और इस तरह वो अफ़सर वहां से चला गया, अब बात क्या थी और किस सिलसिले में मुझे उस से मिलना था, या बाद की बात थी, मेरे पास अभी तक कोई आधिकारिक-जानकारी नहीं मिली थी!
खैर, शाम हुई और वो चर्चवे!
मैं वहीँ था, अपनी फौजी यूनिफार्म में नहीं था, कैज़ुअल ही कपड़े पहने थे मैंने, थोड़ी देर पहले ही यहां से कोई विशेष, भारतीय प्रशासक, इस स्थान का गुजरा था या कोई विशेषाधिकार प्राप्त दरबारी! पूरा रास्ता सजाया गया था, ये लोग फूल बहुत इस्तेमाल करते हैं, उनकी साज-सज्जा का कोई सानी नहीं! कम से कम यूरोप में तो इस प्रकार की साज-सज्जा के लिए एक विशेष प्रशिक्षण की आवश्यकता ही पड़ेगी!
"सर!" मुझे आवाज़ आयी,
और एक बग्घी पास आ कर रुकी, उसकी खिड़की से लार्स ने झांका मुझे और दरवाज़ा खोल, बाहर आ गया!
"लार्स!" कहा मैंने,
"जी सर!" कहा मैंने,
"सही समय पर आये!" बोला मैं,
"देर तो नहीं हुई?'' पूछा उसने,
"नहीं, बताया तो!" कहा मैंने,
"आइये, अंदर आइये!" कहा उसने,
"हां!" बोला मैं,
और पहले मैं चढ़ा उसमे और फिर लार्स, लार्स ठीक सामने ही बैठा मेरे! वो भी पूरा गबरू सा लग रहा था उन कपड़ों में!
"ट्रेविस वहीँ है?" पूछा मैंने,
"हां सर!" बोला वो,
"ठीक है!" कहा मैंने,
"मैं देख कर, आपको इशारा कर दूंगा!" बोला वो,
"ठीक!" कहा मैंने,
और हम उस बग्घी में बैठ आगे की तरफ चलते रहे! और बग्घी एक खुली सी जगह जा रुकी, ठीक सामने अंधेरे में, समुद्र किनारे कुछ अलाव से जले थे, कुछ फायर-ड्रम्स भी रखे थे, लोग वहां इकट्ठे थे और आसपास शराब की गन्ध उड़ रही थी! लोगबाग, यहां मस्ती के लिए आते थे!
"इधर सर!" कहा मैंने,
"हां!" बोला मैं,
लार्स ने उस कोचवान से कुछ कहा और कोचवान आगे बढ़ गया, वापिस तो नहीं, किनारे की तरफ चल पड़ा था!
"वो टेवर्न कहां है?" पूछा मैंने,
"उधर, पीछे!" बोला वो,
"देखी है?'' पूछा मैंने,
"कल शाम ही!" बोला वो,
"ठीक किया!" कहा मैंने,
"सर!" बोला वो,
"कोई पहचानेगा तो नहीं न?" पूछा मैंने,
"लग ही नहीं रहे!" बोला वो,
"फिर बढ़िया!" कहा मैंने,
समुद्री हवाएं चल रही थीं, हवा में कुछ नमी सी भरी थी, लेकिन मौसम बढ़िया था, आकाश में तारे खूब चमक रहे थे, कब यहां बारिश हो, कब नहीं, कुछ नहीं पता था!
"वो, वो देखिये सर!" बोला वो,
मैंने देखा, और जान गया!
"हां, यही है!" कहा मैंने,
"आइये सर!" बोला वो,
"एक मिनट!" कहा मैंने,
और अंदर रखा अपनी छोटी गन सम्भाल कर रख ली, कुछ कैट्रिज भी थे मेरे पास, ज़रूरत पड़ती तो ज़रूर काम आते ये सब!
"मैं भी ले आया हूं!" बोला वो,
"बहुत खूब!" कहा मैंने,
''आइये सर!" बोला वो,
"चलो!" कहा मैंने,
कुछ लोगों से बचते हुए, कुछ को जगह देते हुए, हम आगे चलते चले, मैंने अपनी कैप ज़रा सामने से कुछ ज़्यादा ही नीचे कर रखी थी! सारा काम लार्स ही देख रहा था, लार्स बड़े ही काम का आदमी निकला था! जीदार और हिम्मती युवक!
हम एक टेवर्न के दरवाज़े पर गए, दो लोकल-मेट्स खड़े थे उधर, उनसे बात की लार्स ने और अंदर के लिए जगह बनाई! फिर मुझे देखा और इशारा कर, अंदर आने के लिए कहा! हम दोनों, इस तरह अंदर चले आये!
अंदर का माहौल ही अलग था! दो सैक्शन थे, एक अलग और एक ख़ास! इस अलग वाले में तो कोई काम का न था, कुछ सामान्य से लोग बैठे थे, या फिर मंथली-मेम्बरशिप वाले ही! कुछ महिलाएं भी थीं, तम्बाकू की गन्ध फैली थी पूरे सैक्शन में!
"आइये सर!" बोला वो,
"हां, चलो!" कहा मैंने,
और हम उस ख़ास सैक्शन की तरफ बढ़ चले! यहां अंदर आये, कुछ सीढियां चढ़ कर, यहां का माहौल कुछ शालीन सा था! कोई शोर-शराबा नहीं! जैसे, इलीट-क्लब के लोग यहां बैठते हों!
"यहां आइये आप!" आयी एक महिलाकर्मी और हम उसके साथ चले, उसने दो कुर्सियां आगे कीं और हम बैठ गए उन पर!
प्रकाश यहां मद्धम था! ये तो साफ़ था, ये अय्याशी के लिए ही जगह बनी थी! समृद्धि से पहले ही अय्याशी अपनी जगह और काम, मुस्तैद कर लिया करती है! वही यहां इस खूबसूरत जगह पर हो रहा था! अरबी, पुर्तगाली, फ्रेंच आदि सब यहां मिलते थे, और अपने अपने हिसाब से अय्याशी किया करते थे! हालांकि, मैं यहां नहीं आया करता था, इसीलिए मेरी पहचान यहां नहीं थी, कम से कम जब तक कोई मेरा जानकार मिले नहीं!
"यहीं आएगा?" पूछा मैंने,
"हां!" बोला लार्स,
"पक्की खबर है न?" मैंने फिर से पूछा एक बार,
"जी!" बोला वो,
"लीजिये!" बोली वो लड़की,
और रख दिए दो गिलास और कुछ खाने को संग!
"क्या लेंगे?" पूछा उसने,
"अभी!" कहा मैंने,
"जी!" बोली वो,
और हमने वो सामान उस मेज़ पर एक तरफ सरका दिया, ज़्यादा देर न लगी! कि वो ट्रेविस दिखाई दिया किसी अंग्रेज लड़की के साथ! वो वहीँ, एक तरफ जा बैठा था! शातिर दिमाग़ का आदमी था, मैं जानता था कि वो मुझसे मिलने कभी भी नहीं आएगा! मौका मिलते ही जगह भी बदल देगा! मुझे कुछ ख़ास काम था उस से तो उस लड़की की शिनाख़्त! बस, और कुछ नहीं! ये तो मैंने लार्स को भी नहीं बताया था!
"आदेश?" बोला लार्स,
"रुक जाओ!" कहा मैंने,
"रखे हूं नज़र!" कहा उसने,
और फिर कुछ देर, हमारे ड्रिंक्स भी आ गए, हम हौले हौले उनका आनन्द और उन परिस्थितियों का भान लेने लगे!
"अब जाओ!" कहा मैंने,
"अभी!" बोला लार्स,
और उठ कर, अपना लम्बा सा कोट सम्भालता हुआ, जा पहुंचा उसके पास! उसको जैसे ही परिचय दिया, वो उठ गया और लार्स के इशारे के साथ ही उसने मुझे देखा, मुझे देखते ही, उसने अपनी टोपी उतार और फिर पहन, मुझे नमस्कार किया और मेरी तरफ आने के लिए चल पड़ा! मैं अपनी जगह ही बैठा रहा!
कुछ विनम्र से शब्द उसने कहे और मेरी इज़ाज़त ले, वो बैठ गया ठीक सामने, लार्स वहीँ पीछे ही खड़े रहा!
"ट्रेविस! महान ट्रेविस!" कहा मैंने,
वो तो बुझ सा गया ये सुन!
"महान?" बोला वो,
"तय दिन से चार ज़्यादा हुए, कहां रह गए?" पूछा मैंने,
"जी, व्यस्त रहा!" बोला वो,
"कुछ कहा था न?'' पूछा मैंने,
"जी याद है!" बोला वो,
"सेलिया?" कहा मैंने,
"जी सब!" बोला वो,
"और वो, जो.....!" कहा मैंने,
"जी वो भी!" कहा उसने,
"है वो यहां?" पूछा मैंने,
"जी, होगी!" बोला वो,
"ड्रिंक्स!" वो लड़की फिर आयी और दो और ड्रिंक्स रख गयी, रखते ही, अपनी कमर में लटके उस चमड़े के पट्टे का सहारा ले, एक लकड़ी पर कुछ खरोंच सा दिया उसने! शायद कोई गिनती रही हो ये उनकी!
"आये कब थे?" पूछा मैंने,
"छह माह हुए!" बोला वो,
"किसके संग?'' बोला मैं,
"अरबी व्यापारी!" कहा उसने,
"और अब कहां?" पूछा मैंने,
"अब ट्रावन जाऊंगा!" बोला वो,
"किसलिए?' पूछा मैंने,
"जानते ही हैं?'' बोला वो,
"दलाली?" कहा मैंने,
"जी यही!" बोला वो,
"दालें?" पूछा मैंने,
"मसाले, हल्दी और सूत!" कहा उसने,
"किसके लिए?" पूछा मैंने,
"हैं कुछ लोग!" बोला वो,
"कौन?" पूछा मैंने,
"डैनिश!" कहा उसने,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"जी!" बोला वो,
"ठीक है! देखो ज़रा?" कहा मैंने,
"है, अभी!" बोला वो, और खड़ा हो गया!
