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२०१० सुल्तानपुर, उत्तर प्रदेश की एक घटना

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श्रीशः उपदंडक
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ये घटना उन दिनों की है जब मै असम से विकराल-सिद्धि कर के दिल्ली लौटा था, ११ दिनों का मौन-धारण करना था, तो वो उस दिन आखिरी दिन था, शर्मा जी ही मेरा पूरा सहयोग करते थे, उन्होंने सारे काम आगे बढ़ा दिए थे और मेरे चित-परिचित लोगों के फ़ोन आदि वही सुना करते था, मै उनको लिख के बता देता था! दिन में ४ बजे ये मौन-व्रत खोलना था, ढाई बज चुका था!

तभी कोई 3 बजे मेरे फ़ोन की घंटी बजी, मैंने फ़ोन उठा के देखा तो ये फ़ोन मेरे एक परिचित का था जो सुल्तानपुर में रहते थे, मैंने शर्मा जी को वो फ़ोन दे दिया, शर्मा जी से उन्होंने कहा की जीवन-मरण का सवाल है, गुरु जी से बात करा दीजिये, शर्मा जी ने उनको मेरे बात न करने का कारण बता दिया, शर्मा जी ने कहा, की वो शर्मा जी को ही बता दें, अभी वो बता ही रहे थे की संपर्क टूट गया, उन्होंने अपनी बेटी के सन्दर्भ में बताना शुरू किया था, लेकिन संपर्क टूट जाने से बात आधी रह गयी थी, हमने सोचा की फिर दुबारा फोन आ जाएगा, लेकिन आधे घंटे तक फोन नहीं आया, तब शर्मा जी ने ही उनका नंबर डायल कर दिया, फ़ोन पर न घंटी बजी और न ही कोई बात हुई, कई बार कोशिश की, लेकिन कोई बात न हो सकी! हमने सोचा की चलो फिर कभी या शाम तक फोन आ ही जाएगा, मेरा मौन-व्रत ४ बजे समाप्त हो गया, मै पूजन करने हेतु अपने कमरे में चला गया, पूजन आदि से निवृत हुआ तो एक घंटा बीत चुका था, मै बाहर आया और शर्मा जी से पूछा, " कोई फ़ोन आया वहाँ से?"

उन्होंने कंधे उचकाये और 'ना' में गर्दन हिला दी, यानि कि कोई फ़ोन जहीं आया था!

उसके बाद मैंने शर्मा जी से वो 'सामान' लाने को कहा, वो सामान पहले से ही लेकर आये थे! मैंने तब अलख उठायी और उसको भोग दिया! अघोरी का नित्य-कर्म आरम्भ हो गया था अब! मैंने छक कर खाया और मदिरापान किया! ११ दिनों के बाद भोग-आदि लेकर मै प्रसन्न हुआ और मेरा आवेग फिर से लौट आया!

रात्रि-समय शर्मा जी मेरे साथ ही ठहरे, उन्होंने फिर से सुल्तानपुर फोन लगाया अब कि फ़ोन कि घंटी बजी! शर्मा जी ने बात करनी आरम्भ की, "हेल्लो? तिवारी जी??"

"जी तिवारी जी नहीं मै उनका बड़ा बेटा पवन बोल रहा हूँ" वहां से जवाब आया,

"पवन बेटे, ज़रा तिवारी जी से बात करवाइए अभी?" शर्मा जी ने कहा,

"पापा जी से बात नहीं हो सकती अभी, वो अस्पताल में दाखिल हैं, कल उनको हार्ट अटैक पड़ गया था, अभी वहीं दाखिल हैं" उनके बेटे ने बताया,

"अच्छा? अब कैसे हैं वो?" शर्मा जी जे पूछा,

"जी अभी तो ठीक हैं, लेकिन बात नहीं कर पा रहे हैं, आप कहाँ से बोल रहे हैं?" उसने पूछा,

"मै दिल्ली से शर्मा बोल रहा हूँ बेटा" शर्मा जी जे बताया,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"क्षमा कीजिये गुरु जी, प्रणाम!" पवन ने कहा,

"प्रणाम बेटा, एक काम करना, जैसे ही उनकी तबियत ठीक होती है तो मेरी बात करवा देना, ठीक है बेटे?" शर्मा जी ने पूछा,

"हाँ गुरु जी, जैसे ही तबियत सुधरती है, मै आपकी बात करवा दूंगा पिता जी से" पवन बोला,

