सिरोही, राजस्थान की...
 
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सिरोही, राजस्थान की एक घटना

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श्रीशः उपदंडक
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रूप-रंग, सब बदल गया था!
जब भोर का सूरज,
निकलता है, लालिमा लिए हुए,
तो ओंस की बूँदें,
केसरियां सी दीखती हैं,
यदि पूर्व में मुंह करके देखो तो!
लगता है,
लालिमा के कण बिखरे पड़े हैं!
ऐसी चमक रही थी रूपाली!
उसके हाथ,
बिलकुल ठीक थे!
माँ के आँखों में,
झिलमिला गए आंसू!
पानी लेने गयी वो,
लिया घड़े से पानी!
भाई भी बिन मुस्काये न रह सका!
पानी पिया,
और चली रसोई की तरफ,
वो सवा महीना, जैसे नदारद था उसकी यादों से!
माँ न रोक सकी खुद को!
दौड़ पड़ी रसोईघर के लिए!
चिपका लिया रूपाली को!
फूट फूट के रोये माँ!
और बड़े ही प्यार से,
थाली पर, सब्जी रखे, आचार रखे, और रोटी रखे!
ली रूपाली ने थाली, और चली अपने कमरे!
और वही हुआ!
रात को, पिता जी और वो बाबा आ गए, साथ में, एक और जानकार आये थे,
बाबा की उम्र कोई पचहत्तर वर्ष रही होगी,
थोड़ा झुक कर चलते थे,
लम्बी दाढ़ी थी, और साफ़ पहनते थे,
इकहरा बदन था बाबा का,
चेहरे पर, तज़ुरबात की लकीरें पड़ी थीं,


