"फिर क्या हुआ विक्रम?" पूछा मैंने,
"फिर?'' बोला वो,
"हां?" कहा मैंने,
"हम अक्सर यहां आते थे, लेकिन इस जगह हम, उस दिने पहली बार आये!" बोला वो,
"तब?" पूछा मैंने,
"मेरी मृदुला, बहुत सुंदर है, बहुत सुंदर!" बोला वो,
"हां! मृदुला सच में ही बहुत सुंदर है!" कहा मैंने,
"हम इधर चले आये!" बोला वो,
"कोई नहीं था!" कहा मैंने,
"नहीं, कोई नहीं!" बोला वो,
"फिर?" पूछा मैंने,
"मैंने इसके संग, सहवास की इच्छा जताई!" बोला वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"मान गयी, मानती कैसे ना? मुझे बहुत प्यार करती है!" बोला वो,
मैं मुस्कुरा कर रह गया! हालांकि किसी की निजता में कभी दखल मैं नहीं देता और देना भी नहीं चाहिए, परन्तु मेरे लिए ये जानना आवश्यक ही था!
"हम बह चले!" बोला वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"अचानक ही, एक ज़ोर की आवाज़ हुई!" कहा उसने,
"कैसी आवाज़?" पूछा मैंने,
"जैसे कोई दीवार गिरी हो!" बोला वो,
"तब?" पूछा मैंने,
"मैं हिल नहीं सका! मेरे नीचे, मृदुला थी, मैं इतना सिमट गया था उस से की उसकी सांसें जैसे रुक सी रही थीं....!" बोला वो,
और उसने मृदुला को छाती से लगा लिया!
"फिर?'' पूछा मैंने,
"मैंने पूरी कोशिश की, नहीं हिल पाया, लगा कि जैसे मेरे पांव हैं ही नहीं, मुंह में मिट्टी घुस गयी, अंधेरा छा गया था....." बोला वो,
"आवाज़ नहीं दी?'' पूछा मैंने,
"किसको देता? लेकिन कोशिश की, आवाज़ नहीं निकली, मेरे सर से खून बह रहा था, ये खून, मृदुला के चेहरे पर चिपके जा रहा था, मैं नहीं हिल सका.....कुछ न कर सका....और " बोलते हुए रुका वो,
"क्या और?" पूछा मैंने,
"मेरी आंख खुली, मुझे हर तरफ, हरा सा रंग दिखाई दिया, मैं उठा, अब कोई बोझ नहीं था, मेरे नीचे अभी भी मृदुला थी, मैंने बहुत कोशिश की उसे जगाने की, वो नहीं जागी, बेहोश थी वो, पता नहीं, मैं कभी बेहोश नहीं हुआ, इसीलिए नहीं पता कि बेहोशी क्या होती है, मैं उठा, और मदद के लिए बाहर भाग लिया, बाहर आया तो मेरी गाड़ी वहां नहीं थी..." बोला वो,
"फिर?'' पूछा मैंने,
"मैं पैदल ही दौड़ा और मुझे एक तरफ, मृदुला दिखाई दी! मैं खुश हो गया! वो ठीक थी, लेकिन? हम तो वहां लेटे थे?" बोला वो,
"हां, वहीँ लेटे थे!" कहा मैंने,
"मृदुला मुझे वहां से ले चली! अचानक से, मुझे किसी ने उठा लिया, मैं हवा में दूर, बहुत दूर उड़ने लगा, हवा से हल्का हो, मेरी मृदुला मुझे नीचे से देख, चिल्लाई मैंने गुहार लगाई और मैं उतर आया अपनी मृदुला के पास! नहीं! अब कहीं नहीं जाऊंगा उसे छोड़ कर! कहीं भी नहीं!" बोला वो,
"यहां से निकलने ली कोशिश नहीं की?" पूछा मैंने,
"नहीं निकल पाया!" बोला वो,
"क्यों?" पूछा मैंने,
"मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था, यहां वहां और भी लोग आ गए थे, मैंने सभी से यही कहा कि ये मेरी पत्नी है, इस से दूर रहें!" बोला वो,
"वे मान गए?" कहा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"गाड़ी?" कहा मैंने,
"मृदुला ने बताई!" कहा उसने,
"कैसे?" पूछा मैंने,
"उसने कहा कि उसने आवाज़ सुनी!" बोला वो,
"तब तुम वहां चले गए!" कहा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"इस बीच, तुम दोनों यहां आते रहे! आते रहे और शायद, यहां आये हुए, स्त्री-पुरुष को देख, तुम दोनों भी कामरत हो जाते थे, यही न?'' कहा मैंने,
"हां!" बोला वो,
अब मैं सब समझ गया! विक्रम और मृदुला भी कामररत हो जाते थे, वे जीते थे अपने अंतरंग पलों को! जिसके फलस्वरूप, मानव-देह उनको ग्रहण नहीं कर पाती थी, और उनको भी चरम-सुख की प्राप्ति होती थी!
