सिरोही, राजस्थान की...
 
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सिरोही, राजस्थान की एक घटना

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श्रीशः उपदंडक
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सच्चा प्रेम!
दोनों का ही प्रेम सच्चा था!
चढ़ता रहा परवान!
और कुछ इसी तरह से,
वो दिन भी आ गया!
जिस दिन ब्याह था उसकी बड़ी बहन का!
उस रोज बहुत रौनक थी गाँव में ही!
उस रोज, सजी-धजी रूपाली और गीता,
सबकी आँखों का केंद्र थीं!
सभी देखते थे उनको!
अपने माता-पिता को बता चुकी थीं कि,
मेले से वस्त्र खरीदे थे उन्होंने!
मेहँदी लगे हाथों में, खूब सज रहे थे कंगन और अंगूठियां!
कई कई बार पंगत बैठी!
तीन दिनों तक, बारात ठहरी!
भट्टियां जलती ही रहीं!
कड़ाही चढ़ी ही रहीं!
घी, खौलता ही रहा!
किसी भी चीज़ की कमी न पड़ी!
सभी उस आवाभगत से प्रसन्न थे!
मिठाइयां ऐसी थीं कि जैसे उस से पहले कभी न खायी हों बारातियों ने!
सभी ने तारीफ़ की! बाराती खुश, तो घराती, दोगुने खुश!
कमी पड़नी ही न थी!
तीन दिन! तीन रात!
वो आया था! आया था देख-रेख करने! कुछ कम न रह जाए, देखने!
और चुपचाप, देख लेता था रूपाली को!
मुस्कुरा पड़ता!
देखता रहता!
और फिर वो दिन भी आया,
जब वो मिलने आया!
हाथों की मेहँदी, अभी तक न छूटी थी!
पांवों का माहवर, अब तक न मिटा था!
बहुत खुश थी रूपाली!
बहन विदा हो गयी थी!
हंसी-ख़ुशी! कोई कमी न पड़ी!
"सब निबट गया न सही सही?" पूछा रणवीर ने!
"हाँ, एकदम सही सही!" बोली वो,

 


   
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श्रीशः उपदंडक
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अनुभव क्र. ९६ भाग ४

"बहुत अच्छा हुआ!" बोला वो,
"हाँ, सच में!" बोली वो,
"क्या खूब सजी थीं आप!" बोला वो,
चौंक पड़ी वो!
हुई आँखें चौडीं!
सवाल दागा आँखों से ही!
मुस्कुरा पड़ा रणवीर!
"आपने कब देखा?" पूछा रूपाली ने,
"मैं तो हर पल देखता हूँ!" बोला वो,
"हर पल? कैसे?" पूछा उसने,
"मेरे दिल में हो आप! इसीलिए!" बोला वो,
अब शरमा गयी वो!
रख लिया सर उसके कंधे पर!
"गीता?" बोला वो,
"हाँ?" बोली गीता,
"ज़रा वो मुश्क़ निकाल लोगी?" बोला वो,
"हाँ, लायी!" बोला वो,
"आप मुझे बहुत प्रेम करते हैं न?" पूछा रूपाली ने,
"हाँ, अपनी जान से ज़्यादा!" बोला वो,
जान! उसे बोलना पड़ा!
"आपको मिलना तो पड़ेगा!" बोली वो,
अब चौंका वो!
"मिलना?" पूछा रणवीर ने!
"हाँ!" बोली वो,
"किस से?" पूछा उसने,
"मेरे माता-पिता से!" बोली शरमा कर!
"किसलिए?" पूछा संजीदगी से!
"अब ये भी मैं बताउंगी?" बोली वो,
इतने में, ले आई गीता वो मुश्क़!
पकड़ा दी उसको,
उसने डोरी खोली,
"पानी?" पूछा रूपाली से,
"नहीं" बोली वो,
"गीता?" पूछा उसने,
"नहीं" बोली वो,
अब पिया उसने, काफी सारा पिया,
बाँधी डोरी, और दे दी गीता को,


