सिरोही, राजस्थान की...
 
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सिरोही, राजस्थान की एक घटना

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श्रीशः उपदंडक
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जिला सिरोही, और इस जिले का एक, दूरस्थ बसा गाँव! अंग्रेजी सियासत का वक़्त था वो! गाँव में आबादी भरी-पूरी न थी, जो सम्पन्न हो चले थे, वो कस्बों में जा बसे थे, तिजारती लोग अधिक थे ऐसे, या फिर नौकरीपेशा लोग! फिर भी, आबादी पांच या छह सौ करीब रही होगी उस गाँव की! ज़मीन में रेह लगी थी, खेती नाम को भी न थी, कहीं थी, तो पानी न था! खाली पड़े थे वो खेत! उसी गाँव में एक परिवार रहा करता था, मोहर सिंह का परिवार! मोहर सिंह के बड़े भाई, जौहर सिंह का परिवार भी, उनके परिवार के संग ही रहता था, घर, पुश्तैनी था, बड़ा घर था, दोनों परिवार अपनी गुजर-बसर करते थे! जौहर सिंह, कपड़े के तिजारती थे, और मोहर सिंह भी उनके साथ ही तिजारत किया करते थे, पंद्रह-पंद्रह दिनों में घर आना हुआ करता! शहर, क़स्बे से कुछ न कुछ अवश्य ही लाते घर के अन्य सदस्यों के लिए भी सामान!
मोहर सिंह के घर में, एक बड़ी बेटी थी, एक उस से छोटी और एक उस से छोटा बेटा, ये घटना, उस बीच वाली लड़की से संबंधित है, जिसको मैं रूपाली नाम से सम्बोधित करूंगा! रूपाली, बहुत सुंदर थी! अच्छी, पूर्ण देह, उज्जवल रंग, अच्छी कद-काठी और रसीली आवाज़! उसकी सुंदरता का ज़िक्र गाँव भर में होता था! माँ-बाप को चिंता थी, लेकिन अभी तो बड़ी ही नहीं ब्याही थी! वो ब्याहे तो रूपाली के भी हाथ पीले हों! ये चिंता तो हर माँ-बाप को होती है! तो मोहर सिंह और उनकी पत्नी भी अलहैदा नहीं थे!
उस रोज मेला था! दशहरे से पहले के दिन थे!
अपनी माँ और अपनी एक सखी के संग,
गाँव के बाहर, लगे मेले में, घूमने आई थी रूपाली!
उसका रूप-रंग जो देखता,
जस का तस खड़ा रह जाता!
उसका रूप, सच में ही आकर्षक था!
जिस तरह चुंबक खींचा करती है,
वैसा ही मानिए आप!
अपनी सबसे प्यारी सखी, गीता संग थी वो!
गीता चुलबुली थी बहुत! बहुत छेड़ती उसे! 
मेले में, बहुत सी आँखें लगी थीं उस पर!
और दो आँखें, और थीं, जो टकटकी लगाये देख रही थीं उसे! 
वो नौजवान, दूर खड़ा था सबसे,
लम्बा-चौड़ा, पहलवान सरीखा,
सर पर साफ़ा बांधे,
शानदार कुरता और धोती पहने!


   
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श्रीशः उपदंडक
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दोनों कानों में, सोने की बालियां पहने!
गोरा-चिट्टा रंग था उसका!
उसकी, चमकदार, चपल आँखे, जमी थीं रूपाली पर!
वो सबसे अलग खड़ा था,
दोनों हाथ बांधे!
रूपाली, दूर थी उस से,
कुछ श्रृंगार का सामान ले रही थी!
दर्पण उठाया उसने,
जैसे ही उठाया,
धूप ने छुआ उसे, और उसकी चमक,
जा पड़ी दूर! उस नौजवान के पास ही!
उस नौजवान ने, उस चमक को देखा,
हाथ भर की दूरी पर थी,
हाथ बढ़ाया अपना, और छू लिया!
वो चमक, जैसे ही हाथ पर पड़ी,
गायब हुई!
उस नौजवान से, उधर देखा, रूपाली की तरफ,
दर्पण रख दिया था उसने!
वो, मुस्कुराया, हल्का सा,
और फिर से नज़रें जमा दीं रूपाली पर!
तभी दो घुड़सवार आये उधर, घोड़ों की टाप ने,
लोगों का ध्यान खींचा!
वे सरकारी मुलाज़िम थे, सरकारी ही पोशाक़ थी उनकी!
मुआयना करने आये थे शायद!
एक रुका!
झुकी हुई, रूपाली को देखा!
दूसरा, आगे निकल गया,
गीता ने वो घुड़सवार देख लिया था,
उसने हाथ मार कर, रूपाली को, ठीक से खड़े होने को कहा!
रूपाली को जैसे ही छुआ गीता ने,
रूपाली ने पीछे मुड़कर देखा,
वो घुड़सवार, उसे ही देख रहा था! मुस्कुराते हुए!
"कौन से गाँव की है?" पूछा उसने,