"ठीक है बेटा" शर्मा जी ने कहा और फोन काट दिया

इन सुल्तानपुर वाले परिचित को हम त्रिपाठी जी बुलाया करते थे शर्मा जी दिन में २ बार उनका हाल-चाल अवश्य ही मालूम किया करते थे, कोई ३ दिनों के बाद सुल्तानपुर से कॉल आया की अब त्रिपाठी ठीक है और घर पर आ गए हैं, ये उनके बेटे पवन की कॉल थी, उसने ऐसा कहते हुए फोन त्रिपाठी जी को थमा दिया, त्रिपाठी जी बोले, " नमस्कार शर्मा जी"

"नमस्कार त्रिपाठी जी! कैसे हैं आप, अब तबीयत कैसी है आपकी?" शर्मा जी ने पूछा,

"अब तो ठीक हूँ, लेकिन न जाने कब तक" उन्होंने मायूसी से कहा,

"क्यूँ? क्या बात है? ज़रा बताइये तो?" शर्मा जी जे पूछा,

"मै आपसे मिलना चाहूँगा, जल्दी से जल्दी, तब मै आपको विस्तार से बताऊंगा शर्मा जी" वो बोले,

"अगर कोई विशेष बात है, चिंताजनक है तो आप हमे बताइये, हम आ जाते हैं आपके पास?" शर्मा जी ने कहा,

"अरे नहीं शर्मा जी, कुआँ प्यासे का पास नहीं जाता, प्यासा कुँए के पास आता है! मै एक दो दिन में पुनः संपर्क साधूंगा और अपने आने के विषय में मै आपको बताऊंगा, वैसे गुरु जी कहाँ हैं?"

"मै उन्ही के पास जा रहा हूँ, एक घंटे तक पहुँच जाऊँगा, फिर मै आपकी बात करा देता हूँ" शर्मा जी ने कहा,

"नहीं नहीं! आप उनको मेरा नमस्कार बोलियेगा! बाकी मै जब वहा आऊंगा तो दर्शन कर लूँगा" वो बोले,

"ठीक है, आप भी आराम कीजिये अब" शर्मा जी ने कहा,

"धन्यवाद शर्मा जी, अच्छा जमस्कार" वो बोले,

"नमस्कार त्रिपाठी जी" शर्मा जी ने जवाब दिया और फ़ोन कट गया,


   
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श्रीशः उपदंडक
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कोई सवा घंटे के बाद शर्मा जी मेरे पास आ गए और उन्होंने अपना और त्रिपाठी का वार्तालाप मुझे सुना दिया, मुझे खुशी हुई की अब वो ठीक हैं।

और कोई ३ दिनों के बाद एक दोपहर को वो अपने साले साहब के साथ वहाँ मेरे पास आ गए, हालांकि उन्होंने मुझे वहाँ आने का कार्यक्रम मुझे बता दिया था,

मैंने उनको बिठाया, नमस्कार इत्यादि हुई और फिर मैंने उनके लिए चाय मंगवा ली,पहले उनका हाल-चाल पूछा, फिर त्रिपाठी जी असली काम पर आ गए, बोले, "गुरु जी, आपको मालूम है कि मेरी एक लड़की कोमल हरदोई में ब्याही है, कोई ३ साल हुए हैं उसको, जिस दिन मुझे दिल का दौरा पड़ा था,उसी दिन मेरे पास मेरे दामाद मुन्ना का फोन आया था, मुन्ना ने बताया कि कोमल २ महीनों से घर में उलटी-सीधी बातें और हरकतें कर रही है, अपने बेटे को फेंक देती है, दूध नहीं पिला रही, कहती है कि वो उसका बालक नहीं हैं, सास-ससुर से उल्टा सीधा बोलती है और हमेशा घर में कलेश करती रहती है, उन्होंने उसका डॉक्टर्स से भी इलाज करवाया है, लेकिन कई डॉक्टर्स कह रहे हैं कि वो मानसिक रूप से पागल हो गयी है, कभी-कभार उसको बाँध के भी रखना पड़ता है, एक बार तो उसने अपने बालक को गला दबा के मारने की कोशिश की, लेकिन वक़्त रहते मुन्ना ने उसको बचा लिया, अब वो कह रहे हैं की आप इसको वहाँ से ले जाओ, क्यूंकि आस-पड़ोस में और रिश्तेदारी में उनकी जग-हंसाई हो रही है और अब बात बर्दाश्त से बाहर हो गयी है, हम उसका ऊपरी इलाज वगैरह करवाएं नहीं तो बेटी को सही होने तक हम अपने पास ही रखें, और उसका बालक मुन्ना के साथ ही रहेगा क्यूंकि वो पागल औरत उसको कमी भी मौका मिलते ही मार देगी, मुझे ये सुनके बड़ा धक्का लगा गुरु जी मै काबू नहीं रख सका और दिल का दौरा पड़ गया, गुरु जी आप इस विषय में गौर करें, मेरी विनती है आपसे" ऐसा कह के वो फिर से आहत हो गए,

