सन २०१० पिलखुवा की ...
 
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सन २०१० पिलखुवा की एक घटना

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श्रीशः उपदंडक
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१७ मई सन२०१० की वो रात थी, मुझे अच्छी तरह से याद है, हवा में तेजी थी,गरम हवा के थपड़े चल रहे थे, रात के १ बजे का समय था, शहर से काफी दूर ये शमशान पिलखुवा में पड़ता है, पिलखुवा दिल्ली-कानपुर हाईवे पर एक छोटा सा कस्बा है, हापुड़ से कोई १७ किलोमीटर पहले पड़ता है अगर आप दिल्ले से जा रहे होंतो, मुझे यहां पर बरेली के एक कोलाचार्य ने आमंत्रित किया था, ये कोलावार्य मुझे पिछले १२ वर्षों से जानते थे और काफी उम्र के व्यक्ति थे, दर-असल हापुड़ के एक व्यवसायी की एक लड़की काफी बीमार चल रही थी, उसकी एक टांग में काफी बड़ा जख्म था, काफी इलाज के बाद भी वो ठीक नहीं हो पायी थी, अब व्यक्ति के पास विपत्ति जब आती है विकराल रूप लेकर तो वो कुछ भी करने से और करवाने से गुरेज़ नहीं करता, बस उस का काम होना चाहिए, ऐसा ही सेठ चुन्नी लाल के साथ हुआ था, उसकी लड़की की टांग में कोई छोटी सी चोट लगी और वो बड़ी होती गयी, ऊपर जांघ से लेकर नीचे घुटने तक बस जख्म ही जख्म था, वो एक व्हील-चेयर पर बैठी रहती थी, सेठ ने काफी इलाज करवाया लेकिन डॉक्टर्स ने आखिर कह दिया की टांग काटने का अलावा और कोई चारा नहीं है, लेकिन चुन्नी लाल अब भी कोई कसर छोड़ना नहीं चाहता था, ये कोलाचार्य इसी सेठ के परिचित थे, उन दिनों मै गोरखपुर में अपने एक साथी के साथ मसानी-क्रिया में व्यस्त था, मेरे पास उनका फ़ोन आया की ऐसी-ऐसी बात है, जवान लड़की है और देख लो अगर कुछ हो सकेतो, तो मैंने उनको ९ दिन के बाद का समय दे दिया, मै ५ तारीख की सुबह गोरखपुर से चला और ६ तारीख को सुबह दिल्ली पहुँच गया, मैंने आते ही शर्मा जी को फोन किया और उनसे फ़ौरन आने को कहा, उन्होंने बताया की वो मेरे पास र बजे तक पहुँच जायेंगे, और कोई २ बजे वो आ गए और हम कोलाचार्य के बताये पते पर पहुँच गए, रास्ता यही कोई डेढ़ घंटे का है, यहां के इस शमशान में मैंने कई बार साधना की है, यहां पर किसी तरह की कोई परेशानी नहीं होती, इंसानी आबादी न के बराबर है, क्रिया संपादन में आसानी रहती है..... 

मै करीब ६ बजे के आस-पास उस शमशान में शर्मा जी साथ पहुंच गया था, कोलाचार्य अपने रसाथियों के साथ वहाँ पहले से ही पहुंच चुके थे, मेरी उनसे वहाँ भेंट हुई, अभिवादन हुआ और फिर काम के विषय में बात हुई, कोलाचार्य ने कहा, 

"सेठ काफी परेशान है, हर जगह से मायूस हो चुका है, वो मेरे पास लगातार चक्कर लगा रहा था, जब मैंने आपको फ़ोन किया था तो ये अपनी बीवी के साथ मेरे पास आया हुआ था, आप देख लो अगर कुछ हो सकता है तो, वैसे सेठ ने कहा है कि लड़की ठीक होते ही इस आश्रम के लिए मोटा दान देंगे, मै सेठ से आपके गोरखपुर वाले शमशान हेतु भी दान के लिए कह ढूंगा" 


