उस दोपहर मुझे नींद आ गयी थी! लेकिन इस बार ये मेरा सपना कहो या फिर मैं स्वयं ही उधर था, पता नहीं! मैं उस क्षण को नहीं भूल सका हूं! वो, लगता था कि जैसे कोई पूर्णिमा की रात हो और मैं एक ऐसी इमारत के सामने खड़ा था, जहां कोई नहीं था! वहां, एक बात बड़ी अजीब ही थी, अंगूरों की बेल लगी थीं, बाकी पेड़ों में, तने में, कपडे से बांधे गए थे, जैसे उनके अंदर कोई फल या मसाले भरे हों और वो गिरे नहीं या फिर तोड़ें नहीं जाएं या फिर पक्षियों से बचने के लिए रहे होंगे! मैं इसी रास्ते पर आगे बढ़ रहा हूं!
आगे जा रहा हूं कि मुझे एक तरफ से, दायीं तरफ से कुछ नज़र आया! ये शायद कोई समुद्री जहाज थे! मस्तूल नहीं नज़र आ रहे थे, है, उनके केबिन जो थे, उनमे से लाल और पीली से बत्तियां नज़र आ रही थीं! हवा तेज थी, वे जहाज पानी में गोते लगा रहे थे, हिचकोले से खाते हुए, हालांकि वो एक किनारा था, शायद कोई बन्दरगाह रहा हो!
"क्या मैं आपकी कोई मदद कर सकता हूं?" मुझे एक आवाज़ आयी,
मैंने पलट कर देखा, ये कोई गार्ड था, पुर्तगाली गार्ड! और मेरी जो पोशाक़ थी, वो डच पोशाक़ थी, सफेद रंग की झालरदार सी खुली खुली सी कमीज़, ऊपर नीले रंग का छाती तक खुला कोट और बेल्ट, जिसमे एक मोटा सा बकल लगा था, मैं देख नहीं पा रहा था उसे! हां, पांवों में लॉन्ग-बूट थे, ऊपर से, लाल रंग की सियाली से ढके हुए, सियाली मायने, खुले जुराब! और मेरी कमर से एक तलवार भी लटकी थी! लेकिन कमाल की बात ये, कि मुझे पता नहीं था!
"आप कहें?" वो पास आते हुए बोला,
और मेरी तलवार देखी, फिर मुस्कुराया,
"डच?" बोला वो,
"ह...हां!" कहा मैंने,
"क्या और भी कोई है?" पूछा उसने,
"नहीं तो!" कहा मैंने,
"कहिये सर, क्या मदद कर सकता हूं! आपकी सेवा में हाज़िर हूं!" बोला वो,
बड़े अदब के साथ पेश आया था वो! मैं इस पुर्तगाली क्षेत्र में, शायद कोई ऊंचा ओहदेदार डच अधिकारी था या कुछ और, ये भी नहीं पता था!
"ये कौन सी जगह है?" पूछा मैंने,
"कोच्चि सर, मातनचेरी!" बोला वो,
ये नाम तो मैंने कभी नहीं सुना था, ये क्या है? कौन सी जगह है? बड़ा ही असमंजस था मेरे लिए उस समय!
"इधर आइये सर!" बोला वो,
"हां!" कहा मैंने,
और मैं उसके साथ चला!
"यहां बैठिये सर!" बोला वो,
ये एक कमरा था, शायद कोई दफ्तर आदि का, एक बड़ी सी घड़ी लटकी थी दीवार पर, लेकिन थी शानदार!
"पानी सर?'' बोला वो,
"हां!" कहा मैंने,
वो दौड़ा गया और ले आया एक जग में पानी और पीतल के शानदार से गिलास! और पानी डाल दिया उसने, मैंने शुक्रिया कहा और दो गिलास पानी पी गया!
"ख़िदमत बताएं सर?'' बोला वो,
"मुझे उसियो से मिलना है!" कहा मैंने,
वो मुस्कुराया और गिलास में खुद के लिए पानी डाला, और..
"आप यहां कैसे सर?'' पूछा उसने,
"गुज़र रहा था!" कहा मैंने,
"उसियो यहां नहीं हैं!" बोला वो,
"फिर?" पूछा मैंने,
"आप पीछे जाएंगे, तो बैसिलिया दिखाई देगा, वहीँ, पास में, सर उसियो का दफ्तर है!" बोला वो,
"ओह...शुक्रिया!" कहा मैंने, और उठ गया!
"अभी बैठिये आप!" बोला वो,
"ठीक!" कहा मैंने,
"आप ज़रा सा इंतज़ार करें बस!" बोला वो,
"ठीक है!" कहा मैंने,
और वो बाहर चला गया, बाहर जाने से पहले, एक बड़ा सा 'लॉग-रजिस्टर' खोला, स्याही की दवात खोली, कलम डुबोई और उस रजिस्टर में कुछ दर्ज कर दिया! जाने से पहले मुस्कुराया और चला गया बाहर!
कोई पांच मिनट में ही..
"सर!" एक फौजी सा आया अंदर!
मैं खड़ा हो गया!
"आप सुबह चलें, तो बेहतर होगा!" बोला वो,
"लेकिन मुझे आदेश है?" कहा मैंने,
वो मुस्कुराया और चला आया मेरे पास!
"अभी वक़्त ज़्यादा है!" बोला वो,
"मैं ठहर नहीं सकता!" कहा मैंने,
"खबर कर दूं?" बोला वो,
"कहां?" पूछा मैंने,
"डच-पैलेस दूर नहीं!" बोला वो,
"नहीं, इतनी ज़हमत नहीं!" कहा मैंने,
"आपकी इच्छा मेरा आदेश सर!" बोला वो,
"तो चलता हूं फिर!" कहा मैंने,
"रुकें अभी, दो गार्ड भेज देता हूं साथ!" बोला वो,
"वैसे कोई ज़रूरत नहीं?' कहा मैंने,
"ये नियम है सर, हमारी कम्पनी का!" बोला वो,
और मैं मुस्कुरा कर रहा गया!
कुछ ही देर तक, मैं उस पहले गार्ड के साथ, बैठा, इंतज़ार करने लगा हूं!
करीब पंद्रह मिनट के बाद, दो गार्ड्स वहां आ गए, उस पहले वाले गार्ड्स ने उनसे बातें कीं, और वे दोनों, तब मुझे ले कर चल पड़े वहां से! अंधेरा तो था, लेकिन उस जगह बत्ती का प्रबन्ध भी किया गया था, तो खैर, हम निकल पड़े तीनों के तीनों! मुझे रत्ती भर भी यही ही नहीं पता था कि वे गार्ड्स कौन? वो डच-पैलेस क्या और अब कहां, बस इतना कि वे ले कर जा रहे थे और मैं चल रहा था उनके साथ!
जब हम जा रहे थे, तभी दो आदमियों ने हमें रोक लिया! मेरा अभिवादन किया और उन गार्ड्स को वापिस भेज दिया, और मुझे साथ ले चले! कोई और बात नहीं हुई! वे मुझे एक दो मंज़िला इमारत में ले गए! और एक और आदमी से मिलवाया, बात नहीं ही, उसने मुझे साथ लिया और ऊपर के लिए चल पड़ा! यहां कुछ कमरे थे बने हुए, दीवारों पर, चित्र लगे थे, और ये एक बड़ी सी गैलरी थी, उसी गैलरी में में ही दोनों तरफ कमरे बने थे, बाएं से तीसरा दरवाज़ा उसने खोल दिया और इशारा किया मुझे अंदर जाने का! मैं अंदर चला गया और वो आदमी भी अंदर चला आया! मेरा कोट उतारा उसने, और, उधर ही रखे एक हेंगर पर लटका दिया!
"कुछ लेंगे?" बोला वो,
"क्या मसलन?" पूछा मैंने,
"कुछ खाना या पीना?" पूछा उसने,
"नहीं, पानी भिजवाईये!" कहा मैंने,
"हां, जी, ज़रूर!" बोला वो,
और चला गया बाहर, बिना पीठ दिखाए! वापिस हुआ था, दरवाज़ा बन्द कर दिया था उसने, मैंने कमरे का निरीक्षण किया, एक जगह पूरी दीवार पर, नीले और काले रंग का, एक रेशमी सा पर्दा लगा था, छत पर देखा तो गोल गोल लट्टू से दिखाई दिए, उनमे सुनहरी रस्सी कसी हुई थी, अभी मैं देख ही रहा था कि वो आदमी अंदर आया, खटखटाने के बाद, पानी रखा और फिर सलूट मारता हुआ, ठीक उसी तरह से वापिस भी हो गया! दरवाज़ा बन्द कर दिया था उसने, मैं आगे गया, दरवाज़े के बीच की सांकल लगा दी!
और वापिस आया, उसी पर्दे को देखा, हाथ अंदर डाला तो पर्दे में जगह दिखाई दी, उसमे से अंदर देखा तो एक बड़ा सा, आलीशान सा पलंग बिछा था! उसके कोने में, कुछ कलाकृतियां रखी थीं! खिड़की थी लेकिन काफी ऊपर! बिस्तर पर चादर, गद्दा सब पड़ा था, इसका मतलब ये मेरे रात गुज़ारने का प्रबन्ध था!