   
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श्रीशः उपदंडक
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गीता चली बाँधने उसे!
"आपने जवाब न दिया?" बोली वो,
"कैसा जवाब?" बोला वो,
मार एक हल्का सा मुक्का, कंधे पर!
मुस्कुराते हुए!
"हाँ! हाँ! ठीक ठीक!" बोला वो,
"क्या?" बोली वो,
"बात!" बोला वो,
"हाँ!" बोली वो,
"कर लूँगा!" बोला वो,
हो गयी खुश!
कुछ और बातें और फिर विदाई का समय हुआ!
चलीं वो वापिस,
और वो, वो भी चला, घोड़ा दौड़ाते हुए!
जा पहुंची घर अपने!
मित्रगण!
समय आगे बढ़ा!
छह माह और बीत गए!
प्रेम और गाढ़ा, और, और गहरा होता गया!
और एक दिन,
रूपाली की बड़ी बहन के घर से आये कुछ लोग,
लेने आये थे उसको वापिस,
उन्हीं में से, एक भगत था, भगत सूरज,
जब वो घर में घुसा, तो उसे सूंघ लगी!
वो समझ गया कि घर में, कुछ न कुछ तो है!
और जब रूपाली आई सामने,
तो चौंक पड़ा वो!
ये सूंघ,
इसी लड़की से आई थी!
इस लड़की पर,
कोई न कोई साया अवश्य ही था!
उस समय तो कुछ बोला नहीं वो,
शाम के समय,
उसने, बात की मोहर सिंह से!
मोहर सिंह को, पहले तो यक़ीन न आया!
लेकिन जब गौर किया उन्होंने,
वो वस्त्रादि को लेकर,
तो मन में हुआ संशय!


   
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श्रीशः उपदंडक
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आने लगा यक़ीन!
कीं अब मिन्नतें कि कुछ हल निकालो!
भगत ने दिया आश्वासन!
"सुनिए?" बोला भगत,
"जी?" बोले मोहर सिंह,
"मेरी बात करवाइये उस लड़की से" बोला वो,
"जी" बोले वो,
"आज ही" कहा उसने,
"जी" बोले वो,
और ले चले उसको, संग लेकर,
आवाज़ दी रूपाली को,
रूपाली अंदर ही लेटी थी,
"आई!" बोली वो, और आई बाहर!
बाहर पिता जी, और सूरज खड़े थे,
थोड़ा सा सकपका गयी!
"बेटी?" बोले पिता जी,
"जी?" बोली वो,
"ये, कुछ बात करना चाहते हैं तुझसे" बोले पिता जी,
"हाँ बेटी?" बोला भगत,
अब उसे मसझ न आये कि क्या बात?
कहीं प्रेम का राज तो नहीं खुल गया?
गीता तो बता नहीं सकती,
तो किसने बताया?
"हाँ बेटी?" बोला भगत,
''आइये" बोली वो,
अब भगत चला अंदर,
बैठा पलंग पर,
पिता जी बाहर दौड़े, अपनी पत्नी से बातें करने,
पत्नी को बताया, उनके होश उड़े!
आयीं दौड़े दौड़े, बैठ गयीं नीचे, घूंघट काढ़े,
पिता जी खड़े रहे वहीँ!
"जो पूछूंगा सही जवाब देना?" बोला भगत,
न बोले कुछ,
चुपचाप रहे,
कैसे स्वीकारे प्रेम, माता-पिता के सामने?
"बोल बेटी?" बोले पिता जी,
न बोले कुछ!
अब माँ-बाप डरें!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"बोल बेटी?" बोला भगत!
देखा भगत को!
ले आई हिम्मत!
"हाँ, सही जवाब दूँगी!" बोली वो,
"सुन?" बोला भगत,
पाँव मोड़े, और बिस्तर पर रख लिए,
"तू कहीं आई-गयी थी?" बोला भगत,
"नहीं तो?" बोली वो,
"कहीं तो?" पूछा,
याद किया उसने,
"नहीं तो?" बोली वो,
"कहीं गयी हो?" फिर से पूछा,
"मेले में गयी थी" बोली वो,
अब भगत और पिताजी की आँखें मिलीं!
और, रूपाली, कुछ न समझे!
"कोई मिला था वहां?" पूछा भगत ने,
अब पकड़ी गयी!
लेकिन ज़ाहिर न किया!
"नहीं तो?" बोली वो,
"याद कर?" बोला वो,
"नहीं मिला कोई?" बोली वो,
"देख, झूठ बोलेगी तो जान से जायेगी!" बोला भगत!
जान से जायेगी?
इसका क्या मतलब?
"नहीं मिला?" बोली वो,
"अभी रुक!" बोला वो,
और कीं आँखें बंद अपनी!
लगाया ध्यान!
लगाई 'पकड़' की रेजू उसने!
ध्यान लगाते समय, भगत जी ने,
दो-तीन बड़ी बड़ी हिचकियाँ लीं!
सांस घुट पड़ी!
आँखें बाहर को आएं!
जीभ बाहर निकले!
सांस लिया न जाए!
पिता जी आये, पकड़ा उसे,और खाया झटका एक ज़ोर का!
गिरा नीचे! आई साँसें! ली लम्बी लम्बी साँसें!
और भगत भागा बाहर!