"अरे त्रिपाठी जी! आप घबराते क्यूँ हैं!" मैंने उनके कंधे पर हाथ फेरते हुए ऐसा कहा,

"आप देखिये गुरुजी, कुछ कीजिये" उन्होंने कहा,

"हाँ, मै अवश्य करूँगा, आप एक काम कीजिये कि आप कोमल को घर ले आइये, जब ले आयें तो मुझे सूचित करें, मै वहाँ आ जाऊँगा, और कोमल को देख लूँगा, चिंता न कीजिये आप!" मैंने उनको हिम्मत बंधाई,

उसके बाद दो-चार बातें हुई और त्रिपाठी जी ने हमसे विदा ली..

पांचवें दिन त्रिपाठी जी का फ़ोन आया, वो कोमल को घरले आये थे, घर लाते वक़्त उसने बहुत विरोध किया था, वो वहाँ से जाना नहीं चाह रही थी, इसी धक्का-मुक्की में कोमल ने मुन्ना के सर पर एक कांच की बोतल फेंक के मार दी थी मुन्ना का सर फट गया था! जब त्रिपाठी जी वहाँ उसको लेने पहुंचे तो वो उनको पहचानी नहीं! अब जब से वो त्रिपाठी जी के घर में आई है, तब से तो और भी ज्यादा कोहराम मचा रखा है, केवल गुर्राती है, बोलती नहीं! और जब बोलती है तो ये ही कि 'खा जाउंगी बस यही कहती रहती है! पूरा परिवार सकते में है और हमारा वहाँ इंतज़ार किया जा रहा है, हमने त्रिपाठी जी को बता दिया कि हम आज ही वहाँ के लिए निकल जायेंगे!

हम उसी रातसुल्तानपुर रवाना हो गए।


   
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श्रीशः उपदंडक
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अगली सुबह हम सुल्तानपुर पहुंचे त्रिपाठी स्वयं हमको लेने आये थे, मैंने हाल-चाल पूछे और उन्होंने भी, उसके बाद हम वहाँ से त्रिपाठी जी के घर के लिए चल पड़े!

हम कोई ४० मिनट के बाद उनके घर पहुंचे, घर अच्छा-खासा है, कई कमरे हैं और २ मंजिली मकान है, जाते ही हमको चाय वगैरह पिलाई गयी, उसके बाद हम नहाए-धोये और फिर त्रिपाठी, शर्मा जी और मै, मकान कि छत पर चले गए, वहाँ बैठने का मुकम्मल इंतजाम किया गया था! मैंने त्रिपाठी से पूछा, "अब कैसी है कोमल?"

"अभी तो सो रही है, लेकिन जब उठेगी तो बहुत हल्ला काटेगी, चिल्लाती है, किसी को नहीं पहचानती, कमरे में बस अकेली घूमती रहती है, हाँ, पानी से डरती है, जब वो ज्यादा तंग करती है तो उसको पानी दिखाकर ही चुप किया जाता है। उन्होंने बताया,

"अच्छा, एक काम करना, जब वो जाग जाए तो मुझे बता देना, एक बार मै भी ज़रा उसको देख लूँ, मुझे मालूम पड़ जाएगा" मैंने कहा,

"हाँ गुरु जी, उसके जागते ही मै आपको बुला लूँगा" ये कह के वो उठे और नीचे खाने के प्रबंध करने के लिए चले गए, तब शर्मा जी ने पूछा, "गुरु जी, क्या हो सकता है ये? कोई झपट या लाग-लपेट तो नहीं?"

"देखते हैं शर्मा जी, कोई झपट या लाग-लपेट है या कुछ और" मैंने जवाब दिया,

आधे घंटे बाद त्रिपाठी जी ऊपर आये, वो हांफ रहे थे, मैंने उनको बिठाया और पूछा, "क्या बात है?"

"गुरु जी अभी कोई५ मिनट पहले कोमल जागी है, उसने छूटते ही ये पूछा कि छत पर आये वो २ लोग यहाँ क्यूँ आये हैं? हम सभी घबरा गए हैं गुरु जी" उन्होंने बताया,

"चलिए फिर नीचे चलते है, आइये" मैंने उठते हुआ कहा,

त्रिपाठी जी आगे चले और मै, शर्मा जी उनके पीछे, जैसे ही उन्होंने कोमल के कमरे की ओर इशारा किया कोमल ने झट से दरवाज़ा अन्दर से बंद कर दिया! त्रिपाही और उनके लड़के ने काफी आवाजें लगायीं लेकिन उसने दरवाज़ा नहीं खोला, बस ये बोलती रही कि उनको पहले निकालो यहाँ से, मेरा दम घुट रहा है अब मुझे यकीन हो गया कि ये झपट का मामला नहीं, लाग-लपेट का मामला है!