   
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श्रीशः उपदंडक
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न बोलीं कुछ दोनों!
माँ को ढूंढें निगाहें!
और माँ, जाने कहाँ थी! शायद खरीद रही थीं कुछ!
रखा दोनों ने सामान नीचे!
और जैसे ही, रूपाली घोड़े के पीछे चलने को हुई,
अपना बायां पाँव अड़ा दिया उस घुड़सवार ने!
घबरा गयीं वो दोनों!
"मैंने कुछ पूछा?" बोला वो,
न बोलीं कुछ!
खड़े खड़े, सूख चलीं!
"हां री? कौन गाँव की है?" पूछा गीता से!
गीता, कुछ न बोली! सहम गयी थी!
"जवाब दे?" बोला वो घुड़सवार!
अब, और कोई क्या बोले?
सरकारी मुलाज़िम था!
कौन पड़े पचड़े में?
"मैं बताता हूँ!" आई एक भारी मर्दाना आवाज़!
घुड़सवार ने देखा उसे!
डील-डौल पहलवान जैसा था उसका!
एक हाथ से ही, गिरेबान पकड़ कर, खींच सकता था नीचे घोड़े से!
उस नौजवान ने, उस घुड़सवार का पाँव, झुका दिया, अपने हाथ से,
"जाओ, दोनों!" बोला वो,
और वो लड़कियां!
ऐसे भागें कि जैसे पिंजरे से छूटा पंछी!
लड़कियां एक जगह रुकीं,
और देखा उधर,
बातें कर रहा था वो उस घुड़सवार से,
और वो घुड़सवार, बढ़ गया आगे!
पता नहीं क्या कहा था उस से उसने!
वो नौजवान, मुड़ा, देखा उन लड़कियों को,
सिर्फ एक पल के लिए,
और लौट चला वापिस!
और हो गया भीड़ में ओझल!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"क्या गाँव का नाम बताया होगा उसने?" बोली रूपाली,
"पता नहीं" बोली वो,
घबरा गयीं दोनों!
कहीं आ गया वो मुलाज़िम गाँव तो?
तब तो बड़ी फ़ज़ीहत होगी?
कैसे होगी अब?
"क्या करें?" बोली रूपाली,
"तू बता?" बोली गीता,
"तू पूछ जो ले उस से?" बोली रूपाली,
"किस से?" चौंक के पूछा उसने,
"उसी से?" बोली वो,
"तू पूछ ले?" बोली वो,
"पूछ ले न?" बोली रूपाली!
और दे दी सौगंध!
अब सोच में पड़ी गीता!
"कहीं वो मुलाज़िम मिला तो?" बोली गीता,
"वो देख, चले गए वो!" बोली रूपाली,
वे दोनों जा रहे थे! दूर जा पहुंचे थे तब तक,
"चल?" बोली रूपाली,
और चलीं वो दोनों,
पहुंची वहां, उस जगह तक,
ढूँढा उस नौजवान को,
कहीं न था वो तो,
आखिर था कौन?
कहीं गाँव का ही तो नहीं था?
मुखबिर हुआ करते हैं ऐसे लोग!
और वो नौजवान!
खड़ा था!
उनके दायें,
एक बड़े से पत्थर के सहारे,
उस पत्थर से,
थोड़ी ही दूर,
खंडहर थे किसी किले के,


