सिरोही, राजस्थान की...
 
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सिरोही, राजस्थान की एक घटना

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श्रीशः उपदंडक
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"जान बचा ली इसकी आपने!" बोली छेड़ते हुए रूपाली को!
मुस्कुरा पड़ा!
"कल, दोपहर बाद, बड़ी बावड़ी.......!" बोली वो, और बता दिया गाँव का पता!
मुस्कुराया!
"आऊंगा! आऊंगा रूपाली, चाहे कुछ भी हो!" बोला वो,
और मारी बुक्कल,
हुआ पीछे,
देखा रूपाली को,
मुस्कुराया,
और मुड़ गया!
गया घोड़े तक!
खोला उसे,
चढ़ा ऊपर,
लगाई एड़!
देखा एक बार फिर उन्हें!
और दौड़ा दिया अपना घोड़ा!
धूल उड़ाता हुआ, दौड़ा चला गया घोड़ा!
कुछ पलों के बाद,
हुआ ओझल!
"अब चल!" बोली रूपाली!
धीमे क़दमों से,
थकी थकी सी, लेकिन दिल में सुकून लिए,
चल पड़ी रूपाली!
अब क्या खरीदारी!
कौन सी खरीदारी!
अब तो प्रेम की फुहारी!
चल पड़ीं वापिस!
माँ मिली, बहन मिली!
थोड़ा-बहुत खाया-पिया!
और करीब शाम से पहले,
वे हुए वापिस!
रात में नींद न आये!
एक एक पल, नश्तर चुभाये!
कल!
दोपहर बाद,
वो बड़ी बावड़ी!
सुनसान रहती है वो, कोई नहीं आता वहां!
कल जाना है! दोपहर बाद!


   
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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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मुस्कुराये!
करवटें बदले!
रात के प्रहरी, झींगुर और मंझीरे,
जैसा उसका मनोभाव समझें!
उसकी के भावों में,
अपने सुरों की ताल दे दें!
बड़ी मुश्किल से रात काटी!
एहसान सा किया रात पर!
सुबह निबटी सभी कामों से!
सारे काम आज,
जल्दी जल्दी निबटा लिए!
चौक-बर्तन, झाड़ू-बुहारी, चाक-चबंद, सब बढ़िया!
और फिर हुई दोपहर!
अब भूख न लगे!
प्यास भी न लगे!
एक अलग ही भूख,
और एक, अलग ही पास सताए!
दोपहर बीती!
आई गीता!
देखा रूपाली को!
क्या सजी-धजी थी वो उस दोपहर!
कजरारी आँखें!
हाथ में, सोने के कंगन!
हाँ! वो पोटली, अभी न खोली थी उसने!
पलंग के नीचे सरका दी थी!
"चलें?" बोली गीता!
शरमाई! बोली कुछ नहीं!
"अब कैसे शर्म?" बोली, ज़रा बे-शरमी से गीता!
हाथ मर कर, कमर पर उसकी!
और धकिया चली उसे!
आयीं बाहर, दोपहर बाद, सुनसान सा ही होता था गाँव,
सब घरों में क़ैद हो जाया करते थे!
और ऐसी ही क़ैद से, आज ये दो लड़कियां, निकली थीं!
वे बढ़ चलीं, चुपचाप! सर ढके, मुंह ढके!
गाँव से बाहर, थोड़ी ही दूर, वो बड़ी बावड़ी पड़ती थी,
अब चलन में नहीं थी, छोटी बावड़ी चलन में थी, और गाँव के दूसरी ओर थी,
अब बड़ी बावड़ी में, पानी भी नहीं था,
थी तो बहुत बड़ी वो, पेड़ लगे थे, रूपाली के समय में ही सूख चली थी वो,


