सिरोही, राजस्थान की...
 
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सिरोही, राजस्थान की एक घटना

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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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"जी बाबा?" बोला वो,
"तुझे जाना होगा रणवीर" बोले वो,
"कहाँ?" पूछा उसने,
"दूर, यहां से दूर" बोले वो,
"मैं तो बहुत दूर हूँ" बोला वो,
"उस, लड़की से दूर" बोले वो,
इशारा करते हुए, उस रूपाली की तरफ,
"नहीं बाबा" बोला वो,
"क्यों?" बोले वो,
"नहीं जा पाउँगा" बोला वो,
"जाना तो होगा?" बोले वो,
"नहीं जा सकता" बोला वो,
"मैं भेजूंगा" बोले वो,
रणवीर, काटो तो खून नहीं!
जैसे प्राण सूख गए हों,
जैसे, सकते में आ गया हो!
"आ अब" बोले वो,
और चल पड़े वो, रूपाली की तरफ,
पहुंचे वहां,
अब बैठ गए बाबा,
उन्हें भी बिठा लिया नीचे,
"रूपाली, आज देख ले इसे, मिल ले, बतिया ले, अब नहीं आएगा ये आज के बाद" बोले वो,
रूपाली अवाक!
दृष्टि, जैसे खो गयी!
बाबा की बूढी आँखों से अटक गयी!
थूक भी न गटका जाए!
"नहीं बाबा, ऐसा मत कजिये" बोली रूपाली,
बोलते ही, रुलाई फूट गयी उसकी!
"समझ बेटी, एक प्रेत का और एक इंसान का क्या मेल?" बोले वो,
"नहीं बाबा, मैं मर जाउंगी इनके बिना!" बोली बाबा के पाँव पकड़!
"कोई नहीं मरता लड़की!" बोले वो,
"बाबा??" बोली वो,
"हाँ, कोई नहीं मरता, ये हवा है, हवा आई, और चली गयी" बोले वो,
"नहीं बाबा........" बोली वो,
"रणवीर?"" बोले वो,
"जी?" बोला वो,
"जा, अब तू जा, जब तक न कहूँ, न आना" बोले वो,
"जी बाबा" बोला वो,


   
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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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हुआ खड़ा,
देखा रूपाली को,
रूपाली रो रही थी, सीना फटे जा रहा था रणवीर का,
क्या करता?
प्रेत था!
क्या चलती उसकी!
उत्तर नीचे,
और रूपाली जैसे ही उठी, उसे रोकने को,
पकड़ लिया बाबा ने!
इशारे से समझा दिया,
बिठा दिया,
रूपाली,
आवाज़ दे,
रोये,
झीके,
पुकारे उसका नाम,
वो बार बार पीछे देखे,
लेकिन रुके नहीं,
चलता गया,
घोड़े पर हुआ सवार,
एक बार देखा,
लगाई एड़,
खींची लग़ाम,
घोड़े ने अपने पाँव उठाये आगे के दोनों,
हिनहिनाया,
और पकड़ी गति!
रूपाली रोये!
उठ उठ भागे!
और बाबा, अपनी पकड़ से,
न उठने दें उसे!
वो चला गया!
हुआ ओझल!
अब कब आये,
कब नहीं,
पता नहीं!
और अगले ही पल,
खाया गश रूपाली ने,
झूलती चली गयी,


   
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श्रीशः उपदंडक
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हुई बेहोश,
बाबा ने देखा उसे,
इस दफा, गौर से,
गीता भागी चली आई थी,
बदहवास सी!
आधा घंटा बीता,
बाबा शांत!
देखे जाएँ उसे,
नब्ज़ देखें, नथुनों से उंगलियां छुआएं!
गीता मिन्नतें करे!
बाबा एक न सुनें!
घंटा बीता!
न आया होश!
हुए खड़े बाबा!
देखा उधर, उधर, जहां गया था वो रणवीर!
''आ जा! आजा रणवीर! तेरी अमानत है, मेरा काम खत्म!" बोले वो,
कुछ पल बीते,
और धूल उड़ाता हुआ,
मिट्टी फांकता हुआ,
हवा से बातें करता हुआ!
बुक्कल मारे,
आ रहा था!
आ रहा था वो रणवीर!
वक़्त की गर्द से, बाहर आते हुए!
अब खुरों की आवाज़ आने लगी,
टाप, उसके क़दमों की टाप!
"रूपाली बेटी?" बोले बाबा,
आँखें खुल गयीं उसकी!
उठाय उसे,
"वो देख!" बोले वो,
आ रहा था रणवीर!
भाग पड़ी!
गीता भागने को हुई!
रोक लिया बाबा ने,
उतरी वो, न झाड़ी देखे,
न कांटे देखे,
बस, रणवीर! सिर्फ रणवीर!
वो आया!


