सारा खुमार और नशा काफ़ूर हो गया था! सात का समय था! जब हम उठे तब कॉफ़ी मंगवाई गयी और हमने कॉफ़ी पी! रात के समय यहां का माहौल बड़ा ही खुशगवार सा हो जाता था! मंद मंद सी लाइट्स, नीले रंग की आभा बिखेरते हुए और चमकदार से पत्थर जो उन रौशनी को पकड़ पकड़ खेलते रहते!
करीब साढ़े आठ बजे हमारी महफ़िल सजने को थी! तैय्यारियां हो गयी थीं! देखा जाए तो अभी, फिलहाल तक, मेरे सामना ऐसे किसी वाक़ये से नहीं हुआ था, तो मैं अभी तक, मानूं या न मानूं वाली स्थिति में ही था!
तभी कमरे में, नीरज चला आया!
"ठीक दस बजे!" बोला वो,
"दस बजे?" कहा मैंने,
"जल्दी है क्या?" बोला वो,
"नहीं, लेकिन मेरे हिसाब से जल्दी है!" कहा मैंने,
"आप बताएं फिर?" बोला वो,
"चलो, आने दो!" कहा मैंने,
"कौन है?" पूछा शहरयार जी ने,
"जुगाड़!" बोला वो,
"देख लेते हैं!" कहा मैंने,
तभी एक बड़ी सी तश्तरी में ले आया वो लड़का कुछ! अब जैसे ही ख़ुश्बू आयी कि मैं और शहरयार समझ गए कि ये है क्या!
"फ्राई करवा ही दी!" बोले वो,
"यहां तो छोटी थी!" बोला राजन,
"फिर?" पूछा उन्होंने,
"कर लिया प्रबंध!" कहा उसने,
अब मूली के लच्छे हों, प्याज बारीक लच्छों में कटे हों, निम्बू रखा हो, हरी चटनी हो, और ये ताज़ा मछली फ्राई हो, ऊपर से भुने अजवाइन आदि का मसाला हो तो जी, जिसने खाया होगा, वो ही स्वाद जाने इसका!
"मजा आ गया!" बोले शहरयार!
"क़सम से!" बोला नीरज,
"सच में ही!" कहा मैंने,
"कौन सी मच्छी है?" बोला नीरज,
"ये समुद्री सुरमयी है!" कहा मैंने,
"वाह!" बोला वो,
"मैंने तो ताज़ा ही बोली थी!" बोला राजन,
"बढ़िया है!" बोले शहरयार!
तो साहब, खूब ही खाया हमने और छक की दारु उड़ाई! अब बस एय्याशी का समय था, इस रात मुझे ऐय्याश बन जाना था!
हाथ-मुंह धो लिए, कुल्ला-दातुन, सब कर लिया!
"चलो अब!" बोला मैं,
"चलिए!" बोले वो,
"आज कुछ हाथ तो लगे?" बोला मैं,
"हां!" बोला राजन,
तो हम पहुंच गए कॉटेज!
"आप यहीं रहो आज!" कहा मैंने,
"जी ठीक!" बोले वो,
"मैं संभालता हूं अब!" बोला मैं,
"ज़रूर!" कहा उन्होंने,
और मैं ऊपर की तरफ चढ़ आया, कॉटेज में अंदर घुसा, उसके कमरे में, और उस बड़े से बिस्तर पर आ लेटा!
रात करीब सवा ग्यारह बजे, दरवाज़े पर दस्तक हुई, मैं उठा और दरवाज़ा खोला, सामने एक महिला थी, बनी-ठनी सी! उम्र करीब, पच्चीस रही होगी उसकी, लॉन्ग-स्कर्ट पहना था उसने, देखने में, ठीक-ठाक ही थी!
''अंदर आओ?" बोला मैं,
"श्योर!" बोली वो,
वो अंदर आयी और मैंने दरवाज़ा बंद कर दिया! उसने मुझे देखा और मैंने उसे, आराम से बैठने को कह दिया उसको!
"पानी?" बोली वो,
"फ्रिज में!" कहा मैंने,
वो उठी और फ्रिज खोला!
"ओ! चिल्ड वन्स! मे आई हैव वन?" पूछा उसने,
"ले लो!" कहा मैंने,
"डू'यू माइंड?" बोली वो,
'नॉट एट आल!" कहा मैंने,
"थैंक्स!" बोली वो,
"इट'ज़ फाइन!" कहा मैंने,
उसने ढक्कन हटाया और बीयर की बोतल को मुंह से लगा लिया! वो आदी थी, ये तो पता चल ही गया था, लेकिन इस से मुझे कुछ लेना या देना नहीं था!
उसने बीयर निबटायी और बैठ गयी, पास ही, मेरा, सच पूछो तो उसमे कोई ध्यान ही नहीं था, मैं यही सोच रहा था कि आज की रात कुछ तो ऐसा हो, जिसका कुछ सूत्र मेरे हाथ लगे! जगह पुरानी थी, सही था, यहां अवश्य ही कुछ रहा होगा, पक्का था, लेकिन इस कहानी के जो नायक एवं नायिका थे, वे कहां हैं?
"क्या मैं तैयार हो जाऊं?' बोली वो,
मैंने सर हिला कर हां कह दिया! पता नहीं किसलिए तैय्यार! मेरे जी में कुछ अलक़त सी बढ़ी, तो मैंने भी उठ कर, फ्रिज से एक ठंडी बीयर निकाल ली, उसका ढक्क्न खोला, प्यारी सी आवाज़ हुई और मैं वहीं उसी सोफे पर बैठ गया! घड़ी पर नज़र दौड़ाई, तो एक बजने में अभी कुछ समय बाकी था!
तभी बाथरूम से वो निकल आयी, इस बार उसने बदन पर बस दो ही वस्त्र पहने थे, अब जब मैंने उसकी देह देखी तो बहुत कुछ समझ आ गया!
"क्या नाम है?'' पूछा मैंने,
"मोना" बोली वो,
"कहां रहती हो?" पूछा मैंने,
"सिटी" बोली वो,
"यहां?" बोला मैं,
"अक्सर" बोली वो,
"शादी कब हुई?" पूछा मैंने,
वो हैरत में पड़ते पड़ते बची, और अपनी झेंप पर काबू किया!
"दो साल" बोली वो,
"एक बच्चा भी है!" कहा मैंने,
"आप, जानते हैं मेरे बारे में?" बोली वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
"तो ये सब कैसे पता?" बोली वो,
"आपकी देह ने बताया!" कहा मैंने,
"क्या?" बोली वो,
"कुछ नहीं!" कहा मैंने,
"आप कहां से हैं?" पूछा उसने,
"दिल्ली से!" कहा मैंने,
"यहां?" बोली वो,
"घूमने!" कहा मैंने,
"अकेले?'' बोली वो,
"हां!" कहा मैंने,
"आपके साथ मजा आएगा!" बोली वो,
"मजा तो आपको आज तक नहीं आया!" कहा मैंने,
"क्या?" बोली वो,
"झूठ बोला क्या मैं?" पूछा मैंने,
"क्या?" बोली वो,
"मजा??" कहा मैंने,
"आपको कैसे पता?" बोली वो,
"कोई गिफ्ट का ब्रेसलेट ऐसी जगह नहीं पहनता!" कहा मैंने,
उसके होश उड़े!
"आप कोई डॉक्टर आदि हो क्या?" बोली वो,
"नहीं तो!" कहा मैंने,
"ये गिफ्ट का है, आपको कैसे पता?" बोली वो,
"अब ये न पूछो!" कहा मैंने,
"बताओ?" बोली वो,
"आपने कुछ खरीदा कभी?" पूछा मैंने,
"क्या मतलब?" बोली वो,
"छोड़ो!" कहा मैंने,
"छोड़ने नहीं आयी!" बोली वो,
क्या बेवक़ूफ़ औरत थी वो! बस नाम और देह से ही औरत कही जा सकती थी, नहीं तो वो, छिछोरापन? पास ही न बैठे कोई उसके!