मैंने त्रिपाठी और उनके बेटे को वहाँ से हटाया और खुद दरवाज़े पर चला गया, मैंने आवाज़ लगाई, "कोमल?"

"चले जाओ यहाँ से" वो चिल्लाई,

"पहले दरवाज़ा तो खोल?" मैंने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"नहीं, पहले तू जा यहाँ से, जा यहाँ से" वो फिर चिल्लाई,

"तू पहले दरवाज़ा खोल, अगर अब तूने दरवाज़ा नहीं खोला तो मै ये दरवाज़ा तुडवा डोंगा, फिर क्या करेगी तू? मैंने अबकि गुस्से में कहा,

वो हंसी और चिल्लाई, "खा जाउंगी, मैं खा जाउंगी"

"ठीक है खा लियो जो चाहे, अब तू दरवाज़ा खोल" मैंने इस बार और तेजी से बोला,

लेकिन उसने दरवाज़ा नहीं खोला! तब शर्मा जी, पवन ने मिलके दरवाजे की अंदरूनी सांकल तोड़ डाली, दरवाज़ा खुल गया! मैंने त्रिपाठी और पवन को वहीं ठहरने को कहा और शर्मा जी के साथ अन्दर चला गया!

अन्दर कोमल कहीं नहीं दिखी, कमरा २० गुना १५ तो होगा ही, लेकिन वहाँ कोमल नहीं थी, मै आगे बढ़ा तो देखा की कमरे के आखिरी छोर पर एक अटैच टॉयलेट है, मै उस तरफ बढ़ा, जैसे ही वहाँ पहुंचा, तो कोमल ने अपने हाथ में पकड़ा हुआ एक प्लास मुझ पर फेंक के मारा, निशाना सटीक था, वो मेरे कोहनी ऊपर करते ही मेरी कोहनी से टकराया! कोहनी से टकराते ही वो हंसने लगी और बोली, "यहाँ आया है मुझसे बात करने! चल भाग यहाँ से!"

उसने सोचा मैं डर जाऊँगा, लेकिन मै फिर उसकी तरफ बढ़ा, जैसे जैसे मै उसकी तरफ बढ़ता वो नीचे अपना शरीर झुकाते जाती लेकिन अपनी नज़रें मुझ पर ही टिकाये रखती! फिर वो नीचे बैठ गयी! मै उसके सामने चला गया, वो बैठे हुए मेरे घुटने तक ही आ रही थी, अचानक वो वहाँ से झटका खा के टॉयलेट की तरफ बढ़ी! मैंने उसको उसके बालों से पकड़ लिया! उसने पलट के मेरे हाथ पर काटना चाह, लेकिन इससे पहले की वो काटती मैंने अपने उलटे हाथ से उसको एक करारा झापड़ रसीद कर दिया! झापड़ खाते ही उसने एकदम से ताव दिखाया और लम्बे-लम्बे सांस लेके गुर्राने लगी! मै उसको उसके बालों से ही पकड़ कर उसके बिस्तर पर ले आया और एक धक्का मार कर उसको वहाँ बिठा दिया! उसकी बोलती बंद हो गयी! मैंने उससे पूछा, "जो मै कहूँगा, उसका जवाब एक दम सही और जल्दी दियो, नहीं तो तू सोच भी नहीं सकती मै तेरा क्या हाल करूंगा!"

मैंने शर्मा जी को अपने पास बुलाया और उनसे कहा की वो इसके पास खड़े हो जाएँ, इसके चुप होते ही इसको बुलवाने के लिए झापड़ मारने के लिए तैयार रहें! कोमल ने ये सुनके घूर कर शर्मा जी को देखा और बोली, "तेरे को तो मै देख लूंगी"

मैंने जो ये सुना तो मैंने शर्मा जी से कहा, "शर्मा जी, ज़रा इसको देखना तो?"

उन्होंने उसके सर पे एक मारा हाथ दबा के! उसका सर बिस्तर पर लगा! वो संभली और फिर शर्मा जी से बोली "साले तेरे को तो मै देख लूंगी आज ही!"

मैंने फिर से शर्मा जी को इशारा किया और कहा, "इसको इसके बेहोश होने तक ऐसा गाँजो, ऐसा गाँजो की इसको अपना आगा-पीछा साफ़ दिखाई दे जाए! वो वहाँ जो लोहे का सब्बल रखा है, उसको उठाओ और इसको जांधे तोड़ दो मार मार के!"


   
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श्रीशः उपदंडक
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शर्मा जी उठे और वो सब्बल उठा लाये! अब वो बिस्तर पर पीछे की तरफ हुई और बोली, " तू जानता है मुझे? नहीं जानता ना????"

