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Alive Death-Notes of a Dead Patient! Reason of Death -: Bi-Polar Aggression...2015

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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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''माफ़ी चाहूंगा, क्या आप मुझे बताएंगे आप किस देश से हैं?" बोला वो डॉक्टर,
(यहां एक बात सभी से अलग है, आप देखिये, वो अर्णव, अभी उस समय, हरबेर्टो बन कर बात कर रहा है, बन कर? क्या ये कहना अनुचित नहीं? शायद हो कर! हां, हो कर कहा जाना चाहिए! उसके उस व्यहार में वही फौजी रौब, दबदबा, दबंगता और रैंक की ताक़त, सभी थी! वो अपने आप को उस कमरे में मौजूद किसी भी इंसान से अपनी तुलना करना नहीं चाहता था, न वो छूने ही देता था और न ही कुछ ऐसा करता ही था, उसके बैठे रहने का अंदाज़ भी, फौजी ही था! चेहरे के हाव-भाव, सब के सब वही फौजी लब्बोलुबाब वाले ही थे!)
"क्या मैंने अभी तक बताया नहीं?'' बोला मैं,
"नहीं तो?'' बोला वो,
"आप कौन हो?" पूछा मैंने,
"मैं एक मनोवैज्ञानिक हूं!" बोला वो,
"यहां क्यों?" पूछा मैंने,
"क्या आपको कुछ याद नहीं?" बोला वो,
"क्या याद?" पूछा मैंने,
"आप का असली नाम?" बोला वो,
"आपको बता दिया!" कहा मैंने,
"नहीं अर्णव!" बोला वो,
"अर्णव?" मेरे मुंह से निकला,
"हां!" बोला वो,
"सुना सुना सा लगता है ये नाम!" बोला मैं,
"कौन है ये अर्णव?" पूछा उसने,
मैं खड़ा हुआ, तभी चलने की कोशिश की, इस से पहले कि वो डॉक्टर मुझे सम्भालता, मैंने ग़श खाया, आंखें बन्द हुईं और मैं गिर पड़ा नीचे, फर्श पर गिरने से पहले ही सम्भाल लिया गया था!
नोट नम्बर सात और आठ...
.....................................
मुझे कब होश आया, नहीं पता, जब आया तो ये एक अस्पताल या नर्सिंग-होम का कमरा था, पास में मेरे एक नर्स खड़ी थी, एक डॉक्टर मुझे ही चैक कर रहा था! मैंने आंखें खोलीं तो उसने मुस्कुरा कर पूछा!
"अब कैसे हो?" बोला वो,
"ह्म्म्म, ठीक!" कहा मैंने,
"क्या हुआ था?'' पूछा उसने,
"पता नहीं, ग़श आ गया था!" कहा मैंने,
"जानते हो क्यों?" बोला वो,
"क्या?" पूछा मैंने,
"आपका बी.पी. बहुत हाई था! अच्छा हुआ यहां ले आये, नहीं तो सेलेब्रल-हैमरेज का खतरा बन जाता!" बोला वो,
"पता नहीं!" बोला मैं,
"क्या सोच रहे थे?" पूछा उसने,
"याद नहीं!" कहा मैंने,
"कुछ भी?" बोला वो,
"हां!" कहा मैंने,
"जो मिलने आये हैं, आ जाएं?" पूछा उसने,
"नहीं!" कहा मैंने,
"कोई नहीं?" बोला वो,
"हां, कोई भी नहीं!" बोला मैं,
"माता जी का बुरा हाल है!" बोला वो,
"उन्हें भेज दो!" बोला मैं,
"और पिता जी?" बोला वो,
''वो बहुत चिंता करते हैं , मेरी, हार्ट-पेशेंट हैं, उन्हें नहीं!" कहा मैंने,
"ठीक, भेजता हूं!" बोला वो,
और चला गया बाहर!
"दवाई अभी या बाद में?" बोली सिस्टर,
"दे दो अभी, क्या फ़र्क़ पड़ता है!" कहा मैंने,
"स्ट्रांग-मैन!" बोली वो,
"थैंक्स!" कहा मैंने,
बात, आगे नहीं बढ़ाई मैंने, नहीं तो मैं बहुत ही बातूनी हूं, ये तो मैं भी जानता हूं!
"ये लो!" बोली वो,
और दवा दे दी, मैंने निगल ली!
दरवाज़ा खुला और मेरी माता जी, कांपते होंठों से, सूजी हुई आंखें लिए, पिता जी, सूखे पत्ते से कांपते हुए, पूरे पसीने में भीगे हों जैसे, अंदर चले आये! मेरी हालत देख, मेरे पिता जी से रहा न गया, फफक फफक कर रोने लगे! साथ में मेरी माता जी भी! मैं क्या कहता? कुछ नहीं कह सकता था...सो कुछ भी नहीं कहा...


   
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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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नोट नम्बर नौ..और दस का आधा...
..............................................
इनमें कुछ ख़ास नहीं, कुछ पारिवारिक बातें और उन सभी का उस से मिलने का ज़िक़्र है, उन सभी, मतलब, मामा-मामी, अंश और बहनें आदि! इसीलिए मैंने वो पढ़े तो लेकिन अनुवाद के लिए उपयोगी नहीं लगे तो छोड़ रहा हूं...
नोट नम्बर दस..आधे से आगे का भाग..
......................................................
करीब आठ दिन बीत चुके थे, मुझे नींद की भारी कमी महसूस होने लगी थी, मैं रात रात भर जागता, करवटें बदलता, लेकिन नींद नहीं आती..अगले दिन से मुझे हैवी-सेडेटिव्ज़ देने शुरू कर दिए गए! और मुझे तब कुछ नींद आने लगी थी! शुरू में मुझे काफी अच्छी नींद आयी थी, मुझे लगा कि मैं कभी भी नींद न आने के कारण या वजह से पीड़ित नहीं रहा हूं!
ठीक अगले दिन...उस दोपहर में....

मेरी आंख लग गयी थी, मैं कुछ ही देर में गहरी नींद में जा पहुंचा था, मुझे धीरे से कुछ शब्द सुनाई से दिए..मैंने कान लगाए...और..
"अरे और लो न?" बोला जानेर!
मैं ठीक वहीँ था! वहीँ जिस वक़्त मैं उसके साथ, उसके बाग़ में बैठा था! मुझे सब याद आ गया था और मैं भूल बैठा कि ये आठ-दस दिन कैसे, कहां गुजरे!
"बस!" कहा मैंने,
"सही नहीं लगे?" पूछा उसने,
"बहुत बढ़िया!" कहा मैंने,
"तो लो?" बोला वो,
और एक तश्तरी आगे बढ़ा दी मेरे! इसमें केसरिया रंग के कटे हुए आम रखे थे, ख़ुशबू बड़ी ही लाजवाब और आनन्द देने वाली थी!
"ये लो!" बोला वो,
"लेता हूं!" कहा मैंने,
और एक फांक उठा कर खायी मैंने! आम के गूदे ने तो मेरा सारा गला ही तर कर दिया था! क्या बेहतरीन मिठास थी उसकी! शानदार! बस शानदार!
"ये अपने ही बाग़ के हैं!" बोला वो,
"बहुत बढ़िया हैं!" कहा मैंने,
"साथ ले जाने के लिए रखवा दूंगा!" कहा मैंने,
"अच्छा! शुक्रिया!" कहा मैंने,
"कैसा शुक्रिया?" बोला वो,
"ऐसे ही!" कहा मैंने,
"ये लो, रस!" बोला वो,
ये आमरस था, गाढ़ा और एक कांच के गिलास में भरा हुआ! उसमे भी पिस्ते आदि पड़े थे, शायद दूध की गाढ़ी मलाई भी डाली गयी थी! मैंने स्वाद चखा! और मुझे तो वो सब, इस संसार का लगा ही नहीं!
"कैसा लगा?" पूछा उसने,
"कोई जवाब नहीं!" कहा मैंने,
"अच्छा न?" बोला वो,
"बहुत ही!" कहा मैंने,
"और लिया जाए?" पूछा उसने,
"अब जगह नहीं!" कहा मैंने,
पेट पर हाथ फेरते हुए!
"थोड़ी देर बाद सही!" बोला वो,
"देखा जाएगा!" बोला मैं,
इस तरह दोपहर को खाना लगवा दिया गया! शुद्ध शाकाहारी और मांसाहारी खाना बनाया गया था, मारे ख़ुशबू के भरे पेट से भी मांग उठने लगी थी! एक तो मसालों की ख़ुशबू और उनका ज़ायक़ा! मैंने दही के चार प्रकार यहीं देखे! खट्टी, मीठी सी, नमकीन और तीखी! सब कि सब, बेहद ही शानदार थीं!
रोटियां! और उन पर लगा वो घी, इसे घी ही बोलते हैं ये सभी लोग! मैंने चखा उसे भी, उसका स्वाद बेजोड़ है! मुझे नहीं लगता पूरे यूरोप में कोई उसको बनाना भी जानता होगा! कहा जाता है ये ताक़तवर होता है!
और तीन प्रकार की दालें! स्वाद ऐसा कि सारा बर्तन ही चाट जाये कोई भी! उसमे तड़का लगा हुआ, घी भरा हुआ, और न जाने क्या क्या डालते हैं ये लोग ऐसे व्यंजनों में! तभी इन लोगों की रास मज़बूत होती है! कद-काठी, कड़ी और ताक़त वाली होती है!
"ये लो तुम!" बोला वो,
"ये क्या है?" पूछा मैंने,
"खा के तो देखो!" कहा उसने,
मैंने उठाया, और खाया ये मुझे समुद्री-सीप सी लगी!
"सीप?" कहा मैंने,
"नहीं नहीं!" बोला वो,
और हंसने लगा ज़रा ज़ोर ज़ोर से! मुझे भी हंसी आ गयी!