"पति क्या करते हैं?" पूछा मैंने,
"बाहर हैं" बोली वो,
"कहां?" पूछा मैंने,
"दुबई" बोली वो,
"उन्हें मालूम है?" पूछा मैंने,
"नहीं!" कहा उसने,
"लेट जाओ!" कहा मैंने,
''आओ?" बोली वो,
''आता हूं!" कहा मैंने,
वो जा लेटी और जैसे इंतज़ार करने लगी! उसके साथ कुछ करने की सोचते ही जैसे उबकाई सी आये!
"आओ?" बोली वो,
"रुको!" कहा मैंने,
मैं उठ कर ज़रा खिड़की की तरफ चला, पर्दा हटाया और नीचे देखा, यहां अंधेरा इतना घना नहीं था, दरअसल, कुछ लैम्पोस्ट की रौशनी वहां तक पहुंच पा रही थी, मैंने खिड़की के शीशे में से बाहर झांकना शुरू किया, सामने अंधेरे के कोनों में नज़रें गड़ा दीं, लेकिन कोई हरक़त नहीं दिखाई दी!
"आपका मन नहीं?" बोली वो,
मेरे पास तक चली आयी थी, एक चादर सी ओढ़े हुए,
"नहीं!" कहा मैंने,
"कोई चिंता है क्या?" पूछा उसने,
"नहीं!" कहा मैंने,
"तब?" बोली वो,
"बैठ जाओ!" कहा मैंने,
"नींद आ जायेगी!" बोली वो,
"सो जाओ!" कहा मैंने,
"कमाल करते हैं आप?" बोली वो,
"कमाल?" कहा मैंने,
"हां!" बोली वो,
"कैसे?" पूछा मैंने,
"सामने एक ख़ूबसूरत औरत खड़ी है, जिसके बदन पर लिबास भी नहीं, वो कुछ मांगती है आपसे!" बोली वो,
मुझे अंदर ही अंदर ये सुन, बड़े ही ज़ोरों की हंसी आयी! ठहाके मार रहा था मैं उसकी ये सारी फ़ालतू सी बात सुन!
"मोना?" कहा मैंने,
"हां?" बोली वो,
"नींद आयी है?" पूछा मैंने,
"हां!" बोली वो,
"सो जाओ!" बोला मैं,
"सो जाऊं?" पूछा उसने,
"हां!" कहा मैंने,
"जगाओगे फिर!" बोली वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
"नहीं जगाओगे?" बोली वो,
और मेरा हाथ पकड़ लिया, पकड़ कर अपने गले पर रखा और रगड़ते हुए नीचे तक ले गयी! मैंने हाथ हटा लाया अपना!
और तभी! तभी मुझे लगा कि शायद जैसे नीचे से कि दौड़ कर गया है! बहुत ही तेज! लेकिन मैं देख नहीं पाया था, बस क़दमों की थाप ही सुनाई दी थी! मैंने मोना को एक तरफ किया और पहने जूते अपने! वो बेचारी कुछ समझ ही नहीं पायी थी कि अचानक मुझे क्या हो गया! मैं बाहर निकलने को हुआ कि...
"रुक जाऊं?" बोली वो,
मैंने कोई जवाब नहीं दिया!
सीधा नीचे आया और उन दोनों के दरवाज़े पर दस्तक दे दी!
"बाहर आओ? जल्दी? मैं बाहर ही हूं!" कहा मैंने,
और भाग लिया बाहर की तरफ! जब तक मैं पहुंचता, वे दोनों, और गार्ड दीपक, तीनों ही दौड़े हुए आ गए! मैंने उस कमरे को देखा जहां मैं था अभी, मोना, खिड़की के एक कोने से, एक आंख से नीचे देख रही थी!
"कुछ हुआ?" पूछा उन्होंने,
"हां!" कहा मैंने,
"क्या?" बोले वो,
अब मैंने उन्हें बता दी सब की सब!
"अब?" बोले वो,
"यहीं बने रहो!" कहा मैंने,
"लौटेगा कोई?" बोले वो,
"उम्मीद है!" कहा मैंने,
"आसपास देखें?" बोला नीरज,
"नहीं, यहीं रहो!" कहा मैंने,
"हां!" बोले शहरयार!
"कोई और भी था?" पूछा उन्होंने,
"नहीं!" कहा मैंने,
"साफ़ देखा?" बोला वो,
"नहीं, सिर्फ आवाज़!" कहा मैंने,
"कोई और तो नहीं?" बोला नीरज,
"अभी कुछ नहीं पता!" कहा मैंने,
हम करीब आधा घंटा वहीं बने रहे, लेकिन कुछ न हुआ, कोई नहीं आया, कोई आहट नहीं हुई!
"आदेश?" बोले शहरयार!
"रुको!" कहा मैंने,
"जी!" बोले वो,
अब मेरा दिमाग, ज़रा शातिर सा होने लगा था, आवाज़ तो मैंने सुनी ही थी, अब चाहे वो हो कोई भी, इसका मतलब साफ़ था, कि यहां कोई न कोई है तो ज़रूर ही! अब क्या किया जाए? क्या किया जाए? चलो, अब जाना जाए!
"शहरयार जी?" कहा मैंने,
"हुकुम!" बोले वो,
"मोना के पास जाइये!" कहा मैंने,
"मोना?" बोले वो,
"वो जो, ऊपर है!" बोला नीरज,
''अच्छा, जी?" बोले वो,
"उसे मेरा शुक्रिया कहिये, कुछ दीजिये ज़रूर मेरी तरफ से, वो कुछ भी सही, उसने मेरी मदद तो की है!" कहा मैंने,
''अभी!" बोले वो,
और वे दौड़ के चले ऊपर, मैं नीचे ही खड़ा रहा, कुछ देर बाद मोना नीचे आयी, मुस्कुरायी, उसने ज़िंदगी में हम जैसे लोग न देखे होंगे, किसलिए आयी और किसलिए भेज दिया जा रहा है उसे!
"मोना?" कहा मैंने,
"जी?" बोली वो,
"शुक्रिया!" कहा मैंने,
"किसलिए?" बोली वो,
"आप नहीं जानतीं!" कहा मैंने,
"मुझे नहीं पता!" बोली वो,
"जाओ, आराम से जाओ अब!" कहा मैंने,
मोना, अपनी देह समेटे हुए, वहां से चलती चली गयी, मैं नज़र रखे रहा उस पर, उसने दफ्तर की तरफ ही जाना था तो वहीँ चली गयी होगी, कुछ देर आराम करती और फिर वो जाने! उसका काम खतम, मेरे ज़हन से उसका नाम ख़तम!
"अब बताएं?" बोले वो,
"शहरयार जी?" कहा मैंने,
"जी?" बोले वो,
"पीछे खड़े हो जाइये!" कहा मैंने,
वो इशारा समझ गए मेरा, नीरज का हाथ पकड़ा और पीछे खड़े हो गए! और तब मैंने कलुष का संधान किया! कलुष जागृत होने लगा, गला, कड़वा होने लगा, दोनों कनपटियां धधक उठीं और नेत्र खोल दिए, सब सामान्य हो गया और कलुष ने खोल दिया, छिपा हुआ संसार!
जब भी कलुष सिद्ध किया जाता है, तब उसके साथ कुछ छोटे छोटे प्रयोग किया जाते हैं, कलुष और संसार में, ज़रा सा ही अंतर होता है!
मेरे सामने सब कुछ सामान्य सा ही था, कुछ भी अजीब सा नहीं, ज़मीन भी ठीक वैसी ही थी, आसपास भी सब सही था! तभी मेरी निगाह एक जगह रुकी! मैंने देखा कुछ, मोना तो उधर से जा चुकी थी, तो वो कौन था?
कोई खड़ा हुआ था, एक पेड़ के पीछे! थोड़ा दूर, लगता था, कि जिअसे घुटनों पर झुक, देख रहा हो हमारी तरफ!
"आओ!" कहा मैंने,
"जी!" बोले वो,
और हम आगे की तरफ चले!
"सीधे?" बोला नीरज,
''शह्ह्ह्ह!" कहा मैंने,
अब शहरयार जी ने उसे समझा दिया, अपने ही तरीके से!