   
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श्रीशः उपदंडक
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बस जो थोड़ा बहुत पानी था, वो मवेशी या घोड़े आदि पी लिया करते थे,
भर दिया करते थे लोग बाग़, या औरतें उसे,
खैर, वे दोनों वहां पहुंचीं,
और जा बैठीं एक जगह,
ये पेड़ों से घिरी जगह थी!
एकांत था वहां! किसी का दख़ल भी न था!
अब लगी आँखें उस रास्ते पर!
बार बार उचक कर देखतीं वो!
गीता, सच मायने में, उसकी सहेली थी!
मन की साफ़, नीयत की साफ़!
समझाने वाली और उसको प्यार करने वाली!
बार बार उचक के देखा सामने!
आधा घंटा, बेचैनी से बीता!
और तब!
नज़र पड़ी गीता की!
आ रहा था कोई घोड़ा दौड़ाता हूँ!
बुक्कल मारे!
घोड़ा, धूल उड़ाए जा रहा था!
हवा से बातें करता, वो घुड़सवार, वही, वही रणवीर था!
ठीक समय पर आन पहुंचा था!
अब धड़कन बढ़ी रूपाली की!
करने लगी मुंह पर कपड़ा!
खींच लिया गीता ने!
एक बार को तो, घबरा ही गयी वो!
हुआ धीरे घोड़ा!
टाप सुनाई दीं अब धीरे धीरे!
वो चला आ रहा था!
और मिलीं नज़रें दोनों की,
गीता को भी देखा उसने,
मुस्कुराया, और रुका, उतरा,
घोड़ा, बाँधा एक पेड़ से, चारे का थैला, लटका दिया मुंह से,
आया ऊपर की तरफ!
नमस्कार हुई आपस में उनकी!
रूपाली, बचाये नज़रें अपनी!
"गीता?" बोला वो,
"हाँ?" बोली गीता,
"कहीं पानी मिलेगा? घोड़े के लिए?" पूछा उसने,
"हाँ, उधर, वहां, उन पेड़ों के नीचे" बोली वो,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"आता हूँ अभी!" बोला वो,
और खोला घोड़ा,
ले चला, उन पेड़ों के पास,
उधर था कुछ पानी, मवेशी पी लिया करते थे,
"सुन?" बोली गीता,
"हाँ?" बोली रूपाली,
"अब शरमाना नहीं, समझी?" बोली गीता,
"अच्छा" बोली वो,
"अच्छा नहीं, हाँ? हाँ बोल?" बोली गीता,
"हाँ!" बोली वो,
तब आया वो!
बाँधा घोड़ा पेड़ से!
और चला ऊपर!
गीता उठ गयी!
"बैठो गीता?" बोला वो,
"मैं यहीं हूँ!" बोली वो, मुस्कुराते हुए!
सर पर हाथ रखा गीता के!
"ये लो, तुम्हारे लिए!" बोला वो,
और निकाल लिया कुछ, देने के लिए उसे!
ले लिया उसने और चली वहां से अलग!
मित्रगण!
बस!
उसी दिन से, मुहब्बत परवाज़ चढ़ने लगी उनकी!
और इसी तरह,
छह माह बीत गए!
हर दो दिन बाद आता रणवीर!
गीता सदैव साथ रहती!
कुछ न कुछ लाता रहा उनके लिए!
एक बात और,
इन छह माह में,
कभी भी, रूपाली को छुआ नहीं उसने!
दूर ही रहता!
जब रूपाली उसे छूती,
तब भी दूरी बना लेता था!
उसका एक ही कहना था, कि उसको अभी अधिकार नहीं!
उसका ये कहना, इस प्रेम को और गाढ़ा कर जाता!
विशुद्ध प्रेम में आगे बढ़ रहे थे वो!
एक दिन,


   
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श्रीशः उपदंडक
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घर में, एक रिश्ता आया,
रिश्ता उसकी बड़ी बहन के लिए!
रिश्ता बहुत बढ़िया था!
यदि बात बन जाती, तो उसकी बड़ी बहन के भाग बन जाते!
घर-परिवार बढ़िया था!
तिजारती लोग थे, तिजारत, दूर-दूर तक फैली थी!
घर में, अब, सीसी बात की बेचैनी थी!
मोहर सिंह, परेशान थे बहुत!
उनकी पत्नी, मन्नतें मांग रही थीं!
और यही बात,
रूपाली ने, कह दी रणवीर से!
उसने पूरी बात सुनी,
और सुन, मुस्कुराया!
"पिता जी ऐसा ही चाहते हैं रूपाली?" पूछा उसने,
"हना, परेशान हैं बहुत" बोली वो,
मुस्कुराया फिर से!
"ठीक है, कल जवाब आ जाएगा! करो तैयारियां ब्याह की!" बोला वो,
ऐसा विश्वास!
दंग रह गयी रूपाली!
उसने दिलाया विश्वास रूपाली को!
सीने से लगना चाहती थी!
न लग पायी!
वो हट जाता था!
बातों में उलझा देता था!
और रूपाली,
उसकी मीठी बोली में, बह जाती थी!
उस शाम, वापिस हुआ वो,
अब दो दिन बाद आए था!
घर से, मिठाई मंगवाई थी उसने!
जब रिश्ता हो जाए पक्का!
रिश्ता!
वो रिश्ता,
दरअसल, मोहर सिंह के परिवार से,
कहीं बीस था!
बस, इसी बात की चिंता थी!
आया अगला दिन!
करीं दोपहर से पहले,
दो लोग पहुंचे उनके घर!


