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Alive Death-Notes of a Dead Patient! Reason of Death -: Bi-Polar Aggression...2015

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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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  मित्रगण! ये घटना एक अजीब सी, गुत्थी लिए, विज्ञान के लिए अनूठी एवं क्या नाम दिया जाए, ये भी मुश्किल ही हो, कुछ इस प्रकार की है! ये अपनी मृत्यु से एक वर्ष के समय के भीतर लिखे गए नोट्स हैं! ये कहीं भी तरतीब से नहीं लिखे गए,ये कहीं कहीं बाइबिल पर, कहीं गीता पर, कहीं, मेडिकल-प्रीस्क्रिप्शन्स के कागजों पर, कहीं कुछ उपलब्ध कागजों पर लिखे गए हैं! क्रमशः को हटाने के लिए या आगे बढ़ने के लिए एक तीर का ही निशान बनाया गया है! मुझे ये नोट्स कैसे मिले, ये मैं बाद में बताऊंगा! ये घटना, जो मैंने पाया है, हमारे देश के कुल तीन स्थानों पर ही घूमती है, पहला देहरी-ऑन-सोन, दूसरी इलाहबाद और तीसरा कोच्चि और इसके इर्द-गिर्द के कुछ स्थान!
ये घटना क्या है? किस विषय में है? मृतक ने क्या कहना चाहा है? क्या सम्बन्ध हैं ऐसे? किस विषय में? ये सब आप ये पढ़ कर ही पता लगा सकते हैं! ये नोट्स भी, अंग्रेजी भाषा में और पुर्तगाली भाषा में हैं! मृतक का, कोई सम्बन्ध पुर्तगाल से कभी नहीं रहा, परन्तु जिस प्रकार से उसने इस भाषा का प्रयोग किया, उसे देख मैं बेहद ही हैरान हुआ! मृतक का नाम, अर्णव है, आयु, मृत्यु समय मात्र चौंतीस वर्ष थी....ये नोट्स, न केवल सोचने पर विवश करते हैं, बल्कि कोई कैसे खेल खेलता है, ये भी सोचने पर विवश करता है! आइये, मैं आपको इस गाथा में अंदर तक ले जाता हूं, प्रारम्भ से अंत तक! पेश है :-

Alive Death-Notes of a Dead Patient! Reason of Death -: Bi-Polar Aggression.

मैंने इसको अलाइव क्यूं लिखा? ये भी आप जान ही जाएंगे! 
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"मुझे देर तो नहीं हुई?" पूछा शहरयार जी ने,
"नहीं, कुछ ज़्यादा नहीं!" कहा मैंने,
"ये है वो आखिरी फाइल!" बोले वो,
"अच्छा! कब मिली?" पूछा मैंने,
"पांच बजे निकल गया था!" बोले वो,
"और मिला कौन?" पूछा मैंने,
"अनुपमा जी!" बोले वो,
"ज़्यादा देर तो नहीं लगाई?" पूछा मैंने,
"नहीं, मुझे बिठाया, चाय की पूछी और ये फाइल दे दी, मैं लेकर, चला आया, बाकी आप जानते ही हैं, ट्रैफिक!" बोले वो,
"हां, ये तो है!" मैंने वो फाइल खोलते हुए कहा,
"ये सन निन्यानवे की है!" बोले वो,
"जिस साल, अर्णव की मौत हुई!" कहा मैंने,
"हां!" बोले वो,
"इसमें भी कुछ मानसिक-रोग से पीड़ित होना ही बताया गया है!" कहा मैंने,
"बताया था न?" बोले वो,
"हां, याद है!" कहा मैंने,
"बाई-पोलर अग्रेशन!" बोले वो,
"इसमें दो मतलब हैं!" कहा मैंने,
"हां, शायद अवसाद से उतपन्न क्रोध?" बोले वो,
"हां, कुछ कुछ!" कहा मैंने,
"ये भला कैसा रोग है?" बोले वो,
"ये विकृति है!" कहा मैंने,
"घर में तो और किसी को नहीं?" बोले वो,
"ज़रूरी नहीं कि सभी को हो?" कहा मैंने,
"ऐसा?" बोले वो,
"हां!" कहा मैंने,
"अरे हां!" बोले वो,
"क्या हुआ?" पूछा मैंने,
"वो, अनुपमा जी ने फोटो भी दी थी अर्णव की!" बोले वो,
"कहां है?" पूछा मैंने,
"गाड़ी में, अभी लाया!" बोले वो,
वे उठे, चाबी ली और चले बाहर की तरफ! मैंने फाइल पर नज़र डाली, कुछ दवाइयां और थैरेपीज़ आदि का ब्यौरा था, मुझे इसके बारे में कुछ पता नहीं, एक हैं अपने डॉक्टर साहब, वे ही मदद कर दिया करते हैं!
इतने में ही वे आ गए, बैठे और एक लिफाफा मुझे सौंप दिया, मैंने खोल कर देखा! वो एक मज़बूत कद-काठी का, गोरा-चिट्टा, हंसमुख सा, और अलमस्त रहने वाला था युवक लगता था! उसके बाल कुछ लम्बे से, गले में, एक चैन पहन रखी थी! चेहरा चौड़ा और भरा-भरा सा था! जिस जगह उसकी ये फट खींची गयी थी, वो अवश्य ही कोई समुद्री किनारा था, पीछे बोट दिखाई दे रही थीं!
"सुनो?" कहा मैंने,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"जी?" कहा उन्होंने,
"ये तस्वीर कब की है?" पूछा मैंने,
"पीछे लिखा होगा?" बोले वो,
मैंने तब ही पीछे देखा उस तस्वीर के, उस पर उन्नीस जुलाई सन उन्नीस सौ सत्तानवें लिखा था, इसका अर्थ ये था किये तस्वीर तभी, इसी दिन ली गयी थी, तस्वीर में और कोई नहीं था, वो अकेला ही था, साथ कौन था, पता नहीं, ये तस्वीर, समुद्री बीच पर घूमने वाले फोटोग्राफर्स में से एक ने ली हो, सम्भव था!
"इसमें इसकी उम्र बत्तीस ही होगी?" पूछा मैंने,
"हां, होनी चाहिए!" बोले वो,
"अर्णव के पिता माने हुए आर्किटेक्ट हैं, और अर्णव ने भी यही क्षेत्र चुना था, इसमें कोई संशय नहीं, ये पारिवारिक परम्परा से जुड़ा हो और ये अर्णव, कुछ अमीनों में परम्परावादी रहा हो?" कहा मैंने,
"सम्भव है!" बोले वो,
"उस समय, मेरा मतलब अर्णव की मौत के समय परिवार में कौन कौन था?" पूछा मैंने,
"जी उसके पिता, दिवाकर साहब, माता जी, माला देवी, एक छोटा भाई, सम्भव और दो बड़ी बहन, एक अनुपमा और दूसरी, नीता!" बोले वो,
"अब यहां अनुपमा और सम्भव हैं?" पूछा मैंने,
"हां नीता, अपने पति के साथ, दुबई में रहती हैं, सम्भव, शादी के बाद से, यहीं दिल्ली में रह रहा है, वो भी आर्किटेक्ट ही है!" बोले वो,
"और दिवाकर जी एवम माला देवी?" पूछा मैंने,
"दिवाकर जी की मौत अपने बड़े बेटे अर्णव की मौत के डेढ़ वर्ष बाद ही हर्ट-अटैक से ह गयी थी, माला देवी वर्ष दो हज़ार चौदह तक ज़िंदा रहीं और श्वास-सम्बन्धी रोग से लम्बी पीड़ित होने के पश्चात उनकी मृत्यु हुई..." बोले वो,
"और दिवाकर जी की मृत्यु कहां हुई?" पूछा मैंने,
"देहरी-ऑन-सोन!" बोले वो,
"बिहार!" कहा मैंने,
"जी!" बोले वो,
"क्या वे मूल रूप से बिहार से थे?" पूछा मैंने,
"नहीं, इलाहबाद से!" बोले वो,
"तो हां कार्यवश या आजीविकावश बस गए होंगे?" कहा मैंने,
"हां जी!" बोले वो,
''और ये माला देवी जी?" पूछा मैंने,
"इलाहबाद" बोले वो,
"समझा!" कहा मैंने,
चाय आयी, और हम चाय पीने लगे, ये मामला मुझे मिला था एक जानकार के द्वारा, वे इस मामले को लेकर, खासे परेशान रहे थे, ये जानकार, उन्हीं दिवाकर जी के परिवार से सम्बन्ध रखते हैं, तभी वो सारे कागज़ मुझे मिल पा रहे थे!
थोड़ी देर मैं इस मामले के मोटे मोटे पहलूओं पर गौर करता रहा, कुल मिलाकर, जोड़ता रहा ये मामला, कुछ समझ आता और कुछ वहीँ आकर रुक जाता!
"एक बात बताइये?" पूछा मैंने,
"जी?" बोले वो,
"कोच्चि से इस परिवार का कुछ लेना देना?" पूछा मैंने,
"बिलकुल भी नहीं!" बोले वो,
"तब ये फोटो? समुद्र?" पूछा मैंने,
"ये पांडिचेरी का है!" बोले वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"तब ये सब गए थे वहां घूमने!" बोले वो,
"हम्म! कभी अकेला कहीं गया ये अर्णव?" पूछा मैंने,
"नहीं, कभी नहीं!" बोले वो,
"मतलब कोच्चि से कोई लेना-देना नहीं?" कहा मैंने,
"नहीं, कुछ नहीं!" बोले वो,
"तब ये पुर्तगाली भाषा?" पूछा मैंने,
"यही समझ नहीं आयी किसी को भी!" बोली वो,
"किसी ने पढ़ी भी नहीं?" पूछा मैंने,
"पढ़ी!" बोले वो,
''क्या था? विषय?" पूछा मैंने,
"इसमें कुछ विचार थे, कुछ गुस्से के, जैसे किसी को धमकाया जा रहा हो!" बोले वो,
"कौन था जिसको धमकाया जा रहा था?'' पूछा मैंने,
"ये नहीं पता!" बोले वो,
"काल्पनिक मान लिया गया होगा! कभी पुर्तगाली पढ़ी होगी, ऐसा लिख दिया गया होगा! यही न?'' कहा मैंने,
"हां, यही बात लगती है!" कहा उन्होंने,
"मतलब मरीज़ का इलाज करो, मर्ज का नहीं, वो खुद ही ठीक हो जाएगा!" कहा मैंने,
"जी, यही सब!" बोले वो,
मैंने फाइल बन्द की और रख दी एक तरफ! वो तस्वीर फिर से एक बार गौर से देखी! अर्णव अभी भी जोश से भरा दीखता था, कुछ कहना चाहता हो, लगता था!