   
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श्रीशः उपदंडक
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घर से बाहर भाग गया!
पिता जी भी भागे उसके पीछे,
दूसरे लोग, समझ न सके! 
और भगत जा रुका एक पेड़ के नीचे! हाँफते हुए!
आये पिता जी भी! हाँफते हुए!
"खतरनाक! खतरनाक, बहुत खतरनाक!" बोला भगत हाँफते हाँफते!
पिता जी डर के मारे काँप उठे!
"क्या खतरनाक?" बोले वो,
"वो साया, छाया! जो लड़की पर है, मेरे बस में नहीं है, किसी और को लाओ, लड़की मरेगी नहीं तो!" बोला चिल्ला के!
"हम तो जानते भी नहीं किसी को?" बोले पिता जी,
भगत चुप हुआ, साँसें नियंत्रित कीं अपनी,
"मेरे साथ चलो, मैं बता दूंगा" बोला वो,
'चलो जी, अभी चलो!" बोले वो,
तो मित्रगण!
घंटे भर में, लड़की विदा हुई,
भगत के साथ पिता जी भी चले गए!
अब कल ही आते वापिस,
उधर घर में,
माँ डरे, भाई डरे!
और रूपाली, कुछ न समझ आये उसे!
आई गीता, तो गीता को भी मना करें माँ, कि न मिले उस से!
अब गीता भी हैरान!
ये क्या हुआ अचानक?
उसने भी समझ न आये!
खैर,
गीता और रूपाली, बातें करते रहे आपस में,
इसी माजरे पर, पर समझ न आया कुछ भी!
कि ऐसा आखिर हो क्या गया!
अगला दिन,
उस दिन दोपहर बाद,
वे दोनों चलीं बड़ी बावड़ी!
और तभी, कुछ देर बाद, आया रणवीर!
आज चिंतित था, संजीदा था, घोड़े को पानी पिलाया,
बाँधा, चारे की थैली लटकायी मुंह पर घोड़े के,
और चढ़ा ऊपर!
कल की सारी बात, बता डालीं उसको,
कि कल क्या हुआ था,


   
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श्रीशः उपदंडक
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भगत ने क्या किया,
पिता जी कहाँ गए हैं,
माँ और भाई कैसे डरे हैं, आदि आदि!
वो सब जानता था! हिम्मत बंधाता रहा वो उसकी!
"मुझे डर लग रहा है" बोली रूपाली,
"मेरे होते हुए?" बोला वो,
मुस्कुराते हुए!
"नहीं डरो! कुछ नहीं होगा!" बोला वो,
लेकिन था संजीदा ही!
हिम्मत बंधा रहा था,
ढांढस बंधा रहा था!
कि अचानक से, वो खड़ा हुआ,
देखा सामने,
"रूपाली, गीता?" बोला वो,
"हाँ?" दोनों घबरा के खड़ी हुईं!
"जाओ! घर जाओ!" बोला वो,
वे हैरान!
क्या हुआ?
क्या हुआ रणवीर को?
अचानक से ही?
कल से ये हो क्या रहा है?
"जाओ, जाओ!" बोला वो,
"क्या हुआ?" पूछा गीता ने,
"कल आना, बताऊंगा" बोला वो,
और किसी तरह से, समझा-बुझा, भेज दिया उन्हें!
और फिर, खुद भी दौड़ पड़ा वहाँ से!
वो घर पहुंची, गीता अपने घर!
और कोई दस मिनट में ही, पिता जी आ गए!
साथ में एक बाबा भी आया!
लम्बी दाढ़ी-मूंछें! हाथ में चिमटा और त्रिशूल!
एक चेला, पोटली उठाये हुए, और वही भगत!
बाबा को पानी पिलवाया गया!
आराम करवाया गया,
बाबा उचक-उचक कर, सारा घर देखता रहा!
बार बार सूंघता वो!
और बार बार, एक ही जगह, नज़र रूकती उसकी,
और वो, वो उस कमरे पर, रूपाली के कमरे पर!
"आओ!" बोला वो,


