बोला वो,
"क्या...?" बोला वो,
"हां हां!" बोला जानेर!
अब मुस्कुरा पड़ा वो भी!
पुष्टि हो गयी! वो चल पड़े उस कमरे की तरफ, पीछे से होते हुए, एक अहाता सा फिर पार किया, सामने एक सीढ़ी जाती दिखाई दी ऊपर के लिए, उस छत को देखा, छत की मुंदर बड़ी थी, कोई नहीं दिखा!
"जाओ!" बोला जानेर!
"वहां?" बोला वो,
"हां, सीढ़ी!" बोला वो,
"तुम?" बोला वो,
"वहीँ हूँ!" बोला वो,
और लौट पड़ा, जैसे थमा दी लगाम!
भारी से जूते, और भारी से लगने लगे! दिल, उस पोशाक से बाहर आने को होय! लगाम कसे तो देह बिदके, ढीली छोड़े, तो रुक जाए! कैसी मुश्किल! कैसी उल्फत सी ये भी! कमाल ही है! कांटा किसे अच्छा लगता है भला! लेकिन दिलबर का दामन पकड़ ले तो किसे बुरा भी लगे!
अर्णव ने लिखा.......कि वो कुल चौदह सीढियां थीं, सीढ़ी की दीवार के आसपास, उस अंधेरे में भी वो पहचान गया था कि मधु-मालती के फूल पड़े थे, उसने ऊपर देखा, उधर, एक दीवार पर, दीवार को कसे हुए, वो मधु-मालती की अल्हड़ सी जवानी थी! लदी हुई थी फूलों से! पत्ते बेचारे, उन फूलों के गुलदस्ते में से निकल निकल, अपनी कुशल कारीगरी का पता बता रहे थे! कारीगरी, उन फूलों को सहेज कर रखने की!
आखिरी सीढ़ी, और वो छत पर चला आया! आसपास देखा, कोई नहीं, अँधेरा, हां, एक तरफ से, कुछ आवाज़ सी आ रही थी, जैसे कुछ हिल रहा हो, जैसे कोई अपना पांव ज़मीन पर बार बार मार रहा हो!
और उधर ही, हल्की सी रौशनी दिखाई दी! चल पड़ा वो उधर, तेज चला, जैसे ही आगे बढ़ा, रुक गया!
सामने झूला और झूले पर, बैठी थी वो जिशाली! उसका पांव ही, उस छत से टकराता था जब झूला डोलने लगता!
"आओ?" आयी एक मधुर सी आवाज़!
नहीं सुन पाया वो! खो गया था! ऐसी सुंदरता? ऐसी मनमोहकता? ऐसा शारीरिक-विन्यास? ऐसे उठाव और गठाव? कहाँ ठहरे उसकी नज़र जो न फिसले!
"आओ?" फिर से आवाज़!
"अ...हां!" बोला वो,
और चल पड़ा, जूतों से आवाज़ न हो, पांवों को दबाकर! पांवों की आवाज़ तो चलो दब भी जाए, लेकिन सीने में क़ैद वो दिल? उसकी आवाज़! कौन क़ैद करे!
वो आगे बढ़ा, तो भीनी सी चमेली की महक सी उठी! मदमस्त सी गन्ध! उसने गौर किया, ये उस जिशाली के बदन से उठ रही थी! और तभी, जिशाली उठ गयी! झूले के सहारे जा खड़ी हुई!
"आओ, बैठिये!" बोली वो,
गुड्डा सा, खिलौने सा, गोरा बाबू! न समझे कि क्या कहे!
"क्या आपका नाम ले सकती हूँ?" बोली वो,
"हां...हां..क्यों नहीं! मुझे ख़ुशी होगी इसमें!" बोला वो,
"सच में?" बोली वो,
"हां, सच में ही!" बोला वो,
"तो आप यहां आइये, हरबेर्टो!" बोली वो,
उसका नाम! रोज ही तो सुनता था वो अपना नाम! लेकिन ऐसी लरज और ऐसी चरपराहट नहीं महसूस की थी उसने! कुछ कुछ तीखी सी, जैसे, सभी हर्फ़, एक एक कर, गले से निकले, ज़ुबान तलक आये और फिर होंठों की शीरीं से लबरेज़ हो, बाहर आये! ऐसे हर्फ़, जिनसे कान में भी शहद सा घुल गया हो!
क्यों मित्रगण! होता है न ऐसा? सच बताइयेगा! होता है या नहीं!
वो आगे चला आया, और हिलता हुआ झूला, उसकी डोर से पकड़ लिया गया, रुक गया, एक तरफ ही हिलने लगा, इस हिलने को, रोका हरबेर्टो ने! लेकिन जिशाली से नज़रें नहीं मिला सका! शायद, या तो खूब तेज ही चला रहा था वो, या फिर, रास्ता भटक गया था! समभवतः रास्ता ही भटक गया था!
"बैठिये?' बोली वो,
"आप बैठिये!" बोला वो,
"मैं तो बैठ चुकी!" बोली वो,
"मुझे भी इच्छा नहीं!" बोला वो,
"तो क्या इच्छा है?" बोली खनकती हुई सी!
ये सुन, वो तो सकपका ही गया! भला उसकी क्या इच्छा होती उस समय! वो तो बर्फ के मानिंद खड़ा था जमा हुआ, ज़रा सी गरमाहट जहां मिले, वहीँ गड्ढा नुमाया हो जाए! जब कुछ न बन पड़ा बोलने के लिए तब जिशाली हंस पड़ी! हंसी में अपनी हंसी भी घोल दी हरबेर्टो ने!
"सच में इच्छा तो है!" बोला वो,
अब वो सकपका गयी!
"पूछोगी नहीं कि क्या?" बोला वो,
"क्या?" हलके से पूछा उसने!
कुछ बोलता हरबेर्टो कि अब बाजी उसके हाथ लगी! जैसे सबसे ऊंची तलवार उसी के पास ही हो! जो चमके भी और नज़रों को भी बांधे!
"जिशाली!" बोला वो,
"हम्म?" कहा उसने,
"मुझे बेहद इंतज़ार रहा!" बोला वो,
"किसका?" पूछा उसने,
"जानती नहीं हो?" पूछा उसने,
"बता नहीं सकते?" बोली वो,
"सुनना ही चाहती हो?" बोला वो,
"सुना नहीं सकते?" बोली वो,
"सुनाता हूं!" बोला वो,
और थोड़ा सा आगे बढ़ गया वो, जिशाली नहीं डिगी! वहीँ बनी रही वो! फिर, एक क़दम पीछे बढ़ाया उसने! हरबेर्टो ने!
"शायद महीना बीत गया!" बोला वो,
"हां!" कहा उसने,
"तभी से, मुझे..एक ललक सी लगी हुई थी!" बोल गया वो!
"मेरी तरह?" बोली वो,
"ह्म्म्म? कह नहीं सकता!" बोला वो, नज़रें उसके चेहरे पर गढ़ाते हुए! लेकिन जिशाली का चेहरा तो नीचे था! और शायद इसी कारण से, उसने देख भी लिया था!
"क्या आपको भी?" पूछा उसने,
"ह्म्म्म!" बोली वो,
"तो मैं ठीक हूं फिर!" कहा उसने,
"ठीक हो?" पूछा उसने,
"हां, ठीक हूं!" बोला वो,
"मैं समझी नहीं?" बोली वो,
"खूब समझती हो!" बोला वो,
"नहीं तो?" बोली वो,
"मैं नहीं मानता!" बोला वो,
"न मानिये!" बोली वो,
"कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता?" पूछा उसने,
"आपको क्या फ़र्क़?" बोली वो,
"फ़र्क़? पड़ता है!" कहा उसने,
"नहीं!" कहा उसने,
"हां!" बोला वो,
और अपना हाथ आगे की तरफ बढ़ाया! लेकिन छू न सका उसे! एक डोर थी, अभी भी बंधी हुई, टूटने को तो चाहे लेकिन अलबेटे से पड़ जाएं! हाथ, पीछे खींच लिया! और उठी हुई सी छाती, जिशाली की, जो शायद सांस रोक गयी थी, एक साथ ही नीचे हो गयी! थोड़ा सा पीछे हुआ वो और............!!
वो पीछे हो गया था! कोई नयी बात नहीं! हां, कोई नयी बात नहीं! ये तो क़ुदरत का एक अलग ही कानून है, क़ायदा है कि जब एक से दो, विपरीत लिंगी सम्मुख हों, तब कुछ ऐसा ही होता है, कि मज़बूत कद-काठी वाला, मज़बूत और चौड़ी रगों वाला, मज़बूत और सख्त हड्डियों वाला, मज़बूत चेहरे के सख्त भावों वाला, अपने आप ही ढीला पड़ने लगता है! ये सब मर्दाना खून म है! बरसों की इस विकासवाद के कारण उसके खून में अब पैबस्त हो चला है! तो वो पीछे हो गया था! इसीलिए कोई नयी बात नहीं! और एक औरत से ज़्यादा इस बात को कोई और महसूस कर ही नहीं सकता! इस पूरे संसार में कोई पैमाना नहीं! किसी भी पुरुष के हाव-भाव, अंदर छिपा हुआ खेल, उसके मन में चल रहा वो सब खेल, उठे और गिरते पर्दे, इस औरत की आंखों से दूर नहीं! कांच सी नज़रें होती हैं! अंदर तक उतर कर, जड़ तक देख पाती हैं! सो, सो! सब कुछ ठीक वैसा ही हो रहा था यहां! कहने को अंधेरा था उधर, उस जगह, उस छत पर, उस झूले के पास, लेकिन कोई उन दोनों से तो पूछे क्या कोई और उजाला ज़्यादा पड़ता इस उजाले के होते हुए! एक परदेसी बाबू, ये हरबेर्टो और ये,खम्भात की संदरी, भले में क्या मिलान! लेकिन भले में, उनका मिलान देखे ही बनता है! दिल जब धड़कता है तो न देस-परदेस देखता है, न रंग और न कोई लुबाब!
