सिरोही, राजस्थान की...
 
Notifications
Clear all

सिरोही, राजस्थान की एक घटना

114 Posts
1 Users
0 Likes
1,211 Views
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

नज़रें हटीं!
उस दर्पण पर, पकड़, कस गयी उसकी!
कसी, तो दर्पण से, आँखें मिलीं!
पहली बार!
पहली बार उसकी आँखों में नए से भाव आये थे!
एक अलग सा भाव!
देख न सकी!
रख लिया दर्पण, और चल पड़ी वापिस!
अब पीछे न देख सकती थी वो!
नहीं तो, पोल खुल जाती!
अब कहाँ छिपती हैं नज़रें!
दुनिया, पकड़ ही लेती है!
वे चल पड़ीं सारी की सारी, जा पहुंची उस ऊँट-गाड़ी तक!
तैयार थी ऊँट-गाड़ी, वे बैठीं और चल दीं!
गीता की नज़र सामने पड़ी!
मारी कोहनी धीरे से रूपाली को!
देखा रूपाली ने उस!
"सामने!" फुसफुसाई गीता!
देखा सामने रूपाली ने!
एक पेड़ के नीचे,
खड़ा था वो नौजवान!
मुस्कुराता हुआ!
न रोक सकी अपने होंठों की जुम्बिश!
होंठ, फ़ैल उठे!
मुस्कान में तब्दील हुए!
आँखें, जा भिड़ीं!
और ऊँट-गाड़ी, पार कर गयी उसे!
अब, पीछे न देखा जाए!
माँ बैठी थी, बड़ी बहन थी!
क़हर सा टूटा बेचारी पर!
कैसे देखे पीछे!
बदन, भारी हो गया!
जैसे, हिला भी न जाए!


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

थूक न निगला जाए!
जो आँखें, सामने देखें,
वो बेमायनी सा लगे!
कुछ जैसे, सुनाई न दे!
ऊँट-गाड़ी की चूं-चूं जैसे,
तूफान की आवाज़ सी लगे!
जब न बनी, तो देखा पीछे!
दूर, खड़ा था वो!
अभी भी! उन्हीं की तरफ घूम कर!
माँ ने भी देखा पीछे, बहन ने भी!
और तब तक, आगे कर लिया चेहरा अपना!
वो रास्ता, जैसे बहुत जल्दी ही कटे जा रहा था!
घर आने को ही था,
और वो मेला,
अब बहुत बहुत दूर लग रहा था!
ये कैसा हिसाब था?
दिल ने, क्या खेल खेला था!
आ गया गाँव!
वैसे तो आता ही था हमेशा!
लेकिन आज, रूपाली, आई थी खाली!
रूपाली जैसे, आज छोड़ आई थी रूपाली को, उस मेले में!
खुद को छोड़ना, ये तो है निशानी!
आ गयीं घर!
जा लेटी कोठरी में अपने बिस्तर पर,
संग गीता भी आई!
गीता ने, जो सामान खरीदा था,
उसको अब सलीक़े से रखना शुरू किया!
और रूपाली,
पेट के बल,
अपने दोनों हाथों पर,
चेहरा टिकाये लेटी थी!
मारा कमर पर हाथ रूपाली के!
"ऐ?" बोली गीता!


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

"हूँ?" दिया जवाब!
"मेले में है क्या?" बोले गीता!
"चल!!" बोली रूपाली!
"वैसे, है तो तो तेरे लायक ही!" बोली गीता!
तार झनझना गए!
रूपाली को, एक सर्द सी फुरफुरी दौड़ उठी!
"उस जैसा, आसपास तो है ही नहीं!" बोली गीता!
बदली करवट!
उठ बैठी!
आँखों में जहां हया थी,
वहीँ कुछ तलाश भी!
"बता?" बोली गीता!
"क्या?" पूछा रूपाली ने!
"है न तेरे लायक?" बोली गीता!
"चल?" बोली वो,
नज़रें चुरा लीं,
लेकिन होंठ दग़ा कर बैठे!
मुस्कुराहट में, फ़ैल गए थे!
"अरे हाँ!" बोली वो,
"क्या?" पूछा उसने,
"वो दर्पण?" बोली गीता,
अब मची ढूँढेर!
सामान, निकाला गया,
और सबसे नीचे,
वो दर्पण मिला!
निकाला गीता ने, देखा अपने आप को!
मुस्कुराई फिर,
और छीन लिया हाथों से उसके रूपाली ने!
"तुझे ही दे रही थी!" बोली हँसते हुए गीता!
अब देखा दर्पण!
देखा अपना चेहरा!
लेकिन!
अपना चेहरा तो दिखे ही नहीं!