मैंने अपने कपड़े बदले, और बिस्तर पर लेट गया! कुछ ही समय में नींद लग गयी, कमरे की दूसरी खिड़की से चांदनी झांक कर अंदर आ रही थी! खिड़की बड़ी थी, पूरा इंसान उस दीवार पर खड़ा हो सकता था!
उसी रात, उसी जगह, उसी कमरे में....
मेरी नींद खुली!
मुझे कुछ आवाज़ सी आयी थी, ये आवाज़ कुछ ऐसी थी कि किसी पानी के पूल में कोई कूदा हो! मैंने पहले ध्यान नहीं दिया और जब वो आवाज़ फिर से आयी तो मेरी आंखें फिर से खुल गयीं! मैं खड़ा हुआ, एक पल को, जैसे ढूंढने लगा उस आवाज़ का स्रोत!
और आवाज़ आयी, ये मेरे उस कमरे की छत के ऊपर से आयी थी, मैंने तभी लॉन्ग-बूट्स पहने और बाहर की ओर चला! एक मदमस्त सी गन्ध मेरे नथुनों में जा घुसी! ये ऐसी थी कि जैसे फूलों के ढेर वहां लगे हों! मैं कमरे से बाहर निकला, और रुक गया, फिर से बाएं चला, आवाज़ यहीं से घुस कर आयी थी मेरे पास!
मैं चला तो सामने एक सीढ़ी दिखी, ये ऊपर जाने का रास्ता था, मैंने आसपास देखा और ऊपर चढ़ चला! पहला मोड़ आया और फिर दूसरा, दूसरे मोड़ पर, रास्ता था, एक दरवाज़ा था, उसमे चौकोर से खाने बने थे, लकड़ी का दरवाज़ा था, लकड़ी लाल से रंग की चमकदार थी, और उन खानों में शीशा लगा था! मैंने आहिस्ता से दरवाज़ा धकेल, दरवाज़ा, खुल गया! मैं अंदर चला, अंदर आया तो ज़मीन पर कालीन सा बिछा मिला, ये कालीन किस रंग का था नज़र नहीं आया, हां कुछ हल्की सी रौशनी में दिखा कि ये महरून रंग का रहा होगा! मैं आगे चला और आवाज़ फिर से आयी! मैं दाएं चला, फिर से वही तेज ख़ुशबू! मैं जैसे अब उस ख़ुशबू के वश में था!
उधर चला तो उधर, एक गोल से मोड़ के पास मुझे रौशनी टिमटिमाती दिखाई दी! मैं चल पड़ा उधर! जैसे ही उधर आया, कि सामने देखा मैंने! सामने एक बड़ा सा पूल था! आसपास उस पूल के, चौकोर से खाने बने थे, ये खानी, खभों में से निकले थे, ऊपर की तरफ, खिलती चांदनी थी, और उन खानों में, मोमबत्तियां जल रही थीं! मोटी मोटी मोमबत्तियां! उधर आसपास, क्यारियां बनी थीं उन क्यारियों में, डेलिया, ट्यूलिप, पीले गुलाब, काले गुलाब आदि फूल लगे थे! पूरा का पूरा माहौल, स्वर्ग के जैसा ही था, हालांकि मैंने स्वर्ग कभी नहीं देखा, कल्पना ही की! मैं जस का तस, वहीँ खड़ा रहा!
ये पूल बहुत बड़ा था, पानी साफ़ था, एकदम साफ़, पानी में लहरें तैर रही थीं, उन मोमबत्त्तियों की रौशनी उन पर पड़ती तो लगता पानी के कुशल हाथ, आग की उन लपटों को बिना सोखे ही गोदी खिला रहे हों!
न रोक सका खुद को और आगे चल पड़ा, आगे एक दरवाज़ा सा बना था, बहुत ही बड़ा, करीब तीस फ़ीट के मुहाने वाला! मैं आगे चला तो सामने किसी को देखा, दायीं तरफ!
मैं ठिठक कर रह गया!
वहां एक बेहद सुंदर, अप्सरा सी, सुनहरे, लम्बे बालों वाली, लम्बी करीब छह फ़ीट की, भरे भरे से जिस्म की, दूधिया जिस्म था उसका, उसने अपने दोनों स्तनों के इर्द गिर्द, 'एक्स' की शेप में, एक ज़ंज़ीर सी पहनी थी, कमर में, भी ठीक वैसी ही ज़ंज़ीर थी! मैंने ऐसी सुंदर औरत आज तक नहीं देखी थी! मैं जैसे गीले रेत का बना होऊं और मेरे अंदर से, सोखा हुआ पानी, क़तरा दर क़तरा चू रहा हो!
"हरबेर्टो!" बोली वो,
पल भर के लिए मैं गूंगा और भरा सा हो गया था सो, सुन नहीं सका!
"हरबेर्टो!" बोली वो,
और इस से पहले मैं कुछ बोलता कि उसने पलट कर पानी में छलांग लगा दी, उस नीले से पानी में जैसे सफेद सा दूध मिल गया हो, ऐसा जिस्म था जो हरक़त कर रहा था उसका! और ठीक मेरे ही सामने वो निकल, आ, बाहर आ गयी!
मैं, पत्थर सा बन गया था! जिस्म का खून जैसे सारा का सारा उसके इस तीखे हुस्न ने निचोड़ के रख दिया था! वो चली आगे, मिलने उसी पल में उसके पूरे बदन को नाप लिया था, उसके बदन की खूबसूरती की मिसाल मैं, कम से कम, उस समय तक तो नहीं दे सकता था! वो चली आयी मेरे पास और अपने दोनों हाथ मेरी गर्दन के इर्द-गिर्द बांध लिए! उसके बदन से बून्द बून्द चू कर आता पानी और उसकी बूंदें मेरे बदन को गीला करती चली गयीं! जैसे ठीक, किसी नागफनी की जड़ में कुछ ओंस जम गयी हो और उसे जीवनदान मिल गया हो!
"हरबेर्टो!" बोली वो,
मेरे मुंह से कुछ शब्द, अटक कर बाहर निकले, कुछ सांसों के बाद!
"हां!" कहा मैंने,
"मेरा आर्डेन?" बोली वो,
"नहीं ला पाया!" कहा मैंने,
"क्यों?'' पूछा उसने,
"मैं लौट नहीं सका अभी तक!" कहा मैंने,
"मुझे तो इंतज़ार था!" बोली वो,
"जानता हूं!" कहा मैंने,
"और मुझे?" पूछा उसने, चिपकते हुए,
"हां!" कहा मैंने,
"कौन?" बोली वो,
"एना!" कहा मैंने,
"शुक्र है!" कहा उसने,
"हम्म!" कहा मैंने,
"अब कहां?" पूछा उसने,
"उसियो!" बताया मैंने,
वो हटी और मुझे गौर से देखा!
"किसलिए?" पूछा उसने,
"पता नहीं!" कहा मैंने,
"क्या गोपनीय है?'' बोली वो,
"हां, समझ लो!" कहा मैंने,
"मुझ से भी?" पूछा उसने,
"हां! नियम!" कहा मैंने,
"और बाकी?" पूछा उसने,
मैं हंस पड़ा! उसका, इस सवाल का जवाब यही था बस!
"वो तो गोपनीय नहीं!" बोली वो,
"नियम!" कहा मैंने,
"हां, जानती हूं!" बोली वो,
"अच्छा है!" कहा मैंने,
"फिलिपा से मिले?" पूछा उसने,
"हां!" कहा मैंने,
"कोई आया था?" पूछा उसने,
"हां!" कहा मैंने,
"कौन?" बोली वो,
"इज़ाबेल!" बताया मैंने,
"अच्छा! अच्छा!" बोली वो,
"आओ!" बोली वो,
और मुझे साथ ले चलने लगी! ये एना थी, मैं जानता था उसे, उस से मैं एम्स्टरडम में कई बार मिला था, वो एक अधिकारी की बेटी थी, वाणिज्य में अच्छा रुझान था उसका, वो, हैड-क्वार्टर में भी सक्रिय थी! मेरी कोई ख़ास हो, ऐसा भी नहीं था, मेरे सानिध्य में, और भी कई विशिष्ट महिलाएं थीं, कुछ ऐसी भी, जिन्हें मैं, देखते ही पहचान लेता था, नाम से तो शायद देर ही लग जाती!
"यहां रुको!" बोली वो,
और मैं वहीँ रुक गया, उसने कपड़े पहनने के लिए बदन साफ़ किया अपना और एक शार्ट-गाउन पहन लिया!