"क्या कह रहे थे आप?" बोली वो जिशाली,
"आप समझती तो हैं!" बोला फिर से,
"समझाइये तो?" बोली फिर से,
"क्या समझाइये!" पूछा उसने,
"क्या ठीक थे!" बोली याद दिलाते हुए!
"हां! ठीक ही तो हूं!" बोला वो,
"कैसे?" बोली वो,
अब इतना भी सख्तजान नहीं था हरबेर्टो! ज़रा सा नरम स्पर्श, ज़ुबान का, और ज़रा सी नमी बदन की, उसे कभी का तोड़ के रख देती!
"मुझे लगता है, जिशाली कि जैसे, मुझ से ये महीना भर, बिना आपका ध्यान किये, नहीं कट पाया, शायद, उम्मीद भी करता हूं, यक़ीन के साथ ही साथ कि आपने भी कुछ ऐसा ही महसूस किया हो!" बोला वो,
वो मुस्कुरायी! हल्का सा! उसकी इस मुस्कुराहट में तो छैनियां सी लगी थीं! एक एक ज़र्रा छीलती सी चली गयीं हरबेर्टो के वजूद का! वो सही समझी? या नहीं समझी? वो तो अब बता भी नहीं सकता? कह भी नहीं सकता, मतलब, दोहरा भी नहीं सकता! वही, जो पल भर पहले उसके मुंह से निकल चुका था!
"सही कहा आपने!" बोली वो,
ओहो! शीतल सी राहत! सांस जैसे रुकते रुकते बची! जैसे धुंधलके में से आगे का रास्ता आखिर देख ही लिया गया हो! जैसे किसी पहेली के कुछ आखिरी से प्यादे मिल गए हों और जीत अब पक्की हो गयी हो!
"मुझ से रहा नहीं गया!" बोला वो,
"तभी यहां!" बोली वो,
"हां, आप भी!" बोला वो,
"हां!" कहा उसने,
लेकिन देखा नहीं था ये कहते हुए उसने हरबेर्टो को! तो हरबेर्टो ने, अपना हाथ आगे बढाया, उसके पास तक, और फिर इंतज़ार किया! उधर से, हाथ बढ़ा, जिशाली का, और उस हरबेर्टो के हाथ में अपना हाथ थमा दिया! सूखे रेत में जैसे कोई बारिश की बून्द सोख ली जाती है, कुछ ऐसा ही हुआ! और हरबेर्टो ने, पसीने आये, उस जिशाली के हाथ को, नफासत से खींच का, अपने जानिब खींचा! बिन थाह की बेल सी चली आयी जिशाली, और अगले ही पल, हरबेर्टो के चौड़े सीने में आ, पनाहबन्द हो गयी! हरबेर्टो ने, ऐसा नहीं कि कभी किसी और औरत का 'संग' इस तरह से न किया हो, लेकिन किया भी तो नहीं था! ये उसका पहला ज़्यादती और दिली मामला था! एक ऐसा मामला, जहां उसकी हार ही उसकी जीत की इबारत उसके दिल के फर्श पर लिखी गयी थी!
"जिशाली!" बोला वो,
"हम्म?" कुछ शर्म सी बंधी उसके इस जवाब में,
"मेरे यहां आओ कभी?" बोला वो,
"कहां?" बोली वो,
"ये जानेर बता देगा!" बोला वो,
"कब?" पूछा उसने,
"जब चाहो!" बोला वो,
"मंज़ूर!" बोली वो,
"सच?" पूछा उसने,
"जिशाली सच ही बोलती है!" बोली वो,
"लेकिन देर से!" बोला वो,
और दोनों ही, खिलखिला कर हंस पड़े! उसके बाजूओं से छूती वो और चली एक तरफ, लेकिन चलने से पहले, हरबेर्टो का बाजूबन्द पकड़ लिया था उसने, सो वो भी चला आया साथ उसके! वो एक मुंडेर तक आ गए! आसपास देखा, एक जगह, दूर, थोड़ा कुछ प्रकाश सा उठता दिखाई दिया! हरबेर्टो ने गौर से देखा लेकिन समझ नहीं आया!
"वो क्या है जिशाली?" पूछा उसने,
"चौकी!" बोली वो,
उसने बोला और वो सब समझ गया! वो कोई रास्ता था, कोई सरकारी रास्ता, जहां ये चौकी रही होगी, चौकस और चाक-चौबंद!
उस चौकी पर, अलाव जलाया गया होगा, संतरी रंग की आग सी दीख रही थी उधर! मालाबार का ये क्षेत्र वैसे ही अत्यंत सुंदर, और प्राकृतिक सौंदर्य की खान है! सच में, कहते हैं न कि कहीं कहीं ये प्रकृति स्वयं ही किसी चुने हुए स्थान को, अपने ही हाथों से सजाया करती है, ये भी ठीक वैसा ही है! आज तक, इस क्षेत्र ने अपना सौंदर्य बनाया हुआ है!
"कोई विशेष बात?" पूछा करीब आते हुए जिशाली ने,
"नहीं, कुछ नहीं!" बोला वो,
मित्रगण! कच्चे करौंदों की महक कभी ली है? कभी उसके फूलों की गन्ध, महसूस की है? बेहद ही भीनी भीनी सी सुगन्ध हुआ करती है, जैसे कि हमारे घरों में पाया जाने वाला मुरैया का पौधा और उसके फूलों की मनमोहक सी ख़ुशबू! उस समय, यही फैली हुई थी थी वहां! कभी-कभी चन्दन और बड़-चन्दन की सी ख़ुशबू उठा जाया करती थी! ये ख़ुशबू तो खैर, उस जिशाली के रोम रोम से उठ आकर आती थी!
"हरबेर्टो?" नामा लेकर, पुकारा उसे!
उसने चौंक कर पीछे देखा!
मुस्कुराते हुए चेहरे से जैसे स्वागत किया था जिशाली ने उसका! हरबेर्टो मुस्कुरा गया! आया उसके पास तक, और उसकी कमर में हाथ डाल, उस दीवार की मुंडेर तक ले चला!
"जिशाली!" बोला वो,
"ह्म्म्म?" कहा उसने,
"इस नाम, जिशाली का अर्थ क्या हुआ?'' पूछा उसने,
"वैभव! राजसिक वैभव!" बोली वो,
"सुंदर! बहुत सुंदर!" बोला वो,.
"सच में?' पूछा उसने,
"हां, सच में, बेहद ही सुंदर!" बोला वो,
"कुछ पूछूँ?" बोली वो,
"ज़रूर!" बोला वो,
"सच कहोगे?" पूछा उसने,
"बिलकुल!" बोला वो,
"सोच लो!" बोली वो,
"सोचना क्या?" कहा उसने,
अब ज़रा अलग हुई वो उस से, और मुंडेर पर, थोड़ा सा अलग जा खड़ी हुई! नज़रों में लपेटे हुआ था अभी भी, अभी तक, उसे वो!
"हरबेर्टो?" बोली वो,
"कहो!" बोला वो,
"जाओगे तो नहीं?" बोली वो,
"नहीं कह सकता!" बोला वो,
"विश्वास नहीं?" बोली वो,
"मेरा सरकारी फ़र्ज़ मुझे बाँध कर रखता है जिशाली!" बोला वो,
"लौटोगे?' बोली वो,
"ये कह सकता हूँ!" बोला वो,
"कहो?" बोली वो,
"हां!" कहा उसने,
"मेरे लिए?" बोली वो,
"सिर्फ!" कहा उसने,
"वापिस हुए तो?" बोली वो,
"तो साथ चलना!" कहा उसने,
"ले जाओगे?' पूछा उसने,
"क्यों नहीं?" कहा उसने,
"मेरी तहज़ीब अलग है!" बताया उसने,
"लेकिन भावना कहीं गाढ़ी!" बोला वो,
"सोच लो हरबेर्टो!" कहा उसने,
"सोच लिया!" कहा उसने,
"फिर से सोच लो!" बोली वो,
"फिर की क्या ज़रूरत!" बोला वो,
और तब चला जिशाली की तरफ वो!
हां! हरबेर्टो को क्या ज़रूरत! क्या ज़रूरत जो दो दो बार बोले! उसका एक बार बोलना ही बहुत था! वे दोनों अभी सामने ही देख रहे थे, कि पीछे से कुछ आवाज़ हुई, एक कन्या थी ये, हतः में थाली लिए, थाली में गिलास लिए और गिलास, पलाश के पत्तों से ढके हुए!