"आगे!" कहा मैंने,
"जी!" बोले वो,
मैं आगे चलता चला गया और हाथ से उन्हें पीछे ही रुके रहने का इशारा किया, खुद आगे बढ़ा, उस पेड़ तक आया, उस पेड़ तक आने पर मैंने पाया कि वहां कोई नहीं था, मैंने आसपास देखा, कोई नहीं, वो कहां गया?
"सामने आओ?" कहा मैंने,
कोई न आया!
"आओ?" बोला मैं,
कुछ देर वैसे ही रहा मैं, खड़े हुए,
"मैं नुक़सान नहीं पहुंचाऊंगा! यक़ीन करो!" कहा मैंने,
कोई भी नहीं!
"आओ सामने?" कहा मैंने,
एक बड़ा सा पत्ता टूट कर सामने आ गिरा मेरे! मैं आगे बढ़ा! और उस पेड़ के पत्ते हटाए, सामने देखा, तब भी कोई नहीं!
"आ जाओ?" कहा मैंने,
मेरे पीछे से दौड़ कर गया कोई! मैंने पलट कर पीछे देखा तभी! कोई नहीं था वहां! ये कौन था जो न तो सामने ही आ रहा था, न ही वहां से जा रहा था?
"क्या चाहते हो?" पूछा मैंने,
एक पत्थर उछला और मेरे पास आ गिरा!
"बताओ मुझे?'' कहा मैंने,
कोई नहीं आया सामने!
"सुनो! मुझे मज़बूर मत करो, नहीं तो तुम जानते नहीं कि क्या होगा, सामने आओ, कष्ट नहीं पहुंचाऊंगा, मुझे बताओ, मैं यक़ीन करूंगा!" कहा मैंने,
"नहीं!" आयी एक मर्दाना सा आवाज़,
"यक़ीन करो!" कहा मैंने,
"नहीं!" आयी फिर से आवाज़,
ये आवाज़ मुझे किसी छोटे से बालक के जैसी लगी इस बार! जैसे कोई सात या आठ साल का हो, अक्सर ऐसे तो प्रेत नहीं बनते, बनें भी तो उन्हें सरंक्षण की आवश्यकता पड़ती है, तभी वे ठहर सकते हैं!
"कौन हो तुम?" पूछा मैंने,
"क्यों?" बोला कोई,
"क्यों हो यहां?" पूछा मैंने,
"क्यों?" बोला वो,
"नहीं बताओगे?" कहा मैंने,
"क्या करोगे?" आयी आवाज़,
"जानते नहीं?" पूछा मैंने,
"कयों आऊं?" बोला वो,
"मुझे बताओ कि कौन हो?" पूछा मैंने,
"यहीं रहता हूं!" बोला वो,
"कब से?'' पूछा मैंने,
"जनम से!" बोला वो,
"तब तो सामने आओ?" बोला मैं,
"क्यों?" बोला वो,
"सुनो? मज़बूर मत करो!" कहा मैंने,
"क्या करोगे?" बोला वो,
"मैं नहीं चाहता कि तुम्हें कोई दर्द पहुंचे!" कहा मैंने,
"दर्द?" बोला वो,
"हां, दर्द!" कहा मैंने,
"क्या होता है?' बोला वो,
मैंने झट से सवाल बदला! पढ़ने लगा था उसे मैं!
"कष्ट!" कहा मैंने,
"कैसा कष्ट?'' बोला वो,
"तुम सामने आओगे या नहीं?" बोला मैं,
"धमकाओ मत?" बोला वो,
"ऐसे नहीं बाज आओगे!" कहा मैंने,
और तब, मैंने अपना तंत्राभूषण, छुआ, और एक मंत्र पढ़ा, सामने थूक दिया! धम्म! धम्म से जैसे कोई पेड़ से गिरा, चीख निकल गयी उसकी! ये चीख मैं ही सुन सकता था, चूंकि ये कलुष में बंदा था, सबकुछ!
जहां से गिरने ली आवाज़ आयी थी, मैं दौड़ कर गया और ठीक सामने देखा, एक नाटा सा, गोरा सा, लम्बे लम्बे बालों वाला, भारी भरकम सी देह वाला एक किशोर था वो! मुझे आँखें फाड़ कर देख रहा था! लेकिन हिल नहीं पा रहा था!
"क्यों?" बोला मैं,
"जाने दो!" बोला वो,
"जवाब दो?" बोला मैं,
"क्या?'' पूछा उसने,
"कौन है तू?" पूछा मैंने,
''रोशन" बोला वो,
"और कौन है तेरे संग?" पूछा मैंने,
"अकेला हूं" बोला वो,
"वहां क्यों आया था?" पूछा मैंने,
"रोज आता हूं" बोला वो,
"कहां रहता है?" पूछा मैंने,
"धोजी में!" बोला वो.,
"और कौन है उधर?'' पूछा मैंने,
"कोई नहीं" बोला वो,
"यहां?" पूछा मैंने,
"नहीं जानता!" बोला वो,
"कहां जाएगा?" पूछा मैंने,
"वापिस" बोला वो,
"फिर आएगा?" पूछा मैंने,
"नहीं" बोला वो,
"सच बोलता है?'' बोला मैं,
"हां!" बोला वो,
"उठ जा!" बोला मैं, और अपने तंत्राभूषण पर हाथ रखा!
"जा!" कहा मैंने,
वो उठ गया था!
"तेरा भला हो!" बोला वो,
"जा, अब!" कहा मैंने,
और तभी, झम्म से लोप हो गया वो!
कोई जानकारी हाथ नहीं लगी! कम से कम यहां से संबंधित तो नहीं! हां? उसने कुछ बताया था, धोजी! ये क्या था?
वो चला गया और मैं लौट आया! मेरा इंतज़ार कर रहे थे वे दोनों ही, नीरज को थोड़ा सा भय लग रहा था, उसने ऐसी स्थिति कभी देखी न थी इसीलिए!
"नीरज?" कहा मैंने,
"जी?" बोला वो,
"ये धोजी क्या है? सुना है?" पूछा मैंने,
"धोजी?'' बोला वो हैरानी से,
"हां, सुना है?'' पूछा मैंने,
"नहीं, कभी नहीं!" बोला वो,
"आओ फिर!" कहा मैंने,
"जी, कहां?" बोला वो,
"राजन के पास!" कहा मैंने,
"जी, चलिए!" बोला वो,
"वो वहीँ होगा न?" पूछा शहरयार जी ने,
"हां, सुबह तक!" बोला वो,
"आओ फिर?" कहा मैंने,
"साहब जी?" आयी पीछे से आवाज़, ये दीपक की थी!
"हां?" कहा मैंने,
"हम चलें?" बोला वो,
"हां, आ जाओ!" कहा मैंने,
हम तेजी से चल कर राजन के दफ्तर पहुंचे, वहां मोना भी बैठी हुई थी, हमें देख वो उठ गयी और दूसरे कमरे में चली गयी!
"आइये गुरु जी! सब ठीक?" बोला वो,
"हां" कहा मैंने बैठते हुए,
"आप भी बैठिये?'' बोला वो शहरयार जी से,
"राजन?" कहा मैंने,
"जी गुरु जी?" बोला वो,
"धोजी!" कहा मैंने,
"धोजी?" बोला वो,
"हां, सुना है?" पूछा मैंने,
"नहीं तो?" बोला वो,
"कभी नहीं?" पूछा मैंने,
"नहीं जी!" बोला वो,
"कोई गांव आसपास?'' पूछा मैंने,
"पता करूं?" बोला वो,
"किस से?'' पूछा मैंने,
"वही खानसामा है न?'' बोला वो,
"कोई स्थानीय बताओ?" कहा मैंने,
"वो यहीं रहता है, कई सालों से, बल्कि जवानी से!" बोला वो,
"तब ठीक!" कहा मैंने,
वो बाहर गया तो दीपक मिला, उसने दीपक से कह दिया बुलवाने के लिए उस खानसामे को! और आ बैठा!
"पानी?" कहा मैंने,
'हां!" बोला वो,
और ठंडा पानी दिया उसने तभी!
"आ गया!" बोला वो,
अंदर एक प्रौढ़ सा आदमी आया, उसने नमस्कार की, शराब पी रखी थी, किसी तरह से संतुलन बनाये हुए था अपना! बात कर सकता था!