"लार्स?" कहा मैंने,
"जी?" बोला वो,
"ट्रेविस को कम्पनी दो!" कहा मैंने,
"जी! क्यों नहीं!" बोला वो,
और वो चले गए, एक तरफ से अंदर के लिए! वो शायद कोई मुख्य-स्थान था उस टेवर्न का या फिर कोई 'राजनैतिक-चर्चा-कक्ष'! ऐसा हर जगह होता है, हर ही जगह!
"हरबेर्टो!" आयी आवाज़,
पीछे देखा तो ये मेरे एक जानकार था!
"कैसे हो!" कहा मैंने,
"यहां कैसे?" पूछा उसने,
"मिलने आया किसी से!" बोला मैं,
"अच्छा, मिल कर जाना ज़रा! मैं उधर हूं!" बोला वो,
"ठीक है!" मैंने सर हां में हिला कर कहा!
मित्रगण! मुझे न केवल हैरत ही है अपितु ये मेरे विश्वास से बाहर भी है कि कोई ऐसा व्यक्ति, जो उस स्थान पर, कभी नहीं गया हो, पढ़ा भी न हो, सुना भी न हो और वो सब उसका वैसा ही बखान करे कि जैसे वो वहीँ था! ज़िंदा! हैरत ही नहीं, नाक़ाबिल-ए-ऐतबार ही ठहरे! अब जैसे वो चमड़े का पट्टा और वो लकड़ी की तख्ती सी छोटी, जिस पर खरोंचा गया था! बड़े ही कमाल की बात है ये! ये सत्रहवीं शताब्दी की बात है! अर्णव के नोट्स में उसने ऐसा ऐसा लिखा है कि दांतों तले उंगली दबा ले कोई भी! वो समय, वो टेवर्न, वो लोग और वो जगह! जैसे सब ज़िंदा हो गए थे अर्णव के नोट्स में! अर्णव को, अर्णव बने रहना, बड़ा ही कष्ट देता था, हां हरबेर्टो बन जाता था तब वो अपने को पूर्ण ही समझता था! लेकिन सबसे अहम बात तो ये कि अर्णव और हरबेर्टो में चार सौ बरस का एक लम्बा सा अंतर था! ये अंतर कैसे पटे, कोई नहीं जानता! जानता भी है तो वो स्वयं ही आनन्द उठाता है उसका! हम इंसानों की भला क्या बिसात जो उसकी रजा की सूंघ भी लगे या आंखों में एक क़तरा भी कोई रूहानी लक़ीर भी आये! उसकी तो बस वो ही जाने, वो ही माने, सौ बार फोड़ो सर या फिर न भी फोड़ो! कोई असर नहीं उस पर! तुम उसे जानो या वो तुम्हें जाने, तुन न जानों तब भी तुम्हें जाने! ये तो अजब-गज़ब का खेल है! कोई कोई ही खेले! जो खेला सो ही जोड़े मेला! न तो फिरै फिर अकेला!
चलो जी! बहुत हुई! अब नोट्स!
हां, तो वो ट्रेविस चला गया था अंदर, और लार्स भी...कुछ देर बाद लार्स बाहर आये, और मेरे पास आ खड़ा हुआ!
"आइये सर!" बोला वो,
"अंदर?" पूछा मैंने,
"हां! सर!" बोला वो,
"ट्रेविस?" पूछा मैंने,
"वहीँ है!" बोला वो,
"चलो!" कहा मैंने,
और अपनी कैप सही कर, मैं चल पड़ा उसके साथ, अंदर आया, अंदर तो ओक-वुड की से मीठी मीठी गन्ध फैली हुई थी! यहां बेहतरीन शराब परोसी जा रही थी! जो लोग बैठे थे, वे सभ्रांत क़िस्म के थे और उनके आने जाने का रास्ता भी अलग ही था जिस पर, एक नीले रंग का पर्दा सा पड़ा था, शनील का!
लेकिन यहां ट्रेविस नहीं था!
"लार्स?" कहा मैंने,
"जी?" बोला वो, और रुक गया था,
"कहां?" पूछा मैंने,
"आगे!" बोला वो,
"बाहर?" पूछा मैंने,
"थोड़ा सा!" बोला वो,
"क्या है?" पूछा मैंने,
"चलिए सर!" बोला वो,
"चलो!" कहा मैंने,
और हम एक गैलरी से एक कमरे से दूसरे में चले आये, यहां एक रास्ता था, छोटा सा, सीढ़ियां बनी थीं लकड़ी की, उन पर ही चढ़ना था!
"आइये सर!" बोला वो,
"ऊपर?" पूछा मैंने,
"जी सर!" कहा उसने,
हम ऊपर आ गए, आते ही एक बड़ा सा कमरा दिखा, इसके नीचे ही टेवर्न था, मतलब ये दूसरी मन्ज़िल थी, सबकुछ लकड़ी का बना हुआ था, साज-सज्जा बेहतरीन थी!
"इधर!" बोला वो,
और एक केबिन में चला! मैं भी पीछे चला!
"आइये सर!" बोला ट्रेविस,
मैंने सर हिलाया अपना,
"सर! ये मेरे जानकार!" बोला वो, किसी से मिलवाते हुए!
"बैठिये सर!" बोला लार्स,
"हां!" कहा मैंने,
और हम फिर बैठ गया!
"ट्रेविस?" बोला मैं,
"है, वो मैंने पता किया उसके बारे में!" बोला वो,
"क्या?" पूछा मैंने,
"शगल जैसा कुछ नहीं!" बोला वो,
शगल, यही लिखा है अर्णव ने, शायद किसी पर शक हो या कोई जासूस या फिर कोई भेदिया, यही अर्थ सा समझ आता है यहां तो..
"लेकिन है कौन?" पूछा मैंने,
"मिलवा देता हूं!" बोला वो,
"हां, मिलवाओ!" कहा मैंने,
"ज़रा आइये सर!" बोला ट्रेविस,
"चलो!" कहा मैंने,
और उठ कर चला साथ उसके, लार्स भी आ गया था संग में!
"आता हूं सर!" बोला वो,
"ज़रा जल्दी!" कहा लार्स ने,
"बिलकुल!" बोला वो,
करीब साथ या आठ मिनट हुए, एक उसी कद की सी लड़की वहां आयी, चेहरा उसने ढका हुआ था आधा!
"उस रात तुम्हीं थीं?" पूछा मैंने,
"जी!" बोली वो,
"चेहरा दिखाओ?" कहा मैंने,
उसने चेहरा दिखाया और मुझे होश आया! ये वो नहीं थी! हां, कद-काठी कुछ वैसी ही थी, लेकिन वो नहीं थी!
"इस ट्रेविस के संग?" पूछा मैंने,
"जी!" बोली वो,
"ठीक है!" कहा मैंने,
"कोई काम सर?" पूछा उसने,
"मिल जायेगी खबर!" कहा मैंने,
और लौट चला, लार्स का हाथ छूते हुए!
हम दोनों बाहर चले आये, सीधे नीचे उतरे और फिर उस सभ्रांत से कक्ष में और फिर बाहर चले आये, लार्स ने बाहर आने से पहले बिल चुका दिया था! और फिर उसके बाद कोई सवाल नहीं किया था!
बाहर आये तो जल्दी ही बग्घी भी आ गयी, उसमे बैठे और चले आये अपने कैंटोनमेंट-एरिया में! मैं अपने साथ लार्स को भी ले आया था, अब बाहर बिजली कड़कने लगी थी, शायद बरसात होने को थी! तो लार्स के साथ मैं अपने कमरे में चला आया, लार्स ने अपना कोट, कैप उतरा कर, एक तरफ लटका दिया था! मैंने भी अपना कोट एक तरफ लटका दिया था, कैप सामने ही रख दी थी!
"लार्स?" कहा मैंने,
"जी?" बोला वो,
"वो सामने रैक से सामान निकाल लो, बाहर, वोहेम होगा, कुछ करी मंगवा लो!" कहा मैंने,
"जी, अभी!" बोला वो,
और सबसे पहले बाहर गया, कुछ ही देर में लौटा और फिर सामने रैक से वाइट-जेनेवर निकाल ली, दो गिलास भी, गिलास साफ़ किये और रख दिए! पहला पैग तो हम जल्दबाजी में ही पी गए!
तो हमने करी ली, ड्रिंक्स लिए और फिर चले गए आराम से सोने के लिए! वो अपने क्वार्टर के लिए जा चुका था और मैं अपने कमरे में! बाहर बारिश पड़ने की आवाज़ आने लगी थी!
मैं लेट गया था, मन में फिर से कुछ ख़याल उभरने लगे थे, ख़याल उसी जिशाली के, उसकी शक़्ल, उसका रंग-रूप, आवाज़ वग़ैरह सब! कहते हैं न, कभी कभी बोझिल हो जाना भी अच्छा रहता है, कुछ हलकापन मिल जाए तो इस से बड़ा और सुक़ून क्या! तो इसी बोझिलपन में मुझे हलकापन मिले, लेट गया था, लेकिन.................नहीं मिला, मैं तो और भारी हो गया था!