''आ जाओ!" बोली वो,
और वो लड़की आगे चली आयी!
सामने आते ही, उस झूले पर, वो थाली रख दी, और जिशाली को देख, लौट पड़ी! जिशाली ने थाली उठा ली, और रख ली अपनी गोद में, बैठते हुए! थोड़ी जगह छोड़ी उसने झूले पर ही!
"आइये!" बोली वो,
"हां!" कहा उसने,
और वो, बैठ गया संग उसके!
"ये लीजिये!" बोली वो,
"ये क्या है?" पूछा उसने,
"बताती हूं!" बोली वो,
अब उसने अपने गिलास के मुंह से, वो बंधा हुआ पलाश का पत्ता हटाया, अंदर, मोटी मोटी मलाई जमी थी! उस पर केसर और अन्य मेवे, कस कर बुरके गए थे!
"दही से बना पेय है!" बोला वो,
"अच्छा?" कहा उसने,
"हां! लो!" बोली वो,
अब लिया उसने, पलाश का पत्ता हटाया तो भीनी सी केसर की सुगन्ध उठी! होंठों पर मुस्कान तैर आयी उसके!
"मुझे आप लोगों का खान-पीन बहुत पसन्द है!" बोला वो,
"और हम?" पूछा उसने,
"कोई जवाब ही नहीं!" बोला वो,
और एक घूंट भरा उसने, सुनहरी सी मूंछों पर, दही की मलाई, किमाम सरीखी सी जम गयी! उसने जीभ से उसको हटाया!
"आपके यहां नहीं मिलता ऐसा?" बोली वो,
"नहीं!" कहा उसने,
"अरे?" बोली वो,
"आप लोग बेहद सुशील हो, बेहद ही कुशल, बेहद ही सुसंस्कृत और सबसे अच्छी बात जिशाली, अपनी संस्कृति से प्रेम करने वाले!" बोला वो,
"सो तो है!" बोली वो,
"और इसमें तुम!" बोला वो,
"मैं?" पूछा उसने,
"हां, बेमिसाल!" बोला वो,
"कहूँ कि आप तो, कुछ अधिक ही तारीफ़ कर रहे हो, मुझ से सुंदर कई महिलाएं हैं उधर, मैंने देखी भी हैं! आपकी ही संस्कृति की!" बोली वो,
"लेकिन तुम सबसे अलग हो!" बोला वो,
ह्म्म्म! एक बात तो मुझे समझ आयी! अर्णव के इस प्रकार लिखने से कि कोई प्रेमी, पता नहीं कब से अपनी प्रेयसी को इन्ही शब्दों से सजाता आ रहा है! एक बारगी तो मेरे मुंह सी हंसी ही छूट गयी! मैंने उस प्रेम-वार्ता को थोड़ा आगे बढाया और कुछ पंक्तियाँ आगे चला गया! मुझे लगा कि किसी की निजता का मान करना बेहद ज़रूरी होता है! कोई नहीं, कि आज अर्णव यहां इस संसार में नहीं, लेकिन कभी तो था.....अपनी ज़िन्दगी जीता हुआ.....एक युवक...एक सन्जीदा सा युवक!
"अलग कैसे?" पूछा उसने,
"हर लिहाज से!" बोला वो,
'अब नहीं मानती!" बोली वो,
"मानना तो होगा!" कहा उसने,
"ये कुछ आदेश सा नहीं?" बोली वो, कुनकुना कर!
"आदेश!" वो ये कहते हुए हंस ही पड़ा!
"मुझे तो लगा!" बोली वो,
"नहीं, हरगिज़ नहीं!" बोला वो,
"फ़ौज में हो, सख्तजान से!" बोली वो,
"तुम्हारे लिए नहीं, मोम सा ही हूं!" बोला वो,
"हो गए हो! है न?" बोली वो,
"कह सकती हो!" कहा उसने!
"मोम? हरबेर्टो?" बोली वो, अनायास बोली हो, ऐसा लगा!
"हां?" बोला वो,
"मोम भी सख्त हो जाता है!" बोली वो,
"अगर गरमाइश न रहे तो!" बोला वो,
"रहेगी!" कहा उसने,
"जानता हूं!" बोला वो,
"लेकिन....." बोलते हुए उठ खड़ी हुई वो!
अब उठ गया हरबेर्टो भी, गिलास से, आखिरी एक बड़ा सा घूंट, गले में नीचे करते हुए और गिलास को, आहिस्ता से उस झूले पर रखते हुए!
"क्या लेकिन?" बोला वो,
"हरबेर्टो?" बोली वो,
"हां?" बोला वो, कुछ घबराया हुआ सा! लेकिन दरअसल शब्द ही ऐसा है!
"गर्माइश के लिए, लौ ज़रूरी है!" बोली वो,
"जानता हूं!" बोला वो,
"और लौ के लिए?" पूछा उसने,
"आग!" बोला वो,
"आग?" बोली वो, और हंस पड़ी!
ए जिशाली! अपना गोरा साहब, ऐसे शब्दों का फेर नहीं जानता! थोड़ा आहिस्ता चलो! समतल सी ज़मीन पर! गड्ढों में कहीं पांव डगमगा गया तो सम्भालना मुश्किल ही हो!
"हां? आग? कुछ गलत कहा मैंने?" पूछा उसने,
"ह्म्म्म! हां!" बोली वो,
"क्या गलत भला?" पूछा उसने,
"आग नहीं!" बोली वो,
"फिर, तो? तब?" पूछता ही गया वो!
"प्रेम-धधक!" बोली वो,
मुस्कुरा गया वो! सच में, जिशाली न सिर्फ शब्दों के फेर में माहिर थी, बल्कि जिव्हा से उन्हें धार देने में भी पारंगत थी!
"हां, सच कहा तुमने जिशाली!" बोला वो,
"अब बताओ?" बोली वो,
"क्या?" पूछा उसने,
"क्या ये धधक, जलती रहेगी?" पूछा उसने,
"हां! हमेशा!" बोला वो,
उसने वहां, उस समय हां कहा! और इधर, मेरे मन में एक ख्याल रेंग आया! हां! हमेशा! हमेशा?
इसका क्या अर्थ हुआ? क्या मतलब हुआ? ये क्या खेल था? दो देहों का? उनके आपसी प्रेम का? या फिर इस उत्तर कहीं दूर भविष्य में था? दूर, अर्थात उस अर्णव की ज़िन्दगी से? क्या ऐसा सम्भव है? क्या ऐसा हो सकता है? सरल से शब्दों में, जो ख्याल मेरे मन में अभी रेंग कर आया, वो क्या...हो सकता है? खैर, शायद...हो सकता है कि इसका जवाब कहीं आगे ही मिले!
"हरबेर्टो?" बोली वो,
"हां जिशाली?" बोला वो,
"मुझे प्रेम हो गया है आपसे!" बोली वो,
"मुझे भी जिशाली, तुमसे!" कहा उसने,
और, अपने अंक में भर लिया उसी पल हरबेर्टो ने उस जिशाली को! जिशाली के अंग जैसे, भारी हो गए! हरबेर्टो के बदन से निकल कर जो चिंगारी, जिशाली के बदन में चली, सो भारी हो गयी!
"मेरी बन जाना जिशाली!" बोला वो,
कुछ न बोली वो! चिंगारी का कर्षण, तीव्र रहा होगा!
जयशाली, अब नहीं रह पाऊंगा मैं!" बोला वो,
"अभी से?' बोली वो,
"पता नहीं!" कहा उसने,
"मैं तो, तभी से हरबेर्टो!" बोली वो,
"ओह..जिशाली!" बोला वो,
बंधे रहे एक-दूसरे से! बंधे ही रहे! और मैंने, उस समय में, अपनी आंखें बन्द कर लीं!
"अर्णव?" एक आवाज़ सी गूंजी!
अर्णव के जैसे सोये हुए ताल में, कोई बयार तेजी से छूती हुई चली गयी ऊपरी सतह को!
"अर्णव?" आवाज़, फिर से गूंजी!
और इस बार उसके कन्धे पर, उसने कोई जुम्बिश सी महसूस की! लेकिन आंखें नहीं खुलीं अर्णव की!
"अर्णव?" आवाज़ फिर से गूंजी!
इस बार किसी औरत की आवाज़ थी ये! अचानक से, कुछ शोर सा सुनाई दिया उसे, उसके कानों में, कुछ जूतों की आवाज़ें और कुछ दरवाज़े के खुलने और बन्द होने की आवाज़ें!
"अर्णव?" आवाज़ इस बार भारी सी थी!
और इस बार उसकी पलकें, खुलने लगीं, धीरे धीरे! उसकी नज़र ऊपर घूमते पंखे पर गयी, आसपास देख नहीं पाया, पांवों की तरफ देखा तो डॉक्टर्स खड़े थे, उनके हाथों में उनके आला लटके थे, एक के हाथ में कोई बॉक्स सा भी था! उसको आंखें खोलता देख, वे सभी चारों डॉक्टर्स जैसे उस से गूथ से पड़े! कोई सीने की जांच करे, कोई हथेली की नब्ज़ की!