"अरे कभी धोजी नाम सुना है यहां?" पूछा राजन ने,
"क्या?" बोला दीपक,
"धोजी?" कहा मैंने,
"धोजी?" बोला खानसामा,
"हां? सुना है?" पूछा मैंने,
"हां जी, सुना है!" बोला वो,
मैं तो जैसे उछल ही पड़ा! मेरे संग वे सब उछल पड़े! नीरज के चेहरे पर तो आश्चर्य चढ़ आया!
"क्या है धोजी?" पूछा मैंने,
"यहां से इधर, इधर की तरफ, एक मंदिर था, पुराना, कितना पुराना, पता नहीं, वहीं एक तालाब बना था, जहां लोग नहाते और कपड़े वग़ैरह धोते थे!" बोला वो,
"अब कहां है, है क्या?" पूछा मैंने,
"पुरानी बात है जी, अब नहीं है!" बोला वो,
"मंदिर था?" कहा मैंने,
"हां" बोला वो,
"और क्या था आसपास?" पूछा मैंने,
"जो था, वो बस टूटा-फूटा ही था, धीरे धीरे लोगबाग आते कम होते चले गए, और जी, करीब सन पैंसठ या सत्तर तक आते आते, वो जगह ही छिप गयी!" बोला वो,
"और ये, ये ज़मीन जहां ये कॉटेज है?" पूछा मैंने,
"यहां एक रास्ता हुआ करता था, कच्चा रास्ता!" बोला वो,
"तुम्हारी उम्र तब क्या होगी?" पूछा मैंने,
"कोई बाइस तेईस?" बोला वो,
"तब तो अच्छे से याद होगी!" कहा मैंने,
"जी बिलकुल!" बोला वो,
तो इसका मतलब हुआ कि वो रोशन, उस धोजी के पास का ही रहने वाला होगा, अब वो प्रेत था, वहीँ भटकता था, ये प्रेत एक रास्ते से आते जाते हैं कभी वो गाड़ी टकराई हो या नहीं, उस से तो पता चला नहीं था! अब क्या किया जाए? दौड़ाई जाए टेढ़ी-बानो? टेढ़ी-बानो एक ताक़त है, पता काढ़ती है छिपे हुए प्रेतों का! लेकिन ये भरोसे के लायक नहीं, झूठ भी हो सकती है, इसका इस्तेमाल कम ही किया जाता है! टेढ़ी-बानो, तीन रात में सिद्ध होती है, प्रत्येक रात्रि पंद्रह मिनट में कुछ एक जाप, मंत्र सीधा सा ही है, परन्तु इसे सिद्ध करने से पहले उचित मार्गदर्शन आवश्यक होता है, वजह ये नहीं कि ये आघात पहुंचाएगी, वजह ये कि कोई और प्रेत भी इसका रूप धर न जाने क्या से क्या करवा दे! या फिर, सुरक्षा-घेरा ऐसा हो कि जो कोई भेद न सके! सिद्ध हो जाए तो कई कार्य करती है ये टेढ़ी-बानो! आयु में अठारह बरस की, लाल रंग के वस्त्र पहने, नंगे पांव और घुंघरू बांधे, एक सवाल को तीन बार पूछती है और फिर उत्तर देती है! जब चलानी हो, तो तीन कंकड़ उठा कर, मंत्र पढ़कर, सामने फेंके जाते हैं, ये हाज़िर हो जाती है और उद्देश्य पूर्ण भी कर देती है! कारावास, अस्पताल, श्मशान, बरसात और विधवा-स्थान पर कदापि हाज़िर नहीं होती, ये भूल आपने तीन बार की तो ये आपको छोड़ जायेगी!
"आप लोग यही बैठें!" कहा मैंने,
"मैं?" बोले शहरयार,
''आओ आप!" कहा मैंने,
"कुछ सामान?" बोला नीरज,
"नहीं!" कहा मैंने,
और हम नीचे चले आये, मैंने एक साफ़ सी जगह देखी, तीन बार मंत्र पढ़ा और तीन कंकड़ उठा लिए, मंत्र पढ़ते हुए, छह बार सामने फेंक दिए! टेढ़ी-बानो हाज़िर हो गयी!
"बोल?" बोली वो,
मैंने मुंह बंद कर, अपना सवाल बोला! उसने सुन लिया!
"नीचे!" बोली वो,
मैंने फिर से मुंह बंद कर सवाल किया!
"हां!" बोली वो,
फिर से एक और सवाल! ये आखिरी था बस!
"हां!" दिया जवाब और लोप हो गयी!
मैंने मंत्र पढ़ा और अपने पूरे बदन पर हाथ फेर दिया!
"पता चला?" बोले वो,
"हां!" कहा मैंने,
"क्या माजरा है?" बोले वो,
"दुखी हैं बहुत!" कहा मैंने,
"कौन?" पूछा मैंने,
"यहां जो हैं!" बोला मैं,
"दो के अलावा?" बोले वो,
"छह हैं!" कहा मैंने,
"आता कौन है?" बोले वो,
"सभी!" बोला मैं,
"वो सब क्यों होता है?" पूछा उन्होंने,
"कारण है!" कहा मैंने,
"खेल तो नहीं?" बोले वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
''मान जाएंगे?" बोले वो,
"जांचने के बाद!" कहा मैंने,
"क्षमा!" बोले वो,
"समाप्त!" कहा मैंने,
अब आये पास मेरे!
"अब बताइये!" बोले वो,
"हो गया पर्दाफाश!" कहा मैंने,
"मुक्ति?'' बोले वो,
"हां!" कहा मैंने,
"ओह!" बोले वो,
"अब कब?" बोले वो,
"सुबह!" कहा मैंने,
"चार घंटे हैं!" बोले वो,
"ग्यारह बजे!" कहा मैंने,
"कह दूं?'' बोले वो,
"बता दो, हां!" कहा मैंने,
"आइये!" बोले वो,
"चलो!:" कहा मैंने,
"वैसे, पता कब चलेगा?" बोले वो,
"आज!" कहा मैंने,
"उम्मीद है!" बोले वो,
"निश्चित ही!" कहा मैंने,
"जय जय भैरव!" बोले वो,
और हम..
अब बात ये थी कि इंतज़ार कैसे हो? सुबह आये तो अब सारे काम आगे बढ़ें! वैसे ऐसी बहुत सी जगहें आज भी हे, जो इतिहास को जोड़े रखती हैं वर्तमान से! ये धोजी भी एक ऐसी ही जगह थी! ये कोई मंदिर था, शायद बेहद ही पुराना, अब ज़मींदोज़ था या खंडहर ही बस, बचे हों! एक कुंड भी था, या तालाब ही कहें, जहां आसपास के लोगबाग आते होंगे, नहाने या कपड़े इत्यादि धोने! वक़्त बदला, ज़मीन बदली, लोगों की ज़रूरतें बदलीं और उनके साधन भी बदले, पुराना, पुराना ही होता गया, और धोजी यही एक ऐसी ही पुरानी जगह थी!
तो उस बाकी रात को करवटों में ही बदलते रहे हम! सुबह हुई, नहाये-धोये और फिर चाय-नाश्ता भी कर लिया, हमने उस खानसामे को साथ ले लिया था, वो वाक़िफ़ था और हमारी मदद कर सकता था!
"चलें?" कहा मैंने,
"जी, क्यों नहीं?" बोला राजन,
"खानसामे को?" कहा मैंने,
"वो वहीँ हे, बाहर!" बोला वो,
"उसको साथ लेना होगा!" बोला मैं,
"हां जी!" बोला वो,
और हमने गाड़ी स्टार्ट की, निकले बाहर वहां से, उस खानसामे को साथ लिया और चल पड़े!
"रास्ता है?" पूछा मैंने,
"है तो!" बोला वो,
"पैदल?" कहा मैंने,
"उधर के लिए तो!" बोला वो,
"कितना?'' पूछा मैंने,
"ज़्यादा नहीं!" बोला वो,
"पानी कहां से आता होगा?" बोला नीरज,
"अबे!!" बोले शहरयार!