   
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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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खाना खा लिया गया था, पेट भर गया था बहुत! उसके बाद आराम किया हमने! मुझे एक आरामह्गाह सी लगने वाली जगह पर ले जाया गया, यहां सारा इंतज़ाम था, मैं लेट गया उस पर!
"आराम करो!" कहा उसने,
''हां!" बोला मैं,
"जगा दूंगा बाद में!" बोला वो,
"ठीक!" कहा मैंने,
और मैंने सोने की कोशिश की, ज़्यादा देर न हुई और मैं लम्बी नींद लेने लगा! है न हैरत! नींद में नींद! मुझे दरअसल, ऐसी ही कुछ बातों ने लिखने को मज़बूर किया था! मैं कौन हूं? अर्णव? या फिर हरबेर्टो?
नोट नम्बर ग्यारह...
................................
उसी दिन...
शाम हो गयी थी शायद, बाहर काफी चहल-पहल थी, मैं उस आरामगाह की छत पर था, उस जगह पर भीनी भीनी सी सुगन्ध आ रही थी! मैं उठा और उस छत की मुंडेर तक चला आया! यहां आने पर, नीचे झांक कर देखा! पूरा घर सजा दिया गया था! फूलों से, पत्तियों से, और जगह जगह पर, रंगोलियां बनाई गयी थीं! मुझे बहुत ही सुंदर लगा वो सब!
"हरबेर्टो?" आयी आवाज़,
पलट कर देखा, तो ये जानेर था!
"हां?" कहा मैंने,
"कब उठे?'' पूछा उसने,
"अभी बस!" कहा मैंने,
"आओ, दूध पी लो!" कहा उसने,
"दूध?" कहा मैंने,
"हां, आ जाओ!" बोला वो,
और मैं चला उसकी तरफ, वो अंदर चला, दो गिलास निकाले थैले से, रखे एक जगह, स्टूल पर, और जग में से दूध निकाल कर, उन गिलासों में डाल दिया और फिर भर दिए!
"लो!" बोला वो,
"मुझे तो मोटा कर दोगे!" कहा मैंने,
"नहीं तो!" बोला वो,
"और क्या!" कहा मैंने,
"आराम से पी जाओ!" बोला वो,
"ज़रूर!" बोला मैं,
दूध पीया, वो चला गया, नीचे से रौशनियां टिमटिमाती हुईं नज़र आने लगीं, मैंने जानने के लिए, फिर से नीचे झांका, दीये प्रज्ज्वलित कर दिए गए थे! ऐसा लगता था कि आग को पकड़ कर, उन दीयों में एक एक कर, रख दिया गया हो!
"ये दीवाली है!" बोला वो,
आ गया था ऊपर, और फिर मेरे पास!
"बहुत सुंदर है!" कहा मैंने,
"अभी पूजन होगा, चलना!" बोला वो,
"ज़रूर!" कहा मैंने,
उसको कोई लेने आया और वो चला नीचे, मैं वही रह गया, उस सजावट को देखता रहा, उस जगह को देखता रहा!
घण्टा भर बीता.....जानेर दो बार आया, सूचना देने के लिए! और फिर चला गया!
मैं अंदर आ ही रहा था कि सामने से जानेर आ गया!
"आओ!" बोला वो इशारा करते हुए!
"चलो!" कहा मैंने,
और हम दोनों नीचे चले गए! नीचे एक जगह, पूजन की सामग्री रखी थी, प्रसाद आदि, स्तर-पुरुष, सभी थे वहां, मंगल-गीत हुए और फिर, उन देवी और देवताओं का पूजन हुआ! मुझे वो मन्त्र-ध्वनि असीम सी शान्ति देने वाली लगी! फिर प्रसाद दिया गया, हमने प्रसाद लिया, खाया!
"आप उधर बैठो, मैं आता हूं!" कहा उसने,
"हां, ठीक, निबट लो!" कहा मैंने,
और मैं उठ कर, सबसे पीछे रखी कुर्सियों में से एक पर आ बैठा! पूरा घर, वो जगह, एक एक जगह, कोना आदि जगमगा रहा था! लड़कियां, स्त्रियां असंख्य दीयों में से कुछ दीये उठा कर, जगह जगह रख रही थीं!
अचानक ही...
एक सीढ़ी के पास, मेरी नज़र जा रुकी! वो एक लड़की थी, उसका चेहरा घूंघट से ढका था, हाथों में थाली थी, थाली में दीये और वो दीये लगा रही थी, बार बार पलट कर, मुझे देखा करती थी, मेरी नज़र मिली तो उसने उस आधे घूंघट से मुझे देख, अपने होंठों को खोला! जैसे मुस्कुरायी हो! मैं भी मुस्कुरा गया!
अभी मैं उसको देख ही रहा था, कि वो सभी दीये लगा, रख, वापिस हुई, और मेरे पास से गुजरी! मेरे नथुनों में एक तीखी सी रात की रानी की सी ख़ुशबू जा पड़ी! बेहद ही तीखी!


   
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श्रीशः उपदंडक
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मेरे घुटनों से, उसका वो लहंगा छूता हुआ चला गया था! मेरे पूरे बदन में गुदगुदी सी उठ गयी थी, जैसे मैंने शराब की महक़ में ही गोता लगा लिया हो! मैं, एक पल को, खो सा गया था, इसी ख़ुशबू को याद करने लगा था, लगता था कि जैसे पहले भी मेरा साबक़ा इस ख़ुशबू से अवश्य ही पड़ा है! लेकिन कहां? यही याद नहीं आ रहा था! मैंने फौरन ही उस गुजरती हुई लड़की को देखा! वो वहां नहीं थी! मैं खड़ा हो गया! खड़ा हो, उसे ढूंढने लगा! वहां लोग थे, भीड़ ज़रूर ही थी, लेकिन उस लड़की का कद पांच फ़ीट से अधिक नहीं था, मैं उसी कद की उसी जैसी लड़की को ढूंढ रहा था! उसने गुलाबी और पीले रंग का लहंगा सा पहना था, साज-सज्जा कर रखी थी, गले में, आभूषण थे, बाहों में, हाथों में, उंगलियों में, पांवों में! लेकिन वो, चली कहां गयी थी, अचानक से ही?
और वो ख़ुशबू? वो अभी तक वहीँ थी! मैंने पलट कर देखा, तो कोई नहीं था, कुछ केले के पेड़ लगे थे उधर, और कुछ नहीं! मैं उसे आसपास ढूंढने लगा था लेकिन वो कहीं नहीं दीख रही थी, इसी ढूंढ  में, मुझे वो नज़र आयी!
वो आयी नज़र! छत की मुंडेर पर! खड़ी हुई, हल्का सा मुस्कुराते हुए! मुझे ही देखते हुए, उसने अभी तक घूंघट कर रखा था, दीवार या मुंडेर पर रखे दीये की रौशनी को उसके दमकते हुए चेहरे ने सोख लिया था! अंगार सा, खूबसूरत सा अंगार जैसे उस घूंघट के अंदर क़ैद हो चुका था! पीला रंग खिल उठा था, उसके सोने के आभूषण, दमक उठे थे! न जाने क्यों, मुझ से रुका नहीं गया और मैं आगे चल पड़ा, उधर, ज़मीन पे कुछ बड़ी बड़ी सी लकड़ियां गाड़ी गयी थीं, उनमे कुछ छोटी छोटी सी मटकियां लटकाई गयीं थीं, मैं उनसे बचता हुआ ऊपर, सीढ़ियों की तरफ बढ़ने लगा! सीढियां चढ़ा, आ गया ऊपर, ठीक वहीँ देखा, वो वहां नहीं थी, पीछे देखा, वो पीछे खड़ी थी यहां हल्का सा अंधेरा था, दीयों की रौशनी उस सघन अंधेरे को बींधने का जतन कर रही थी, लेकिन कुछ हवा और कुछ सहारा उस अंधेरे को, उस पेड़ का, अंधेरा, भारी पड़ने लगता था!
मैं आगे चला उसकी तरफ! वो वहीँ खड़ी रही, आधा घूंघट किये, अब मैंने उसे देखा, उसका कद, सच में पांच फ़ीट से ज़्यादा नहीं होगा, लेकिन उसका जिस्म इतना खिंचाव पैदा कर रहा था कि मैं, खुद खिंचा चला आया था, मैं आया और कुछ दूरी बना कर खड़ा हो गया!
"क्या मैं कुछ पूछ सकता हूं? इज़ाज़त है?" पूछा मैंने,
"इज़ाज़त?" बोली वो,
उसकी आवाज़! जैसे, सुबह सुबह हल्की सी हवा में फ्लूट बज उठी हो! जैसे, सुबह सुबह किसी फूल की नाज़ुकी ओंस की बून्द को अपने से अलग ही न करे!
"हां!" कहा मैंने,
"एक अफ़सर को?" बोली वो,
"मुझे जानती हैं आप?" पूछा मैंने,
"कौन नहीं!" बोली वो,
"कैसे?" पूछा मैंने,
"आसान है!" बोली वो,
मैं थोड़ा सा झेंप गया! जैसे मेरी चोरी ही पकड़ ली गयी हो!