   
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श्रीशः उपदंडक
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मै जानता था कि कोलाचार्य के मन में क्या है, वो पहले भी ऐसे काम मेरे से करवा चुके थे, दान-प्राप्ति भी कर चुके थे, मैंने फिर भी यही कहा कि चलो देखते हैं कि क्या किया जा सकता है, 

कोलाचार्य ने क्रिया के प्रयोग हेतु सभी आवश्यक वस्तुएं मांस, मदिरा एवं एक मेढ़ा भी मंगवा लिया था, मेढ़ा सदैव काले रंग का ही प्रयोग किया जाता है महा-प्रसाद हेतु, मेढ़े की पूजा की जाती है, उचित भोजन करवाया जाता है, तब ही प्रयोग में लाया जा सकता है अथवा नहीं, मैंने मेढ़ा देखा, ठीक-ठाक हीथा, सेठ अपने परिवार के साथ यहां रात्रि १२बजे अपनी बेटी के साथ आने वाला था, मैंने आवश्यक पूजा करनी शुरू की और शक्तियों का पूर्व-आह्वान किया, अब बस देर थी तो सेठ के आने की.............. 

और फिर १२ बजे के आस-पास सेठ अपनी बेटी और परिवार के अन्य सदस्यों के साथ आ गया, उसकी बेटी को उतारा गया, और व्हील-चेयर पर बिठाया गया, और वो एक कमरे में दाखिल हो गए, वहाँ उन्होंने उस लड़की को अकेला छोड़ ना था, उन्होंने ऐसा किया तो मै और शर्मा जी उस लड़की के पास पहुंचे, मैंने लड़की को देखा, मै अवाक रह गया, लड़की आयु र महीनों से ज्यादा शेष ही नहीं थी, इस स्थिति में मै कुछ नहीं कर सकता था, या यूँ कहा जाए की कुछ नहीं किया जा सकता था.... 

मैंने तब ही कोलाचार्य को बुलाया और सारी स्थिति से अवगत कराया, कोलाचार्य बोले, " क्या कुछ भी संभव नहीं है? कोई 

और विद्या-प्रयोग से बात बने तो देखिये, यूँ मानिए की काम करना ही करना है, ये मेरी प्रतिष्ठा की बातहै, मैंने चुन्नीलाल  

सेये बात कह दी है" 

ये मेरे लिए बेहद पशोपेश की स्थति थी, समझ नहीं आ रहा था की क्या किया जाए, क्रियाएं तो बहुत हैं, किसी की भी उम्र उसको दी जा सकती थी, लेकिन सवाल था कि किसकी? किसी बेगुनाह, मासूम की तो कदापि नहीं, ये मुझे मंजूर नहीं, फिर भी मैंने कोलाचार्य से कहा की मै जो संभव होगा वो देखता हूँ, विचार करता हूँ, और ये कह के मै बाहर निकल आया, 

तंत्र-विद्या में ये संभव तो है, किसी की भी आयु किसी को भी दी जा सकती है, ये क्लिष्ट क्रियाएं कही जाती हैं, एक दो दिन में समाप्त नहीं होती, कम से कम १३ दिन चाहिए होते हैं, एक बार को मेरा मन किया की मै मना कर दूँ और वापिस चला जाऊं, लेकिन उस लड़की की व्यथा देखकर मनविचलित हो उठाथा, २०-२१ बरस की वो लड़की अब इस भूमि पर अब २महीनों 


