सिरोही, राजस्थान की...
 
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सिरोही, राजस्थान की एक घटना

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श्रीशः उपदंडक
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न सुन रहा था किसी की भी,
और अचानक ही.............!
अचानक ही!
वहाँ पर, चले आये सिद्दा बाबा, वो भगत, वो चेला और पिता जी रूपाली के!
वो दिखा बस, बाबा को!
बाबा गुस्से में, आँखें लाल किये, नथुने फड़काए, देख रहे थे उसे!
रूपाली, गीता, सब चौंक पड़ीं!
बेचारी, नहीं जानती थी कि,
रणवीर नहीं दीख रहा किसी को भी उनमे से,
बस एक के अलावा!
अब बाबा ने, भगत को, और पिता जी को, भेजा वहां से,
और देखा फिर गुस्से से, रणवीर को!
रणवीर हुआ शांत, और किया अपने पीछे उन दोनों को!
चला रणवीर आगे!
देखा पीछे,
रोका उन दोनों को उसने वहीँ!
और चला ज़रा नीचे,
रुका, और देखा बाबा को!
"कौन है तू?" पूछा बाबा ने,
"रणवीर!" बोला सीना तान के!
"हम्म! डौलिया?" बोले बाबा,
"अरहट!" चौंके बाबा!
वो दीखने में, तेईस-चौबीस का सा लगता था,
और अरहट? एक महाप्रेत?
सैंकड़ों प्रेतों के बराबर दम-खम रखने वाला प्रेत?
ये? बाबा हैरान!
"हल्लुक?" बोले बाबा!
"रीशाल" बोला वो,
एक और झटका बाबा को!
इतना ऊपर?
कोई प्रेत,
सैंकड़ों वर्षों का समय लेता है,
एक महाप्रेत होने में!
और ये, पचहत्तर वर्ष के करीब में ही?
कैसे? क्या विशेषता?
"तुझे क़ैद करना होगा!" बोले बाबा!
"अवश्य, कीजिये प्रयास!" बोला वो,
और बाबा ने पढ़ा मंत्र,


   
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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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खड़ा रहा!
टस से मस न हुआ!
एक विद्या काटी,
दो,
तीन,
और कुल नौ!
सब बेकार!
बाबा के होश उड़े!
ऐसा कैसे संभव?
वो तो झुकवा दें, जिन्नात को भी?
फिर?
ये है कौन?
नहीं!
ये कोई महाप्रेत नहीं,
कोई दिव्य है!
अवश्य ही कोई दिव्य!
बाबा ने, फिर से प्रयास किया!
करुष-मंत्र लड़ा दिया!
फेंकी भस्म!
ये क्या?
भस्म, नीचे गिरी?
छू भी न पायी?
ब्रह्म-पिशाच को खदेड़ने वाला, करुष, निष्फल?
ऐसा कैसे?
कौन है ये?
नहीं!
नहीं!
ये कोई महाप्रेत नहीं है!
कोई और है!
और, छद्मवेशी!
कोई और!
"कौन हो तुम?" पूछा बाबा ने,
तुम!
तू से, अब तुम!
बाबा की, एक न चल रही थी!
काट पे काट!
ये तो बाबा के मान-सम्मान पर आघात था!
बाबा हैरान!


