वर्ष २०१६, कॉटेज नं...
 
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वर्ष २०१६, कॉटेज नंबर नौ....एक अजीब घटना!

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श्रीशः उपदंडक
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राजन दौड़ता हुआ आया, नीचे हमें देखते ही! प्रणाम हुई और फिर हमें ले चला वो साथ अपने, लकड़ी की बढ़िया सी सीढ़ियां बनी थीं, लकड़ियां ही थीं, मुझे तो यही लगा, या फाइबर हो, तो पता नहीं! खैर, हम अंदर गए और एक ड्राइंग-रूम में प्रवेश किया! बड़ा ही अच्छा सा सजाया गया था वो रूम! दीवार पर, एक बड़ी सी इलेक्ट्रॉनिक-क्लॉक लगी थी, उसके ऊपर, चीड़ के वृक्ष ऐसे सजाये गए थे जैसे दीवार के पीछे वही हों! दूसरी दीवार पर एक एंटीलोप का बड़ा सा सर लगा था, वो मुझे सजावटी सा कम और ख़िताब सा ज़्यादा लगता था! दूसरी दीवार पर, एक बड़ी सी खिड़की थी! उसमे, पीले और नीले रंग के शानदार परदे लगे थे! बाहरी दीवार पर सिर्फ शीशा ही लगा था, इटालियन दानेदार शीशा! कमरे में दो झूमर टंगे हुए थे, ये थे सबसे ख़ास! रंग बड़े ही खिले खिले से उनके! नीले, लाल, पीले, हरे और सुनहरे से, बत्ती जल जाएं तो समझो किसी बॉल-रूम में बैठे हों! एक बड़ा सा, टीवी लगा था दीवार पर, उसके प्लेटफार्म पर, दो छोटे से बुल-डॉग जैसे खिलौने से रखे थे! सारा सामान बेहद करीने से रखा था, इसका मतलब साफ़ था, घर में कोई बालक नहीं था, नहीं तो पता चल ही जाता!
हम बड़े बड़े से लैदर से बने सोफे में धंस के बैठ गए थे, कालीन ईरानी कारीगरी का था पक्का! लगता था फर्श पर मोज़ैक से बनी हुई टाइल्स लगी हों! एक पहाड़न लड़की आयी, पानी लेकर, हमें पानी पिया, मैरी उठ कर, दूसरे कमरे में चली गयी थी, शायद भाभी से मिले अपनी! वो पहाड़न लड़की भी गिलास उठा, चली गयी बाहर ही!
"ये हैं राजन!" बोले नीरज,
"जी!" कहा मैंने,
"गुरु जी, बहुत अच्छा लगा आपको यहां देख कर! मुझे मैरी ने बताया था आपके बारे में!" बोला राजन,
"घर बड़ा ही शानदार है आपका!" कहा मैंने,
"जी, बस कृपा है!" बोला वो,
"जगह अच्छी चुनी है आपने!" बोले शहरयार,
"ये जगह दरअसल, पुरानी है!" बोला वो,
"पुरानी?" मैंने पूछा चौंक कर, मेरे कान खड़े हो गए थे!
"जी!" बोला वो,
"कैसे पुरानी?" पूछा मैंने,
"जी, कभी यहां, उधर, देखिये?" बोला वो इशारा करते हुए, मैंने देखा बाहर,
"हां?'' कहा मैंने,
"पटवारघर हुआ करता था!" बोला वो,
"गांव का!" कहा मैंने,
"जी!" बोला वो,
"तब तो सरकारी हुई?" कहा मैंने,
"जी!" बोले वो,
"लेकिन ये, रिहाइशी ज़मीन पिता जी ने खरीदी थी!" बोला वो,
"समझ गया!" बोला मैं,
"और कुछ बाद में पिताजी को मुआवजा भी मिला!" बोला वो,
"किस बात का?'' पूछा मैंने,
"खेती की ज़मीन का!" कहा उसने,
"सरकारी अधिग्रहण हुआ होगा?" पूछा मैंने,
"जी!" बोला वो,
तभी वो पहाड़न लड़की, केसर मिला सा, मेवे मिला दूध सा ले आयी! रख दिया सामने बड़ी सी टेबल पर और लौट गयी!
"दूध?" बोले नीरज,
"नहीं जी!" बोला वो,
'फिर?" पूछा शहरयार ने,
"पी कर देखिये!" बोला वो,
मैंने घूंट भरा, रसमलाई के जैसा था!
"बहुत बढ़िया!" बोला नीरज,
"लाजवाब!" कहा मैंने,
"दूध से ही तो बनती है!" बोला वो,
''हां!" कहा मैंने, 
"राजन?" बोले शहरयार,
"जी?" बोला वो,
"ये कॉटेज कहां हैं?" पूछा उन्होंने,
"यहां से ढाई किलोमीटर पर!" बोला वो,
"काम कैसा है?'' पूछा उन्होंने,
"ठीक है!" कहा उसने,
"आपका पार्टनर?" पूछा मैंने,
"पैसा लेता है बस!" बोला वो,
"ठीक ही है!" बोला नीरज,
"आपको बता तो दिया ही होगा?'' बोला वो,
"हां!" कहा मैंने,
''जी!" बोला वो,
"लेकिन उस से आपको क्या दिक्क्त है?" पूछा शहरयार ने,
"देखा जाए तो....कुछ नहीं!" बोला वो,
"काम तो बढ़ता ही है!" बोले शहरयार,
"जी, ठीक कहा, लेकिन...!" बोला वो,
"घर!" कहा मैंने,
"जी, यही!" बोला वो,


   
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श्रीशः उपदंडक
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बात सही थी, इंसान सब कुछ बर्दाश्त कर सकता है, अपने घर में आग नहीं बर्दाश्त कर सकता! अब उसका प्रेम-विवाह था, ज़ाहिर था, इतना समृद्ध होते हुए भी वो एक मध्यमवर्गीय परिवार से, अपनी प्रेमिका को चुन, अपनी दुल्हन के रूप में लाया था! मैं चाहे कुछ भी समझूं, आप भी चाहे कुछ भी समझिये, उसके जी की वो ही जाने! जिसे वो चाहता था, उसका मन भटक जाना, उसे भला कैसे बर्दाश्त हो पाता! अभी तक मैंने राजन का व्यवहार देखा था, वो खुले मिज़ाज का, आदर्शवादी सा और अपनी बातों पक्का, और सामने वाले को उसकी हैसियत-ए-दौलत से नहीं, बल्कि उसके ज़हन से किया करता था! तो हमने, वो रसमलाई का सा शर्बत ख़तम कर लिया था! और बैठे ही हुए थे, थोड़ा आसपास की बातें हो रही थीं!
"नीरज?" बोला राजन,
"हां?" बोला वो,
"खाने में?" पूछा उसने,
"जो भी!" बोला नीरज,
"आप?" पूछा उसने,
"जो भी!" कहा मैंने,
"सर, आप?" पूछा शहरयार से उसने,
"जो चाहो साहब!" बोले वो,
"कहां के साहब, सर!" बोला वो,
"आप फ्रेश होना चाहें तो हो लीजिये!" बोला राजन और उठ गया,
"नीरज?" बोला फिर वो,
"हां?" कहा नीरज ने,
"आओ?" बोला वो,
और नीरज उठ कर चला उसके साथ, वे बाहर चले गए!
