सिरोही, राजस्थान की...
 
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सिरोही, राजस्थान की एक घटना

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श्रीशः उपदंडक
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रूपाली की आँखें नीचे!
सर नीचे!
रणवीर ने पानी उठाया,
"आप पिएंगे गीता, रूपाली?" पूछा उसने,
"नहीं!" बोली गीता!
"और आप? रूपाली?" पूछा उसने,
सर हिला दिया!
गिलास, साफ़ किया,
और पानी घाल दिया उसमे,
बढ़ा दिया आगे!
"लो, रूपाली!" बोला वो,
अब हाथ न बढ़ाये!
हिले भी न!
"गीता? ये लो!" बोला वो,
आई गीता, ले लिया पानी!
"आप रुकें, मैं आया अभी!" बर्तन रखा,
और चल दिया मेले में, तेज क़दमों से!
अब छीना पानी का गिलास गीता से,
और सुना दिया उन्नीस का पहाड़ा उसे!
बता दिए, कि कै तीन तेरह!
थोड़ी देर बाद,
आया वो,
मिठाई लाया था, दो जगह,
तिल की मिठाई!
"गीता, ये लो!" बोला वो,
आई गीता, लिया एक दोना,
और चली वापिस,
"अरे सुनो?" बोला वो,
"हाँ?" बोली गीता,
"ये उनके लिए हैं! लो!" बोला वो,
"वो आप खाओ न?" बोली वो,
"नहीं, उनको खिलाओ!" बोला वो,
आई गीता, ले लिया दोना,
दिया रूपाली को,
पकड़ लिया दोना,
और कहा कुछ गीता से,
हुई कुछ खुसुर-फुसुर!
"ये कह रही हैं कि आप भी लें इसमें से!" बोली गीता!


   
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श्रीशः उपदंडक
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मुस्कुरा पड़ा,
आगे आया,
और उठाया एक टुकड़ा!
रखा मुंह में,
और हुआ पीछे!
उठाया पानी का बर्तन,
और पीया पानी!
आँखों में, रूपाली को रखे!
मिठाई खातीं रहीं वो! और रणवीर, देखता रहा रूपाली को!
"गीता?" बोला वो,
"हाँ?" बोली वो,
"आप ठहरना, मैं आया अभी, पानी ले आऊँ!" बोला वो,
"ठीक है" बोली गीता,
उसने उठाये बर्तन, और ले चला उन्हें, पानी लेने,
हो गया आँखों से ओझल!
"है तो बहुत भला!" बोली गीता,
आँखें और दांत भींच लिए रूपाली ने!
"क्या है वो? अलमद? क्या बताया?" पूछा गीता ने,
"अहलमद" बोली रूपाली!
"वाह! तुझे याद है! और होगा भी क्यों नहीं!" बोली हंस कर!
दिखाया चांटा उसे!
और देखा वहीँ, जहां वो गया था!
"अरे आ जाएगा?" बोली वो,
और आ ही रहा था वो!
बर्तन उठाये,
आता रहा, और आ गया!
गिलास में पानी भरा, और दिया उन्हें! 
दोनों ने ही पानी पिया, और दिए गिलास वापिस!
"अब तो, दशहरे पर ही आओगी आप?" बोला वो,
"हाँ!" बोली गीता!
"दो दिन बाद?" बोला वो,
"हाँ" बोली गीता,
"ठीक है!" बोल वो,
''आप तो रोज आते हो न?" पूछा गीता ने,
"हाँ, रोज" बोला वो,
"अब दो दिन बाद मिलेंगे!" बोली गीता,
"इंतज़ार करूंगा!" बोला वो,
"पक्का?" बोली गीता,