   
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श्रीशः उपदंडक
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क्या करें?
"ऐ लड़की? तू जानती है, ये कौन है?" बोले बाबा,
अब मुड़कर देखा रूपाली को रणवीर ने!
रूपाली चौंकी!
"जानती है?" बोले बाबा!
"हाँ, रणवीर!" बोली, विश्वास से!
"पागल लड़की? नहीं जानती न? ये एक प्रेत है, इंसान नहीं!" बोले बाबा!
प्रेत?
रणवीर, एक प्रेत?
नहीं!
ऐसा नहीं हो सकता!
"आ! इधर आ?" बोले बाबा,
नहीं आई वो!
"देख? इसकी कोई परछाईं नहीं! देख?" बोले बाबा,
अब आँखें झुकीं रणवीर की!
सच में, कोई परछाईं नहीं थी उसकी! 
"आया विश्वास?" बोले बाबा!
वे दोनों, सकते में थीं,
और, रणवीर, शांत सा, गर्दन झुकाये हुए,
क्या करता बेचारा,
क्या करता!
"आ, आजा! छोड़ इसे, इसे मैं देख लूँगा!" बोले बाबा!
गर्दन नीचे किये,
सिसकी भरी उसने!
फ़रेब!
याद आया उसे!
"न! झूठे हैं ये आंसू! आ, तू आ यहां?" बोले वो,
रूपाली!
पहाड़ के नीचे दब जाए!
ज़मीन, फट जाए,
बिजली, गिर जाए!
"आ, आ ओ लड़की?" बोले बाबा,
नथुने फड़के, फड़के रूपाली के!
हाथ पकड़ा!
गीता का!
चली नीचे!
"आ जा!" बोले बाबा!

 


   
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श्रीशः उपदंडक
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वे चलीं!
रुकीं!
देखा उस, गर्दन झुकाये,
बिन परछाईं वाले, रणवीर को!
"आ?" बोले बाबा!
रुकीं वो!
और एक झटके से,
दौड़ पड़ीं!
रोते रोते, चिपक गयी रणवीर से!
रणवीर!
रणवीर ने, एक एक बाजू में भर लिया उन्हें!
भरी हुंकार!
कसा उन्हें!
और खोली आँखें!
बाबा हुए पीछे!
समझ गए आशय!
पीछे!
और पीछे!
गीता रोये!
रूपाली रोये!
अपनी बाजुओं में दोनों को कसे!
गीता के सर पर हाथ फेरे!
रूपाली के माथे को चूमे!
वे दोनों रोये!
चुप कराये उन्हें!
साफ़ था, क़तई साफ़!
इस इंसानी दुनिया के सच से,
रणवीर का फ़रेब अच्छा!
सच्चा!
अच्छा!
हर मायने में!
कोई भी मायने हो!


   
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श्रीशः उपदंडक
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न छोड़े किसी को!
गीता!
उसकी छोटी बहन!
रूपाली,
उसकी प्रेयसि!
"लड़की? क्या कर रही है?" बोले बाबा!
वो! वो न सुने!
उसका रणवीर!
उसका अपना!
इस संसार से अपना!
परछाईं नहीं,
तो कोई बात नहीं!
लेकिन वो, मायने रखता है!
मायने, उसकी ज़िंदगी के टाँके के!
"लड़की?" बोले बाबा!
और लड़की न देखे!
उसके बदन से लिपट,
आँखें बंद किये,
अपने रणवीर पर, भरोसा किये, झूलती रही!
"बाबा!" बोला रणवीर!
"क्या?'' बोले बाबा,
"अब जाओ!" बोला वो,
"अच्छा?" बोले बाबा,
और कीं बंद आँखें,
पढ़ा, आवुश-मंत्र!
और अगले ही पल!
बाबा हवा में! 
ऐसे उड़े,
ऐसे उड़े,
कि कंधा टूट गया!
हाय ही हाय!
अब,
ये कौन ऐ?


   
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श्रीशः उपदंडक
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कौन?
जो, काटै है सभी मंत्र-तंत्र?
ये है कौन?
महाप्रेत ऐसा?
ऐसा ताक़तवर?
नहीं जानता था कोई!
उसको मिली थी ताक़त!
ताक़त, रूपाली और उसकी बहन की!
कौन करता उसका मुक़ाबला!
मित्रगण!
बाबा भागा!
सब भागे!
और तब!
"रूपाली?" बोला वो,
और रूपाली?
छोड़े नहीं उसे!
कस कर लिपटी थी!
रो रो के, कपड़े गीले कर दिए थे!
"रूपाली?" बोला वो,
"गीता?" बोला वो!
रूपाली!
देखे उसे!
वो प्रेत था,
तो क्या हुआ!
मीत! मन-मीत!
रणवीर!
तुझ जैसा न देखा कोई!
आंखों मे, आंसू भर लाया!
"रूपाली, मैं, एक प्रेत हूँ" बोला वो,
रूपाली की, आँखों के,
दीदे कांपे!
कभी इस आँख, कभी उस आँख!
न देख सका वो! 