   
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श्रीशः उपदंडक
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आँखों में, अभी चमक शेष थी,
बूढ़े चेहरे पर अभी भी, कर्मठता थी और,
विश्वास झलकता था!
घर में आये बाबा तो,
न तो सूंघ की ली,
न देख और न ही कोई रेख!
बस सामान्य से ही रहे,
वो इसलिए कि,
वो चले ही सारा माज़रा समझ के थे अपने स्थान से,
अब रणवीर विशेष था, इसिलिय स्वयं आये थे!
जहां रणवीर विशेष था, वहीँ ये प्रेम-गाथा भी विशेष थी!
इसीलिए स्वयं ही चले आये थे,
किसी और कनिष्ठ को नहीं भेजा था उन्होंने!
घर आये, थोड़ा आराम किया,
हाथ-मुंह धोये, कुल्लादि किया,
और फिर भोजन कर, सो गए थे!
सुबह कोई दस बजे,
रूपाली के पिता जी को बुलाया,
कि वो उनको ले जाएँ रूपाली से बात करवाने के लिए,
वे ले गए, कमरे में जा बैठे,
पिता जी को, भर भेज दिया,
रूपाली, थोड़ा सा घबराई,
फिर संतुलित हो गयी,
रणवीर ने कहा था कि कोई नहीं डरा पायेगा उसको!
इसी भरोसे पर, संतुलित हो गयी थी!
"बेटी?" बोले वो,
"जी बाबा?" बोली वो,
"यहां बैठो!" बोले वो,
"मैं यहीं ठीक हूँ" बोली वो,
"बूढा आदमी हूँ बेटी, गरदन नहीं मोड़ी जाती!" बोले मुस्कुरा कर,
वे मुस्कुराये तो रहा-सहा, डर भी धुआं हो गया!
"बेटी?" बोले वो,
"हाँ बाबा?" बोली वो,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"सुनो, डरना नहीं, कोई ज़ोर-ज़बरदस्ती नही है तेरे साथ, ठीक?" बोले वो,
"जी" बोली वो,
"कितने दिनों से मिल रहे हो?" पूछा उन्होंने,
"साल भर हुआ" बोली वो,
"कभी कोई दिक्कत-परेशानी?" बोले वो,
"नहीं बाबा" बोली वो,
"कभी कोई 'संबंध'?" पूछा उन्होंने,
"नहीं बाबा" बोली वो,
"कभी उसने कहा?" बोले वो,
"वो तो स्पर्श भी नही करते" बोली वो,
अब बता रही थी सबकुछ! 
"कभी रात्रि में?" बोले वो,
"नहीं बाबा" बोले वो,
"कब मिलती हो?" बोले वो,
"तीसरे दिन" बोली वो,
"हर तीसरे दिन?" बोले वो,
"हाँ बाबा" बोली वो,
"अच्छा बेटी" बोले वो,
"क्या उसके बिना रह सकती हो?" पूछा उन्होंने,
"नहीं बाबा, नहीं रह सकती मैं, मर जाउंगी" बोली वो,
"हम्म" बोले वो,
कुछ सोचा,
"और वो?" पूछा फिर,
"वो भी नहीं रह सकते बाबा!" बोली वो,
"अच्छा, ऐसा लगता है तुझे?" पूछा,
"हाँ" बोली, विश्वास से,
"और अगर रह ले?" बोले वो,
"नहीं रह सकते" बोली वो,
"चलो माना, नहीं रह सकते, और बेटी.....अगर..........वो रह ले, तो?" बोले वो,
"तो क्या बाबा?" पूछा उसने,
घबरा गयी थी वो!
"देख बेटी, वो प्रेत है, है न?" बोले वो,
"हाँ" कहा उसने,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"उस पर, न समय का असर है, न मौसम का आदि आदि, है न?" बोले वो,
"पता नहीं, कभी पूछा नहीं" बोली वो,
भोली! भोली-भाली रूपाली!
"सुन, उसे तुझ से सुंदर कोई मिलेगी लड़की तो, तुझे छोड़ देगा वो!" बोले वो,
उठ गयी वो!
कांपने लगी!
क्रोध भी आया!
"बैठ जा!" बोले वो,
बैठ गयी!
"मैंने झूठ नहीं कहा!" बोले वो,
"आपने गलत अवश्य ही कहा!" बोली गुस्से से,
"यही तो हैं ये प्रेत! काहे का प्यार! बस, देह का आकर्षण!" बोले वो,
अब तो उबाल आ गया उसमे!
ऑंखें फाड़ और गाड़ के देखे बाबा को!
बाबा मुस्कुराएं!
"नहीं मानती?" बोले वो,
"नहीं" बोले वो,
"अच्छा!" बोले वो,
कुछ पल शांत!
"चल, तू जैसा चाहती है, ऐसा हो, यही चाहती है न तू?" बोले वो,
"हाँ!" बोली वो,
दिमाग सटासट चल रहा था उसका!
एक एक शब्द सुन रही थी!
"तो मेरा साथ दे!" बोले वो,
"कैसा साथ?" पूछा उसने,
"उस रणवीर को पाने के लिए, मेरा साथ दे बेटी!" बोले वो,
ये तो!
ये तो मन की बात कह दी बाबा ने!
हाँ! फिर तो ठीक है!
"लेकिन?" बोले वो,
डर गयी!
घबरा गयी!
"लेकिन क्या बाबा?" पूछा उसने,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"अगर वो इम्तिहान में पिछड़ गया, असफल हुआ, तो तू वही करेगी जो तेरे माँ-बाप चाहते हैं!" बोले वो,
असमंजस!
उहापोह!
शशोपंज!
"विश्वास नहीं रणवीर पर?" बोले मुस्कुराते हुए!
विश्वास!
"विश्वास तो अपनी जान से ज़्यादा है बाबा!" बोली वो,
"तो ठीक है!" बोले वो,
"क्या करना होगा?" पूछा उसने,
"ये तू जान जायेगी" बोले वो,
"कब?" पूछा उसने,
"कल" बोले वो,
"कल?" पूछा उसने,
"हाँ कल" बोले वो,
"कैसे?" पूछा उसने,
"कल आएगा वो!" बोले वो,
"कल? वो परसों आएंगे?" बोली वो,
"नहीं! वो कल ही आएगा!" बोले वो,
"कैसे?" पूछा मैंने,
"मैं बुलाऊंगा!" बोले वो,
मैं बुलाऊंगा?
कैसे बुलाएंगे?
ऐसी अनजान!
परेशान और हैरान!
"कल!" बोले वो,
सर झुका लिया उसने,
"सुन?" बोले वो,
"जी?" बोली वो,
"वो पोटली निकाल?" बोले वो,
"कौन सी?" पूछा उसने,
"वो, जी खोली नहीं आज तक?" बोले वो,
अब बाबा को कैसे पता?