"आपका नाम?" पूछा मैंने,
"क्या करेंगे?" पूछा उसने,
"बताइये तो?" पूछा मैंने,
"फिर से भूलने के लिए!" बोली वो,
"फिर से?" कहा मैंने,
"हां?" बोली वो,
"क्या पहले हम कभी मिले हैं?" पूछा मैंने,
"याद नहीं क्या आपको?" बोली वो,
"सच कहूं तो नहीं जान पड़ता!" कहा मैंने,
"जिशाली!" बोली वो,
"बहुत खूबसूरत नाम है!" कहा मैंने,
"और आपका हरबेर्टो!" बोली वो,
"हां!" कहा मैंने,
"आर्मी अफसर!" बोली वो,
"हां!" कहा मैंने,
"आपको देखा था मैंने!" बोली वो,
"कहां?" पूछा मैंने,
"रॉयल डच पैलेस!" बोली वो,
"कोच्चि!" कहा मैंने,
"हां!" बोली वो,
"आप आते हैं वहां?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोली वो,
"फिर तब?" पूछा मैंने,
"आयी थी!" बताया उसने,
"किसी काम से?" पूछा मैंने,
"हां!" बोली वो,
"किस काम से?" पूछा मैंने,
वो मुस्कुरायी और थोड़ा सा पीछे हुई, और फिर उस मुंडेर से टेक लगा ली! और मेरी तेज नज़रों ने..................!!


   
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श्रीशः उपदंडक
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और मेरी नज़रों ने उसको अपने ही अक्स में उतार लिया! मैंने सुना था, कि हर किसी के दिल में एक खांचा हुआ करता है! एक अलग ही तरह का सा खांचा! जिसमे सिर्फ एक ही, सिर्फ एक ही पूरा का पूरा ठीक बैठता है! नहीं तो इंसान रोज ही, रोज ही नए नए लोगों से मिलता है! किसी का कुछ अच्छा और किसी का कुछ! सबकुछ अच्छा हो, ये ज़रूरी नहीं हरगिज़! अब ये बात मैं मान गया था! कहने वाला कोई ख़ास ही रहा होगा, उसके सही मायने अब मुझे समझ आये थे! तो ये मेरे दिल का खांचा, जो खाली था, लगा कि ये जिशाली उसमे पूरी तरह से, ठीक हो, बैठने लगी है! वो पूर्ण ही नहीं, सम्पूर्ण ही थी! हालांकि वो भारतीय थी! परन्तु उसका रंग, चटखीले, सुर्ख सफेद गुलाब सा, लाल गुड़हल के फूल जैसे होंठ थे जिन में, ऐसा खिंचाव था कि जैसे उनमे रस भरा हो! और न जाने क्यों, मैं, उस वक़्त, उस लम्हे, लालायित सा हो उठा था उस रस को चखने के लिए! मैंने बताया कि वो एक भारतीय युवती थी, परन्तु आत्मा का कोई रंग नहीं होता, कोई मुल्क़ नहीं, कोई सरहद नहीं! कोई क़द नहीं और कोई काठी नहीं! तो ये क्या था? मेरा आकर्षण भाव? नहीं! मैं ऐसा नहीं मानता था! मेरे पास 'कोई' कमी नहीं थी! कोई भी, कैसी भी, किसी भी तरह की!
"मैं आपको जानता होता तो ज़रूर मिलता उस रोज!" कहा मैंने,
"सच कह रहे हैं?" बोली वो,
"झूठ क्यों बोलूंगा?'' पूछा मैंने,
"बोल सकते हैं!" बोली वो,
"ऐसा क्यों लगता है आपको?" पूछा मैंने,
"आपको हक़ है!" बोली वो,
"कैसा हक़? हक़?" मैंने चौंक कर पूछा!
"एक बात पूछूं?" बोली वो,
"क्यों नहीं?" कहा मैंने,
"मेरे पीछे क्यों चले आये?" बोली वो,
"मेरे पास से क्यों गुज़रे आप?" कहा मैंने,
"जानबूझ कर!" बोली वो,
"सो ही मैं!" कहा मैंने,
वो पलटी, और इस बार तिरछी खड़ी हो गयी! उसकी कमर में कसी उसके वस्त्र की रस्सियां कुछ कड़ी सी हो गयी थीं! उसकी कमर में, एक दरार सी थी, ये दरार नीचे तक चली जाती होगी!
मैं यही सोच रहा था कि..
"आज पहली बार आएं हैं?" पूछा उसने,
"हां!" बताया मैंने,
"अच्छा!" बोली वो,
"क्या आप, जानेर से सम्बन्धित हैं? कोई सम्बन्धी?" पूछा मैंने,
"हां!" बोली वो,
"पूछ सकता हूं, क्या?'' पूछा मैंने,
"मैं जानेर जी की पत्नी की बहन हूं छोटी!" बोली वो,
"यहीं रहती हैं?" अगला सवाल किया मैंने,
"नहीं!" कहा उसने,
"फिर?" पूछा मैंने,
"यहां से दूर!" बोली वो,
"कितना?'' तीसरा सवाल किया मैंने इसी विषय में!
"एक रात!" बोली वो,
"ओह!" कहा मैंने,
"दूर है?" बोली वो,
"हां!" कहा मैंने,
"आपसे?" पूछा उसने,
"हां!" कहा मैंने,
"क्या रास्ते जुड़ते नहीं?" पूछा उसने,
"जुड़ते हैं!" कहा मैंने,
"कोशिश करें तो ही?" बोली वो,
"सच यही है!" कहा मैंने,
मन मसोस कर रह गया, कोई सटीक उत्तर नहीं बन पाया मुझ से उसके इस सवाल का, उस लम्हे! या फिर मैं, किसी और ही ललक में अटका था!
"करोगे?" बोली वो,
"क्या?" मैंने चौंक कर पूछा!
"कोशिश?" बोली वो,
"करनी होगी?" पूछा मैंने,
"क्या लगता है?" बोली वो,
"शायद...नहीं!" कहा मैंने,
"नहीं?" बोली वो,
"हां?" कहा मैंने,
"हां क्यों नहीं?" बोली वो,
"नहीं लगता ऐसा!" कहा मैंने,
अब वो हंस पड़ी! इस बार हंसी तो उसकी बायीं आंख देखी मैंने! जैसे, चांद निकल हो, रात में गहन रात में, किसी शांत से जल पर अक्स बनाता हुआ, शांत जल में! काजल लगाया हुआ था उसने! सच कहूं तो मेरा दिल धड़क के रह गया था!
"वापसी कब है?" पूछा उसने,
"कहां से?" पूछा मैंने,
"यहां से!" बोली वो,
"शायद कल सुबह!" बोला मैं,
"सुबह...ह्म्म्म...ठीक!" बोली वो, और इस बार दोनों ही कोहनियां टिका दीं मुंडेर पर, बदन में पड़ते कटाव ने मुझे काट कर रख दिया उसी क्षण!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"जिशाली!" कहा मैंने,
उसने कुछ ध्यान सा न दिया मेरे पुकारने का,
"जिशाली?" कहा मैंने फिर से,
"ह्म्म्म? कुछ बोले?" बोली वो,
"हां!" कहा मैंने,
"बोलो?'' बोली वो,
"मैं कल सुबह चला जाऊँगा, फिर कैसे मिल सकता हूं आपसे?" पूछा मैंने,
"क्या, ज़रूरी है?" पूछा उसने,
इस उत्तर में, मेरा सब हां-ना, सब, ये-वो शामिल था, सम्भल कर जवाब देना था, तो सम्भल कर ही जवाब दिया!
"हां!" कहा मैंने,
वो हंस पड़ी! संग उसके मैं भी हंस पड़ा था! वो हटी वहां से, और थोड़ा सा मुंडेर के करीब आयी!
"बहुत सुंदर हो जिशाली तुम!" मेरे मुंह से, आप की जगह, तुम निकल ही गया!
वो मुस्कुरा गयी! जैसे ही मुस्कुरायी, एक हवा का बावरा सा झोंका, उस से टकराता हुआ मुझ तक पहुंचा! रात की रानी की भीनी सी महक़ ने मुझे आगोश में लिया! सच बोलूं तो क्या कर ही जाऊं, नहीं कह पाऊं!
"हरबेर्टो डेर बर्ग!" बोली वो,
मैं अवाक! हैरान! सन्न!
"मेरा पूरा नाम कैसे जानती हो तुम जिशाली?" पूछा मैंने,
वो हल्का सा तिरछा सा मुस्कुरायी!
"वॉन डेर बर्ग!" बोली वो,
"हां!" कहा मैंने,
"हरबेर्टो आपकी माता जी का मेडेन नाम है!" बोली वो,
"जिशाली?" मैं चौंक पड़ा!
"है या नहीं?'' बोली वो,
"जिशाली?" मैंने फिर से अचरज से कहा, हालांकि, इस बार धीरे से!
"अपनी माता जी के ज़्यादा नज़दीक हो! बचपन पुर्तगाल में बीता!" बोली वो,
"सच!" कहा मैंने,
"हरबेर्टो!" बोली वो,
"हां!" कहा मैंने,
"जानती हूं!" कहा उसने,
(मित्रगण! इतने सटीक विवरण कोई कैसे लिख सकता है? जिशाली ने, हरबेर्टो की माता जी का पुर्तगाली निवास, उसका पता, हॉलैंड में, उसके पिता का आवास, पते के साथ बताया था, ये लिखा है अर्णव ने! अब मान भी लिया जाए की सौ में से कुछ अल्पांश तक ये अर्णव का पुनर्जन्म ही था, तब वो जिशाली? क्या उसका भी था? वो कैसे जानती थी? उसे कैसे मालूम? और, हरबेर्टो के अनुसार, जिशाली, भारतीय युवती ही थी! वो भी जानेर की साली साहिबा!)
"कैसे.....जानती हो?" पूछा मैंने,
"हरबेर्टो?" बोली वो,
और इस बार थोड़ा और पास खिसक आयी! इस बार कुछ ज़्यादा ही पास! इतना की उसके उस परफ्यूम की महक़ अब मुझे लगातार आ रही थी!
"अपने सत्रह में पहुंचो!" बोली वो,
"क्यों?" पूछा मैंने,
"पहुंचो?" बोली वो,
"क्या ख़ास?'' बोली वो,
"डैफनी!" बोली वो,
"डैफ.....नी?'' मेरे मुंह से निकला!