   
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श्रीशः उपदंडक
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की आयु लिए ही शेष थी, मैंने ये असमंजस की स्थिति शर्मा जी से कही और उनका भी कहना यही था की किसी तरह से भी लड़की ठीक हो जाए तो उत्तम है, लेकिन अनुचित प्रयोग द्वारा नहीं, अब देखिये मित्रो, ये ही एक कारण होता है की लोग उस वस्तु के संपर्क में आ जाते हैं जो या तो किसी को खिलादी जाती है, पिला दी जाती है, या फिर चौराहों पर रख दी जाती है, कि किसी भी व्यक्ति का उसमे स्पर्श हो और आयु, संतान आदि का इच्छित कार्य सफल हो, ऐसा, घटिया स्तर के तांत्रिक, धन लोलुप तांत्रिक किया करते हैं, मै अगर चाहता तो ऐसी कि कोई क्रिया करके किसी भी वस्तु को अभिमंत्रित कर के इन को दे देता, वो किसी के भी स्पर्श में आती, तो उस की आयु का चौथाई भाग इस लड़की को मिल जाता! और ये क्रिया इसी तरह 3 बार संपन्न होनी थी, लेकिन मैंने ऐसा नहीं किया, इसके लिए मुझे वाराणसी जाना होगा, वहाँ आयु वर्धिनीयक्षिणी कि पूजा करनी होगी, उससे आयु मांगनी होगी, सम्पूर्ण आयु, जितनी उसकी होनी चाहिए, अमूमन हम लोग ६० वर्ष की आयु को ऐसी पूर्णायु कहते हैं, बदले में जो भी ये यक्षिणी मांगेगी वो सेठ को देनी होगी, और अगर सेठ ने नहीं दी तो मुझे स्वयं ये भेंट यक्षिणी को चढ़ानी होगी, यही वजह है की मै ऐसे किसी भी कार्य से बच के रहता हूँ. 

मैंने कोलाचार्य को सारी बात बता दी, कि अड़चन क्या है और उसका निदान क्या है, कोलाचार्य ने ध्यान से मेरी बातें सुनीं, 

और कहा कि मई सेठ से ये सारी बातें करता हूँ और अभी थोड़ी देर में वापिस आ के बताता हूँ, मै वहाँ सेनिकल कर अपने परिधान बदलने अपने कमरे में चला गया, बदल ने के बाद, शर्मा जी की गाडी में आके अपना सारा सामान रखा, क्यूंकि अब यहाँ का कोई काम बाकी नहीं रहा था, करीब आधे घंटे बाद कोलाचार्य वहाँ आये और मुझे सेठ से की हुई सारी बातें बता दी, मैंने अभी तक सेठ से बातें नहीं की थीं, मेरा कोई औचित्य भी नहीं था, वो कोलाचार्य का परिचित था, मेरा नहीं, और अगर 

कोई बात मुझे करनी भी होती तो कोलाचार्य की उपस्थिति में ही करनी पड़ती, ये नियम है और अच्छा भी रहता है! 

अब कुल मिला के कार्यक्रम ये बना कि ३दिनों के बाद मुझे शर्मा जी के साथ वाराणसी प्रस्थान करना था, और अपनी क्रिया निब्टानी थी, और क्रिया के अंतिम दिन सेठ, उसकी बेटी और कोलाचार्य कि उपस्थिति आवश्यक थी, ये बात मैंने उनको बता दी थी और वो राजी भी हो गए थे! 

३दिनों के बाद मै और शर्मा जी, सुबह सुबह दिल्ली से वाराणसी कि ओर रवाना हो गए बाच में हम को बरेली से होकर गुजरना था, कोलाचार्य और सेठ हमको वहीं मिलने वाले थे, हम र बजे बरेली पहुंचे, कोलाचार्य से मिले, सेठ से भी मिले और खाना वगैरह खाया और थोडा आराम किया, करीब ६ बजे मै और शर्मा जी फिर से वाराणसी की ओर चल पड़े, हाँ जाने से पहले सेठ ने खर्वे आदि केलिए २५,००० रुपये दे दिए थे, वाराणसी में खर्चा हो ना था, क्रिया


   
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श्रीशः उपदंडक
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करने से पहले मुख्य-महंत को प्रतिदिन के हिसाब से रकम देनी पड़ती है और शमशान में दान आदि भी, ये सही रहता है, वो सारी 'आवश्यक-वस्तुएं मुहैय्या करा देते है, पहले से ही प्रबंध हो जाता है, और कोई समस्या भी नहीं होने देते, हम रुकते-रुकाते अगले दिन 4 बजे करीब वाराणसी पहुंच गए, वहाँ पर मेरे काफी परिचित अघोर-पंथी हैं, हम सीधे वहाँ ही गए! काफी थक गए थे, तो सोचा नहा –धो के थोडा आराम किया जाए! 