"आदमी तो अच्छा है!" बोले शहरयार जी,
"हां!" कहा मैंने,
"सच में ही परेशान है!" बोले वो,
"देख लेते हैं!" कहा मैंने,
तभी नीरज चला आया अंदर!
"आइये!" बोला वो,
"चलो!" कहा मैंने,
और हम दोनों ही उठ कर बाहर चले, हम एक गैलरी से होते हुए, ठीक सामने बनी एक सीधी तक पहुंचे, नीरज ने ऊपर चढ़ने को कहा, हम चढ़ गए, और फिर नीरज आगे आते हुए, एक तरफ रुका,
"यहां लगाइये आसन!" बोला वो,
"अच्छा!!" कहा मैंने,
"कोई ज़रूरत हो, तो बताइये?" बोला वो,
"अभी तो कुछ नहीं!" बोले शहरयार!
"ठीक!" बोला वो, और वापिस चला, हम कमरे में चले आए! बढ़िया सा शयन-कक्ष था ये! चित्र लगे थे वनस्पतियों के, पानी में क्रीड़ा करते हुए, लड़कियों के! हमने जूते उतारे और बैठ गए!
मैं तो लेट गया फिर! वे बैठे ही रहे!
"कब चलना है?" पूछा उन्होंने,
"कहां?" पूछा मैंने,
"कॉटेज?" बोले वो,
"बड़ी जल्दी है!" कहा मैंने,
"अरे! देखने!" बोले वो,
"शाम को!" कहा मैंने,
"महफ़िल के समय?" बोले वो,
"जो भी बने!" कहा मैंने,
"ठीक!" बोले वो,
वे उठे और बाथरूम चले गए, मैं वहीं लेट कर, यहीं के बारे में सोचने लगा! कुछ देर बाद वे लौटे..
"देखें ज़रा!" बोले वो,
"क्या?" पूछा मैंने,
"कौन है वहां!" बोले वो,
"हां!" कहा मैंने,
"जो औरतों को तंग, मर्दों को 'जंग' लगा रहा है!" बोले वो,
"पता चल ही जाएगा!" कहा मैंने,
और फिर कुछ देर आराम किया! आंख ही लग गयी! सो गए थे हम फिर! दोपहर बाद नींद तब खुली जब खाने के लिए नीरज ने जगाया!
"उतार ली थकान?" बोला वो,
'हां!" कहा मैंने,
"अच्छा किया!" बोला वो,
"और क्या!" बोले शहरयार!
"अब पता नहीं रात को सर, आप क्या क्या करें!" बोला नीरज,
"कुछ नहीं!" बोले वो,
"पता है!" बोला वो,
"तब क्या चिंता!" बोले वो,
"कुछ नहीं में ही देखना आप!" बोला नीरज!
"समझा! समझा!" बोले वो,
मैं हंसते हुए कमरे से, जूते पहन, बाहर चला और


   
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श्रीशः उपदंडक
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हम बाहर आये और फिर डाइनिंग-रूम में ले आये हमें वे! हम बैठ गए, मैंने पहले पाने पिया थोड़ा सा और फिर, सामने रखे, व्यंजनों की तरफ देखा, सलाद से लेकर, बढ़िया ज़ायक़ेदार तक सारा सामान रखा गया था! रोटी और चावल भी थे, मिस्सी रोटी भी तैयार की गयी थी!
"लीजिये, शुरू कीजिये!" बोला नीरज,
मैंने मन ही मन अपने ईष्ट का शुक्रिया किया और उसकी रहमत बरसी, जो ये खाना नसीब हुआ, मैंने धन्यवाद भी कहा, मन ही मन!
और हमने खाना खाना शुरू किया, मैंने सबसे पहले, सोया के साथ बना मटन लिया, सोया का साग जो होता हे, उसके साथ! पहाड़ी ज़ायक़ा था, टुकड़े, बड़े बड़े थे, लेकिन बेहद ही लज़ीज़ बनाया गया था!
"बेहतरीन!" बोले शहरयार!
"सच में!" कहा मैंने,
और रोटी के संग खाना शुरू किया! ग्रेवी में छोटा घीया मिलाया गया था, इस से ग्रेवी गाढ़ी और इसका मसाला पेट खराब नहीं करता! कुछ भी कहो, खाना बेहद ही लाजवाब था!
"चावल!" कहा मैंने,
थोड़ा चावल लिए मैंने, पहाड़ी चावल थे, अदरक के कतीरे और प्याज के कतीरे डाले गए थे, शानदार दावत का इंतज़ाम किया गया था!
"आपका खानसामा किधर का है?" पूछा शहरयार ने,
"जी नेपाल का!" बोला राजन,
"तभी ज़ायक़ा और तरीक़ा कठमंडवी सा है!" बोले वो,
"अनुभव है उसे!" बोला राजन,
"होगा!" कहा मैंने,
और हमने, सारा तो नहीं, थोड़ा थोड़ा लील ही लिया! मजा आ गया था, खुल के डकार आयी थी! फिर थोड़ी सी कॉफ़ी ली और थोड़ा लॉन में बैठने चले गए! कुछ बातें हुईं, शाम सात के बाद का कॉटेज जाने का कार्यक्रम भी बन गया!
शाम सात बजे....
"सामान वहीँ लें?" बोला नीरज,
"जो ठीक लगे?" कहा मैंने,
"या यहीं से हो कर चलें?" पूछा उसने,
"वहीँ ठीक है!" बोले शहरयार!
"ठीक!" बोले वे दोनों,
और हम निकल पड़े उस कॉटेज के लिए, धुंधलका हल्का सा छाने लगा था, लेकिन शाम खुशगवार थी बहुत! हवा में ठंडक भी थी!
"मैरी घर पर ही है?" पूछा मैंने,
"जी, गयी है ज़रा!" बोला राजन,
"कोई ज़रूरत भी नहीं थी!" कहा मैंने,
"अरे राजन?" बोला नीरज,
"हां?" राजन ने जवाब दिया,
"कोई है वहां मसाज-पार्लर में?" पूछा नीरज ने,
"प्लस और माइनस?" पूछा उसने,
"प्लस का क्या करना? खुद न कर लूं?" बोला नीरज,
और सिगरेट का पैकेट बढ़ा दिया मेरी तरफ!
"माइनस? हैं!" बोला राजन,
"हां जी, सर?" बोले शहरयार जी से वे,
"रहन दो!" बोले वो,
"हर चीज़ में ना अच्छी नहीं?" बोला मैं, हंसते हुए,
"आप करवा लो?" बोले मुझ से,
"करवा लूंगा!" कहा मैंने,
"फिर क्या!" बोले वो,
"आप की कही!" कहा मैंने,
"ना जी!" बोले वो,
"क्यों?" पूछा मैंने,
"क्यों मरवाते हो!" बोले वो,
"नहीं मरोगे!" कहा मैंने,
"अरे 'उसे' कहा मैंने!" बोले वो,
हंस पड़े हम सभी! ज़ोर ज़ोर से!