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

उसका ही दिखे!
उसकी आवाज़ सुनाई दे!
वो भारी सी आवाज़!
वो रौबदार चेहरा!
तो ताक़तवर देह!
वो चमकीली आँखें!
बस उसी का वो अक्स!
अपना कुछ नहीं!
अपना होता भी कहाँ से?
वो तो मेले में छोड़ आई थी रूपाली!
अब तो एक एक पल, एक एक बरस सा लगे!
समय काटे न कटे!
बदन, कभी हल्का हो जाए, जब मेले का तसव्वुर करे,
और कभी ऐसा भारी कि उठा भी न जाए, जब घर पर होने का एहसास हो!
कभी नज़ाक़त होंठों से छलके,
और कभी होंठ सूख चलें!
अजीब सी कशमकश ही थी वो!
जैसे कमल के फूल की पंखुड़ियाँ ,
पानी में रहते हुए भी, पानी की छुअन को तड़पती हैं,
ऐसे तड़पे!
वो तो ओंस की बूँदें छू लेती हैं उसका नाज़ुक बदन,
तब राहत पड़ती है उन्हें,
ऐसे ही, रूपाली को जब उसकी याद छूती,
तो राहत पड़ती!
पानी में रह कर भी प्यासी!
है ये अजीब ही कशमकश!
अब तो, पल पल में, शून्य में ही घूरती,
आँखें, पलकें मारना भूल जातीं,
गीता, सबकुछ देखती, और छेड़ छेड़ कर,
धकेल देती उसे उस मेले में!
दशहरा आने में तीन दिन थे!
तीन दिन, या तीन बरस?
ऐसा दशहरा न देखा कभी!


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

कितना दूर है अभी तो!
तीन सुबह और तीन शाम!
ये तो सदियाँ हो गयीं!
अब न तो नींद ही आये,
और न जागे ही बने!
न खाना ही अच्छा लगे,
न प्यास ही जागे!
प्यास, हाँ, एक प्यास बढ़े जा रही थी,
दीदार की प्यास!
पर कमबख़्त तीन दिन!
कैसे काटेंगे?
सौ से ज़्यादा मर्तबा, दर्पण देख लिया था,
उसको सौ से ज़्यादा बार छू लिया था!
उसने भी छुआ था, उसकी छुअन को छू लिया था!
ये छुअन, और तड़पाये!
जितना देखे दर्पण को,
उतना ही गहरा हो जाए हर बार!
कोई थाह ही नज़र न आ रही थी!
उसके आँखें, उस से ही अठखेलियां कर रही थीं!
उसके होंठ, उस से बिन पूछे ही फ़ैल जाते थे!
दिल में, कहीं जब अगन सुलगती,
तो होंठ सूख जाते!
होंठ गीले करती जीभ से,
तो और सूख जाते!
"आ?" बोली गीता,
शाम का समय था वो,
सूरज, अब अपन अस्तांचल में प्रवेश करने जा रहे थे,
दिन भर तप कर, अब शीतांचल में चले जा रहे थे!
लेकिन रूपाली, उसकी तपन तो जैसे बढ़ती जा रही थी!
उसका सूरज तो, तपती दोपहर में,
आकाश के मध्य ही जम कर रह गया था!
तपता हुआ!
चकाचौंध बिखेरता हुआ!