"आओ!" बोली वो,
"वहां सब कैसे हैं?" पूछा उसने,
"कहां?" पूछा मैंने,
"होम!" बोली वो,
"सब ठीक है!" कहा मैंने,
"तो पुर्तगाली चाल चल रहे हैं!" बोली वो,
"हमसे क्या तेज!" कहा मैंने,
"अंदर ही अंदर कुछ चल रहा है?" बोली वो,
"नहीं लगता मुझे!" कहा मैंने,
"होम?" बोली वो,
"क्या?" पूछा मैंने,
"कुछ विशेष-अधिकार?" बोली वो,
"किस मामले में?" पूछा मैंने,
"जानते नहीं?" बोली वो,
"नहीं तो?" मैंने अनभिज्ञता से कहा!
"खैर, कल जान जाओगे!" बोली वो,
"बताओ तो?" पूछा मैंने,
"मैं कोई जासूस नहीं!" बोली वो,
"मुझे क्यों लगता है कि हो?" पूछा मैंने,
"लगता है ऐसा?" बोली वो,
"हां, लगने लगा है!" कहा मैंने,
"अभी से ही?" बोली वो, मुस्कुराते हुए!
"खैर छोड़िये!" कहा मैंने,
"जाने दो? हां?" बोली वो,
मुस्कुराते हुए और थोड़ा करीब आते हुए, मुझे उसके बदन से और तेज सी महक़ आयी!
"तो कल मिलते हैं!" कहा मैंने,
"हां, ज़रूर!" बोली वो,
और मैं, उसको आलिंगन में भर, उसके गाल को चूमता हुआ फिर से वापिस आ गया! अपने उसी कमरे में! और लेट गया, फिर नींद ने आ घेरा मुझे! इसके बाद..बस नींद ही नींद..
नोट नम्बर तीन और चार...
--------------------------------
इनमे कुछ ख़ास नहीं, बस कुछ चित्र से, कुछ फूलों के बनाये हुए, कुछ डच भाषा में लिखी हुई बातें, लेकिन विशेष कुछ नहीं!
नोट नम्बर पांच..............
.........................................
इस नोट में ज़रूर ही कुछ है, तो मैंने इसका अनुवाद किया और इस तरह से आपके समक्ष रख रहा हूं!
मैं उस वक़्त के इमारत की पहली मंज़िल पर खड़ा था, शाम के करीब पांच का वक़्त रहा होगा, नीचे सामने, उस खाली से गार्डन में कुछ कुर्सियां लगी थीं, लेकिन वहां कोई था नहीं!
"हरबेर्टो!" मुझे एक मर्दाना आवाज़ ने चौंकाया!
"जानेर!" कहा मैंने,
"यहां कब आये?" पूछा उसने,
"कल ही पहुंचा!" मैंने जवाब दिया, जबकि हक़ीक़त में, मैं कब आया था, मुझे ज्ञात नहीं! लेकिन ये पूरा क्षेत्र बेहद ही सुंदर है! यहां के लोग, संस्कृति, बाज़ार और बोली, एकदम अलग! यहां के लोग मेहनतकश हैं! और ये जगह है खम्भात के आसपास का क्षेत्र! बेहद ही खूबसूरत! कैम्बे यही है! सच ही कहा था दुआर्ते बारबोसा ने! ये सच में वैसा ही है!
"जैसे ही जान पड़ा, दौड़ा चला आया!" बोला जानेर!
"शुक्रिया!" कहा मैंने,
"कहां ठहरे हो?" पूछा उसने,
"यहीं!" कहा मैंने,
"अब ये भी कोई जगह है!" बोला वो,
"समझा नहीं?'' कहा मैंने, कन्धे उचका कर!
"अरे!" बोला वो,
"कहो जानेर!" कहा मैंने,
"मेरा घर कोई दूर नहीं!" बोला वो,
मैं मुस्कुराया! और उसके कन्धे पर हाथ रखा और थोड़ा सा आगे लेकर चला उसको, उसी गैलरी में!
"जानेर!" कहा मैंने,
"हरबेर्टो!" बोला वो,
"तुम बहुत अच्छे इंसान हो!" बोला मैं,
"आप भी!" बोला वो,
"कितनी दूर है घर?'' पूछा मैंने,
"ज़्यादा नहीं, कुछ ही देर!" बोला वो,
"कब चलें?" पूछा मैंने,
"जब भी कहो?" पूछा उसने,
"मैं पहले देख लेता हूं!" कहा मैंने,
"क्या?" पूछा उसने,
"कोई आवश्यक काम तो नहीं?" कहा मैंने,
''अरे हां!" बोला वो,
"आओ जानेर!" कहा मैंने,
और मैं चल पड़ा उसको लेकर अपने साथ, आगे गैलरी में, बाहर एक पीतल की घण्टी लटकी थी, मैंने नहीं बजायी और सीधा अंदर चला आया उसके साथ!
"आओ, बैठो!" कहा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"क्या लोगे?" पूछा मैंने,
"जो चाहो!" बोला वो,
"वो सामने अलमिरा है, खोलो?'' कहा मैंने,
"अच्छा!" बोला वो,
और वो चला, खोल दरवाज़ा, अंदर नज़ाक़त क़ैद थी उन बोतलों में! उसने मुझे एक बार पलट कर देखा मुस्कुराते हुए!
"क्या बात है हरबेर्टो!" बोला वो,
"मेरे दोस्त के लिए!" कहा मैंने,
और उसने एक बोतल निकाल ली उस अलमिरा से, ले आया मेरे पास और रख दी, मैंने उस कुर्सी के पीछे से, एक बॉक्स में से दो गिलास निकाल लिए! वे साफ़-सुथरे ही थे, लेकिन उसी बॉक्स में जो काला कपड़ा था, जिस पर, वी.एल. लिखा था, गोल्डन धागे से, साफ़ कर लिए!
"मान गए!" बोला वो,
"किस लिए?" पूछा मैंने,
"यहां तक, इस क्वार्टर तक, किसकी पहुंच?" बोला वो, आंखें चौड़ाते हुए! मैं मुस्कुरा पड़ा उसे देख!
"खोलो!" कहा मैंने,
उसने कॉर्क-की ली और उस से कॉर्क हटा दिया! महक ऐसी कि बदन का कोना कोना सुकून से भर उठे!
आगे बढ़ने से पहले मैं आपको ये बता दूं कि कोई चेतन या अवचेतन मस्तिष्क की अवधारणा शेष न रहे, वो ये कि अवचेतन मस्तिष्क की अपनी अलग सीमाएं हैं, हद हैं, कुछ नियम भी होते हैं, ये नियम प्राकृतिक हुआ करते हैं! क्या सोचते हैं आप कि यदि अर्णव को सम्मोहित किया जाता तो वो सब ठीक वैसा ही बताता जैसा उसने लिखा है? यदि वही बताता, इस सम्मोहित अवस्था में, तब ये अवचेतन का जागृत रहना, समग्र रूप से चेतन के साथ ही साथ, माना जा सकता था! अतः बार बार इसको चेतन-अवचेतन परिपेक्ष्य से नहीं देखा जा सकता! अर्णव का ये मामला, क्या पुर्नजन्म का था? ये भी नहीं लगता था! तो फिर क्या था? यही तो प्रश्न है! इसका अर्थ ये हुआ कि विज्ञान के लिए अभी इस विषय में सोचना, विचार करना, कोई धारणा बनाना, दूर की कौड़ी है! ये एक ऐसा रहस्य है, जो इस प्रकृति में ही है और इसका उत्तर भी! तन्त्र की दृष्टि से ये एक मनोविकार ही कहा जाएगा, ये कोई 'कब्जाई' मामला भी नहीं था! और मित्रगण, यही एक कारण है कि मैंने इस मामले को अनुवाद कर, यहां लिखा है! क्या अर्णव की उस वक़्त की दशा या मृत्यु से कोई लेना था इन घटनाओं का? कोई विदेशी संस्कृति का? उस समय की बोली, भाषाओं का? तो फिर इतना सटीक आंकलन और लेखन, कैसे सम्भव है? ये तो 'प्रेजेंट साइट सीइंग अकाउंट' का सा मामला लगता है! कि एक इंसान, वहीँ, पल भर में पहुंच जाए! समय में पीछे, निर्बाध और निर्विरोध! यही हैरत का विषय है!
अब नोट.....
...........................
"शानदार!" बोला जानेर!
"डच प्राइड!" कहा मैंने,
"बेहतरीन!" बोला वो,
"होगा भी!" कहा मैंने,
और हम दोनों ने फिर पहला गिलास खाली किया! इतना उम्दा स्वाद कि पूछिये ही मत!
"अच्छा, सुनो!" बोला वो,
"हां?" कहा मैंने,
"यहां त्यौहार है हमारा!" बोला वो,
"त्यौहार?" पूछा मैंने,
और उसने मुझे मतलब समझाया उसका!( अब देखिये यहां, अर्णव को यहां त्यौहार का मतलब नहीं पता था, जानेर ने समझाया तो वो समझा, इसका क्या अर्थ हुआ? यही कि उस समय अर्णव, अर्णव था ही नहीं, हरबेर्टो था!)