   
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श्रीशः उपदंडक
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वो हंस पड़ा!
आया आगे!
रखा सर पर हाथ गीता के,
"हाँ! पक्का!" बोला वो,
एक बड़े भाई की तरह से हाथ रखा था गीता के सर पर!
"हम चलें?" बोली गीता,
"आपकी मर्ज़ी!" बोला वो,
"हाँ रूपाली?" बोली गीता,
सर हिला दिया, हाँ में!
लेकिन चली नहीं! खड़ी रही!
"अब चल?" बोली गीता,
चलने लगी अब रूपाली!
"रूपाली?" बोला वो, एक हल्के से लहजे में!
रुक गयी रूपाली!
"एक बार............" बोला वो,
और रुक गया, न बोल सका!
रुका कुछ पल.........
"रूपाली?" बोला वो,
"जवाब दे?" बोली गीता रूपाली से!
"आप बोलो?" बोली गीता, रणवीर से,
"एक बार, चेहरा........." बोला वो,
"रूपाली?" बोली गीता,
शर्म से, देखा एक नज़र भर बस!
मुस्कुरा पड़ा वो!
पड़ गया था सुकून!
"अब जाएँ?" पूछा गीता ने,
"हाँ!" बोला वो,
और वे दोनों, चल पड़ी!
पत्थर से टेक लगाये,
वो खड़ा रहा, देखता रहा!
उन्हें जाते हुए!
और वे दोनों, पलट पलट के देखती रहीं!
और हो गयीं ओझल!
आ गयीं ऊँट-गाड़ी तक,
अभी ऊँट, जोड़ा न गया था गाड़ी से,
तो खड़ी रहीं वे दोनों उधर ही,
करीब आधे घंटे के बाद, गीता के पिता जी आये,
ऊँट जोड़ा गया,


   
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श्रीशः उपदंडक
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और खरीदा गया सामान रख लिया गया!
और अब चले वो गाँव की तरफ!
देखा फिर से एक बार वहीँ!
दूर, वहीँ पत्थर को ढूँढा!
न दिखा पत्थर, उचक-उचक के देखा!
ऊँट-गाड़ी चल दी!
अब रास्ता छोटा हो चला था!
बार बार पीछे मुड़के देखती वो!
और इस प्रकार, रास्ता कटा उसका!
पहुँच गयी घर,
धोये हाथ-मुंह,
पोंछे, और चली अंदर अपने कमरे में!
आराम करने के लिए, जा लेटी!
आँखें बंद की,
तो उसके साथ गुजरा, एक एक पल,
जैसे सालता चला गया उसको!
वो पल, ख़त्म ही न होते!
काश, ऐसा ही हो जाता!
ज़िंदगी कट जाती ऐसे ही!
कभी हंस पड़ती,
कभी, संजीदा हो जाती!
मिठाई याद आई उसे,
हंस पड़ी, याद कर, वो पल!
फिर उसका कहना, 'एक बार चेहरा.....'
फिर से हंसी!
और कर लीं आँखें बंद!
क़ैद कर लिया वो नज़ारा,
आंखेां में! ज़हन में संजोना था, करीने से!
और फिर!
उसका कहना, 'दो दिन!'
अब चौंका पड़ी!
उसके बाद?
उसके बाद कैसे होगी?
ख़त्म सबकुछ?
बस?
उसकी, प्रेम की लहलहाती फसल,
पाला खा जायेगी, बिरहा का?
फिर क्या होगा?