   
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श्रीशः उपदंडक
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एक बिचौलिया लड़के वालों का,
और एक बिचौलिया,
लड़की वालों का!
मोहर सिंह दंग!
बुलाया अंदर!
पानी आदि पिलाया,
बिठाया, पंखा झला उनका!
और फिर फूटा, घड़ा ख़ुशी का!
लड़के वालों को, मंज़ूर था ये रिश्ता!
नदी का ठहरा पानी, बह निकला उफान से!
एक माँ के लिए,
एक बाप के लिए,
ये तो बहुत बड़ी ख़ुशी थी!
और जब पता चला रूपाली को!
तो ख़ुशी से न समायी वो!
याद आ गए शब्द रणवीर के!
खुश!
बहुत खुश!
जी किया, अभी भाग जाए वो उसके पास!
हाँ!
मिठाई!
उसी शाम, मिठाई रख ली उसने उसके लिए!
गीता को बता दिया सब!
गीता खुश! रूपाली खुश! सभी खुश!
घर में पहली शादी जो थी!
माहौल, खुशनुमा हो उठा था घर का!
तो मित्रगण!
ब्याह की तारीख़, हो गयी मुक़र्रर!
उस दिन से, चौबीस दिन बाद, ब्याह था!
बारात आती!
गाँव, रौशन हो जाता!
गाँव के, हर घर पर, कुछ न कुछ, ज़िम्मेवारी, आयद होती!
कोई चारपाई लाता,
कोई बिस्तर!
कोई दूध,
तो कोई दही,
कोई देसी घी,
तो कोई अन्न!


   
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श्रीशः उपदंडक
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कोई सेवायें देता,
तो कोई स्वांग का इंतज़ाम करता!
ये है हमारी संस्कृति!
ये था हमारा समाज!
दुःख होता है आज का, ये,
आधुनिक, पढ़ा-लिखा, विस्तृत-मानसिकता वाला समाज देखकर!
जहां, पड़ोस में कौन सज्जन हैं, पता नहीं!
पीछे कौन हैं, पता नहीं!
सामने कौन? ध्यान ही नहीं देते!
दरअसल हम 'रिज़र्व' हो कर रहते हैं!
तब ऐसा नहीं था!
जंवाई,
गाँव का जंवाई! कुंवर साहब!
जिस घर बैठे, अपने मेहमान!
बिछ गए! 
जो इच्छा की, सहर्ष तैयार!
तो मित्रगण!
मोहर सिंह ने, कर दी खबर गाँव में!
बड़े-बुज़ुर्ग खुश!
प्रधान खुश!
चौपाल सजे! चौका-पोती हो!
घर लिपें!
साफ़-सफाई हो!
यानि कि, गाँव ही चमक उठे!
मित्रगण!
मैं कोई 'प्राचीन' बात नहीं कर रहा!
मेरे अभिन्न इत्र, बड़े भाई, अग्रज,
श्री मान अरिहंत-नॉएडा जी,
आदरणीय मोदी साहब,
आदरणीय सुनील जी, आदि अग्रज,
इसके साक्षी हैं!
ये थी हमारी संस्कृति!
संस्कृति वही,
वो वस्त्रों से झलके!
जो, बोली से झलके!
जो, व्यवहार से झलके!
जो, आचार-विचार से झलके!
मित्रगण! एक वाक़या याद आया!