ये दोनों, अनभिज्ञ थे, रहे, न पता चलता था इन्हें, ये सभी से दूर रहते थे, कभी समक्ष नहीं आते थे, वे उस कॉटेज के नीचे दफन हैं, इसका भी मलाल नहीं था उन्हें, ये दोनों तो बस प्रेम के कैदी थी जो इस प्रेतकाल में निरंतर विचरण कर रहे थे!
"विक्रम?' कहा मैंने,
"हां?" बोला वो,
"चलो अब!" कहा मैंने,
"कहां? बोला वो,
"यहां से दूर!" कहा मैंने,
"लेकिन...हम?" बोला वो,
"बताता हूं विक्रम!" कहा मैंने,
अब मृदुला ने भी मुझे देखा! मृदुला, बहुत सुंदर लड़की थी, अपनी आयु में, जीते जी, एक सुंदर सी लड़की!
"विक्रम?" कहा मैंने,
"हां?" बोला वो,
"मृदुला?" कहा मैंने,
"हां?" बोली अब वो,
"मैं चाहता हूं, अब यहां बहुत भटकाव हुआ, अब तुम दोनों आगे बढ़ो और फिर, एक हो जाओ अगले पड़ाव में!" कहा मैंने,
"क्या?" बोला वो,
"समझाता हूं!" कहा मैंने,
"हां, नहीं समझा?" बोला वो,
"ये तुम तुम नहीं, ये मृदुला अब मृदुला नहीं, कोई अंश भी नहीं, वो संसार और वर्तमान का संसार, बदल गया है! तुम दोनों, उसी काल-अंश में फंसे हो, जहां न दिन है और न रात, न जीवन है और न मृत्यु!" कहा मैंने,
"क्या कह रहे हैं आप?'' बोला वो,
"सुनते जाओ!" कहा मैंने,
"यहां रहकर, तुम दोनों को कुछ मिलने वाला नहीं, तुम जहां हो, वहीँ रहोगे! सब मेरे जैसे न होंगे, हम जैसे भी न होंगे, वे अलग अलग कर देंगे तुम दोनों को, दास बना लिए जाओगे, न तुम इसे कभी देखोगे और न ये! तुम ज़िंदा हो कर भी ज़िंदा नहीं और मर कर भी मरे नहीं! ये विक्रम, उसी देह की आत्मा है, और ये मृदुला भी अपनी देह की! यथार्थ को समझो!" कहा मैंने,
वे दोनों भय से मुझे देखने लगे!