   
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श्रीशः उपदंडक
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दो दिन बाद?
कैसे भूलेगी वो?
कैसे?
न! सोचना भी पाप सा है ये तो....
तो करे क्या?
कह दे?
बता दे उसे?
न!
इतनी हिम्मत नहीं है उसमे,
वो कहे तो सर हिलाया जा सकता है, आँखें ढके!
ऐसे ऐसे ख़याल!
करवटें बदले अब वो!
मेले का शोर सुनाई दे!
लोग तो दिखें,
पर याद एक ही रहे!
उसी की आवाज़ सुनाई दे!
उसी का सजीला रूप दिखाई दे!
उसका मुस्कुराना दिखायी दे!
याद आये,
तो खुद मुस्कुराये!
तभी माँ ने आवाज़ दी,
वो उठी, और चली बाहर,
माँ ने कुछ काम दिया था,
करने लगी काम!
लेकिन ध्यान न था वहाँ!
ध्यान तो,
उस मेले में,
उस अहलमद में लगा था!
जो बीस कोस दूर रहता था!
अपने काले घोड़े पर आता था!
और तभी घोड़े की टापें सुनाई दीं!
घोड़े की हिनहिनाहट!
वो चली ज़रा दरवाज़े तक!
दिल धड़क गया था उसका तो!
खोली सांकल!
और झाँका बाहर,
दो घुड़सवार थे,
जा रहे थे बाहर से, वापिस,


   
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श्रीशः उपदंडक
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उन्ही के घोड़ों की टापें थीं वो!
बंद किया दरवाज़ा,
चढ़ा दी सांकल,
और करने लगी काम!
मन फिर से छलांग मारे!
दौड़ के भागे उस रास्ते पर!
ढाढण की हवेली पार करे!
और तेज भागे!
आये मेला!
चले मेले में!
पार करे उसे,
और वही बड़ा पत्थर!
और उस से, टेक लगाये वो......
तो रात आई!
रात जब आती है, तो सारे दिन का हिसाब बता दिया करती है!
उसको भी बताया!
उस तिल की मिठाई का स्वाद भर आया मुंह में!
उसके शब्द और लहजा, याद आ गए!
और फिर वो ख़ास शब्द,
'दो दिन!'
उठ बैठी!
बस, इसी का जवाब नहीं था उसके पास!
क्या होगा दो दिन बाद?
मेला ख़त्म?
और मेल भी खत्म?
फिर?
धम्म से गिरी बिस्तर पर!
आँखें कीं बंद!
न ढूंढ पायी जवाब वो!
जब न मिला जवाब, तो सोचना बंद किया!
शायद, जानती थी कि इसका जवाब,
रणवीर के पास ही होगा!
अब वो बेचारी क्या करे?
इसी उहापोह में, रात कट गयी!
सुबह हुई, और इस तरह, एक और सुबह घटी!
सारा दिन पड़ा था!
मुंह बाए खड़ा था!
चौक-बर्तन किये, घर के लिए पानी लायी!


   
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श्रीशः उपदंडक
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सब्जी-भाजी काटी,
बड़ी बहन बना रही थी भोजन,
उसको दीं सब्जी-भाजी!
और चली आई छत पर, सूरज धीरे धीरे बढ़ते चले आ रहे थे!
छत पर ही, लाल मिर्चें सूखी थीं, कुछ और भी सूख रहा था,
खटाई थी, बाद में ओखली में पीस ली जाती वो,
एक जगह, सीरक में, जा बैठी,
बाहर देखा, गाँव से बाहर का नज़ारा!
बियाबान नज़ारा!
इक्का-दुक्का पेड़!
खाली ज़मीन!
और आते जाते, इक्का-दुक्का लोग!
बियाबान तो उसका दिल भी था उस रोज,
इस सवाल का जवाब न था उसके पास,
यहीं उलझी थी वो,
तभी माँ ऊपर आ गयी,
उठी वो, और संजोने लगी वो सामान वहां का,
भर लिया कपड़े में, अलग अलग,
ले चली नीचे, रख दिया एक जगह,
हाथ धोये, पानी पिया,
और चली अपने कमरे में!
जा लेटी, दोनों हाथ फैला,
चेहरा टिका दिया उन पर,
कनखियों से देखा बाहर,
एक पेड़ था, पत्ते और शाखें, हवा से काँप रहे थे उसके!
देखती रही उनको!
आज का दिन तो, ऐसे ही काटना था!
लम्बा हो चला था दिन,
तभी गीता चली आई!
उठी वो, और बैठी,
केश ठीक किये अपने!
गीता ने ग़ौर से देखा उसको,
"क्या बात है?" पूछा गीता ने,
"क्या हुआ?" पूछा रूपाली ने,
"नींद नहीं आई, लगता है, सारी रात?" बोली वो,
"ऐसा नहीं है!" बोली वो,
"झूठ बोल रही है?" पूछा गीता ने,
अब चुप!