सुबह हुई थी शायद, मेरी पलकों के स्याह पर्दों में अंदर, अचानक से लालिमा छायी तो मैंने आंखें खोलीं अपनी! ये मैं कहां था? अस्पताल? सामने, स्प्लिट-ए.सी. लगा था उस दरवाज़े के ऊपर, साथ में उसका वो स्टैबिलाइजर रहा होगा, मेरे सामने, एक सिस्टर खड़ी थी, उसके हाथों में एक कार्ड था, उसने कार्ड पढ़ा और अपने फोल्डर में रख लिया!
"गुड मॉर्निंग!" बोली वो,
मेरे मुंह से उस समय डच भाषा ही निकली!
उसने लिखना छोड़ा और मुझे देखा, मुस्कुराते हुए!
"गुड मॉर्निंग!" कहा मैंने,
"कोई सपना देखा क्या?" पूछा उसने,
"हक़ीक़त!" कहा मैंने,
"कैसी हक़ीक़त?" पूछा उसने,
"असलियत!" कहा मैंने,
"समझी नहीं?" बोली वो,
"समझ भी न पाओगी!" कहा मैंने,
"समझाओगे तो शायद...?" बोली वो,
"कोई फ़ायदा नहीं!" कहा मैंने,
"तुम्हें कैसे पता?" पूछा उसने,
"सब पता है!" कहा मैंने,
"क्या?" बोली वो,
"जो तुम नहीं जानते!" बोला मैं,
''और वो क्या?" पूछा उसने,
"बताया न, कोई फ़ायदा नहीं!" कहा मैंने,
वो मुस्कुरायी! आयी मेरे पास!
"मैं नन्दिनी! मनोरोग-विशेषज्ञ हूं!" बोली वो,
"यहां किस लिए?" पूछा मैंने,
''आपके लिए?" बोली वो,
"मैं मनोरोगी हूं?" पूछा मैंने,
"जांच यही कहती है!" बोली वो,
मैं मुस्कुराया!
"क्या हुआ?" पूछा उसने,
"कुछ नहीं!" कहा मैंने,
"कुछ तो?" बोली वो,
"हां, कुछ तो!" कहा मैंने,
''वो क्या?" पूछा उसने,
"शदीशुदा हो?" पूछा मैंने,
"हां!" बोली वो,
"कोई इशू है?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोली वो,
"अच्छा! ज़रा तकिया फोल्ड करना?" पूछा मैंने,
उसने तकिया फोल्ड किया और हट गयी!
"कब से ये सिंड्रोम है?" बोली वो,
"पता नहीं!" कहा मैंने,
"अर्णव? यही नाम है?'' पूछा उसने,
"हरबेर्टो!" कहा मैंने,
"ये कौन?" बोली वो,
"मैं!" कहा मैंने,
"और अर्णव?" पूछा उसने,
"वो बस, वाहक है!" कहा मैंने,
''और हरबेर्टो?" बोली वो,
''असलियत!" कहा मैंने,
''अर्णव नहीं?" पूछा उसने,
"नहीं!" बोला मैं,
"अच्छा! अच्छा!" कहा उसने,
और उस फोल्डर के सफे उलटने लगी!
"मैं डच हूं!" कहा मैंने,
"नीदरलैंड्स?" बोली वो,
"हॉलैंड!" कहा मैंने,
''वही!" बोली वो,
डॉक्टर नन्दिनी और अर्णव की ये बातें, ये वार्तालाप, उसके इलाज को एक नयी दिशा देने वाला था! अर्णव ने अपने सवाल और उनके उत्तरों द्वारा ये तो कम से कम ज़ाहिर कर ही दिया था कि उसका मामला इतना सरल भी नहीं और यदि ये उलझा हुआ ही है तो इसको सुलझाना एक टेढ़ी खीर ही है!
"हॉलैंड! गए हो कभी?" पूछा उसने,
"मैं पैदा हुआ वहां!" बोला मैं,
"पैदा हुए?" बोली वो, कान पर खुजलाते हुए,
"हां!" बोला मैं,
"तो यहां कैसे?" पूछा उसने,
"नहीं जानता!" बोला मैं,
"कौन जनता है?" बोली वो,
"कम से कम मैं तो नहीं!" बोला वो,
"हॉलैंड में कहां?" पूछा उसने,
"एम्स्टर्डम!" बोला मैं,
"सच?" बोली वो,
"झूठ बोले से कोई फायदा?" बोला मैं,
"हां, कोई नहीं!" कहा उसने,
"क्या नाम है तुम्हारा?" पूछा उसने,
"हरबेर्टो!" बोला मैं,
"क्या उम्र है?" बोली वो,
"तैंतीस साल!" बताया मैंने,
"और करते क्या हो?" पूछा उसने,
"मैं सेकंड रैंक अफसर हूं!" बोला मैं,
"किस विभाग में?" पूछा उसने,
"डच आर्मी में!" बोला मैं,
"यहां कब आये?'' पूछा उसने,
"दो साल हुए!" कहा मैंने,
"और वापसी?" पूछा उसने,
"एक साल बाद!" कहा मैंने,
"रहते कहां हो?" पूछा उसने,
"कोच्चि!" बोला मैं,
"कोच्चि में कहां?" पूछा उसने,
"रॉयल डच पैलेस, आर्मी क्वार्टरस!" कहा मैंने,
उसे तो मेरा इस तरह बातें करना न अजीब ही लगा केवल बल्कि एक बार को उसने तो समझ लिया कि शायद मेरा मामला कोई अत्यंत ही गम्भीर और शायद रूहानी क़िस्म का है!
"तुम्हें किसने भेजा?" पूछा उसने,
"कंपनी ने!" बोली वो,
"किसलिए?" बोली वो,
"साम्राज्यवाद!" कहा उसने,
"और?" बोली वो,
"मसाले!" बोला मैं,
"कैसे मसाले?" पूछा उसने,
"जानती हो!" बोला मैं,
"चार सौ साल हुए?" बोली वो,
"तुम्हारे लिए!" कहा मैंने,
"एक बात पूछूं?" बोली वो,
"पूछ लो!" कहा मैंने,
"सच है ये सब?" बोली वो,
"हां, जैसे मैं, और आप!" कहा मैंने,
"कुछ दिखा सकते हो?" बोली वो,
"क्या देखना है?" बोला मैं,
"उस ज़माने की कोई वस्तु?" बोली वो,
"कल चलेगा?" बोला मैं,
"क्यों नहीं!" बोली वो,
बेचारी डॉक्टर! मेरे पागलपन की पुष्टि करना चाहती थी! मुझे क्या परवाह! दिखा ही देता उसे कुछ भी, लाकर यहां!
"अभी ठीक हो?" बोली वो,
"हां!" कहा मैंने,
''कुछ लोगे?" बोली वो,
"क्या?" पूछा मैंने,
"कोई जूस आदि?" बोली वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
"क्यों?" पूछा उसने,
"गत रात्रि मैंने ड्रिंक्स लिए थे!" बोला मैं,
"कैसा ड्रिंक?" पूछा उसने,
"व्हाइट-जेनेवर!" बोला मैं,
उसने सुना ही नहीं था, सोचा कोई शराब ही होगी! और सोच भी सही ही होगी!
"कोई साथ में था?" पूछा उसने,
"हां!" कहा मैंने,
"कौन?" बोली वो,
"गार्ड!" कहा मैंने,
"कोई नाम?" बोली वो,
"लार्स!" कहा मैंने,
"जगह?" बोली वो,
"मेरा कमरा!" कहा मैंने,
"जगह, वो ही, पैलेस?" बोली वो,
"आर्मी-क्वार्टरस!" कहा मैंने,
उसने एक बार, फिर से मेरा कार्ड उठा कर देखा, कुछ पृष्ठ पलटे उसके!
नोट नम्बर तेरह.......
.................................
मैं दो रात से सोया नहीं! आज दिन के दस बजे हैं! मुझे डॉक्टर ने कोई दवा भी नहीं दी, हां, कुछ जांच की गयी थी, और आज कोई विशेषज्ञ आने वाले थे, मेरे मामले में कुछ जांच करने के लिए! ये डॉक्टर साहब, दक्षिण भारत से थे और कुछ अधिक ही नाम था उनका इस क्षेत्र में!
और फिर दोपहर करीब दो बजे...
मुझे याद है, मैंने उस समय पपीता बस निबटाया ही था, कि मुझे खबर दी गयी कि डॉक्टर साहब आ गए हैं और कुछ ही देर में मुझ से मुख़ातिब होंगे! मैं भी तैयार ही था, देखते हैं, कैसा दबाव बनाते हैं मुझ पर!
और करीब पांच मिनट में वे आ गए, छोटा-नाटा शरीर, सांवले से पका हुआ रंग उनका, बाल थे ही नहीं, न के बराबर, और छोटे छोटे बाल, जो अब मैदान छोड़ चले थे समने से! वे आये मुस्कुराते हुए और एक कुर्सी दे दी गयी उन्हें, उन्होंने एक फाइल निकाल ली, और डॉक्टर नन्दिनी को पकड़ा दी वो फाइल और एक पैन! वो भी साथ वाली कुर्सी पर बैठ गयी! मुझे देखा और मुस्कुरा गयी!
"अर्णव?" बोला वो,
"हरबेर्टो!" कहा मैंने,
"अर्णव नहीं!" बोला वो,
''नहीं!" कहा मैंने,
"यहां तो अर्णव लिखा है?" बोला वो,
"जो लिखा है वो सच नहीं!" बोला मैं,
"जो नहीं लिखा?" बोला वो,
"बता रहा हूं!" कहा मैंने,
दोनों ने, उन, एक दूसरे को देखा!