"कैसे मरेगा ये 'उसे' भला?" पूछा मैंने,
"हाई-ब्लड प्रेशर से!" बोले वो,
"दवा है तो सही?" कहा मैंने,
"वो दवा है?" बोले वो,
"तो फिर?" कहा मैंने,
"बवाल है!" बोले वो,
"कमाल है!" बोला मैं,
"यही हाल है!" बोले वो,
"डरते बहुत हो आप सर!" बोला नीरज,
"सुन बे?" बोले वो,
"जी, सर!" बोला वो,
"तुम्हें तो है आदत!" बोले वो,
''तो डाल लो?'' बोला वो,
"कोई फायदा?" बोले वो,
"लो जी! फायदा कैसे नहीं?" पूछा मैंने,
"अच्छा? क्या है फायदा?" बोले वो,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"हमने तो ये ही सुनी है कि करत करत अभ्यास ते, जड़मति होत सुजान?" कहा मैंने,
मैंने ये बात कही कि हंसी के गुब्बारे से फूट पड़े! सभी हंसने लगे, शहरयार भी!
"जड़मति!" बोले वो!
"हां!" कहा मैंने,
"दांव-पेंच, निखारने से ही निखरते हैं!" बोला राजन!
"सही कह रहे हो!" बोले वो,
और गाड़ी मुड़ गयी बाएं फिर, एक छोटी सी पुलिया आयी, पुलिया पर, पीले रंग के गोले में, उसका क्रमांक लिखा था, उस से पहले एक गति-अवरोधक था, सो ही पार किया!
"और कितना?" पूछा शहरयार ने,
"यहां से बड़ी सड़क, और आ गए!" बोला नीरज,
"ये आ गयी!" बोला राजन,
"चलो जी!" कहा मैंने,
फिर, गाड़ी एक शानदार सी सड़क पर चलने लगी! चारों ही तरफ फूल ही फूल बस! हरे-भरे पेड़ और गुलाबी-पीले फूल!
"वो ही है?" पूछा मैंने,
"जी!" बोले वो,
"आ गए!" बोला नीरज,
और गाड़ी के लिए दरवाज़ा एक गार्ड ने खोला, हम अंदर चल दिए फिर!
"ये पिछले प्रवेश है!" बोला नीरज,
"समझा!" बोले शहरयार!
और फिर गाड़ी एक इमारत के सामने जा रुकी! इमारत नयी थी और अंग्रेजी शैली में बनी थी!
"आइये!" बोला राजन,
"चलिए!" कहा मैंने,
हम अंदर चल पड़े, एक कमरे की तरफ आये तो एक लड़का मिला, लड़के से कुछ कहा राजन ने, फिर हम कमरे में आ गए! कमरा खाली सा ही था, नीचे गद्दा बिछा था, आसपास चार टेबल रखी थीं, दो बड़ी सी वार्डरॉब भी थीं, इटालियन-टीक से बनी हुईं!
"कहिये तो कुर्सियां मंगवाऊं?" बोला राजन,
"कोई ज़रूरत नहीं!" कहा मैंने,
"यहां ही ठीक!" बोले वो,
''फ़ैल के बैठो!" कहा मैंने,
वो लड़का आ गया , दो पानी की बोतल और गिलास ले आया था, पाने पिया हमने फिर, लड़का बोतल ले गया वापिस, इस बार भी लड़के से कुछ कहा उन्होंने!
"बैठिये!" बोला राजन,
"जगह ने दिल जीत लिया!" बोले वो,
''रह जाओ यहीं!" बोला नीरज,
"रह तो जाऊं, तुम न रहने दो!" बोले वो,
"क्यों?" कहा मैंने,
"ये दोनों ही एक से हैं!" बोले वो,
"तो आप अपनी सोचो?" कहा मैंने,
"तभी तो कही!" बोले वो,
"कमाल है! मुफ्त की मसाज! मुफ्त की वर्जिश! खानपीन! और क्या चाहिए?" कहा मैंने,
"ना!" बोले वो,
"क्यों?" कहा मैंने,
"ये मुफ्त बड़ा महंगा!" बोले वो,
लड़का आया फिर, इस बार एक और लड़के को लेकर, खाना-पीना और और एक आर.सी. की बोतल ले आया था, साथ में कुछ पकौड़े थे, प्याज, बैंगन, कटहल के! हरी चटनी और सलाद!
"तैयार करवा लो?" बोला राजन लड़के से,
"अभी बस!" बोला वो,
"तंदूरी?" पूछा राजन ने,
"हां!" बोला लड़का,
"ठीक, ले आ!" बोला वो,
"साथ में?" पूछा उसने,
"टर्की भी बनवा ले, विंग्स के पीस करवा लेना!" बोला वो,
"अच्छा जी!" बोला लड़का,
"ऊपर से मक्खन लगवा देना! चुभे नहीं?" बोला राजन,
"जी!" कहा लड़के ने,
"एक ऐश-ट्रे भी भिजवा यार?" बोला वो,
"लाया!" दूसरा बोला और दोनों ही चले गए!
"टर्की भी रखते हो?" पूछा शहरयार ने,
''मांगते हैं लोग!" बोला वो,
"टर्की का कलेजा खाया है?" पूछा उन्होंने,
"बहुत!" बोला राजन,
"और नीरज?" बोले वो,
"हां जी!" बोला वो,
"टर्की से फिरकी बन जाती है!" बोले वो,
"अच्छा जी!" कहा मैंने,
"बड़ा ही लज़ीज़ मांस होता है इसका!" बोले वो,
"ये तो है, गरम भी!" कहा मैंने,
"हां!" बोले वो,
लड़का आया दूसरे वाला, ऐश-ट्रे पकड़ाई और चला गया वापिस!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"मैं तो हर बार ही खता हूं!" बोला नीरज,
"टर्की खाय भये तबहि ठरकी!" बोले शहरयार!
मेरी हंसी निकल आयी, फिर वे सब हंसे!
"गुरु जी?" बोला राजन,
"हां?" कहा मैंने,
"यहां एक गार्ड है, उसने कुछ अजीब सा बताया था!" बोला वो,
"क्या अजीब सा?" पूछा मैंने,
"उसने बताया कि एक रात उसने एक जोड़े को देखा था यहां!" बोला वो,
"अब आपका काम ही जोड़े का है!" कहा मैंने,
"एकदम नग्न!" बोला वो,
"नग्न?" कहा मैंने,
"हां!" बोला राजन,
"अब कोई शराब की झोंक में, हो गया होगा बावला! नीरज जी की तरह से सोचा कि चलो आज प्रकृति में ही आनंद उठाया जाए!" बोले शहरयार!
हंसी तो निकलने को हुई, लेकिन रोक ली!
"अब कोई ढाई बजे कौन करेगा ऐसा?" बोला वो,
"क्या भरोसा?" बोले वो,
"लेकिन जो ठहरता है वहां गार्ड की ड्यूटी लगती है!" बोला राजन,
"कहने का मतलब बताइये?" कहा मैंने,
"गार्ड को बुला लूं?" बोला वो,
"है इधर?" पूछा मैंने,
"यहीं रहता है!" बोला वो,
"बुला लो फिर!" कहा मैंने,
तभी, वे दोनों लड़के आ गए, तंदूरी-मुर्गा ले आये थे, ख़ुश्बू उड़ने लगी थी! रख दिया सामान उन्होंने और आइस-बॉक्स भी वहीं!
"सुन?" बोला राजन,
"जी?" बोला लड़का,
"दीपक है इधर?" पूछा उसने,
"हां, है?" बोला वो,
"ज़रा भेजना?" बोला वो,
"अभी भेजता हूं!" बोला वो,
और वे दोनों सामान रख, चले गए!