   
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श्रीशः उपदंडक
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कोई खंडहर था पुराना,
वहीँ खड़ा था वो नौजवान!
देख रहा था टकटकी लगाये,
रूपाली को!
अचानक से,
रूपाली की नज़रों में आया वो,
"गीता?" बोली वो,
"हाँ?" बोली गीता,
"वो, वहाँ!" बोली वो,
देखा गीता ने, और लिया नज़रों में,
"चल!" बोली वो,
"मुझे डर लग रहा है" बोली वो,
"इतने सारे लोग नहीं हैं क्या?" बोली रूपाली,
"तू पूछ ले न?" बोली गीता,
"तूने यही पूछना है कि गाँव का पता तो नहीं बताया? चल?" बोली रूपाली,
अब खींचा गीता का हाथ!
चली आगे!
डर तो वो खुद भी रही थी!
लेकिन उस घुड़सवार का डर ज़्यादा था!
जब उस नौजवान ने देखा, कि वो दोनों उसकी तरफ ही आ रही हैं,
तो पत्थर से हट गया, हो गया खड़ा, आँखें चौड़ी किये!
वे दोनों चलीं उसकी तरफ!
उस नौजवान का चेहरा हल्का हो गया!
अपने कपड़ों को देखा उसने, ठीक थे,
जूतियां देखीं, रेत लगा था, फटकार लिया!
सामने देखा, आ रही थीं,
दोनों ही डरी-सहमी थीं,
और वो नौजवान, वो भी सहम गया था!
गीता चली आगे,
रूपाली रुक गयी,
गीता ने पीछे देखा,
वो भी रुकी और चली रूपाली के पास!
रूपाली ने हाथ से इशारा किया उसे आगे जाने का!


   
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श्रीशः उपदंडक
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गीता को कुछ समझ न आये!
"जा?" बोली रूपाली,
तो, भारी क़दमों से, आगे चली गीता,
आय उस नौजवाब के पास,
उसके कंधों से भी नीचे थी गीता!
सर झुका के देखा उस नौजवान ने,
दोनों हाथ जोड़े, नमस्कार की नौजवान ने!
अब थोड़ी हिम्मत बढ़ी गीता की!
बोलने के लिए, शब्द ढूंढें!
शब्द मिले, तो गूंथे न जाएँ!
पहले तो, कुछ का कुछ बोली, मुंह में ही!
फिर गूंथे शब्द उसने!
"कुछ पूछना है!" बोली गीता,
"जी, पूछिए?" बोला वो,
"आप, हमारे गाँव के हो?" पूछा गीता ने,
"जी नहीं!" बोला वो,
"तो आपने मुलाज़िम को कहा था न? कि मैं बताता हूँ?" पूछा गीता ने,
"वो तंग कर रहा था आप दोनों को, इसीलिए मैं आया था, ताकि आप जा सको वापिस, बाद में मैंने उसको समझा दिया था कि मैं कौन हूँ, वो जान, चला गया फिर, सच में, आपका गाँव नहीं जानता मैं, मैं तो.....यहीं....." इतना बोल चुप हुआ,
"नहीं बताया न?" पूछा गीता ने,
"न! नहीं बताया!" बोला वो, मुस्कुराते हुए!
एक पल को आँखें मिलायीं गीता ने उस से,
उस नौजवान की आँखों में विश्वास था,
वो हल्का सा मुस्कुराई, पलटी, और चली वापिस!
पहुंची रूपाली के पास, बताया उसे, और दोनों चल पड़ीं वापिस!
अब पूरी बात बताई गीता ने उसे!
तब जाकर चैन आया रूपाली को,
रूपाली ने घूम कर देखा, वो नौजवान, वहीँ खड़ा था!
देख रहा था, नज़रें बदलीं रूपाली ने, और बढ़ चली आगे!
आगे गयीं वो तो,
माँ मिल गयी!
माँ ने खरीदा सामान, दे दिया उन्हें,