"जी?" बोला वो,
"ये पहाड़ी जगह है!" बोले वो,
"हां?" बोला वो,
"यहां पत्थरों में भी पानी रहता है!" कहा मैंने,
"नमी से?" बोला वो,
"हां, नमी से भी और टूटे हुए पानी से भी!" बोले वो,
"झरना मतलब?" बोला वो,
"हां, समझ लो!" कहा उन्होंने,
गाड़ी हिचकोले खाते हुए चल पड़ी आगे! और हम एक ऐसी जगह पहुंच गए, जहां से आगे गाड़ी जा नहीं सकती थी!
"अब यहां से पैदल!" बोला वो,
"ठीक!" कहा मैंने,
और हम सब उतर गए उधर!
"बताओ कहां?" कहा मैंने,
"आगे से चलो!" बोला वो,
"ठीक, चलो!" कहा मैंने,
जैसे ही हम आगे गए, कि मुझे कुछ सुनाई दिया, जैसे कोई इंजन स्टार्ट हुआ हो! ये आवाज़ बहुत कम सी थी, वहां भी हो सकता था!
"कुछ?" बोले शहरयार,
"हां, लगा!" कहा मैंने,
"क्या?" बोले वो,
"इंजन!" कहा मैंने,
"गाड़ी का?" बोले वो,
"हां!" कहा मैंने,
"कोई होगा?" बोले वो,
"सम्भव है!" कहा मैंने,
"यहां!" बोला वो खानसामा!
"चलो!" कहा मैंने,
अब जैसे ही हम नीचे उतरे, कि बदरंग से पत्थर दिखे!
"ये खंडहर हैं?' पूछा मैंने,
"हां जी!" बोला वो,
"क्या था?" पूछा मैंने,
"अनाजघर!" बोला वो,
"ओह!" कहा मैंने,
"यहां लोग आते थे!" बोला वो,
"आते होंगे!" कहा मैंने,
"वो कुंड, वहां है!" बोला इशारे से,
"दिखाओ!" कहा मैंने,
"आओ!" बोला वो,
हम चलते रहे!
"वो देखो!" बोला वो,
टूटी हुई दीवारें, पेड़, लताएं, सूखे हुए पत्ते, गीले से भी, हर तरफ बिखरे हुए थे! पूरा पानी, काई का मारा हुआ था, हरी काई थी उस पर!
''अब तो बेहाल है!" कहा मैंने,
"ज़माना बीत गया!" बोले वो,
"सच बात!" कहा मैंने,
"रौनक ख़तम!" कहा उन्होंने,
"बिलकुल!" कहा मैंने,
"वहां क्या है?'' पूछा मैंने,
"कुछ कमरे से होंगे!" बोला वो,
"आओ?" कहा मैंने,
"जी!" बोला वो,
हम फिर से आगे चले!
"वो देखो!" बोला वो,
मैंने तब सामने देखा!
सामने टूटे हुए खंडहर थे! जैसे कभी कमरे रहे हों उधर, अब चूंकि ये अनाजघर था, तब तो शायद यहां गांवों से अनाज आता होगा और उनका वितरण भी होता होगा! कल की चमकती जगह आज बेहद ही शांत पड़ी थी! अब ये अनाजघर, शहर में पहुंचा दिया गया था, जहां आने जाने के लिए सड़कें थीं, आवागमन आसान बना दिया गया था, अब ये कुंड, जो कभी इमदादी ज़रूरतों को पूरा करता रहा था, एक गंदे तालाब के अतिरिक्त और कुछ नहीं बचा था!
"राजन?" कहा मैंने,
"जी?" बोला वो,
"अब मेरा काम शुरू होगा!" कहा मैंने,
"जी" बोला वो,
"अब आप, तीनों यहां से, बेहतर है कि वापिस गाड़ी तक चले जाएं!" कहा मैंने,
"मैं भी?" बोला नीरज,
"हां!" कहा मैंने,
"रुक सकता हूं!" बोला वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
"जी, जैसा कहें!" बोला वो,
और वे तीनों वहां से चल दिए, हमें पानी की दो बोतलें दे गए थे, ये ज़रूर काम आतीं इधर, यहां उमस बहुत थी!
वे चले गए, अब नज़र नहीं आ रहे थे!
"ये ही है धोजी!" कहा मैंने,
"जी!" बोले वो,
"सुनो?" कहा मैंने,
"हां?" बोले वो,
"चौकस रहना, मेरे पीछे ही!" कहा मैंने,
"जी, हूं!" बोले वो,
"मैं कलुष साधूंगा!" कहा मैंने,
"जी!" बोले वो,
मैं आगे बढ़ा, और मिट्टी उठा ली, मुट्ठी में भर ली, और कलुष का संधान किया! कलुष जागृत हुआ, मुंह का स्वाद कसैला हो उठा!
और नेत्र खोल दिए फिर!
दृश्य स्पष्ट हो गया! कुछ बदला नहीं था!
"कोई है?" कहा मैंने,
एक आवाज़ हुई!
सामने देखा, उस कुंड के पास कुछ कपड़े से उड़ते दिखाई दिए!
"आओ!" कहा मैंने,
"जी!" बोले वो,
मैं वहां तक गया और देखा,
"रुको!" कहा मैंने,
वे रुक गए!
मैं झुका और वो कपड़े देखे! ये किसी महिला के कपड़े थे, कुछ अंतःवस्त्र, और एक पुरुष का सफारी सूट! आसपास देखा, और भी कई वस्त्र पड़े थे! एक साइकिल का टूटा हुआ, रिम पड़ा था! एक जगह कुछ छिकड़े भी पड़े थे!
मैं खड़ा हुआ!
"कोई है?" मैंने फिर से पूछा,
कोई उत्तर नहीं आया!
"कोई है क्या?'' पूछा मैंने,
सामने के तालाब में से कुछ चिबुक सी हुई! जैसे कोई बड़ा सा कछुआ रह रहा हो उसमे!
"आओ?" कहा मैंने,
"जी!" बोले वो,
तभी मुझे ठीक सामने कुछ दिखा!
"रुको?" कहा मैंने,
वे झट से रुक गए!
"कौन है?" पूछा मैंने,
कोई उत्तर नहीं आया!
और बायीं तरफ से कोई भागा दायीं तरफ! सामने झाड़ियां थीं देख नहीं पाया!
"कुछ है?" बोले वो,
"लगता है!" कहा मैंने,
"सामने?" बोले वो,
''हां!" कहा मैंने,
"मैं देखूं?" बोले वो,
"देखो?" कहा मैंने,
मैं आगे बढ़ा!
"शहरयार जी?" कहा मैंने,
"जी?" बोले वो,
"रुक जाओ!" कहा मैंने,
"कुछ है?'' बोले वो,
"हां!" कहा मैंने,
"कौन?" बोले वो,
"सामने नहीं आ रहा!" कहा मैंने,
"अब?" बोले वो,
"यहीं खुले में रहो!" कहा मैंने,
और मैं आगे चल पड़ा!
"आवाज़ देना?" बोले वो,
"हां!" कहा मैंने,
मैं आगे चला धीरे धीरे! रुका!
"कौन है?'' पूछा मैंने,
कोई उत्तर नहीं!
"देखा है मैंने तुम्हें!" कहा मैंने,
एक गठरी सी उछाल फेंकी किसी ने! और मैं दौड़ लिया उधर! जहां से आयी थी, वहां गया, देखा, दीवार में एक बड़ा सा छेद था उधर!
वहां जो कोई भी था, अब भाग गया था, उन्हें शायद पकड़े जाने का डर लगा था, और जो गठरी वहां फेंकी गयी थी, उसमे महज़ कुछ चीथड़ों के अलावा कुछ भी न था! वो भाग रहे थे या छिप रहे थे, नहीं कह सकता था, अब किया क्या जाए? उन्हें डरा-धमका कर घेरा जाए, जा उनको सीमा के अंदर कैद कर दिया जाए या फिर उनके स्वतः ही आने का इंतज़ार किया जाए? सही तो यही ही रहता है कि उनको स्वतः ही आने दिया जाए, लेकिन इसमें समय लग सकता हे, और कोई चोट भी हो सकती है, तब? तब क्या बचता है? क्या इबु को हाज़िर किया जाए? तब मामला और उलझ सकता है, हो सकता है भय के मारे कोई कुछ बोले नहीं, इबु तो उनको पांव से पकड़, लटका कर अपनी तगड़ी में बांध ही लाता और पटक देता, सीमा खिंच जाती और ये क़ैद हो कर रह जाते! या फिर कारिंदे को दौड़ाया जाए? कारिंदा ऐसी जगह पर उतरेगा ही नहीं! वो उड़न में रहता है, जो देखेगा बता देगा!