"लो जी!" बोला राजन,
"हो जाओ शुरू!" कहा शहरयार जी ने,
और हमने, एक एक बोटी उठा ली, खाने लगे, कुछ भी हो, खाना यहां बढ़िया ही था, सही ढंग से तंदूर में पकाया गया था इस मुर्गे को!
"छोटा ही है ये!" बोले शहरयार,
"पोल्ट्री से छोटा ही मंगवाते हैं!" बोला राजन,
"ये ठीक है!" कहा मैंने,
"देसी है!" बोले शहरयार,
"जी! बॉइलर नहीं जी!" बोला राजन,
"बनाओ जी पैग!" बोला नीरज,
"अजी लो सरकार!" बोले शहरयार! 
"कहां की सरकार!" बोला नीरज,
"कमाल है!" बोले वो,
"सरकार तो आप से है!" बोला नीरज,
"पैग बजरंगी या संगी?" पूछा उन्होंने,
"अभी हल्का ही रहने दो!" कहा मैंने,
"ठीक!" बोले वो,
और घाल दी गिलासों में मदिरा! झाग उठाती हुई सी, इठलाती सी, क़ैद से रिहा होती सी, मदमाती सी, शोख़ियां बिखेरती हुई थी, मर्दों की महफ़िल में अकेली सी रक़्क़ाशा होते हुए, अपना हुस्न बिखेर गयी! रही सही कमी, उसमे उसके हुस्न की गर्मी में ठंडक सी बिखेरती हुई बर्फ भी आ मिली!
"जी साहब!" आयी आवाज़ बाहर से,
"दीपक?" बोला राजन,
"जी साहब?" बोला वो,
"आ ज़रा?" बोला वो,
अपने जूते उतार, आ गया उधर ही,खड़ा हुए ही रहा!
"बैठो दीपक!" कहा मैंने,
"बस साहब जी!" बोला वो,
"अरे बैठ जा दीपक!" बोला राजन,
"जी साहब!" बोला वो और बैठ गया, बैठते ही, अपनी कमीज़ के आस्तीनों के बटन बंद कर लिए!
"दीपक?" बोले शहरयार,
"जी साहब?" बोला वो,
"लोगे यार?" बोले वो,
"ले ही रहा था साहब!" बोला हंसते हुए,
मैंने एक बोटी उसको दे दी और गिलास बनवा दिया उसका!
"यहीं के रहने वाले हो?" पूछा शहरयार ने,
"जी, गांव का ही!" बोला वो,
"अच्छा!" कहा उन्होंने,
"दीपक? सुन?" बोला राजन,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"जी साहब?" बोला वो,
"तूने बताया था न कि एक रात तूने कुछ देखा था?" पूछा उस से राजन ने,
"हां जी!" बोला वो,
"क्या देखा था, इनको बता, ये गुरु जी हैं!" बोला राजन,
उसने तभी सर झुकाया और मैंने रोक लिया उसको!
"बताओ दीपक?" कहा मैंने,
"जी, उस रात ढाई बजे थे, उस कॉटेज में...." बोला वो तो टोका शहरयार जी ने,
"कॉटेज नंबर नौ में?" पूछा उन्होंने,
"जी साहब!" बोला वो,
"हां, ढाई बजे?'' कहा मैंने,
"ऊपर के लोग सो गए थे शायद, कोई बत्ती भी नहीं जली थी, हां, नीचे जहां मेरी कोठरी है, वहीं की जली थी, अब साहब, हम तो जागते ही रहते हैं!" बोला वो,
"हां, ड्यूटी ही ऐसी है!" कहा मैंने,
"जी गुरु जी! तो मुझे बाहर कुछ हंसने की सी आवाज़ आयी!" बोला वो,
"बाहर? कहां बाहर?" पूछा मैंने,
"बताता हूं साहब, जैसे ये है कोठरी!" बोला वो इशारे से नक्शा बताते हुए,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"और यहां से है, ऊपर का रास्ता, और इसके बगल से ही बाहर जाने के लिए एक गैलरी है, उस गैलरी से बाहर जाते हैं अक्सर लोग-बाग़!" बोला वो,
"ये गैलरी कहां खुलती है?" पूछा मैंने,
"जी बाहर, चौड़ी सड़क पर!" बोला वो,
"अच्छा, तो आवाज़ पीछे से आयी, मतलब?" कहा मैंने,
"जी साहब!" बोला वो,
"फिर?" पूछा मैंने,
"तो जब हंसने की आवाज़ सी आई, तो पहले पहल लगा कि शायद मेरा भ्रम है, या फिर ऊपर अभी जागे हैं वो!" बोला वो,
"ठीक!" कहा मैंने,
"लेकिन आवाज़, दो लोगों की थी, यही लगा! एक मरद और एक औरत!" बोला वो,
"ठीक?" कहा मैंने,
"मुझे लगा एकदम कि ये वहम नहीं है, शायद वे लोग बाहर चले गए हैं, अब बाहर जाने में है खतरा बहुत, सांप, जानवर बहुत!" बोला वो,
'ठीक?" कहा मैंने,
"तो मैंने सोची कि कह दूं कि अंदर ही चले जाएं!" बोला वो,
"ठीक सोची!" कहा मैंने,
"तो मैं बाहर चला गया, वहां देखा तो कोई नहीं, फिर ऊपर देखा, ऊपर की बत्ती बंद, तो आवाज़ आयी कहां से?" बोला वो,
"सही बात!" कहा मैंने,
"मैंने ढूंढा तो मुझे कुछ दिखा!" बोला वो,
"क्या?'' पूछा मैंने,
"मैंने देखा, सामने उस सड़क के पास ही, एक पेड़ के नीचे, दो लोग हैं! एक औरत और एक मरद!" बोला वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
कुछ देर चुप रहा..
"फिर?'' पूछा मैंने,
"साहब, मैंने देखा, वो औरत उस मरद के ऊपर बैठी थी...आप समझ सकते हैं साहब!" बोला वो,
"अच्छा! बाहर ही?" कहा मैंने,
"जी, अक्सर शराब के नशे में कर देते हैं लोग!" बोला वो,
"तब क्या हुआ?'' पूछा मैंने,
"मैंने सोचा, कोई खलल न हो, लौट ही आएंगे, तो मैं एक तरफ खड़ा हो गया!" बोला वो,
"ताकि कोई जानवर आदि से सावधान कर दो उन्हें!" बोले शहरयार,
"जी साहब!" बोला वो,
"तब?" पूछा मैंने,
''साहब, अब हुआ आधा घंटा, फिर पौने घंटा और फिर एक से ज़्यादा ही!" बोला वो,
"मतलब वे लौटे नहीं?" कहा मैंने,
"जी साहब, तो मैं देखने चला, जब चला और देखा, तो वहां कोई नहीं था!" कहा उसने,
"कोई नहीं था? ठीक है! हो सकता है, वापिस लौट आये हों?" कहा मैंने,
"लेकिन रास्ता तो मेरे सामने से ही है?" बोला वो,
"तब किसी और कॉटेज में गए होंगे?" कहा मैंने,
"नहीं साहब!" बोला वो,
"क्यों?" पूछा मैंने,
"रास्ता एक ही है, और ये नौ नंबर पहले पड़ता है, बाकी इसके साथ ही साथ, पीछे!" बोला वो,
"समझा! इसका मतलब वहां से कोई नहीं लौटा!" कहा मैंने,
"जी साहब!" बोला वो,
"फिर?" पूछा मैंने,
"मैं तो घबरा गया! लौटा फिर अपनी कोठरी में!" बोला वो,
"फिर देखा किसी को?" पूछा मैंने,
"नहीं साहब!" बोला वो,
"उन दोनों को साफ़ साफ़ देखा था?" पूछा मैंने,
"औरत की कमर मेरी तरफ थी, मरद का चेहरा दिखा नहीं, तो कौन थे, ये नहीं कह सकता मैं, दोबारा देखूं भी, तो पहचान नहीं सकता साहब!" बोला वो,
"समझ गया!" कहा मैंने,


   
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मैंने गिलास उठाया और दो घूंट पिए, दो आइस-क्यूब और डाल लिए थे, हिलाया गिलास, बर्फ के टुकड़े गिलास की दीवार से टकराये और एक मधुर ही आवाज़ हुई! मैं अभी उस गार्ड के बताये हुए वाक़ये पर ही ग़ौर कर रहा था!