"तो आप डच हो!" बोला वो,
"सौ प्रतिशत!" कहा मैंने,
"एम्स्टर्डम से?" बोला वो,
"हां!" कहा मैंने,
"एम्स्टर्डम में परिवार होगा?" पूछा उसने,
"हां!" कहा मैंने,
"कौन कौन है?" पूछा उसने,
"बड़ा भाई और पिता जी! बहन ऑस्ट्रिया में है एक वहीँ एम्स्टर्डम में आ गयी है, माँ पुर्तगाल में है, छोटी बहन वहीँ जायेगी!" बोला मैं,
"पुर्तगाल?" बोला वो,
"यही कहा!" बोला मैं,
"बोलते हो?" बोला वो,
''क्या?" पूछा मैंने,
"ये भाषा?" बोला वो,
"दोनों!" कहा मैंने,
"डच भी और ये भी!" कहा उसने,
'हां!" कहा मैंने,
वो मुस्कुराया और शायद कुछ रट कर आया था पहले से ही, शायद उसे बताया गया हो कि मैं डच बोलता हूं! तो उसने कुछ सवाल किये डच में!
'एक बात पूछूं?" बोला वो,
"क्यों नहीं!" कहा मैंने,
"सच बोलो तो कुछ कहूं?" बोला वो,
"सच ही बोल रहा हूं!" कहा मैंने.
"ये कमरा ठीक नहीं!" बोला वो,
"ठीक ही है!" कहा मैंने,
"एक आर्मी अफसर के लिए?" बोला वो,
"तब मानता हूं!" कहा मैंने,
"तुम समझदार लगते हो!" बोला वो,
"जनता हूं!" कहा मैंने,
"अच्छे खासे हो!" बोला वो,
"तभी आर्मी में हूं!" कहा मैंने,
"शादी हुई?" पूछा उसने,
"नहीं!" कहा मैंने,
"क्यों?" पूछा उसने,
"अभी नहीं!" कहा मैंने,
"भविष्य?" बोला वो,
मैं हंस पड़ा! शायद सवाल ये नहीं था!
"करियर!" कहा मैंने,
"ये क्या?" बोला वो,
"भविष्य!" मैंने हंसते हुए कहा!
वो भी मुस्कुराया और नन्दिनी से कुछ कहा, नन्दिनी ने कुछ लिख लिया फौरन ही और कई जगह टिक लगा दिए!
"कुछ पता चला?" पूछा मैंने.
''किस बारे में?" पूछा उसने,
"मेरे रोग के बारे में!" कहा मैंने,
''अभी नहीं!" बोला वो,
"चलेगा भी नहीं!" कहा मैंने,
"वो हमारा काम!" बोला वो,
''करते रहो फिर!" कहा मैंने,
"चल जाएगा पता!" बोला वो,
"पता नहीं!" कहा मैंने,
''साथ तो दोगे?" बोला वो,
"ज़रूर!" कहा मैंने,
"यही बहुत है!" बोला वो,
"हां, आपके भविष्य के लिए भी!" कहा मैंने,
मेरे इस उत्तर से चौंक ही पड़ा वो!
"अर्णव?" बोला वो,
"कहिये?" कहा मैंने,
"आज तक मैंने ऐसा कभी नहीं देखा!" बोला वो,
"उम्मीद भी नहीं!" कहा मैंने,
"मेरी नज़र में आप ठीक हो!" बोला वो,
"यही मैं कहता आ रहा हूं!" बोला मैं,
"आप चूकते भी नहीं!" बोला वो,
"ऐसी कोई बात ही नहीं!" कहा मैंने,
"क्या इसे कोई पुनर्जन्म मानूं?" बोला वो,
"डॉक्टर हो कर ऐसा दकियानूस ख़याल?" कहा मैंने,
"हम भी तो इंसान हैं?" बोला वो,
"हमसे ज़्यादा!" कहा मैंने,
"ऐसा नहीं मानता मैं!" बोला वो,
"अभी भी चाल?" कहा मैंने,
वो फिर से भांप गया मेरा आशय! और मुस्कुरा पड़ा!
"आगे दौड़ते हो!" बोला वो,
"अभी तो पीछे हूं!" कहा मैंने,
"नहीं लगता?" बोला वो,
"कहने से पता लगता है!" कहा मैंने,
अब फिर से चुप वो! इस बार कुछ, खुद ही लिखने लगा उस फाइल में! मुझे देखे जाए और लिखे जाए!
"बाहर आपके मम्मी पापा हैं!" बोला वो,
"पता है!" बोला मैं,
"क्या वो भी अनजान हैं?" पूछा उसने,
"मैंने नहीं कहा!" बोला मैं,
"एक साथ दो दो जीवन?" बोला वो,
"यही तो पता नहीं!" कहा मैंने,
"कुछ और टेस्ट करने होंगे!" बोला वो,
"कर लीजिये!" कहा मैंने,
"अब चलूंगा!" बोला वो,
"ठीक है!" कहा मैंने,
"कुछ कहोगे?" बोला वो,
"हां!" कहा मैंने,
"वो क्या?" पूछा उसने,
"दोबारा यही सवाल न हों और बाहर से किसी को भी अंदर न भेजा जाए!" कहा मैंने,
"यही सवाल? मतलब?" बोला वो,
"दोहराएं नहीं!" कहा मैंने,
"नहीं दोहराये जाएंगे!" बोला वो,
"तब ठीक रहेगा!" कहा मैंने,
और इस तरह ये सेशन भी ख़तम हो गया! मुझे दो दिन बाद फिर से छुट्टी मिल गयी थी! इस बार मुझे ये सभी लोग देहरी-ऑन-सोन ले जाने वाले थे! ये जगह मुझे पसन्द थी बहुत! खूबसूरत जगह है और मेरी यादें भी जुड़ी हैं इस से!
नोट नम्बर चौदह...
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मुझे देहरी-ऑन-सोन ले आया गया था! ये बड़ा सा, एक खुला सा घर है! फलदार पेड़ लगाए हुए हैं इधर! यहां शान्ति का आलम रहता है! मानसिक शांति की कोई कमी नहीं यहां!
उसी रात, मैंने भोजन निबटाया था अपना, अंश ने मेरी मदद भी की थी, कुछ कॉफ़ी भी पी थी मैंने और उसके बाद आराम करने के लिए, उस रखी हुई सिस्टर ने, मुझे बताया भी था! मुझे लिटा दिया गया था और एक भूरी सी चादर मुझे दे दी गयी थी, ओढ़ने के लिए!
"क्या नाम है सिस्टर आपका?" पूछा मैंने,
"वन्दना!" बोली वो,
"वन्दना!" कहा मैंने,
"हां!" बोली वो,
"अच्छा नाम है!" कहा मैंने,
"मेरे पापा ने रखा था!" बोली वो,
"अच्छा, अच्छा नाम रखा है!" कहा मैंने,
"आपका नाम?" बोली वो,
"मेरा नाम?" पूछा मैंने,
"हां?" बोली वो,
"कागजों में तो अर्णव है न?" पूछा मैंने,
"हां!" बोली वो,
"तब क्यों पूछा?" पूछा मैंने,
वो बेचारी मेरे इस सवाल से घबरा ही गयी! चेहरे के हाव-भाव बदल गए उसके उसी क्षण ही!
"कोई बात नहीं! डरो नहीं! कुछ और भी बताया गया होगा मेरे बारे में कि मैं मानसिक-रोगी हूं आदि आदि, सो आपने पूछ लिया होगा!" कहा मैंने,
उसने, सिर्फ, गर्दन ही हिलायी हां में!
"मुझे हरबेर्टो कहना आप!" बोला मैं,
"हरबेर्टो?" उसने अचरज से पूछा,
"हां, यही नाम है मेरा!" बोला मैं,
"और अर्णव?" पूछा उसने,
"यहां का!" कहा मैंने, मुस्कुराते हुए!
वो बेचारी फिर से अचरज में पड़ गयी! ज़िन्दगी में ऐसा भला किसके साथ होता होगा! मेरे साथ क्या हो रहा था, ये भी मुझे मालूम नहीं था! मैं कब अर्णव से हरबेर्टो बन गया था, नहीं जानता था! बस यही और इतना कि मैं शुरू से ही हरबेर्टो ही था! मुझे यहां की संस्कृति जानी पहचानी सी नहीं लगती थी, हां, मैं समझ लेता था, यही मेरे लिए उचित भी था! मुझे अपनी वही ज़िन्दगी बार बार याद आती थी! वो समुद्री हवा, वो समुद्री लहरें, वो मेरे अपने लोग और जहाज, वो मस्तूल और वो रस्सियां जो चर्र-चर्र का सा मधुर गीत गाया करती थीं हर लहर के उतार-चढाव के साथ!
उसी रात......
मुझे गहरी नींद का झोंका सा आया! करीब सात दिन के बाद मुझे ऐसा झोंका मिला था, मैंने गंवाया नहीं मौका और खुद को इस झोंके में ठेल दिया! और समय की लहर पर मैं उड़ चला!
"कब से ढूंढ रहा हूं तुम्हे?" बोला जानेर!
"कब से?" मैंने लिखते हुए, किसी कागज़ पर, कुछ, लाल से रंग से, पूछा,
"दस दिन हुए?" बोला वो,
"दस दिन?" कहा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"मैं तो यहीं था?" कहा मैंने,
"नहीं? कहां थे?" बोला वो,
"यहीं तो?" मैंने लिखना बन्द किया और उसे बताया!
"ये कौन सी जगह है?" पूछा उसने,
"कोच्चि? नहीं क्या?" पूछा मैंने,
"हां, लेकिन?" बोला वो,
"लेकिन?" पूछा मैंने,
"जिउ-टाउन!" बोला वो,
"ओ! सिनागॉग!" बोला मैं,
(ये कोच्चि में बेहद ही खूबसूरत जगह है! बेहद ही खूबसूरत! यहां आकर आप अपने आपको लगभग भूल ही जाएंगे! कभी अवसर मिले तो अवश्य ही जाइये इधर!)