   
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श्रीशः उपदंडक
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सच में ही, नींद कहाँ आई थी सारी रात!
कई बार जागी थी!
पूरा बिस्तर ही नाप दिया था उसने!
"दो दिन बाद गीता?" बोली रूपाली,
"मेला खत्म!" बोली वो, हंस कर!
शांत वो! क्या बोले!
संजीदा हुई गीता!
"दो दिन बाद?" पूछा गीता ने,
"हाँ?" बोली हल्के से,
"वो आएगा!" कहा गीता ने!
आँखों में सवाल!
आँखें चौड़ी!
एकटक देखे!
"आएगा वो! आएगा तुझ से मिलने!" बोली गीता,
"साठ कोस से?" बोली वो,
"सौ कोस क्यों न हो?" कहा गीता ने,
अब आई मुस्कुराहट होंठों पर!
शीतल सी, छींटें पड़ीं मेह की जैसे!
तो मित्रगण!
आया दशहरा!
पिता जी भी आ ही गए थे, एक दिन पहले!
अनाज आदि, वस्त्रादि लेते आये थे!
आज तो, गोटे लगे घाघरे में,
बेहद सुंदर लग रही थी रूपाली!
नाम साकार कर दिया था उसने अपना!
तीन ऊँट-गाड़ी चलीं मेले की तरफ!
आई ढाढण की हवेली!
आज तो ऊँट-गाड़ियां, क़तार बनाये चल रही थीं!
एक के पीछे एक!
आज त्यौहार जो था!
और इस तरह, वो जा पहुंचीं वहां!
जैसे ही पहुंची, माता-पिता ने समझाया उन्हें,
दिए कुछ पैसे, और वे चली दौड़ते हुए वहां तक!
पहुंचीं वहाँ!
देखा पत्थर को!
वहीँ खड़ा था वो!
उधर ही देखते हुए!
किसी राजकुमार की तरह से, वस्त्र पहने हुए!