"क्या आज कोई ठहरा है उस कॉटेज में?" पूछा मैंने,
"नहीं जी!" बोला राजन,
"खाली ही है?'' पूछा मैंने,
"जी!" राजन बोला,
"अच्छा दीपक?" बोले शहरयार,
"जी?" बोला वो,
"ऐसा कुछ कभी दुबारा देखने में आया?" पूछा मैंने,
"मैंने तो नहीं देखा, लेकिन एक लड़की है, उसने कुछ बताया था!" बोला वो,
"क्या?" पूछा मैंने,
"राजन?" बोले शहरयार,
"जी सर?" बोला वो,
"क्या बताया था किसी लड़की ने?'' पूछा उन्होंने,
"वो लड़की, यहां पार्ट-टाइम जॉब करने आती है!" बोला राजन,
"क्या जॉब?" पूछा मैंने,
"जी, मसाज का!" बोले वो,
"अक्सर?" पूछा मैंने,
"ऑन कॉल!" बोले वो,
"यहीं की है?" पूछा मैंने,
"शहर की!" बोला वो,
"क्या नाम है?" पूछा मैंने,
"उसको बेबी कहते हैं हम!" बोला वो,
"ये नाम है?" पूछा मैंने,
"जी!" बोला वो,
"क्या उम्र है?" पूछा शहरयार जी ने,
"होगी कोई चौबीस-पच्चीस की?" बोला वो,
"मसाज करने आती है, मतलब एक्स्ट्रा-इनकम!" बोले शहरयार,
"जी!" बोला वो,
"क़ाबिल-ए-ऐतबार समझा जाए उसे?" पूछा उन्होंने,
"जी, बिलकुल!" बोला राजन,
"तो क्या बताया?" पूछा मैंने,
"उसने बताया कि करीब नौ बजे, रात की बात होगी, उस शाम से बारिश पड़ने लगी थी, और उसे दूर जाना था, मैं घर पर ही था, स्कूटी से आयी थी, भीग जाती अगर जाती, तो उसने मेरे आने का इंतज़ार किया!" बोला वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"तो उसने मसाज का काम निबटा लिया था और कोई काम था नहीं, तो उसने कॉफ़ी मंगवाई, और वहीँ, टेरेस पर, कुर्सी बिछा बैठ गयी!" बोला वो,
"फिर?'' पूछा मैंने,
तभी वे लड़के आ गए, सामान ले आये थे, रख दिया, खाली बर्तन उठा लिए और चले गए वापिस!
"जब वो कॉफ़ी पी रही थी, तब उसने उधर, उस कॉटेज को जाने वाले रास्ते पर एक पुरानी सी गाड़ी जाते देखी!" बोला वो,
"अच्छा?" कहा मैंने,
"जी, अब गाड़ी पुरानी थी, पुराने ज़माने के फ़िएट-पद्मिनी, घीए रंग की, उसने गाड़ी की हेड-लाइट्स जलते देखीं थीं, लेकिन गाड़ी के अंदर अंधेरा था, गाड़ी, बेमतलब ही हॉर्न बजाए जा रही थी!" बोला वो,
"तो गाड़ी चली गयी?" पूछा मैंने,
"जी!" बोला वो,
"तो इसमें क्या?" पूछा मैंने,
"बता रहा हूं गुरु जी!" बोला वो,
''हां, बताइये!" बोला मैं,
"तो बेबी ने सोचा, होगी किसी शौक़ीन की गाड़ी, तो उसने ध्यान नहीं दिया, जैसे ही दाएं देखा, कि वो ही गाड़ी, वो ही गाड़ी अब फिर से आती दिखाई दी!" बोला वो,
"वापिस?" कहा मैंने,
"नहीं गुरु जी! वापिस नहीं!" बोला वो,
"तो?" पूछा मैंने,
"आते हुए, हॉर्न बजाते हुए, वही गाड़ी, फिर से, जा रही थे नज़रों के सामने!" बोला वो,
"अरे?" बोले शहरयार!
"मतलब, जहां से आयी थी, दुबारा आयी, जहां गयी थी, दुबारा गयी!" बोला वो,
"ये भी तो सम्भव है, वो चक्कर लगा रहा हो या फिर किसी दूसरे रास्ते से लौट कर आया हो?" बोला मैं,
"ये तो मुमक़िन ही नहीं!" बोला वो,
"क्यों?" पूछा मैंने,
"रास्ता सिर्फ एक ही है! दूसरा, वो रास्ता आगे जा कर, एक दीवार से बंद है!" बोला वो,
"अच्छा! कमाल है!" कहा मैंने,
"जी!" बोला वो,
"क्या वो गाड़ी, उस समय, किसी और ने देखी थी?" पूछा मैंने,
"नहीं गुरु जी!" बोला वो,
"किसी ने भी नहीं?" पूछा मैंने,
"नहीं!" कहा उसने,
"अब ये तो कमाल है!" बोले शहरयार!
"तो वो गाड़ी लौटी?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोला वो,
"उस लड़की ने नहीं देखी लौटते हुए?" पूछा मैंने,
"नहीं जी!" बोला वो,
"ये गाड़ी, किसी और ने देखी है?" पूछा मैंने,
"मेरी साली ने!" बोला वो,
"साली कहां है?" पूछा मैंने,
"आ जायेगी!" बोला वो,
"बात हो जायेगी?" पूछा मैंने,
"बिलकुल!" बोला वो,
मैंने उठाया गिलास और खत्म कर दिया!
फिर अचानक से ही


   
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श्रीशः उपदंडक
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"लीना घर पर ही है?" पूछा शहरयार ने,
"हां!" बोला वो,
"सबसे पहले उस से बात न की जाए?" बोले मुझे देखते हुए,
"सुझाव अच्छा है!" कहा मैंने,
"क्या कहते हो?" पूछा राजन से,
"जो आप कहें!" बोला वो,
''तो घर पर?" बोले वो,
"ठीक!" कहा उसने,
"वैसे राजन?" कहा मैंने,
"जी?" बोला वो,
"लीना कब आई थी यहां?" पूछा मैंने,
"करीब साल भर हुआ!" बोला वो,
"और ये कॉटेज कब बने?" पूछा मैंने,
"दो साल हुए होंगे!" बताया उसने,
"तब अकेली थी?" पूछा मैंने,
"मैं संग था!" बोला वो,
"उस रात कुछ हुआ?'' पूछा मैंने,
"नहीं!" बोला वो,
"आपको?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोला वो,
"सिर्फ लीना को?" पूछा मैंने,
"हां!" बोला वो,
अब ये नया पेंच!