"तो यही तो तेरे से पूछ रहे हैं तू है कौन??" मैंने कहा,

"मैं खेवडी हूँ, १२ कोस तक मेरा राज है!" उसने कहा,

"कौन खेवडी?" मैंने पूछा,

"तू खेवडी नहीं जानता?? हा! हा! हा!" उसने हंस के कहा,

"शर्मा जी, उठाओ सब्बल, लगाओ इस खेवडी के सर पर!" मैंने कहा

तब शर्मा जी जे लोहे का सब्बल उठाया और कोमल के चेहरे की तरफ वार करने के लिए आगे बढ़े! कोमल डर गयी! मैंने कहा, "कोमल, अब मैं पुछू कुछ?"

"मेरा नाम कोमल नहीं है, मै खेवड़ रानी हूँ, खेवडी नाम है मेरा!" उसने अपने दोनों हाथ उठा कर कहा!

"अच्छा खेवडी रानी! अब ठीक है?" मैंने कहा,

"हाँ! अब ठीक है! अब पूछ क्या पूछेगा तू?" उसने अपने हाथ घुटने पर रख कर कहा!

"तू कब से इसके साथ है?" मैंने पूछा,

"२ महीनों से इसके साथ हूँ, मेरी सेवा करेगी अब ये!" उसने जोर से कहा,

"अच्छा एक बात और बता, ये खेवडी होता क्या है??" ये भी बतादे ज़रा,

"इसके बाप से पूछ, की खेवड़ रानी कौन होती है? जा पूछ जरा?" उसने अबकि ऐसा गुस्से में कहा,

"अगर तू बता देगी तो तेरी क्या नाक कट जायेगी? हैं री? तू ही जो बता दे?" मैंने कहा,

"देख, तू जा के अपना काम कर, ये हमारा आपसी मामला है। उसने कहा,

"आपसी? मतलब? किसका आपसी? इसके आदमी से आपसी या इससे आपसी?" मैंने पूछा,

"किसी से भी आपसी, तेरा क्या मतलब?" उसने आँखें दिखायीं!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"सुन खेवड़ रानी, अब ज़रा ध्यान से सुन, मैंने तुझको बहुत इज्ज़त की, तेरा मान रखा लेकिन तू बाज नहीं आई! अब तेरा इलाज करना पड़ेगा शुरू!" मै अब खड़ा हो गया था और उसके पास पहुंचा,

"अच्छा, पहले इसका तो इलाज करले!" उसने कहा,

मैंने कोमल को देखा, अचानक ही उसके बदन पर सफ़ेद सफ़ेद बड़े बड़े छाले उभर गए! मुझे थोड़ी हैरत हुई! ये न तो कोई प्रेत, महाप्रेत, चुडैल, पिशाचिनी कर सकती है, ये केवल एक ही है जो ऐसा बदलाव करने में सक्षम है! ये हैं, मसानी-मैया!

"ओह हो! तो तू मसानी-मैय्या है!!! खेवड़ गाँव के शिवानो की मसानी-मैया!" मैंने कहा!

"हाँ! अब पहचान गया न मुझे!" वो हंसी और हँसते-हँसते बिस्तर में लेट गयी!

"अब ज़रा खड़ी हो! इसका इलाज करता हूँ मैं!" मैंने कहा!

वो खड़ी हुई और अपनी साड़ी घुटनों से ऊपर कर ली और उसके पेटीकोट को ऊपर खींच के उसके अन्दर सर छुपा के बैठ गयी और आगे-पीछे हिलने लगी!

मैंने अपने गले में धारण एक माला को अपने गले से उतारा और अभीमंत्रित किया! और ३ बार उसको कोमल के सर पर छुआ दिया! उसने फ़ौरन ही पेटीकोट नीचे किया और उसके सारे छाले ठीक हो गए! ये देख के उसको हैरत हुई!

वो खड़ी हई और नाच करने लगी और चिल्लाई, "अरिया आजा! हरिया आजा! डोम डोम आजा! बाजीगर आया!" उसने ये कह कह के १० मिनट तक बिस्तर पर खड़े होकर गाया!

१० मिनट के बाद वो शांत हो गयी! मेरी तरफ घूर के देखा! मै भी उसको देखता रहा! मुझे अपने बदन में आग जलती महसूस हुई, पसीने छूटने लगे! मेरे हाथों में झुनझुनाहट होने लगी मुझे लगा की जैसे मुझे किसी सांप ने काट लिया हो! अत्यंत विषैले भुजंग ने! मैंने तब होम-मंत्र का जाप किया! और उसके अपने हाथ पर फूंक कर अपने सारे शरीर पर मल दिया! विष समाप्त हो गया!