"हां!" कहा उसने,
"हां अभी तो आया?" बोला मैं,
"बताया क्यों नहीं?" बोला वो,
"तुम ही नहीं मिले!" कहा मैंने,
''अब वापिस कब?" बोला वो,
"अभी हैं करीब तीन दिन और!" कहा मैंने,
"कोई इंतज़ार में है हरबेर्टो!" बोला वो मुस्कुराते हुए!
मेरे चेहरे से, कई रंग, आये और गए! और बस लालिमा ही रुक गयी!
"कौन जानेर?" पूछा मैंने,
"शातिर नहीं हो तुम!" बोला वो,
"बताओ ना?" कहा मैंने,
"सोचो?" बोला वो,
"नहीं पता!" कहा मैंने,
"सब पता है!" बोला वो,
"अब बताओ भी?" कहा मैंने,
"सुनना ही चाहते हो?" बोला वो,
"सुना ही दो!" कहा मैंने,
"जिशाली!" कहा उसने,
मैं खड़ा हो गया! अपने आसपास देखने लगा!
"बैठो! बैठो! संग नहीं लाया मैं!" बोला जानेर!
मैं तो धम्म से बैठ गया ये सुनते ही!
"कहां है?" पूछा मैंने,
"कोच्चि!" कहा मैंने,
"अपने रिश्तेदारों के साथ?" पूछा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"तो ले आते?" बोला वो,
"साथ चलना?" बोला वो,
"कहां?" पूछा मैंने,
"उसके घर!" बोला वो,
"घर?" पूछा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"घर क्यों?" पूछा मैंने,
"इत्मीनान से बातें करना!" बोला वो,
"जानेर!" कहा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"अच्छी तरह से जानते हो तुम!" बोला मैं,
"वो क्या?" बोला वो,
"यही कि हरबेर्टो कहां नरम है!" बोला मैं हंसते हंसते!
"एक बात बताऊं?" बोला वो,
"क्या? हां?" कहा मैंने,
"जिशाली तो बस, ऐसी हो गयी है कि उसकी जान ही ले आये हो तुम अपने संग!" बोला वो,
"क्या सच?" पूछा मैंने,
"हां, सच!" कहा उसने,
"मेरा भी कुछ ऐसा ही हाल है जानेर!!" कहा मैंने, लेकिन शर्म के साथ!
"तो अब बताओ फिर!" बोला वो,
मैं चुप रहा! अंदर से गुदगुदी सी होने लगी थी मुझे!
"हरबेर्टो?" बोला वो,
"हम्म?" कहा मैंने,
"क्या हुआ?" पूछा उसने,
"कुछ नहीं!" कहा मैंने,
"बताओगे भी कहां!" बोला वो,
मैं मुस्कुरा गया उसके इस उत्तर पर! वो भी!
"क्यों नहीं!" कहा मैंने,
"तो क्या सोचा?" बोला वो,
"कब चलना है?'' पूछा मैंने,
"जब आप कहो?" बोला वो,
"फिर भी?" पूछा मैंने,
"अब अवकाश कब है?" पूछा उसने,
मैंने हिसाब लगाया, और तब उसे देखा,
"तीन दिन बाद!" कहा मैंने,
"तब ठीक!" बोला वो,
"कैसे करोगे?" पूछा मैंने,
"मैं आ जाऊंगा?" बोला वो,
"कब?" पूछा मैंने,
"बोलो तो एक दिन पहले ही आ जाऊं!" बोला हंसते हुए!
मैं भी खिलखिला कर हंस पड़ा!
"कैसी है जिशाली?" पूछा मैंने,
"कैसी होगी?" पूछा उसने,
"बताओ तो?" बोला मैं,
"सोच सकते हो!" कहा उसने,
"सच क्या?" बोला मैं,
"झूठ क्यों?" बोला वो,
मेरा तो चेहरा ही लाल हो उठा था! बाहर अचानक से बिजली सी कौंधी! हम दोनों ने ही बाहर झांक कर देखा!
"मिल गयी गवाही!" बोला वो,
"गवाही?" पूछा मैंने,
"हाँ?" बोला वो,
"कैसी?" पूछा मैंने,
"दिल टकरा रहे हैं!" बोला वो,
"क्या जानेर!" कहा मैंने,
और उसके हाथ पर हल्का सा घूंसा मारा!
"आज आठ बजे कोई काम तो नहीं?" पूछा उसने,
"बताओ?" बोला मैं,
"चलोगे?" बोला वो,
"कहां?" पूछा मैंने,
"है कुछ!" बोला वो,
"क्या भला?'' पूछा मैंने,
"मुझे कुछ काम है!" बोला वो,
"कैसा?" पूछा मैंने,
"समझते हो!" बोला वो,
"समझ गया!" कहा मैंने,
"बस और क्या!" बोला वो,
"ठीक है!" कहा मैंने,
तो इस प्रकार और बातें हुईं हमारी, उस शाम मैं जानेर के संग गया था एक जगह, जहां कुछ लेन-देन था, चुक गया और वो फिर चला गया, ज़िद की कि साथ बैठ कर कुछ खाया-पिया जाए, तो एक घण्टा वहां रुका!
नोट नम्बर पन्द्रह............
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सुबह हुई थी, उस दिन, मैं अस्पताल से पिछली रात ही छुट्टी ले कर, यहां आ गया था, मेरे कमरे में, वही सिस्टर थी, और एक और महिला, उसने मुझे दो बार देखा भी था, शायद वो सफाई कर रही थी कमरे की!
"हैल्लो!" बोली सिस्टर,
"हैल्लो!" कहा मैंने,
"मदद करुं?" बोली वो,
"उतार दो बस!" कहा मैंने,
उसने मेरा पाँव पकड़े और मैंने जान सी लगा, बिस्तर से अपनी देह को नीचे किया! व्हील-चेयर पास ही थी, सो बैठ गया!
"आप बैठिये!" बोली वो,
"हम्म!" कहा मैंने,
उसने फिर मेरे चेहरे, हाथ, पांवों आदि की सफाई शुरू की! उस पल मेरी आँखों से कुछ पानी सा टपका! टपका, सीधे सूखे हाथ के ऊपर! वो रुक गयी! मुझे देखा, मैंने आँखें बन्द कर रखी थीं अपनी.....मैं, खोया हुआ था.......कहां....नहीं पता, शायद अपनी बेबसी पर....
"अर्णव?" बोली वो,
मैंने जवाब नहीं दिया!
''अर्णव?" उसने मेरा चेहरा उठाया, मैंने आंखें खोलीं, डबडबा रही थीं, उस बेचारी सिस्टर की आँखों में भी मैंने पानी छलकता हुआ देखा....
"नहीं अर्णव!" बोली वो,
मैंने होंठ बन्द किये अपने, और एक लम्बी सांस ली,
"अर्णव?" बोली वो,
"मैं अर्णव नहीं!" कहा मैंने,
"हरबेर्टो?" बोली वो,
"हां.." कहा मैंने,
"हां! तुम हरबेर्टो ही हो! मैं जानती हूं!" बोली वो, थोड़ी सी लड़खड़ाती हुई आवाज़ से, साफ़ था, मेरा मन ही रख रही थी वो, सच्चाई तो वो बखूबी जानती ही थी! मैं हल्का सा मुस्कुराया उसे देख, उसने उसे शायद अपनी सफ़लता समझा, वो भी मुस्कुरा गयी! उसके होंठों में अब बची-खुची सी वो लिपस्टिक, अब शेष न रह गयी थी!
"कुछ लोगे?" उसने पूछा,
"जो चाहो!" कहा मैंने,
"चाय?" बोली वो,
"हां!" कहा मैंने,
"बटर-टोस्ट?"" पूछा उसने,
"चलेंगे!" कहा मैंने,
और वो, बाहर चली गयी, मैं वहीँ बैठा रह गया! मेरी तन्हाई, फिर से मुझे लपक कर अपनी बाजुओं में भरने लगी! मैंने बाएं रखे टेबल के ऊपर, एक गुलदस्ता देखा, छोटा सा! पीले और नीले से रंग वाला! उसका बर्तन, वेस, बेहद ही सुंदर था, यूनानी सी चित्रकारी वाला! बस जी किया कि ये फूल भी, ज़िन्दगी की तरह से नकली न हों!
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नकली न हों? क्या नकली? ज़िन्दगी नकली? कैसे भला? उसने ऐसा कैसे सोच लिया? और फिर, ऐसी तुलना किसलिए? अरे हां! ज़िन्दगी नकली! मान लिया! लेकिन कौन सी ज़िन्दगी नकली? ये अर्णव वाली या फिर....उस हरबेर्टो वाली!
अब तो मुझे भी कुछ कुछ एहसास हो चला है कि, अर्णव, शायद सच में ही मानसिक रूप से किसी दुःसाध्य रोग से पीड़ित रहा होगा! यही निष्कर्ष निकाल पाया हूं मैं! उसकी वजूहात हैं कुछ, मसलन, वो एक पल में विक्षिप्त और एक पल में ही सन्तुलित कैसे? कौन सा वैचारिय-संघटन घट रहा है उसके मस्तिष्क में?
''हां जी?" आयी आवाज़ मुझे,
"आ जाओ?" कहा मैंने,
ये शहरयार जी थे, मेरे पास ही पलंग पर आ बैठे! रुमाल से चेहरा पोंछा अपना और फिर उठ चले, दूसरे कमरे से पानी की बोतल निकाल लाये, बोतल खोली और जम कर आधी बोतल पानी गटक गए!