"कैसा होता है?" पूछा मैंने,
"ले चलूंगा!" बोला वो,
"ये तो बहुत ही बढ़िया!" बोला मैं,
"बिलकुल!" बोला वो,
"बहुत अच्छा लगेगा मुझे!" कहा मैंने,
"बिलकुल लगेगा!" कहा उसने,
तभी अंदर आने के लिए किसी ने दरवाज़ा खटखटाया!
"आओ?" कहा मैंने,
वो एक अर्दली था, सलूट किया और आगे चला आया!
"कहो?" कहा मैंने,
"ये पत्र है!" बोला वो,
"ठीक!" कहा मैंने, लेते हुए!
मैंने पत्र देखा, ये कम्पनी का था, और मेरे नाम के साथ साथ और भी कई नाम थे उसमे, मेरा नाम तीसरे नम्बर पर था!
"क्या है?" पूछा जानेर ने,
"पता नहीं?" कहा मैंने,
"कोई आर्डर?" बोला वो,
"देखता हूं!" कहा मैंने,
और मैंने पत्र खोला, खोला तो पढ़ और पढ़ते हुए ही कुर्सी से धीरे से उठ गया! और एक बार को बाहर की तरफ देखा!
"क्या हुआ?" पूछा उसने,
मैं चुप रहा, कुछ न बोला,
"क्या हुआ?" पूछा मेरा हाथ पकड़ते हुए उसने,
"डच-सीलोन!" कहा मैंने,
"तो?" बोला वो,
"जाना होगा!" कहा मैंने,
"जाना?" पूछा उसने, हैरान हो कर!
"हां!" कहा मैंने,
"और, कब?" पूछा उसने,
"अगले महीने!" बोला मैं,
"काम?" पूछा उसने,
"आर्डर!" बोला मैं,
"ओह...अब?" पूछा उसने,
"जाना होगा!" कहा मैंने,
और मैं फिर से कुर्सी पर बैठ गया, उस पत्र को एक तरफ रखा और जानेर को इशारा किया कि वो गिलास हर दे दूसरा भी!
"आर्डर तो आर्डर ही है!" बोला वो,
और गिलास भर दिया उसने! खिसका दिया मेरी तरफ!
"देखते हैं!" कहा मैंने,
और एक ही बार में गिलास खाली कर दिया!
डच-सीलोन! मैंने तो कभी सुना भी नहीं था! लेकिन अर्णव, जी रहा था ये सब! बड़ी ही हैरत की बात है!
नोट नम्बर छह...
इस नोट में, अर्णव ने उस डच-सीलोन के विषय में लिखा है! उसने या बताया कि उस समय वहां कौन सा राजवंश राज कर रहा था! किसने सबसे पहले डच टुकड़ी का स्वागत किया था, कौन इतना उन डच लोगों से प्रभावित हुआ था, कैसे उनको डच भाषा सीखने की ललक लगी! और क्या क्या हुआ! गल्ले नामक बन्दरगाह पर, कैसे व्यवसायिक केंद्र बने आदि आदि! और मित्रगण! यदि उस समय का श्री लंकन इतिहास पढ़ा जाए तो अर्णव ने न कोई स्थान ही गलत लिखा, और न ही कोई अन्य तथ्य! आप आज भी डच नाम के श्रीलंकन वासी देख सकते हैं! जिनके सरनेम आज भी डच हैं!
खैर, हुआ कुछ ऐसा कि हरबेर्टो या अर्णव को, अभी कुछ समय और मिल गया डच-सीलोन रवाना होने के लिए! उस समय हॉलैंड में कुछ राजनैतिक उथल-पुथल मची हुई थी! फ्रांसीसी सबसे बड़ा रोड़ा बन रहे थे उनके लिए! इस विषय में भी अर्णव ने ही बताया है! एक एक नाम, एक एक कमरा, एक एक हॉल, के एक गली और दफ्तर! अमेस्टरडम के बारे में! पढो, तो लगता है, किसी ने आंखों देखा हाल लिखा है! जो सब, उसकी ही आंखों के सामने घटा है!
नोट नम्बर सात...........
इसमें कुछ विशेष नहीं, वो अपने इलाज के विषय में बात करता है, कुछ पारिवारिक लोगों के बारे में उसकी अपनी व्यक्तिगत राय, जिसे मैं यहां लिखना उचित नहीं मानता! अतः, नहीं लिख रहा हूं!
नोट नम्बर आठ...
ये नोट शानदार है उसका! ठीक पहले जैसा ही! इसमें वैसा ही, उस समय का वृत्तांत उपलब्ध है!
"तो मैं कल आता हूं!" बोला जानेर,
एक कमरा, फौजी तो नहीं, एक डच-कोठी का, और उस रोज हल्की सी बारिश हो रही थी! मौसम बड़ा ही खुशगवार था!
"कल कब?" पूछा मैंने,
"सुबह ही?'' बोला वो,
"ठीक है!" कहा मैंने,
"जगह देखोगे तो वहीँ के हो जाओगे हरबेर्टो!" बोला जानेर,
"बहुत सुंदर है ये जगह!" बोला वो,
"हां, सो तो है!" कहा उसने,
"यहां के लोग बेहद सी सीधे हैं!" कहा उसने,
"कह सकते हो!" बोला वो,
"एहसानफरामोश नहीं!" बोला वो,
"कैसे जाना?" पूछा उसने,
"तुमसे!" कहा मैंने,
"हम वचन के लोग हैं!" बोला वो,
"हां, सच है!" बताया मैंने,
"तो कल सुबह?" पूछा उसने,
"बिलकुल!" कहा मैंने,
"देखो, मेरी क्या शान होगी!" बोला वो,
"कैसी शान?" पूछा मैंने,
"कम्पनी का ओहदेदार!" बोला वो,
''तो?" कहा मैंने,
"मेरे घर!" बोला वो,
इस बार उठते हुए!
"अच्छा!" कहा मैंने.
और मैं हंस पड़ा उसकी बात पर!
"हमारे यहां भी सैंकड़ों विदेशी आते हैं हरबेर्टो!" बोला वो,
"पता है!" कहा मैंने,
"कॉटन के लिए!" बोला वो,
"और वो अव्वल है!" बताया मैंने,
"हां!" कहा उसने,
"और हम मसालों के लिए आये हैं!" बोला मैं,
"हां!" कहा उसने,
"खैर!" कहा मैंने,और उठा खड़ा हुआ, थोड़ा सा टहला, मुड़ा और उसकी तरफ चला मैं!
"आओ ज़रा!" कहा मैंने,
"हां, चलो!" बोला वो,
और हम दोनों चल दिए, बाहर की तरफ!
मैं उसको, अपने संग, नीचे मन्ज़िल से होते हुए, एक क्वार्टर की तरफ बढ़ा, रास्ते में, जो भी मिलता वो सलूट पेश करता और आगे चला जाता, इसी तरह से मैं उस कोठी के पीछे की जगह पर आ गया, यहां एक मेज़ बिछी थी, दो कुर्सियां और दो ही गार्ड बैठे थे, हमें देख वे खड़े हुए और सलूट पेश किया!
"सर!" एक ने कहा,
"दरवाज़ा खोलिये!" बोला मैं,
"जी!" बोला वो,
"लैंटर्न?" बोला वो,
तो दरवाज़ा खोल गया और एक लैंटर्न भी ले ली गयी! ये लैंटर्न भी एक अजूबा ही थी मेरे लिए! शान-ओ-शौक़त झलकती थी उसमे! एक छोटी से लौ भी, आसपास के, विभिन्न कोणों से टकराकर, बड़ा ही तेज प्रकाश पैदा करती थी! कम से कम दस फ़ीट के क्षेत्र में तो एक भृंग भी उड़ता देख लो! ऐसी लैंटर्न!
"सर!" बोला वो, गार्ड,
"लाओ?" कहा मैंने,
और वो लैंटर्न ले ली उस से, और दरवाज़े के अंदर मैं, उस जानेर को ले चला, अंदर सामान भरा हुआ था, खचाखच अलमारियों में, बोरियों में और लकड़ी की पेटियों में!
"आओ जानेर?" कहा मैंने,
"ये जगह क्या है?" पूछा उसने,
"ये गोदाम है!" कहा मैंने,
"अच्छा!" कहा उसने,
"सुनी जानेर?" कहा मैंने,
"हां?" बोला वो,
"इस अलमारी से, जो चाहो निकाल लो!" बोला वो,
"किसलिए?'' बोला वो,
"घर के लिए!" बोला मैं,
"घर?" पूछा उसने,
"अपनी पत्नी, बहन और माता जी के लिए, और भी हो, तो निकाल लो!" बोला वो,
"नहीं हरबेर्टो!" बोला वो,
"क्यों?" पूछा मैंने,
"नहीं, ये कोई क़ीमत है?" बोला वो,
मैं हंस पड़ा उसकी इस बात पर!
"ये लो!" कहा मैंने,
और मैंने उसको आभूषण दिए, मोतियों से बने हुए, कुछ सोने के, कुछ चांदी के, कुछ पच्चीकारी के! वो बेहद ही खुश हुआ!