   
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श्रीशः उपदंडक
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दो दिन बीत गए, मेरे मन में यही सब चलता रहा! ऐसा सम्भव है कि व्यक्ति को जीते जी, किसी पूर्व-जन्म की कुछ घटनाएं याद आएं, या वो उसको छूकर जाएं! सम्मोहन की विधि इस कार्य को कर सकती है, परन्तु सम्मोहन को प्रामाणिक आधार नहीं बनाया जा सकता! शायद इसीलिए इस पूरे मामले में कहीं भी सम्मोहन का उल्लेख नहीं था, न ही थेरेपी के तौर पर भी! अर्णव के साथ भी कुछ ऐसा ही था? जहां तक मैंने पढ़ा, नहीं, उसके साथ ऐसा कदापि नहीं हुआ था, वो एक अच्छा स्पोर्ट्समैन था, हंसमुख युवक था, ज़िंदादिल इंसान क़िस्म का! जो कुछ कुछ लापरवाह से हुआ करते हैं, कुछ इस तरह का! फिर ऐसा अचानक क्या हुआ था उसके साथ? चिकित्सकों ने तो बाई-पोलर सिंड्रोम कह कर, लिख कर उसको हैवी-सेडेटिव्ज़ देना ही जैसे एक मात्र इलाज किया गया था! वो जो भी कहता था, कभी नहीं लिखा गया था, चिकित्सक इसे, कुछ मायनों में, पागलपन की ही स्थिति मानते थे! और देखा जाए तो तब से आज तक, इसके उपचार का तरीक़ा नहीं बदला, इलाज भी वही, तरीक़ा भी वही और दवाएं भी वहीँ! बदला तो धन का ढेर! अब धन अधिक लगता है, चूंकि अत्याधुनिक मशीनें आ गयी हैं, परीक्षण के लिए!
जहां तक मैंने पढ़ा, अर्णव के साथ ये समस्या सन सत्तानवें की सर्दियों से होना शुरू हुई थी! उस रात पहली बार उसे, अस्पताल ले जाना पड़ा था, उसकी ह्रदयगति अचानक से बढ़ गयी थी, हाथ-पांव, सुन्न से पड़ने लगे थे, बार बार बेहोशी के एपिसोड पेश आने लगे थे! तब डॉक्टर्स ने पूरी जांच की और करीब तीन दिन दाखिल रखने के पश्चात उसको छुट्टी दे दी गयी! बस! यहीं से अर्णव की ज़िन्दगी में ग्रहण लग गया था! यहीं से अर्णव, अर्णव ही न रहा था! आये दिन अस्पताल आना, रात-बेरात, उसको दाखिल करना ये अब सब सामान्य सा हो चला था! कुछ दूसरे इलाज भी हुए, कुछ अलग पैथियां भी और ऊपरी भी, लेकिन कोई काम नहीं आया, और अर्णव, कुएं में जैसे गहरे गिरना, ज़ारी किये रखा या रखना पड़ा!
मैं उस मरीज़ की स्थिति समझ सकता हूँ जो, दिन भर, रात भर नींद की गोलियों के सहारे, बेजान सा, बिस्तर से बंधा रहे, उम्र हो तो कोई बात नहीं, लेकिन बत्तीस की उम्र में ये सब? मेरा मन खट्टा सा हो उठा था, लेकिन दोष किसे दिया जाए, खट्टापन कहां उगल जाए, कोई जगह ही नहीं थी!
जनवरी सन अट्ठानवें तक आते आते, अब उसका घर से नाता ही जैसे टूट चुका था, वो अस्पताल में, एक कोने के कमरे में, बस पड़ा ही रहता था, पड़ा रहता था या फिर, अकेला ही, अपनी मौत का इंतज़ार करता रहता था, एक तो वो दुखी था, अपने आप से, और दूसरा जो दवाएं उसको दी गयीं थीं, उनसे वो अशक्त भी हो गया था! इसी एक साल में, उसने वो बातें लिखना शुरू कीं, जो वो अब कह नहीं सकता था, ज़ुबान खुलती नहीं थी, अटक जाती थी, साफ़ बोली निकलती नहीं थी....उसने लिखने के लिए जो मांगावो दिया गया! और ये कुछ नोट्स उसने लिखे! पढ़ने में, और उन्हें हाथ में पकड़ने में, लगता है, कि अर्णव यहीं कहीं पास ही खड़ा है, मुस्कुराता हुआ कि कम से कम किसी ने तो उसको जानने की कोशिश की, भले ही उसके मरने के पश्चात ही सही....
नोट नम्बर एक..सबसे पहला...
ये शाम का वक़्त है, मार्च छब्बीस का, ये तारीख भी मुझे, मेरे एक सहायक ने ही, पूछने पर ही बताई है! बाहर की जो, दो खिड़कियां हैं, वो मैंने खुलवा दी हैं! अब कुछ ठंडा सा होने लगा है ये कमरा! और मैं, अपने बिस्तर पर, कन्धे ऊंचे रखे न तो बैठा ही हूं और न ही लेता ही हूं..
मैं सोया हुआ था, मुझे फि से वही आवाज़ आयी! एक बार फिर से, मुझे एक आवाज़ आती है, बड़ी ही अजीब सी, मुझे सुनाई देता है कि जैसे कोई एक कमरा हो, बहुत ही बड़ा, बहुत ही बड़ा, जिसमे एक दरवाज़ा ये, दरवाज़ा नहीं है, पत्थर की चौखट ही है, नीचे के लिए सीढ़ियां हैं, एक ये चौखट और एक थी मेरे सामने करीब डेढ़ सौ फ़ीट दूर एक चौखट, बिलकुल इसी जैसी, और अब जो दीवारें बनी हैं, इनमे चार चार चौखटें हैं, हर एक चूखत के साथ, दो जाले से, दो झरोखे से, जो कि गोल हैं, जिन पर, लाल, पीले, नीले, हरे और जामुनी रंग के कांच के शीशे लगे हैं! अब वो आवाज़! मुझे आवाज़ आती है कि, जो वो कमरा है, उसमे पानी भरा है, किसी स्विमिंग-पूल की तरह! उस पूल का तला नीले औए सफेद से रंग की टाइल्स का बना है, ऐसा लगता हैं, वो अपनी एकदम शांत है! और अचानक से उस पानी में कोई कूदता है, आवाज़ होती है, मेरी आँखें बन्द सी होने लगती हैं और जब खुलती हैं तब वहां कोई नहीं होता..पानी एकदम फिर से शांत!
"बटर लगाऊं?" बोला वो जीत, मेरा सहायक,
"हां" कहा मैंने,
"और कॉफ़ी या चाय?" पूछा उसने,
"कॉफ़ी!" कहा मैंने,
कॉफ़ी! ये मुझे कभी पसन्द ही नहीं थी, लेकिन पिछले एक महीने से मुझे इसकी गन्ध, स्वाद बेहद ही अच्छा लगने लगा है! मैं शाम के इस वक़्त, कॉफ़ी ही लेता हूं अब, एक स्लाइस और एक कप कॉफ़ी, भूख का क्या कहूं? लगे तो लगती जाए और न लगे तो तीन दिन गुज़र जाएं! 
तभी एक कबूतर अंदर चला आया, उस बन्द पड़ी वार्डरॉब पर बैठ गया, और गुटर-गूं शुरू  उसकी!
"नहीं जीत! बैठे रहें दो उसे!" कहा मैंने,
और मैं उसे देखता रहा! वो गर्दन हिलाता और शोर मचाये जाता! कुछ देर ऐसे ही रहा और फिर, फुर्र से उड़ गया, चला गया बाहर!
मेरी नज़र खिड़की से बाहर गयीं, हरियाली से लरजते हुए बड़े बड़े पेड़! परिंदे अपने आशियाने सजाते हुए से, आते जाते सब देखने लगा था मैं, उस बिस्तर पर लेटे लेटे!