   
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श्रीशः उपदंडक
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चमचमाता चेहरा!
खूबसूरत वस्त्र!
जो गुजरता, उसे अवश्य ही देखता!
आज बहुत से सरकारी मुलाज़िम आये थे वहां!
आक मेले का आखिर दिन था,
कोई झगड़ा-फ़साद न हो, इसलिए!
वे चली आज धीरे धीरे, छोटे छोटे क़दमों से,
रणवीर ने टेक हटाई!
अपने कपड़े ठीक किया,
और पानी वाले बड़े बर्तन से,
गिलासों में पानी घाला!
सर पर कपड़ा तो था ही,
अब चेहरे पर रख लिया!
आँखें ही नज़र आएं अब उसकी!
काली, बड़ी, कजरारी आँखें!
वे जा पहुंचीं वहां!
नमस्ते की गीता ने!
उसने भी नमस्ते की!
"गीता, लो!" बोला वो,
और पकड़ा दिए दो गीला!
गीता ने, एक गिला बढ़ा दिया रूपाली की तरफ!
लिया रूपाली ने,
भरे दो घूँट!
और पके रही गिलास!
"आज तो बहुत सुंदर लग रही हो गीता!" बोला वो!
"आप भी कम नहीं!" बोली वो,
"मैं तो सुबह ही चला आया था यहां!" बोला वो,
अनसुना कर दिया!
गीता ने नहीं सुना!
सवाल दाग़ दिया!
"ये कैसी लग रही है?" पूछा गीता ने!
"ये तो, हमेशा ही खूबसूरत लगती हैं!" बोला वो,
बदन में जुम्बिश!
हाथ से गिलास, छूटते बचा!
"कौन कौन आया है घर से?" पूछा रणवीर ने,
"आज तो सभी आये हैं!" बोली गीता!
"अच्छा!" बोला वो,
"और आपके घर से?" पूछा गीता ने,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"मैं, अकेला!" बोली वो,
"अकेले क्यों?" पूछा गीता ने,
"अकेला ही रहता हूँ!" बोला वो,
"माँ-पिता, बहन, भाई?" पूछा गीता ने,
"वो बहुत दूर हैं!" बोला वो,
दूर! बहुत दूर! बहुत ही दूर, आशय था उसका!
"कल कोई मेला न होगा, ये जगह, बियाबान हो जाएगा, रह जाएंगे तो बस कुछ गड्ढे, कुछ फ़टे कपड़े, कुछ बेकार का सामान!" बोला वो,
"हाँ, फिर होली से पहले ऐसा मेला लगेगा!" बोली गीता!
"हाँ!" बोला वो,
"एक बात पूछें?" बोली गीता,
"क्यों नहीं, ऐसा मत कहा करो, पूछ लिया करो!" बोला वो,
"कल क्या करेंगे आप?" बोली गीता!
"कल? पता नहीं! शायद, होली का इंतज़ार!" बोला वो,
"कर लेंगे?" पूछा गीता ने,
"और कोई रास्ता नही गीता!" बोला वो,
"रास्ता है!" बोली वो,
"क्या रास्ता?" चौंक कर पूछा उसने,
"एक बात पूछें?" बोली गीता,
''फिर से पूछें? पूछो आप?" बोला वो,
"आप प्रेम करते हैं न इनसे?" बोली गीता! मुंहफट!
काँप गया! नज़रें नीची हो गयीं! बदन, जैसे ठंडा हो गया उसका!
चेहरे पर, अजीब से भाव आ गए!
और चिंता में पड़ी रूपाली!
आँखों में, यही सवाल लिए, अब देखे जा रही थी वो, उस रणवीर को!
दिल धड़क रहा था!
क्या जवाब मिलेगा?
हाँ? या न?
जैसे दुनिया, आ गयी उसकी हाशिये पर ये सुन कर!
क्या सवाल किया था जताने भी!
"बताइये?" बोली गीता!
उठाया चेहरा,
आया विश्वास चेहरे पर!
मुस्कुराया!
"मेरे हा या न कहने से, क्या फ़र्क़ पड़ता है गीता?" बोला वो,
सोचा-समझा जवाब!
अपनी फ़ज़ीहत,
लौट थी एक ही जवाब में रूपाली को!


   
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श्रीशः उपदंडक
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इस जवाब से तो,
रूपाली के क़दम डोल पड़े!
पसीना आ गया पांवों के तलवों में!
हाथ, काँप उठे!
वो कपड़ा, पूरा आ गया मुंह पर!
"फ़र्क़ पड़ता है!" बोली गीता!
"बताओ आप? क्या फ़र्क़ पड़ता है?" पूछा रणवीर ने!
"आप प्रेम करते हैं न इनसे?" पूछा गीता ने,
एक लम्बी सांस भरी उसने!
"जिस दिन से देखा था, पहली बार, तभी से प्रेम करता हूँ इनसे!" बोला वो,
अब मुस्कुरा पड़ी गीता!
देखा रूपाली को!
कपड़ा ढका था,
उंगलियां बाहर थीं!
बदन लरज रहा था उसका,
होंठ काँप रहे थे उसके!
कहीं, गिर ही न जाती!
"रूपाली?" बोली गीता,
कोई जवाब नहीं!
"ऐ? रूपाली?" बोली गीता, हिलाते हुए उसको!
वो मुड़ा,
और पलट कर,
चला वापिस,
बर्तन वहीँ छोड़ गया था!
गीता को अब आया गुस्सा!
"मत बोल? मर ऐसे ही? जलती रही? अब न कहना मुझे कभी, अब चल?" बोली गीता गुस्से से, उसका हाथ पकड़ कर, खींचते हुए,
रुकी!
हटाया अपना कपड़ा,
देखा रूपाली को,
भाव ही अलग थे!
लाल हो गया था चेहरा उसका!
"और कर शर्म? मत बोल? मैं चली!" बोली गीता, और चली वापिस!
खूब आवाज़ें दीं, न सुनी एक भी,
लम्बे लम्बे डिग भर, दौड़ती चली गयी!
अब भागी पकड़ने उसको रूपाली!
और जा पकड़ा!
सहेलियों में, वही लड़ाई!