शाम करीब ६ बजे हम थोडा आराम कर के उठे, मेरे मित्र स्वरूपानंद भी आ चुके थे, कुशल-मंगल आदि हुआ और मैंने उनको आने का प्रयोजन बताया, उन्होंने अपने मातहत सारा प्रबंध कर देने का आश्वासन दिया, उनके साथ रात को मांस-मदिरा भोगहुआ या यूँ कहो कि क्रिया शुरू करने का उदघाटन हो गया था! क्रिया कहाँ करनी है, कब करनी है, ये सब उसी वक़्त निर्धारित हो गया था, ये स्थान वाराणसी से दूर गंगा नदी के किनारे स्थित है, आस-पास जंगल है और निर्जन स्थान है, 

शमशान का ये हिस्सा केवल क्रिया हेतु ही प्रयोग होता है, 'आवश्यक सामग्री' सब कुछ उपलब्ध हो जाती है, हाँ एक-आध दिन का समय ज़रूर लग सकता है, परन्तु प्रबंध हो जाता है, निर्धारित ये हुआ कि उस दिन से एक दिन बाद अर्थात परसों से क्रिया आरम्भ होगी, अब एक दिन पहले उस स्थान कि सफाई, पूजन, कीलन आवश्यक होता है, वही मैंने और मेरे वहीं के एक मित्र ने कर दिया, स्वरूपानंद को मैंने रकम दे ही दी थी, उन्होंने ही ये सारा प्रबंध करवाया था, अब हमे अगले दिन का इंतज़ार करना था, और फिर रात्रि समय का, ११ बजे से ही 'हुडदंग शुरू हो जाना था! 

और आखिर कार वो दिन भी आ गया, जब हम इस संसार से १३ दिनों के लिए कट जाने वाले थे!  अब अगले १३ दिनों तक यही हमारा संसार था, और यही हमारा बसेरा! पकाओ भी यहीं, खाओ भी यहीं और नहाओ भी यहीं !!! ये है तंत्रका अद्भुत संसार मित्रो! 

मित्रो, मै एक बात कहना चाहूँगा, मै आपको वो विधियां, वस्तुएं, साधना-समय की घटनाएं, समस्याएं इत्यादि नहीं बता सकता, ये तंत्र के नियमों का उल्लंघन है और मै ऐसा न करने के लिए बाध्य हँ, आशा है आप मेरी विवशता को भली-भांति समझ गए होंगे! 

हमारी क्रिया रोज़ मध्य-रात्रि शुरू होती और ४३० बजे सुबह समाप्त हो जाती थी, स्नाना दि से फारिग हो कर हम सुबह ६बजे सोते और १बजे तक उठ जाते थे, शर्मा जी को मैंने उस स्थान पर अभेद्य-मंत्र-कवच में बाँध रखा था, ये क्लिष्ट क्रिया पूर्ण तयानग्न अवस्था में होती है, शरीर पर मनुष्य-अस्थियाँस जाई जाती हैं, रक्तशरीरपरमाला जाताहै, आदि आदि, इसीलिए मैंनेशर्मा


   
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श्रीशः उपदंडक
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जी को ज़मीन में एक वृत्त अघोरी-त्रिशूल से काढ कर उस मे बिठा दिया करता था, यक्षिणी क्रिया वो पहली बार देख रहे 

थे, रक्त और मांस के जलने की गंध को उन्होंने बर्दाश्त करना ही था, तनिक भी विचलित होने पे अनर्थ होने का खतरा था, उनका भी और साथ में हमारा भी! 