   
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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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इतना पढ़, मैंने वो नोट बन्द किया! ये नोट किसी टूटे हुए, हारे हुए इंसान का नहीं था, जीवन के प्रति रूचि वही रख सकता है जो इसको जीना चाहे, भरपूर! पहले पृष्ठ से मुझे इसका अर्थ समझ आने लगा था! हां कुछ अजीब सी बात तो ज़रूर पकड़ी थी मैंने, पिछले एक महीने से वो, चाय के बजाय कॉफ़ी पसन्द करने लगा था, जबकि कॉफ़ी उसे पसन्द नहीं थी, ये अभिरुचि में बदलाव था!
"उसने लिखा है कि कॉफ़ी उसे पसन्द आने लगी है, गन्ध भी उसकी!" कहा मैंने,
"हां ये तो अजीब है, कोई कारण?" बोले वो,
"अभी तो कुछ नहीं कह सकता!" कहा मैंने,
"और हां, वो एक बड़ा सा स्विमिंग-पूल?" कहा मैंने,
"हां, ये अजीब सा है!" बोले वो,
"अर्णव के अनुसार, बताई हुई स्थिति से ही देखा जाए तो इस तरह का स्विमिंग-पूल तो मैंने कहीं नहीं देखा, न सुना!" कहा मैंने,
"ये कोई हमाम तो नहीं?" बोले वो,
'सम्भव है, लेकिन हमाम ऐसा नहीं होता!" कहा मैंने,
"हां, उसमे खम्भे हुआ करते हैं!" बोले वो,
"ये ज़रूरी नहीं!" कहा मैंने.
"हां, ये भी है!" बोले वो,
"और वो नीले, पीले आदि रंग के कांच?" पूछा मैंने,
"आप बताएं?" बोले वो,
"ये यूरोपियन सा लगता है!" कहा मैंने,
"हां, अक्सर वहां ऐसा होता रहा है!" बोले वो,
"एक बात और!" कहा मैंने,
"वो क्या?" बोले वो,
"अर्णव ने लिखा, गोल जाले, झरोखे!" कहा मैंने,
"हां?" बोले वो,
"ये चौकोर डिजाईन गॉथिक शैली है, लेकिन कहीं कहीं ये गोल से झरोखों में भी है! खासतौर से, स्पेन और.........!!" बोलते बोलते रुका मैं! अनजीने में ही एक कड़ी जैसे हाथ आ लगी थी!
"पुर्तगाल में! यही न!" बोले वो,
"हां! और वो पुर्तगाली में भी लिखता था!" कहा मैंने,
"हां, समझ गया!" बोले वो,
"तब वो अवश्य ही कोई न कोई पुर्तगाली कोण है इसमें!" कहा मैंने,
"तो वो आवाज़ सुनता था?" बोले वो,
"हां, पानी की आवाज़!" कहा मैंने,
"कोई तेज स्प्लैश?" बोले वो,
"लिखता तो यही है वो!" कहा मैंने,
"बड़ा ही उलझा हुआ सा मामला है!" बोले वो,
"मामला कोई नहीं!" कहा मैंने,
"फिर?" बोले वो,
"पहेली!" कहा मैंने,
"हां, सो तो है ही!" बोले वो,
"इस जगह के बारे में कुछ लिखा उसने?" पूछा उन्होंने,
"नहीं, अभी नहीं पढ़ा!" कहा मैंने,
"ठीक, आप पढिये, शाम को आता हूं!" बोले वो,
"हां, ठीक!" कहा मैंने,
और वे उठे, चले गए फिर! मैं वापिस अपनी कुर्सी पर आ बैठा और नोट खोल लिया वहीँ से! और पढ़ना शुरू किया!
"ठीक है अर्णव! देखते हैं, क्या कहना चाहते हो आप!" कहा मैंने,
और मैंने नोट उठा कर, सर पीछे लगा लिया अपना!
नोट नम्बर एक....वही...पहले वाला..
बाहर पतंगें उड़ रही हैं! रंग-बिरंगी सी पतंगें! कितनी अच्छी लगती हैं ये पतंगें! ऊंची उड़ती हुईं! जो पल भर पहले ज़मीन पर लेटी हो, एक डोर के साथ कहां जा पहुंचती है! डोर! हां ज़रूरी भी है बहुत! और हवा! हवा ही उसको तैरायेगी! लेकिन एक बात, तवज्जो ज़्यादा किसे दी जाए? हवा को या फिर डोर को? या फिर...उस उड़ाने वाले को? पतंगबाज़ को?
इतना पढ़ा, मैंने नोट बन्द किया, उंगली बीच में रखते हुए....ये मैंने क्या पढ़ा? ये क्या लिखा उसने?
"क्या कहना चाहते हो अर्णव?" मेरे ज़हन में अचानक से सवाल गूंज उठा! मैं खड़ा हो गया, और कमरे में एक तरफ चल दिया, टेबल पर वो नोट खोल कर रख दिया...
"तुम्हारा सवाल, तवज्जो? बहुत ही मुश्क़िल सा जवाब है इसका, और पता नहीं कि जवाब है भी या नहीं!" कहा मैंने, मन ही मन!
मैंने अभी इस सवाल पर ध्यान नहीं दिया था पूरी तरह से! बाद में सोचता मैं ये सब! अभी नहीं!
नोट...ज़ारी...
वो काली पतंग! देखो कैसी शांत है! एकदम शांत ही आकाश में खड़ी है! और वो लाल सी! देखो! कैसे बार बार घूम जाती है! हैं दोनों आकाश में ही! हवा भी है, डोर भी और वो पतंगबाज़ भी!


   
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श्रीशः उपदंडक
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मैंने एक बार फिर से नोट बन्द किया! अर्णव क्या बयान करना चाहता था? किस विषय में और उसका इशारा किस तरफ था? अभी तक उसने जो लिखा, उसमे उम्मीद, आशा और ज़िन्दगी थी! बात रही पतन की, तो उसने लिखा था की फिर क्यों कोई पतंग घूमा करती है! बात कुछ मायनों तक ठीक थी! मैं समझ गया था उसका आशय!
कुछ देर बाद मैंने इस विषय पर सोचना छोड़ा और बाहर चला आया, बाहर आया तो मिला कई लोगों से, और इस तरह कुछ देर आराम किया, सांझ ढली तो शहरयार जी आ गए मेरे पास! मौसम न गर्म ही था और न ठंडा ही, हम बैठे भी कहीं और ही थे, तो दो चाय भी मंगवा ली थीं, साथ में वो मेथी और पालक वाली मट्ठियां भी!
"कहां तक पहुंचे?" पूछा उन्होंने, 
"अभी तो शुरुआत में ही हूं!" बताया मैंने,
"कुछ चूक न जाए, मुझे इस मामले में कुछ सनसनीखेज मिलने की उम्मीद है!" बोले वो,
"मुझे भी!" कहा मैंने,
"बेहतर जानता हूं!" बोले वो,
चाय आ गयी और मट्ठियां भी, हमने अब चाय पीनी शुरू की और मेरे दिमाग में कुछ सवाल उठते और बैठ जाते!
"एक बात सुनो?" कहा मैंने,
"बोलिये?" बोले वो,
"जो कुछ सम्भव ने बताया था, और अनुपमा से, क्या लगता है आपको?" पूछा मैंने.
"वो साधारण सी ही बातें हैं!" बोले वो,
"लेकिन वे सब संग ही थे उसके!" कहा मैंने,
"हां, बस यही महत्व है!" बोले वो,
"हां, सो तो है!" कहा मैंने,
बातें करते रहे हम और फिर चाय भी पी ली, उसके बाद कुछ देर बैठे, कुछ सामान लिया खाने-पीने का और चले आये वापिस!
वापिस आये तो सारा इंतज़ाम शहरयार जी ने ही किया, मैंने फिर से वो ही नोट निकाला और इस बार भी आगे पढ़ने लगा, शहरयार जी, अपने काम में ही लगे रहे!
नोट ज़ारी....पहला...
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अब शाम हो चुकी है, बाहर रोज की तरह से धुंधलका छा गया है! दूर, बत्तियां जल रही हैं! मैं अपने बिस्तर पर, जकड़ा सा, छत की तरफ देख रहा हूं, जब तक देखा जाए, देख लेता हूं, फिर आँखें बन्द कर लेता हूं!
तक़रीबन आठ या सवा आठ बजे मुझे फिर से उसी स्क्विल-फ्लावर की ख़ुशबू आयी है! मेरी आंखें खुल गयी हैं! इस ख़ुशबू से, मुझे यही एहसास होता है की कोई मेरे पास ही है! कई कई बार मैं उसको आवाज़ देता हूं! नाम तो जानता नहीं, बस कुछ इशारे ही! ये ख़ुशबू, मुझ में, एक नयी सी जान या ऊर्जा भर दिया करती है! मुझे नहीं आभास होता की मैं किसी अनजान से रोग से जूझ रहा हूं! अनजान सा रोग, जिसे ये डॉक्टर्स पता नहीं क्या क्या कहते हैं!
"कुछ चाहिए?" बोला जीत,
"नहीं जीत!" कहा मैंने,
और मैं चुप हुआ, मुझे वो गन्ध बेहद ही प्यारी और भीनी सी लग रही होती थी, हमेशा की तरफ! जब में, ठीक था, तब भी!
"जीत?" बोला मैं,
"हां?" दिया उसने जवाब,
"क्या कोई महक, या गन्ध आ रही है तुम्हें?" पूछा मैंने,
"नहीं तो?" बोला वो,
"खिड़की के पास जाओ?" कहा मैंने,
वो चला गया खिड़की के पास, सूंघ कर देखा और मुंह भी चलाया!
"नहीं, कोई नहीं!" बोला वो,
"ये तो बड़ी तेज है!" कहा मैंने,
"यहां नहीं है!" बोला वो,
"एक काम करोगे?' पूछा मैंने,
"क्या? बोलो?" बोला वो,
"इस कमरे से बाहर जाओगे?" पूछा मैंने,
"फिर?" बोला वो,
"फिर बाहर से बन्द कर देना, ठीक पन्द्रह मिनट बाद खोल देना, ठीक?" कहा मैंने,
"नहीं!" बोला वो,
"क्यों?" पूछा मैंने,
"आपको अकेला नहीं छोड़ सकता!" बोला वो,
"मैं कहीं नहीं जा रहा!" कहा मैंने,
वो फिर थोड़ा सा सोचा में डूबा! मुझे देखा, बालों में हाथ मारा, घड़ी में देखा और आया मेरे पास,
"दस मिनट!" बोला वो,
"ठीक है, दस ही मिनट!" कहा मैंने,
और वो, बाहर चला....