   
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श्रीशः उपदंडक
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है वो पोटली,
पलंग के नीचे,
सरकाई हुई है!
"निकाल?" बोले वो,
अब वो झुकी,
टटोला उधर,
और खींच ली वो पोटली,
रख दी ऊपर,
"ला" बोले वो,
दे दी उठकर उन्हें,
"चल, तू खोल!" बोले वो,
ली उसने,
खोली गांठें!
उसके अंदर,
और एक पोटली!
"खोल इसे!" बोले वो,
खोला उसे,
तो गहने! सोने के गहने!
बाबा ने छुए! मुस्कुराये!
बहुत प्रेम करता है तुझसे!
माँ के जेवर हैं ये उसके! बहुत प्रेम करता है तुझसे!
"ले बेटी, रख ले, संभाल के रख!" बोले वो,
बाँध ली पोटली उसने,
बाबा ने, उस पोटली की गांठें, मज़बूती से बाँध दीं,
"ले बेटी, रख ले" बोले वो,
रख दी वो पोटली उसने वहीँ ही, जहां से निकाली थी!
फिर देखा रूपाली को!
"तेरी सहेली कहाँ है?" पूछा उन्होंने,
"वो गीता?" पूछा रूपाली ने,
"हाँ, वो गीता?" बोले वो,
"यहीं है पास में, बुलाऊँ?" बोली वो,
"नहीं, रहने दे, कल मिल लेंगे" बोले वो,
"जी बाबा" बोली वो,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"सच्ची सहेली है तेरी! बहुत अच्छी बात है बेटी!" बोले वो,
"हाँ, मेरी सबसे प्यारी सहेली है वो!" बोली वो,
"वो बहन बोलता है इसे?" बोले वो,
"हाँ बाबा!" बोले वो,
"उसकी बहन थी ऐसी, इसी के बराबर, उसे ही देखता है वो इसमें!" बोले वो,
"अच्छा बाबा" बोली वो,
"मुझे उसकी कोई बात गलत नहीं लगी बेटी!" बोले वो,
मुस्कुरा गयी!
"इसीलिए आया मैं खुद" बोले वो,
देखा बाबा को उसने,
"सच्चा आदमी था वो, ईमान का पक्का!" बोले वो,
"जी" बोले वो,
"चल, अब चलता हूँ, कल मिलेंगे बेटी" बोले वो,
उसके सर पर हाथ रखते हुए!
और चले गए बाहर!
बाहर, माँ-बाप हाथ जोड़े बैठे थे,
बाबा को आते देख,
हो गए खड़े,
बैठे बाबा,
माँगा पानी,
पानी दिया गया,
पिया पानी फिर,
गिलास, फंसा दिया, चारपाई की दामन में,
रूपाली के भाई ने निकाल लिया,
"बाबा, कोई खतरा तो नहीं है?" पूछा मोहर सिंह ने,
वे मुस्कुराये!
"मोहर सिंह! एक बात बता?" बोले वो,
"जी बाबा?" बोले वो,
"साल भर से, तेरी तिजारत घटी या बढ़ी?" पूछा बाबा ने,
"जी बढ़ी" बोले वो,
"कै गुना?" पूछा बाबा ने,
"चार गुना" बोले वो,
"तूने, क़स्बे में ज़मीन खरीदी?" बोले वो,