"कुछ चला पता?" पूछा उन्होंने,
"पढ़ रहा हूं!" कहा मैंने,
"क्या लगता है?" बोले वो,
"कुछ नहीं कह सकता!" कहा मैंने,
"मुझे अंश ने कुछ बताया था..." बोले वो,
"वो क्या?" पूछा मैंने,
"आप पहले पढ़ लो!" बोले वो,
"कहां तक?" पूछा मैंने,
"आखिर तक!" बोले वो,
"कुछ अलग है?" पूछा मैंने,
"बहुत अलग!" बोले वो,
"तब तो अभी बताओ?" कहा मैंने,
"अर्णव का हाल बेहद बुरा था!" बोले वो,
"कब?" पूछा मैंने,
"मरने से पहले!" बोले वो,
"बुरा?" पूछा मैंने,
"हां, बुरा!" बोले वो,
"किस मायने में?" पूछा मैंने,
"वो गहन कोमा में था!" बोले वो,
"फिर बुरा कैसे?" पूछा मैंने,
"वो बीच बीच में कुछ बड़बड़ाता था!" बोले वो,
"क्या?'' पूछा मैंने,
"नहीं पता" बोले वो,
"रिकॉर्ड भी नहीं की?" पूछा मैंने,
"नहीं! कौन करता?" बोले वो,
"डॉक्टर्स?" कहा मैंने,
"नहीं की!" बोले वो,
''समझ गया!, खैर, फिर?" पूछा मैंने,
"वो न हिलता था, न आंखें खोलता था, हां, एक बात बड़ी ही अजीब थी!" बोले वो,
"वो क्या?" पूछा मैंने,
"वो कमरे में आने वाले किसी भी शख़्स को पहचान लेता था!" बोले वो,
"क्या?" पूछा मैंने,
"हां!" बोले वो,
"क्या कह रहे हो?" बोला मैं,
"जो बताया गया!" बोले वो,
"अंश कहां मिलेगा?" पूछा मैंने,
"यहां नहीं है!" बोले वो,
''फिर?" पूछा मैंने,
"बैंगलोर!" बोले वो,
"फ़ोन पर?'' पूछा मैंने,
"हो जायेगी!" बोले वो,
कुछ देर चुप हुआ मैं! इस बात ने तो मुझे ही अंदर तक झकझोर दिया था! ऐसा कब होता है? जब किसी की आत्मा वहीँ उपस्थित रहे! लेकिन किसलिए? ये नहीं पता! तो अर्णव किसलिए रुका रहा?
"सुनिये?" बोला मैं,
"जी?" बोले वो,
"रुको ज़रा!" कहा मैंने,
"हां?" बोले वो,
"यहां बहुत ही अजीब सी बात मुझे कभी कभी, महसूस होती है, लगती है, आभास सा देती है!" कहा मैंने,
"वो भला, क्या?" पूछा उन्होंने,
"कुछ बातें मुझे शुरू से ही कुछ अलग सी लग रही हैं!" बताया मैंने,
"बताइये?" बोले वो,
"अभी भी कुछ बाकी है शहरयार जी!" बोला मैं,
"हां, अजीब तो है, लेकिन समझ नहीं आये, वो भी आपको, ये नहीं मनाता मैं!" बोले वो,
मैं हंस पड़ा उनकी तारीफ़ करने की एक अलग सी ही बात थी उस समय! सर खुजलाते हुए, जैसे आंखें कहीं और हों और मन कहीं और, और, खुद यहां पर!
"चलो, कोशिश करता रहूंगा!" कहा मैंने,
"उसके बिना तो कुछ हाथ भी नहीं लग्न!" बोले वो,
"सो तो है!" कहा मैंने,
फिर हम दिनों ही खड़े हुए, और कपड़े आदि ठीक ठाक किये, कुछ कागज़ रखे जेबों में अपनी!
"चलो यार, आज ज़रा वहीं चलें!" कहा मैंने,
"कहां?" पूछा उन्होंने,
सीढ़ी उतरते हुए!
"आज ज़रा बाहर ही मिज़ाज़ रंगीन किया जाए!" कहा मैंने,
"समझा!" बोले वो,
और हम, दोनों निकल आये उधर से, रास्ते से सामान आदि खरीद लिया, और उसके बाद गाड़ी दौड़ा दी! करीब चालीस मिनट में ही, एक बढ़िया जगह आ गए! यहना कुछ हरियाली सी थी, पास में ही एक ढाबा भी था, उसी से मालूमात की और दो कुर्सियां ले, उसके पीछे चले आये!
"लो जी!" बोले वो,
एक बड़ा सा पैग बनाकर, देते हुए!
"लाओ साहब!" कहा मैंने,
और ले लिया मैंने, साथ में कुछ सलामी लेते आये थे, चटनी के साथ तो बड़ा ही मजा देती है, अक्सर जब ये रंगीन पानी उछाल मारे तो!
हमने बड़े बड़े दो पैग खींच लिए, सिगरेट सुलगा ली, और मजे से धुंआ छोड़ने लगे!
"शहरयार साहब?" बोला मैं,
"जी?" बोले वो,
"वो कौन हैं, अरे वो....अलवर वाले.?" कहा मैंने,
"कौन?" बोले वो,
"वो टिम्बर वाले?" कहा मैंने,
"फरीद?" बोले वो,
"हां! फरीद!" कहा मैंने,
"क्या हुआ?" पूछा उन्होंने,
"परसों आएंगे शायद दिल्ली!" कहा मैंने,
"कॉल आयी?" पूछा उन्होंने,
"हां!" कहा मैंने,
"आने दो!" बोले वो,
"हां!" कहा मैंने,
तभी अचानक से कुछ याद आ गया मुझे! याद आ गया मुझे लिखा हुआ कुछ अर्णव का! अर्णव ने जो भी लिखा, उसे मैंने अभी तक सच ही माना था, किसी दकियानूस की दकियानूसी नहीं!
"सुनो?" बोला मैं,
"हां?" कहा उन्होंने,
"अर्णव की मौत दिल्ली में हुई थी?" पूछा मैंने,
"हां" बोले वो,
"प्रमुख वजह क्या थी?" पूछा मैंने,
"आत्महत्या!" बोले वो,
"क्या??" मैंने चौंक पड़ा!
"हां!" कहा उन्होंने,
"अनुमान?" कहा मैंने,
"हम्म, यही!" बोले वो,
"सिर्फ अनुमान?" कहा मैंने,
"हूं?" बोले वो,
"मतलब?" कहा मैंने,
"क्या?" बोले वो,
"कोई वजह न लगी हाथ!" कहा मैंने,
"हां!" बोले वो,
"अभी भी ज्ञात नहीं!" कहा मैंने,
"नहीं!" बोले वो,
"आत्महत्या कैसे मान ली गयी?" पूछा मैंने,
"नहीं पता!" बोले वो,
"क्या कूद गया था बाहर?" पूछा मैंने,
"नहीं पता!" बोले वो,
"क्या कोई विष?" बोला मैं,
"नहीं!" बोले वो,
"तब?" पूछा मैंने,
"उन नोट्स में ही है रिपोर्ट!" बोले वो,
"मैं कैसे चूक गया?" बोला मैं,
"अब देख लेना?" बोले वो,
"सबसे पहले!" बताया मैंने,
और फिर हम चुप हो गए!
कमाल की बात, ये कैसे रह गयी मेरे दिमाग से बाहर?
उस शाम हम वहीं बैठे रहे, अब तक तो अँधेरा भी हो चुका था और उस ढाबे पर, कुछ ट्रक भी रुकने लगे थे, खैर हम तो सभी से अलग ही थे, लेकिन उस पानी की हौद में हाथ मुंह धोते वो ड्राइवर, हेल्पर हमें ज़रूर देख लेते थे! उस सड़क के आसपास, एक ये ढाबा था और एक शायद आगे रहा हो, जहां से रौषनी की एक झलक सी आ रही थी! हम अभी तक आराम आराम से पौन बोतल के पास जा पहुंचे थे! घर की भला क्या चिंता! नींद आती या नशा होता ज़्यादा तो यहीं इसी ढाबे पर सो जाते! अब इसे सनक कहो या कुछ और, दोनों ही भलीं!
हमने दाल रोटी वहीं खायी, साथ में जो भी था, अब पता नहीं क्या क्या था, थाली में जो आता रहा हम खाते रहे! पैसे चुकाए और तब आराम करने लगे! इसी आराम में कुछ ही देर में नींद लग गयी और हम सो गए, आसपास से गुजरे वाहन की आवाज़ें, उनके पहियों की चप-चप आवाज़ें बड़ी ही प्यारी सी, लुभावनी से लगें! ढाबे वाला बढ़िया आदमी था! हम जैसे शराबियों का आदी था, भली-भांति जानता था की जब भी इन शहरी बाबूओं को होश आएगा, ये यहां से निकलते बनेंगे!
अब जी मच्छर हों या टिड्डे, कुछ नहीं पता, न जाने कितने आये और गए! वो सब मच्छर आदि शराब की गन्ध के शौक़ीन ही रहे होंगे की आएं तो ज़रूर, लेकिन नुक्सान नहीं पहुंचाएं! अजीब से ही मच्छर थे, या तो पेट भरा था उनका, या फिर गन्ध के कारण ही मजे ले रहे थे, खुमारी चढ़ी हुई होगी उन्हें भी!
तो साहब, नींद देखो जी, हमारी खुली सुबह करीब पौने चार बजे! ऐसी मस्त नींद आयी थी
कि लोग न जाने कितना कितना खर्च कर दें ऐसी नींद लेने के लिए! हां देह ज़रूर थोड़ी सी अकड़ गयी थी!