"याद आया?" बोली वो,
"ह....हां....हां!" कहा मैंने,
"कहां है डैफनी?" बोली वो,
"नहीं पता!" कहा मैंने,
"कहां गयी थी?" पूछा मैंने,
"मेड्रिड!" बोली वो,
"किसलिए?" पूछा उसने,
"परिवार संग?" कहा मैंने,
"यही बताया था?" बोली वो,
"हां?" कहा मैंने,
और झम्म! झम्म से मेरे कानों में आवाज़ आयी! शायद मेरी नींद टूटी थी! मैंने आँखें खोलीं तो उस सिस्टर से एक गिलास नीचे गिर गया था! उसने कई बार सॉरी कहा! कई बार! मैंने मुस्कुरा कर, उसको इस सॉरी-पाश से बाहर निकाल दिया था!


   
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श्रीशः उपदंडक
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नोट नम्बर दस........ग्यारह...
इस से पहले वो आगे बढ़े, उसने कुछ अलग सी बातें लिखीं, सबसे बड़ी बार, उसे ये याद नहीं था कि
  कब जिशाली वहां से गयी और कब वो वापिस अपने फौजी-आवास में आया, और इस वक़्त था, कुल बारह दिन बीत चुके थे! इन बारह दिन वो कहां था, ये नहीं लिखा उसने, और न ही बताया उसने!
अब आगे.....
वो गहन रात थी, उस रात गर्मी का भी कुछ ज़ोर था, वक़्त कोई तीन बजे का रहा होगा, मेरी नींद खुल गयी थी, मैं उठ गया, जग में से, पानी लिया, रौशनी के नाम पर, कुछ आधी से ज़्यादा जलीं मोमबत्तियां थीं, ये रखी हुई थीं! मैंने पानी पिया तो मुझे कुछ आवाज़ सी आयी! ये आवाज़ कुछ ऐसी थी कि जैसे पानी में कोई कूदा हो! मैंने ध्यान से सुना! तो लगा कि ये दो से ज़्यादा ही हैं! कभी कभी कोई हंसी, ठिठोली की सी आवाज़ आने लगती थी! मेरी नींद खुल गयी!
हां, उन दिनों, कोई तीन दिन से, कुछ उड़ी उड़ी सी खबरें थीं कि कुछ डाकू या लुटेरे आसपास देखे गए थे! वे हथियारबन्द थे, उनके साथ कुछ औरतें भी थीं जो पेशेवर थीं! तो पहरा चाक-चौबंद कर दिया गया था, हमारे यहां गोदाम तो नहीं था, लेकिन कुछ माल-असबाब उनके लायक़ ज़रूर था, आमने-सामने से भले ही वो न जीत पाते लेकिन खुराफाती में वे बीस ही ठहरते!
मैंने अपने कपड़े पहने, कुछ रात के से कपड़े थे, बूट्स पहन लिए और उधर टेबल पर ऊपर रखी हुई, अपनी एनफील्ड गन, १४ एम.एम. विद परकशन कैप उठा ली थी! ये लोडेड थी, बस कुछ लैचिंग सी कर ली थी, वजन में भारी थी, (पुर्तगाली भी यही गन इस्तेमाल कर रहे थे इन दिनों!) लेकिन मुझे इसकी आदत थी, मैंने वो उठायी और दरवाज़ा खोला!
(अब आप सोचिये! उस समय की इस्तेमाल होने वाली ये गन और इसकी जानकारी! जबकि अर्णव को किसी भी हथियार की ऐसी जानकारी कभी नहीं रही थी!)
दरवाज़ा खोला तो बाहर कोई उजाला नहीं था, है, कुछ मोड़ों के पास, अवश्य ही बड़ी बड़ी सी लैंटर्न जली थीं! बाहर का वो बड़ा सा दरवाज़ा भी बन्द था, जहां से इस कंपाउंड में दाखिल हुआ जा सकता था, उधर, एक केबिन-पोस्ट थी, उसमे दो गार्ड्स लगातार शिफ्ट्स में ड्यूटी पर रहा करते थे, उस रात जो गार्ड्स थे, उनसे भी मैं, रात दस बजे मिला था, एक का नाम स्वेन और दूसरे का गीर्ट था! गीर्ट भी आधा पुर्तगाली था, मेरी तरह, उसकी माता जी भी पुर्तगाल से ही थीं! स्वेन, पहले हॉलैंड में एक जेल का गार्ड था, उसे प्रोमोट कर, यहां भेज दिया गया था!
मैं बाहर आया तो आवाज़ फिर से हुई, ये आवाज़, सामने के कंपाउंड से आ रही थी, यहां जाने के लिए एक संकरा सा रास्ता था, फिर एक फुलवारी थी, गोल गोल लगी हुई, इसमें काजू की झाड़ियां थीं और कुछ मैन्ग्रोव के से पौधे थे, उन पर कांटे उगते थे, कोई आराम से नहीं जा सकता था अंदर, यदि उस जगह का अभ्यस्त न हो तो! मैं सीढ़ी उतर आया और आगे चलने लगा, केबिन-पोस्ट को देखा, तो गार्ड शायद अंदर रहे होंगे, मैंने उस जगह को फांद लिया और एक छोटे से दरवाज़े की तीन सांकलें हटा दीं, दरवाज़ा बिन आवाज़ के खुल गया, मैं सीधा ही दूसरी पर जाने को हुआ, कि मुझे एक आवाज़ आयी पीछे से!
"सर?" 
ये कोई गार्ड था, दौड़ा हुआ मेरे पास चला आया, आते ही सलूट किया और फिर मुस्तैद सा खड़ा हो गया!
"लार्स?" कहा मैंने,
"सर!" बोला वो,
"आवाज़ दी?" पूछा मैंने,
"जी सर!" बोला वो,
"ह्म्म्म! मैं सामने जा रहा हूं, उस कंपाउंड में!" कहा मैंने,
"जी सर!" बोला वो,
और मैं, अपनी गन को उठा, फिर से चल पड़ा! चला तो लगा वो गार्ड मेरे साथ ही आ रहा है! मैं रुक गया! पीछे देखा, ये वो ही था! 
"क्या हुआ?" पूछा मैंने,
"वहां तक! सर!" बोला वो,
"कोई बात नहीं, आओ!" कहा मैंने,
और हम दोनों ही चल पड़े आगे के लिए!
"कोई गया था उधर?'' पूछा मैंने,
"ट्रेविस सर!" बोला वो,
"ट्रेविस?' मैं रुक गया ये नाम सुनकर!
"जी सर!" बोला वो,
"किसने बुलाया?" पूछा मैंने,
"नहीं पता सर!" बोला वो,
मैंने थोड़ा सा विचार किया, ये ट्रेविस यहां कैसे? ये ट्रेविस फौजी भी नहीं था, हां, दलाल कह सकते हैं इसको या फिर कोई जासूस भी!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"ठीक है, तुम जाओ, बाकि मैं देख लेता हूं!" कहा मैंने,
"जी सर!" उसने कहा और सलूट पेश किया, पलटा और चला गया!
ये ट्रेविस कैसे आया यहां? कौन लाया? मैंने पहले भी आपत्ति दर्ज करवाई थी उसके विरुद्ध, किसका चहेता था ये? मुझे इस आदमी पर क़तई भरोसा नहीं था, मूल रूप से वो ब्रिटिश नागरिक था, व्यापार के सिलसिले में, अक्सर आता था, मिलना एक बात है, लेकिन इस तरह से आ कर, यहां मेहमान बन जाना, ये तो हरगिज़ स्वीकार नहीं मुझे! इस ट्रेविस की अरबियों में अछि पकड़ थी, ये कुछ इन-गिन कर, लाभ पहुंचाता था किसी को, पहुंचाता रहे, कोई फ़र्क़ नहीं, लेकिन वो सब बाहर, यहां अंदर नहीं! तो मैंने उस कंपाउंड का दरवाज़ा खोला और अंदर चला! आया तो आवाज़ फिर से हुई, इस बार तो पक्का ही था कि कोई अपनी अल्लसुबह रंगीन कर रहा था, कोई क्या? ये ट्रेविस ही!
मैं रुका पल भर...आवाज़ आयी, ये अंदर से आयी थी, मैं सीढिया चढ़ अंदर चला, आहिस्ता से, ताकि उसे या किसी और को कोई भान न हो सके! चार सीढियां चढ़ा में, एक फर्श आया, पत्थरों का फर्श और ठीक सामने एक दीवार, दीवार में एक बड़ा सा दरवाज़ा, मैं इधर ही चला, दरवाज़े पर आया तो बायीं तरफ से रौशनियां झिलमिलाती हुईं मेरे से टकरायीं! मैं चला उधर, और जैसे ही सामने आया कि किसी ने मुझे देखा, ये एक युवती थी! झट से उसने अपने जिस्म को एक कपड़े में लपेटा और एक तरफ को दौड़ ली! मुझे देख अंदर उस पूल के, तीन युवतियां थीं! और चौथा था वो ट्रेविस! वे सभी सन्न से रह गए थे मुझे देख कर! अचानक से मुझे कुछ ध्यान आया! भागी कौन? क्यों मुझे वो उस जैसी लगी? उस मायने...................जिशाली??
वे तीनों युवतियां बाहर निकलीं और चल पड़ीं एक तरफ, अब रह गया वो ट्रेविस, मुझे देख उसके होश उड़ गए थे, उसने गीला कपड़ा, जो उस पूल के सहारे रखा था, लपेट लिया और बाहर चला आया! बनावटी मुस्कान होंठों पर थी उसके!
"हरबेर्टो!" बोला वो,
मैंने कोई उत्तर नहीं दिया! जी किया, अभी एक गोली इसके सीने में उतार दूँ और जब तक गोली ठंडी हो इसके मुंह को अपने बूट से ढक दूं! ऐसा गुस्सा था मुझे! मेरी गन पर मेरी पकड़ तेज हो गयी थी! मेरी गन के बट पर उकेरी हुई सी आकृति जैसे चिल्ला चिल्ला के कह रही हो कि मुझे बस अब आज़ाद करो! आज़ाद! उतार दो इसके सीने में!