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

जिस्म की नमी सोखता हुआ!
झुलसाता हुआ!
हाँ, फौरी तौर पर राहत पड़ती उसे,
जब उसकी याद की शीतल बयार उसके जिस्म को सहलाती!
"कहाँ खोयी है?" बोली गीता,
झिंझोड़ते हुए, उसका कंधा!
जैसे नींद से जागी वो!
"चलना नहीं?" बोली वो,
"कहाँ?" पूछा रूपाली ने,
"अरे?" बोली वो,
"बता तो?" बोली वो,
"नाज लेने?" बोली गीता, माथे पर हाथ मारते हुए!
"हाँ!" बोली वो, और खड़ी हुई!
वस्त्र ठीक किये, और फिर से दर्पण उठा लिया!
देखा दर्पण में, तो दर्पण जैसे मुस्कुरा दिया!
झट से रख दिया उसने!
गीता मुस्कुरा पड़ी!
और वो चल दीं,
नाज लाया करती थीं वो, एक जगह से,
वहीँ जाना था, इसीलिए आई थी गीता!
"रूपाली?" बोली गीता,
"हूँ?" बोली वो,
"तू तो डूब गयी है!" कहा गीता ने,
"क्या?" बोली रूपाली,
"हाँ, डूब गयी तू!" बोली वो,
"कहाँ डूब गयी?" बोली रूपाली,
"उसकी आँखों में!" बोली गीता,
अब कुछ न बोली!
मन ही मन, हां ही कहा!
मुंह से हाँ बोलकर, फजीहत मोल कौन ले!
"है न?" पूछा फिर से,
न जवाब दे,
"बता?" बोली फिर से,


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

न बोले कुछ!
"बता?" पूछा फिर से,
"तू तो पीछे ही पड़ गयी?" बोली रूपाली,
"जब तक नहीं बताएगी, तब तक पूछती रहूंगी!" बोली गीता,
फिर से चुप!
"बता?" फिर से पूछा,
"हाँ, सुन लिया?" बोली वो,
अब हंस पड़ी गीता!
ले ली फजीहत मोल रूपाली ने!
आ गयी जगह नाज लेने वाली,
लिया नाज अपना अपना, और हुईं वापिस,
पहुंचीं अपने अपने अपने घर,
गीता अपने, और रूपाली अपने!
रख दिया नाज घर में, और चली छत पर,
कुछ कपड़े थे वहाँ, वो उठाये, और नज़र,
क्षितिज पर पड़ी,
सूरज डूब चले थे,
लालिमा बिखरी थी!
आज लालिमा, बहुत अच्छी और लुभावनी लगी उसे!
देखती रही! देखती ही रही!
माँ ने आवाज़ दी, तो तन्द्रा टूटी!
चली आई नीचे,
हुई रात,
किया भोजन,
स्वाद ही ना आये!
फीका ही लगे!
चली आई कमरे में अपने,
डिबिया जली थी आले में,
टिमटिमा रही थी लौ उसकी!
लेटी लेटी, वही देखती रही!
वो भी तो, टिमटिमा रही थी!
उसी लौ के समान!
लौ आले में, डिबिया में क़ैद थी,


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

और रूपाली,
उस मेले में, कहीं और!
उसकी आवाज़ सुनाई देती उसे!
आँखें बंद करती, तो अक्स दीख पड़ता!
करवट लेती तो अपनी ही सांसें तेज भाग रही होतीं!
उनकी आवाज़ें, तूफान सी लगती!
पेट के बल लेटती,
तो आँखें बंद न होतीं!
कमर के बल लेटती,
तो आँखें तो बंद होती,
लेकिन दिन का उजाला दीख पड़ता!
उजाला, उस मेले का!
याद आता उसे वो!
पत्थर से टेक लगाये!
अपनी जूतियाँ फटकारते!
उस घुड़सवार से बातें करते हुए!
आँख खुल जाती!
फिर से लौ को देखती!
टिमटिमाती हुई लौ!
बाहर घुप्प अँधेरा!
लेकिन, दिल में उजाला!
फिर से तीन दिन!
कैसे कटेंगे?
आज की रात काटना ही मुश्किल है!
और तीन रातें?
कैसे?
इंतज़ार न हो!
बेसब्री हद से बढ़े!
बेचैनी, बाँध तोड़ दे!
न नींद आये, न चैन!
न सोते बने, न जागते!
न लेटे बने और न, बैठते!
उस रात, चार-पांच बार आँखें खुलीं उसकी!