   
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श्रीशः उपदंडक
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तो जीत, अब बाहर चला गया है! और मैं, अकेला ही, उस महक को सूंघ पा रहा हूं! ये मेरे लिए ऐसी महक है कि जैसे, कोई बेहोश हो और उसे कोई संजीवनी का जल दे दे! मेरे कमज़ोर से शरीर में भी जान पड़ जाया करती है! मुझे जो अक्सर चक्कर आते हैं, इस महक से वे गायब से हो जाते हैं, जैसे कभी थे ही नहीं! बस कमी है तो एक! वो ये कि इस महक का मुझ से क्या सम्बन्ध है? कौन है वो? कोई तो है? कोई तो, जो इस सुगन्ध को मेरे पास तक ले आता है?
"कोई है?" मैंने धीरे से पूछा,
कोई जवाब नहीं मिला, हर बार की तरह ही!
"एक बार?" कहा मैंने,
कोई उत्तर नहीं इस बार भी!
"देखो, मैं मर रहा हूं..जानते हो न?" कहा मैंने,
तब भी कोई नहीं!
"कौन हो?" पूछा मैंने,
नहीं, कोई उत्तर नहीं!
जब कोई उत्तर नहीं मिल पाता और कुछ पलों के बाद जब ये महक चली जाती है तब मेरी आंखों में पानी आ जाता है...जैसे कि अब....
वो महक, एक ज़ोर से झोंके के साथ, चली गयी है...अब नहीं है...कहीं भी नहीं! और तब, मैं हंसने लगता हूं! मेरी हंसी सुन, जीत दौड़ कर अंदर आ जाता है!
"ठीक हो?" पूछा उसने,
"हां जीत!" कहा मैंने,
"हंस क्यों रहे हो?'' पूछा उसने,
"ऐसे ही!" कहा मैंने,
"ऐसे ही?" बोला वो,
"हां, ऐसे ही!" कहा मैंने,
तभी दरवाज़ा खुला और एक सिस्टर अंदर आयी, पिल्स-प्लेट लिए हुए! रखी एक तरफ वो प्लेट!
"कैसे हो?" बोली वो,
"अच्छा हूं!" कहा मैंने,
"कोई दर्द आदि?" पूछा उसने,
"हां!" कहा मैंने,
"कहां?" पूछा उसने,
"आत्मा में!" बोला मैं मुस्कुराता हुआ!
"अर्णव! हो जाओगे ठीक!" बोली वो भी मुस्कुराते हुए!
"हां, जानता हूं!" कहा मैंने,
"ये लो!" बोली वो,
और मुझे पिल्स-प्लेट दे दी, मैंने ले ली हाथ में, कुल आठ टेबलेट्स! चार कैप्सूल्स और चार पिल्स! मुझे हंसी भी आये और अपने नसीब पर रोना भी! मैं अर्णव! क्या से क्या होता जा रहा हूं!
और खा लीं मैंने टेबलेट्स! दे दी प्लेट आगे, वापिस सिस्टर को! सिस्टर ने मेरे सर पर हाथ रख, मेरे बाल संवारे और मुस्कुराते हुए, वापिस चली गयी!
"जीत?" कहा मैंने,
"हां?" बोला वो,
"मुझे बिठा ज़रा?" कहा मैंने,
"अभी!" बोला वो,
और बिठा दिया, मैंने टेक लगा ली पलंग के सिरहाने के सहारे और अपने कपड़े भी ठीक कर लिए!
"जीत?" कहा मैंने,
"कहो?" बोला वो,
"वो कागज़ दे?" कहा मैंने,
उसने उठाया वो कागज़ और दे दिया मुझे, मैंने उलट-पलट कर देखा, ठीक ही था वो कागज़!
"देख उधर, फर्स्ट-ड्रावर में, पेन रखा है, निकाल कर दे ज़रा?" बोला मैं,
उसने ठीक वही किया, और दे दिया मुझे,
"वो गत्ता भी!" कहा मैंने, मुस्कुराते हुए!
और उसने भी गत्ता दे दिया मुझे, मुस्कुराते हुए!
अगर आप, यहां तक पढ़कर आ गए हैं तो आप मेरे इस पहले नोट के बीच से कुछ ज़्यादा में हैं! और मैं उस कागज़ पर, नोट लिखने लगा हूं!
अचानक ही मेरे दिमाग़ में एक बात चली आयी! ये मेरे नोट्स कोई पढ़ेगा भी? या फिर मेरे साथ ही.....
खैर, शाम का हंसीन वक़्त है! दो साल पहले में, इस समय, साल के इस समय, चेन्नई में था, तब मेरे साथ मेरा एक दोस्त भी था, अब वो ऑस्ट्रेलिया में जा बसा है! कोई होश ही नहीं यहां का! कोई बात नहीं! ये ज़िन्दगी है, भले ही थोड़े वक़्त तक ही जी पाऊंगा इसे, लेकिन इसकी समझ मुझे अब होने लगी है! एक गहरी सी समझ....


   
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श्रीशः उपदंडक
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एक समझ! हां एक समझ! गहरी समझ! कोई कितना भी कन्धा ढूंढे, कितना ही अपना बनाये, आप हमेशा अकेले ही हो! अकेले! कोई नहीं है साथ, कोई नहीं आता काम, कोई भी नहीं! मेरे पापा, दिल के मरीज़, मेरी मम्मी, श्वास की मरीज़! और मैं! पता ही नहीं! कभी कभी अफ़सोस होता है मुझे, क्यों नहीं मैं साथ उनके? क्यों मैं कट गया हूं उनसे? खैर, ये समझ जितनी गहरी हो जाए, नासूर ही बन जाए! तो छोड़ देता हूं! पता नहीं अभी कितना रास्ता है काटने को! इतना काट लिया तो और भी कट जाएगा!
"ये लो!" बोला जीत,
"क्या है?" पूछा मैंने,
"सेब!" बोला वो,
"ला, रख दे!" कहा मैंने,
"फिर खाओगे नहीं?" बोला वो,
"खा लूंगा!" कहा मैंने,
"रहने दो!" बोला वो,
और मैंने तब अपना नोट लिखना बन्द कर दिया था, एक तरफ रख दिया था, तकिये की, ये जीत नहीं मानने वाला था! तो मैंने एक सेब पूरा खाया! बस, ऐसे ही अपने दिन काटते चले जाते हैं! और ऐसे ही कुछ रातें!
इसी तरह से, तीन दिन बीत गए, आज वो ही रात है, मुझे नींद नहीं आ रही, बिलकुल भी! जीत, मेरी दूसरी तरफ के बिस्तर पर बैठा था, अभी नहीं है, शायद बाहर गया है!
रात ग्यारह चालीस पर.....
"ऐसे ही बैठना है क्या?" पूछा उसने,
"नहीं, लेट जाऊंगा!" बोला मैं,
"लेटो फिर?" बोला वो,
"अभी कुछ देर और, बस!" कहा मैंने,
"मैं?" पूछा उसने,
"अपने कमरे में लेट जाओ!" बोला मैं,
"दरवाज़ा?" बोला वो,
"बन्द कर देना!" कहा मैंने,
"घण्टी?" बोला वो,
"बजा दूंगा!" बोला मैं,
"आ जाऊंगा!" बोला वो,
"जानता हूं!" बोला मैं,
रात साढ़े बारह बजे....
मुझे बैठे बैठे अलकत सी होने लगी थी, सोच रहा था की अब जा लेटूं, खिड़की से बाहर, बस अंधेरा ही था, दूर बाएं पर, एक मस्जिद थी, उसकी रौशनी जल रही थी, मैं उस रौशनी को, सोने से पहले एक बार ज़रूर देखता था!
आखिर मैं थक गया, और अपने बिस्तर की तरफ, चला उस व्हील-चेयर को आगे ठेल कर, मैं बैठ जाता था व्हील-चेयर पर, कमज़ोरी बहुत होती थी, अधिक खड़ा हो नहीं पाता था, पांवों में जान नहीं बचती थी!
मैं अपने इन्हीं पांवों को देखता था! कैसे सरपट दौड़ता था! खेलता था, सीढ़ियां उतरता था, तेज तेज चलता था! अब जैसे वो सब, झूठे से ख्वाब थे! वो दिन कभी लौटेंगे भी या नहीं, ये सोचना भी पागलपन ही था! और पागल, वो तो मैं इस अस्पताल के कागजों में दर्ज़ ही था!
मैं लेट गया! अधिक देर नहीं लगी, मेरा ध्यान फिर से कुछ देखी सी जगह जा लगी! ये लोग मुझे पुर्तगाली लगते थे, उनकी बोली भी पुर्तगाली ही थी! मैं भी उसने पुर्तगाली में ही बातें करता था! लेकिन या जगह, भारत में कहां है, इसका मुझे कोई ध्यान नहीं था! मैं ऐसे ही, उस रात, एक बड़े से पुर्तगाली झंडे के नीचे खड़ा था, सर पर मेरे पुर्तगाली टोपी थी, बड़ी सी!
"कहां से?" मुझे आवाज़ आयी, ये पुर्तगाली भाषा में ही सवाल था!
मैंने पूछने वाले को देखा, मुझे वो, मारवाड़ी सा, शराब के कुछ घूंट लिए हुए, साथ में दो, सुंदर सी, लड़कियां उसके साथ थीं! उस युवक की उम्र करीब सत्ताइस या अट्ठाइस रही होगी! उसकी दाढ़ी में, सुरमयी रंग का सा रेशम का धागा लटक रहा था, शायद कहीं से लेट कर आया था या हो!
"कहां से?" पूछा उसने दुबारा से,
"यहीं से!" मैंने उत्तर दिया,
"अकेले हो?" पूछा उसने,
"हां!" कहा मैंने,
"मैं, खम्भात से हूं!" बोला वो,
शायद, खम्बात की खाड़ी के आसपास से रहा होगा वो!
"ये जगह कौन सी है?" पूछा मैंने,
मेरे इस सवाल पर, वो दोनों लड़कियां हंस पड़ी बहुत तेज! एक मेरे पास आयी, अपनी लॉन्ग-स्कर्ट, जिस पर झालर पड़ी थी थी, ऊपर उठायी, उसकी जांघ पर नीले रंग से पुर्तगाली शब्द लिखा था, किसका मतलब समुद्री-व्यवसाय-केंद्र निकलता था!
"नाम?" पूछा मैंने,
"मेरा?" बोली वो लड़की ,
मना करना ठीक नहीं था, तो सर हिलाकर, हां ही कही मैंने,
"एल्ज़िरा!" बोली वो,
"ओब्रिगादो!(शुक्रिया!)" कहा मैंने,
"कहां जा रहे हो?" उस खम्भाती युवक ने पूछा,,
"अभी तो आया हूं!" कहा मैंने!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"कहां से?" पूछा उसने,
मेरे मुंह से उस वक़्त कुछ ऐसा नाम निकला जिसे मैं भी खुद न जानता था, सुना भी न था! मुझे उस समय लगा था कि ये वक़्त, ये घड़ियां मुझे, आगे धक्का देते जा रहे हैं! जैसे मैं सिर्फ एक मोहरा भर ही होऊं!
उस समय हवा बड़ी ही ठंडी चल रही थी, आसपास से मुझे समुद्री रेत से उठते हुए नमक की गन्ध और लहरों के संग बहते नमक की गन्ध फैली हुई थी! कई कई जगह, दूर और पास में ही, कुछ शिविर से भी बने थे, अजीब सा ही माहौल था, भुने मांस और तेज गन्ध की ख़ुशबू उठ रही थी! एक तरफ, कुछ लोग खड़े हुए थे, जैसे वे कोई टोला हो और किसी कार्य के लिए इकट्ठे हुए हों!
"खाना खाया?" पूछा उस युवक ने,
"नहीं, अभी नहीं!" बोला मैं,
"आओ फिर!" बोला वो,
और एक लड़की ने मेरा हाथ पकड़ लिया और वे तब चल पड़े एक तरफ, ये एक कॉटेज के जैसा लगता था, लकड़ी का बना हुआ था ये, अंदर एक सीढ़ी भी थी, लकड़ी की ही बनी हुई, ये सीधे ऊपर ही चली जाती थी!
"आओ! ऊपर!" बोला वो,
तो सबसे पहले, वो दो लड़कियां चढ़ीं और फिर मैं, फिर वो खम्भाती युवक! ऊपर आये, तो एक बड़ा सा बर्तन रखा था, उसमे पानी नहीं था, समुद्री सीपियां रखी थीं, और पास में एक फौजी की सी यूनिफार्म लटकी हुई थी, ये यूनिफार्म किसी साढ़े छह या सात फ़ीट के फौजी की तो रही ही होगी!
"ये कमरा!" बोला वो,
और वो अंदर चला, मैं चला, लेकिन वो लड़कियां नहीं आयीं अंदर! अंदर एक बिस्तर पड़ा था, आलीशान सा! नीचे कालीन और दीवारों पर, फूलों की चित्रकारी सी लगी थी, एक बड़ी सी तस्वीर में, कुछ समुद्री जहाज बने थे, और सबकुछ उसमे पुर्तगाली में ही लिखा था!
"क्या खाओगे?" पूछा उसने,
"जो भी!" कहा मैंने,
"ठीक! तुम अंदर जा कर, हाथ धो लो!" बोला वो और चला गया बाहर!
"हां!" कहा मैंने,
और मैं उस गुसलखाने में अंदर चला गया, पानी भरा हुआ था, यहां पीपे भरे थे, बाहर की तरफ, ऊंची सी दीवार पर, एक झरोखा था, उस से बाहर खूब शोर था! मैंने पानी का वो बड़ा सा पीपा खींचा और उस झरोखे के नीचे रखा, और उस पर चढ़, बाहर की तरफ देखा, मुझे कुछ समुद्री जहाज नज़र आये! पीछे जैसे कोई खाड़ी का सा क्षेत्र था! लोगबाग कोई न थे, शायद, खा पी कर आराम कर रहे हों, हां, कुछ छोटे समुद्री जहाजों में, बीच में जो केबिन बने थे, उनमे से रौशनी बाहर झांक रही थी!
"धो लिए?" आयी आवाज़,
मैं झट से उतर आया, और हाथ धोये, गुसलखाना बड़ा ही शानदार था, इसमें कोई शक ही नहीं!
मैं हाथ धो, अंदर चला आया, अंदर वो खम्भाती युवक, खड़ा था और एक और लड़का, उस बड़े से बिस्तर पर सफाई कर रहा था, और फिर उसने एक मेज़ लगा दी, दो कुर्सियां भी रख दीं और चला गया बाहर!
"आओ बैठो!" बोला वो,
"हां!" कहा मैंने,
और उस कुर्सी पर बैठ गया! वो कुर्सी बेहद ही बड़ी थी, चमकदार, चॉकलेट के रंग की सी, उस पर इंसान पूरा का पूरा ही धंस जाता, मेरे कन्धे उसके आधे में ही आ रहे थे!
"क्या व्यवसाय है आपका?" पूछा मैंने, उससे,
"बारूद!" बोला वो,
"बारूद?" पूछा मैंने,
"हां, यहां से खरीदता हूं और उधर बेच देता हूं!" बोला वो,
"उधर?" कहा मैंने,
"हां, उधर खाड़ी के पास ही!" बोला वो,
"नफा होता है?" पूछा मैंने,
"है, होता है!" बोला वो,
"ये पुर्तगाली लाते हैं?" पूछा मैंने,
"हां, वही!" बोला वो,
"और हथियार भी?" पूछा मैंने,
"हां, हथियार भी!" बोला वो,
तभी वो लड़का आया, एक बड़ी सी प्लेट लिए और उसमे से कुछ कटोरे, कटोरियां आदि रख दीं! और चला गया, उनके पास, बड़ी बड़ी चम्मचें, कांटे और छुरियां भी थीं! ये पुर्तगालियों की विरासत थी यहां!
"चावल?" बोला वो,
"हां!" कहा मैंने,
"मछली?" बोला वो,
"हां!" कहा मैंने,
"ये प्रॉन है!" बोला वो,
"अच्छा!" कहा मैंने.
"लोगे?" बोला वो,
"हां, ज़रूर!" कहा मैंने,
और मैंने तब पहली चम्मच उठायी, रसा लिया, चावल के साथ! बेहद ही लज़ीज़ था वो खाना! उसमे सी-वीड, सूखी हुई और पीसी हुई थी! नमकीन, ज़ायकेदार स्वाद था उसका बहुत!