इसी तरह क्रिया का आखिरी और सबसे क्लिष्टदिवस आने वाला था, कोलाचार्य,सेठ और उसकी बेटी उसी दिन शाम तक वाराणसी आ चुके थे, मैंने उन्हें ताकीद करदी थी, हमारा फ़ोन आते ही उसज गह पहुंचना था जहां हम लोग थे, 

रात्रि की 3 बजे का वक़्त था, अलख अपने पूर्ण यौवन पर थी, क्रिया के बीच अलख के बहुत ऊपर भयानल रौशनी चमकी, आँखें चुंधिया गयीं, घंटे बजने की आवाजें आने लगीं, असंख्य घंटे जैसे एक साथ बज रहे हों, मांस के लोथड़ों, हड्डियों और राख की बरसात होने लगी थी वहाँ,  मैंने क्रिया जारी रखीं, मंत्रोचारण और तेज़ हो गया था, विकाला-यक्षिणी का प्रकट होने 

का समय आ गया था! 

करीब आधे घंटे बाद विकाला की दोसहोदरी उतरीं, अत्यंत भयावह! रौद्र रूपिणी!  मंत्रोचारण और तेज़ होता गया! और फिर विकाला प्रकट हुई, प्रशोनात्तरों का आदान प्रदान हुआ!  और जो मै चाहता था उसमे सफल हुआ, भयानक अट्टहास के उपरान्त 

वो लोप होग यीं! वो सभी वस्तुएं भी जो अभी आकाश से बिखरी थीं. मैंने ऐसा महसूस किया जैसे मेरे शरीर का सारा रक्त किसी ने निकाल लिया हो, मै भाव-शून्य हो गया और बेहोश हो के जहाँ बैठा था, गिर पड़ा! 

और करीब आधे घंटे बाद मुझे होश आया, मुझ से सहसा सभी कुछ याद आग या, शर्मा जी वृत के अन्दर मूर्ति समान बैठे हुए थे, मुझे उनको सकुशल देख कर अत्यंत खुशी का एहसास हुआ! वो मेरे से कोई ५० मीटर दूर बैठे थे और अलख की रौशनी में ऐसे लग रहे थे की जैसे किसी को ज़मीन में आधा गाड़ दिया गया हो ! मै वहाँ से हटा, वृत्त को खंडित किया, और शर्मा जी को बाहर आने को कहा, वो खड़े हुए, मुझे छू कर देखा, मै हंसा और बोला, "क्या हुआ! मै सकुशल हूँ ! आप कैसे हैं ?" 

वो बोले; " ये सब –कुछ अलौकिक है , अद्वित्य, इस संसार में कितने गूढ़ रहस्य छिपे हुए हैं !"  

मैंने उनका हाथ थाम के कहा, " शर्मा जी, ये समस्त संसार रहस्यपूर्ण है!  रचियता ने हमे ६ इन्द्रियाँ प्रदान की हैं परन्तु एक इंद्री ऐसी भी है जो इन सभी इन्द्रियों से भी बड़ी है वो है आपका अपने रचियता में अटूटविश्वास!" 


   
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श्रीशः उपदंडक
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उन्होंने ये सुना और मुझे सीने से लगा लिया! अश्रु फूट पड़े, बोले "मै धन्य हो गया हूँ गुरुजी आपका सानिध्य पाकर!" मैंने 

उन्हें शांत कराया ! 