   
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श्रीशः उपदंडक
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मेरे पिता श्री के मामा श्री थे, पहलवानी करते थे!
दंगल में नाम था उनका!
एक छलावे को, सुबह तक, गर्दन पकड़, हवा में टाँगे रखा था!
छलावे को, पकड़, ज़मीन न छूने दो!
बेबस रहेगा!
लेकिन उसके लिए,
दांव-पेंच आने चाहियें!
देह में, जान होनी चाहिए!
मशीन वाला जिस्म नहीं,
अंदरूनी ताक़त होनी चाहिए!
हाँ, तो गाँव में एक बारात आई!
आई, तो एक पहलवान भी आया था!
उसने ब्याह से अगले दिन,
एक चुनौती दी, गाँव को!
कि जो पट्ठा हो, आ जाए मैदान में!
बुलाया गया था मामा श्री को!
वे आये, कर ली स्वीकार चौनौती!
ज़मीन नमायी गयी!
सरसों का तेल डाला गया!
फाजड़(मथना) की गयी मिट्टी!
हुआ जी दंगल शुरू!
लँगोटें कस ली गयीं!
करके, पर्वत वाले बाबा को प्रणाम,
हुआ जी दंगल शुरू!
दूसरे ही मिनट!!
बाराती पहलवान, हवा में झूल रहा था!
लंगोट से पकड़ा हुआ!
आखिर, में, हार मानी!
और तब पूछा मामा श्री से, जान का 'फार्मूला' !!
तो बोले, "पत्थर का एक चाक, जो एक सौ बीस किलो का है, कमर से बाँध, रोज सवा कोस चलता हूँ! सांस फूलती नहीं, और यही मेरे गुरु का आशीर्वाद है!''
मित्रगण!
उन्होंने ही, मेरे पिता श्री की मदद की पढ़ने में!
तो लोग, ऐसे थे पहले!
आज, आज सबकुछ है, बत्ती, साधन, सबकुछ!
फिर भी, कुछ नहीं! 
खैर साहब, ये कलियुग है!
काले पर, और कोई रंग नहीं चढ़ता!


   
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श्रीशः उपदंडक
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और हम सब, काले हैं!
आप न हों, तो मैं तो हूँ!
करता हूँ स्वीकार!
चलिए वापिस इस प्रेम-गाथा में,
और फिर वो दिन आया,
जब एक कपड़े में बाँध, वो मिठाई, ले गयी रूपाली!
उसी बड़ी बावड़ी में!
आया वो रणवीर!
दिया कुछ गीता को!
फल लाया था, बहन मानता था छोटी,
तो नाज-नखरे, चुप-चाप सुन लेता था!
माफ़ी भी मांग लेता था!
और गीता की डाँट-डपट भी सुन लेता था!
यही तो है भाई-बहन का अमिट प्यार!
खैर,
वो आया, बैठा,
दो चार सुनीं गीता से भी!
उस दिन,
रूपाली बहुत खुश!
जो कहा था रणवीर ने वही हुआ!
रूपाली, उस दिन,
रोक न सकी अपने आपको!
आते ही, लिपट गयी रणवीर से!
रणवीर के हाथ, भुजाएं,
कसक उठे!
कसक उठे,
रूपाली को,
गिरफ्त में लेने को!
जज़्ब!
जज़्ब कर गया वो!
पता नहीं कैसे!
पता नहीं!
अथाह शक्ति थी उसमे!
फिर भी जज़्ब किया!
मित्रगण!
इसीलिए,
ये रणवीर,
मेरी फेहरिस्त में शामिल हो गया!


   
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श्रीशः उपदंडक
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इसकी एक, ख़ास जगह है मेरे दिल में!
वो जज़्ब कर गया!
कोई और होता,
तो तोड़ देता अपनी नैसर्गिकता!
रूपाली?
रूपाली तो, इंतज़ार में थी,
कि कब,
रणवीर के मज़बूत बाजू,
सरंक्षण में लें उसे!
लेकिन न!
न!
वो प्रेम करता था था!
अटूट प्रेम!
अब, ये तो वो ही जाने!
मैं भी नहीं जाना कि क्यों!
कैसे जज़्ब किया उसने!
क्या कहूँ?
सोचा भी नहीं जाता!
सच में, रणवीर, सच में, मैं क़ायल हूँ तेरा!
नहीं भरा था उसने उसे अपनी गिरफ़्त में!
बाजू उसके, अकड़ के रह गए थे!
लेकिन वो खुश था! खुश,
कि रूपाली खुश थी!
और क्या चाहिए था उसे!
फिर हटी वो!
मुस्कुराते हुए!
मुस्कुराया वो भी!
"मिठाई?" बोला वो,
"हाँ!" बोली वो,
और दौड़ी गीता के पास!
पहुंची, छीनी मिठाई हाथों से!
और दौड़ी वापिस!
आई उसके पास, और दिया वो कपड़ा, वो पोटली!
"लो! मिठाई!" बोली वो, खुश होकर!
उसने पकड़ी पोटली!
मध्यमा ऊँगली में, एक अंगूठी पहनी थी उसने,
चमक उठी थी वो!
उसका रत्न और वो सोना, चमक उठा था उसके हाथ में!