अब मैंने कोमल को देखा, उसने अपनी आँखें खोलीं उतनी जितनी खोल सकती थी! फिर मुंह से अक्क्कर अक्कर की आवाज़ निकाली! एक झटके से अपनी आँखें बंद कि  और मुंह खोल दिया इतना कि मुझे उसका काग भी दिखाई दे रहा था!

अचानक उसके मुंह में मुझे कुछ हिलता दिखाई दिया! एक नीली सी वस्तु! वो बाहर आई! ये एक बड़ा काला सांप था! उसने बाहर आते ही अपना फन चौड़ा किया! और फुफकार मारी! फन इंतना बड़ा कि कोमल का चेहरा दिखना बंद हो गया! शर्मा जी भी थोडा पीछे हट गए!

ये मसानी-मैय्या मेरे साथ खेलने के इरादे से खेल दिखा रही थी! मैंने शर्मा जी को वहाँ से हटाया और मैंने क्षीर-मंत्र का अनुसन्धान किया! उसको तत्पर करके मैंने मसानी-मैया के ऊपर छोड़ दिया! 'भक्क'


   
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श्रीशः उपदंडक
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की जोरदार आवाज़ हुई! कोमल नीचे गिरी और सांप धुआं हो गया! लेकिन फिर से कोमल उठी और मुझे घूर घूर के देखा! उसने छत को देखा और कोमल के बदन को आढ़ा-तिरछा किया और फिर एकदम से धनुष आकार में कर लिया! और बिस्तर में कलाबाजियां खाने लगी! कोमल का सारा शरीर नीला पड़ गया! उसके बदन पर कानखजूरे और बिच्छू रेंगने लगे! वो छटपटाने लगी! सारे कानखजूरे और बिच्छू बिस्तर से निकल कर आस पास डोलने लगे! मैंने शर्मा जी को फ़ौरन एक कुर्सी के ऊपर आने का इशारा किया, वो ऊपर आये, मैंने तब शंजन-मंत्र का प्रयोग किया! उसको पूँक कर हवा में उड़ा दिया, 'कड़क' 'कड़क' की जोरदार आवाजें आयीं, सारे कानखजूरे और बिच्छू धुंआ हो गए!

अब तो मसानी-मैया को काटो तो खून नहीं! उसने कोमल को उसके पंजों पर उठाया और खून की उल्टियां लगवा दीं! सारे बिस्तर पर खून ही खून! मैंने तभी मंत्र पढ़ा और कोमल पर मारा, मंत्राघात होते ही, उसका खून बंद हुआ, लेकिन विष्ठा का ढेर लग गया! तब मैंने एक और मंत्र से उसका ये भ्रम भी हटा दिया! मसानी-मैय्या शांत हो गयी! उसने अपना सर ढक लिया! जोर जोर से आगे-पीछे झूमने लगी! मैंने कहा, " ओ मसानी-मैय्या! कोई और कसर भी बाकी है तो कर ले!"

"ठहर जा, अभी ठहर जा! मल्लाह-ठाकुर को बुलाया है, आने वाला है तेरी हड्डियां चबाने!" उसने गुस्से से कहा,

"अच्छा! मल्लाह-ठाकुर!! हाँ, बुला ले! उसको भी बुला ले!" मैंने कहा,

अब मसानी-मैय्या ने रोना शुरू किया! ऐसे जैसे की कोई परिवार मृत्यु होने पर विलाप करता है!

थोड़ी देर बाद, कोमल का शरीर पीला पड़ गया! मै जान गया, मल्लाह-ठाकुर की आमद है ये!

ये मल्लाह-ठाकुर एक तरीके का मसान होता है! काफी ताक़तवर और क्रूर!

कोमल के शरीर में से मल्लाह-ठाकुरने कहा, "राजा साहब आये!"

"आइये मल्लाह-ठाकुर साहब! आइये ज़रा मसानी-मैय्या को समझाइये, नहीं तो मै आज इस मसानी-मैय्या को तेरे साथ, सहारनपुर के 'सूखे' शमशान में जाके कील दूंगा! भूखे मरोगे वहाँ तुम दोनों!" मैंने हंस के कहा!

"आहा आहा! आज आया २०० सालों में बछेड़ा कोई!" उसने हंस के कहा!

"बकवास छोड़ ओये मल्लाह-ठाकुर!" मैंने खड़े हो कर कहा!

तब मैंने शर्मा जी को कहा, "शर्मा जी, आप ज़रा इस मल्लाह-ठाकुर की सेवा कर दीजिये!"