   
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श्रीशः उपदंडक
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चौंके मोहर सिंह!
किसी को न बताया था इस बारे में तो!
"हाँ बाबा" बोले सर झुकाते हुए,
"और पूछता है, खतरा?" बोले वो,
"मैंने बेटी के बारे में पूछा" बोले वो,
"उस पर कोई खतरा नहीं आने वाला मोहर सिंह!" बोले वो,
हाथ जोड़ लिए बाबा के!
तो वो दिन कट गया!
रात हुई, और बीत गयी!
हुई सुबह,
और दोपहर आई!
"बुला बेटा, अपनी बहन को" बोले रूपाली के भाई से बाबा,
"जी" बोला वो,
बुला लाया,
तभी, गीता भी आ गयी थी,
गीता से बातें कीं बाबा ने कुछ,
और फिर वे तीनों, चल पड़े!
पहुंचे सीधा बावड़ी, बड़ी बावड़ी,
चढ़े ऊपर, बाबा आहिस्ता आहिस्ता चढ़े,
गीता ने हाथ पकड़ाया था उनको!
कुछ बीते!
"देख बेटी! सामने देख!" बोले वो,
आ रहा था रणवीर!
धूल उड़ाता हुआ!
उसका घोड़ा, मिट्टी फांक रहा था खुरों से अपने!
द्रुत-गति से बढ़े चले आ रहा था रणवीर!
और कुछ ही पलों में, आ गया वो!
घोड़ा बाँधा,
मुश्क़ उतारी,
आज तो शाही से कपड़ों में आया था!
चुस्त-पाजामी में, और सुनहरे से कुर्ते में!
आज तो सजीला, और सजीला लग रग रहा था!
जूतियां चर्र चर्र कर रही थीं!


   
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श्रीशः उपदंडक
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आ गया ऊपर,
"प्रणाम बाबा!" बोला वो,
"प्रणाम रणवीर!" बोले बाबा!
उन दोनों से भी नमस्कार हुई!
"ला रणवीर, पानी पिला!" बोले बाबा,
"जी बाबा!" बोला वो,
मुश्क़ खोली,
और पिला दिया पानी,
रूपाली ने भी पिया,
गीता ने नहीं, हाँ, खुद ने पिया!
"रणवीर! तू सच में राजकुमार लगता है!" बोले बाबा,
उसके कंधे पर हाथ रखते हुए!
मुस्कुरा गया वो रणवीर!
"गीता?" बोले बाबा,
"जी बाबा?" बोली गीता,
"बेटी, ज़रा वहां चली जा, वहाँ बैठ जा" बोले वो,
करीब, पचास फ़ीट दूर,
और तब हुए बाबा गंभीर!
कुछ बातें हुईं,
कुछ गंभीर विषय,
"रणवीर?" बोले बाबा,
"जी बाबा?" बोला वो,
"मैं अगर कहूँ कि तू सिर्फ इस लड़की की सुंदर देह से प्रेम करता है तो क्या ये कहना मेरा गलत होगा?" बोले बाबा,
एक एक शब्द सुना!
फिर मुस्कुराया वो!
"जी, आपने जो कहा, वैसा रत्ती भर भी नहीं है!" बोला वो,
विश्वास से,
एक शब्द भी न टूटा!
"मैं कैसे मान लूँ?" बोले वो,
"कैसे मानेंगे आप?" पूछा रणवीर ने!
"बताता हूँ!" बोले वो,
ऊपर देखा!


   
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श्रीशः उपदंडक
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फिर उसे,
फिर रूपाली को!
"आज तुम्हें, रूपाली संग, संसर्ग करना होगा!" बोले बाबा!
रणवीर चौंका!
रूपाली चौंकी!
"नहीं बाबा!" बोला वो, कानों को हाथ लगा!
"क्यों?" पूछा बाबा ने,
"मेरा अधिकार ही नहीं है इनकी देह पर!" बोला वो,
"कैसे नहीं है?" बोले वो,
"मेरी ब्याहता नहीं हैं ये!" बोला वो,
थोड़ा पीछे जाकर!
"तो क्या है?" बोले बाबा,
"मेरी प्रेयसि" बोला वो,
"ब्याहता नहीं बनाना चाहता?" बोले वो,
अब क्या बोले?
हाँ बोले,
तो क्या औचित्य!
न बोले,
अन्याय करे रूपाली पर!
और बाबा का पलड़ा भारी हो फिर!
अब क्या बोले?
क्या बोलेगा वो?
"बेटी?" बोले वो,
वो चुप!
नज़रें ही न उठाये,
आँखें मूँद,
चुपचाप खड़ी रहे!
रणवीर?
वो क्या करेगा?
क्या कहेगा बेचारा?
बाबा!
बाबा ने क्या चाल खेली थी!
उन दोनों के ही शब्द!