   
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श्रीशः उपदंडक
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की गर्दन नीचे,
और तब, आया हाथ, उसके चेहरे के नीचे,
ठुड्डी के नीचे,
और फिर...................
बाबा और चेला उनका, हुए नदारद! ऐसे भागे जैसे गधे के सर से सींग!
रणवीर बेहद ताक़तवर महाप्रेत था!
वैसे भी, महाप्रेत बेहद ताक़तवर हुआ करते हैं,
रणवीर, यूँ कहिये कि, वहां अकेला रह कर,
जैसे ताक़त ही इकट्ठा कर रहा था,
वो अकेला, भटकता था उस मैदान में, जहां ये मेले लगते थे,
बस, तभी इंसानों से रु-ब-रु हुआ करता था,
कभी किसी के साथ ज़ोर-ज़बरदस्ती नहीं की,
कभी किसी को तंग नहीं किया,
बस, उस बड़े से पत्थर से टेक लगाए, देखता रहता था इंसानों को,
इंसान, एक दिन, वो भी कभी इंसान था,
जानता था इंसानी खूबियों और कमज़ोरियों को!
और ऐसा भी दिन आया, कि,
उसकी नज़रें चार हो गयीं उस रूपाली से!
पहली बार में ही, न जानता था वो, कि इस से,
उसका अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाएगा!
वो शांत, गंभीर मुद्रा में खड़ा था, सर झुकाये,
उसकी ठुड्डी के नीचे, हाथ लगा, चेहरा उठाया उसका,
संजीदगी भरी थी आँखों में उसकी,
उसने क़ुबूल कर लिया था सबकुछ,
अब बस फैंसला लेना था उस रूपाली को!
आँखें मिलीं दोनों की,
गंभीर थे दोनों ही,
नज़रें चुरा लेता था बार बार,
हटा लेता था नज़र,
न देख पाता था आँखों में रूपाली के,
रूपाली की आँखों से आंसू छलके,
शब्द न निकले,
निकालना तो चाहती थी,


   
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श्रीशः उपदंडक
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लेकिन कांपते होंठों ने, नहीं निकलने दिए!
हुआ आगे, एक झटके से,
और चिपक गयी उसके सीने से!
आँखें बंद हो गयीं दोनों की,
और पहली बार,
पहली बार अपनी बलिष्ठ भुजाओं में क़ैद किया उसने रूपाली को!
फैंसला हो चुका था!
रूपाली को इस से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ा था कि वो प्रेत था या कोई इंसान!
वो तो, प्रेम करती थी उस से, टूट कर!
उनको आलिंगनबद्ध देख, आंसू न रोक सकी गीता!
सिसकी छूट गयी गले से!
सुन लिया रणवीर ने, हटाया धीरे से रूपाली को,
और चला गीता के पास!
भींच लिए गीता को बाजूओं में!
आखिर, बहन थी वो उसकी!
रणवीर ने, अपनी बहन के विश्वास को गले लगाया था!
एक प्रेत पर यक़ीन किया था दोनों ने!
एक ऐसा महाप्रेत, जिसने तीन तीन बाबाओं को धूल चटा दी थी!
अब हुआ चलने का वक़्त!
वे दोनों, न जाने देना चाहती थीं उसे!
और जाना, उसकी विवशता थी! उसे जाना ही था!
दोनों को फिर से गले लगाया,
आँखों ही आँखों में, जैसे धन्यवाद किया,
और विदा ली उनसे फिर!
अब दो दिन बाद आता वो!
घोड़ा जब तक ओझल न हो गया, तब तक न हिलीं वो!
और उसके बाद, फिर लौट चलीं!
घर पहुंची रूपाली,
तो घर में बखेड़ा खा हो गया था!
माँ-बाप ने बहुत सुनाई,
उसे समझाया-बुझाया,
अंजाम बताया कि वो ले जाएगा साथ अपने उसे भी,
और वो भी,