"कौन लाया?'' पूछा मैंने,
"जानते नहीं?" बोला वो,
और उसने एक सूखा कपड़ा उतार लिया था, उस क्लॉथ-चेंजर से! बाल पोंछ लिए थे, खोपड़ी पे, पीछे खींच लिए थे!
"कौन?" पूछा मैंने,
"पता तो है?" बोला वो,
"बताओ?" मैंने ज़ोर से कहा,
वो चौंक पड़ा! शायद उसे पता था कि मैंने उसको अगर मार भी दिया तो भी मेरा कुछ नहीं बिगड़ेगा, सिर्फ दो पंक्तियां लिखनी थीं और ये इतिहास बन जाता, ये ट्रेविस!
"हाइडेन!" बोला वो,
"किसलिए?'' पूछा मैंने,
"बदल में!" बोला वो,
"जानकारी?" पूछा मैंने,
"यही!" बोला वो,
"इज़ाज़त?" पूछा मैंने,
"वो जाने!" बोला वो,
"और ये सब?" पूछा मैंने,
"कुछ प्रमोद! वस्तुएं!" बोला वो,
"और वो...जो सबसे पहले?" कहा मैंने,
"नहीं जनता!" बोला वो,
"बताना नहीं चाहते?" बोला मैं,
"क्यों नहीं भला?' बोला वो,
"तो?" कहा मैंने, इस बार आगे आते हुए!
"नहीं पता! सच में!" कहा उसने,
"कौन लाया?" पूछा मैंने,
"उसे?'' पूछा उसने,
मैंने सर हिलाया, हां!
"डैफनी?" उसने आवाज़ दी!
डैफनी? ये नाम सुना है मैंने, अभी तो? कहां? हां! हां! जानेर के यहां, जिशाली के मुंह से!
एक युवती चली आयी, एक नीला सा गाउन पहने, मैं नहीं जानता था उसे, न ही कभी देखा था उसे, ये भी समझ गया था मैं!


   
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श्रीशः उपदंडक
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डैफनी कोई तेईस-चौबीस साल की युवती थी, चेहरे के हाव-भाव इकसार ही थे, इसका मतलब था वो पुरुषों के करीब रहा करती थी और आदी थी, उसे इस से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता था कि वो कपड़ों में रहे या नहीं!
"ये है डैफनी!" बोला वो,
मैं कुछ नहीं बोला, बस उसको देखा, एक निगाह,
"ये लायी थी उसे!" बोला वो,
"कौन थी वो?'' पूछा मैंने,
"मुझे नहीं पता!" बोली वो,
"नहीं पता?" कहा मैंने,
वो कांप सी गयी खड़े खड़े! मेरा लहज़ा कुछ ऐसा ही था पूछने का!
"नहीं पता" बोली वो,
"नहीं पता तो लायीं कहां से?'' पूछा मैंने,
"वो यहां की है" बोली वो,
"यहीं की?'' बोला मैं, और मेरे पांवों तले की ज़मीन ने धोखा दिया मुझे जैसे!
"लेकिन तुम कैसे लायीं?" पूछा मैंने,
"भेजा" बोली वो,
"किसने?'' पूछा मैंने,
"सेलिया ने" बोली वो,
"ये सेलिया कौन?" पूछा ट्रेविस से मैंने,
"ये भी एक बीच-बांट का आदमी है" बोला वो,
"कहां मिलेगा?" पूछा मैंने,
अब वे दोनों ही सूखे पत्ते से कांपने लगे! एकदूसरे को देखने लगे, जैसे पकड़े गए हों रंगे हाथ!
"उस से कोई काम?'' पूछा ट्रेविस ने,
"किस से?" पूछा मैंने,
"सेलिया से?'' पूछा उसने,
"हां" कहा मैंने,
"मैं ले आऊंगा!" बोला वो,
"कहां?" पूछा मैंने,
"जहां आप कहो?" बोला वो,
"थेओज़ के यहां, कल!" कहा मैंने,
"जो हुक़्म!" बोला वो,
"अब अब सामान लपेटो और निकल जाओ यहां से, दोबारा नहीं आना, नहीं तो मुझे क्या करना है फिर, ये सिर्फ मैं ही जानता हूं!" कहा मैंने, बैरल उसके कन्धे पर छुआते हुए!
"और तुम? डैफनी? सुन लिया?" कहा मैंने,
वो इतना सुन, रोने ही लगी, आंखों से आंसू निकलने लगे!
"आंसुओं का मान होता तुम्हें ही, तो इस घटिया इंसान के साथ यहां नहीं होतीं, अब निकल जाओ, इस से पहले कि जिस्म के हिस्से कोंच लिए जाएं तुम्हारे!" कहा मैंने,
मैंने कहा, और वे सब, अपने अपने कपड़े उठा, एक एक करके निकलते बने वहां से!
मैंने आसपास देखा और लौट चला वहां से! लेकिन एक बात, कुछ बोझ सा, संशय का, अपने साथ ले चला था मैं!
(यहां ये नोट खत्म हो जाता है! अब स्पष्ट है, अर्णव या हरबेर्टो संशय में है! इस स्थिति में, कोई भी संशय में होगा, तो सहानुभूति सी हुई मुझे हरबेर्टो से! कम से कम उस समय तो!)
नोट नम्बर बारह............
(क्या कोई इंसान, इस तरह के 'स्वप्न' से ही इतना विचलित हो सकता है? शायद हां! और शायद, अधिकांश रूप से तो नहीं! लेकिन अर्णव हुआ था! अब इसे मैं अर्णव की कोई खूबी समझूं या कोई मानसिक-कमी? या फिर बालक जैसी बुद्धि? या फिर अत्यंत ही निश्चल सा हृदय? बड़ा ही मुश्किल है किसी भी निष्कर्ष पर पहुचना!)
''अंश?" बोला मैं,
"हां?" बोला वो,
"स्विमिंग-पूल दिखाओ?" कहा मैंने,
"देखोगे?" बोला वो,
"हां!" कहा मैंने,
"आओ!" बोला वो,
और सहारा दे, मुझे मेरी वॉकिंग-स्टिकक्स के साथ ही, ले चला बाहर! बाहर, धूप खिली थी, बाहर की तरफ पोर्च में दो कार्स खड़ी थीं! बड़ा ही शानदार सा माहौल था वहां! मैं धीरे धीरे आगे चलता जा रहा था, साथ मेरे अंश भी! सामने, चमकता हुआ पानी दिखाई दिया, पीली और लाल टाइल्स दिखाई दीं उस पूल की, कुछ स्टील-बार्स भी और मैं एक पल के लिए रुक गया....


   
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श्रीशः उपदंडक
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मुझे याद आया वो स्विमिंग-पूल! वो सारा वाक़या! मैं गम्भीर हो उठा! रुका ही रह गया! दिल, ज़ोरों से धड़क कर रहा गया था मेरा! मेरा वो खांचा? क्या हुआ उसका? 
"आगे चलें?" बोला अंश!
"हां!" कहा मैंने, फौरन ही उस वाक़ये से बाहर आते हुए!
वो मुझे, सहारा दे, ऊपर ले आया, एक आराम-कुर्सी खींची और मुझे बिठा दिया उसमे उसने!
"आराम से हो न?" बोला वो,
"हां, कोई दिक्कत नहीं!" कहा मैंने,
"जूस लाऊं?" बोला वो,
"लेमन ले आओ!" कहा मैंने,
"बस पांच मिनट!" बोला वो, और लौट चला!
मैंने आसपास देखा, खुला सा स्थान! अपने आसपास देखा, उन फुलवारियों को देखता, उन फूलों को, उन पर मंडराते बर्रे, भंवरे और तितलियों को, वो चोंच में तिनका दबाये कबूतर और , और भी पक्षी! सभी अपनी अपनी बोली में, अपने अपने कुनबे के लोगों को पुकारते हुए!
"ओ जिशाली!" मेरे मुंह से निकला ये नाम तभी!
मैं कहां था? यहां? या वहां? मेरा दिमाग़, क्या खेल खेल रहा था मेरे साथ? क्या ये मेरा ख्याल ही था? ख्याल हो होता तो सब कैसे याद रहते मुझे? तो क्या मैं चला जाता हूं उधर? इतिहास में? अपनी जगह ढूंढने? क्या है ये सब?
लेकिन एक ऐतबार सा भी है! मैं कितना खुश हूं! उस जगह जाकर! एक अफ़सर! आदत सी हो गयी है अब मुझे हरबेर्टो ही बनने की जैसे!
"ये लो!" बोला अंश तभी, एक बड़े से गिलास में लेमन बना लाया था वो! मैंने गिलास उठाया और रख दिया पास की ही कुर्सी पर!
"बताओ, कैसा बना है?'' बोला वो,
मैंने एक सिप लिया, बेहद ही ज़ायकेदार था वो! काला नमक, भुना ज़ीरा और काली मिर्च!
"बताओ?" बोला वो,
"तुमने बनाया?" पूछा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"अब से तुम ही बनाना!" कहा मैंने मुस्कुराते हुए!
"क्यों नहीं अर्णव!" बोला वो,
"अर्णव नहीं!" निकला मेरे मुंह से,
"फिर?" उसने चौंक कर पूछा!
"हरबेर्टो!" कहा मैंने,
"हरबेर्टो?" बोला वो, अजीब से तरीके से पूछते हुए!
"हां!" कहा मैंने,
"ये कौन?" पूछा उसने,
"मैं!" बोला मैं,
"आप?" पूछा उसने,
"हां?'' कहा मैंने, एक बड़ा सा सिप लेते हुए!