   
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श्रीशः उपदंडक
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और चल पड़ा रूपाली के कमरे की तरफ!
साथ में पिता जी, चेला और वो भगत!
खुलवाया दरवाज़ा!
खोल दिया था रूपाली ने!
ऊपर से नीचे तक देखा उसने उसे!
"यही है वो लड़की!" बोला वो,
अब समझे न कुछ भी रूपाली!
पता नहीं, हो क्या रहा था?
क्या कह रहे हैं ये?
ये हो क्या रहा है?
घुस आये अंदर!
बाबा ने मुआयना किया कमरे का!
निकाली अपनी पोटली,
और निकले भस्म उसमे से!
पढ़े मंत्र!
और फेंक दी कमरे में वो भस्म!
चटर-चटर जल पड़ी वो भस्म!
लगाया ठहाका उसने!
"लड़की?" बोला बाबा,
रूपाली चुप! डरे, भय खाए!
"बैठ इधर?" बोला वो,
बेचारी, डर के मारे बैठ गयी! पलंग पर!
"कौन आता है मिलने?" पूछा उसने,
अब कांपे वो!
बाबा को कैसे पता?
इन सब को कैसे पता?
"बता?" चीखा वो,
न बोले!
आँखें, नीची करे!
"बता?" फिर से चीखा वो!
वो चीखे, और वो कांपे!
"ऐसे नहीं मानेगी?" बोला वो,
और लिया चिमटा अपना!
"जा, तू बाहर जा?" बोला पिता जी से,
वे बेचारे,
भय के मारे,
चले गए बाहर!
वे गए बाहर,


   
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श्रीशः उपदंडक
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और रूपाली के आंसू निकले,
अब रोये, हिले, तो चिमटा दिखाए वो!
बेचारी, डर के मारे कांपे!
"बता?" बोला वो,
और जैसे ही चांटा मारने को हुआ!
खाया एक झटका!
और खायी पछाड़!
गिरा अपने चेले पर!
हुआ खड़ा!
पढ़े मंत्र!
औ दी भूमि पर थाप!
"सामने आ!" बोला वो,
रूपाली रोये!
सुध-बुध खोये!
"आ?" चीखे वो!
कोई नहीं आया!
ली भस्म!
मली कंधों पर,
माथे पर!
और चला रूपाली के पास!
"बता?" बोला वो,
न बोले कुछ भी!
माँ और पिता जी ही चिल्लाये!
किसी कोई कोई तरस न आये!
और जैसे ही वो झुका, पकड़ने को बाल,
पड़ी एक लात छाती पर!
खून का कुल्ला कर दिया उसने!
ये देख, चेला और भगत, ये भाग और वो भाग!
लटका दिया पाँव पकड़ कर उल्टा!
मारे, दीवार में उसे बार बार!
बाबा की पसलियां टूट चलीं!
सर फूट गया!
और फेंक दिया, मांस के लोथड़े सा, बाहर!
बाहर गिरा बाबा घायल,
तो सभी की चीखें निकल पड़ीं!
बाबा को उठाया गया!
चेले और भगत ने उठाया,
लिटाया एक जगह,


   
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श्रीशः उपदंडक
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पानी से साफ़ किया, आया बाबा को होश!
हाय ही हाय मचाये!
छटपटाये!
रूपाली,
खिड़की की, दरार से झांके!
फिर भी कुछ समझ न आए!
कि आखिर हुआ क्या?
कैसे बाहर जा फिंका?
ये हो क्या रहा है?
और तब,
बाबा ने एक और जगह बताई,
कि वहां जाओ,
लाओ, सिद्दा बाबा को यहां,
और पकड़ो इसे!
नहीं तो लड़की मरे ही मरे!
ले जाया गया बाबा को, उपचार के लिए,
आनन-फानन में ऊंट-गाड़ी जोड़ी,
और लाद उस बाबा को, ले चले!
और वहाँ से,
पिता जी,
और वो भगत,
निकल पड़े, बाबा सिद्दा को लिवाने!
अब तो वो ही कुछ करें!
रास्ते भर,
वो भगत, उन्हें डराए! किस्से-कहानियां सुनाये!
वे डर के मारे कभी दुल्लर तो कभी चौहल्लर!
शाम तक पहुंचे बाबा सिद्दा के यहां!
वहां तो, और भी बाबा थे!
ढूँढा बाबा सिद्दा को!
मिल गए!
बता दी सारी अला-बला!
और ये भी कि आज बाबा का क्या हुआ,
उनको तो जमकर ठोका गया, सब बता दिया!
बाबा सिद्दा की त्यौरियां चढ़ गयीं!
और कह दी हाँ, सुबह ही निकल चलना था!
हुई सुबह, और वे चले वहां से, बाबा सिद्दा ने रात को ही तैयारी कर ली थी,
अपने एक चेले के साथ, चल पड़े थे,
चल पड़े थे कि उनके चेले को किसने भांजा!