   
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श्रीशः उपदंडक
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जो अक्सर हुआ करती है, कि तू ये और मैं ये!
आखिर में, गीता पड़ी भारी!
और हुआ तय, कि अब रूपाली बात करेगी उस से!
अब शर्म, छोड़नी ही होगी!
नहीं तो, आज का दिन, आखिरी ही होगा!
वो चलीं वापिस,
तो एक गठरी थी रणवीर के पास!
वहीँ पत्थर पर रखी उसने!
आते, देख लिया था उसने उन दोनों को,
आ गयीं वहां!
अब रणवीर ही बोला!
"गीता?" बोला वो,
"हाँ?" दिया जवाब!
"ये रख लो!" बोला वो, उठाते हुए वो पोटली!
"या क्या है?" पूछा गीता ने,
"घर जाकर देख लेना!" बोला वो,
"बताओ तो सही?" बोली वो,
"कुछ नहीं, दो पोटली हैं इसमें, काली वाली तुम्हारी, और पीलेवाली इनकी!" बोला वो,
"लेकिन किसलिए?" बोली वो,
"अब, होली पर ही मिलेंगे!" बोला वो!
रूपाली की सांस फूली!
ये क्या?
होली पर क्यों?
छह महीने?
"हाँ, अब तब ही आना होगा!" बोला वो,
रूपाली को देखे अब गीता!
"ले, रख ले, अब होली पर मिलना!" बोली गीता!
नहीं ली पोटली!
जस की तस खड़ी रही!
"अब चलता हूँ, मेरा काम खतम गीता!" बोला वो,
उठाये बर्तन, और लौट पड़ा!
आवाज़ दी उसे!
न सुनी!
चलता रहा,
"रूपाली?" बोली गीता,
रूपाली देख रही थी उसे!
ग़ौर से!
वो चला जा रहा था!


   
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श्रीशः उपदंडक
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जहाँ घोड़े बंधे थे!
खोला अपना घोडा!
चारे की थैली, हटाई मुंह से उसके,
रखी जीन के पास,
और अब कसी जीन उसने!
उठायी चारे की थैली,
बाँधी जीन से,
मुश्क़ की जांच की, पानी था उसमे,
घोड़े की लग़ाम कसी!
घोड़े ने उठाये अपने आगे वाले पाँव हवा में!
एक बार भी पलट के न देखा पीछे!
लगाई एड!
और घोड़ा दौड़ पड़ा!
करने लगा हवा से बातें!
जाते हुए,
उसका अक्स,
और छोटा!
और छोटा होता चला गया!
और फिर,
कुछ ही पलों में,
हो गया ओझल!
ढक लिया सूरज रूपाली का,
कई आशंकाओं ने!
वो खड़ी खड़ी,
देखती रही वहाँ!
वहाँ,
अब, जहां कोई न था!
सुनसान!
बियाबान!
गीता, उसी को देखे........
दुःख हो रहा था बेचारी को बहुत.......
"रूपाली?" बोली गीता,
हटाय सर से कपड़ा,
गुलाबी गालों पर,
आंसू ढुलक रहे थे!
कजरा, बह चला था!
सूरज ढक चुका था!
बुत बनी खड़ी रह गयी रूपाली!