"नहीं! नहीं जा सकते कहीं यहां से!" कहा मैंने,
"क्या मैं और मृदुला एक न होंगे? कोई घर न होगा?'' बोला वो,
"सब होगा!" कहा मैंने,
"कैसे?" बोला वो,
"मैं तुम दोनों को, इस जीवन के पड़ाव से, इस संसार के इस चक्र से आगे बढ़ा रहा हूं! देखो, मुझे इस से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ेगा कि तुम्हें यहां छोड़ा तो तुम्हारा क्या हुआ? मेरा तुमसे कोई लेना-देना नहीं, न प्रेम और न कुछ अन्य अभिव्यक्ति! बस मेरा कर्तव्य! और कुछ नहीं! मेरी विद्या का मोल! बस यही लालच है!" कहा मैंने,
"क्या करना होगा?'' बोला वो,
"जैसा मैं कहूं!" कहा मैंने,
"अलग तो नहीं करोगे?'' बोला वो,
"सोच भी नहीं सकता!" कहा मैंने,
"ये झूठ तो नहीं?" बोला वो,
"कदापि नहीं!" कहा मैंने,
"कैसे विश्वास करूं?" बोला वो,
"अपनी इच्छा बताओ?" कहा मैंने,
"घर!" बोला वो,
"वो है या नहीं, नहीं पता!" कहा मैंने,
"नहीं है?'' बोला वो,
"हां, होगा तो कोई जानेगा नहीं, पहचानेगा भी नहीं, अजनबी ही रहोगे! भय खाएंगे तुमसे, पकड़वा देंगे!" कहा मैंने,
"क्या यही यथार्थ है?" बोला वो,
"देखना है यथार्थ?" कहा मैंने,
"क्यों नहीं!" बोला वो,
"नेत्रों से देखों, नैसर्गिकता को समक्ष लाओ और देखो यथार्थ!" कहा मैंने,
और तब मैंने एक मंत्र पढ़ा, छिपा दिया तीन चुटकी बजाते ही मृदुला को! विक्रम? न हिल ही सका, न डोल ही सका! पत्थर सा हो गया!
"नहीं! नहीं! मृदुला कहां है? मेरी मृदुला? झूठ बोला तुमने?" चीख कर बोला वो,
"यही यथार्थ है!" कहा मैंने,
और फिर से मंत्र खींचा! मृदुला प्रकट हुई! लपक लिया वो उसकी तरफ! चिपक गए एक दूसरे से!
"हमें मंज़ूर है! हमें मंज़ूर है! हमें अलग न करो! हमें अलग न करो....हाथ जोड़ता हूं....हाथ..." बोला वो,
"नहीं! अलग नहीं करूंगा! ये वचन देता हूं!" कहा मैंने,
"मंज़ूर है!" बोला वो,
"मृदुला?" कहा मैंने,
उसने हां में सर हिलाया!
और अब देर उचित न थी, मैंने अन्जकी-विद्या का सहारा लिया और उन्हें उठा लिया वे, उसी क्षण मेरी मांदलिया में आ गए!
अब रहे वे चारों प्रेत, उन्हें खींचा, दो से गुफ़्तार भी हुई, बलात उन्हें भी घेर लिया! घेरना पड़ा था, उन्हें मालूम ही न था कुछ भी!
मित्रगण!
सबकुछ सही हो गया! उसके बाद सब ठीक ही रहा, मुक्ति-रात्रि अभी थोड़ा दूर थी, मैं वापिस चला आया, बात रही उनके अवशेषों की, तो राजन ने अवशेष बिन किसी को बताये, उनकी अंत्येष्टि करवा दी! भोज, दान आदि सब किया!
और फिर आयी मुक्ति-रात्रि! पहले उन चारों को आज़ाद किया और फिर, उन दोनों को मांदलिया से मुक्त किया, नयी जगह, नया शहर, नदी देख, विस्मित हुए, परन्तु, बोले कुछ नहीं!
मैंने मुस्कुराते हुए, मुक्ति-क्रिया सम्पन्न की और उन्हें, इस लोक से विदा कर दिया! ईश्वर उनके संग न्याय करे, वे एक हो जाएं, यही कामना की, और भोग अर्पित किया!
अब वो गाड़ी, उसका क्या हुआ? तो गाड़ी पानी में डुबो दी गयी, किसने डुबोई? शोभित ने! सारा राज़ वो अपने सीने में दबाये रहा! मरते दम तक भी एक यही राज़ उसके साथ ही चला गया!
मैं अभी तक वहां दोबारा नहीं जा पाया, राजन को पुत्री प्राप्त हुई है, लीना अब बिलकुल थी हो गयी है, हां, थोड़ा इलाज आवश्यक था, कराया गया, मैंने भी मदद की!
यही एक अनोखी घटना थी, एक राज़, राज़ उस कॉटेज नंबर नौ का!
साधुवाद!