   
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श्रीशः उपदंडक
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ऐसा कौन है वो?
और है कोई ऐसा, तो आज क़ैद कर लेंगे उसे!
यही सोच कर आ रहे थे बाबा सिद्दा!
पहुंचे हुए बाबा थे वो,
नाम था दूर-दराज तक उनका!
और वहां,
वहाँ दोपहर हो चली थी,
गीता आ गयी थी, रूपाली के पास,
रूपाली की माँ मना किया करती थीं गीता को, उसके पास जाने को,
वो माँ से कहती कि बिलकुल ठीक है रूपाली!
और चली जाती उसके पास,
फिर उसके साथ, उस बड़ी बावड़ी तक जाती!
उस दिन भी गयीं वो,
क्योंकि,
कल, कहा था रणवीर ने आने के लिए, इसीलिए,
वे जा पहुंचीं वहां, बैठीं!
और थोड़ी देर में ही, घोड़ा, हवा से बाते करता, आ पहुंचा था!
उतरा रणवीर, घोड़े को पानी पिलाया,
बाँधा, चारे की थैली लटकायी मुंह से उसके,
मुश्क़ खोली,
और चला अब उनकी तरफ!
चढ़ा ऊपर!
नमस्कार हुई उसकी!
बैठ उनके संग!
अब सारी बात बताई रूपाली ने उसे!
वो सुनता रहा, संजीदा हो कर!
एक एक बात!
एक एक फ़िक्र उसकी!
"नहीं डरना किसी से भी!" बोला वो,
हिम्मत बंधाता रहा वो उसकी!
कभी कैसे, और कभी कैसे!
और एक, सबसे बड़ा सवाल, कर डाला रूपाली ने उस से!
उसका तो सारा वजूद ही हिल पड़ा!
जैसे किरिच-किरिच बिखर गयी!
"आखिर, ये सोच क्या रहे हैं?" पूछा उस से!
उठ खड़ा हुआ!
ऊपर देखा,
आँखें बंद कीं अपनी!


   
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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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लम्बी लम्बी साँसें लीं!
और जा खोया,
पीछे वक़्त की गर्द में!
पीछे, उस दिन से,
बावन साल पहले!
उसकी माँ थी घर में,
पिता, जो नेत्रहीन थे,
दो बहन, जो ब्याहने लायक थीं,
चाचा, और उनके दो बेटे,
एक बड़ा भाई,
वो फ़ौज में था, बड़े भाई के साथ,
अच्छा ओहदा था उसका, बड़ा भाई, वहां से, सवा सौ किलोमीटर दूर था,
जंग छिड़ी थी एक,
वो उसमे शरीक़ था, सुबह छिड़ी जंग, शाम चार बजे खत्म हुई,
और खत्म हुई थी उसकी ज़िंदगी भी,
बारूद से भरा गोल फटा था उसके करीब,
अपनी देह को, टुकड़े होते देखा था उसने!
वो, तभी प्रेत बन गया था!
वो रोया, चिल्लाया, खीझा, दौड़ा!
कुछ न हुआ!
अटक गया वो!
अटका!
कहाँ?
वहीँ, उसी बड़े पत्थर के पास!
उसी खंडहर के पास!
उसी मैदान में! हमेशा के लिए!
उसने कर लिया स्वीकार, स्वीकार, अपना हश्र!
मेले, हर वर्ष देखता था वो!
अकेला, एकटक!
लोगों को आते जाते!
खरीदारी करते!
और वो, अकेला!
खड़ा रहता,
ताकता रहता!
बरसों गुजर गए!
मेले सजते, लगते,
उखड़ जाते, यही देखता था वो!
हमेशा की तरह!