"नाम बदल लिया आपने?" बोला वो,
"नहीं तो!" कहा मैंने,
''आप अर्णव हैं!" बोला वो,
"नहीं, अर्णव नहीं हूं!" कहा मैंने,
"भैय्या! मुझे डरा रहे हो आप!" बोला वो,
"डर कैसा?" पूछा मैंने,
"ये हरबेर्टो?" बोला वो,
"हां! मैं हूं! डच आर्मी अफसर!" कहा मैंने,
वो हंस पड़ा! काफी तेज! मैं नहीं हंसा! सो वो, अपनी मुस्कुराहट खो बैठा मुझे देखते हुए!
"आप डच हो?" बोला वो,
"हां!" कहा मैंने,
"बोल कर दिखाओ डच लैंग्वेज?" बोला वो,
"क्या बोलना है?" बोला मैं,
"ये कि, ये जगह बहुत सुंदर है!" बोला वो,
वो हंस रहा था, शायद, जांच रहा था कि मैं कहीं मज़ाक़ तो नहीं कर रहा!
"इज़'दित प'रास'तोख प्लेक!" कहा मैंने,
वो उठ बैठा! चेहरे पर अजीब से भाव आ गए! मैंने एक नज़र देखा उसे, और अपना लेमन ख़तम कर, गिलास उधर ही, उस कुर्सी पर रख दिया!
"क्या हुआ?" पूछा मैंने,
"लगती तो डच ही है!" बोला वो,
"डच ही है!" कहा मैंने,
"मैं क्या जानूं? आप लिखो इसे, मैं पढ़वाऊंगा!" बोला वो,
"लिख देता हूं, लाओ, और पेन लाओ!" कहा मैंने,
वो गया दौड़ा हुआ तो मैंने आवाज़ दे, उसको रोक लिया, वो रुक गया तभी के तभी!
"एक लेमन और बना लाना!" कहा मैंने,
उसने सुना और दौड़ लिया घर के अंदर, उस पूल का दरवाज़ा खोलते हुए! इसके बाद.......!!


   
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श्रीशः उपदंडक
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मैं हरबेर्टो था उस समय! हां! वो फ़ौज का अफसर हरबेर्टो! मुझे लगता था उस लम्हे कि मैं वहीँ लौट आया हूं! एक पल को मेरे अंदर फिर से वही फौजी रुतबा झलकने लगा था! तभी ठीक सामने एक जल का पक्षी उतरा, उस मुंडेर पर, सुनहरे और काले से रंग का, उसने चोंच ऊपर उठाकर, आवाज़ निकाली! ये आवाज़ बड़ी ही कर्कश सी थी, मेरा ध्यान भंग सा हो गया था! तभी मुझे जिशाली की वो, पहले मुलाक़ात याद आ गयी! और फिर, ट्रेविस के पास से भागती वो युवती भी! एक साथ ही जल बहा और दूसरे पल ही जम भी गया! मेरी त्यौरियां चढ़ गयी थीं! मेरे हाथों की नसें फूल गयी थीं! चेहरे पर पसीना तमतमाने लगा था! और मैंने, आंखें बन्द कर लीं, इसी गुस्से से बाहर आने के लिए!
"लो भाई!" मुझे अंश की आवाज़ आयी!
मैंने अंश को ज़रा गौर से देखा तो वो, बेचारा पल पल में कभी इधर, कभी उधर!
"शुक्रिया!" कहा मैंने,
और गिलास ले लिया उस से! जल्दी से सिप लिया! बेहद ही लज़ीज़ सा बनाया था उसने इस बार भी लेमन!
"कैसा है?" पूछा उसने,
"बहुत बढ़िया!" कहा मैंने,
"भाई?" बोला वो,
"क्या?" पूछा मैंने,
"एक बात पूछूं?" बोला वो,
"क्यों नहीं अंश?" कहा मैंने,
"क्या आपने डच सीखी है?" बोला वो,
"नहीं तो?" कहा मैंने,
"फिर ये कैसे?" पूछा उसने,
"मेरी मातृ-भाषा है ये!" बोला मैं,
"मातृ-भाषा?" बोला वो, डरने लगा था, घबरा गया था!
"हां!" कहा मैंने,
"मुझे डराते हो आप भाई!" बोला वो,
मैं हंस पड़ा! उसकी इस भली सी सूरत पर!
"अच्छा, चलो कोई बात नहीं!" बोला मैं,
वो चुप हुआ और मेरी कमीज़ की आस्तीन ठीक की उसने! मुस्कुराया और वो भी संग ही बैठ गया, उस कुर्सी के पाए की जगह के उपरले फट्टे पर!
"भाई?" कहा उसने,
"क्या?" पूछा मैंने,
"वो बुआ जी कह रही थीं कि वो आपको देहरी-ऑन-सोन ले जाने वाले हैं?" बोला वो,
"कब?" पूछा मैंने,
"कल ही!" बोला वो,
"मुझसे तो बात नहीं हुई!" कहा मैंने,
"आप जाओगे?" पूछा उसने,
"कोई बुराई नहीं!" कहा मैंने,
"मैं चलूं?" पूछा उसने,
"अरे क्यों नहीं!" कहा मैंने,
"वो जगह मुझे बेहद पसन्द है!" बोला वो,
"तब ज़रूर चलो!" कहा मैंने,
"मजा आएगा!" बोला वो,
"हां!" कहा मैंने,
"आपको भी तो काफी वक़्त हुआ?" बोला वो,
"हां, एक अर्सा हुआ!" कहा मैंने,
"तब ठीक!" बोला वो,
"हां, करने दो मां को बात!" कहा मैंने,
"ठीक!" बोला वो,
"हां अंश!" बोला मैं,
कुछ देर बीती और मैंने अपना लेमन खत्म कर लिया, उसने गिलास लिया और एक दूसरी जगह रख दिया!
"कुछ खाओगे?'' पूछा उसने,
"क्या?'' पूछा मैंने,
"सैंडविच लाऊं?" बोला वो,
"ले आओ!" कहा मैंने,
"अभी लाया!" बोला वो,
और चल दिया वो खाली गिलास लेकर वहां से!
मैं वहीँ फिर से लेटा ही रहा! कुछ सोचता ही रहा! कुछ न कुछ दिमाग में चलता ही रहता था मेरे! कभी हंसने लगता और कभी गम्भीर हो जाता मैं! 
उस समय, मैं सोच ही रहा था उस जिशाली के बारे में, मैं नहीं भूल पा रहा था उसे, मुझे लगता था, कि कोई न कोई बात तो है! या तो मैं गलत हूं या फिर मेरा सन्देह ही ठीक है! जो भी हो, पता तो लगना ही चाहिए!
"लो भाई!" बोला अंश और दे दिया एक बड़ा सा सैंडविच मुझे! मैं खाने लगा, कुछ बातें होती रहीं और मैं, अभी भी उसी जिशाली के बारे में ही सोचता भी रहा!
फिर दो दिन बीत गए...
न अच्छी नींद ही आयी, न अच्छा आराम ही पड़ा, कुछ सोचूं और कभी कुछ! नींद की गोलियां मैं लेना नहीं चाहता था, लेकिन मज़बूरी थी, बदन में दर्द होता था, मुझ से न गर्दन ही उठायी जाती थी और न ही हाथ हिलाये जाते थे, मेरी ज़िन्दगी जैसे बस...............
नोट नम्बर तेरह.........
...............................
उस दिन करीब एक बजा होगा दिन का............


   
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श्रीशः उपदंडक
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कि मुझे नींद ने गहरे आग़ोश में आ जकड़ा! मुझे एक साथ ही जम्हाई सी आयी और मैं टेक लगाए अपने बिस्तर की, लेट गया था, अखबार मैंने मोड़ कर, एक तरफ रख दिया था! मेरे पास ही चाय रखी थी, आधी पी थी और आधी पीने का अब मन नहीं था, सो रख दी थी! बदन में ढीलापन सा महसूस हुआ तो आंख लग गयी! और कुछ ही देर बाद.....
एक कमरा, अंदर से पीले रंग से पोता हुआ, बीच में लाल रंग की लकीरें और साथ में रखा एक ग्लोब! एक बड़ी सी मेज़, मेज़ पर रखा एक कांच और कांच के नीचे कुछ खांचे, खांचों में रखे कुछ क़ागज़ात!
मुझे बारिश की गन्ध आने लगी! मैं कमरे से बाहर जाने को हुआ, मेरे साथ एक महिला बैठी थीं, वे किसी दूसरे शहर से आयी थीं और किसी को पूछ रही थीं, लार्स, गार्ड उन्हें मेरे कमरे तक ले आया था!
"क्या नाम बताया मै'म?" बोला लार्स,
"ब्राम!" बोली वो,
"ब्राम!" कहा उसने,
और एक फाइल निकाल ली, फाइल में एक जगह, खोला उसे और ऊपर से नीचे तक कई बार उंगली फिराई! फिर पृष्ठ पलटा, और फिर से उंगली फिराई!
"लार्स?" कहा मैंने,
"सर?" बोला वो,
"वो ओल्ड-कंपाउंड में तो नहीं?" पूछा मैंने,
"हो सकता है सर!" बोला वो,
"तो वहीँ ले जाओ इन्हें!" कहा मैंने,
"जी सर!" बोला वो, और वी फाइल बन्द कर दी, रख दी अपनी जगह वापिस, अलमारी में!
"आप चले जाएं इनके साथ, मिल जाएगा जिसकी तलाश है आपको!" कहा मैंने,
वो मुस्कुरायी और उठ गयी, अपनी लॉन्ग-स्कर्ट ठीक की, और शुक्रिया बोल, चली गयीं बाहर, लार्स के साथ!