"कैसे हो अर्णव?" एक ने पूछा,
कमाल की बात ये, कि अर्णव, किसी को न पहचाने, वो बार बार आसपास खड़े लोगों को देखे, दोनों सिस्टर्स को देखे, डॉक्टर्स को देखे!
"कैसे हो?" पूछा एक ने,
कोई जवाब नहीं दिया उसने!
"कुछ बोले रहे थे तुम, जिशाली!" बोला वो,
जैसे ही जिशाली सुना, रही सही आंखें भी खुल गयीं उसकी!
"जिशाली?" बोला वो,
महसूस हुआ, हलक सुख हुआ है, तो पानी पिलाया गया उसे! उसने पानी पिया और फिर से कुछ देखने लगा, ऊपर की तरफ ही देखते हुए!
"कौन है ये जिशाली? कोई इंसान? कोई जगह?" पूछा उस डॉक्टर ने,
"जिशाली!" बोला अर्णव!
"जानते हो?" पूछा डॉक्टर ने,
"हां!" बोला वो,
"कौन है?" पूछा उसने,
"मालाबार!" बोला वो,
"मालाबार?" डॉक्टर को अजीब सा लगा उसका ये उत्तर!
"हां!" बोला वो,
"कोई जगह है?" पूछा उसने,
"नहीं!" बोला वो,
"इंसान?" पूछा उसने,
"हां!" कहा उसने,
"किस जगह?" पूछा उसने,
"मालाबार का एक गाँव!" बोला वो,
"गाँव?" पूछा हैरत से,
"हां!" दिया जवाब!
"कोई जगह है शायद!" बोला वो,
"हां, आश्रम के पास!" कहा उसने,
"आश्रम?" अब डॉक्टर को लगी पहेली सी ये! सभी ने घेर लिया उसको!
"कौन सा आश्रम?" पूछा एक ने,
"पता नहीं!" बोला वो,
"कोई मन्दिर? तीर्थ-स्थल?" पूछा एक ने,
"मन्दिर!" बोला वो,
"कहाँ?" पूछा उसने,
"गाँव से पहले!" बोला वो,
''साथ कोई था?" पूछा एक ने,
"जानेर!" बोला वो,
"जानेर?" हैरत से पूछा उसने!
"हां, मेरा दोस्त!" बोला वो,
डॉक्टर उठ खड़ा हुआ, सिस्टर से एक कागज़ मांगा उसने और निकाला जेब से पेन और फिर...............!!
डॉक्टर ने, अर्णव के बताये हुए, सभी नाम और जगह आदि के नाम उस कागज़ पर लिख लिए! अब उसका क्या अंदाजा था, ये तो वो ही जाने! जिस विज्ञान को हम अपने आप में पूर्ण मानते हैं, वो भी कुछ मुख्य बिंदुओं पर आकर, रुक जाता है, तब, कुछ ऐसे तथ्यों को साथ ले आगे बढ़ता है जो सत्यता के करीब से लगते हैं! ये संसार है! इसका ताना-बाना जिसने रचा है, वो ही जाने! हम तो इस अतः ब्रह्मांड में एक कण के खरबवें कण भी खुद को कह लें तो भी जन्म ही सफल हो जाए! हमारा क्या है! कुछ नहीं, यही पैदा हो जाओ, जीवन काटो और लौट जाओ! कुल मिलाकर और संक्षेप में तो यही है इसका फलसफा! हाँ, कभी कभार कुछ ऐसा घट जाता है जो इस प्रकृति के लिए तो सरल और व्यवहारिक सा जान पड़ता है लेकिन हम कूप-मण्डूक मनुष्य उसका आंकलन अपने अपने सामर्थ्य के अनुसार करने लगते हैं! जैसे किसी को मृत पशु की चर्म उपयोगी लगे, किसी को अस्थि और किसी को खुर तो किसी को सींग! है सब एक ही! क्या राम और क्या अल्लाह! क्या मन्दिर और क्या मस्जिद! क्या अमीर और क्या गरीब! सब एक ही तो हैं! वहां से आये हुए नन्गे शिशु ही तो! सीधी सरल सी बात है, कानों को कोई भी ध्वनि सुनाई दे तो मस्तिष्क फौरन पहचान लेगा! न पहचानने लायक हो, तो नेत्रों का सहारा लेगा! नेत्र काम न आये तो मस्तिष्क स्वयं ही अवलोकन और अन्वेषण करने लगेगा! जो उत्तर निकट लगे तो ही ठीक! न लगे तो जय राम जी की! हिन्दू, मुस्लिम, सिख ईसाई, अमीर, गरीब ऊंच, नीच ये सब बाद की अनावश्यक बातें हैं, सबसे पहले और परम आवश्यक है इंसान होना! क्या इंसान होना ही अपने आप में दुर्लभ नहीं? क्या ऐसा जीव होना जो विवेक को सम्मुख रहे, ज्ञान अर्जित करे, महत्वपूर्ण नहीं? अरे साहब! आम का वृख कहीं भी किसी भी भूमि में, जो उसके लिए सटीक हो, उगाया जाए तो आम ही तो देगा! अनार थोड़े ही देगा! अब चाहे उसे केले के वृक्षों के बीच लगाओ या फिर खजूर के डरावने पेड़ों के बीच! वो अपना गुणधर्म नहीं त्यागेगा! हम, कम से कम मनुष्यों की तरह तो कदापि नहीं की किसी भी अवसर का लाभ उठाने में, पिता को भी न पहचानें! मुंह पर कुछ और अंदर कुछ! अंदर पाषाण और बाहर से मोम! खैर, ये सब तो बाद का विषय है! जीवन भर उपलब्ध रहेगा, स्रोतों में भिन्न भिन्न रूप से! जब चाहे पढ़ लो और जब चाहे मोड़ कर अलमारी में किताबों के साथ रख, भूल जाओ! अब कागज़ ही तो है! उस पर क्या लिखा है, बांचे कौन भला!
हां, तो हम उस कमरे में थे, जहां चार डॉक्टर्स थे, दो सिस्टर्स, एक बड़ा सा पंखा जो लगातार चल रहा था छत से लटकता हुआ! और बिस्तर पर लेटा हुआ वो अर्णव! और एक डॉक्टर ने एक कागज़ पर कुछ लिखा भी था!
दो डॉक्टर्स बाहर चले गए, फिर तीसरा भी, एक बचा, एक सिस्टर भी बाहर गयी, उस डॉक्टर ने उस सिस्टर को कुछ निर्देश से दिए औए उस अर्णव के कन्धे पर एक गहरी पकड़ सी बना, चल दिया था बाहर! वो सिस्टर, वहां से उठ, शायद उसी कमरे में पीछे की तरफ चली गयी थी, अर्णव को नहीं पता कि वहां क्या था, सो हम भी नहीं जान पाएंगे!
बाहर की तरफ का दरवाज़ा बन्द था, अंदर न देखे जाने वाले शीशे लगे थे, एक पेंटिंग भी लगी थी, शायद ये भगवान धन्वन्तरि की थी! घुटनों में रखा था एक कलश उस पेंटिंग में!
"सिस्टर?" बोला वो,
नहीं सुना!
"सिस्टर?" बोला वो,
"हां!" दौड़ी हुई सी आयी वो वहां!
"मैं कब से हूँ यहां?" पूछा उसने,
"तीन दिनों से!" बोली वो,
और गीले कपड़े से उसका मुंह, गर्दन माथा आदि पोंछने लगी!
"कोई है साथ?" पूछा उसने,
"अभी तो कोई नहीं?" बोली वो,
"क्या पानी मिलेगा?" बोला वो,
"हां!" बोली वो,
और चली फिर पीछे, पानी लायी और दे दिया उसे! पानी हल्का सा गुनगुना था, दो ही घूंट पी पाया वो!
"क्या कहा डॉक्टर ने?" पूछा उसने,
"किस बारे में?' पूछा उसने,
"मेरे बारे में!" बोला मुस्कुराते हुए वो,
"बुखार था, अब नहीं है!" बोली वो,
"घर कब जाऊंगा?' पूछा उसने,
"डॉक्टर बताएं!" बोली वो,
"क्या वार है आज?" पूछा उसने,
"बुधवार!" बोली वो,
"बुधवार!" बोला वो भी!
नोट्स नम्बर १८ से २०
..............................
कुछ पहले के नोट्स में अधिक कुछ नहीं लिखा, यही बताया कि उसे चलने में दिक्कत थी, व्हील-चेयर पर ही बैठ कर अपना समय आगे बढ़ाता था अक्सर! कभी खिड़की के साथ अपने मामा जी के मकान पर, और कभी बाहर उस स्विमिंग-पूल के पास बने एक छोटे से कॉटेज में! इन दिनों वो काफी एकांकी सा था, किसी से बातचीत भी बस न के बराबर ही किया करता था, कोई फरमाइश नहीं, जो मिल गया खा लिया जो परोस दिया गया पी लिया! एक पुरानी सी डायरी थी, उसी में ये नोट्स भी लिखे थे, ये अलग अलग जगह लिखे थे उसने, कभी सीधी तरफ, कभी उलटी तरफ! अस्पताल से छुट्टी मिल गयी थी उसे!
एक रात....