तब? तब क्या बचता है? इन प्रेतों को पीड़ित किया जाए ताकि ये स्वयं ही सम्मुख आ जाएं? ताम-मंत्र से इन प्रेतों की नैसर्गिकता को कुंद लग जाता है और तब ये विवश हो जाते हैं, इनका माना जाए जैसे दम घुंटने सा लग जाता है! परन्तु ये भी किसी महिला-प्रेत पर छोड़ना उचित नहीं!
तब मैंने सोचा कि क्यों न इनको खेया जाए अर्थात इनको उघाड़ा जाए! इसके लिए मुझे थोड़ी सी आग और पांच अंगुल लकड़ियां चाहिए थीं, जो कि यहां सब थीं, अब उचित प्रकार से ही, तंत्र के नियमानुसार ही एक अंतिम चेतावनी देना बनता था, अतः मैंने अंतिम चेतावनी भी दे दी!
"सामने आ जाओ! नहीं तो मैं विवश हो जाऊंगा!" कहा मैंने,
कमाल है! कोई नहीं आया वो शायद मुझे ही जांच रहे थे! तब मेरे पास प्रेत-भंजुरी के अतिरिक्त और कुछ शेष नहीं था!
"शहरयार?" कहा मैंने,
"जी?" आवाज़ आयी,
"यहां चले आओ तो?" कहा मैंने,
"जी, आया!" बोले वो,
और दौड़ कर आ गए उधर!
"ज़रा पांच-अंगुल उठाओ?" कहा मैंने,
"बात नहीं बनी?" पूछा उन्होंने,
"नहीं!" कहा मैंने,
''अभी लो!" बोले वो,
और पांच अंगुल लकड़ियां तोड़ लीं!
"रख दो!" कहा मैंने,
"उत्तर?" बोले वो,
"हां, चिता रूप में!" कहा मैंने,
''अभी लो!" बोले वो,
जूते उतारे, हाथ धोये और वो लकड़ियां सजा दीं!
"अब अग्नि दो!" कहा मैंने,
"जी!" बोले वो,
उन्होंने अग्नि दी और मैंने भंजुरी फेंकी! भटर-भटर की आवाज़ें होनी लगी! दीवारों से पत्थर ढहने लगे!
"हट जाओ!" कहा मैंने,
और मैंने तब उस पांच-अंगुल की एक लकड़ी उठा ली!
"लावे लावे खींच लावे!" कहा मैंने,
शहरयार ने मारी ताली!
"लाव बसंता छोटा भाले!" कहा मैंने,
अब कि पांच तालियां, ज़ोर ज़ोर से!
"रोवे कंजरी जगावे भूत!" कहा मैंने,
इस बार फिर से तालियां बजायीं उन्होंने,
"माता भांजरी का सोटा चाले!" कहा मैंने,
और तब, सामने से, उठते हुए, भागते हुए, उछलते हुए, एक जोड़ा दिखा! जैसे ही मुझ से नज़र मिली, उस स्त्री ने झट से छाती में सर धंसा लिया उस पुरुष के! ये कोई ज़्यादा दूर नहीं, बस पंद्रह मीटर ही था!
"कौन है तू?" बोला वो,
"अरे तू कौन?" बोला मैं,
"बताता नहीं?" बोला वो,
''तू बता?" कहा मैंने,
"यहां क्यों आया?" बोला वो,
"क्यों आया?" बोला मैं,
"क्यों आया?" बोला वो,
"तू कुछ नहीं कर सकता! घबरा मत! तेरा नुक्सान नहीं करूंगा! जो बोलता हूं, सुनता जा, जो पूछूं, बताता जा!" कहा मैंने,
अब मैं आगे बढ़ा थोड़ा!
"ठहर जा!" बोला वो,
"ठहर गया!" कहा मैंने,
"यहां कौन लाया?" बोला वो,
"कोई नहीं?" बोला मैं,
"क्या चाहता है?" बोला वो,
"तू देगा?" बोला मैं,
"हां!" बोला वो,
"बदले में?" पूछा मैंने,
"लौट जा, और बताना मत!" बोला वो,
"कौन हो तुम?" पूछा मैंने,
उसने एक बार अपनी प्रेयसी को देखा! घबरा गया था!
"घबराओ नहीं!" कहा मैंने,
"क्यों आये हो?" बोला वो,
"इस से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता!" कहा मैंने,
"नहीं!" बोला वो,
"डरते हो?" पूछा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"ये, अलग न हो जाए?" कहा मैंने,
उसने, मेरी बात सुनते ही उसे बांहों में जकड़ लिया वो भी उसको जैसे उसने जकड़ा था, जकड़ लिया था!
"नहीं, मैं अलग नहीं करूंगा!" कहा मैंने,
उसने भय से मुझे देखा!
"अब बताओ?" कहा मैंने,
"विक्रम!" बोला वो,
"और ये?'' पूछा मैंने,
"मृदुला!" बोला वो,
"कब से?" पूछा मैंने,
"नहीं पता!" बोला वो,
"विक्रम?" कहा मैंने,
और थोड़ा आगे चला, मैं उसका विश्वास जीतना चाहता था, वो नहीं घबराया तब और न ही हिला!
"ये नहीं गयी!" बोला वो,
"जा नहीं सकी!" बोला मैं,
"हां!" बोला वो,
"इसके मारे तुम भी नहीं गए!" कहा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"कहां से हो?" पूछा मैंने,
"अल्मोड़ा!" बोला वो,
"और ये?'' पूछा मैंने,
"कलकत्ता!" बोला वो,
"प्रेमी-प्रेमिका हो?" कहा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"और भी हैं?" पूछा मैंने,
"बस हम!" बोला वो,
"यहीं रहते हो?" पूछा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"क्या उम्र है तुम्हारी?" पूछा मैंने,
"चौबीस!" बोला वो,
"इसकी?" पूछा मैंने,
"चौबीस" बोला वो,
"पढ़ते हो?" कहा मैंने,
"पता नहीं!" बोला वो,
"कोई है तुम्हारा?'' पूछा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"कौन?" पूछा मैंने,
"बड़े भाई!" बोला वो,
"और?" पूछा मैंने,
"बाकी नहीं लौटे!" बोला वो,
"उन्हें खबर है?'' पूछा मैंने,
"पता नहीं!" बोला वो,
"ये?'' पूछा मैंने,
"सब हैं" बोला वो,
"घर गयी?" पूछा मैंने,
"नहीं" बोला वो,
"उसी दिन से साथ हो?" पूछा मैंने,
"हां!" कहा उसने,
"कुछ याद है?'' पूछा मैंने,
"मिट्टी!" बोला वो,
"मिट्टी?" पूछा मैंने,
''हां!" बोला वो,
"कैसी मिट्टी?" पूछा मैंने,
"मुंह में, आंखों में, मैंने ढूंढा इसे!" बोला वो,
"और कुछ?" पूछा मैंने,
"नहीं याद!" बोला वो,
"क्या दिन है?'' पूछा मैंने,
'शनिवार!" कहा उसने,
"क्या हुआ है?" पूछा मैंने,
"बारिश!" कहा मैंने,
"वक़्त?" कहा मैंने,
"शाम!" बोला वो,
"गाड़ी है पास?" पूछा मैंने,
"हां" बोला वो,
"कहां है?" पूछा मैंने,
"अंदर!" बोला वो,
"कहां?" पूछा मैंने,
"इधर" बोला वो,
"इधर?" बोला मैं,
"हां!" कहा उसने,
"कौन लाया?" पूछा मैंने,
"मैं!" बोला वो,
"विक्रम, कुछ याद है?'' पूछा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"क्या?" बोला मैं,
"ये, मेरी प्रेमिका!" बोला वो,
"मृदुला?" कहा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"मृदुला?" कहा मैंने,
उसने कोई ध्यान नहीं दिया!