   
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श्रीशः उपदंडक
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और चल दीं वापिस अपने गाँव!
गाँव पहुंच गयीं दोनों!
और बात, आई गयी हो गयी!
तीन दिन बीते!
और फिर से अवसर मिला जाने का,
अबकी बार, बड़ी बहन जा रही थी साथ, माँ तो थी ही,
पड़ोसी की ऊँट-गाड़ी में बैठ गए थे सब!
जा पहुंचे, आज मेले में बहुत भीड़ थी!
दूर दूर से लोग आये थे आज!
दशहरा आने में, तीन दिन बाकी थे!
दोपहर का समय था, खरीदारी हो रही थी,
गीता और रूपाली, चली अपना सामान खरीदने,
जब सामान खरीद रही थीं,
तो घोड़े ली टाप सुनाई दी,
वे डर गयीं!
पीछे देखा!
दो घुड़सवार थे उस रोज!
वे आ रहे थे करीब!
दोनों ही सिहर गयीं!
नज़रें नीचे हो गयीं!
और वे घुड़सवार, धीरे धीरे गुजर गए पास में से ही!
न कहा किसी से भी कुछ!
शायद आज दूसरे मुलाज़िम थे!
तभी!
ध्यान आया रूपाली को कुछ!
वो नौजवान!
गयी नज़र उधर ही!
और उधर!
खड़ा था वहीँ!
बस देख नहीं रहा था उन्हें!
आज सजीले कपड़ों में था!
सबसे अलग ही नज़र आ रहा था!
आते जाते लोग,


   
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श्रीशः उपदंडक
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उस पर भी नज़र डालते थे!
वो कोई, रजवाड़े के खानदान से हो,
ऐसा लगता था!
वेश-भूषा भी ऐसी ही थी!
और डील-डौल तो सबसे ज़बरदस्त!
एक ही हाथ से,
एक भरे-पूरे इंसान को, हवा में उठा दे!
अचानक ही!
उस नौजवान की नज़र पड़ी रूपाली पर!
टेक से हट गया!
साफ़ा ठीक किया अपना,
अपने कपड़े सही किये!
और लड़ा दी नज़र!
अपलक, देखता रहा वो!
रूपाली ने, हटाई नज़र!
गीता ने, जो कि बैठी थी,
आवाज़ दी थी उसे!
इसीलिए हटा ली थी नज़र!
बिठाया गीता ने उसे,
वो बैठ गयी, कुछ ले लिया था गीता ने,
उसे दिखा रही थी!
अब दोनों उठने लगीं,
तो गीता को कुछ और नज़र आया, वो उसको देखने के लिए,
फिर से बैठ गयी नीचे, रूपाली खड़ी हो गयी थी,
गयी नज़र अपने आप उस जगह!
अब न था वो वहाँ!
अब आँखों ने ढूंढना शुरू किया उसे!
आसपास देखा,
दायें-बाएं,
आगे-पीछे!
कहीं नहीं था वो!
गीता ने फिर से आवाज़ दी!
अनसुना कर दिया!


   
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श्रीशः उपदंडक
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नज़रें कहीं अटकी थीं, ढूंढ रही थीं कुछ!
गीता ने फिर से आवाज़ दी!
तब देखा गीता को उसने!
अब बिठा लिया फिर से!
रूपाली बैठ गयी! देखने लगी कि गीता और क्या लेना चाहती है!
"तूने कुछ नहीं लेना?" बोली गीता,
"न! तू ले ले!" बोली वो,
"अरे?" बोली वो,
जब तक देखती रूपाली का मुंह,
रूपाली खड़ी हो गयी थी!
नज़रें डाली वहाँ!
और वो नौजवान!
अबकी, वहीँ खड़ा था!
रूपाली को ही देखता हुआ!
तभी उस नौजवान को किसी ने आवाज़ दी,
किसी ने मदद मांगी थी उस से,
ऊँट-गाड़ी में, एक बोरा रखना था,
जिसने मदद मांगी थी, वो एक तरफ से पकड़े था बोरा,
उस नौजवान ने, हटा दिया उसे,
वो एक बुज़ुर्ग था!
बोला उस बुज़ुर्ग को ऊँट-गाड़ी में बैठने के लिए,
और एक ही हाथ से,
वो बोरा उठाया, और रख दिया ऊँट-गाड़ी में!
उस बुज़ुर्ग ने,
कंधी थपथपा दिए उसके!
वो मुस्कुराया बुज़ुर्ग को देख!
और ऊँट-गाड़ी बढ़ चली आगे!
फिर उसने डाली नज़रें उधर ही!
रूपाली,
उसी को देख रही थी!
वो जब उसे देखती थी,
तो वो नौजवान,
सिहर सा जाता था!