   
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श्रीशः उपदंडक
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गीता की आँखों में भी, पानी छलक आया उसको देखकर,
अब कुछ कहना ठीक न लगा उसको, रूपाली से!
उठायी पोटली,
और पकड़ा हाथ रूपाली का,
आँखों में देखा,
आँखें डबडबा रही थीं!
लगी हुई थीं उसी राह में!
जहाँ वो दौड़ा चला गया था!
अपने पल्लू से आँखें पोंछीं गीता ने उसकी,
"चल अब" बोली गीता,
न चले!
ज़मीन में गड़ गए जैसे पाँव!
छह महीने!
इतना लम्बा समय?
"चल..अब होली तक इंतज़ार करना" बोली गीता,
न चले, हिले भी नहीं!
उसने तो गाँव का नाम भी न पूछा?
रास्ता भी न पूछा?
"रूपाली? अब कोई फायदा नहीं, अब करना शर्म, और इंतज़ार" बोली गीता,
न हिले!
सिसकी ली,
दिल पसीज उठा गीता का!
फिर से आंसू पोंछे उसके!
"रूपाली! मत रो, देख, मैं भी रो पडूँगी......मत रो" बोली वो,
तभी आँखें हुईं बड़ी रूपाली की,
झट से देखा, पलट कर गीता ने,
कोई चला आ रहा था घोड़े पर!
ठीक वैसा ही!
गीता, हाथ थामे, आँखों को, हाथों की छाँव दिए,
देखने लगी थी!
धूल उड़ाता हुआ, कोई आ रहा था!
साँसें फिर से गर्म हुईं रूपाली की,
और हटा दिया मुंह से वो कपड़ा!
वो!
वही था!
मुंह पर बुक्कल मारे, आ रहा था!

 


   
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श्रीशः उपदंडक
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अनुभव क्र ९६ भाग ३

आया, घोड़ा बाँधा अपना,
और चला उनकी तरफ! तेज क़दमों से!
आया, हांफता हुआ!
मिली नज़रें दोनों की!
अपलक देखा उन्होंने एक दूसरे को!
"रूपाली?" बोला वो,
आया करीब!
"नहीं रह सका मैं! कैसे रहूंगा छह महीने?" बोला वो,
बुक्कल हटा दी थी उसने!
गीता हट गयी पीछे! पोटली उठाये!
"रूपाली, मुझे क्षमा करना, मैंने नाहक़ ही ऐसा कुछ कहा हो तो, वो मेरे ख़याल थे, क्षमा करना, मैं प्रेम कर बैठ हूँ आपसे, बिन पूछे, बिन आपकी रजामंदी से, क्षमा करना, मिलूंगा फिर, दुबारा, होली पर, ठीक यहीं, यहीं खड़ा हुआ" बोला वो,
उसके ये शब्द,
एक एक शब्द,
सुईं की नोंक जैसे तीखे थे!
अब भी कुछ न बोली रूपाली!
उसने मारी बुक्कल,
और हुआ पीछे,
और जैसे ही मुड़ने को हुआ,
"सुनिए?" बोली घबराई हुई सी रूपाली,
हाथ आगे बढ़ गया था उसका अपने आप!
वो रुका,
पलटा पीछे,
हटाई बुक्कल,
हैरान सा,
मुड़ा,
आया आगे!
"रूपाली!" बोला वो,
"नहीं रह सकती मैं छह महीने.........." बोली रूपाली!
"रूपाली!" ऐसे बोला, जैसे सबसे बड़ी ख़ुशी मिली हो उसे आज!
"मैं भी प्रेम............करती हूँ आपसे......." बोली लरज कर!
आँखें बंद कीं रणवीर ने!
ऊपर किया सर,
खोली आँखें, लगाई टेक पत्थर से!
अब आई गीता दौड़ी दौड़ी!
बहुत खुश थी! बहुत खुश!


   
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