   
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श्रीशः उपदंडक
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कूदा घोड़े से!
उठा लिया रूपाली को!
भर लिया बाजूओं में,
वो दोनों, लिपट, एक हो गए!
एक मुस्कान, हल्की सी,
बूढ़े होंठों पर चढ़ आई!
"प्रेम! विशुद्ध प्रेम!" बोले वो,
गीता ने सुना!
मुस्कुरा पड़ी!
मिल गयी बाबा की सहमति!
जीत गया प्रेम रूपाली और रणवीर का!
घोड़े पर चढ़ा लिया रूपाली को!
खुद चढ़ा!
और लगाई एड़!
दौड़ पड़ा घोडा!
ले चला रणवीर उसे!
लगाए चक्कर!
और बाबा!
हाथ उठाये,
उन्हें आशीर्वाद सा दें!
हाथ हिलाएं!
मुस्कुराएं!
"प्रेम! देह का मोहताज नहीं!" बोले वो,
सत्य!
सत्य कहा उन्होंने!
प्रेम देह का मोहताज नहीं!
ये तज़ुर्बा था उनका!
कितना सटीक कहा था उन्होंने!
उनकी बूढी आँखें,
उस घोड़े को,
लगातार देखे जा रहे थे!
वो चक्कर लगाए जा रहा था!
फिर आया उनकी तरफ वो घोडा!
आया, और रुका!
वे उतरे!
और चढ़े ऊपर!
बाबा मुस्कुराये!
चले आगे!


   
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श्रीशः उपदंडक
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आये वो दोनों उनके करीब!
गीता दौड़ पड़ी!
लगा लिया गले से, गीता को रणवीर ने!
सर पर हाथ फेरे उसके!
फिर चला आगे!
आया बाबा के पास!
हुआ पास खड़ा!
"तू, विफल नहीं हुआ!" बोले वो,
मुस्कुरा पड़ा वो!
"आ मेरे साथ!" बोले वो,
और ले चले साथ उसे!
एक जगह रुके!
"आगे की राह, बहुत कठिन है रणवीर!" बोले वो,
"आप हैं न!" बोला वो!
"ग्यारह बरस में, दो माह कम!" बोले बाबा,
चुप रणवीर!
"इसी में बहुत कुछ करना है मुझे!" बोले वो,
"बयासी बरस, काटने होंगे तुझे" बोले वो,
"काटूंगा" बोला वो,
"हाँ!" बोले वो,
"रणवीर?" बोले वो,
"जी?" बोला वो,
"रूपाली तेरी हो गयी है!" बोले वो,
मुस्कुरा पड़ा,
"और तू उसका!" बोले वो,
"लेकिन.........." बोलते बोलते, रुके वो,
"लेकिन क्या बाबा?" पूछा उसने,
"तुझे ब्याहना होगा उसे!" बोले वो,
चौंक पड़ा!
उछल पड़ा वो!
अपनी विवशता पर,
फिर हंस पड़ा!
"तू विवश नहीं है!" बोले वो,
मुस्कुराया!
सूरज को,
चाँद कहने से, वो चाँद नहीं होता!
आँखें ढांपने से,
सूरज लोप नहीं हो जाता!


   
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श्रीशः उपदंडक
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असलियत तो यही है!
इसीलिए मुस्कुराया वो!
"मुझ पर विश्वास नहीं?" बोले बाबा,
उसके कंधे पर हाथ रखते हुए,
"नहीं बाबा? ऐसा न कहें?" बोला वो,
"तो, वही कर, जो मैं कहता हूँ" बोले वो,
"हुक्म" बोला वो,
"आ" बोले वो,
और चले वापिस,
रूपाली की तरफ,
देखा रूपाली ने, तो इशारा कर,
बुलाया उसे, वो भाग पड़ी! भाग पड़ी, आने के लिए उनके पास!
मित्रगण!
बाबा को जहां अनुभव था,
वहीँ उनकी बुद्धि भी तीक्ष्ण थी!
वो त्वरित निर्णय ले रहे थे,
वे जानते थे, कि वे दोनों अपना सर्वस्व लगा चुके हैं,
अपने प्रेम की थाह में!
अलग करने का सबसे बड़ा खामियाज़ा,
उस रूपाली को भुगतना पड़ता,
और वो, रणवीर, रणवीर की तड़प और बेबसी,
उसके ज़िम्मेवार बाबा ही होते!
प्रिया मित्रगण!
अब कथा-समापन का समय है!
अब मैं लिखता हूँ अपने ही शब्दों में,
कि आगे हुआ क्या,
.........................
बाबा ने, रूपाली के माँ-बाप को सबकुछ समझा दिया,
उंच-नीच, भलाई-बुराई, क्या होगा और क्या नहीं, सबकुछ,
विवशतावश ही सही, पुत्री-मोह ही सही, वे झुक गए,
ग्यारह दिन बाद, अमावस थी,
प्रेत-विवाह, अमावस को ही होता है!
उस रात, खूब सजी-धजी वो रूपाली!
गीता ने मदद की, माँ ने मदद की,
कन्या पक्ष के सभी लोग थे वहाँ, उसके घर वाले,
और वर-पक्ष से, बाबा खड़े हुए थे!
सिरोही के ही एक प्राचीन मंदिर में,
उस रात विवाह सम्पन्न हुआ था उन दोनों का,