   
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श्रीशः उपदंडक
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ऐसे ही भटकेगी जैसे वो भटक रहा है,
आदि आदि, अधपकी, पकी, कच्ची, सब सुनाई!
लेकिन अब,
अब तो फैंसला हो गया था!
रूपाली, न रह सकती थी उसके बिना!
एक न सुनी उसने,
इस कान सुन, उस कान बाहर निकाल दी,
वो गयी अंदर कमरे में,
और बाहर से, माँ ने सांकल चढ़ा दी!
कर दिया क़ैद कमरे में!
मित्रगण!
उसकी ये क़ैद, अब लम्बी होने लगी,
उसको दैनिक-आवश्यकता हेतु ही बाहर निकाला जाता,
और फिर से बंद कर दिया जाता,
वो न जा सकती थी अब मिलने,
न गीता को ही आने दिया जाता था अंदर!
वो तड़प कर रह जाती,
मन मसोस कर रह जाती,
रोती, झीकती, तड़पती, गुहार लगाई,
लेकिन घर पर, ऐसा कोई न था जो सुनता उसकी!
और रात को,
बाहर घर से,
घोड़ा हिनहिनाता!
उसकी टाप सुनाई पड़तीं!
कभी इधर, कभी उधर!
सुबह तक, ऐसा ही होता रहता!
माँ-बाप भी सुनते,
और रूपाली,
रो रो कर, बेसुध हो,
सो जाया करती, ज़मीन पर,
हाथ लाल हो जाते उसके,
दरवाज़ा पीट पीट कर,
लेकिन कोई न सुने!


   
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श्रीशः उपदंडक
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खाना-पीना छोड़ दिया था उसने,
कुछ न खाती,
रोती रहती,
पिता जी कहते, इस से तो अच्छा है कि ये मर ही जाए!
कम से कम शान्ति तो हो?
माँ का सीना फटता!
कपड़े में मुंह दबाये,
घंटों रोती!
रूपाली के पिता जी को समझातीं,
कि या तो जाने दें उसे, या इलाज करवाएं,
उसको ऐसे तड़पते हुए, नहीं देखा जाता उनसे....
अब कौन पिता चाहता है ऐसा?
वे भी विवश थे..........
माथा पीट लिया करते थे!
आखिर हुआ एक फैंसला!
पिता जी, जाने वाले थे एक जानकार के पास,
उसकी किसी अच्छे बाबा से जानकारी थी,
बाबा वृद्ध थे, और कुशल भी,
हज़ारों समस्याएं सुलझायीं थीं उन्होंने!
अगले दिन, तड़के ही, पिता जी निकल गए,
हुई दोपहर,
रोजाना की तरह,
गीता आई, हाथ जोड़े, विनती करे, रोये!
उस दोपहर,
माँ ने आने दिया उसे!
वो दौड़ के गयी कमरे तक रूपाली के,
हटाई सांकल,
घुसी अंदर,
रूपाली, बेहोश पड़ी थी,
हाथों से खून निकल रहा था,
दरवाज़े पर, खून के निशान थे,
चीख मार कर बैठी वो नीचे!
बदहवासी में, बार बार नाम पुकारे उसका!