उस रात शुक्रवार की रात थी, ये सर्दीली सी रात थी, उस समय दूर कहीं बारिश पड़ी थी, रह रह कर ठंडी हवाएं आ जाया करती थीं कमरे में! अर्णव को ये सर्दीली सी हवाएं बेहद ही प्यारी सी लगती थीं!
वो खिड़की के सामने बैठा था, अपनी व्हील-चेयर पर, उस समय कमरे में और कोई नहीं था, उसने अकेले ही रहने का कह रखा था तो सभी नौ, साढ़े नौ तक फारिग हो, चले जाया करते थे उसके पास से! उस रात करीब दस बजे होंगे, वो उसी कुर्सी पर बैठा कुछ सोचे जा रहा था, आंखें भारी हुईं और वो नींद के आगोश में चला गया!
वो शाम का समय था, ये एक कॉटेज था, बड़ा सा, उसकी दीवारें चार फ़ीट से ऊपर की तरफ से खुली थीं, एक तरफ, बांस से बनी हुई झालर सी डाल दी गयी थीं! वो उस शाम अकेला ही था, वो जैसे कहीं से लौट रहा था, पैदल था, एक तरफ सागर का खुला सा किनारा था और दूसरी तरफ, मछुआरों का कोई गांव सा, बांस पड़े थे उधर, कुछ नावें भी, कुछ बाल-बच्चे भी खेल रहे थे, कोई अपने किसी काम में लगा था और कोई और किसी काम में, उसने महसूस किया उसके हाथ में कुछ था, उसने उठाकर देखा, ये पीले रंग के छोटे छोटे से फूलों से बना एक छोटा सा गुलदस्ता था! क्षितिज पर सूरज डूबने को था, अभी डूबा नहीं था, लेकिन दिन को पड़ाव लग गया था!
"हरबेर्टो?" एक आवाज़ आयी,
वो रुक गया, और पीछे देखा उसने, ये दो महिलाएं थीं, एक जवान थी, दूसरी कुछ अधेड़ सी! वे दोनों ही औरतें दौड़ कर उसकी तरफ चली आयीं!
"ये है मेरी बेटी!" वो अधेड़ उम्र महिला बोली,
"कैथरीन?" बोला वो,
"हां, कैथी!" बोली वो,
"स्वागत है!" बोला वो,
"ये कल ही यलपपनम आयी है!" बोली वो,
उसे ये सुन, झटका सा लगा! ये क्या नाम सुना उसने?
"कहां आयी है?" पूछा उसने, पुष्टि के लिए!
"यलपपनम!" बोली वो,
उसे नहीं समझ में आया कुछ भी! ये नाम तो उसके लिए भी नया ही था!
"आपको बताया तो था?" बोली वो,
"कब?" पूछा उसने,
"कमाल है हरबेर्टो?" बोली वो,
"बताया नहीं था कि डच-सीलोन में मिलेंगे?" बोली वो,
"डच-सीलोन?" बोला वो,
"क्या बता है? तबीयत ठीक नहीं? कोई बात नहीं शाम को, कल आउंगी दुबारा!" बोली वो,
और दो बार हल्के से पीछे देखते हुए, वो आगे बढ़ती चली गयीं!
"डच-सीलोन?" उसके मुंह से निकला!
वो छोटा सा गुलदस्ता, उसने दुबारा देखा! और तब, एक पत्थर पर, आहिस्ता से रख दिया वहीँ!
नज़र भर कर दूसरी तरफ देखा और बढ़ चला उस कॉटेज की तरफ! कॉटेज तो डच ही लगता था, अक्सर वहां के समुद्र-तट पर ऐसे ही कॉटेज बने मिलते हैं! वो बढ़ता चला गया और उस कॉटेज के सामने तक आ गया! उधर, पीछे की तरफ, कुछ घोड़े खड़े थे, नीली फीत उनकी गर्दनों में बंधी हुई थी!
वो आगे चला और उस कॉटेज में चला आया, एक जगह, बेंत के बने से फर्नीचर थे, एक कुर्सी पर बैठ गया वो! उसने बेंत की उस कुर्सी को छू छू कर कई बार देखा!
"हरबेर्टो!" आयी उसे एक आवाज़!
पीछे घूमा तो देखा, एक बाइस-तेईस वर्ष की लड़की उसी तरफ चली आ रही थी! उसकी तरफ ही!
हरबेर्टो ने उसको पहचानने की कोशिश की! लेकिन अभी कर ही रहा था कि वो लड़की बड़ी ही आत्मीयता से वहां आयी, मुस्कुराई और साथ ही बैठ गयी! हरबेर्टो ने उसको पहचान लिया! ये रेज़ा थी! एक नक्शानवीस! उस से उसकी मुलाक़ात, भारत में, मालाबार में ही हुई थी, लेकिन उस मुलाक़ात को हुए तो, करीब साल भर बीत चुका था! और अब सबसे बड़ी बात, वो है कहां?
"महीना भर हुआ, मिले ही नहीं?" बोली वो,
"हां, काम ज़्यादा था!" बोला वो, टाल गया था उत्तर!
"यहां का मौसम बढ़िया है, उधर से, जब वहां थी तो बुरा हाल हो जाता था!" बोली वो,
"हां, यहां कुछ आराम है!" बोला वो,
"ये जगह बेहद अच्छी लगी मुझे! जाफना!" बोली वो,
जाफना? क्या ये डच-सीलोन है? वो कब आया इधर? उसको आर्डर ही मिले थे, लेकिन वो चला तो था नहीं वहां से?
वो उठ खड़ा हुआ! और चला बाहर की तरफ! डच-छावनी जाना था उसे! लेकिन वो उधर नहीं गया, एक जगह रुक गया, आंखें बन्द कीं और घटनाओं को जोड़ने लगा! लेकिन नहीं! नहीं याद आया उसे कुछ भी! वो कब वहां से चला और कब यहां चला आया, कुछ नहीं पता! क्यों न चार्टर देखा जाए? हां! यही ठीक रहेगा! वो उठा और चल पड़ा छावनी की तरफ! छावनी में फ़ौज रहती थी, अफसर, शायद उसका इंतज़ाम भी वहीँ हो? सम्भव है!
वो छावनी के गेट तक पहुंचा, गार्ड ने सलूट किया और रास्ता दे दिया उसे, इसका मतलब उसको जानते थे यहां! वो आगे चला, गोल गोल से छोटे खम्भे पार करते हुए, वो एक बड़ी सी गैलरी में चला आया! पूरी गैलरी देख ली, कहीं उसका नाम-पट्टिका नहीं दिखाई दी! अब क्या करे?
"सर!" आवाज़ आयी उसे, कमरे से कोई बाहर आया था, उसको पहचान गया वो! ये वॉन था! मालाबार में कुमुक-विभाग में तैनात था!
"कैसे हैं सर?" पूछा उसने,
"ठीक! तुम?" पूछा उसने,
"सब बढ़िया!" बोला वो,
"अपने कमरे में नहीं गए?" पूछा उसने,
कोई उत्तर नहीं दे पाया वो!
"अब तक तो काम पूरा हो ही गया होगा उधर?" बोला वो,
"पता नहीं!" बोला वो,
"आइये सर!" कहा उस सिपाही ने, और चल पड़ा उसके साथ वो, उसी गैलरी में से दो सीढियां थीं, दाएं और बाएं, बाएं में ले चला वो! फिर ऊपर की तरफ और फिर एक बड़ा सा कमरा! कमरे के बाहर नाम-पट्टिका लगी थी उसकी! वी.ओ.सी. के चिन्ह के साथ!
"आप रुकिए!" बोला वो वॉन,
और खुद अंदर चला गया!
इधर, आसपास नज़रें दौड़ायीं उसने, बाहर, डच-निर्माण चल रहा था, शायद कोई चर्च बन रहा था उस समय! एक किला सा, महल सा, बाएं बना खड़ा था! इसका मतलब काफी समय से ही डच अपने आपको यहां व्यवस्थित कर चुके थे!
"अभी दो दिन का काम बाकी है!" बोला वो सिपाही!
"अच्छा!" कहा उसने,
"कोई बात नहीं, आप रेस्ट-हाउस(रुस'त हूइज़) में तो हैं ही!" बोला वो,
"हां, वहीँ हूँ!" बोला वो,
"आज रात का क्या कार्यक्रम है सर? क्षमा चाहूंगा!" बोला वो,
"कुछ ख़ास नहीं!" कहा उसने,
"तब साथ ही चलिए!" बोला वो,
"ठीक, लेकिन कहां?" पूछा उसने,
"क्रोएग!" बोला वो,
"ओ! ठीक!" बोला वो,
क्रोएग मायने पब, उस समय की!
"आइये सर!" बोला वो,
"हां, लेकिन रुको?" बोला वो,
"हां सर?" बोला रुकते हुए,
"लाइन-चार्टर कहां है?" पूछा उसने,
"कोई ख़ास काम सर?" पूछा उसने,
"नहीं, वैसे ही!" बोला वो,
"आइये, दिखा देता हूँ, तब तक आप निबटिये, मैं आता हूँ, आइये!" बोला वो,
और वे दोनों सीढियां उतरते हुए, नीचे चले आये!