   
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श्रीशः उपदंडक
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उन दोनों की ही चाहत!
उन दोनों की ही इच्छा!
उन दोनों का प्रेम!
गूंथ के रख दिया था बाबा ने!
"हाँ रणवीर?" बोले वो,
वो बेचारा चुप!
देखे ही नहीं उन्हें!
या यूँ कहें,
कि देखा ही न जाए!
प्रेत होने का ऐसा कड़वा सबक़?
इसमें उसका क्या क़ुसूर?
क्या उसका प्रेम, प्रेम नहीं?
खिलवाड़ है?
क्यों करेगा खिलवाड़ वो?
किसलिए?
इसीलिए न देखा जाए उस से!
"रणवीर?" बोले बाबा,
देखा उसने उन्हें!
"क्या सोचा?" बोले बाबा,
"ऐसा तो सम्भव ही नहीं!" बोला वो,
"सच में?" बोले वो,
"हाँ" बोला वो,
"इसके सर पर हाथ रख?" बोले वो,
रखा सर पर हाथ,
रूपाली के, रूपाली ने आँखें खोलीं अपनी,
"उठा क़सम, कि सम्भव नहीं?" बोले बाबा,
"हाँ, क़सम उठायी, नहीं सम्भव!" बोला वो,
मुस्कुरा गए वो!
हटा दिया उसका हाथ!
"रणवीर!" बोले वो,
"जी?" बोला वो,
"कुछ नहीं!" बोले वो,
और हंस दिए!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"अच्छा सुन?" बोले वो,
"जी?" बोला वो,
"ये अगर, अपनी उम्र पूरी कर ले, तो क्या इसकी रूह को, पकड़ लेगा तू?" बोले वो,
आँखें बंद कर लीं उसने!
"ऐसा न कहें बाबा" बोला वो,
"कैसा?" बोले बाबा,
"ऐसा, कि......" बोला वो,
"तुझे दुःख होता है?" बोले वो,
"हाँ" बोला वो,
"ये तेरी लगती कौन है? हाड़-मांस का पुतला है ये तो?" बोले वो,
"मेरा अस्तित्व हैं ये!" बोला वो,
"अच्छा सुन?" बोले वो,
"तू इसके बिना, रह लेगा?" बोले वो,
"नहीं" कहा उसने,
"ये मर जाए तो?" बोले वो,
आँखें लाल हो गयीं थीं उसकी! एक क्षण के लिए!
"मेरे होते हुए?" बोला वो,
"तू कब तक रहेगा साथ इसके?" बोले वो,
"जब तक सम्भव है" बोला वो,
हंस पड़े! 
कंधे पर हाथ रख कर उसके!
"देख, इधर आ ज़रा" बोले वो,
और उसका हाथ पकड़, ले चले एक तरफ,
पत्ते दबने की आवाज़ आई,
पीछे देखा,
रूपाली थी!
"तू ठहर जा बेटी!" बोले वो,

अनुभव क्र.९६ भाग ६

रुक गयी वो,
"चल अब" बोले वो,
और उस बावड़ी की सीढ़ियां उतरने लगे,
बाबा घुटनों पर हाथ रखते थे,
ये देखा रणवीर ने,