   
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श्रीशः उपदंडक
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जब धूप पड़ी तो!
पेड़ हिल रहे थे ऊपर!
हवा चलती, तो सूरज की किरणें,
झाँक लेती थीं नीचे!
वैसी ही एक किरण ने झाँका था!
और जा टकराई थी उसकी अंगूठी से!
उसने खोली पोटली!
बरफी थीं वो, मुस्कुराया,
और उठायी एक बरफी!
बढ़ाया एक हाथ आगे!
"लो, खाओ!" बोला वो,
"नहीं! आप खाओ!" बोली वो,
"खाओ न रूपाली!" बोला वो,
"नहीं! मैं खिलाती हूँ!" बोली वो,
और उठाने लगी बरफी,
जब उठा रही थी, वो उसकी आँखों को,
बंद पलकों को, देखे जा रहा था रणवीर!
बंद पलकों में, प्रेम और विश्वास भरा था!
रणवीर संजीदा हो गया!
चेहरे पर, शिकन उभर आयीं!
"खोलो मुंह?" बोली वो!
उसने खोला मुंह!
औ रख दी वो बरफी मुंह में!
मुंह भर गया उसका!
मुस्कुरा गयी रूपाली!
"हूँ!" बोला वो, बंद मुंह से,
हाथ आगे करते हुए,
उसके मुंह की तरफ!
खोला मुंह रूपाली ने,
वो रुक गया!
रुक गया था!
उसकी उंगलियां, छू जातीं उसके सुर्ख़ होंठों से!
नहीं! नहीं!
ये नहीं चाहता था वो!
इसीलिए रुक गया था!
"खिलाओ?" बोली वो,
मुस्कुराया!
रखी बरफी, कपड़े पर,


   
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श्रीशः उपदंडक
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किये टुकड़े,
उठाया एक टुकड़ा,
और इस तरह से रखा मुंह में उसके,
कि छुए नहीं वो उसको!
खाता रहा, खिलाता रहा!
और बर्फ़ियाँ, खत्म!
उसकी मूंछों पर, बरफी का चूरा रह गया था!
अपने पल्लू से साफ़ कर दिया उसने!
"आया अभी!" बोला वो,
"कहाँ चले?" बोली रूपाली,
"आया!" बोला और चला नीचे,
घोड़े तक गया,
घोड़े की जीन से, निकाली मुश्क़,
और पकड़, ले आया ऊपर!
"पानी!" बोला वो,
"अच्छा!" बोली वो,
"लो?" बोला वो,
बनाई ओख रूपाली ने,
और मुश्क़ से डोरी लोल,
पिलाया पानी!
फिर खुद ने पिया,
बाँध ली डोरी फिर से,
लटका ली कंधे से!
"दो दिन बाद आऊंगा न, तो वस्त्र लाऊंगा आपके लिए!" बोला वो,
मुस्कुरा पड़ी रूपाली!
रूपाली ने और भी बातें कीं,
और फिर समय हुआ घर जाने का,
उसके बाद, वे लौट पड़ीं,
रह गया अकेला रणवीर!
अकेला!
अकेला तो था ही वो!
जब वो चली जातीं थीं,
तब जाता था वो वहां से!
लौट पड़ा!
अब जहाँ भी रहता था वो!
वहीँ के लिए!
अब तो घर में, तैयारियां आरम्भ थीं!
रस्में आरम्भ हो चुकी थीं!