वॉन ने उसे, उस रिकॉर्ड-रूम तक छोड़ दिया, रिकॉर्ड-रूम में, दो सहायक थे, उसे देख सलूट पेश किया और तब, लाइन-चार्टर मांगा उसने, अब उसने अपना नाम ढूंढा! नाम मिल गया, वो तैंतीस दिन पहले यहां पहुंचा था, इस शहर, और कल ही वो, यहां इस छावनी में आया था! कल सुबह, वो आ रहा था, इसीलिए उसका कमरा विशेष रूप से सजाया गया था, उसे यहां की जो कमान मिली थी, वो ज़िम्मेवारी वाले ओहदे से सम्बन्धित थी!
अब कुछ कुछ समझ आने लगा था उसे, उसे जो याद आया उस से और भी कुरेद लिया उसने! और राटा को, पब से आने के बाद, लेटने से पहले आंखें बन्द करने से पहले उसे कुछ याद हो आया! वो उठ बैठा! बेचैन सा!
"जिशाली?" उसके मुंह से निकला!
वो कमरे में खिड़की की तरफ आया, सारी छावनी जैसे सोई हुई थी! जैसे जाग रहा था तो बस वो!
"जिशाली कहां है?" पूछा उसने, खुद से ही!
कैसा अजीब सवाल था! क्या उत्तर हो सकता था इसका? देखा जाए तो जिशाली, दूर, भारत में थी, मालाबार में, और वो खुद यहां!
क्या वो मिला था उस से?
क्या उसने आर्डर के बारे में बताया था उसको?
क्या बात हुई थी उसकी उस से?
क्या वो लौट पायेगा?
क्या उसका वचन वो, रख पायेगा?
सरकारी हिसाब से देखो, तो उसकी बदली अभी मुमकिन नहीं थी, कम से कम दो साल! दो साल? क्या करेगा वो उन दो सालों में?
और हां? उसका दोस्त जानेर? उस से कुछ बात हुई थी?
और अब सबसे बड़ा सवाल! ये सवाल किसके थे? अर्णव के या हरबेर्टो के? बस! यहीं थी वो रस्सी जो खुल जाए तो सब मंज़र साफ़ हो जाए!
हफ्ता बीत गया....पशोपेश में पड़े...क्या करे? क्या न करे?
एक दिन, दफ्तर में, डाक देखते हुए, उसे एक खत मिला! ये खत, भारत से आया था, ये नॉन-गोवेर्नेट था, सिविलियन, उस पर उसका नाम लिखा था! उसने खत को उठाया और निकाला ब्लेड, खत का मुंह खोल दिया! अंदर से एक कागज़ निकल, बाहर आया! चार जगह से मुड़ा हुआ! कांपते हाथों से, कुछ मीठी सी आशंका से उसने वो खत खोला! खत, डच भाषा में ही था! उसने अफ्ले अपने नाम के आगे लिखा, प्रिय और अंत में लिखा, जिशाली एक ही नज़र में बांच लिया!
धम्म! धम्म से अपनी कुर्सी पर बैठ गया वो! और उसने तब उस खत को, एक एक अलफ़ाज़ में, कई कई बार पढ़ा! उसने, उस खत को न जाने कितनी बार चूमा, कुछ नहीं पता!
उस दिन से, डेढ़ महीने बाद, सोलह नवम्बर के दिन, जानेर, डच-सीलोन पहुंच जाएगा!
अब कब, दिल की धड़कन तेज हो गयी, कुछ पता न चला! समय बदल गया था अब उसके लिए! वो शाम, ख़ास हो उठी थी! कुछ गुज़री हुई यादें, फिर से जवान होने लगी थीं!
कोई स्पर्श, फिर से याद हो उठा था! वो महक, फिर से ज़िंदा हो, उसके बदन में रचने बसने लगी थी!
न पूछो कि कैसे कट वो वक़्त! कैसे काटा उसने! कैसे आँखों ही आँखों में, कितने ही सूर्योदय, सूर्यास्त गिन लिए, कुछ नहीं मालूम!
पन्द्रह नवम्बर का दिन...बेहद ख़ास था, उसने हफ्ते भर की अर्ज़ी दी थी अवकाश की, मंज़ूर हो गयी थी! उसी शाम वो, डॉकयार्ड जा पहुंचा था! समुद्र से आते सभी जहाज़ों को एक एक कर देखता! कोई न कोई लहर तो खे के ले ही आएगी उस जिशाली को!
"हरबेर्टो?" आवाज़ आयी,
बाएं देखा, वही महिला थी!
"आज यहां कैसे?" पूछा उसने,
"कल कोई आएगा!" बोला वो,
"कौन?" पूछा उसने,
"कोई ख़ास!" कहा उसने,
"कोई प्यारा?" इशारा किये उसने,
"बेहद ही प्यारा!" बोला वो,
"कहां से?" पूछा उसने,
"भारत से!" बोला वो,
"वहां कौन है?'' पूछा उसने,
"ज़िन्दगी!" बोला वो,
वो हंस पड़ी! एकटक उसको देखती रही!
"सच?" पूछा उसने,
"झूठ भी नहीं!" कहा उसने,
"मिल सकती हूं?" पूछा उसने,
"उसने हां कही तो!" बोला वो,
और फिर से सामने देखने लगा, उसके सुनहरे बाल, उस तेज समुद्री हवा में उड़ने लगे, उसके चेहरे को ढकते हुए!
"और न कहा तो?" पूछा मज़ाक़ से,
"तब यही समझो!" कहा गम्भीरता से,
"हरबेर्टो?" बोली वो,
"यही सच है!" कहा उसने,
"मैं, परिचित हूं तुम्हारी!" बोली वो,
"वो कहीं अधिक!" बोला वो,
"क्या कह रहे हो?" बोली वो,
"जो सुना तुमने!" बोला वो,
"हरबेर्टो?" अब झिड़कते हुए कहा उसने,
"जो सच है, बता दिया!" बोला वो,
"तब तो मैं ज़रूर मिलूंगी!" बोली वो,
"शौक़ से!" कहा उसने,
"आप मना नहीं करोगे, उम्मीद है!" बोली वो,
"तज़वीज़ भी नहीं करूँगा!" कहा उसने,
"क्या?" पूछा उसने,
"हां, कोई उम्मीद पक्की नहीं समझना!" बोला वो,
"बदल गए हो!" बोली वो,
"नहीं!" कहा उसने,
"मुझे क्यों लगता है?" बोली वो,
"उत्तर नहीं मेरे पास!" बोला वो,
"मुझे अब गुस्सा आया!" बोली वो अब ज़रा हंसते हुए!
"इसका दोष मुझे पर नहीं!" बोला वो,
"तो?" बोली वो,
"खुद तुम पर ही!" कहा उसने,
"हरबेर्टो!" बोली वो,
"हां?" बोला वो,
तभी एक वृद्ध गुज़री वहां से, सर पर कुछ सामान सा लिए हुए, उसका कपड़ा उसके पांवों में आ रहा था, सम्भाल नहीं पा रही थी, तो वो, आगे बढ़ा, पोटली ली और उस वृद्ध ने अपना कपड़ा उड़ेस लिया ऊपर, एक नज़र उसको देखा, मुस्कुराई और पोटली ले आगे बढ़ चली!
और वो खुद, दूसरी तरफ मुड़ गया, उस किनारे पर चलते हुए, उसको वो लड़की आवाज़ें देती रही, लेकिन अपनी ही रौ में बंधा हरबेर्टो, आगे बढ़ता चला गया!
एक जगह रुक गया! यहां पेड़ लगे थे नारियल के, कुछ मसाले के से ही! कुछ लोग वहीं थे, उसको देखते तो सलाम सा करते दूर से ही! वो भी सर हिला कर जवाब दिया करता उनका!
फिर वो लौट पड़ा, उसने एक कमरा ले लिया था उधर, एक शान्त सी जगह पर, वहीं जा बैठा! एक चाकर आया, तो उस से कुछ बातें कीं उसने और वो खुद, टेबल के पास आ बैठा! जेब में हाथ डाला उसने, वो खत निकाला और फिर से पढ़ा! पढ़ते हुए, फिर से मुस्कुराया! कच्चे करौंदों की महक नथुनों में जा बैठी!
"इधर सर?" बोला वो, चाकर, कुछ ले आया था, नारियल से बनी एक प्लेट पर रख कर!
"हां, इधर!" बोला वो,
उस चाकर ने रख दी उधर ही वो, और चला गया! एक बोतल थी, जेनेवर की, यंग-ऊं( जोंकी) थी वो! साथ में भुने हुए काजू और भुने हुए केंकड़े के टुकड़े! दो तरह की चटनी, एक सफेद सी, हल्की भूरी सी और एक हरे रंग की! शायद हरे रंग वाली स्थानीय ही थी! उसने पहला शॉट लिया और ठीक सामने देखने लगा! जहाज़ों की मस्तूल दीख रही थीं! बाहर, थोड़ा आगे, कुछ सौ मीटर पर, एक गोदाम था, वहां सामान भरा जा रहा था!
"हरबेर्टो?" दरवाज़े पर एक आवाज़!
"आ जाओ! खुला है!" बोला वो,
ये वो ही नक्शानवीस थी!
"बैठो!" बोला वो,
"हां!" बैठ गयी वो कहते हुए!