   
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श्रीशः उपदंडक
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खुद नीचे हुआ,
और दिया हाथ उन्हें,
"आओ बाबा" बोला वो,
"चल बेटा!" बोले वो!
उन्होंने तो कह दिया बेटा,
पर याद आ गया एक नेत्रहीन बाप उसे!
यही लहजा!
ऐसे ही ले जाता था वो उन्हें!
रुक गए बाबा!
"बाप?" बोले वो,
"हाँ बाबा!" बोला वो!
"समझ सकता हूँ!" बोले वो,
उतर आये नीचे,
रणवीर ने एक जगह साफ़ की,
और बिठा दिया उन्हें!
"रणवीर, तेरा प्रेम सच्चा है!" बोले वो,
रणवीर नज़रें बचाये!
"लेकिन, इंसानी तक़ाज़ों में, इसका कोई मेल नहीं!" बोले वो,
"जानता हूँ बाबा!" बोला वो,
"कितना इंतज़ार किया तूने?" पूछा बाबा ने,
"बयासी साल!" बोला वो,
"और पैंसठ साल करेगा?" बोले वो,
न समझा वो!
इसका अर्थ नहीं समझा!
"नहीं समझा?" बोले वो,
"नहीं बाबा!" बोला वो,
"वो, वो बेटी, पैसठ साल और जियेगी, और मैं, कुल छह वर्ष!" बोले वो,
"ऐसा न कहें बाबा, आप जब तक चाहें, जियें!" बोला वो,
"नहीं बेटे! विधान नहीं बदलने चाहियें!" बोले वो,
"जी" बोला वो,
"सुन?" बोले वो,
"पैंसठ और बाइस, इतना करेगा इंतज़ार?" बोले वो,
"आप हुक्म करें!" बोला वो,
"रणवीर! तेरे लिए ही आया मैं!" बोले वो,
"जानता हूँ बाबा!" बोला वो,
"मैं तेरी कोई परीक्षा नहीं ले रहा रणवीर!" बोले वो,
"जानता हूँ" बोला वो,
"मेरा बेटा, तेरी उम्र का ही था........." बोले वो,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"जानता हूँ, अमर पाल" बोला वो,
"हाँ, देख, इंसान हूँ, आज तक ग़म पाले बैठा हूँ" बोले वो,
"जानता हूँ, मैंने इसीलिए आपके एक कहे पर, दौड़ा चला आया!" बोला वो,
"मुझे विश्वास था!" बोले बाबा,
''और मुझे भी" बोला वो,
"तेरा प्रेम, मैं जानता हूँ!" बोले वो,
अब कुछ न बोला वो,
"तेरी विवशता, जानता हूँ" बोले वो,
सच में,
बहुत विवश था वो,
"तेरे संस्कार, जानता हूँ" बोले वो,
अब भी न बोला,
"सुन रणवीर?" बोले वो,
"जी?" बोला वो,
"तू बचपन में, वो.........." बोले और रुके,
"क्या बाबा?" बोला वो,
"बताता हूँ, रुक" बोले वो,
नस पर नस चढ़ गयी थी,
पसली की,
इसीलिए चुप हो गए थे!
रणवीर ने रखा हाथ,
और ठीक!
"चल, ले चल मुझे!" बोले वो,
"कहाँ बाबा?" बोला वो,
"अब ले जा!" बोले वो,
"बताइये?" बोला वो,
"बेटी के पास, रूपाली के पास!" बोले वो,
"आओ बाबा!" बोला वो,
और उठाया उन्हें,
दिया सहारा,
ले चला ऊपर उन्हें,
ले आया मुंडेर पर,
"बाबा?" बोला वो,
"हाँ?" बोले वो,
"वो बचपन में क्या?" पूछा उसने,
"हाँ!" बोले वो,
"बताइये!" पूछा उसने,
"तू क्या सोचता था?" बोले वो,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"कुछ नहीं बाबा?" बोला वो,
"झूठ?" बोले वो,
"नहीं बाबा!" बोला वो,
"बताऊंगा!" बोले वो,
"जी" बोला वो,
"सुन?" बोले वो,
"जी?" कहा उसने,
"एक कहा मानेगा?" बोले वो,
"आप कहें?'' बोला वो,
"दूर हो जा बेटे!" बोले वो,
क्या?
दूर हो जा?
किस से?
अपनी जान से?
ये,
क्या कह रहे हैं बाबा?
किस से दूर?
"बाबा?" बोला वो,
"हाँ! हो जा दूर!" बोले वो,
"असम्भव!" बोला वो,
"मेरे बाद, खैमद आएगा!" बोले वो,
"जानता हूँ" बोला वो,
''तू, धरा जाएगा" बोले वो,
"जानता हूँ" बोला वो,
"तू क़ैद हो जाएगा रणवीर!" बोले वो,
"जानता हूँ" बोला वो,
"तो, दूर हो जा!" बोले वो,
"मैं लड़ूंगा!" बोला वो,
"खैमद, कम नहीं!" बोले वो,
"न हो?" बोले वो,
"सोच ले?" बोले वो,
"सोच लिया" कहा उसने,
"तेरी राजी, चल अब" बोले वो,
चले अब रूपाली के तरफ, और तभी, बाबा ने रोका रणवीर को,
"रुक?" बोले वो,
वो रुका, और...................
रुक गया था रणवीर!
"सुन?" बोले बाबा,


   
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