   
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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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वो बंध गया था उसी मैदान से!
देह, जो अब, मिट्टी बन, मिट्टी में मिल चुकी थी,
वहीं अटका था,
न घर का पता,
न संबंधियों का पता!
बस, वही मैदान था उसका पता!
लेकिन इस साल,
इस साल वो हार बैठा!
हार बैठा अपना सब्र!
मिला बैठा नज़र किसी से!
छेद डाला किसी ने ज़हन उसका उन नज़रों से!
इतने बरसों में,
सिर्फ एक,
सिर्फ एक ही था, जिस पर नज़रें टिकीं थी उसकी!
इतने बरसों में,
पहली बार होंठ खुले उसके,
इतने बरसों में पहली बार, प्रेम हुआ उसे!
रूपाली से!
क्या क़ुसूर उसका?
यही, कि वो एक महाप्रेत था अब?
एक शक्तिशाली प्रेत?
उसने किसी का अहित न किया था कभी! प्रेत रूप में!
अहलमद था, फ़ौज में भी लड़ा,
अपने फ़र्ज़ अदा किये उसने!
लेकिन...................
अब............
अब प्रेम का.फ़र्ज़ अदा करना...बाकी था!
क्या करेगा वो?
बता देगा?
क्या गुजरेगी रूपाली पर?
क्या करे वो?
कैसे बताये?
क्या कहे?
कैसे शुरू करे?
अलग हो जाए?
चला जाये दूर कहीं?
कभी न लौटे?
सुलगता रहे प्रेम-अगन में?


   
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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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मंज़ूर है!
उसे ये भी मंज़ूर है!
लेकिन?
ये रूपाली?
इसका क्या होगा?
काश...........पहले सोच होता!
फ़रेब किया उसने रूपाली के साथ!
बहुत बड़ा फ़रेब!
धोखा!
प्रेम में धोखा!
छल दिया एक मासूम को उसने!
छल दिया!
नहीं रोक सका!
खुद को नहीं रोक सका वो!
झुका,
घुटनों पर हाथ रख,
रो पड़ा, बुक्का फाड़ रो पड़ा!
न रुके आंसू!
रूपाली, गीता, घबरा गयीं!
रो पड़ीं एक साथ उसको रोते देख!
भागी उसके पास!
पूछा उस से कारण!
रोते रोते! उसके आंसू पोंछते पोंछते!
न हो चुप वो!
न हो!
खड़ा हुआ!
ऊपर देखा,
रोता जा रहा था! बुक्का फाड़ रोता जा रहा था!
बदहवास सी, वे दोनों,
उसको पकड़ें!
हिलाएं!
चुप कराएं!
और वो, चीख मारे!
बे-इंतहा रोये!
न चुप हो!
न समझे!
रूपाली, उस से भी तेज रोये!
आप खोये,


   
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श्रीशः उपदंडक
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उसको पकड़े!
कपड़े खींचे!
"मुझे बताओ, बताओ मुझे?" पूछे रोते रोते!
"बताओ? बताओ? क्या बात है?" पूछे गीता,
"रूपाली?" बोले सिसकियाँ लेते लेते!
"हाँ, हाँ, बताओ, बताओ?" बोली वो,
"धोखा, मैंने धोखा दिए तुम्हें रूपाली!" बोला वो,
असमंजस!
पशोपेश!
दुविधा!
"कैसा धोखा?" पूछा हड़बड़ाहट में रूपाली ने!
न बोल पाये!
रोये!
सर झुकाये!
हाथ जोड़े उसके!
गर्दन न में हिलाये!
देखे नहीं!
नहीं देखे उसे!
बस रोये!
"धोखा दिया, माफ़ कर दो" बोला वो,
रूपाली ये सुन, रोये और तेज!
"कैसा धोखा?" पूछे बार बार!
"रूपाली, धोखा" बोले वो,
"मुझे बताओ?" पूछे रूपाली, बार बार!
"मैं चला जाऊँगा, नहीं आऊंगा रूपाली, कभी नहीं आऊंगा अब" बोले वो,
गीता रोये!
रूपाली रोये!
"मुझे माफ़ कर दो रूपाली, रूपाली...." रो रो के बोले,
घुटने पर हाथ रख कर बोले,
ऊपर देख बोले,
माफ़ी, माफ़ी चिल्लाये!
हाथ जोड़े अपने!
"गीता, मेरी बहन, मुझे माफ़ कर दो" बोले वो,
गीता, उसका हाथ पकड़, रोये जाए!
"मुझे बताओ?" बोले रूपाली!
"मैं चला जाऊँगा, चला जाऊँगा रूपाली!" बोले वो,
होश खो बैठा था!
अपना फ़रेब जान, अब पछता रहा था!


   
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