वे दोनों चले गए, रह गया अकेला मैं! बाहर बारिश पड़ रही थी, मोटी-मोटी बूंदें, बाहर ज़मीन को, और उस मुलायम घास को बार बार आ कर सहला रही थीं! एक मधुर सी आवाज़ आ रही थी! मुझे इस प्रकार का मौसम पसन्द है! मैं अचानक से उठा और बाहर की तरफ चला! बाहर आया तो एक गार्ड अपनी जगह खड़ा था! 
"वोहेम?" बोला मैं,
"सर!" बोला वो,
"यहां आओ?" कहा मैंने,
"सर!" बोला वो,
और मेरे पीछे ही अंदर तक चला आया, मैं बैठ गया और वो खड़ा ही रहा, सीना तान कर!
"वोहेम? उधर, मालखाने में कौन है?" पूछा मैंने,
"दो गार्ड्स हैं सर!" बोला वो,
"एक काम करो, एक को यहां भेज दो, तुम्हारी जगह!" कहा मैंने,
"सर!" बोला वो,
"कोई ड्रज है वहां?" पूछा मैंने,
"नहीं सर!" बोला वो,
"कहां गए?" पूछा मैंने,
"पोस्टल-डिपार्टमेंट सर!" बोला वो,
"ओ, अच्छा, एक काम करोगे?" पूछा मैंने,
"आदेश सर!" बोला वो,
"और मेरे लिए ड्रिंक ले आओ, साथ में कुछ तीखा सा, समझे ना? तीखा?" कहा मैंने, हाथ चलाते हुए, उंगलियों से, बताते हुए!
"सर!" बोला वो,
वो चला गया वहां से, अपने भारी-भरकम बूट्स पहने हुए! मैं उठा और अपने कमरे से बाहर आया, बाहर आया तो कुछ पोस्ट्स आयी थीं, वो अभी भी बॉक्स में ही थीं, मैंने एक नज़र तो डाली लेकिन निकाली नहीं, दरअसल अब काम करने का भी मन नहीं था, वैसे भी छह बज चुके थे और अब तो बिलकुल नहीं!
मुझे एक तरफ, दो युवतियां दिखाई दीं, वे शायद मिलने आयी थीं किसी से, मेरे पास से नहीं गुजरीं तो पहचान नहीं सका! तभी उनके पास दो सिपोय आये और उनके संग घुल-मिल कर, साथ चल पड़े!
"सर!" आयी आवाज़,
"वोहेम!" कहा मैंने,
"जी सर, ले आया!" बोला वो,
"यहां, इधर रख दो!" कहा मैंने,
"जी सर!" बोला वो,
और वो सामान उसने वहीँ रख दिया! और चलने लगा बाहर! मैंने रोक लिया तभी!
"वोहेम?" कहा मैंने,
"जी सर?" बोला वो,
''आओ, यहां बैठो!" कहा मैंने,
और अपनी कुर्सी पर बैठ गया मैं, उसको इशारा किया सामने बैठने का! वोहेम थोड़ा सा झेंपने लगा!
"बैठो!" कहा मैंने,
"माय प्लेज़र सर! माय प्लेज़र!" बोला वो,
और बैठ गया ठीक सामने, अपनी वो स्नाइडर-गन उसने एक तरफ रख दी! ये नयी गन थी हमारी आर्मी में! ये भी एनफील्ड ही थी! लेकिन इसकी बुलेट दमदार और लम्बी दूरी तक थी!
"वोहेम?" कहा मैंने,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"सर, आदेश!" बोला वो,
"क्या ले आये हो?" पूछा मैंने,
"विस्कोन ने यही दी मुझे सर!" बोला वो,
"कोई बात नहीं!" कहा मैंने,
मैंने, उन दोनों तश्तरियों का ढक्कन हटाया, तो एक तीखी सी गन्ध ने स्वागत किया हमारा! ये क्रैब-करी थी! मुझे तो बेहद ही पसन्द थी ये क्रैब-करी! साथ में, करी-लीव्ज़ का मीठा सा स्वाद!
"वाह वोहेम!" कहा मैंने,
"सर, माय प्लेज़र!" बोला वो,
"और इसमें?'' पूछा मैंने,
"देख लें सर!" बोला वो,
और मैंने वो बार्क-कवर हटाया उस बोतल से, और उसे देख तो मेरी बांछें ही खिल उठीं!
"डच फॉरमोसा स्पेशल!" बोला वो,
"जी सर!" बोला वो,
"बेहतरीन! बेहतरीन!" बोला मैं,
(डच फॉरमोसा स्पेशल! एक ख़ास व्हिस्की, जो ताइवान से आती थी, उस समय, ताइवान डच गोवेर्नेट के तहत था! इतनी अहम और सूक्ष्म बातें, ये कैसे पता चली थीं उसे? जबकि वो कभी गया नहीं, आया नहीं, सुना नहीं, पढ़ा नहीं, फिर? यही तो हैरत का विषय है!)
"वोहेम!" कहा मैंने,
"जी सर!" बोला वो,
"ये ख़ास व्हिस्की है! इसकी अच्छी मांग है!" कहा मैंने,
"जी सर!" बोला वो,
तब मैंने दो कांच के छोटे छोटे से गिलास उठाये और उस कॉर्क को हटा दिया, कॉर्क के नीचे एक और लाल लेयर थी, उसे भी हटा दिया और एक तेज भीनी भीनी सी गन्ध, खट्टेपन की सी, फ़ैल गयी चारों तरफ! मैंने गिलास में भर लिया उसे और बढ़ाया वोहेम की तरफ!
"लो!" कहा मैंने,
"माय प्लेज़र सर!" बोला वो,
और हम दोनों ने, एक ही झटके में मुंह में रख लिया उसे, स्वाद खींचा उसका और फिर गले से नीचे उतार लिया!
"वाह!" कहा मैंने,
"लाजवाब है सर!" बोला वो,
"हां! लो ये करी!" कहा मैंने,
"जी सर!" कहा मैंने,
ऑयर हम दोनों ने वो करी ली, और चार चार शॉट्स! मौसम कुछ रंगीन था, अब और 'संगीन' हो गया! 
वोहेम चला गया था, उसकी ड्यूटी भी खत्म हो गयी थी, उसने रजिस्टर में दर्ज कर दिया था और सलूट पेश कर, चला गया था अपने क्वार्टर पर!
वो गया और तभी लार्स अंदर आने को हुआ, रुका बाहर, और मुझ से आज्ञा मांगी अंदर आने के लिए!
"आ जाओ!" कहा मैंने,
उसने भी दर्ज किया अपना समय, अपनी गन एक जगह रख दी और आ गया मेरे पास ही!
"बैठो!" कहा मैंने,
"जी सर!" बोला वो,
और बैठ गया ठीक सामने!
"हां, बताओ?" कहा मैंने,
"सर, ट्रेविस यहां पर, कहां ठहरा है, ये पता चल गया है! और जो आपने अहम बात पूछी थी, उस हिसाब से उधर तो ऐसी कोई बात नहीं, कुछ भी सन्दिग्ध नहीं! ये मैं कह सकता हूं पक्का!" बोला वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"जी सर!" बोला वो,
"तो कब चलें?" पूछा मैंने,
"कल ही चलें, आज तो बारिश है!" बोला वो,
"कल, ठीक, शाम के समय!" कहा मैंने,
"जी सर!" कहा उसने,
और उठ कर, चल दिया, मैंने पुश्त से सर लगा लिया अपना और आंखें बन्द कर लीं अपनी! और फिर से मेरा ध्यान उस जिशाली की तरफ चला गया!
कुछ समय बीता.....
कुछ पल...फिर कुछ विपल....
"अर्णव?" आयी आवाज़,
मुझे समझ नहीं आया कुछ!
"अर्णव?" फिर से आवाज़ आयी मुझे कानों में! इस बार भी आंखें न खुलीं मेरी! तभी मेरा हाथ, पकड़ा किसी ने! मैंने बिजली की तेजी से वो हाथ पकड़ा, और खींचा अपनी तरफ, फिर कन्धे पर दूसरा हाथ रख, बीच में से झुका दिया उसे!
ओह्ह्ह्ह्ह! मैंने डच भाषा में क्या क्या नहीं कहा तब! क्या क्या नहीं कह ज़ोर से चिल्लाया मैंने! और ऐसी फुर्ती? जैसे कोई प्रोफेशनल हो या फिर, कोई फ़ौज से अभ्यस्त इंसान!
"अर्णव! ये मैं हूं!" कहा किसी ने,
"कौन?" मैंने चिल्ला के पूछा,
"मैं, अरे मैं, सुमीत? डॉक्टर सुमीत?" बोला वो,


   
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श्रीशः उपदंडक
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मुझे, फौरन ही पकड़ा गया, मैं जानता था ये दो से ज़्यादा ही लोग हैं! तो मैं डच भाषा में चिल्लाया और जाने हुआ क्या, कि मैं फर्श पर आ गिरा! इसके बाद मुझे कुछ याद नहीं!
तीन दिन के बाद...
रात का वक़्त था, शायद रात ही थी, मैं अकेला ही अस्पताल के उस बिस्तर पर लेटा था, मैंने आसपास देखा, कोई नहीं था, एक पर्दा लटका था, और उस पर्दे के पीछे दो सिस्टर्स अपनी अपनी कुर्सी पर बैठी हुईं नींद का आनन्द ले रही थीं! एक ने सर पीछे लगा रखा था और एक ने, सर सामने मेज पर, हाथों पर रखा था! मैंने आंखें बन्द कर लीं अपनी, मेरी बाजूओं में दर्द था, जैसे खिंचाव हुआ हो! मैंने जस की तस आंखें बन्द कर लीं! 
कम से कम एक घण्टा, शांत सा लेटा रहा मैं, और फिर रूटीन-चेकअप के लिए एक सिस्टर आयी! मैंने आंखें खोल दीं अपनी! वो मुस्कुरायी और दूसरी सिस्टर के पास चली गयी! पहली लौटी मेरे पास और दूसरी बाहर जा चली फौरन ही!