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

उसके ख़याल दिल से आखिर निकले ही नहीं!
क्या करती रूपाली!
कोरा काग़ज़ था दिल उसका,
किसी की छाप अब मौजूद थी उस पर!
जितना छुए, उतनी गाढ़ी हो!
इस छाप की रौशनाई, और उभरे बार बार!
चलो!
सुबह हुई!
सुबह हुई तो एक सुबह घटी!
आज, एक शाम भी घट जायेगी!
निबटी सभी कामों से,
घर में, साफ़-सफाई की, चौका-बर्तन किया,
भोजन भी कर लिया था, 
अब दोपहर के भोजन के लिए, ककड़ी आदि काटनी थी,
ले आई थी अपने कमरे में, और काट रही थी!
कुछ गुनगुना भी रही थी!
कोई लोक-गीत था वो!
प्रेम का गीत! प्रेम में आसक्त हो जाने का गीत!
प्रेम?
उसे प्रेम हो गया था?
काटना भूल गयी!
छोड़ी ककड़ी और छुरी,
दिल धड़क रहा था बहुत तेज!
सांसें, उफ़न रही थीं!
माथे पर, नाक पर, गले पर, हाथों की हथेलिओं पर,
पसीने छलक आये थे!
ये कैसी तपन?

अनुभव क्र. ९६ भाग २

क्या प्रेम-तपन?
उठाया दर्पण!
देखा अपने आपको!
आँखों में, एक अलग ही चमक थी आज!
पलकों की घुमावदार भवें, आज और काली थीं!


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

ऐसा कैसे?
क्या सोच रही है वो?
उसे प्रेम हुआ है?
उस से?
कैसे?
सिर्फ दो बार ही तो मिली है वो?
और फिर,
चलो माना प्रेम हुआ,
उस का क्या?
उसे?
मुझे प्रेम हुआ उस से,
उसको?
दिल और तेज धड़का!
आँखों में सवाल नाचा!
मन में ठट्ठा मारे वो सवाल!
उपहास उड़ाए उसका!
प्रेम-बावरी!
क्या सोच बैठी!
प्रेम हुआ उसे!
रखा दर्पण!
भागी बाहर, दीवार में बने आले में,
घड़े रखे थे, घड़ों में जल था,
जल्दी से पानी निकाला, पिया,
और गीला हाथ, माथे, नाक और गले से लगा लिया!
बदन दहक रहा था!
साँसें दहक रही थीं!
अपने पल्लू से, मुंह पोंछा!
गर्मी का सताया, वो अधमरा सा पानी,
बर्फ जैसा शीतल लगे उसे!
और पिया पानी!
और चली वापिस!
दर्पण रखा था बिस्तर पर,
लेकिन हिम्मत न हो उठाने की!
मुंह फेरा उसने,
झुकी नीचे,
बढ़ाया हाथ अपना आगे,
टटोला बिस्तर, आया हाथ में वो,
उठाया, और रख दिया एक जगह!


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

और किया मुंह उसकी तरफ!
अब बैठी बिस्तर पर!
थोड़ी देर पहले,
सीने में उठा वो सवाल और उसका तूफ़ान,
अब कुछ शांत थे!
पकड़ी छुरी, और काटने लगी सब्जी!
पहले जैसे हो गयी,
बस अब, गीत न गा रही थी वो!
काट ली सब्जी, उठी, और चली रसोई,
रख दी वहीँ थाली, ढक दी, एक कपड़े से,
और हुई वापिस,
वापिस हुई, तो बाहर का दरवाज़ा खुला,
उसने खिड़की से झाँका,
गीता आई थी!
नमक बिखेरने!
उसकी हालत पर, नमक बिखेरने!
नज़र बचा रही थी वो!
"सुन?" बोली गीता,
"क्या?" बोली रूपाली,
"देख तो सही?" बोली वो,
"बोल?" बोली रूपाली,
"एक खुश-खबरी है!" बोली ज़रा इठलाते हुए!
"कैसी खुश-खबरी?" पूछा रूपाली ने,
"मैं, मेरी बहन और पिता जी, मेले जा रहे हैं!" बोली वो,
ओहो! मन में तो जैसे झमाझम बारिश होने लगी!
होंठ लरज उठे उसके तो!
वो तपिश, जैसे फूंक मार दी उसमे किसी ने!
किसी ने क्या! गीता ने!
"चल, तैयार हो!" बोली गीता,
झट से चली तैयार होने!
गीता इतने में, रूपाली की माँ के पास चली गयी!
बता दिया, ले जा रही है मेले उसे,
पिता जी को सामान लेना है, चिंता कोई नहीं!
तो जी वो,
सब निकल पड़े!
सर ढके,
पल्लू से मुंह ढके,
बैठ गयी थी रूपाली गीता संग!