"ये सब, हॉलैंड जाते?" बोला वो,
"हां, जाते!" कहा मैंने,
"अब कम हुए तो?" बोला वो,
"ये सिर्फ उपहार ही हैं!" कहा मैंने,
"अच्छा!" कहा उसने,
और हम बाहर आ गए, लैंटर्न वापिस की, दरवाज़ा, अपने सामने बन्द करवाया और फिर से बाहर की तरफ चल पड़े हम!
"मैं चलता हूं!" बोला जानेर,
"कुछ लोगे नहीं?" पूछा मैंने,
"अब कल ही!" बोला वो,
"थोड़ा सा?" कहा मैंने,
"ऐसा?" बोला वो,
"हां जानेर!" बोला मैं,
"चलो फिर!" बोला वो,
मैं उसको लेकर, चल पड़ा, एक कमरा आ गया था, ये काफी बड़ा सा कमरा था, उसमे लकड़ी का नायाब सा काम किया गया था! बारिश भी हो, तो एक बून्द पानी न आये अंदर, ऐसा था इंतज़ाम!
हम दोनों बैठ गए वहीँ, दो कुर्सियों पर! जानेर ने सामान रख दिया एक तरफ और मैंने आसपास देखा!
"कॉर्टो?" आवाज़ दी मैंने,
बाहर से कुछ आवाज़ आयी, और एक अधेड़ सी उम्र का एक पुर्तगाली सा आदमी अंदर आया, आते ही मुस्कुराया वो!
"कॉर्टो? कैसे हो?" पूछा मैंने,
"मजे से हूं!" बोला वो,
"काफी वक़्त हुआ यहां?" पूछा मैंने,
"दो साल!" बोला वो,
''वापसी कब?" पूछा मैंने,
"इन सर्दियों में!" बोला वो,
"बेटा कहां है?" पूछा मैंने,
''आपकी उम्र का ही है, आजकल सीलोन में है!" बताया उसने,
"ये अच्छा है!" कहा मैंने,
"हां, शायद इस साल मलक्का चला जाए!" बोला वो,
"ये तो और बढ़िया!" कहा मैंने,
"जी! आदेश करें!" बोला वो,
"कुछ ले आओ, मौसम बढ़िया है न आज!" कहा मैंने,
"रोजेज?" बोला वो,
"क्या बात है! हां!" कहा मैंने,
"अभी लाया!" बोला वो,
"साथ में?" पूछा मैंने,
"करी के साथ?" पूछा उसने,
"जानेर?" अब मैंने जानेर के तरफ देख कर बोला और पूछा!
"जो चाहो!" बोला वो,
"ले आओ!" कहा मैंने,
"करी के साथ ही न?" बोला वो,
"हां, करी!" कहा मैंने,
वो चला गया वहां से, अभी तक फौजी-जान बाकी थी उसमे, जी-दार आदमी था कॉर्टो! नाम कुछ भी हो, उसको यहां सभी कॉर्टो ही बोलते थे! कॉर्टो, ऐसा कोई काम नहीं था, जो नहीं कर सकता था, वो रिटायर्ड भले ही था, लेकिन दूसरे कर्मचारियों ने उसे कभी रिटायर्ड नहीं किया था! यही खासियत थी उसकी!
"कॉर्टो?" बोला वो,
"फौजी था!" कहा मैंने,
"नेवी?" बोला वो,
"हां!" कहा मैंने,
"आज भी भला-चंगा है!" बोला वो,
"काम का मेहनती है बहुत!" कहा मैंने,
"खर्च आदि?" पूछा उसने,
"सभी मिलकर दे देते हैं!" बताया मैंने,
"बहुत बढ़िया!" बोला वो,
तभी कॉर्टो आ गया, साथ में एक प्लेट, प्लेट में दो बड़े से गिलास और एक बोतल, रोज़ रंग की, ये राई-व्हिस्की थी! इसका स्वाद बेहद ही तेज और शानदार हुआ करता है! रोजेज या रोज़ इसको पुकारा जाता है! उसने प्लेट नीचे रखी, गिलास, चमचमाते हुए सीधे किये और एक चौकोर सी तश्तरी में भुने हुए झींगे भी ले आया था!
मैंने एक झींगा उठाया और चखा, स्वाद बेजोड़! ज़ायक़ा लाजवाब!
"ये लो!" कहा मैंने जानेर से,
"हां!" बोला वो,
और उठाया झींगा, काटा टुकड़ा, अवाक सा रह गया!
"क्या हुआ!" पूछा मैंने,
"लाजवाब!" बोला वो,
"हां, शानदार!" कहा मैंने,
"शायद माल्टा-जूस और लेमन-जूस लिया गया है!" बोला वो,
"पता नहीं!" कहा मैंने,
"ज़बरदस्त स्वाद है!" बोला वो,
"लो जानेर, बनाओ!" कहा मैंने,
"लाओ!" कहा उसने,
और उसने उठायी कॉर्क-की, उसको घुमा कर कॉर्क को खोला, ये कॉर्क भी गुलाबी रंग का था! और जैसे ही कॉर्क खुला, भीनी सी सुगन्ध फ़ैल गयी पूरे कमरे में! पूरा कमरा महक उठा! कुछ भी हो! ये महक, न मैंने आज तक सूंघी और शायद ही कभी सूंघ पाऊं, लगता है! लाजवाब! सब लाजवाब!
मुझे लगता है, मेरी इन बातों पर कभी भी यक़ीन नहीं किया जाएगा, ठीक भी है, ये तो बस मैं ही जान सकता हूं! पढ़ा था कि कोई पुनर्जन्म का फेर होगा, लेकिन नहीं, ये ऐसा भी नहीं! मैं उस पल, हर पल को, प्रत्येक पल में, अपनी चेतना में ही होता हूं! कभी उस से बाहर नहीं जाता! मैं वो सब देखता हूं, जो मैंने न कभी सुना ही और न कभी देखा ही!
डॉक्टर पल्लवी भी हैरान रह गयी थीं! फिर मैं चुप लगा गया! मैं नहीं चाहता था कि मेरे सर पर, मस्तिष्क पर और कई भी प्रयोग किये जाएं! लेकिन जो बताया था मैंने, वो एक एक शब्द सच था, सच है!
"हरबेर्टो?" बोला जानेर,
"हां? कहा मैंने,
उसने गिलास में वो गुलाबी सा छलकता हुआ पानी डाला! अठखेलियां सी खेलती वो शराब अपनी जवानी की अगन से जैसे हांक पड़ी हो हमें देख कर! न ही शर्म और न ही कोई गरज़!
"एक बात पूछूं?" बोला वो,
"क्यों नहीं?" कहा मैंने,
और झींगा आधा काटा दांतों से, बाकी उंगली में ही रख लिया था, अभी तक, उस तन्दूर की भाप उड़ रही थी उसमे से! कुरकुरा सा, नमकीन और लज़ीज़ ज़ायक़ा!
"वहां एम्सटरडम में कौन कौन है?" पूछा उसने,
"परिवार में?" पूछा मैंने,
"हां!" कहा उसने,
"पिता जी, शाही-दरबार में, दरबारी हैं!" बोला वो,
"आ..हां! तभी!" बोला वो,
मैं हंस पड़ा! समझ गया था उसका आशय!
"उसका फायदा मुझे मिलता है, हां, मिलता है!" कहा मैंने,
"और कौन कौन?" पूछा उसने,
"मां हैं, वो बड़ी बहन के संग ऑस्ट्रिया में हैं!" बोला मैं,
"अच्छा!" कहा उसने,
"एक बड़ा भाई है, वो हॉलैंड में ही है, पिता जी संग ही, और एक छोटी बहन, जो विज्ञानं की एक शाखा में अध्ययन करती है!" बोला मैं,
"वाह! और?" पूछा उसने,
और गिलास बढ़ाया मेरी तरफ! मैंने उठाया, उसमे पड़ी शराब को हिलाया और दो घूंट पी लिया! जानेर ने भी ऐसा ही किया!
"और? मतलब?" पूछा मैंने,
"पत्नी?" बोला वो,
"कोई नहीं!" बोला मैं,
"कोई ख़ास दोस्त?" बोला वो,
"नहीं, कोई नहीं!" बोला मैं,
"क्या कमी है हरबेर्टो?" बोला वो,
"कुछ नहीं!" मैंने ठहाका मारा उसके उस भाव पर!
"नहीं! होनी चाहिए अब!" बोला वो,
"समय पर!" कहा मैंने,
"ह्म्म्म!" बोला वो,
और तभी कॉर्टो आ गया उधर! दो प्लेटों में, करी लिए, रखे बर्तन तो ये मछली थी! शानदार टूना मछली!
"ज़ायक़ा बताना!" बोला वो,
"ज़रूर!" कहा मैंने,
और उस बड़े से पीतल के चम्मच से करी को चखा! क्या मसाले थे! उसमे हल्का सा सेब का सिरका भी डाला गया था, मुंह में पानी लाने वाली सुगन्ध फैली थी! करी की भाप में, कच्ची छोटी इलायची की गन्ध फैली थी!