"फीलिंग ओके?" पूछा उसने,
मैंने सर हिलाया हां में!
"वैरी गुड!" बोली वो,
मैं मुस्कुराया!
"दर्द तो नहीं?" बोली वो,
मैंने ना में सर हिलाया!
और तभी डॉक्टर अंदर आ गया! ये कौन सा डॉक्टर था, मुझे याद नहीं, शायद कोई नया ही रहा था!
"कैसे हो अर्णव?" बोला वो,
मैंने जवाब नहीं दिया!
"अर्णव?" बोला वो, चार्ट देखते हुए!
मैंने अब भी जवाब नहीं दिया!
उसने चार्ट छोड़ा और आया मेरे पास!
"अर्णव?" बोला वो,
"मैं अर्णव नहीं!" बोला मैं डच में!
डॉक्टर को कुछ भी समझ नहीं आया, वो थोड़ा सा गम्भीर हो गया! उसने एक बार फिर से चार्ट देखा, और सिस्टर को कुछ समझाया और चला गया बाहर! जाने से पहले मुझे देखा उसने, एक बार, गम्भीर सा ही हो कर!
सिस्टर आयी, और एक इंजेक्शन दिया मुझे, कुछ ही पलों में, आंखें भारी हुईं और मैं फिर से नींद के आग़ोश में चला गया, पता नहीं, नींद का इंजेक्शन था या मैं नींद में था!
गहरी नींद....
और मैं, फिर से एक ऐसी जगह आया जहां, बड़े बड़े समुद्री पत्थर से थे ज़मीन में! पीछे की तरफ, एक छोटा सा शहर सा था, शहर भी नहीं, एक क़स्बा सा ही, यहां मछुआरे ही मछुआरे थे! ये उन्हीं का क़स्बा था शायद! मैं उस सुबह के हल्के से अंधेरे और उजाले में मैंने समुद्र को देखा! उसकी समुद्री हवाएं अपने साथ हल्की सी गर्मी मिली ठंडक साथ ला रही थीं! मैं वही एक पत्थर के संग खड़ा हुआ, आनन्द ले रहा था उस माहौल का!
"हरबेर्टो!" आयी मुझे एक आवाज़,
पलट के देखा तो ये फिलिपा थी! इठलाती और अपने जिस्म को कुछ नचाती सी मेरे पास चली आयी!
"फिलिपा!" कहा मैंने,
"हां, आज सुबह सुबह?" बोली वो,
"हां, सुबह सुबह!" कहा मैंने,
"नींद नहीं आयी लगता है!" बोली वो,
"ऐसा नहीं है!" कहा मैंने,
"लगता तो नहीं!" बोली वो,
"मैं जानता हूं!" कहा मैंने,
मैं आगे चला वहां से तो उसने मेरी बाजू में हाथ डालने की सोची, मैंने हाथ आगे न बढाते हुए, अपनी तलवार की मूठ सीधी कर ली! बाकि वो सब समझ ही गयी थी!
"सुना है कि ट्रेविस से कोई बात हुई?" पूछा उसने,
"किसने बताया?" पूछा मैंने,
"डैफनी ने!" बोली वो,
''और कुछ भी?" पूछा मैंने,
"हां!" बोली वो,
"क्या? जैसे?" पूछा मैंने,
"यही कि आपने ट्रेविस को भगा दिया!" बोली वो,
"वो है ही कमज़र्फ़ इंसान!" कहा मैंने,
"सो तो है!" बोली वो,
"और क्या बताया डैफनी ने?" पूछा मैंने,
"और कुछ नहीं!" बोली वो,
"सर! मॉर्निंग!" बोला एक सिपोय वहां से गुजरते हुए!
मैंने हाथ उठा कर, मॉर्निंग का अभिवादन किया!
"कल ट्रेविस को टेवर्न में देखा गया था!" बोली वो,
"टेवर्न?" पूछा मैंने,
"ह्म्म्म!" बोली वो,
"कौन सी?" पूछा मैंने,
"सर!" एक और सिपोय ने सलूट ठोंका! मैंने भी सलूट से ही जवाब दिया!
फिलिपा ने उत्तर नहीं दिया था अभी तक, अब इंतज़ार चुक गया तो मैंने फिर से सवाल दाग़ दिया!
"कौन सी?" बोला मैं, रुकते हुए!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"गेर्बेन के यहां!" बताया उसने,
"तुम वहीँ थीं?" पूछा मैंने,
"हां!" बोली वो,
एक जगह जाकर, मैं रुक गया और फिर आसपास देखा, और फिर वापिस हुआ, फिलिपा से विदा ली और सामने रास्ते की तरफ बढ़ चला, यहां मेरा घोड़ा आ गया था, जीन लगाई जा चुकी थी उसे! तो मेरा घोड़ा वहाँ तक लाया गया! और मैंने लगाम पकड़, उस पर बैठ एड़ लगा दी, थोड़ा सा तेज भगाया और कुछ ही देर में अपने कैंटोनमेंट-एरिया में आ गया! जब आया उधर तो सभी सिपोय और दूसरे कर्मचारी, मेरा अभिवादन करने लगते, मैं हाथ हिला कर, उनको जवाब दे देता!
मैं इस तरह अपने घोड़े को एक दूसरे साईस को सौंप, अपने क्वार्टर की तरफ बढ़ चला, वहां आया और स्नान किया, उसके बाद नाश्ता भी किया और फिर, कुछ पोस्ट्स भी देखीं, कुछ दफ्तर से थीं और दो उनमे से मेरी ख़ास थीं! एक मेरे बड़े भाई की और एक मेरी बड़ी बहन की! वे सब लालायित थे मुझ से मिलने के लिए, एक मैं ही था जो इतनी दूर आ बसा था! उनकी चिंता, वाजिब थी अपनी जगह!
दिन में करीब दो बजे...
लार्स अंदर आया, लार्स मेरा कुछ ख़ास बन गया था, उसे मेरी फ़ितरत और रसूख़, पसन्द आ गए थे!
"आओ लार्स!" कहा मैंने,
"जी सर!" बोला वो,
लार्स बड़ा ही सजीला सा युवक था, छरहरा और चपल! गोरा-चिट्टा, सुनहरी पलकों वाला और सुनहरे ही गलमुच्छे वाला! आंखें भी नीली मेरी तरह और तीखा चेहरा-मोहरा! एक फौजी होना ही उस पर फबता था सो वो था ही! उसको उसकी अकादमी ने भेजा था यहां! अकादमी आदि का पता उस बैच से लगता था जो सीधी तरफ, कॉलर की नोंक पर लगता था! इसी से मैंने उसे पहचाना भी था!
"इंतज़ाम हुआ?" पूछा मैंने,
"पूरा!" बोला वो,
"कितने बजे?" पूछा मैंने,
"करीब आठ!" बोला वो,
"कहां मिलोगे?" पूछा मैंने,
"ओल्ड-चर्चवे!" बोला वो,
"ठीक!" कहा मैंने,
"और कुछ?" पूछा उसने,
"नहीं लार्स!" कहा मैंने,
"आप चिंता ही न करें सर!" बोला वो,
"जानता हूं!" कहा मैंने,
"इस ट्रेविस का पता चल ही गया है!" बोला वो,
"बस, बाकि मैं जानू!" कहा मैंने,
"ये गेर्बेन कौन है?" पूछा मैंने,
"पुर्तगाली है!" बोला वो,
"कोई व्यवसायी?" पूछा मैंने,
"जुआरी!" बोला वो,
"यहां?" पूछा मैंने,
"जी, यहां!" बोला वो,
"रोकते नहीं उसे?" पूछा मैंने,
"यहां तो आप जानते हैं, कब क्या हो जाए!" बोला वो,
"हां, हालात सही नहीं!" कहा मैंने,
"ये बढ़ते जा रहे हैं!" बोला वो,
"कम्पनी ही जाने!" कहा मैंने,
"यही सोचता हूं!" बोला वो,
"ठीक भी है!" कहा मैंने,
तभी अंदर एक और गार्ड आने की अनुमति मांगने लगा!
"आओ?" कहा मैंने,
"सर!" बोला वो,
"हां?" कहा मैंने,
"सर हाइन्स मिलना चाहते हैं!" बोला वो,
"सर हाइन्स?" पूछा मैंने,
"जी सर!" बोला वो,
"बुलाइये?" कहा मैंने,
तभी लार्स खड़ा हुआ और बाहर चला गया, ये सर हाइन्स कौन थे, मैं नहीं जानता था, मेरे लिए ये कोई नया ही शख़्स था!
मैं खड़ा हुआ और बाहर देखने लगा, भारी भरकम बूट्स की आवाज़ आने लगी! और तभी मेरे कमरे के दरवाज़े पर एक मज़बूत से जिस्म का फौजी अफ़सर सा अंदर आया! मुस्कुराते हुए, हमने फौजी अभिवादन किया! उसकी वेशभूषा और यूनिफार्म से वो, पुर्तगाली नेवी से सम्बन्धित लगता था!
"मेरा धन्यवाद स्वीकार करें!" बोला वो, पुर्तगाली में,
"मेरा भी!" कहा मैंने, पुर्तगाली में ही!
"मुझे हैड-ऑफिस से, आपके, यहां भेजा गया है, आपसे मिलने!" बोला वो,
"जी, फरमाएं?" कहा मैंने,
"मैं हाइन्स हूं, नवल-अफसर, कल ही पहुंचा हूं यहां, दरअसल कुछ विशेष ही कार्य है, इसी सन्दर्भ में आपसे बातें करना चाहता हूं, आप कोई उचित समय दें!" बोला वो,
"मैं आपको, अवश्य ही बताऊंगा, कुछ समय चाहता हूं!" कहा मैंने,
"जी, उचित है!" बोला वो,


   
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