शर्मा जी आगे बढे तो वो बोला, "ओ शर्मा! तेरे बेटे की वो हालत करूँगा की तू उसके टुकड़े भी नहीं गिन पायेगा, अभी वो अपनी मौसी के घर पर है! हैं न!!"


   
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श्रीशः उपदंडक
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अब मेरे सब्र का पारा छोट गया! मैं खड़ा हुआ और बोला, " अबे ओ मल्लाह-ठाकुर? तेरी माँ की साले देख, देख तेरा बाप आया है, संभाल इसको!" ये कह के मैंने अपने हाथ के अंगूठे को छेदा और रक्त निकाला, निकालते ही मैंने अरुश्री नाम की एक अद्भुत शाकिनी प्रकट की मल्लाह-ठाकुर का मुंह खुला का खुला रह गया! बोला, "ओ हरामजादी मसानी-मैया? मरवाने के ठौर पे लायी है क्या?" वो ये कह के वहाँ से भागा!

अब मसानी-मैय्या को पता लग कि आज तो फँस गयी वो! उसने कहा, "सुन मै मान गयी तुझे, लेकिन मुझे इसके लड़के का कलेजा खाना है, मुझे वो दिला दे, मै चले जाउंगी! इससे अच्छी संतान दूंगी, ये मेरा वचन है!"

"सुन! अब तू जायेगी! ज़रूर जायेगी! लेकिन खाएगी कुछ नहीं! कुछ नहीं!" मै चिल्लाया और एक महा-मंत्र जागृत किया!

मैंने षोडशी-त्रिपुर-सुंदरी-मंत्र का महाजाप किया! मेरे इस जाप के समय मसानी-मैय्या ऐसी तड़पी, ऐसी तड़पी कि जैसे उसके अस्तित्व पर बन आई हो! मैंने अपना खंजर इस मंत्र से अभिमंत्रित किया और बढ़ा कोमल की तरफ! कोमल उठी और बिस्तर के कोने पर खड़ी हो गयी! मैंने कहा, "ओ मसानी-मैय्या! चल तेरे ससुराल जाने का समय आ गया!"

"नहीं नहीं! ऐसा मत कर पुत्र! ऐसा मत कर!!" वो चिल्लाई!

"सुन ज़रा अब तू यहाँ से दफा हो, बहुत हो गया, अब तेरा काम तमाम!" मैंने अपने खंजर को उठा कर उसे ऐसे दिखाया की जैसे मै उसका क़त्ल करढूंगा!

"इसकी गलती की सजा मुझे क्यूँ?" वो चिल्लाई,

"इसकी कौन सी गलती? साफ़ साफ़ बोल??" मैंने ये कह के अपना खंजर नीचे किया,

"जब इसके औलाद नहीं थी, तब इसने मुझको नहलाने की, और मुझे दावत देने की बात कही थी, मैंने मान लिया, लेकिन औलाद होने के २ साल बाद तक भी इसको अपनी बात याद नहीं आई!" उसने कहा,

"अगर ऐसा है तो तेरे को नहला देगी ये और तेरी दावत भी कर देगी, मै वचन देता हूँ!" मैंने कहा,

"मैं गाँव के बाहर चामड के मंदिर के गूलर के पेड़ पर रहती हूँ, वहां लेके आना इसको, मै इस अमावस को वहाँ रहूंगी, और सुन अगर ये अमावस को नहीं आई तो तू बीच में नहीं आएगा! इस से मै अपना हिसाब अपने आप चुकता कर लूंगी!" उसने गुस्से से कहा!

"ठीक है, परसों अमावस है, मै इसको ले आऊंगा! अब तू दफा हो यहाँ से, तभी मै इससे बात करूंगा!" मैंने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"अरिया जा! हरिया जा! रानी जा!!!" उसने ऐसा कहा, खड़ी हुई और नाची! फिर कोमल धडाम से नीचे गिरी! मसानी-मैया चली गयी थी!

मैंने दौड़ के कोमल को संभाला, कोमल ने अपने आपको एक अपरिचित व्यक्ति के हाथों में देखा तो वो डर गयी! मैंने तब आवाज़ देकर त्रिपाठी जी को बुलाया, वो दौड़ के अन्दर आये! मैंने कहा," त्रिपाठी जी, कोमल ठीक हो गयी है! आप, आपकी धर्मपत्नी और पवन आकर इससे मिल लो! इसकी हिम्मत बंधाओ, मुझे इससे बात करनी है अभी!" त्रिपाठी ने मेरी बात सुनी, अपनी पत्नी और बेटे को आवाज़ लगायी, वो दौड़ के अन्दर आये! मैंने शर्मा जी को लिया और बाहर आ गया,

अब मुझे नहाने जाना था, मै फ़ौरन से अपने कपडे लेके नहाने चल गया और मेरे बाद शर्मा जी, हमको इसमें आधा घंटा लग गया, उसके बाद मै फिर से कोमल के पास पहुंचा, अब वो थोडा संयत हो चुकी थी, मै वहाँ एक कुर्सी पर बैठा और बोला, "कोमल, अपने गाँव के बाहर चामड के मंदिर पर तुमने कभी कोई वचन दिया था, अपनी संतान होने से पहले??"