   
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श्रीशः उपदंडक
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तो हमारा खाना शुरू हो गया था! खाने का स्वाद बेहद ही लज़ीज़ था! कम से कम मैंने ऐसा खाना नहीं खाया था कभी! मछली का स्वाद बड़ा ही तीखा सा और हल्की सी खटास भरा था!
"कैसा है खाना?'' पूछा उस युवक ने,
"बहुत बढ़िया!" कहा मैंने,
"मैं तो अक्सर यहीं आता हूं, यहीं ठहरता हूं और यहीं खाना भी खाता हूं!" कहा उसने,
"बढ़िया जगह है!" कहा मैंने,
"हां! अच्छा नाम क्या है आपका?'' पूछा उसने,
"अर्णव!" बताया मैंने,
"मैं जानेर!" बोला वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
तो हमने खाना खा लिया था, और मैं उस समय, बाहर की तरफ ही देख रहा था, उस कमरे से बाहर आ कर! वहां...
मेरी नींद खुल गयी! मैं चौंक पड़ा था! ये क्या देख रहा था मैं? ये कोई सपना था? अगर सपना ही था, तो ये सपना, बेहद ही प्यारा था मेरे लिए! इस सपने में, मैं एकदम ठीक था! एकदम! दिमाग से भी और शरीर से भी! तब प्यारा क्यों न होता!
दो दिन बात गए....उस शाम मेरे सर में बहुत दर्द था, आंखें नहीं खोल पा रहा था, दवाएं दे जा रही थीं, हां इतना याद है कि..उसके बाद....कुछ याद नहीं....
दो ही दिन बाद.....मेरा वही कमरा...
"कुछ याद है?" डॉक्टर सौरभ ने पूछा,
सर हिलाया मैंने, और ना ही कही...
"क्या हुआ था उस दिन?" पूछा उन्होंने,
"नहीं पता.." कहा मैंने,
"लेकिन तुम चुप तो न थे?" बोला वो,
"तब?'' पूछा मैंने,
"ऐसा लगता था कि सपने में हो आप और कोई साथ में हो!" बोला वो,
"कौन?" पूछा मैंने,
"कोई जानेर!" बोला वो,
"क्या?" मैं फिर से चौंका!
"हां, कोई जानेर था संग!" बोला वो,
"नहीं पता" कहा मैंने,
"अब ठीक हो?" पूछा उसने,
"है, ठीक हूं!" कहा मैंने,
"कोई दिक्कत?" पूछा उसने,
"कोई नहीं" कहा मैंने,
"इंजेक्शन दे रहा हूं, आराम की सख्त ज़रूरत है!" बोला वो,
मैंने हां ही कही, धीरे से, इंजेक्शन, दवाएं, यही तो बस ज़िंदा रखे हुए थीं मुझे, ये भी न होतीं तो क्या होता! या मेरा मानना ही कुछ ऐसा था या हो चुका था!
तो इंजेक्शन दिया गया मुझे, और मैं कुछ ही देर बाद सो गया...या फिर दवा का असर हो गया था!
समय पता नहीं, क्या हुआ हो, कह नहीं सकता....
वो एक प्यारी सी सुबह थी! बहता हुआ पानी, मुझे यही लगता था लेकिन वो लहरों को खदेड़ती हुई समुद्री हवा थी! वो एक किनारा तो था, लेकिन कोण बनाता हुआ, मेरे सामने ही एक बड़ा सा पत्थर था, मैं आगे चला, उस पत्थर को पार किया, सामने का नज़ारा देखा! इतना सुंदर कि जैसे जन्नत हो! जैसे, कल्पना की कोई ज़मीन रही हो वो! हवा इतनी प्यारी, कि नशा छाये!
"आप?" आयी मुझे एक आवाज़, ये किसी लड़की की थी,
मैं पलटा और पीछे देखा, ये एक पुर्तगाली लड़की थी, मेरे कद के बराबर, सुरमयी सी नीले आंखें, गोरा रंग-रूप, कसा हुआ जिस्म और खनकदार से आवाज़! सुनहरे, हरे से झूलते हुए, घुंघराले बाल, गले में, समुद्री-प्रवाल से बनी हुई मालाएं आदि!
"जी!" कहा मैंने,
"कब आये यहां?" पूछा उसने,
"कहां से?'' पूछा मैंने,
"जानेर के यहां से?" बोली वो, और थोड़ा आगे आयी!
"सुबह ही!" निकला मेरे मुंह से,
तभी पीछे से एक खुली सी बग्घी गुजरी, उसमे कुल दो ही लोग थे, उनकी पोशाक़, इन पुर्तगालियों से अलग ही थी! वो मुझे काफी अजीब सी लगी!
"आओ इधर अर्णव!" बोली वो,
मैं ठगा सा रहा गया! वो मेरा नाम कैसे जानती थी? हालांकि, बोल मैं भी पुर्तगाली ही रहा था, लेकिन नाम तो लिया ही नहीं था मैंने अपना??