"ये! ये मसाले! कोई जवाब नहीं!" बोला मैं,
"हां, सच!" बोला वो, करी चखते हुए!
"इसीलिए दुनिया खिंची चली आ रही है!" बताया मैंने,
"हां!" बोला वो,
फिर हम दोनों ही, अपने अपने खाने में थोड़ा सा मसरूफ़ हो गए! स्वाद ही ऐसा कि चम्मच मुंह से छूटे ही नहीं!
"और जानेर?" कहा मैंने,
"हां हरबेर्टो?" बोला वो,
"तुम बताओ!" कहा मैंने,
"पूछो!" बोला वो,
मित्रगण! क्या कहीं से ऐसा लगता है? या महसूस होता है कि कुछ भी बे-तरतीब हो उसके लिखे नोट्स में? या वो खुद ही, अपने होश-ओ-हवास में न हो? या फिर, किसी अवसाद से घिरा हो? अवसाद के पीछे कुछ कारण हुआ करता है, यहां, क़तई नहीं ऐसा! कोई मानसिक-रोग से पीड़ित हो, ऐसा भी नहीं लगता! लेकिन अब कुछ ऐसा होगा अगले नोट्स में, कि मुझे सर से नीचे तक पसीने निकल आये! हाथ कांपने लगे! कानों में आवाज़ सी आने लगी, अजीब अजीब सी! यहां से ही ये नोट्स, अब आने वाले बेहद ही अलग और न समझ आने वाले से लगने लगते हैं! खैर, पहले वो शाम, वो कमरा, वो रोज़ और वे दोनों और उनकी बातें!
"क्या शादी हुई?" पूछा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"वाह! कब?" पूछा मैंने,
"दो साल हुए!" बोला वो,
"यानि मेरे आने से पहले!" बोला मैं,
"हां!" कहा उसने,
"कोई बालक?" पूछा मैंने,
"अभी नहीं!" बोला वो,
"क्यों?" पूछा मैंने,
"पत्नी संग समस्या है!" बोला वो,
"इलाज?" पूछा मैंने,
"चल रहा है!" बोला वो,
"हो जाएगा!" बोला मैं,
वो मुस्कुराया, मेरा हाथ पकड़ा उसने! उसकी रौबदार मूंछों के पीछे, जबड़े की हड्डियां दब कर रह गयीं!
"याद है हरबेर्टो?" बोला वो,
"क्या?" पूछा मैंने,
"जब मेरा बारूद पकड़ लिया गया था?" पूछा उसने,
"हां, उस दिन?" पूछा मैनें,
"हां, उन पुर्तगालियों ने!" बोला वो,
"याद है!" कहा मैंने,
"उस दिन तुमने न बचाया होता तो शायद मैं ज़िंदा भी न होता आज! यहां न बैठा होता!" बोला वो,
"अरे नहीं, जो गलत था, सो गलत था!" बोला मैं,
"नहीं हरबेर्टो!" बोला वो,
"क्या?" पूछा मैंने,
"मैं तो तभी अपना अंत देख रहा था! नज़रें बन्द थीं! फिर तुम्हारी आवाज़ आयी, बातें सुनीं और तुमने मुझे, बचा लिया!" बोला वो,
"ठीक है!" कहा मैंने,
"तुम बहुत अच्छे इंसान हो हरबेर्टो!" बोला वो,
"अच्छा! चलो, इसे खत्म करो!" कहा मैंने,
और वो बैठ गया फिर, और हम फिर से रम गए खाने-पीने में!
"अब कल आऊंगा लेने!" बोला वो,
"ज़रूर!" बोला मैं,
"तैयार मिलना!" बोला वो,
"बिलकुल!" कहा मैंने,
"अब चलूंगा!" बोला वो,
"रुको!" बोला मैं,
"अब क्या?" पूछा उसने,
"बारिश न रुकी तो?" बोला वो,
"तो भी क्या, पास ही तो जाना है!" बोला वो,
"पास? अच्छा! समझ गया!" कहा मैंने,
पास में ही उसके ममेरे रिश्तेदार रहते थे, कुछ ज़्यादा दूर नहीं, पास ही, वहीँ की कही थी उसने! उसने मुझ से हाथ मिलाया और उछलता-कूदता हुआ, चला गया वहां से! मैंने एक बार फिर से बारिश को देखा और अंदर आ बैठा! एक गिलास और भरा और झींगा उठाकर, खाया! घर की बात छिड़ी थी, याद आ गयी थी, बड़े भाई की, पिता जी की, छोटी बहन की! अब मन करता था कि हो आऊं उनके पास! लेकिन अभी, एक साल और था, यहां काटने के लिए! इसी ख्याल में डूबा तो.......
मैं उसी कमरे में आ गया था, जानेर मेरे दिल में यादों के तारों को झनझना गया था! के पल को मुझे लगा कि अभी रॉयल-डच-फ्लीट पकडूं और चला जाऊं, मिल आऊं उनसे! ख़त आते, तो देर से मिलते, फुर्सत होती तो पढ़े जाते, कुल मिलाकर, सुबह का ज़ायक़ा शाम को कैसे मिले?
"कुछ और?" आयी आवाज़,
ये कॉर्टो था, पूछने आया था कि कुछ और भी चाहिए!
"नहीं कॉर्टो!" कहा मैंने,
"ठीक!" बोला वो,
और वो खाली बर्तन उठा ले गया, रह गया तो मेरा वो गिलास और गिलास में पड़ी वो शराब!
मैंने बाहर झांक कर देखा, बाहर हल्की-फुलकी से बारिश पड़ रही थी! यही वक़्त हॉलैंड में बेहद ही सुकून भरा और ठंडा होता है! मुझे रह रह कर वहां की एक एक जगह याद आ रही थी!
जब ज़्यादा ही दिल भारी हो गया तब, वो गिलास तेजी से खाली किया, उठा और चल पड़ा अपने शयन-कक्ष की ओर! वहां आया तो अंधेरा हो चुका था, एक कोने पर, पत्थर की एक स्लैब पर, एक लैंटर्न जला दी गयी थी! उसकी रौशनी किसी कैलाइडस्कोप जैसी लगती थी! बारिश के कुछ कीट-पतंगे ज़रूर उस से खेलने आ गए थे! मैं रुक गया, बाहर देखा, उस पूरी कोठी में, कमरों से प्रकाश बाहर आ रहा था! मुझे लगता था कि जैसे मैं मरुस्थल जैसी अंधेरे में बैठा होऊं और ये दीप सुलग रहे हों!
"माफ़ कीजिये सर!" मुझे उस गार्ड की आवाज़ आयी!
"कोई बात नहीं!" कहा मैंने.
"नीचे गया था, खाना खाने!" बोला वो,
और जेब से चाबियां निकाल, एक चाबी ढूंढी और खोल दिया उस कमरे का ताला उसने! मैं अंदर चला,
"कुछ और सर?" पूछा उसने,
मैंने जवाब नहीं दिया, बस हाथ के इशारे से मना कर दिया, गार्ड ने कमरा बाहर से बन्द कर दिया और मैंने अंदर से! अपने कपड़े बदले और सामान रखा एक तरफ, अंदर जा कर, गुसलखाने के, हाथ-मुंह साफ़ किया और फिर पोंछ बिस्तर पर आ लेटा! घर की बातें, घर को लौटे दीं, और बाकी यादें, फिर से अंधेरे में ही छोड़ दीं!
मुझे करीब आधे घण्टे में नींद आ गयी...
उस सुबह का मौसम, बेहद ही प्यारा और जी को सुकून देने वाला था! समुद्री पक्षी, रह रह क्र गुजर रहे थे, शोर मचा रहे थे! दिन की शुरुआत हो चली थी, मैं जिस क्षेत्र में था वो एक प्रकार से कैंट का सा क्षेत्र था, आमजन के लिए ये मार्ग नहीं था, हां, बाकी क्षेत्र में कैसे सहर हुई होगी, ये पता तो चलता था! उस सुबह नाश्ता भी जल्दी ही किया, और अपने कुछ नए से कपड़े निकाल लिए! ये फौजी कपड़े नहीं थे, ये आमतौर पर ही पहने जाने वाले कपड़े थे! मैं वहाँ से निकल कर, मेरे पास मेरी तलवार और एनफील्ड-गन थी, सो मैंने उस दिन, जमाखाने में जमा करवा दी थी और बाहर, उस लाउन्ज में बैठा इंतज़ार कर रहा था! ज़्यादा देर तक इंतज़ार नहीं करना पड़ा!
"सर!" आया एक गार्ड, पेश किया सलूट!
"हां?" कहा मैंने,
"आपके मेहमान आ पहुंचे हैं!" बोला वो,
"शुक्रिया!" कहा मैंने,
और अपनी वो टोपी उठा ली, जेब में कुछ सिक्के थे, सो रख लिए थे, और उसके संग निकल पड़ा था!
सामने, बाहर की तरफ, जानेर खड़ा था, बग्घी ले कर, साथ में एक कोचवान भी था उसके! मैंने रास्ता छोटा करने के लिए, उन छूए से स्तम्भों पर लगी हुई ज़ंजीरों को टाप कर पर किया और आ गया उस तक!