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

और जी, चल पड़ी वो ऊँट-गाड़ी!
लेकिन आज तो,
रास्ता बहुत ही लम्बा हो चला था!
ऊँट, तेज न चल रहा था!
वो, ढाढण की हवेली भी न आयी थी अभी तो?
वहां से रास्ता आधा रह जाता है!
आज सच में ही लम्बा हो गया है रास्ता!
नज़रें सामने!
धूप की चमक से छोटी हुई आँखें,
बड़ा दृश्य देख रही थीं सामने!
दिल धड़क ही रहा था!
साँसें गरम थीं ही!
"ये ले?" बोली गीता,
पानी घाला था एक गिलास में,
दे दिया पानी रूपाली को,
पानी पिया उसने, गाड़ी हिल ही थी,
रास्ता ही ऐसा था, कैसे का कैसे पानी पिया,
आ गयी फिर, कुछ देर बाद,
वो ढाढण की हवेली!
अब यहां से रास्ता आधा था!
पर था अभी भी दूर!
सूरज अब, सर पर चढ़ा था!
हवा में ठंडक तो थी,
लेकिन गर्मी भी मौजूद थी!
आँखें खुल रखती वो!
ताकि, रास्ता नाप सके!
और इस तरह,
वो रास्ता भी कटने लगा!
अब दीखे कुछ लोग उसे!
कुछ ऊँट-गाड़ियां!
कुछ तिजारती लोग!
कुछ आराम करते ऊँट!
और एक जगह,
ऊँट-गाड़ी रुक गयी!
अलग कर दिया गया ऊँट!
और, वे, दोनों अब, चलीं मेले की ओर!
जैसे जैसे बढ़े आगे रूपाली!
दिल ज़ोर ज़ोर से धड़के!


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

गीता, क़दम से क़दम बढ़ाये,
चले जा रही थी संग उसके!
क़दमों की डिग लम्बी थी आज!
भीड़ में से पार होते हुए,
उसी जगह जा पहुंचीं वो,
देखा उस बड़े से पत्थर को,
लेकिन! वो था नहीं उधर!
वो न था वहां!
क़दम उठे! न रोक सकी! नहीं रुके!
सर पर ढके कपड़े से, केवल आँखें ही दीख रही थीं!
ढूँढतीं! तलाश करतीं! एक, जुस्त-जू!
जो उठी थी अपने अंदर से ही!
जा पहुंची उस बड़े पत्थर तक!
देखा आसपास!
लोग तो थे, हुजूम था उनका!
पर वो न था! कहाँ चला गया?
क्या हुआ? समय तो ठीक है है?
इसी समय तो मिलता है वो?
आज कहाँ है?
उन दो छोटी आँखों ने, सबकुछ टटोल मार था!
दूर दूर तक! लेकिन वो न था कहीं भी!
बदन में, झुरझुरी सी चढ़ गयी!
साँसें, जो इस क़द्र तेज थीं, कि दहक रही थीं,
अब तो थमने को हों!
आगे-पीछे, दायें-बाएं! हर तरफ ढूंढ मारा, नहीं मिला!
लगा ली टेक पत्थर से, दोनों ने ही!
दिल में उठा वो तूफ़ान, झाग की मानिंद, ख़त्म होने लगा!
दस-पंद्रह मिनट तक,
आँखें तलाशती रहीं उसे!
और पीछे आहट हुई!
पलटीं पीछे वो!
वो, वही था, बर्तन था हाथ में एक, लिया चला आ रहा था!
घुमा लिया चेहरा!
कहीं चोर, पकड़ा न जाए!
आ गया उन तक!
"आप? यहां?" पूछा उसने,
"वो....वो...आराम करने के लिए.........आये थे..हम....." बोली गीता,
"अच्छा! अच्छा! ये लो!" बोला वो,