   
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श्रीशः उपदंडक
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माँ आई, देखा, तो बुरी तरह रो पड़ीं!
पानी मंगवाया, छिड़का, वो जागी वो,
देखा गीता को, बढ़ाया हाथ आगे अपने!
गीता ने पकड़ा हाथ, उठाया उसे,
और धीमे क़दमों ने, चली बाहर,
बाहर आई, तो धूप की चमक न झेली जाए,
अपना कपड़ा दे दिया उसे,
और ले चली बाहर!
न रोका माँ ने उस, उस दिन!
धीमे क़दमों से, चल पड़ीं वो,
उस बड़ी बावड़ी तक,
होश न था उसे,
बस मुंह से,
कुछ बड़बड़ाये जा रही थी,
वो कई बार गिरते गिरते बची,
गीता न संभालती तो गिर जाती,
उठा भी न जाता उस से,
ले आई बावड़ी तक,
बिठा दिया उसे,
आगे बढ़ी,
हाथ की छाँव दे,
देखा आँखों से,
धूल उड़ाता हुआ,
हवा से बातें करता हुआ,
रणवीर का घोड़ा,
द्रुत-गति से, दौड़ा चला आ रहा था!
महीने से अधिक हो चुका था समय!
घोड़ा आ रहा था!
और करीब!
और करीब!
और आ पहुंचा वो! हिनहिनाया!
वो उतरा घोड़े से,
और लगाई दौड़!


   
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श्रीशः उपदंडक
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खोली बुक्कल!
चढ़ आया ऊपर!
हालत देखी रूपाली की,
चेहरा कस गया उसका!
हाथ बढ़ाये आगे रूपाली ने!
और तब, उठा लिया उसे रणवीर ने!
चिपका लिया अपने कंधों से!
वो बाजूओं में झूलने लगी थी,
उसमे जैसे जान न बची थी!
"गीता? गीता? पानी लाओ?" बोला वो, हड़बड़ाहट में!
गीता दौड़ी, गयी घोड़े तक,
उतारी मुश्क़, भागी पीछे, दी उसे,
एक हाथ से पकड़ के रखा रूपाली को,
और एक हाथ से, मुश्क़ पकड़, दांतों से, खोल दी डोरी!
लिया पानी, पोंछा मुंह रूपाली का,
आखें खोलीं उसने, और फिर बंद कीं!
घबरा गया था वो!
जैसे, खुद उसकी जान पर बनी हो!
हुआ गंभीर!
लगाया सीने से अपने!
कीं आँखें बंद!
और तब निकला प्रकाश उसमे से!
तेज आभा वाला प्रकाश!
अपने तेज का एक लघु कण दे दिया था उसने रूपाली को!
रूपाली में जैसे ऊर्जा बढ़ी!
हाथ, जो लहूलुहान थे, अब ठीक होने लगे थे!
शरीर से तेज फूटने लगा था!
और खोल दीं आँखें उसने!
जैसे ही आँखें खोलीं,
उसकी गरदन में बाहें डाल, रो पड़ी वो!
बिछोह का समय काटा था!
अब मिलन का मेह बरसा था!
छलक गयी थीं आँखें!


   
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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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और रणवीर, उसको अपनी बाजूओं में भर,
आँखें बंद किये खड़ा था!
और फिर हटी वो, खड़ा किया उसे रणवीर ने नीचे!
अब मुस्कुराई, वो भी मुस्कुराया!
माह बाद, दोनों ही मुस्कुराये थे!
पानी पिलाया रूपाली को उसने, अपने हाथ से,
गीता से पूछा, उसे पिलाया,
और फिर, खुद ने पिया!
"गीता?" बोला वो,
"हाँ?" बोली गीता,
"वो, वो नीली पोटली है न? वो लाओ ज़रा!" बोला वो,
गयी नीचे गीता,
उतारी पोटली,
और चढ़ी ऊपर, ले आई, दे दी उसे,
अब खोला उसे उसे, मिठाई लाया था वो, पेठा, बरफ़ी और गुलदाना!
खिलाया दोनों को उसने! पेट भर खिलाया!
फिर पानी पिलाया उन्हें!
फल भी लाया था, वो भी खिला दिए! ज़बरदस्ती करके!
हंसी-ख़ुशी से!
रूपाली, सवा महीने का वो बिछोह, इस मिलन में, भूल चुकी थी!
ये होती है प्रेम की शक्ति!
और फिर हुआ चलने का वक़्त!
न जाने दे रूपाली उसे!
ज़िद करे!
पकड़ कर खींचे!
गीता भी रोके!
वो अपने कानों पर हाथ धरे!
मुस्कुराये! धीरे धीरे आँखें खोले!
"मैं आऊंगा! पक्का आऊंगा!" बोला वो,
वो रोकें उसे!
कुछ देर और!
कुछ देर और!
रुक जाए!