"हाँ दिया था, मै एक बार किसी के कुआँ-पूजन पर गयी थी वहाँ, तब मैंने मन ही मन ऐसा कहा था, लेकिन मै बाद में भूल गयी" उसने कहा,

"उस भूल की सजा सभी को मिली, देखो कोमल, इस संसार में कई ऐसी शक्तियां हमारे आस पास मौजूद रहती हैं, या तो उनसे मांगो ही मत, और अगर मांगो तो जो कहा है, वो उनको दे दो! देखो, ये केवल इंसान है, जो भूल जाता है, कह के मुकर जाता है! लेकिन ये शक्तियां कभी नहीं!" मैंने उसको बताया!

मेरा ऐसा जवाब सुन कर वो रो पड़ी, उसने अपने पति और बेटे के बारे में पूछा, त्रिपाठी जी ने उनके सकुशल होने की बात कही!

और फिर अमावस की रात्रि की कोमल और उसके परिवार को लेकर मै चामड के मंदिर पहुंचा, वहाँ उनकी पिंडी को कोमल ने कच्चे दूध से नहलाया और उनको भोग दिया! श्रृंगार किया। उसके बाद उस गूलर के पेड़ की जड़ को नहलाया! भोग रखा और क्षमा मांगी! कोमल ने अपना वचन पूरा किया!

अगले दिन कोमल के पति अपनी संतान को लेकर, अपनी माँ को लेकर वहाँ आ गए! कोमल ठीक हो चुकी थी, कोमल ने ये कर उनसे क्षमा मांगी! वो उसको उसी दिन शाम को विदा करके ले गए! एक परिवार फिर बस गया था!

और उसी रात को मै और शर्मा जी, त्रिपाठी जी के रोकने के बाद भी, रात को दिल्ली के लिए रवाना हो गए! एक हफ्ते बाद त्रिपाठी जी अपने परिवार से साथ मुझसे मिलने आये! सब कुछ ठीक हो चुका था!

अट्टहास लगाने के पश्चात, समस्त भोग लगाने के पश्चात उसने मुझे मेरी कमर से उठाया और अपने चेहरे की तरफ ले गया फिर उसने गर्जन करने वाली आवाज़ में बोला," ख़मख़म ठं ठं शंख-क्रियान्वे?????????????????????" इसका अर्थ ये कि मै आगे का मंत्र पूर्ण करूँ! मैंने कहा," क्रियादिपंताओ ठंठं हुम् फट्ट!"


   
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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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उसने मुझे नीचे छोड़ दिया! फिर एक भयानक अट्टहास लगाया! वो नीचे झुका और उसके हाथ में एक छोटा सा पात्र आया! उसने वो पात्र मुझे दिया और देकर वापिस वहीँ उड़ चला! जहां से वो नीचे कूदा था! साढ़े सात घटी समाप्त होने में मात्र २ मिनट थे! मैंने आद्य-मंत्र पढने चालू रखे! २ मिनट के पश्चात वो बेताल जैसे अचानक आया था वैसे चला भी गया! मैंने ज्वाला और सरभंग को आवाज़ देकर बुलाया! उनकी खुशी का कोई ठिकाना नहीं था! वो दोनों मेरे पाँव में पड़ गए! मैंने तब एक मछली ली और उसके मुंह में बेताल के दिए पात्र की एक बूंद उसके मुंह में डाली और उसे ज़मीने में गड्ढा खोद कर गाढ़ दिया! फिर मैंने उस द्रव्य को चारों मछलियों के मुंह में डाल कर एक एक मछली सभी को बाँट दी! वो हम सभी को वहाँ, क्रियास्थल पर जिंदा खानी थी, तीन टुकड़े से अधिक किये तो फल नहीं मिलेगा! हमने वो जिंदा मछलियाँ खाली!

ज्वाला और सरभंग को खोया हुआ 'राज' मिल गया! मुझे बेताल को प्रसन्न कर स्वयं बेहद प्रसन्नता हुई! २ दिनों के बाद मै और शर्मा जी, वापिस दिल्ली आ गए!

हाँ! बेताल का दिया पात्र मैंने आते हुए श्री गंगा जी में बेताल-साधना मंत्र पढके जल में प्रवाहित कर दिया!

-----------------------------------साधुवाद!--------------------------------

 

 


   
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