"कैसे हो हरबेर्टो!" बोला वो,
"बढ़िया! तुम सुनाओ!" कहा मैंने,
"आओ, पहले बैठें!" बोला वो,
"हां! चलो!" कहा मैंने,
तो उसने आगे बढ़कर, दरवाज़ा खोला उस बग्घी का, बग्घी की छत भी थी, ये विक्टोरिया कही जा सकती है! उसके घोड़े मज़बूत, दु-रंगे, लाल और सफेद रंग के, चौड़े नथुनों वाले थे, उनकी कद-काठी बताती थी कि वे अरबी नस्ल के रहे हों!
खट्ट!!
दरवाज़ा बन्द हुआ और हम अंदर बैठे, बग्घी आगे चल पड़ी! कोचवान को सारा रास्ता पता ही था, जानेर एक अच्छे, रईस और रसूखदार खानदान से ताल्लुक़ रखता था! उसके साथ बिताया हर पल, विलासिता का सा लेकिन गम्भीर ही होता था!
"कितनी दूर?" पूछा मैंने,
"ज़्यादा नहीं!" बोला वो,
"फिर भी?" पूछा मैंने,
"अब ड्यूटी पर नहीं हो!" बोला वो, हंसते हुए,
"हां, सो तो!" कहा मैंने,
"आधा घण्टा!" बोला वो,
"ठीक!" कहा मैंने,
बाहर देखा मैंने, लोग-बाग़ आ-जा रहे थे, हर तबके के लोग! सभी के सभी, अपनी ज़रूरतों को पूरा करने में लगे हुए! कुछ स्त्रियां, लड़कियां और बालक-बालिकाएं भी! फिर कुछ पहाड़ियां हल्की सी, और कुछ भीड़-भाड़, बग्घी धीमे हो गयी!
"यहां क्या है जानेर?" पूछा मैंने,
"मंदिर!" बोला वो,
"ओ अच्छा!" कहा मैंने,
"मांग लो कुछ!" बोला वो,
"किस से?" पूछा मैंने,
"उस पहाड़ी के देवता से!" बोला वो,
"कौन सा देवता?" पूछा मैंने,
"नाग देवता!" बोला वो,
"अच्छा?'' कहा मैंने,
"हां, हाथ जोड़ो, आंखें बन्द करो, मन में ध्यान करो और मांग लो!" कहा उसने,
"इतना आसान?" बोला मैं,
"हां?" कहा उसने,
"तो अभी लो!" कहा मैंने,
और फिर, ठीक वैसा ही किया, जैसा मुझे जानेर ने बताया था, मन में क्या मांगा था, ये नहीं बता सकता मैं!
और फिर बग्घी तेज हो गयी! हम आगे चल पड़े! रास्ता ऐसा सुंदर कि कोई चित्रकार वहां, पूरे जीवन, बस चित्रकारी ही करता रहे!
और फिर एक और रास्ता, यहां ढलान थी, आसपास कुछ खेत-खलिहान! जगह ऐसी सुंदर थी कि मेरा मन बाहर जाकर, देखने को कर गया!
"जानेर!" कहा मैंने,
''हां?" बोला वो,
"बग्घी रुकवाओ!" कहा मैंने,
"सब ठीक?" बोला वो,
उसने रुकवा दी बग्घी!
"जानेर, बाहर चलो!" कहा मैंने,
"कुछ हुआ तो नहीं?" पूछा उसने,
"नहीं!" कहा मैंने,
और लपक कर बाहर आ गया मैं! अपने आसपास देखा, दूर दूर तक! आगे, पीछे और दाएं-बाएं!
"जानेर!" कहा मैंने,
"हां हरबेर्टो?" बोला वो, अवाक सा था वो, मेरे उस व्यवहार से!
"ये जगह कितनी सुंदर है!" कहा मैंने,
"और भी है आगे!" कहा मैंने,
"हां, होगी!" कहा मैंने,
"चलें?" बोला वो,
"हम्म!" मैंने सर हिलाया!
और फिर से हम बग्घी में बैठ गए! न जाने मुझे ऐसा लगा था कि मैं वहां पहले कभी आया था, कभी, जुड़ा था इस जगह से....
हम चल पड़े थे जानेर के घर के लिए! रास्ते में तालाब पड़ा, तालाब किनारे कुछ मन्दिर भी पड़े! कुछ लोग भी, फूलों से लदे हुए पौधे भी, पेड़ भी! पीले रंग की तो बहार थी वहां पर! हर तरफ, बूटे वाले, गोल गोल से फूल! जैसे बड़ी बड़ी कंदीलें लटका दी गयीं हों उन पेड़ों पर!
"आ गए!" बोला जानेर!
मैंने सामने नज़र भरी, एक आलीशान सी इमारत बनी हुई थी, लाल रंग के पत्थरों की! ऐसी जैसे कुछ हवेलियां हुआ करती हैं!
"अच्छा!" कहा मैंने,
और वो बग्घी अंदर जा लगी एक जगह! घर में सभी वहीँ खड़े थे! कुछ लड़कियां और औरतें पूजन की सामग्री लिए, थाली, दीया, टीका लिए खड़ी थीं, कुछ घर के अन्य लोग भी! मैं उतरा तो सभी ने हाथ जोड़ अभिवादन किया मेरा! और उसके बाद, उन स्त्रियों ने कुछ पूजन सा किया, मुझ पर चावल बिखेरे और चन्दन आदि से टीका किया गया! सच कहता हूं, उस समय मैंने अपने आप को बहुत ही भाग्यशाली समझा!
"आओ हरबेर्टो!" बोला जानेर,
"हां, चलो!" कहा मैंने,
हम सीढ़ी चलते हुए, ऊपर की मन्ज़िल पर आ पहुंचे! यहां नीचे, शायद आम के पेड़ लगे थे, पक्षी चहचहा रहे थे! बड़ा ही खूबसूरत सा समा था उस वक़्त!
"बैठो!" बोला वो,
और एक शानदार सी, शाही सी कुर्सी पर बिठा दिया उसने मुझे! मैं भी बैठ गया और वो भी!
सबसे पहले गरम गरम दूध परोसा गया! इसमें सभी मावे-पिस्ते डाले गए थे! एक यूरोपियन के लिए तो सपने जैसा और कहां नसीब होने वाला सामान था! दूध ऐसा शानदार कि मैंने उस जैसा पेय, कदापि नहीं पिया था!
"बहुत बढ़िया है!" कहा मैंने,
"केसर है इसमें!" बोला वो,
"तभी!" कहा उसने,
"और पिस्ते भी, ये सब यहीं के हैं कुछ और हैं वे सब व्यापारी लाया करते हैं!" कहा उसने,
"अरबी?" पूछा उसने,
"नहीं, अफ़गानी!" बताया मैंने,
"अच्छा!" कहा मैंने और गिलास ख़तम कर दिया!
"और?" पूछा उसने,
"नहीं, बस!" कहा मैंने,
उसने भी गिलास रख दिया अपना वहां!
"बड़ी ही प्यारी जगह है!" बोला मैं,
"हां, अलग ही है!" कहा उसने,
"और कौन कौन हैं इधर?" पूछा मैंने,
"सभी हैं!" बोला वो,
"कौन?" पूछा मैंने,
''बड़े भाई, उनका परिवार! मेरे माता जी और पिता जी! और मेरी धर्मपत्नी!" बोला वो,
"अच्छा अच्छा!" कहा मैंने,
"आओ हरबेर्टो!" बोला वो,
"कहां?" पूछा मैंने,
"ऊपर, छत पर!" बोला वो,
"चलो फिर!" कहा मैंने,
और हम दोनों ही छत पर आ गए, छत बड़ी ही लम्बी-चौड़ी थी! वहां भी कुछ कमरे बने हुए थे, ऐसे ही एक कमरे में हम चले आये!
"ये मेरा ख़ास कमरा है!" बोला वो,
"ख़ास?'' पूछा, मैंने,
"हां! मेरे दोस्त हरबेर्टो को लिए!" बोला वो,
और हटा दी चादर एक जगह से, वहां शराब की बेहतरीन, पुर्तगाली शराब, रखी हुई थी! कई बोतलें थीं! अच्छा इंतज़ाम किया था उसने! मैं उसे देख मुस्कुरा पड़ा!
"अभी?" बोला वो,
"शाम होने दो!" बोला मैं,
"क्या? शाम?" बोला हंसते हुए वो,
"और क्या!" कहा मैंने,
"अरे नहीं हरबेर्टो!" बोला वो,
और वो तभी के तभी बाहर की तरफ चल पड़ा, मैं देखता रहा उसको जाते हुए!
और फिर करीब दस मिनट बाद वो वापिस आया, साथ उसके दो और आदमी थे, कुछ सामान पकड़े हुए, और कुछ लोग और भी चले आये थे, कुछ औरतें भी और कुछ लड़कियां भी! मुझे कुछ समझ नहीं आया था! तभी जानेर अंदर आया, और उन दोनों से सामान रखवा दिया वहीँ! और लौट गए!