"मृदुला?" कहा मैंने,
अब भी कोई जवाब नहीं दिया!
"विक्रम?" बोला मैं,
"हां?" बोला वो,
"इसे बोलो?" बोला मैं,
"नहीं बोल रही!" बोला वो,
"उसको बोलो?" कहा मैंने,
"मृदुला?" कहा मैंने,
अब हल्के से सर उठाया उसने, और मेरी तरफ एक आंख से देखा!
"मृदुला?" कहा मैंने, उसने सर उठा, मुझे उत्तर दिया, उत्तर कम और सवाल ज़्यादा कि क्या!
"जाना चाहते हो?" पूछा मैंने,
"जाना?" बोला वो,
"हां?" कहा मैंने,
"कहां?" बोला वो,
"जहां मुझ जैसा कोई न पहुंचे!" कहा मैंने,
वो कुछ न बोला, दरअसल समझ ही नहीं पाया!
"विक्रम?" कहा मैंने,
"हां?" बोला वो,
"जहां से तुम्हें कोई अलग न करे!" कहा मैंने,
"कहां?" बोला वो,
''है एक जगह!" कहा मैंने,
"दूर?" बोला वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
"यहीं?" बोला वो,
"हां!" कहा मैंने,
"यहां नहीं है!" बोला वो,
"क्यों?" पूछा मैंने,
"यहां कोई नहीं" बोला वो,
"लेकिन यहां कोई आ जाएगा!" कहा मैंने,
"कौन?" बोला वो,
"पकड़ने वाला!" कहा मैंने,
"किसे? इसे?" बोला वो,
"हां, इसे भी, तुम्हें भी!" कहा मैंने,
"कोई नहीं ले जा सकता!" बोला वो,
"मैंने निकाला बाहर?'' कहा मैंने,
"बाहर?" बोला वो,
''आये न?" बोला मैं,
"आये?" बोला वो,
"मैंने तुम्हें ढूंढा न?" बोला मैं,
"हां?" बोला वो,
"कोई और भी ढूंढ लेगा!" बोला मैं,
"कोई नहीं कर पायेगा!" बोला वो,
''तुम उसे लालच दोगे मेरी तरह?" बोला मैं,
''क्यों?" बोला वो,
"ताकि वो जाए!" बोला मैं,
"हां!" कहा उसने,
"वो लौटा तो?" पूछा मैंने,
"नहीं लौटेगा!" बोला वो,
"तो कोई और?" पूछा मैंने,
अब वो चुप!
"मेरा बात मानोगे?" पूछा मैंने,
"क्या?'' बोला वो,
"कोई लालच नहीं!" कहा मैंने,
"ये नहीं!" बोला वो,
''नहीं!" कहा मैंने,
"तब क्या?'' बोला वो,
"यहां से चले जाओ!" बोला वो,
"उधर?'' बोला वो,
"कहां?" पूछा मैंने,
"उधर की तरफ?" बोला वो,
"हां!" कहा मैंने,
"वहीं तो हम हैं?" बोला वो,
''हम?" बोला मैं,
"हां!" बोला वो,
"क्या हम?" पूछा मैंने,
"मिट्टी? अंधेरा?" बोला वो,
अब यहां अटका था वो! मेहनत कर मैं ले आया था उसे इस तरफ! अब मैं सफल ही होने को था!
"वहीँ हो न?'' पूछा मैंने,
"हां! वहीँ!" बोला वो,
"विक्रम?" कहा मैंने,
"हां?" बोला वो,
"और कौन है यहां?" पूछा मैंने,
"हम दो!" बोला वो,
"लेकिन, लगता है. चार और हैं?" पूछा मैंने,
"वो?" बोला वो,
"हां?" कहा मैंने,
"उधर ही हैं!" बोला वो,
"जानते हो?" पूछा मैंने,
"क्या?" बोला वो,
"उन्हें?" पूछा मैंने,
"नहीं" कहा उसने,
"साथ नहीं थे?'' पूछा मैंने,
"थे?" बोला वो,
"मेरा मतलब, हैं?" कहा मैंने,
"नहीं" बोला वो,
"कौन कौन है?'' पूछा मैंने,
"दो लड़के हैं, एक वृद्ध है, और एक, कुछ बोलता नहीं" बोला वो,
"कुल छह?" पूछा मैंने,
"हां" कहा उसने,
"आ जाएंगे?'' पूछा मैंने,
"कौन?" बोला वो,
"बाकी चार?" कहा मैंने,
"पता नहीं!" बोला वो,
"सुनो?" अब बोली वो लड़की,
"हां?" कहा मैंने,
"हमें जाने दो?" बोली वो,
"कहां?" पूछा मैंने,
"यहीं रहने दो?" बोली वो,
"ओ भोली लड़की! तुझे उठा ले जाएगा कोई!" कहा मैंने,
मेरी ये बात सुन, वो उसे छोड़, लपक के उसके पीछे चली गयी! घबरा गयी थी वो!
"मुझे वो जगह दिखा सकते हो?" पूछा मैंने,
"कौन सी?" बोला वो,
"जहां तुम दोनों हो!" कहा मैंने,
"अंदर?'' बोला वो,
"अंदर मायने?'' बोला मैं,
"अंदर, यहां? ऐसे?" बोला वो,
ओह! इसका मतलब, उनके शरीर, नीचे, ज़मीन के नीचे दफन थे! वो अभी तक ज़िंदा समझे थे अपने आपको!
"हां!" कहा मैंने,
"क्या करोगे?'' पूछा उसने,
"कुछ नहीं!" कहा मैंने,
"किसी ने भी कुछ नहीं किया!" बोला वो,
मैं सब समझ रहा था उसका मतलब! कोई उन्हें बचाने नहीं आया था, जब उन पर कोई विपत्ति टूटी थी!
"चलो!" कहा मैंने,
"कहां?" बोला वो,
"जहां तुम हो!" कहा मैंने,
"क्या करोगे?" बोला वो,
"तुम दोनों को निकालूंगा!" कहा मैंने,
"क्या सच?" बोला वो,
"हां!" कहा मैंने,
"सच?" बोला वो,
"हां!" कहा मैंने,
"वहां?" बोला वो,
"हां!" कहा मैंने,
"अभी?" बोला वो,
"तो?" बोला मैं,
"नहीं!" बोला वो,
"क्यों?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोला वो,
"किसलिए?'' पूछा मैंने,
"कपड़े नहीं हैं!" कहा उसने,
''तो क्या हुआ?'' कहा मैंने,
"ये नहीं मानेगी!" बोला वो,
"हम चले जाते हैं?" कहा मैंने,
"नहीं!" बोला वो,
"क्यों?" पूछा मैंने,
"और भी लोग हैं!" कहा उसने,
"वहां?" पूछा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"तो कब जाते हो?" कहा मैंने,
"जब कोई नहीं होता!" बोला वो,
"रात?" कहा मैंने,
"रात? नहीं रात नहीं हुई अभी!" कहा उसने,
''हां!" कहा मैंने,
"भूल गए!" बोला वो,
"हां, भूल गया था!" बोला मैं,
तभी मेरे दिमाग में एक ख़याल आया! ये कब से हैं, इन्हें पता नहीं! दिन याद है, शनिवार! लेकिन...
"विक्रम?" कहा मैंने,
"हां?" बोला वो,
"ये साल कौन सा है?'' पूछा मैंने,
"साल? ये?" बोला वो,
"हां!" कहा मैंने,
"सन इकहत्तर!" बोला वो,
अब आया समझ! ये सन इकहत्तर से यहां भटक रहे हैं! तब ये जगह सिर्फ वीराना ही थी, या रही होगी! होगा तो ये अनाजघर या कुछ खंडहर! और ये दोनों, शरारत के मिजाज़ से यहां शरारत करने आये होंगे, तभी कुछ न कुछ हुआ होगा, लेकिन क्या?