"ये लो!" बोला वो, इशारा करते हुए सामान की तरफ!
"अभी रात जवान कहां है!" बोली वो,
"क्या फ़र्क़ पड़ता है!" बोला वो,
"पड़ता है, हां!" बोली वो,
"पड़ता होगा!" बोला वो,
और एक साबुत काजू, मुंह में रख लिया उसने!
"मुझे ख़ुशी है कि तुम यहां आ गए हरबेर्टो!" बोला वो,
"अब तो मुझे भी!" बोला वो,
"और घर में सब?" पूछा उसने,
"आखिरी खबर पहुंचने तक, सब ठीक था!" बोला वो,
"अब भी होगा!" बोली वो,
"हां, यकीन है!" कहा उसने,
बाहर, हल्की सी आहट हुई, दोनों ने नज़रें उधर घुमाईं और..............!
बाहर कुछ लोग थे, वो उनके लिए तो नहीं, हां, वहां उस कॉटेज में सामान रखने आये थे! कुछ आवाज़ें हुई थीं और इन्हीं आवाज़ों ने उनका ध्यान खींचा था अपनी तरफ! हरबेर्टो ने अपना ध्यान वहां से उठाया और एक भुना हुआ टुकड़ा उठा कर चबा लिया, इस टुकड़े पर पुदीने का पत्ता चिपका था, पुदीना का हल्का सा, टिकट सा स्वाद उसकी जीभ से आ लगा! स्वाद दोगुना हो गया!
और फिर आवाज़ फिर स हुई! इस बार ये आवाज़ कुछ तेज थी, उसकी आंखें खुल गयीं! इस बार वो भौंचक्का हो गया! आसपास, बदहवास सा देखने लगा! उस कमरे में, एक सिस्टर चली आयी थी, उसने ही कुछ सामान आदि रखा था उधर! जल्दबाजी में उसने आसपास देखा! और उसके मुंह से डच भाषा में कुछ शब्द निकले!
"क्या हुआ? कौन है? इतनी हिम्मत हुई कैसे बिन पूछे मुझसे जो इधर चले आओ? क्या निजता का ध्यान नहीं रहा? कौन हो तुम? परिचय दो, इस से पहले कि मैं तुम्हें खुद ही धक्के देकर, बाहर निकाल दूं?" वो ज़ोर से चीख़ा था! पूरा कमरा सर पर उठा लिया था उसने!
"तुम्हें मालूम नहीं कि मैं कौन हूं?" वो सर घुमाते हुए बोला!
वो सिस्टर, अवाक सी रह गयी! ये कैसे शब्द? कौन सी भाषा? ये अर्णव ही है न? ये क्या हो रहा है?
"अर्णव? अर्णव?" वो सिस्टर थोड़ा डरते हुए बोली!
अब अर्णव को समझ आया! आ गया समझ सारा माज़रा! और उसने तब, धीरे से कुछ कहा!
"मुझे क्षमा कर दो.....मैं भूल से पता नहीं...क्या क्या बोल गया आपको..." बोला वो,
"कोई बात नहीं अर्णव! शायद सपना देख रहे होंगे कोई?" बोली वो,
"सपना?" बोला वो,
"हां!" कहा उसने,
"नहीं सिस्टर!" बोला वो,
"फिर?" पूछा उसने,
"अपनी असल ज़िन्दगी!" बोला वो,
सिस्टर सब समझती थी! वो, अर्णव, बाई-पोलर सिंड्रोम से ग्रसित था, उसका कोई दोष नहीं था!
"रात हो गयी है, सो जाओ! लिटा दूं?" बोली वो,
"हां, मदद करो!" बोला वो,
वो सिस्टर आयी उसके पास! जैसे ही आयी कि रुक गयी! उसके पास झुकते ही रुक गयी!
"अर्णव?" उठते हुए बोली वो,
"हां?" बोला वो,
"कुछ खाया क्या?'' पूछा उसने,
"नहीं तो?" बोला वो,
"भूख नहीं लगी?" पूछा उसने,
"नहीं" कहा उसने,
और तब सिस्टर ने उसकी मदद करते हुए, उसको लिटा दिया! बहुत देर हुई, करीब एक घण्टा, उसने सोने की कोशिश की, पता नहीं, लेकिन वो अभी तक किन विचारों में था, उसके होंठों पर आती मुस्कान से कुछ तो समझ आता ही था!
रात करीब ढाई बजे........
वो फिर से आगोश में जा पहुंचा गहरी नींद के! और इस बार उसका समय भी वहीं से आ जुड़ा!
"हरबेर्टो?" बोली वो लड़की,
"ह्म्म्म?" बोला वो,
"सुना है कुछ बदलाव होने वाले हैं?" बोली वो,
"कैसे बदलाव?" पूछा उसने,
"कुछ राजनैतिक?" पूछा उसने,
"मुझे नहीं पता!" कहा उसने,
"सुना है पुर्तगालियों संग कोई सन्धि हुई है?" पूछा उसने,
"हां!" बोला वो,
"किस आधार पर?" पूछा उसने,
"कुछ क्षेत्र आधिपत्य पर!" बोला वो,
"कैसा आधिपत्य?" बोली वो,
"जानती नहीं हो?" बोला वो,
"नहीं तो?" बोली वो,
"ब्रिटिश अपना प्रभुत्व बढाते जा रहे हैं!" बोला वो,
"हां, ये चिंता का विषय है" बोली वो,
"बस यही सबकुछ!" बोला वो,
"तो सरकारी सन्धि?' बोली वो,
"शायद!" बोला वो,
"क्या लगता है?" पूछा उसने,
"अभी 'घर' से ही कोई खबर मिले!" कहा उसने,
"हां, ये भी है!" बोली वो,
तभी दरवाज़े पर, वही चाकर आया, कुछ और सामान लाया था, उसने रख दिया सामान, और लौट गया रख कर!
कुछ और भी बातें चलती रहीं! वो नक्शानवीस काफी समय से यहां थी, उसे राजनीति चर्चा-परिचर्चा में अधिक रूचि थी, साफ़ पता चलता था! खैर, करीब डेढ़ घण्टे के बाद उसका वहाँ से जाना हुआ, रात को, हरबेर्टो ने भोजन किया और सोने चला गया! बड़ी ही अजीब सी बात थी ये! सोने में सोना! अर्थात, यहां अर्णव सो रहा था और वहां वो हरबेर्टो! अतीत का हरबेर्टो! तो फिर जागृत कौन था? क्या था? वो कौन सी कड़ी थी जो इनको जोड़े हुए थी? कुछ न कुछ तो था, लेकिन अभी तक वो पकड़ में नहीं आया था, न मैंने आज तक ऐसा कुछ पढ़ा ही था, जो पढ़ा भी था, वो इस प्रकार का नहीं था! यहां तो उस वक़्त का पूरा ख़ाका ही खींच कर रख दिया था! जैसे कोई आंखों देखा हाल सुनाये जा रहा हो! वो भी वो, जिसमे कोई त्रुटि ही नहीं थी, न समय की और न ही स्थान आदि की!
उस सुबह, करीब चार बजे ही हरबेर्टो तैयार हो गया था, बाहर थोड़ा घूमने आया तो हल्का सा धुंधलका था, मछुआरे अपनी नावें तैयार करने लगे थे, यहां पोर्ट में सभी काम रात से ही चालू थे, वहां काम नहीं रुकता था! वो एक जगह आ कर खड़ा हो गया! यहां समुद्र किनारे पोर्ट के लिए एक चबूतरा सा बना था, उस पर दो खम्भे बने थे, शायद ये नाव या कोई छोटा जहाज, बांधने के काम आते हों! वो वही, टेक लगाकर खड़ा हुआ! पीछे से उसे आर्मी-बंद की एक धुन सुनाई दे, यहां की छावनी में दिन की शुरुआत हो चुकी थी! जानेर, जिस जहाज से, जिशाली के साथ आ रहा था, वो दोपहर तक यहां पहुंचता, लेकिन जल्दी उसे कुछ ऐसी थी कि बस समुद्र से जाकर, बतिया लेता था, जैसे उसी से बातें कर, पता पूछता हो उस जहाज का! वो हवा का आनन्द लेता, हवा की ख़ुशबू में समुद्र की जान के अंश होते, ज़िंदा होता है समुद्र, ये सभी जानते हैं! वो भी जानता था और मजे की बात ये, कि उस समय वो समुद्र, उसकी लगी को भी जान रहा था! अपने सीने पर ठेलता वो, उस जहाज को बस कुछ ही घण्टों में किनारे पर छोड़ ही देता!
सूरज निकल आया था और परिंदों ने अपने अपने काम में लगना शुरू किया, कुछ श्वान भी वहां चले आये थे, जो भोजन सामग्री बची थी उसी को खाने के लिए! कुछ बिल्लियां नावों पर अठखेलियां सी कर रही थीं! यहां चूहे मिलना सरल था, यही वजह थी! और यूरोप से तो बिल्लियां यहां लायी ही गयी थीं!
वो वहां से हट कर आगे चला और एक जगह चला आया, ये जगह शांत थी, कुछ देर वहां रुका, और फिर से वापिस अपने कॉटेज में चला आया, गर्मागर्म कॉफ़ी की चुस्कियां ले, एक एक पल को गिनता जा रहा था! न आराम ही था, न चैन ही था! बेचैनी भी ऐसी जो उत्तर भी खुद ही दे!