   
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श्रीशः उपदंडक
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गीत-गान चल रहा था!
दिन भर रौनक रहती!
मोह सिंह, जौहर सिंह व्यस्त रहते!
सामान, आदि का बंदोबस्त किया जा रहा था!
कपड़े-लत्ते, गहने-जेवर, सब लाये जा रहे थे!
एक एक व्यक्ति व्यस्त था!
और फिर दो दिन बीते!
वो जा पहुंची बड़ी बावड़ी!
किया इंतज़ार!
बिछा दीं नज़रें!
देखें दूर तलक!
आ रहा था वो!
घोड़ा हवा से बातें कर रहा था उसका!
धूल उड़ाता हुआ,
चला आ रहा था उसका घोड़ा!
और फिर धीमा हुआ!
आ गया धीरे धीरे चलते हुए!
उतरा वो, ले गया पानी पिलाने घोड़े को!
पिलाया पानी, लटका दी चारे की थैली!
बाँधा, और आया उनके पास,
एक बड़ी सी, गठरी लेकर!
गीता और उस से, नमस्कार हुई उसकी!
बैठ गया वहीँ एक सीढ़ी पर!
गीता उठ चली!
"गीता! रुको!" बोला वो,
और खोली गठरी उसने!
कीमती वस्त्र!
चमचमाते हुए!
"गीता, ये तुम्हारे!" बोला वो,
गहरे लाल रंग का घाघरा था वो,
सोने के तारों से काम किया गया था उस पर!
वैसी ही कुर्ती!
गीता तो, अवाक हो, देखती रह गयी!
"ये तो महंगा होगा?" बोली गीता!
"बहन के लिए, क्या महंगा!" बोला वो,
बोला, सर पर हाथ फिराते हुए गीता के!
छोटी बहन सा प्यार करता था उसको वो रणवीर!
दे दिया उसको, उसका सामान!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"और रूपाली, ये आपके लिए!" बोला वो,
निकालते हुए, एक सुनहरा, गुलाबी घाघरा!गुलाबी ही कुर्ती!
सोने का काम था उस पर!
फूल बने थे उस पर!
इतना सुंदर,
कि देखने वाला देखता रह जाए!
"कितना महंगा?" बोली रूपाली,
छूते हुए उस घाघरे को!
"रूपाली, एक बात कहूँ?" बोला वो,
शरमा गयी!
"आपको पूछने की क्या ज़रूरत?" बोली वो,
"मेरे लिए सबसे ज़्यादा मायने रखती हो आप! अब कभी ऐसा न कहना!" बोला वो,
झेंप सो गयी वो!
और वो मुस्कुरा पड़ा!
"और ये!" बोला वो,
"ये क्या है?" पूछा रूपाली ने,
"आपकी बहन जी के लिए!" बोला वो,
और जो ब्याहता-वस्त्र निकाले उसने,
वैसे उन्होंने तो क्या,
गाँव में किसी ने भी न देखे होंगे!
ऐसे सुंदर, कि रूपाली की बहन, सबसे अलग ही दीखे!
"लो!" बोला वो,
बाँधा सामान,
और दे दिया रूपाली को!
फिर जेब से,
एक छोटी पोटली निकाली!
खोली!
अंगूठियां और कंगन!
"लो, बाँट लेना!" बोला वो,
दोनों ही अवाक!
हैरान!
इतना महंगा सामान?
वो भांप गया आशय! कारण!
"सुनो!" बोला वो,
देखा दोनों को!
"मैं सरकारी मुलाज़िम हूँ! अच्छा ओहदा है! पगार भी अच्छी है!" बोला वो,
"घर क्या ले जाओगे?" पूछा गीता ने,
घर!


   
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श्रीशः उपदंडक
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अंदर ही अंदर!
इस सवाल ने,
छील दिया होगा उसे!
कैसा घर?
कौन अपना?
फिर से जज़्ब कर गया!
मुस्कुराया!
"भेज दिया जो भेजना था!" बोला वो,
अब चैन पड़ा दोनों को!
"ब्याह वाले दिन, नहीं आऊंगा!" बोला वो,
आ भी नहीं सकता था!
उस रोज,
समय ही न मिलता उन दोनों को!
साज-सज्जा, बड़ी बहन! आदि आदि!
"अरे हाँ!" बोला वो,
उठा!
गया घोड़े तक,
खोली एक गठरी!
लाया एक पोटली!
"ये खाओ!" बोला वो,
कलाकंद था वो!
ताज़ा! ख़ुश्बू आ रही थी उसमे से!
"लो! खाओ!" बोला पोटली खोल कर!
रणवीर हर तीसरे दिन आता मिलने!
अपने निश्चित समय पर,
उन दोनों का प्रेम, नए आयाम चढ़ता जा रहा था!
उस समय,
रूपाली से खुश, शायद कोई और ही होगा!
ऐसे ही रणवीर!
एक महाप्रेत!
जिसके सम्पर्क में आते ही, कोई भी मानव,
बिन फुंके रहे भी नहीं!
उसकी समस्त ऊर्जा का क्षय हो जाए!
वही रणवीर, नव-ऊर्जा प्रदान कर रहा था रूपाली को!
रूपाली के घर में, अब खुशियों का वास था!
अपने सुख काट, रणवीर, वो सुख,
रूपाली के घर में भेज रहा था!
ये था उसका प्रेम!


   
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