"हां?" कहा मैंने,
"हां?" बोले वो,
"खुली नींद?" पूछा मैंने,
"हां!" बोले वो,
"क्या इरादा है?'' कहा मैंने,
"अंधेरा है अभी!" बोले वो,
"हां, मैं आता हूं अभी!" कहा मैंने,
"कहां?" पूछा उन्होंने,
"थोड़ा सा हल्का हो आऊं और नहा लूं, से ज़रा भारी सा है, दर्द न बन जाए!" कहा मैंने,
"ठीक! तौलिया सीट पर बिछा होगा!" बोले वो,
"ले लेता हूं!" कहा मैंने,
उन्होंने चाबी दी मुझे, मैं गया गाड़ी तक, दरवाज़ा खोला और निकाल लिया तौलिया, बन्द किया दरवाज़ा और चल दिया एक तरफ!
निबटा तो नहाने चला आया, पानी जो भरा हुआ था हौद में, क्या बढ़िया ठंडा था! सर पर एक मग सा पड़ते ही आनन्द आ गया और आंखें खुल सी गयीं! खून भाया तो शहरयार भी चले आये थे! मैं हटा तो वे नहाने के लिए तैयार! मैं चला ढाबे तक, कपड़े पहने, और फिर से लेट गया! कुछ ही देर में शहरयार भी आ गए! बतियाते बतियाते पांच से आगे समय हो गया! ढाबे वाले ने चाय भिजवा दी! चाय पी और फिर, पैसे चुका, हम निकल पड़े वापिस वहां से!
"मजा आ गया!" बोले वो,
"हां जी!" कहा मैंने,
'मुझे भी साली नींद नहीं आती घर में!" बोले वो,
"समझता हूं!" कहा मैंने,
"और फिर, आती भी किसे है!" बोले हंसते हुए!
मैं भी हंस ही पड़ा! और हां कह दी!
हम सात बजे घर आ पहुंचे, कुछ देर आराम किया, मैंने कुछ ज़रूरी सा काम भी किया अपनी डायरी से निकाल कर, कुछ नोट भी कर लिया!
मित्रगण!
कुल तीन दिन गुजर गए, मैंने अर्णव के नोट नहीं पढ़े, पढ़ नहीं पाया, ऐसा नहीं, मौका मिला था, लेकिन जी नहीं किया!
चौथे दिन, दोपहर में, मैंने उसके नोट्स निकाले और जहां से छोड़ा था, वहीं से पकड़ लिया!
यहां के दृश्य था, इस दृश्य में, हरबेर्टो, जानेर और उस जिशाली का ज़िक़्र था, दृश्य ये, की जानेर ने हरबेर्टो को, जिशाली से मिलवाने के लिए पेशकश की थी! हरबेर्टो मन ही मन जहां प्रसन्न था, वहीं अपनी ख़ुशी भी बयान नहीं कर पा रहा था!
"आज शाम?" बोला जानेर,
"क्यों नहीं!" बोला वो,
"ठीक!" कहा उसने,
और इस तरह, मामला तो पहले से ही मुक़र्रर था, मोहर अब लग गयी थी! जानेर चला गया था और कुछ भारी सा, हरबेर्टो वहीं रह गया था! हरबेर्टो वापिस हुआ, और चला अपने कमरे की तरफ! इसमें कुछ एक दिन का सा अन्तर मुझे लगा था, या तो अर्णव ने, तारीख न लिख कर, आगे लिखना शुरू कर दिया था, या फिर, मैं ही चूक गया था वो पढ़ना! मैं सीधे रूप से इस दृश्य पर ही आ पहुंचा था!
"हरबेर्टो?" आयी एक मर्दाना सा, रौबदार आवाज़,
रुक गया वो, और पीछे देखा, ये एक आर्मी-अफसर था, वो अपने चार साथियों समेत बढ़ा चला आ रहा था उसके पास! पास आते ही, हरबेर्टो ने सलूट किया, डच-सलूट अलग ही होता है, उसने किया!
"ये आपके लिए!" बोला वो अफसर,
ये एक मोटा सा लिफाफा था, जो सील था, और उस पर एक मोहर भी लगी थी,ये नवल-कोर की मुहर सी लगती थी! उसने लिफाफा थाम लिया, और तभी के तभी, वे सभी, जैसे आये थे, वैसे ही चले गए! अब ज़रा गौर से लिफाफा देखा उसने! ये नवल-कोर का ही था, साथ में रॉयल डच आर्मी की भी मोहर थी!
लिफाफा उसने दबाया बगल में, और आसपास देखा, मौसम अभी भी बेहद अच्छा था, समुद्री पक्षी, इक्का-दुक्का से गुजर रहे थे वहां से, नारियल के एक साथ लगे पेड़, और नीचे झाड़ियाँ काजू की सभी बड़ी ही तरतीब से लगी हुई थी! आसपास देखा हरबेर्टो ने! फिर लिफाफा देखा!
ये क्या हो सकता है? ट्रांसफर? कोई योजना? क्या?
क्या ये कोई चिंता की बात थी? शायद हो! शायद नहीं! अब ये तो उस लिफ़ाफ़े को खोल कर ही पता चले! कहीं कोई फौरी-आर्डर ही न हो! खैर! वो चला और अपने कमरे में चला आया! अंदर आया तो दरवाज़े की चौखट के पास टंगा हुआ वो झंडा, हल्की सी हवा से हिला और उसमे लगे हुए से रंगदार फीत उसके कन्धे से जा लगे! वो मुस्कुराया और अंदर अपने कमरे में चला आया! आया और बैठ गया! उस लिफ़ाफ़े को, सामने मेज़ पर रखा! और वो एक महीन सा गोल सा, ब्लेड उठा लिया, इसी से ये लिफाफा कटना भी था! उसने वही किया, उस ब्लेड की सहायता से उस लिफ़ाफ़े के मुंह को अलग किया और तब अंदर झांका, लिफाफा काफी मज़बूत बना था, अंदर मारकीन सा कपड़ा चिपका था, भूरे से रंग का! अब उसने आहिस्ता से वो लिफाफा खोल, उंगलियां अंदर डालीं और कागज़ खींच लिए! ये दो कागज़ थे, मोटे मोटे से कागज़! जैसे कोई ज़रूरी ही सरकारी आर्डर हो! उसने खींच कर निकाल लिए और एक सरसरी सी निगाह उन दोनों पर डाली! तारीख के हिसाब से, पहला आर्डर, रॉयल डच आर्मी का था, जिसमे उसको भेजने की बात कही गयी थी, उसकी वहां से डच-सीलोन जाना था! उसका पूरा इंतज़ाम कर दिया गया था, सीलोन में भी उस आर्डर की एक प्रति भेजी जा चुकी थी! रॉयल नेवी ने उसके लिए सभी इंतज़ाम कर लिए थे! उसकी पुष्टि हेतु ये नेवी का आर्डर भी था! उसने वे दोनों कागज़ रख दिया, उठा और अपनी कमीज़ को ठीक किया! एक बार को, उसे अपना शहर, अपना मातृ-देश याद हो आया!
वो बाहर तक, उस कमरे की खिड़की तक चला आया था, अब बाहर देखा तो हल्के से बादल छा गए थे, थोड़ी-बहुत देर में शायद बारिश भी हो जाए तो कोई बड़ी बात नहीं या अंदेशा भी गलत नहीं! बाहर ही देखे जाए और कुछ सोचे भी जाए! अचानक से ही ख्याल उठा मन में! है, वो जिशाली! होंठों पर एक अलग सी मुस्कान और दिल में एक अजीब सी धड़कन!
वो वापिस अपने कुर्सी तक आया और उस खत को, आर्डर को दराज़ में रख दिया, सम्भाल कर वो ब्लेड, वहां लटकते हुए नारियल के पत्तों से बने, कलमदान में रख दिया! तभी लगा बाहर कोई आया है! सर उठाया तो सामने देखा, ये गार्ड था, उसकी ड्यूटी बदल गयी थी! इसीलिए आया था!
"सर!" बोला वो,
"आ जाओ!" बोला वो,
"जी सर!" बोला वो,
और रोजनामचे में अपना नाम लिखने लगा! उस वक़्त की स्याही, रौशनाई, काठिवाड़ जिले से आया करती थी! इसकी बहुत ज़्यादा मांग रहा करती थी! कमाल ये, की रौशनाई यहां की, आर्डर कहीं और के, और, उसके पाबन्द, यहां के निवासी!
(एक बात जो मैंने अभी तक गौर की थी, कि अभी तक, रॉयल डच आर्मी में, यहां कोई गुलामी आदि का, साम्राज्यवाद का कोई नाम नहीं था, इसका मतलब, डच लोग यहां पर सिर्फ व्यापार के मद्देनज़र ही यहां पहुंचे हों! ब्रिटिश समय तक, ऐसा कोई विचार यहां नहीं पनप पाया था, ब्रिटिशों ने यहां की राजनैतिक उथल-पुथल का ही लाभ उठाया था और वे, कहां से आ कर, यहां एक बड़ा उपनिवेश बना लिया था!यदि उन्हें, स्थानीय, भारतीय राजाओं का सरंक्षण भी नहीं मिलता, तब शायद ही वो कभी सफल हो पाते! खैर जी, ये मेरा ही मानना है, या उन नोट्स की सारगर्भित का, जो मैंने अभी तक पढ़े थे!)
शाम हो चली थी, और रोज की तरह ही, अपनी ड्यूटी बदल, हरबेर्टो अपने क्वार्टर में जा चुका था! शाम के समय, जानेर उसे लेकर चलता, उस जिशाली से मिलवाने, जिसे शायद हरबेर्टो भी पसन्द था!
और फिर हुई शाम!
मदमस्त, गुलाबी सी शाम! बारिश दिन में हुई थी, लेकिन निशानियां अभी तक फैली थीं! नारियल के पेड़ अब और हरे चमक रहे थे! लोगबाग सड़क पर, आ जा रहे थे, उनकी पीली सी पगड़ियां अलग ही नज़र आती थीं! काठिया के लोगों की सफेद सी पोशाकें अब चमकने लगी थीं!