   
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श्रीशः उपदंडक
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जैसे अपने आप में ही उलझ गया हो,
नज़रें झुका लेता था,
कई कई बार तो,
नज़रें चुराने लगता था! और कई बार,
संजीदगी से, नज़रें लड़ाता रहता था!
नज़रों का खेल था सब!
नज़रें!
सच में!
ये नज़रें ही तो हैं!
क्या से क्या हो जाए!
ऐसी सजा,
तो क़ज़ा से बढ़ कर हो!
ऐसी अलक़त,
तो उल्फ़त से बढ़ कर हो!
ऐसी खोज,
जो खत्म ही न हो!
तो मित्रगण!
रूपाली की नज़रें, भिड़ी हुईं थी उस नौजवान से!
और वो नौजवान,
कभी, देखता,
कभी नज़रें हटाता,
कभी, फिर से देखता!
कभी, दूर खड़ा, साफ़ा ठीक करता,
कभी, हाथ बाँध लेता!
"रूपाली?" आई आवाज़,
आवाज़, जिसने, तोडा क्रम, नज़रों का,
"क्या है?" बोली खीझ कर रूपाली!
"ये सही है न?" पूछा गीता ने,
"हाँ, सही है!" बोली रूपाली,
बिन देखे!
आप भाव समझ लेना मेरे दोस्तों!
मैं इतना कुशल नहीं, कि लिख सकूँ,
लेखक के गुण नहीं हैं,


   
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श्रीशः उपदंडक
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बस, लिख ही दिया करता हूँ!
अब जैसा बन पड़ता है!
"तू है कहाँ?" बोली गीता, और भांपा मामला!
देखा एक जगह!
वहीँ,
जहां वो नौजवान खड़ा था!
"रूपाली?" बोली गीता,
न सुने वो!
"ओ रूपाली?" बोली गीता,
जब न सुना, तो चिकोटी काटी!
चौंकी वो रूपाली!
"हाँ?" बोली रूपाली,
"कहाँ है?" पूछा गीता ने,
एक पल को, न बोली वो!
"ए? कहाँ है?" फिर से पूछा,
"यहीं तो हूँ?" कहा रूपाली ने!
"नहीं है तू!" बोली गीता!
अब लहजा, तीखा था उसका,
"तो कहाँ हूँ?" बोली ज़रा तेज, रूपाली!
"उधर!" कहा गीता ने, इशारा करके,
लेकिन,
वहाँ तो वो,
था ही नहीं!
कहाँ गया?
कहाँ चला जाता है वो?
"देखा?" बोली रूपाली,
अब बहाना था उसके पास!
"हाँ? कहाँ है वो!" बोली ज़रा मज़ाक के लहजे में!
"कौन वो?" पूछा, ज़रा आँखें झुकाते हुए रूपाली ने!
"अरे वही?" दिया जवाब,
"तू सामान ले, और चल!" कहा रूपाली ने,
ज़रा सा, वक़्त का, टुकड़ा चुराया,
और डाली नज़र, उस पत्थर के पास,


   
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श्रीशः उपदंडक
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नहीं था वो नौजवान वहाँ!
ओहो!
रूपाली ने, टटोल लिया!
सारी जगह टटोल ली!
न मिला वो!
कहाँ गया?
अभी सोच में डूबा था कि,
"वो दर्पण दिखाइए?" आई एक मर्दाना, मधुर सी आवाज़,
करीब से, ज़रा सा पास से,
चौंकी रूपाली!
ये तो,
ये तो वही था!
वो दर्पण लिए हुए था हाथ में!
उसका गुलाबी, रक्तिम चेहरा,
चमचमा रहा था उस रेत की आभा में!
मूंछें, रौबदार! चिबुक में, लकीर!
मर्दानापन की बेशुमार त'आमीर था वो!
खरीद लिया था वो दर्पण उसने!
दे दिए थे दाम,
कोई हिचक-खुचक नहीं,
जो माँगा, दिया था उसने!
रूपाली,
देखे जाए उसे!
और वो,
न देखे एक नज़र भी!
बस दर्पण,
उलटे पलटे जाए!
और तब!
तब अपनी चमकीली आँखों से,
देखा रूपाली को!
"लीजिये!" बोला वो,
वो दर्पण देते हुए!
बदन में,