"शर्मा जी, आप कोलाचार्य को यहाँ अति शीघ्र बुलाइए, और साथ में सेठ और उसकी बेटी को भी, सूर्योदय समय में उस मे प्राण संचार करने हैं ये कह के मै अलख में और 'सामग्री'  डालने लगा, ताकि अलख पूर्ण रूप से प्रज्वलित रहे, 

ठीक ५३० पर वो लोग आ गये, शर्मा जी से मैंने पहले ही कहा था कि कोलाचार्य, सेठ को वहाँ रोक लेना और सेठ कि बीवी और उस बेटी को यहाँ ले आना, ऐसा ही हुआ, सेठ कि पत्नी और उसकी बेटी जो कि व्हील-चेयरपे थी, मेरी अलख के पास आ गये, उनकी पत्नी और बेटी मेरे वीभत्स रूप को देख कर डर से गए, मैंने कोई ध्यानन हीं दिया, मैंने सेठ कि बीवी से कहा, इसको नीचे उतारो और इस के सारे कपडे उतार दो, वैसे ही जैसे ये पैदा हुई थी, लड़की डर गयी, उसने अपनी आँखें बंदकर 

लीं, मैंने उससे कहा, "डरो मत, आँखें खोलो अपनी और अपनी नज़र इस अलख पर लगाए रहो" 

२-३मिनट में सेठ के बीवी ने अपनी लड़की को पूर्णतया नग्न करके मेरे सामने बिठा दिया, मैंने सेठ कि बीवी को दूर जाने 

को कहा, वो फ़ौरन चली गयी, अब मैंने उस लड़की पर क्रिया आरम्भ की, पहला उस पर राख बिखेरी, अलख की ठंडी राख, इसे भस्म-स्नान कहते हैं, फिर, रक्त के छींटे दिए, और रक्त का एक प्याला पीने को दिया, प्याला पीते ही वो बेहोश हो गयी, मैंने उस की माँ को बुलाया और बोला, "इस को इस के कपडे पहना दो, और हाँ घबराना नहीं, इसे गाडी में बिठाना और जहां ठहरे हो वहां ले जा के सुला देना, जब उठ जाए तो इस के कपडे सहित इस को स्नान करा देना, बाद में कपडे उतार देना और फिर इस की ये पट्टी भी जो जख्म पे लगी है, मै कल रात को इस को देखने आऊंगा" 

और ये कह के मै उठ खड़ा हुआ, और उस छोटे से छप्पर में चला गया, सारे तंत्र-आभूषण उतारे और अपने कपडे पहन लिए, जब तक मै छप्पर से निकल कर आया तब तक कोलाचार्य, सेठ और और उसकी बीवी और बेटी जाचुके थे....... 

इसके बाद मै और शर्मा जी वापिस स्वरूपानंद के आश्रम आ गए, और नहा-धो के सो गए, करीब ५ बजे शर्मा जी और मै, उस जगह जाने वाले थे जहां कोलाचार्य और से ठठहरे हुए थे,


   
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श्रीशः उपदंडक
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हम ७ बजे के आस-पास वहाँ पहुंचे, यह एक बढ़िया होटल था, कोलाचार्य को शर्मा जी ने पहले ही इत्तिला दे दी थी की हम ७ बजे तक उनके पास पहुँच जायेंगे, हमको लेने के लिए कोलाचार्य बाहर ही मिल गए, चेहरे पे प्रसन्नता साफ झलक रही थी, सेठ की आँखों में भी प्रसन्नता की झलक मिल रही थी, उन्होंने अभिवादन किया तो मैंने कोलाचार्य से पूछा, " अब लड़की कैसी है ?" 

"बिलकुल सेहतमंद और ठीक है, आप स्वयं देख लीजिये" कोलाचार्य बोले,

 

इतना कहते ही सेठ और कोलाचार्य पलते और एक कमरे की तरफ बढे और खुद अन्दर जाने से पहले मुझे और शर्माजी को अन्दर जाने के लिए आमंत्रित किया, मै और शर्मा जी कमरे में घुसे और वहां रखी कुर्सिओं  पर बैठ गए, हमारे पीछे कोलाचार्य 

और सेठ भी आ गए, कोलाचार्य बिस्तर पर आ बैठे और सेठ हमारे साथ वाली कुर्सी पर बैठ गया,  मैंने सेठ से पूछा, "क्या आपकी बेटी सो रही है या जागी हुई है? सेठ ने बताया," 