"विक्रम?" कहा मैंने,
"हां?" बोला वो,
"तुम क्या करते हो?" पूछा मैंने,
"मैं इंजीनियरिंग कर रहा हूं!" बोला वो,
"अच्छा! किसमें?" पूछा मैंने,
"बिजली!" बोला वो,
"और ये?" पूछा मैंने,
"ये मृदुला?'' पूछा उसने,
"हां!" कहा मैंने,
"नर्सिंग!" बोला वो,
"कलकत्ता से?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोला वो,
"फिर?" पूछा मैंने,
"पुणे से!" बताया उसने,
"तो ये कलकत्ता और तुम यहां से, मिले कैसे?'' पूछा मैंने,
"कलकत्ता में!" बोला वो,
"तुम गए थे?'' बोला मैं,
"हां, जाता हूं!" बोला वो,
"ओ! हां!" कहा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"तब मिले?" पूछा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"तब ये घूमने आयी है!" कहा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"कितने दिन हुए?'' पूछा मैंने,
"नौ!" बोला वो,
"शादी करोगे!" कहा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"तो रोज आते हो यहां?" पूछा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"मृदुला के साथ कौन?" पूछा मैंने,
"कौन?" बोला वो,
"जो साथ आया!" कहा मैंने,
"घर!" बोला वो,
''अच्छा!" कहा मैंने,
"तो आज मिलोगे?'' कहा मैंने,
"कहां?" बोला वो,
"वहीँ?" कहा मैंने,
"जहां हम हैं?" बोला वो,
"हां!" बोला मैं,
''ठीक है!" कहा मैंने,
"आप वहीँ हो?" बोला वो,
"हां!" कहा मैंने,
"निकाल दोगे?'' बोला वो,
"हां!" कहा मैंने,
"एहसान होगा!" बोला वो,
"कोई एहसान नहीं!" कहा मैंने,
"ढूंढते होंगे!" बोला वो,
"घरवाले?" पूछा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"परेशान होंगे!" कहा मैंने,
"बहुत!" बोला वो,
"कपड़े कहां हैं?" पूछा मैंने,
''वहीँ!" बोला वो,
"समझ गया!" कहा मैंने,
वो हंस पड़ा! मृदुला चिपक गयी पीछे उसके!
"आप समझदार हो!" बोला वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"भले आदमी हो!" कहा उसने,
"अच्छा!" बोला मैं,
"मदद कर रहे हो!" कहा उसने,
"करनी चाहिए!" कहा मैंने,
"शोभित आया हुआ है वहां?" बोला वो,
''कौन शोभित?" पूछा मैंने,
''वो ही लाया था हमें यहां!" बोला वो,
''अच्छा!" कहा मैंने,
"नहीं है वो उधर?'' बोला वो,
"पता नहीं!" कहा मैंने,
"मुझे नहीं पता कि शोभित वहां है या नहीं, चूंकि मैंने देखा नहीं!" कहा मैंने,
"मैं ढूंढ लूंगा!" बोला वो!
"ये अच्छा रहेगा!" कहा मैंने,
"हां! फिर घर!" बोला वो,
"बिलकुल घर!" कहा मैंने,
"मृदुला? घर जाएंगे अब!" बोला वो,
मृदुला पीछे चिपकी हुई थी उसके! लेकिन उन दोनों की ख़ुशी देखते ही बनती थी! कहते हैं न, दवा कड़वी हो, तभी असर ज़्यादा करती है! वे दोनों नहीं जानते थे इसका मतलब! न जाने कितने ही असंख्य इस लोक और उस लोक के मध्य के एक गहन से अन्धकार में, उजाले की किरण की बाट जोह रहे हैं! यही है प्रेत-भोग!
"ठीक है! कोई और इच्छा?" पूछा मैंने,
"नहीं अभी नहीं!" बोला वो,
"मृदुला? खुश हो?" पूछा मैंने,
उसने कोई जवाब ही नहीं दिया! बस, विक्रम ही मुस्कुराया! मैं जानता हूं इसे! ये भी बहुत खुश है!
"ठीक है, मैं रात को मिलता हूं!" कहा मैंने,
"हम आ जाएंगे!" बोला वो,
"ठीक है, अब चलता हूं!" कहा मैंने,
"हां!" बोला वो,
मैं पलटा और अचानक ही पीछे देखा, अब वहां कोई नहीं! मेरा मंत्र, वापिस कर ही लिया था मैंने! वे जहां जिस अन्धकार में थे, लौट गए थे वापिस!
"आओ!" बोला मैं,
"सारी बात हुई?'' बोले वो,
"हां!" कहा मैंने,
"मतलब आज सब समाप्त?" बोले वो,
"हां, अब कुछ ही घंटे!" कहा मैंने,
"इनका भी कल्याण हो!" बोले वो,
"हां, अवश्य ही हो!" कहा मैंने,
"दिल पसीज जाता है!" बोले वो,
"जिसके पास हो, उसी का!" कहा मैंने,
"ये सच है!" बोले वो,
और हम वापिस आ गए, बातें करते करते, मैंने उनको सब बताया कि कौन क्या है? नाम क्या है! क्या करने आये थे, गाड़ी कहां है आदि!
हम आये वापिस तो वे सब गाड़ी से बाहर निकल आये!
"कुछ हुआ?'' बोला नीरज,
"हां!" कहा मैंने,
"क्या वजह है?'' पूछा उसने,
"इसका जवाब कल!" कहा मैंने,
"ठीक है!" बोला वो,
मित्रगण!
इसके बाद बजे रात के ग्यारह, आज कुछ खाया-पीया नहीं था हमने, मैंने मना कर दिया था, मैं नहीं चाहता था कि कोई भी डरे या मुझ से ही नशे की झोंक में कुछ गलत निकल जाए मुंह से! नशा किसी का सगा नहीं! ये नशा है, शान का उल्टा!
मैंने ठीक बारह के बाद, 'निपायी' शुरू कर दी थी, अर्थात घेराबंदी! जो एक बार आये, वो जा नहीं सके, मेरी अनुमति के बिना!
"ये चार कौड़ियां, चार तरफ!" कहा मैंने
"ठीक!" बोले वो,
''एक दीया, अंदर!" कहा मैंने,
"जला देता हूं!" बोले वो,
"वे नहीं आएं यहां!" कहा मैंने,
"कौन?" बोले वो,
"राज, दीपक और नीरज!" कहा मैंने,
"मना कर दी है!" बोले वो,
"ठीक किया!" कहा मैंने,
और फिर मैंने मंत्रों से पढ़ कर, उस ज़मीन को, 'उठा' दिया! अभी भी सबसे अहम सवाल बाकी था, बाकी था उसका उत्तर जानना! कि आखिर उन्हें हुआ क्या था? क्या वजह रही थी? किस कारण से वे भले, प्रेमी-प्रेमिका इस गर्त में जा फंसे थे, क्या कारण बना अचानक?
ठीक ढाई बजे,
मैं दीये वाले कमरे में बैठा, ये खुला सा कमरा था, शहरयार जी को नहीं आने दिया था! मैं नहीं चाहता था कि कुछ भी उन्हें नागवार सा गुजरे!
"विक्रम? मृदुला?" कहा मैंने,
"हम यहीं हैं!" बोला वो,
इस बार वे दोनों ही निर्वस्त्र थे...
"हम, तो नीचे हैं?" बोला वो,
"नीचे कहां?" पूछा मैंने,
"नीचे, फर्श के!" बोला वो,
''समझ गया!" कहा मैंने,
"मैं निकाल देता हूं अभी!" कहा मैंने,
"जल्दी!" बोला वो,
"हां, जल्दी लेकिन एक सवाल!" बोला मैं,
"पूछो?" बोला वो,
"तुम दोनों, दिन शनिवार, क्या करने आये थे यहां?" पूछा मैंने,
"हम घूमने आये थे" बोला वो,
"यहां क्या दिखा?'' पूछा मैंने,
"कुछ नहीं?" बोला वो,
"खंडहर में गए?'' पूछा मैंने,
"रोज, अक्सर!" बोला वो,
''और फिर, प्रेम के जोश में, सहवास?" पूछा मैंने,
मेरा सवाल सुन, मुंह फेर लिया मृदुला ने! विक्रम अभी भी खड़ा था वहीँ!
"हां!" बोला वो,
"कोई गलत बात नहीं, आप दोनों बालिग़ हो!" कहा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"रजामंदी थी!" कहा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"फिर क्या हुआ?" पूछा मैंने,
"कब?" पूछा उसने,