"आओ जानेर!" बोला हरबेर्टो!
अब तक, सही समय पर, जानेर आ पहुंचा था! जानेर ने आते ही गले से लगाया हरबेर्टो को! और उसने, कस क्र, उसे उसी भाव में जकड़ा! वे दोस्त थे, बेहद ही पक्के! जीदार दोस्त!
"आओ!" बोला वो,
"हाँ, चलो!" बोला वो,
और दोनों उस छावनी से बाहर की तरफ चले! एक बग्घी खड़ी थी, लाल और सफेद रंग के घोड़े उसमे जुते थे! ये बग्घी भी डच ही लगती थी, निशान कुछ नहीं बना था उस पर, लाल रंग की, फीतों से कसी हुई सी बग्घी थी वो!
रास्ता बड़ा ही सुंदर था! दोनों ही तरफ, विशाल पेड़ लगे थे, उनकी जड़ों में बड़े बड़े से पौधे! बीच बीच में समुद्री पत्थर, बड़े बड़े! ताल बने हुए थे! समुद्री पक्षी, खूब उछल-कूद रहे थे! हवा बड़ी ही ठंडी थी, नमकीन और शांत सी चल रही थी! कहने को एक सामान्य सा दिन था, लेकिन दूर थोड़ा, समुद्र हुंकार भर लेता था! घोड़ों की टापों की आवाज़ जैसे हवा में घुंघरू बांधे, आगे बढ़ती जा रही थी! अब हल्का सा धुंधलका छाने लगा था, इस तरफ, काली मिर्च और लौंग की तेज महक उठी हुई थी! आसपास इनकी खेती होती रही होगी!
"जानेर?" बोला वो,
"हाँ?" कहा उसने,
"कम से कम कितना समय और?" बोला वो,
"इतनी जल्दी!" बोला वो, मुस्कुराते हुए,
"ऐसे ही पूछा!" बोला वो,
"बस, थोड़ा सा और!" कहा उसने,
पता नहीं कितना और! अब जिसको दिल की लगी हो, वो ही जाने इस और का मतलब! तो जानेर भले ही जानता हो, लेकिन हरबेर्टो की उत्सुकता तो जैसे उसके प्राण हरने को ही थी! अचानक ही एक पहाड़ी के पास उसकी नज़र पड़ी, आसपास, फूल लगे थे, कुछ लोग, टोकरियाँ लेते हुए ऊपर, पहाड़ी की तरफ जा रहे थे!
"वो क्या है जानेर?" पूछा उसने,
"वो?" बोला इशारा करते हुए,
"हाँ!" कहा उसने,
"मन्दिर है!" बताया उसने,
"अच्छा!" कहा उसने,
"हाँ, ये एक आश्रम है!" बोला वो,
"आश्रम?" पूछा उसने,
"हाँ, बताता हूँ!" बोला जानेर,
और इस तरह उसे, आश्रम के बारे में भी बता दिया जानेर ने! भारतीयता की एक और सीढ़ी लांघ गया था हरबेर्टो!
"यहां, सुबह शाम पूजा होती है!" बताया उसने,
"अच्छा!" कहा उसने,
"हाँ, चलना कभी!" बोला वो,
"हाँ, ज़रूर!" बोला वो,
उस पहाड़ी को पार करते हुए, आगे चल पड़े थे वो! कुछ लोग मिल जाते थे आसपास, कुछ समूहों में, कुछ बैलगाड़ी आदि, सभी में कुछ न कुछ सामान भरा ही रहता उनमे!
और फिर, ठीक सामने, एक और पहाड़ी!
"वो?" बोला वो,
"गाँव!" कहा उसने,
"अच्छा!" कहा उसने,
"यहीं जाना है!" बोला जानेर!
धक्! धक्!
धक् से रह गया दिल हरबेर्टो का! कमाल की बात! प्रकृति की छटा का सिद्धहस्त, दिल के हाथों पस्त!
"आज रात...क्यों!" बोला जानेर, उसके कन्धों पर हाथ मारते हुए!
"क्या जानेर!" बोला वो भी, हंसते हुए!
और चेहरे पर आ उसके, दिल का चोर, खटिया बिछा, लेट गया! न पकड़ा ही गया और न ही टोक लगी उसे!
"हरबेर्टो!" बोला वो,
"हाँ?" कहा उसने,
"जिशाली!" बोला वो,
"हम्म! पता है!" कहा उसने,
"वही है वजह!" बोला जानेर,
"बोलते क्यों हो!" बोला वो!
"न बोलूं?" बोला मुंह में रखी सुपारी की करवट बदलते हुए वो!
"बोलो! बोलो!" बोला वो,
"सुनोगे?' बोला वो,
"नहीं!" कहा हंसते हुए उसने,
"तभी तो पूछा!" बोला अब हंसते हुए ज़ोर से जानेर!
और इतने में ही, वो बग्घी धीमे हुई, एक तरफ के रास्ते पर जा मुड़ी, धीरे से फिर तेज हुई, थोड़ा सा ऊपर चली और जो सामने आया वो बड़ा ही मनमोहक था! बड़े बड़े पेड़ लगे थे! शायद कोई बाग़ था!
"ये सब?" पूछा उसने,
"बाग़!" बोला वो,
"शानदार!" कहा उसने,
और बग्घी आगे जा बढ़ी!
"ये ज़मीन?" पूछा उसने,
"मेरी है!" बोला जानेर!
"कमाल है!" बोला वो,
"हां, कमाल ही है!" बोला वो,
"बहुत ही बढ़िया!" बोला वो,
"मुझे पैतृक रूप से मिली!" बोला वो,
"सम्पदा मिली है!" कहा उसने,
"कह सकते हो!" बोला जानेर!
"आप समृद्ध लोग हैं!" बोला वो,
"सभी नहीं!" बताया उसने,
"मुझे तो लगा!" बोला वो,
"लगने में क्या!" कहा उसने,
"हां, ये भी सही!" बोला वो,
अब जानेर उठा थोड़ा, आगे चला, झुका और उस कोचवान से बोला कुछ! कोचवान रुक गया और फिर जानेर पीछे हो गया!
"क्या हुआ?'' पूछा उसने,
"कुछ नहीं!" बोला वो,
"रुके क्यों?" पूछा उसने,
"बाएं जाना है!" बोला वो,
"तो चलो!" बोला वो,
"वो बैलगाड़ी निकल जाए!" कहा जानेर ने,
अब देखा उधर हरबेर्टो ने, एक बैलगाड़ी आ रही थी, रास्ता कुछ संकरा था, अतः, रुक गए थे वो, बैलगाड़ी वाले के पास सामान भी कुछ ज़्यादा ही था! कुछ देर देखते रहे वो उस बैलगाड़ी को, वो आगे निकली तो बग्घी आगे बढ़ी!
उधर रास्ते में कुँए से पड़े!
"वो कुँए हैं?" पूछा उसने,
"हां!" कहा उसने,
"खेती के लिए?'' पूछा उसने,
"हां पीने के भी!" बोला वो,
"अच्छी बात है!" कहा उसने,
और बतियाते हुए, वे एक अहाते में घुस आये, आते ही उनके, दो आदमी उठ कर दौड़े बग्घी की तरफ! हाथ जोड़ सलाम किया और बग्घी खोल दी, वे दोनों ही उतर आये नीचे! आते ही, अंगड़ाई सी भरी जानेर ने, और उसने भी!
"आओ!" बोला जानेर,
"चलो!" बोला वो,
और वो एक बाग़ के बीच में से बनते हुए रास्ते से आगे चलते चले आये! एक जगह एक बढ़िया सा कमरा बना था, खपरैल सी पड़ी थीं उस पर! जंगली केलि इतनी बड़ी थी कि आदमी उनमे जा कर ही छिप जाए तो पता ही न चले!
"अच्छी जगह है!" बोला हरबेर्टो,
"ख़ास जगह है!" बोला वो,
"दीखता है!" कहा उसने,
और वे, उस कमरे के बाहर बने बारामदे में, बिछी हुई दो बड़ी सी कुर्सियों पे आ बैठे! बैठते ही, उनको पानी पिलाया गया! उस पानी में गुलाब की पत्तियां और खसखस की सी सुगन्ध थी!
"कुछ हाथ-मुंह धोने हों तो?'' बोला जानेर,
"हां, बताओ?" बोला वो,
"आओ फिर!" बोला वो,
और ले आया हरबेर्टो को एक बड़ी सी हौद के पास! उस पर सीढियां बनी थीं, एक हाथी की सूंड से, जो कि पत्थर का बना था, पानी बह रहा था, सो ही हाथ-मुंह धो लिए, इतने में ही, पीछे से नौकर-चाकर तौलिया आदि ले आये थे! हाथ-मुंह धोने के बाद, वे वापिस हुए, जूते खोल दिए गए, जूतों को बाक़ायदा साफ करवाया गया!
तभी दो बड़े से गिलासों में आमरस लाया गया, खुशबूदार और ज़ायकेदार! मजे से पिया दोनों ने! साथ में कुछ सूखे मेवे भी! वे भी खाते रहे साथ साथ वे दोनों!
"और लोगबाग कहां हैं?" पूछा उसने,
"रिहाइश पीछे है!" बोला वो,
"अच्छा!" कहा उसने,
"हम पीछे हैं!" बताया जानेर ने,
"ख़ास जगह!" बोला हरबेर्टो!" हंसते हुए!
"हां, आपके लिए!" बोला वो,
अब तक, लालटेन जलाने का समय हो चला था, हवा में भले ही ठंडक थी, लेकिन नमी भी कुछ ज़ोर भर ही लेती थी! उधर, दो बड़ी बड़ी सी लालटेन जला दी गयीं!