   
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श्रीशः उपदंडक
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मैं रुका रह गया था वहां, समुद्री हवाओं में मेरे बाल, तितर-बितर हुआ जा रहे थे, बाल, कुछ लम्बे थे मेरे, तो मैं वहीँ, ठगा सा, रुका रह गया था! असमंजस में था, पड़ा हुआ, आखिर, इसे मेरा नाम कैसे मालूम?
उसने अचानक से पीछे देखा, मुझ से नज़रें मिलाईं, एक पल मुझे घूर कर देखा, मुस्कुरायी वो और लौट आयी मेरे पास ही!
"क्या हुआ अर्णव?" पूछा उसने,
"मेरा नाम?' पूछा मैंने,
"बताया तो था?'' बोली वो,
"किसको?'' पूछा मैंने,
"जानेर को नहीं बताया था?' बोली वो,
"तुम कहां थी?" पूछा मैंने,
"सवाल ये नहीं, ये करो कि मैं यहां कैसे आयी, अगर जानेर ने नहीं बताया होता तो!" बोली वो!
अब मैं मुस्कुराया! मुझे जवाब मिल गया मेरे सवाल का!
"हां, अब कहां और आपका नाम?" पूछा मैंने,
मैं उसके साथ ही आते हुए, ये सवाल पूछ बैठा था उस से,
"फिलिपा!" बोली वो,
"और रहने वाली कहां की हो?" पूछा मैंने,
"अल्बुफेयरा के पास, कई गांव हैं, उन्हीं में से एक!" बोली वो,
"पुर्तगाल?" पूछा मैंने,
"हां!" कहा उसने,
"तो किस सिलसिले में?" पूछा मैंने,
"ऐसे ही, घूमने!" बोली वो,
"किस जगह घूम रही हो?'' पूछा मैंने,
"मालाबार!" बोली वो,
"ये मालाबार है!" कहा मैंने,
"हां!" बोली वो,
"यहां?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोली वो,
"फिर?" पूछा मैंने,
"उधर देखो?'' बोली वो,
और उधर देखा मैंने, ये कोई कबीला सा ही लगा मुझे तो! या मैंने इस तरह के कबीले ही देखे थे, ऐसा लगा होगा!
कुछ लोग गुजरे वहां से! वे जो बोल रहे थे, वो पुर्तगाली तो हरगिज़ नहीं थी, मैंने कुछ शब्द सुने थे उसके, लगता था कि जैसे मैं रहा होऊं उनके बीच कभी!
"फिलिपा?" कहा मैंने,
"हां?" बोली वो,
"ये लोग, सफेद सी झालर लिए, ऊंची सी टोप लिए, ये लोग कौन हैं?" पूछा मैंने,
"ये लोग, हमारी तरह ही हैं!" बोली वो,
"हां!" कहा मैंने,
"वहां गए?" बोली वो,
"किधर?" पूछा मैंने,
"उधर, उस जगह?" बोली वो,
"वो क्या है?" पूछा मैंने,
"आओ!" बोली वो,
और उधर के लिए हम चल पड़े! उधर पहुंचा मैं तो बेहद ही ख़ूबसूरत सी लड़कियां दिखाई दीं मुझे! उनमे से कुछ ऐसी भी थीं, जिनका मूल पुर्तगाल नहीं था, वे दूध सी सफेद और बदन में भारी सी थीं, देखने में मुझे मध्य-पूर्व की ही लगीं वो!
"वो?" पूछा उसने,
जब मैं एक ऐसी ही औरत को देखते हुए रुक गया था! दूध सा, संग-ए-मरमर सा रंग था उसका! उसके होंठ और नाक एक झीने से गुलाबी कपड़े में ढके थे! सर पर, मोतियों की मालाएं बालों में, काले, गहरे, बड़े बालों में पिरोयी गयीं थीं!
"हां, कौन हैं?" पूछा मैंने,
"साईप्रीयॉट!" बोली वो,
ये नाम, मुझे समझ नहीं आया पहले तो, लेकिन फिर समझ में आ गया! सायप्रस का वासी!
"आते जाओ!" बोली वो,
और मेरे कन्धे से पकड़ लिया मुझे, एक तेज, ख़ुशबू मेरे नथुनों में गयी! ये उधर फैली हुई थी, जो मेरे नथुनों में जा घुली थी! 


   
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श्रीशः उपदंडक
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तभी मेरी नींद खुल गयी अचानक, वो सुगन्ध मेरे नथुनों में ही बनी रही! मैं काफी देर तक यही सोचता रहा कि ये कैसे अजीब से ख़्वाब हैं? मैं इन पुर्तगालियों के बारे में कुछ नहीं जानता, कभी कोच्चि नहीं गया, कभी खम्भात भी नहीं गया, सोचा भी नहीं, है, पढ़ लिया होगा नाम, और तो और, मैंने वैसी इमारतें, वैसे लोग, वैसी भाषा भी कभी नहीं सुनी न देखीं!
लेकिन हो कुछ भी, मुझे इन ख़्वाबों में बेहद ही सुकून मिला करता था, मैं इसमें, हर चिंता से अलग, ज़िन्दगी को पल दर पल जीने वाला पाया करता था अपने आपको! ये ख़्वाब, मुझे मेरे सोचने से ही नहीं आ जाते थे, न ही मैं उन्हें, कोई निमन्त्रण दिया करता था, वे आते, अपने आप और मेरे दिमाग़ में छा जाते थे!
करीब आठ दिन बाद......
"अभी फिलहाल में कोई संकेत नहीं ऐसा!" बोला डॉक्टर,
"मतलब, हम ले जा सकते हैं?" पूछा मेरे मामा जी ने,
"हां, हम पर्चा बना कर दे देंगे!" बोले वो,
"क्या करना होगा?'' पूछा उन्होंने,
"नहीं लगता कि कुछ होगा, आठ दिन से स्थिति शांत ही है, कोई उपद्रव तो कम से कम कोई मुश्किल तो नहीं पेश आयी!" बोले वो,
"ठीक, इलाहबाद ही ले जाएंगे!" बोले मामा जी,
"ठीक है, थोड़ा हवा-पानी बदलेगा तो फायदा ही होगा!" बोले डॉक्टर साहब!
और इस तरह से, वो दिन भी आ गया, पर्चा लिख दिया गया था, कि कहीं कोई दिक्कत हो, तो उसे दिखा दिया जाए और इलाज हो सके! मेरे मामा जी, मामी जी, उनका बेटा अंश, मुझे बेहद ही प्यार करते थे! छुटपन से मैं मामा और मामी की गोदी में ही पला था! मेरे मामा जी का एक लम्बा चौड़ा व्यवसाय था! ऐसा कुछ नहीं था, जिसकी मैं मांग करुं और वो मुझे न मिले!
उस दिन सुबह ही, मुझे कार में बिठा दिया गया, मेरे मामा जी, अंश और मेरे पिता जी, मेरे साथ ही थे, रास्ते भर, मेरे मामा जी, मेरे सर पर हाथ फेरते रहे, मुझे चूमते रहे, दुलारते रहे! और मेरे पिता जी, घुटते रहे! जैसे, सब सच्चाई उन्हें मालूम हो! मुझे या तो देखते नहीं, और जो देखते तो बिन आंसू बहाये रुकते नहीं, इसीलिए मैं, अपनी नज़रें घुमा लेता था उनसे!
मेरी मम्मी, बहन और भाई, अगले दिन पहुंच जाने थे इलाहबाद! मेरे मामा जी ने, एक बड़ा सा फार्म-हाउस वहां बनवाया था, थोड़ा शहर से अलग, शान्ति भरा माहौल मिलता तो बड़ा ही सुकून देता!
रास्ता साफ़ ही मिला था, शाम तक हम वहां लग गए थे, मुझे थकावट हो, ऐसा भी नहीं था, मैं कभी उचक उचक कर, बाहर के नज़ारे देख लिया करता था!
"बस बेटे यहीं!" बोले मेरे पिता जी, अंश से,
"जी" बोला वो,
और गाड़ी एक बड़ी सी जगह, जहां बिगुल-बेलिया की तीनों किस्में थीं, लगी हुई थीं, छत पर पाइप लगे थे, उन पर कुछ बेलें चढ़ चली थीं! मकान बड़ा ही शानदार था!
"आओ अर्णव?" बोला अंश,
"रुको!" कहा मैंने,
"हां भैया!" बोला वो,
"मैं खुद चलता हूं!" कहा मैंने,
और मैं, गाड़ी से निकल कर आया, पांव रखा ज़मीन पर! कितने समय बाद, मेरा ज़मीन से मिलना हुआ था! मुझे वो ज़मीन, किसी गद्दे से भी मुलायम सी लगी थी! मेरे पांव कांप ज़रूर रहे थे, लेकिन सधे हुए थे!
"वाह मेरे बेटे!" बोले मामा जी, मेरे पिता जी और मेरी मामी जी! अंश बहुत खुश था, मेरे साथ साथ ही चल रहा था!
उस शाम घर में जैसे जश्न का सा माहौल था! मेरी मम्मी और बहन के फ़ोन्स लगातार आ रहे थे! मेरा भाई बार बार पूछ रहा था कि वो मेरे लिए क्या लाये! मैं भी बेहद खुश था! अपनों में रहना, एक एक पल को जीना उनके बीच, इस से बड़ा और सुख कोई नहीं!
और फिर उसी रात................करीब दो बजे....
मेरे सामने एक अजीब सी इमारत छिपी थी अंधेरे के बीच, मैंने कई बार देखा उसे, वो गिरिजा नहीं था, कोई मन्दिर भी नहीं, उधर मेरे बाएं कुछ लोग बैठे हुए थे, उनका भोज चल रहा था जैसे वहां, उधर, कुछ मशालें भी जल रही थीं और कुछ बड़े बड़े से, कांच के अंदर रखी कुछ रौशनियां सी! मेरे बाएं भी वहीँ और दाएं भी कुछ ऐसा ही था!
"अर्णव?" मुझे आवाज़ आयी बाएं से,
मैंने ठीक उधर ही देखा,
"आ जाओ!" ये किसी औरत की आवाज़ थी! वो थोड़ा दूर खड़ी थी मुझ से, मुझे कम ही दिखाई दे रही थी वो!
"कौन?" पूछा मैंने,
"फिलिपा!" बोली वो,
ये नाम सुन, मैं फौरन ही चल पड़ा उसकी तरफ!