"नीरज?" कहा मैंने,
"जी?" बोला वो,
"ये क्या?" पूछा मैंने,
"तभी तो समझ नहीं आता!" बोला वो,
"एक काम करता हूं!" बोला मैं,
"आज्ञा!" बोला राजन,
"आज वहीँ ठहरते हैं हम!" कहा मैंने,
"मैं भी?" बोला नीरज,
"क्यों नहीं?" पूछा मैंने,
"उफ्फ्फ्फ़!" बोला वो,
"क्या हुआ?" पूछा मैंने,
"दर्द!" कहा उसने,
"अहसास?" पूछा मैंने,
''हां!" कहा उसने,
"तो हम भी देख लें?" बोला मैं,
"जी उचित है!" बोला वो,
"ठीक है?" पूछा मैंने राजन से,
"बिलकुल!" कहा उसने,
"ठीक फिर!" कहा मैंने,
"दीपक?" बोला वो,
''हां जी?" कहा उसने,
"वो कॉटेज करवा तैय्यार!" कहा उसने,
"अभी!" कहा उसने,
और अपना गिलास उठा कर खत्म किया! साथ में कुछ प्याज ली और चला गया बाहर, नमस्कार करते हुए!
"बिन मरे स्वर्ग नहीं!" कहा मैंने,
"सो तो है!" बोला नीरज,
"तो आज देखते हैं!" कहा उन्होंने,
"कुछ मंगवाऊं?" बोला नीरज हंसते हुए,
"तुझे ज़रूरत हो, तो मंगवा ले!" बोले वो,
"आपको नहीं?" पूछा उसने,
"नहीं!" कहा उन्होंने,
"कहीं मांगो फिर?" बोला नीरज,
"मतलब ही नहीं!" कहा उन्होंने,
"मुझे तो अब गड़बड़ लगती है!" बोला नीरज!
"कैसी?" मैंने तूल दिया बात को!
"कहीं बाग़ सूखा तो नहीं?" बोला नीरज,
"अरे ना!" बोले वो,
"क्या पता?" बोला वो,
"क्यों?" बोले वो,
"हर चीज़ में ना!" बोला वो,
"हम भैय्या ऐसे हैं ही नहीं!" बोले वो,
"ज़्यादा ही हो!" बोला नीरज!
"बनाओ जी!" बोले वो,
अब राजन ने गिलास बनाये, बोतल हो गयी खत्म अब!
"मंगवा लेता हूं!" बोला राजन,
"बिलकुल!" बोले वो,


   
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श्रीशः उपदंडक
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तो दूसरी बोतल भी मंगवा ली गयी! तभी अचानक से एक बात मेरे मन में खटक सी गयी! लेकिन मैंने पूछी नहीं, मैं स्वयं ही देखना चाहता था, देखूं कि क्या वैसा है भी या नहीं?
"ओ नीरज?'' बोले शहरयार,
"जी?" बोला वो,
"वहीँ ठहरा था न?" बोले वो,
"हां!" कहा उसने,
"हम्म्म! मजे लिए?" बोले वो,
"आप भी लेना आज मजे!" बोला वो,
"हम तो लेते ही रहते हैं!" बोले वो,
"ऐसा मजा न लिया होगा!" बोला वो,
"देखते हैं ये भी!" बोले वो,
"ऐसा मजा आएगा कि बस, मजा ही मजा!" बोला नीरज!
"चल, देखते हैं!" कहा उन्होंने,
"और वैसे भी बुराई क्या?'' बोला नीरज,
"क्यों?" पूछा उन्होंने,
"आदमी को मजे में ही रहना चाहिए!" बोला वो,
"सो तो है!" बोले वो,
"राजन?" कहा मैंने,
"जी?" बोला वो,
"कोई और बात?" पूछा मैंने,
"इस बाबत?" बोला वो,
"हां?" कहा मैंने,
"हैं तो!" बोला वो,
"बताओ?" कहा मैंने,
"मुझे कुछ मनगढ़ंत ही लगती हैं!" बोला वो,
"तो रहने दो!" कहा मैंने,
"हां! अब बस!" बोले वो,
"अब हम ही तलाश करते हैं!" कहा मैंने,
"चलो, खाना खाओ पहले अब!" बोले वो,
"ये ठीक!" कहा मैंने,
तो मित्रगण!
हमने खाना खाया, और फिर, रिफ्रेश हो, चल दिए उस कॉटेज नंबर नौ की तरफ! रास्ता बड़ा ही शानदार सा था, छोटी छोटी सी बत्तियां लगी थीं, लेकिन थीं बड़ी ही चमकदार! उनके बाहर लगे कांच वाले जाल को बदरंग कर रखा था कीट पतंगों ने! दोनों ही तरफ, कच्चा सा फुटपाथ बना था! उन पर गोल गोल पत्थर पड़े हुए थे! बढ़िया पेड़ पौधे लगाए गए थे, ताड़ के बड़े बड़े पेड़!
"ये तो बढ़िया लगाए हैं!" कहा मैंने,
"मंगवाए थे!" बोला वो,
"हो गए?'' कहा मैंने,
"देखभाल के बाद!" बोला वो,
"की ही होगी!" कहा मैंने,
"ये चाइनीज़-ट्यूलिप है?" बोले शहरयार,
"जी! थाई!" बोला वो,
"बड़ी शानदार!" बोले वो,
"और ये लेमन-ग्रास!" बोला वो,
"ख़ुश्बू से पता चल गया!" कहा मैंने,
और तभी मैं रुक गया एक जगह!
"क्या हुआ?" बोले वो,
"एक मिनट!" कहा मैंने,
"जी!" बोले वो,
"राजन?" कहा मैंने,
"जी?" बोला वो,
"वहां क्या है?'' पूछा मैंने,
"अब वहां स्टोर-रूम है!" बोला वो,
"पहले क्या था?" पूछा मैंने,
"टूटे-फूटे से मकान जैसे!" बोला वो,
"मकान?" कहा मैंने,
"हां, टूटे हुए से!" बोला वो,
"क्या था वहां कभी?" पूछा मैंने,
"पता नहीं जी!" बोला वो,
"तो ढक दिए गए?" पूछा मैंने,
"मलबा बन गया!" बोला वो,
"यहीं इस्तेमाल हो गया?" पूछा मैंने,
"जी!" बोला वो,
"भराव में!" बोला नीरज,
"और भी हैं क्या?" पूछा मैंने,
"खंडहर?" पूछा उसने,
"हां?" कहा मैंने,
"यहां तो सब साफ़ कर दिए गए!" बोला वो,
"फिर?" कहा मैंने,
"दूसरी तरफ कुछ हैं!" बोला वो,
"ऐसे ही?" बोला मैं,
"हां!" कहा उसने,
"क्या रहा होगा?" पूछा मैंने,
"पता नहीं!" बोला वो,
"कोई मिल?" बोला नीरज,
"यहां कहां मिल?" बोले शहरयार,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"शहरयार जी?" कहा मैंने,
"जी? हुकुम?" बोले वो,
"बात तो सही ही कही नीरज ने!" कहा मैंने,
"मिल वाली?" बोले वो,
"हां, अब मिल न सही, कुछ न कुछ तो है ही!" कहा मैंने,
"अब ये तो देखने से पता चले!" बोले वो,
"लो, आ गए!" बोला नीरज,
मैंने कॉटेज देखा, ऐसा लगता था कि जैसे मैं किसी यूरोपियन गांव के किसी मकान को देख रहा हूं! खपरैल भी शानदार सी बनी थीं! बाक़ायदा डिज़ाइन बने हुए थे, ये दो-मंजिला थी! उसकी खिड़की भी अंग्रेजी शैली कि और प्रवेश-द्वार भी उसी शैली का था!