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

बर्तन में से पानी डालते हुए, एक गिलास में,
एक गिलास, बग़ल में दबाये था वो!
"लो?" बोला वो, गीता सा,
दिया गिलास गीता को,
और फिर बग़ल से, दूसरा गिलास लिया, उसे साफ़ किया,
डाला पानी उसमे, और बढ़ दिया गीता की तरफ,
"ये लो, इन्हें भी पिला दो!" बोला वो,
गीता ने लिया, और दिया रूपाली को पानी!
न-नुकुर करने के बाद, ले लिया गिलास,
"और चाहिए?" पूछा उसने,
"नहीं नहीं!" बोली गीता,
दिए उसे गिलास वापिस,
उसने पत्थर पर रखे वो,
और तब उस बड़े बर्तन से, धार बना, पिया पानी!
पी लिया पानी, रख दिया बर्तन पत्थर पर,
"तो आज भी खरीदने आये हैं कुछ?" पूछा उसने,
"नहीं, वो मेरे पिता जी आये हैं" बोली गीता,
'अच्छा, तो आप घूमने आये हैं?" बोला वो,
"हाँ, साल में दो बार ही तो लगता है मेला!" बोली गीता,
"हाँ, ये तो है!" बोला वो,
"आप तिजारती हैं?" पूछा गीता ने,
"नहीं!" बोला वो,
"तो कुछ सामान बेचते हैं?" पूछा उसने,
"नहीं!" बोला वो,
"तो फिर?" पूछा गीता ने,
"मैं, आगे रहता हूँ, मैं जिले में वहां अहलमद हूँ!" बोला वो,
"क्या?" पूछा गीता ने, समझ न आया था कि कौन सा मद!
"अहलमद!" बोला वो,
"ये क्या होता है भला?" पूछा गीता ने,
"अदालती काम करता हूँ!" बोला वो,
"अच्छा, समझ गयी!" बोली वो,
"और गाँव कहाँ है?" पूछा उसने,
"है कोई बीस कोस!" बोला वो,
"बीस कोस?" अचरज से पूछा गीता ने!
"हाँ!" बोला वो,
"तो यहां रोज आते हैं आप?" पूछा गीता ने,
"हाँ, रोज!" बोला वो,
"कैसे, ऊँट-गाड़ी से अपनी?" पूछा गीता ने,


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

हंस पड़ा वो, गीता के इस मासूम से सवाल पर, हंसी छूट गयी उसकी!
"ऊँट-गाड़ी से नहीं! अपने घोड़े से!" बोला वो,
"घोड़ा? कहाँ है आपका घोड़ा?" पूछा गीता ने,
"वो, देखो, वहां बंधा है!" बोला वो, इशारा करके उधर ही!
"वो काले वाला?" पूछा गीता ने,
अब रूपाली ने भी देखा उधर,
एक काला घोड़ा बंधा था, दुम फटकार रहा था अपनी!
"और रोज क्यों आते हो आप?" पूछा गीता ने,
"आना पड़ता है, ये काम है मेरा, देख-रेख!" बोला वो,
अब कोई काम होगा अदालती!
यही सोचा उस भोली भाली लड़की गीता ने तो!
"एक बात पूछूँ आपसे?" बोली गीता,
"हाँ! क्यों नहीं!" बोला वो,
"आपका नाम क्या है?" पूछा उसने,
मुस्कुराया वो!
"रणवीर!" बोला वो,
"अच्छा!" बोली गीता, देखा रूपाली को,
और रूपाली, घूरे उसे! दांत भींचे!
"आपका क्या नाम है?" पूछा रणवीर ने!
"गीता!" बोली वो,
मुस्कुराते हुए!
"और इनका?" पूछा उसने,
"इनका? आप ही पूछ लो!" बोली वो,
मारी कोहनी गीता को तभी!
गीता हंस पड़ी!
अब फंसी रूपाली!
"क्या नाम है आपका?" पूछा रणवीर ने,
अब कुछ न बोले!
शर्म से गढ़े ज़मीन में!
"दो दिन और, और मेला ख़त्म!" बोला वो,
कितने कम शब्दों में, समझा दिया था उसने रूपाली को!
"ठीक है, आपकी................" वो पूरा बोलता, उस से पहली ही,
"रूपाली!" बोल गयी रूपाली!
समझ गयी थी!
दो दिन और हैं!
और उसके बाद?
उसके बाद??
"रूपाली! धन्यवाद!" बोला वो,


   
ReplyQuote
Page 2 / 8
Share:
error: Content is protected !!
Scroll to Top