   
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श्रीशः उपदंडक
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मैं चल पड़ा था उसके साथ! ये रात से पहले का और शाम के बाद का वक़्त था! मुझे तन्दूर में भुनते हुए मांस का ज़ायक़ा महसूस हो रहा था! हर तरफ जैसे जश्न का माहौल था!
"कैसे हो हरबेर्टो?" मेरे कन्धे पर एक हाथ रखा गया था और उसी ने पूछा था मुझ से ही कुछ!
मैंने चौंक कर देखा पीछे! वो कोई फौजी सा लगता था, सुनहरी सी मूंछें और गल-मुच्छे काफी भारी भारी से थे! उम्र कोई रही होगी उसकी बत्तीस या पैंतीस वर्ष!
"ऐसे क्या देख रहे हो?" पूछा उसने,
"मैं हरबेर्टो नहीं हूं!" कहा मैंने,
वो हंसा हल्के से, फिर मेरे कन्धे पर हाथ रखा,
"ऐसा क्यों?" पूछा उसने,
"मैं उत्तर से आया हूं!" बताया मैंने,
"जानता हूं!" बोला वो,
"तब मैं हरबेर्टो नहीं!" कहा मैंने,
"लगता है, नाराज़ हो! ए? एविएज़ा?" बोला वो,
तभी एक अधेड़ सी उम्र की औरत आयी उधर, उसने मुझे देखा, मैं थोड़ा झेंप सा गया था उसे देख कर!
"ये कौन?" पूछा मेरे कन्धे पर हाथ रखते हुए उस फौजी ने,
"हरबेर्टो!" बोली वो,
"तो मेरे भाई हरबेर्टो को, कोई तकलीफ न होने पाए!" बोला वो,
"जी, बिलकुल नहीं!" बोली वो,
मैंने तभी फिलिपा को ढूंढा, वो किसी दूसरी लड़की के साथ, बातें कर रही थी! और इधर वो फौजी चल पड़ा एक तरफ!
मैं थोड़ा तेजी से चलकर फिलिपा तक गया!
"अ....फिलिपा?" कहा मैंने,
"हां हरबेर्टो?" बोली वो,
"क्या?'' मुझे अचरज हुआ!
"याद है, वो अजीब सी पेशाकेँ?" बोली वो,
"हां?" कहा मैंने,
"वो डच हैं!" बोली वो,
"डच?" पूछा मैंने,
"हां, और आप भी एक डच परिवार से ही आते हो!" बोली वो,
"तुम कैसे जानती हो?" पूछा मैंने,
"यहां, सभी जानते हैं आपको हरबेर्टो!" बोली वो,
"नहीं! मैं अर्णव हूं!" बोला मैं,
"नहीं!" बोली वो,
"हां, जानो?" कहा मैंने,
"अच्छा?'' बोली वो,
"हां?" कहा मैंने,
"आओ मेरे साथ ज़रा?" बोली वो,
और मैं साथ चल पड़ा, उसने मेरा हाथ पकड़ कर मुझे आगे रखने की कोशिश की थी! फिर एक जगह रुक गए हम!
"वो क्या है?" पूछा उसने,
"कोई फोर्ट है, शायद? है न?" पूछा मैंने,
"कौन सा?'' पूछा उसने,
"नहीं मालूम!" कहा मैंने,
"सच में?" बोली वो,
"है?" कहा मैंने,
"फोर्ट ए म............!! बोलते बोलते रुक गयी वो!
"फोर्ट एम्मानुएल!" मेरे मुंह से अनायास ही निकला!
(फोर्ट एम्मानुएल आज जीर्ण अवस्था में है मित्रगण! फोर्ट कोचि के पास! मुझे बेहद ही हैरत हुई! अर्णव ने फोर्ट एम्मानुएल को साक्षात देखा था! इसके बारे में तो कहीं कोई पूर्ण लिखित प्रमाण भी नहीं, बस, कुछ गैज़ेट के पृष्ठों में, जो अब लिस्बन में हैं!)
"हां!" बोली वो,
"इसे देखा है मैंने!" बोला मैं,
"हां, लेकिन किस समय?" पूछा उसने,
"कुछ कुछ याद पड़ता है फिलिपा मुझे!" बोला मैं,
"बताओ?" पूछा मैंने,
"बताता हूं!" कहा मैंने,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"क्या याद पड़ता है?" पूछा उसने,
"कुछ, देखा सा, कुछ लोग फिलिपा!" बताया मैंने,
"वो क्या इस तरह के लोग हैं?'' पूछा उसने,
"नहीं, वे अलग हैं!" कहा मैंने,
"किस तरह से अलग?" पूछा उसने,
"उनकी यूनिफार्म और उनके कुछ झंडे!" कहा मैंने,
"हां ठीक!" बोली वो,
तभी मेरी नींद अचानक ही खुल गयी! मेरी नज़रों के सामने अभी तक उस फोर्ट की तस्वीर सी नाच रही थी! मैं उठा, बैठा और घड़ी की तरफ देखा, सुबह के चार बजने को थे! मैंने थोड़ा सा पानी पिया और फिर से लेट गया! उस के बाद से मुझे नींद नहीं आयी! सारी रात उसके बाद की आंखों ही आंखों में कट गयी!
दोपहर, करीब डेढ़ बजे मुझे नींद के झोंके आने शुरू हुए, मैं अपने कमरे में ही था, खाना, खा ही लिया था! मैं उस समय एक पुस्तिका पढ़ रहा था, की नींद आ गयी और मैं सो गया! अभी सोये हुए कुछ ही देर हुई होगी कि फिर से मैं एक स्थान पर जा पहुंचा! यहां, एक बड़ा सफेद सा झंडा लगा था, ये कोई समुद्री तट सा लगता था, समुद्री जहाज दूर खड़े थे, उनके मस्तूल ऐसे लगते थे कि जैसे बड़े बड़े पक्षी अपने पंख फैलाये खड़े हों! उन पर कई रंगों के झंडे भी लगे थे!
"हरबेर्टो?'' मुझे एक मर्दाना आवाज़ ने चौंकाया, मैंने फौरन ही एक तरफ देखा, वो एक फौजी ही था!
"मैं?" कहा मैंने,
"हां, तुम!" बोला वो,
और मैं उसके पास गया!
"क्या कर रहे हो यहां?'' पूछा उसने,
"कुछ नहीं!" कहा मैंने,
"आओ ज़रा?" बोला वो,
"आपको पहचाना नहीं मैंने?" कहा मैंने,  
"वॉन डिविट! पहचाना?'' बोला वो,
"शायद!" कहा मैंने,
"आओ, इधर आओ!" बोला वो,
"हां!" कहा मैंने,
और हम एक जगह के लिए अंदर की तरफ चले, ये एक हवेली जैसी जगह थी, इसका स्थापत्य यूरोपियन था! खम्भे आदि गोल और स्तम्भ उनके चौकोर! लाल और पीला सा रंग लगाया गया था उनकी क्यारियों में!
"इधर आओ!" बोला वो,
और मेरे कन्धे पर हाथ रख आगे चलने लगा!
"कैसे ही हरबेर्टो?" बोला एक और आदमी!
"सब ठीक!" कहा मैंने,
"कब आना हुआ?'' पूछा उसने,
"अभी आया!" बोला मैं,
"ये लो! मेरी तरफ से!" बोला वो आदमी और मुझे एक गिलास में, कुछ शानदार से स्वाद वाली शराब परोस कर दे दी!
"लो! जेनेवेर(येनेवर) है!" बोला वो,
हम रुक तो गए ही थे, वॉन ने मुझे देखा और इशारा किया कि मैं वो गिलास ख़त्म कर दूं! मैंने वो गिलास, एक ही बार में ख़त्म कर दिया!
"आओ अब!" बोला वो,
"हां!" कहा मैंने,
और वो मुझे ऊपर ले जाने लगा! मैं भी साथ ही साथ चलता बना उसके, ऊपर आये तो तमाम इंतज़ामात थे वहां, बैठने के, जैसे कोई सरकारी सा दफ्तर हो!
"बैठो!" बोला वो,
खुद भी बैठा उस मेज़ के पास और मुझे भी बिठाया उसने! सामने उसने, ड्रॉअर से कुछ कागज़ात निकाले! मैंने देखा उन्हें तो पढ़ने लगा! ये डच भाषा थी, इसमें कुछ प्रिंट था, ये किसी बड़े व्यवसाय की ओर इशारा करता था, जैसे एक बड़ी कम्पनी ने अपने किसी काम के लिए 'जॉइंट-वेंचर' जैसा कुछ सोचा हो!
"इसके बारे में कुछ सुना है?" पूछा उसने,
"नहीं!" कहा मैंने,
"पुर्तगाल अपने को अलग रखना चाहता है!" बोला वो,
"क्यों?'' पूछा मैंने,
"वे मुक्त बाज़ार चाहते हैं!" बोला वो,
"उस से उन्हें क्या लाभ?'' पूछा मैंने,
"अभी तो पता नहीं, लेकिन दूरगामी प्रभावों से इनकार नहीं किया जा सकता!" बोला वो,
"प्रभाव?'' पूछा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"कैसा प्रभाव?" पूछा मैंने,
"तुम नहीं जानते?' पूछा उसने,
"नहीं!" कहा मैंने,
"ऐसा नहीं हो सकता, अगर मैं कहूँ तो क्या ये, गलत होगा?" बोला वो,
हल्का सा मुस्कुराते हुए..