   
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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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मान जाए!
बैठ जाए!
फिर उठे!
फिर बिठा लें!
वो हँसे! वो दोनों भी हंसें!
वे तीनों ऐसे घुलमिल गए थे जैसे, बरसों से जानते हों एक दूसरे को!
वैसा ही हक़, वैसा ही लहजा! वैसा ही अपनापन!
और अचानक ही....
वो संजीदा हो गया....
"क्या हुआ?" पूछा रूपाली ने,
"परीक्षा का समय आन पहुंचा रूपाली.........." बोला वो,
अपने हाथों में, चेहरा भर लिया रूपाली का,
और चूम लिया माथा उसका!
ऐसे ही गीता, उसके सर पर हाथ फेरा, और चूमा उसका माथा!
"कैसी परीक्षा?" बोली रूपाली!
मुस्कुराया!
"मेरे प्रेम की परीक्षा!" बोला वो,
"कौन लेगा?" पूछा रूपाली ने,
"पिता जी, और वो, बाबा, जो आ रहे हैं, आधा रास्ता पार हुआ है! रात तक आ जाएंगे!" बोला वो,
"मुझे डराओ नहीं................" बोली धीरे से रूपाली,
अब खुद भी, संजीदा हो चली थी.......
"आपको कोई नहीं डरा सकता! न परीक्षा ही होगी, परीक्षा होगी मेरी!" बोला वो,
"फिर?" पूछा रूपाली ने,
"समय आने दो रूपाली........." बोला वो,
"हम........कहीं........अ..........................?" न बोलने दिया पूरा वाक्य रूपाली को उसने!
रख दिया था हाथ मुंह पर!
"नहीं, अलग नहीं कर सकता कोई भी!" बोला वो,
सुकून!
सुकून के वो शब्द!
शीतल! जैसे संजीवनी!
"अब चलता हूँ, आऊंगा..जल्दी ही!" बोला वो,
न बोला?


   
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श्रीशः उपदंडक
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न बोला कि दो दिन बाद?
क्यों?
जल्दी क्यों बोला वो?
समझे मित्रगण?
मैं समझ गया!
परीक्षा!
सब आ गया समझ!
अब तक जो आये थे,
वे न टिक सके थे सके सामने!
अब जो आ रहे थे,
वे सच में ही कुशल होंगे!
दम-खम वाले होंगे!
वृद्ध हैं, तो समझ-बूझ वाले होंगे!
यही लेंगे परीक्षा!
परीक्षा, उस रणवीर के प्रेम की!
चला गया रणवीर!
उसका घोड़ा,
लम्बे लम्बे डिग भर,
धूल उड़ाता हुआ!
मिट्टी फांकता हुआ,
होने जा रहा था ओझल निगाह से!
और हो गया ओझल अगले ही पल!
अब वे चल पड़ीं वापिस!
झूमती हुईं!
दोनों ही!
डकार आतीं उन्हें!
तो हंस पड़तीं!
हाथ में हाथ डाले,
चली जा रही थीं घर अपने अपने!
और रूपाली,
आ गयी घर!
माँ ने देखा!
भाई ने देखा!


   
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