"जानेर?" कहा मैंने,
"हां?" बोला वो,
"आज कौन सा त्यौहार है?" पूछा मैंने,
"दीवाली!" बोला वो,
"दीवाली?" बोला मैं,
"हां, लक्ष्मी-गणेश पूजन!" बोला वो,
और फिर मेरे पूछने पर, सबकुछ बताया उसने! ये सब पौराणिक था और सच कहो तो मुझे ऐसे विषय बहुत ही अच्छे लगते हैं! तो मुझे बेहद ही अच्छा लगा!
"बाग़ दिखाऊंगा अभी अपने!" बोला वो,
"बाग़!" कहा मैंने,
"हां, फलों के बाग़!" बोला वो,
"क्या बात है जानेर! बहुत बढ़िया!" बोला मैं,
"एक काम करें?" बोला वो,
"क्या?" पूछा मैंने,
"क्यों न बाग़ में चलें?" बोला वो,
"ये बढ़िया!" कहा मैंने,
"आओ फिर!" बोला वो,
और मेरा हाथ पकड़, नीचे ले चला, नीचे आये तो कई छोटे से बच्चे मुझे देख हंसने लगे! शायद मेरा जैसा आदमी उन्होंने पहली बार ही देखा था! वो हंसते तो मुझे ख़ुशी होती, मैं भी उनकी तरह से ही हरकतें करता!
जानेर ने दो आदमियों को बुलाया और कुछ कहा उन्हें, उन्होंने सुनी और वे चल पड़े उस हवेली के ऊपर! मैंने देखा, कि उस हवेली में जगह जगह, तेल भरे दीये रख दिए गए थे, जब सभी जलाये जाते तो कैसा अनुपम सा दृश्य होता वो!
"आओ!" बोला वो,
"हां!" कहा मैंने,
हम चलने लगे कि...
"जानेर?" आयी आवाज़,
पलट कर देखा तो ये शायद जानेर के पिता जी थे, बूढ़े से लेकिन, अभी तक ताक़त भरा जिस्म! मुझे देख, मुस्कुराये!
"खाना?" बोले वो,
"हरबेर्टो?" बोला वो,
"हां?" कहा मैंने,
"खाना?" पूछा उसने,
"अभी नहीं!" कहा मैंने,
उसने भी मना कर दिया अपने पिता जी से और हम आगे चले गए! अब बाग़ में बनी एक कोठी पर पहुंचे, बाहर कुर्सियां बिछाई गयी थीं, के बड़ी सी मेज़ भी थी! और फल भी काटे जा रहे थे!
"बैठो!" बोला वो,
"हां!" कहा मैंने,
और तब, मेरे सामने एक छीका रख दिया गया, इसमें अंगूर, सूखे-मेवे और पिस्ते रखे थे! ख़ुशबू उड़ रही थी!
"लो?" बोला वो,
"हां!" कहा मैंने,
और दो अंगूर ले लिए, ये काले, लम्बे से बढ़िया और मोटे अंगूर थे, खाये तो रस से भरे! बड़े ही मीठे थे!
"ये यहीं होते हैं?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोला वो,
"फिर?" पूछा मैंने,
"ये दक्षिण से आता है!" बोला वो,
"समझ गया!" कहा मैंने,
"ये लो?" बोला वो,
और सामने मेरे चिलगोज़े बढ़ा दिए! मैंने ऐसे चिलगोज़े नहीं देखे थे, जो देखे थे, उनका रंग दूसरा था और आकार में छोटे भी थे!
मैं वो चिलगोज़े छील कर खाने लगा था, बड़े ही मीठे से थे ज़ायके में! यूरोप में इनकी बहुत मांग रहा करती है! और जो मिलता है सामान, वो इतना ताज़ा और शुद्ध नहीं मिलता था! यहां से ही ऐसा सामान आगे जाया करता था! भारत का व्यवसायिक बाज़ार बड़ा समृद्ध और फैला हुआ था!
"अर्णव?" मुझे आवाज़ सी आयी,
"अर्णव?" फिर से आवाज़ गूंजी एक!
मैंने कोशिश की कि ये आवाज़ आयी कहां से भला!
"अर्णव?" मुझे हिलाया गया, तो मेरी आंखें खुल गयीं! लेकिन मैं वहां तो नहीं था! मैं तो कहीं और था, मेरा मुंह चल रहा था, हाथ में जैसे मैंने चिलगोज़े पकड़ रखे थे!
"अर्णव?" ये मेरी माता जी थीं!
"हरबेर्टो!" कहा मैंने,
"क्या?'' बोलीं वो, चौंकते हुए!
"हां, मैं हरबेर्टो हूं!" बताया मैंने,
अब जो डॉक्टर था साथ उनके, वो भी चौंक पड़ा! मैं उनके हिसाब से अटपटी और बे-सर-पैर की बातें कर रहा था!
"कोई सपना देख रहे हो?" पूछा उस डॉक्टर ने,
"सपना? क्या पूछ रहे हो?" ये मैंने उस समय, खालिस, पुरानी डच भाषा में कहा! वे एक शब्द भी न समझ सके!
"बाहर आओ सपने से!" बोला डॉक्टर,
"तुम सब, अभी यहां से निकल जाओ! इसे आदेश समझो!" अब मैंने हिंदी भाषा में कहा!
मेरी इस बात से वे सभी चौंक पड़े, एक दूसरे को देखा और तब डॉक्टर ने मेरे कन्धे पर हाथ रखने की कोशिश की, तो मैंने नहीं रखने दिया! मुझे के पल को बेहद ही गुस्सा आया!
"सपने में कहां हो?" बोला वो डॉक्टर,
"क्यों?" पूछा मैंने,
"बताओ तो?" बोला वो,
"खम्भात में!" कहा मैंने,
"खम्भात? गुजरात?" बोला वो,
"पता नहीं!" बोला मैं,
"बताओ?" बोला वो,
"कैम्बे की खाड़ी के पास के एक गांव में!" कहा मैंने,
"किसके साथ?" पूछा उसने,
"अपने दोस्त के!" बताया मैंने,
"कौन दोस्त?" पूछा उसने,
"जानेर!" कहा मैंने,
"जानेर?" बोला वो,
"हां, यही!" कहा मैंने,
"और कौन सी भाषा बोल रहे हो?" बोला वो,
"अपनी मातृ-भाषा! क्यों?" पूछा मैंने,
"कौन सी मातृ-भाषा?" पूछा उसने,
"डच!" बोला मैं,
"डच?" वो रहा अब अवाक!
"हां!" कहा मैंने,
"तुम कौन हो?" पूछा उसने,
"आप बोलो!" कहा मैंने,
"क्षमा कीजिये! आप?" बोला वो,
"हरबेर्टो!" कहा मैंने,
"पेशा?" पूछा उसने,
"क्यों?" पूछा मैंने,
"बताइये तो?" बोला वो,
"सेकंड हाईएस्ट रैंक!" बोला मैं,
"ओह....समझा!" बोला वो,
"वाइसरॉय हैड-ऑफिस!" कहा मैंने,
डॉक्टर सन्न रह गया था, लेकिन मुस्कुराहट बनाये रख सका, उसका करियर लम्बा था, मैंने अनुमान लगाया!
"इन्हें जानते हो?" पूछा उसने, इशारा करते हुए मेरी माता जी की तरफ!
मैंने उन्हें गौर से देखा...कोशिश की जानने की, पहचानने की, लेकिन...
"नहीं!" कहा मैंने,
"कहीं नहीं?" बोला वो,
"नहीं!" बोला मैं,
"कभी नहीं?" पूछा उसने,
"ये क्या बकवास है? कहा न? नहीं?" चीख कर बोला मैं!
डॉक्टर वहीँ खड़ा रहा, हां, वो, 'स्त्री' कमरे से निकल भागी बाहर! डॉक्टर भी गया और मैं उसी रास्ते, दरवाज़े को देखता रहा! फिर तीन लोग अंदर आये, चौथा वो डॉक्टर!
"तो हरबेर्टो?" बोला डॉक्टर,
"हां?" कहा मैंने,
"कहां रहते हो?" बोला वो,
"हैड-क्वार्टर के आवासीय-क्षेत्र में!" कहा मैंने,
"कहां है ये?" पूछा उसने,
"कोच्चि!" कहा मैंने,
"और खम्भात?" बोला वो,
"किसी काम से आया हूं!" बताया मैंने,
"कहां से?" पूछा उसने,
"सुनो? तुम कोई भी हो, अब निकल जाओ इस कमरे से बाहर, इस से पहले कि मैं तुम्हें गिरफ्तार करवा दूं!" कहा मैंने,
"किस से?" पूछा उसने,
"रॉयल-गार्ड्स!" बोला मैं,
"मुझे?" बोला वो,
"सभी को!" कहा मैंने,
"कहां हैं?" पूछा उसने,
"आ जाएंगे!" बताया मैंने!