   
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श्रीशः उपदंडक
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मैं नहीं समझा था कि कैसा मुक्त-व्यापार और क्या वो जॉइंट-वेंचर! मैं कभी भी, इस विषय का छात्र नहीं रहा था और और ये अर्थशास्त्र? मेरे लिए तो काला अक्षर भैंस बराबर ही था!
"आप मुझ से क्या चाहते हैं?" पूछा मैंने,
"हरबेर्टो?" बोला वो,
"हाँ?" कहा मैंने,
"तुम्हारी अच्छी पैठ है इन पुर्तगालियों में!" बोला वो,
"तब?" मैंने पूछा,
"उधर, जो अधीक्षक है.." बोला वो तो मैंने काटी उसकी बात!
"कौन?" पूछा मैंने,
"यूसियो? जानते हो न?" बोला वो,
"हाँ, तो?" कहा मैंने,
"बताता हूं!" बोला वो,
और अपने कन्धे के पास लटकी एक घण्टी की रस्सी खींची, और घण्टी बजायी! तभी दौड़ा दौड़ा एक आदमी आया, और दोनों हाथ बांध खड़ा हो गया!
"पानी लाओ!" बोला वो,
वो आदमी दौड़ा और एक गैलरी में चला गया! तब उसने ड्रॉअर से एक फाइल निकाली, उस फाइल पर, एक निशान बना था, ये था वी.ओ.सी., वी बड़ा और उसकी बाजूओं पर ओ और सी लिखे थे! ये कोई सरकारी कागज़ ही था!
"मैं चाहता हूं कि तुम यूसियो से एक मीटिंग करवाओ, कैसे भी मुमकिन हो!" बोला वो,
"कहाँ मिलेगा ये यूसियो?" पूछा मैंने,
"कोच्चि जाना होगा!" बोला वो,
"कोच्चि?" पूछा मैंने,
"हाँ, कोई मुश्किल?" पूछा उसने,
"नहीं, कोई नहीं!" कहा मैंने,
"तो कब इंतज़ाम करुं?" पूछा उसने,
"जब भी सम्भव हो?" कहा मैंने,
"ये काम हो जाए तो जानते हो न?" बोला वो,
"क्या?" पूछा मैंने,
"एक अच्छा ओहदा या फिर एक अच्छी कमीशन!" बोला वो,
और तब पानी आया, बड़े बड़े से कांच के डिजाईन वाले गिलास! बेहद ही शानदार! मैंने कहीं नहीं देखे, सच कहूं तो आज तक भी, सिर्फ उनके अलावा!
और कुछ बातें हुईं और मैं नीचे उतर आया, नीचे के लिए मुझे उसी आदमी ने छोड़ा जिसने पानी लाकर दिया था! एक बात तो साफ़ थी, ये कोई डच केंद्र था, और मैं यहां था! मेरा सम्बन्ध डच से भी और उन पुर्तगालियों से भी था! लेकिन कैसे? ये नहीं समझ पाया था मैं!
खैर, मैं नीचे आया तो मुझे वहीँ, कुछ लड़कियों के साथ फिलिपा दिखाई दी, मुझे देखा तो उठ कर चली आयी मेरे पास!
"बात हो गयी?" पूछा उसने,
"हां!" कहा मैंने,
"कब जाना होगा?" पूछा उसने,
"पता नहीं ये तो?" कहा मैंने,
"बताया नहीं गया?" बोली वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
"आओ!" बोली वो,
और उस इमारत के पीछे ले गयी, उस इमारत के पीछे, कुछ बैरक बनी हैं, एक अस्तबल भी है और जल की व्यवस्था भी, इधर ही, लकड़ियां भी काट कर लायी जाती हैं! ऐसी ही एक बैरक में से होते हुए, एक मैदान मिला सामने ही, उधर, दो दो मन्ज़िल मकान से बने हैं, यहां, नारियल के पेड़ों के झुण्ड के झुण्ड हैं, इलायची. काली-मिर्च, दालचीनी की बेहिसाब ख़ुशबू फैली थी यहां!
"उधर!" बोली वो,
और उधर, एक सीढ़ी है, ये गोल है, काले से पत्थर की, दीवार पर, दो फ़ीट ऊपर ही, पीतल  की पत्ती भरी गयी है, ये देखने में बेहद ही शानदार लगती है! 
उसने एक दरवाज़ा खोला! मैं तो उस दरवाज़े का आकार देख ही ही अचम्भे में रह गया! इतना ऊंचा?
"आओ, बैठो!" बोली वो,
और एक बड़े से लाल रंग के, सुसज्जित से सोफे पर बिठा दिया गया मुझे! और खुद उसी कमरे से निकलती हुई एक गैलरी से आगे बढ़ गयी! मैं उधर ही बैठा, वो आलीशान सा कमरा निहारने लगा! एक एक चीज़ वहां बड़ी ही खूबसूरत थी! तरतीब से सजी हुई! सबकुछ जैसे, किसी और ही दुनिया का हो!
"हरबेर्टो?" बोली वो आते हुए!
"हां?" कहा मैंने,
"ज़रा यहां आओ?" कहा उसने,
"आया!" बोला मैं,
और चल पड़ा उस तरफ, वहां एक बोतल थी उसके हाथ में एक एक छोटी सी लकड़ी की पेटी!
"ये पकड़ो?" बोली वो,
मैंने बोतल पकड़ ली,
"चले आओ!" बोली वो,
"हां, चलो आगे!" बोला मैं,
"रख दो यहीं!" कहा उसने,
मैंने वो बोतल वहीँ रख दी, उसी सोफे पर!


   
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श्रीशः उपदंडक
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ये वाइन की बोतल थी, बड़ी ही शानदार सी! उस पर डौरा लिखा था पुर्तगाली में! ये अपर-मेनलैंड की थी! मैंने अपने अभी तक के इस जीवन में आज तक इसका नाम भी न सुना था! ये बेहतरीन सी वाइन थी! कॉर्क खुलते ही, एक अलग सी सुगन्ध या भीनी सी महक़ फ़ैल गयी थी!
"हरबेर्टो?" बोली वो, अपना गाउन सम्भालते हुए, उसके दो रस्सियां सी थीं, छाती पर बंधी हुईं, उन्हें ठीक करते हुए!
"हां?" पूछा मैंने,
"इस पेटी से सामान निकाल लो?'' कहा उसने,
"हां, ज़रूर!" कहा मैंने,
मैंने पेटी खोली, और जब खोली तो उसमे चार गिलास था, उलटे रखे हुए! पैंदे में जैसे सोने का मुलम्मा सा चढ़ा हो! मैंने उठाया उसे ध्यान से, और जब गिलास सीधा किया तो उसके गोल से मुंह के चारों ओर, सोने का मुलम्मा ही चढ़ा था! गिलास के बीच के कमर में, चांदी जड़ी गयी थी!
"ये भी निकाल लो!" बोली वो,
और उस पोटली से, कुछ और छोटी सी डिब्बियां खोल लीं निकाल कर, उन्हें खोला तो ये काजू जैसी कोई नमकीन सी थी! उसका स्वाद बड़ा ही तीखा और शानदार था! हालांकि काली-मिर्च और जायफल की सुगन्ध और ज़ायक़ा था उसमे!
तब उसने वो वाइन उन गिलासों में परोसी और एक मेरी तरफ बढ़ाया! मैंने उसको उठाया और पीने से पहले उसका स्वाद भरपूरता से नाक में लिया! क्या बेहतरीन ख़ुशबू थी! आँखें बन्द हो जाएं और पहाड़ी झरने याद आ जाएं!
"कोच्चि जाना है ना?" बोली वो,
"हां, यही बताया गया है!" कहा मैंने,
"समझ सकती हूं!" बोली वो,
"समझना क्या?" पूछा मैंने,
"उसियो से मिलना होगा!" बोली वो,
"हां!" कहा मैंने,
"दूर की चाल है!" बोली वो,
"पता नहीं!" कहा मैंने,
और तब पहला घूंट भरा मैंने!
उस घूंट में ही मेरा रोम रोम पुलकित हो उठा! क्या गज़ब का स्वाद था वो! क्या बेहतरीन नज़ाक़त भरी थी उस वाइन में! मुंह में पानी छलछला जाए! फूले हुए, कुप्पे से, बड़े बड़े गुच्छे वाले काले अंगूर नज़र आ जाएं! और पानी की धार जो आप के ऊपर एक मदमस्त सी फुहार छोड़ती चले जाए!
मई उस आनन्द में ही डूबा था कि बाहर से किसी के चलने की आवाज़ आयी! और दरवाज़े के बाहर लटकी वो घण्टी बज उठी!
"आ जाओ?" बोली वो,
तब एक बेहद ही प्यारी सी छोटी उम्र की, मुझे लगी, लेकिन थी वो कोई अठारह के आसपास की ही, अंदर चली आयी! फिलिपा उठी और उसने उसे गले से भर लिया अपने आगोश में लेकर! मैं भी खड़ा हो गया था तब तक, कोई विशेष ही है वो, फिलिपा के लिए, इसीलिए!
"कब आयीं इज़ाबेल?" बोली फिलिपा!
"कुछ समय पहले!" बोली वो,
"बैठो!" बोली वो, उसको बिठाते हुए!
और वो बैठ गयी!
"गर्म जगह है न?" बोली वो,
"नहीं, आदत हो जायेगी!" बोली वो,
"ह्म्म्म, उम्मीद है!" बोली वो,
"इनसे मिलो!" बोली मेरी ओर मुख़ातिब करते हुए उसको!
"जी!" बोली वो और मुस्कुरा कर अपना सर धीरे से हिलाया!
"ये हैं हरबेर्टो!" बोली फिलिपा,
"जी!" कहा उसने,
"और ये हैं, इज़ाबेल, मेरी भतीजी!" कहा उसने,
"ख़ुशी हुई आपसे मिलकर!" कहा मैंने,
"इज़ाबेल?" कहा उसने,
"हां?" बोली वो,
"ये रॉयल-डच हैं!" बताया उसने,
रॉयल-डच? ये क्या होता है?
ये सवाल उठा मन में मेरे और तब ही मेरी आंख खुल गयी! और फिर उसके बाद नींद नहीं आ सकी!
हां, उसके बाद मैं इसी ख़याल में उलझा रहा, मैं हूं कौन? अर्णव? या हरबेर्टो? रॉयल-डच? और वो अब, भारत में? पुर्तगालियों के संग?
मैंने किसी से भी नहीं की इस बारे में बात! थोड़ा सा जूस पिया मैंने अनानास का, दिन में तीन बार! मुझे अनानास में से, कुछ महक़ उस वाइन की आती थी, शायद इसीलिए, उस दिन तो मैंने अनानास का जूस ही पिया, हां, वो भी बस महक़ के लिए ही!
अगला दिन.....
दोपहर बाद का समय....
"चलोगे आज क्या?" पूछा अंश ने,
"नहीं अंश!" कहा मैंने,
"तब मैं जाऊं क्या?" पूछा उसने,
"हां, क्यों नहीं?" कहा मैंने,
"वो पूल की सफाई करवा दी है, कल से वहीँ मजे करते हैं!" बोला वो,
"ज़रूर!" कहा मैंने,


   
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