   
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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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सनसनाहट रेंगी!
रोएँ, खड़े हो गए!
साँसें
थोड़ा, गर्म गयीं!
एक अनजान!
पास में खड़ा!
कैसी मुसीबत?
जब सामने था,
तो नज़रों का खेल था,
अब सामने है, तो,
नज़र भी शरमाये!
"लीजिये?" बोला वो,
"हमने नहीं खरीदा" बोली रूपाली!
"आपके लिए खरीदा!" बोला वो,
उसकी आवाज़!
जिसे,
बदन का कोना कोना खोले!
"हम नहीं ले सकते!" बोली वो,
"क्यों?" पूछा उनसे,
"नहीं!" बोली वो,
मुस्कुराया,
रख दिया दर्पण नीचे,
और बढ़ गया आगे,
आगे, वही, उस पत्थर के लिए!
वो चलता गया!
नज़रों की डोर,
खिसकती रही!
खिसकती रही रूपाली के हाथों से!
वो चलता गया!
पत्थर पार किया,
खंडहर के लिए गया,
वहाँ, चला,
सूरज अब ढलान पर था,


   
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श्रीशः उपदंडक
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लाल हुआ आसमान,
लाल कर गया रूपाली को!
और वो,
नौजवान,
चला गया दूर,
दूर,
हो गया ओझल!
रूपाली,
नज़रें न हटा सकी उस से,
एक बार भी, पीछे मुड़कर न देखा उसने!
सामान समेटा जा रहा था!
रूपाली झुकी!
उठा लिया वो दर्पण!
देखा अपने आपको!
पूरा चेहरा दीख रहा था!
फिर से नज़र दौड़ी,
वहीँ,
अब न था वो वहाँ!
रख लिया दर्पण उसने!
दर्पण!
क्या कहूँ?
दर्पण?
या अर्पण?
लालिमा छाने लगी!
उस लालिमा में, कुछ और भी था!
कुछ और! सच में, कुछ और!
दिल में कुछ हिलोरें उठ चली थीं!
क्यों किसी अनजान के लिए ऐसी बेसब्री?
क्यों, एक नज़र, उलझती है बार बार?
क्यों एक जुस्त-जू सी होती है उस नज़र में?
वो नहीं था वहाँ!
जाने कहाँ चला गया था!
उसकी नज़र, जहां खत्म होती थी,


   
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श्रीशः उपदंडक
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वहां नहीं था वो!
एक बार फिर से तलाश की,
और इस बार, गीता की नज़र भी संग थी!
"वहाँ तो कोई नहीं?" बोली गीता!
एक पल के लिए,
ये सवाल, अनसुना सा हो गया!
न सुना रूपाली ने!
तब, उसका कंधा पकड़ कर, हिलाया गीता ने!
"ऐ? रूपाली?" बोली गीता!
तब सुना उसने! बोली कुछ नहीं!
देखा गीता को!
गीता के होंठों पर मुस्कान और आँखों में शरारत भरी थी!
और रूपाली, न मुस्कान और न शरारत!
संजीदा! तो ये,
पहली निशानी थी, कि, उसका दिल, धड़कने लगा था किसी के लिए!
नज़र, फिर से उठी, उसी पत्थर पर पड़ी!
टेक लगाये हुए, वो नौजवान, न था वहाँ!
"कोई नहीं है वहां! रूपाली?" बोली गीता!
"हाँ!" हाँ, निकला पड़ा अनायास ही मुंह से उसके!
चाहती तो न थी कहना!
अब यह तो होता है!
जब दिल और दिमाग, अलग अलग हों,
तो मुंह से, ऐसा ही कुछ निकलता है!
तभी माँ की आवाज़ आई!
रूपाली की बड़ी बहन संग, आ गयी थीं वो!
अब वापिस जाना था उन्हें!
कोई नहीं जाना!
कोई नहीं पहचाना!
बस गीता के सिवा!
कि रूपाली की नज़र कहाँ जा टिकी थी!
उसी पत्थर पर!
लेकिन कोई था नहीं वहां!
"चलो!" बोली माँ,


   
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