"ये किसने डिज़ाइन किया?'' पूछा शहरयार ने,
"आर्किटेक्ट?" बोला वो,
"हां!" कहा मैंने,
"एक नया ही था!" बोला वो,
"जान ही फूंक दी!" कहा मैंने,
"सभी ने कहा ऐसा!" बोला वो,
"आ गए साहब?" दीपक आते हुए बोला,
"हां, दीपक!" कहा मैंने,
''आइये साहब!" बोला वो,
"एक मिनट दीपक?" कहा मैंने,
"जी साहब?" पूछा उसने,
''उन औरत-मर्द को कहां देखा था?" पूछा मैंने,
"आइये साहब!" बोला वो,
"चलो!" कहा मैंने,
वो अपनी पैंट दोनों हाथों से पकड़ कर ऊपर खींचते हुए आगे चल पड़ा, हम उसके साथ ही थे! वो एक जगह रुक गया!
"देखिये साहब!" बोला वो,
"क्या?" कहा मैंने,
"यहां से वो, वो है मेरी कोठरी!" बोला वो,
"ठीक!" कहा मैंने,
"उस रात मैं वहीँ था!" बोला वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"और यहां, यहां आइये!" बोला वो,
''चलो!" कहा मैंने,
वो सड़क के दूसरी तरफ ले चला हमें, और रुक गया, सामने बड़े बड़े से पेड़ लगे थे, हवा सर्द सी आ रही थी वहां से!
"ये है वो जगह!" बोला वो,
वो एक पेड़ था, काफी बड़ा, उसके नीचे घास भी नहीं थी, बस कुछ पत्थर से पड़े थे गोल गोल से!
"यहां?" पूछा मैंने,
"जी साहब!" बोला वो,
"उधर, अंदर क्या है?" पूछा मैंने,
"तालाब!" बोला वो,
"प्राकृतिक?" पूछा मैंने,
वो नहीं समझा! कन्नी सी काट गया!
"नहीं जी, बनवाया हुआ!" बोला राजन,
"इस जगह के साथ ही?" पूछा मैंने,
"जी!" बोला वो,
"स्विमिंग के लिए?" पूछा मैंने,
"सोचा तो यही था!" बोला वो,
"फिर?" पूछा मैंने,
"फिर दूसरी जगह बनाना पड़ा, वो आगे है!" बोला वो,
"ये क्यों नहीं?" पूछा मैंने,
"एक तो पेड़ बहुत हैं, उनके पत्ते आदि, फिर यहां कीड़े-मकौड़े, सांप आदि!" बोला वो,
"समझा!" कहा मैंने,
"उधर ऐसा नहीं!" बोला वो,
"ठीक!" कहा मैंने,
"अब इस तालाब में कुछ मछलियां हैं!" कहा उसने,
"मत्स्य-पालन?" कहा मैंने,
"हां, छोटा सा!" बोला वो,
"ताज़ा मछली, ये कहो!" बोले शहरयार!
"जी!" बोला वो,
"तो कल खिलाओ मच्छी-फ्राई!" बोले वो,
"क्यों नहीं!" बोला वो,
"आओ, कॉटेज चलें!" कहा मैंने,
''जी!" बोला वो,
और हम कॉटेज में अंदर चले! फूलों की ख़ुश्बू ने मन पर डोरे डाले! मस्माती सी ख़ुश्बू थी!
"रात की रानी?" कहा मैंने,
"जी!" बोला वो,
"और मांधव!" कहा मैंने,
''वाह!" बोला नीरज!
"क्या हुआ!" पूछा मैंने हंसते हुए!
"बहुत ज्ञान है फूलों का!" बोला वो,
''प्रकृति का!" बोले शहरयार!
"हां, वही!" बोला वो,
"लाजवाब ख़ुश्बू है!" कहा मैंने,
''आइये!" बोला राजन,
''चलिए!" कहा मैंने,
और हम अंदर की तरफ आ गए थे, खूबसूरत जगह थी बहुत!


   
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श्रीशः उपदंडक
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अंदर आये तो सीढ़ी चढ़े! मैंने नीचे बने हुए कमरों को देखा था, फिलहाल में तो ताला लगा था और हम, वहां नहीं ठहरने वाले थे, ये पक्का था!
"नीचे क्या है?" पूछा मैंने,
"ऐसे ही दो कमरे हैं!" बोला राजन,
"वहीँ ठहरते हैं?" पूछा मैंने,
"हां, ब्रेक-फ़ास्ट, लंच और डिनर के लिए है एक, एक मेक-अप रूम है, वार्डरोब भी है!" बोला वो,
"अच्छा, तो बेड-रूम ऊपर है!" कहा मैंने,
"जी हां!" बोला वो,
और आ गए हम ऊपर! बेहद ही करीने से सजाया गया था ये कॉटेज! हर चीज़ भेद ही सजावटी तरीके से रखी गयी थी यहां! पूरा किसी घर का सा ही पुट सा दिया गया था, जिसे हम अक्सर लुक कहते हैं!
इसी तरह हमने, बेड-रूम में प्रवेश किया! ये कमरा करीब बीस गुणा पंद्रह फ़ीट का रहा होगा, बेड भी आलीशान सा था, सामान्य से काफी बड़ा, बिस्तर पर चढ़ने के लिए, लकड़ी की सीढ़ियां सी बनाई गयी थीं, सामने दीवार पर, कामुक से चित्र लगे थे, कुछ फूलों के भी, और बायीं दीवार पर एक बड़ी सी खिड़की थी, खिड़की नीले रंग के झीने से पर्दों से ढकी गयी थी, खिड़की के ऊपर भी दो कामुक मूर्तियां सी रखी थीं, ये काम-मुद्रा में थीं! दायीं दीवार पर एक बड़ी सी घड़ी लगी थी, और जो, गोल से शीशे लगे थे, छत पर, शानदार पीले रंग की आभा देता बड़ा सा कांच लगा था, जो बिस्तर पर लेटे हुए को, पूरा का पूरा नुमाया करता था! ये कुछ कुछ जापानी अंदाज़ का सा शीशा था! कुर्सियां वही, इटालियन स्टाइल की, मेज़ भी वैसी और सारा 'ज़रूरी' सामान भी वहीँ रखा जाता होगा, ऐसा मुझे लगा!
"कमरा है या काम-प्रासाद!" बोले शहरयार!
"क्या करें साहब!" बोला राजन,
"मतलब सोया भी खड़ा हो जाए!" बोले वो,
"नींद ही कहां आये!" बोला नीरज,
मेरी हंसी छूट गयी! भयानक मज़ाक़ चलने वाला था, मैंने रोड़ा रोक लिया उन्हें, न नीरज कम और न ही शहरयार जी कम!