जी, जागी हुई है, आप की कृपा से आज ३ महीनों पे पहली बार अपने आप खड़ी हुई है, उसी व्हील-चेयर छूट गयी है!" उसने मेरे पाँव छू ने कीकोशिश को तो मैंने अपने पाँव पीछे खींच लिए, मैंने कहा, " आप ज़रा मुझे उसको दिखवा दीजिये" 

सेठ खड़ा हुआ और उस कमरे के बाहर खड़े हो कर आवाज़ दी, उसकी बीवी बाहर आई तो उसने अपनी बीवी को ये सब बताया, बताने के बाद सेठ वापिस हमारे कमरे में आ के बैठ गया, कोलाचार्य ने चाय का आर्डर दे दिया था तो, चाय आ गयी 

और हम चाय की चुस्कियां लेने लगे, कोई ५ मिनट बाद वो लड़की अपनी माँ के साथ हमारे कमरे में दाखिल हुई, आप यकीन मानिए, उसको देख के कीनहीं कह सकता था की ये लड़की कल तक व्हील-चेयर पर बैठी हुई थी! मुझे उसको सकुशल देखकर अत्यंत प्रसन्नता हुई! मैंने उस की माँ से कहा, "इस की पट्टी उतार दी थीन?" 

"जीहाँ, जब मैंने इस को गीले पानी से नहलाया तो पट्टी खुद-बा-खुद खुल गयी और सरक कर नीचे गिर गयी, मैंने जख्म 

देखा तो जख्म एकदम भर चुका था, बस वहाँ लालीपन के २-४ बड़े निशाँ थे" 


   
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श्रीशः उपदंडक
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"वो भी वक़्त के साथ ठीक हो जायेंगे" मैंने चाय का कप नीचे मेज़ पर रखते हुए कहा, और लड़की और उसकी माँ को वापिस उनके कमरे में जाने को कह दिया! वो पलटे और वो लड़की पहली बार बोली, मैंने पहली बार उसकी आवाज़ सुनी, बोली "नमस्ते" 

मैंने भी गर्दन हिला के और हाथ जोड़के नमस्ते स्वीकार की! 

अब कोलाचार्य उठे और मेरा हाथ पकड़ के अपने कमरे की तरफ लेजाने लगे, मैंने उनके कमरे में आया तो शर्मा जी भी आगए, 

कोलाचार्य बोले, "सेठ बहुत प्रसन्न है, और मै भी" 

"और मै भी कोलाचार्य जी! सबकाम सही तरह से निबट गया, लड़की को जीवन दान मिला" 

"हाँ, ये बहुत उत्तम हुआ, चलोजी अब घर बस जाएगा इस लड़की का!" कोलाचार्य अपना बैग खोलते हुए बोले, उन्होंने बैग खोला और एक शराब की बोतल निकाली और रूम-सर्विस की घंटी बजा दी, थोड़ी देर में एक लड़का आया और आर्डर ले के चला गया, हम खा-पी के रात को १० बजे फारिग हुए तो मै शर्मा जी को लेकर स्वरूपानंद के अस्श्रम में आ गया जहां हम ठहरे हुए थे, अब हमको कल सुबह दिल्ली वापिस जाने की तैयार करनी थी! 

और हम एक दिन बाद दिल्ली वापिस आ गए, सेठ वहां से हापुड़ चला गया और कोलाचार्य वापिस अपने बरेली! मेरी एक महीने तक कोलाचार्य से बात नहीं हुई, हाँ एक दिन उनके एक अभिन्न मित्र का फ़ोन आया की कोलाचार्य की मृत्यु हृदया घात से हो गयी है और इस शुक्रवार की तेरहवीं है, अब हमे जाना तो था ही, और हम गए भी, तेरहवीं में शामिल भी हुए, लेकिन वो सेठ मुझे वहाँ नज़र नहीं आया. 

                                               साधुवाद!

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