और इस तरह से दोपहर हुई! सूरज, सर चढ़ गए थे! सर पर चढ़कर उस खूबसूरत पोर्ट को देखे जा रहे थे! हरबेर्टो, सिविलियन-पैसेज से होता हुआ, उस रस्सी तक आ पहुंचा था जहां से साग में आते जहाज साफ़ दीखते थे! किसी भी पल उसका वो जहाज, जिसमे उसकी वो ज़िन्दगी सफर कर रही थी, आ लगता! और भी बहुत से लोग थे वहां! वो सर पर अपना टोप लगाए उसको ठुड्डी के नीचे कसे हुए, वहीं खड़ा था, नीली सी आंखों में हरा सा समुद्र कैसा रंग दे रहा था ये तो वो ही जाने! रंग कुछ भी रहा हो, लेकिन कसक वहीं थी! दिल धड़क रहा था उसका! बस, जिशाली आ जाए! बस! फिर वो जाने! इस तरह से एक घण्टे के आसपास का समय गुजर गया, वो वक़्त से पहले आया था, ये तो सच ही था!
और फिर, एक बड़ा सा जहाज दिखाई दिया!कई मस्तूल लगे थे! फड़फड़ाते हुए नीले और लाल झंडे, समुद्री हवा से भिड़ते हुए, अपनी जीत का पता दे रहे थे! जहाज रुक गया था, और फिर धीरे धीरे कुछ छोटी सी नावें उधर के लिए आने लगी थीं! वो दौड़ कर उधर पहुंचा! आती हुई नावों में कुछ लोग खड़े हो जाते थे और तभी! तभी उसकी नज़र अपने दोस्त जानेर पर पड़ी! जानेर के संग उस जिशाली पर! दिल में जैसे तार सी घुस गयी और वो तार जा जुड़ी उस जिशाली से! बरबस ही उसका हाथ उठ गया! अपना टोप खोल हिलाने लगा वो! लोगों में भग्गी सी लग गयी थी! जैसे ही नावें लगतीं, लोग दौड़ कर हाथ बढ़ाते अपने प्रियों के लिए!
फिर, वो नाव आन लगी! दौड़ कर पहुंचा वो वहां! जानेर ने देख उसे, दौड़ सी लगाई, हाथ पकड़े हुए जिशाली का! जिशाली के सर से पल्लू सरका! सामने देख हरबेर्टो को, समुद्र का हरा सा रंग, धूप की लकीरों की चमक के बावजूद भी लालिमा न छिपा सका! लपक कर गया वो और लगा लिया गले जानेर को! फिर जिशाली को! आंखें बन्द हो गयीं उसकी!
जिस्म का हिस्सा फिर से आ जुड़ा हो, कुछ ऐसा लगा दोनों को ही! अपने हाथों में सामान पकड़े जानेर, पोर्ट को देखता रहा! फिर पीछे देखा! कमर में हाथ डाल, हरबेर्टो, ला रहा था जिशाली को! जानेर आगे बढ़ गया!
"जिशाली!" बोला वो,
"हरबेर्टो!" बोली वो,
"कैसी हो?" पूछा उसने,
"आप कैसे हो?" पूछा उसने उल्टा ही सवाल!
"तुम्हारे बिन कहां ठीक!" बोला वो,
"मैं भी!" बोली वो!
रुक गया वो, रोक लिया जिशाली को!
"अपने हाथों से पल्लू पीछे किया उसका, आंखों को देखा, काजल को, हाथ लगाया उसके माथे को!
"देखने दो जिशाली!" बोला वो,
जिशाली, आंखें नीचे किये हुए, होंठों को विश्राम सा दिए, जज़्ब किये हुए उनकी जुम्बिश, खड़े ही रही उधर!
"बहुत याद आयीं तुम!" बोला वो,
अब कुछ न बोली वो! न जाने किस खयाल में वाबस्ता हो चली थी जिशाली, शायद कुछ प्यार के गाढ़े से रंग!
क्या बात है न! ये दिल, अजीब है बहुत! पता नहीं क्या चाहता है! कभी कुछ कहता है और कभी कुछ! कितने ही सरल तरीके से विवेक से यारी गांठ, उसे किसी और ही काम पर लगा देता है! यहना मैंने कुछ सोचा! सोचा कि एक आर्मी अफसर, जिसे कोई कमी नहीं, किसी भी तरीके की, कमी महसूस कर रहा था! कमाल की बात ही है! कैसे वो उस जिशाली के लिए पलकें बिछाये बैठा था, कैसे एक एक दिन उसे ऐसा लगता था कि न जाने कितनी बार, किसी ऊंचे से पहाड़ से लौट-फेर की हो! उसकी संस्कृति, विचार सब अलग! पोशाक, रहन-सहन सब अलग! लेकिन धड़कनों का तारतम्य जो जुड़ा उस जिशाली से, सो अलग! सच बात है, कौन कहता है चाहत का कोई रंग होता है, कोई धर्म-मज़हब! कोई सीमा या बुनियाद, दहलीज! कुछ नहीं! हरबेर्टो ने सब समझ लिया था जैसे और जैसे हमें भी समझा ही रहा हो! ये हरबेर्टो, आज तक ज़िंदा है मेरे ज़हन में! था भले ही अतीत में, लेकिन एक अफसर! डच आर्मी अफसर, शाही अंदाज़ में जीने वाला!
हरबेर्टो उन्हें ले आया था उस कॉटेज, एक कमरा उसने पहले ही तैयार करवा दिया था जिशाली के लिए! जिशाली को उसके कमरे में छोड़ा उसने, उसके हाथ चूमते हुए! और उस जानेर के संग, अपने कमरे में चला आया!
"बैठो जानेर!" बोला वो,
"हां!" कहा उसने और बैठ गया!
"घर में सब कैसे हैं?" पूछा उसने,
"सब खैरियत है!" बोला वो,
"चलो, तुम तैयार हो जाओ!" बोला वो,
"कहीं चलना है?' बोला वो,
"नहीं! खाना!" बोला वो,
"अच्छा! ठीक, नहा कर आता हूं!" बोला वो,
और चला गया कमरे से बाहर! सामान एक तरफ रख दिया था उसने! कुर्सी की पुश्त से कमर लगाए, आंखें बन्द किया, न जाने किस आनन्द में विचरने लगा था हरबेर्टो!
और वे रवाना हुए फिर, कहीं अच्छी जगह खाना खाने के लिए! यहां भी कुछ अलग सा नहीं था, था तो पोशाकें ही! यहां के लोग भी उन्हें देख, सलाम कर लेते थे! फिर उन्होंने खाना भी खाया, लौट चले फिर! उस रात वहीं ठहर कर, अगली सुबह, अपनी छावनी ले जाने वाला था वो!
उसी शाम, जिशाली को ले चला वो अकेला ही, उस तट की ओर! सफेद रंग की चटखदार कपड़ों में वो सच में ही एक फरिश्ता सा लग रही थी!
"जिशाली?" बोला वो,
"हां?" कहा उसने,
"सच बताना!" बोला वो,
"हां!" कहा उसने,
"मेरी याद आयी?" पूछा उसने,
"बहुत!" बोली वो,
"मेरी तरह?" बोला वो,
"कहीं ज़्यादा!" बोली वो,
"अब तो ये निश्चित है कि....!" कहते कहते रुक गया वो!
"क्या?" बोली वो,
"नहीं रह पाऊंगा अब तुम्हारे बिना!" कहा उसने,
"तो किसने कहा?" बोली वो,
"मेरे साथ ही रहोगी?" बोला वो,
"रखोगे?' बोली वो,
"अपनी जान से कहीं ज़्यादा!" कहा उसने,
"मुझे यकीन है!" बोली वो,
"मुझे भी!" कहा उसने,
"जानते हो हरबेर्टो?" बोली वो,
"क्या?" पूछा उसने,
"ये प्रेम का रिश्ता एक बार बन जाये तो टूटा नहीं करता!" बोली वो,
"जानता हूं!" कहा उसने,
"ये जन्म-जन्मांतर तक होता है!" कहा उसने,
"जन्म-??" पूछा उसने,
"हां!" बोली वो,
"मतलब नहीं समझा?" बोला वो,
"मतलब, ये रिश्ता, हर जन्म में बन कर आता है!" बोली वो,
"अच्छा?" बोला वो,
"हां!" बताया उसने,
"ये तो बेहद अच्छा है!" बोला वो,
"बन कर रहोगे?" बोली वो,
"हां, बन कर भी और बंध कर भी!" बोला वो,
मुस्कुरा पड़ी जिशाली!
और वे दोनों आगे चल पड़े! समुद्र की आवाज़ भले ही तेज हो! लेकिन उस वक़्त उनकी धड़कनों की आवाज़ में कहीं दबे जा रही थी! खून की रौ, तेज और तेज हो, चेहरों पर चली आती!
"आओ, वहां बैठें!" बोला वो,
"चलो!" कहा उसने,
और उसने, अपना हाथ उसे थमा कर आगे की तरफ बढ़ा लिया!