   
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श्रीशः उपदंडक
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विवाह-विधान और रीति-रिवाज, सब बाबा ने ही निभाये थे!
वो मंदिर आज भी है,
आज भी, एक देवी माँ की मूर्ति विराजित है वहाँ,
यही साक्षी थीं उस विवाह की,
और आज भी हैं,
तो विवाह सम्पन्न हो गया था!
रूपाली ने, वही गहने पहने थे उस रात, जो उसे,
रणवीर ने दिए थे!
अब दूसरी बात,
बाबा ने ऐसा क्या किया?
मित्रगण!
उन बाबा को प्रणाम!
चरण-स्पर्श!
बाबा ने तंत्र-बल और अपने योग बल से,
वो समय, स्थान और मुहूर्त आदि का सृजन कर लिया था,
जब ये रणवीर, और रूपाली, जन्म लेते!
बाबा उसके बाद,
निरंतर दोनों से मिलते रहे,
दस वर्ष और दस माह के आखिरी दिवस,
उस रोज, अमावस थी,
बाबा ने दोनों को बुलाया था,
और उन्हें सबकुछ बता दिया था,
और ये भी, कि उन दोनों को, अगले जन्म में,
आंत्र अपना प्रेम ही याद रहेगा, और कुछ नहीं!
वो पहचान लेंगे एक दूसरे को!
और प्राण त्याग दिए थे उन्होंने उसी रात!
मित्रगण!
कुल बयासी वर्ष बीते!
और जयपुर में, दस दिसंबर उन्नीस सौ इकत्तीस में,
भान सिंह के यहां एक पुत्र ने जन्म लिया!
ये, वही था, वही रणवीर!
इस विषय में, रणवीर को बाबा ने, बता ही दिया था!
उसे ठीक तीन वर्ष बाद,
दस दिसंबर उन्नीस सौ चौंतीस में, मुरली प्रसाद,
जो कि एक सेठ थे, चार पुत्रों के बाद, एक पुत्री ने जन्म लिया,
ये, वही रूपाली थी!
समय आगे बढ़ा!
दस दिसंबर उन्नीस सौ बावन को, उन दोनों का ब्याह सम्पन्न हुआ!


   
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श्रीशः उपदंडक
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जैसा बाबा ने कहा था, ठीक वैसा हुआ!
क्यों हुआ?
ऐसा कैसे सम्भव है?
सम्भव है!
बाबा ने अपनी मुक्ति टाल दी थी!
कब तक? उनके ब्याह तक!
धन्य हैं वो बाबा!
ऐसे मनुष्य, सच में दिव्य ही हुआ करते हैं!
उन्हें क्या लालच था?
कुछ नहीं!
क्या चाहिए था?
कुछ नहीं!
उन्होंने, जैसे विधान रच दिया था!
प्रणाम बाबा!
रणवीर और रूपाली से दो पुत्र संतान हुईं!
एक का नाम, सोम नाथ, दूसरा ओम नाथ और कन्या, गीता था!
और वो जो बाबा थे!
उनका स्वयं का नाम ही सोम नाथ था!
इन्हीं सोम नाथ के ज्येष्ठ पुत्र बाबा शाल्व हैं!
प्रणाम उन्हें!
चरण स्पर्श!
चरण-धूलि सर माथे!
मित्रगण!
ये परिवार आज भी है!
मैं मिला हूँ उनसे!
शालीनता तो जैसे कूट कूट के भरी है सभी में!
हाँ, और एक बात,
वो बड़ा पत्थर, आज भी है!
लोग, दीया-बाती कर दिया करते हैं उसकी!
सिन्दूर के टीके लगाते हैं, कन्या का विवाह हो जाता है, ऐसी मान्यता है!
वो गहने,
आज भी हैं!
मैंने भी देखे,
लेकिन छुए नहीं गए!
अपने पाप दीख पड़ते हैं!
बस इसीलिए!
और वो बाबा सोम नाथ!
उनका स्थान आज भी है!


   
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श्रीशः उपदंडक
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जब कभी जाना होता है उधर,
तो माथा ठिकाने चला जाता हूँ!
तो मित्रगण!
ये थी गाथा एक प्रेम की!
एक रूपाली!
और एक रणवीर!

------------------------------------------साधुवाद-------------------------------------------

 


   
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