"मतलब खेल से ही तेल!" बोले वो,
''हैं?" कहा मैंने,
"खेल से ही तेल!" बोले वो,
"तिल से तेल तो सुना था?" कहा मैंने,
"वो तिल थे!" बोले वो,
"और ये खेल!" बोला नीरज,
"खेल!" कहा मैंने,
"जी!" बोले वो,
"खेलो खेलो!" कहा मैंने,
"हम तो रिटायर्ड हैं!" बोले शहरयार,
"रिटायर्ड-हर्ट?" बोला नीरज,
"रिटायर्ड-बर्स्ट!" बोले वो,
"बर्स्ट?" पूछा मैंने,
''हां जी!" बोले वो,
"हवा निकल गयी सर जी की!" बोला नीरज,
"दवा लो?" बोला मैं,
"ज़रूरत नहीं!" बोले वो,
"दबा लो?" बोला नीरज,
"ना! जान ना है!" बोले वो,
"जान बनाओ?" बोला नीरज,
"आप बनाओ!" कहा उन्होंने,
"आजमाओ!" बोले वो,
"तरस खाओ!" बोले वो,
"शहरयार जी?" कहा मैंने,
"साहब?" बोले वो,
"हो जाए यार!" कहा मैंने,
"क्या?" चौंके वो,
"दिखा दो!" कहा मैंने,
''अमा क्या?'' बोले वो,
"ज़ोर-आजमाइश!" कहा मैंने,
"किस पे?" बोले वो,
"बुलवाऊं?" बोला नीरज!
"ओहो!" बोले वो,
"क्या हुआ?" पूछा मैंने,
"समझ गया!" बोले वो,
"ठीक फिर!" कहा मैंने,
"मंगवा ही लूं! आज जी बेईमान सा है!" बोला नीरज,
"राजन?" बोले वो,
"जी सर!" बोला हंसते हुए वो,
"इसको दूसरे कॉटेज में पहुंचा दो!" बोले वो,
"यहीं रहने दो, आप मैं और वो दो!" बोला नीरज!
''चढ़ गयी क्या?" बोले वो,
''हां!" बोला वो,
"उतारनी है?" बोले वो,
"हां!" कहा उसने,
"तो पतनाले से क्यों!" बोले वो,
"क्या? पतनाला?" बोला मैं, हंसी छूट पड़ी!
"इसे दर्द हुआ,झूठ!" बोले वो,
''आप देख लेना आज, बता देना सच!" बोला वो,
''होगा ही क्यों?" बोले वो,
"पानी लाया साहब!" बोला दीपक, पानी लाते हुए,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"हां दीपक, लाओ!" कहा मैंने,
उसने पानी दिया, मैंने बोतल खोली पानी की, और चार-पांच घूंट पानी गटक लिया, फिर सभी ने थोड़ा थोड़ा पानी पिया!
"छत पर क्या है?" पूछा मैंने,
"कुछ नहीं!" बोला राजन,
"खाली?" पूछा मैंने,
"जी!" बोला वो,
"ठीक, तो आज की रात हम यहीं ठहरते हैं!" कहा मैंने,
"जी!" बोला राजन,
"दूसरा कमरा खुला है?" पूछा शहरयार ने,
"हां जी!" बोला वो,
"फिर ठीक!" बोले वो,
"तो नीरज जी?" बोले वो,
"जी साहब?" बोले वो,
"हम और गुरु जी तो रहें यहां, आप पहुंचो कमरे में दूसरे, आनंद लेने!" बोले वो,
"मैं तो चलूंगा!" बोला राजन,
"कहां?" पूछा मैंने,
"जी, ऑफिस!" बोला वो,
"कोई और नहीं?" पूछा मैंने,
"आज मैनेजर नहीं आएगा!" बोला वो,
"तो आप तो रहोगे?" पूछा उन्होंने,
"जी!" बोला वो,
"कोई बात हो तो?" बोले वो,
"दीपक है नीचे, और दूर कमरे में फ़ोन भी है!" बोला वो,
"फिर ठीक!" कहा उन्होंने,
"कहो तो भिजवाऊं कुछ?" बोला राजन,
"अरे अब कुछ नहीं!" कहा मैंने,
"बीयर्स?'' बोला वो,
"चलो! ठीक!" कहा मैंने,
"और राजन?" बोला नीरज,
"हां?" कहा उसने,
"होगी कोई?" बोला वो,
"आदेश करो!" बोला वो,
"नहीं नहीं!" बोले शहरयार,
"क्या हुआ?" पूछा मैंने,
"ये वाहियात काम नहीं!" बोले वो,
"हम थोड़े ही मुब्तिला होंगे?" कहा मैंने,
"ये भी नहीं होगा!" बोले वो,
"जैसी मर्ज़ी!" कहा नीरज ने,
"कल देख लेना, ज़्यादा ही इच्छा हो तो, हम घूमेंगे कल!" बोले वो,
"और मैं?" बोला नीरज,
"जी चलता हूं, प्रणाम! गुड नाईट!" बोला राजन,
"शुभ रात्रि!" कहा मैंने,
और वो चला गया, रह गए हम तीन ही अब!
"अबे एक बात बता?" बोले वो नीरज से,
"हां जी?" बोला वो,
"ज़्यादा करंट है?'' बोले वो,
वो हंस पड़ा, मैं भी!
"बोल?" बोले वो,
"मज़ाक़ किया!" कहा उसने,
"तेरी मज़ाक़ ठहरी और हमारा काम खराब!" बोले वो,
"कैसे?" बोले वो,
"भिगो मति भली, नमी तो मारे है!" बोले वो,
अब मैं हंसा! नीरज भी!
"वैसे शहरयार जी?" कहा मैंने,
'जी?" बोले वो,
"इस बार हो ही जाए?" कहा मैंने,
"आपका जी है?" बोले वो,
"आपका नहीं?" बोला मैं,
"क़तई नहीं!" बोले वो,
"तब क्या फायदा!" बोला मैं,
"अरे साहब! हमाम में सब नंगे!" बोला नीरज!
"हम नहीं!" बोले वो,
"साहब?" आयी आवाज़,
"हां दीपक?" कहा मैंने,
''ये सामान?" बोला वो,
"फ्रिज में रख दो!" कहा मैंने,
"ठंडा है!" बोला वो,
''ले आओ फिर!" कहा मैंने,
वो ले आया बीयर्स उधर! गॉडफादर बियर थी, बड़े वाली!
"एक ही खोलो पहले!" बोले शहरयार,
"हां, ये ठीक!" कहा मैंने,
और बांट ली हमने,
"आ हां!" बोले शहरयार!
"मजेदार!" कहा मैंने,
"सुपर-चिल्ड!" बोला नीरज!
"बीयर तो ठंडी में ही मजा आता है!" बोले वो,
''और उसमें?" बोला नीरज!
मैं उठ पड़ा! बीयर का घूंट जो मुंह में था, झट से निगल लिया और हंस पड़ा! इतनी संजीदगी से पूछा था कि 'बहरा' भी सुन ले! शहरयार जी भी हंस पड़े! रोक नहीं पाए और घूंट भरा फिर


   
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श्रीशः उपदंडक
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"ये नहीं माने!" बोले शहरयार जी!
"अब बता भी दो उसे?" कहा मैंने,
"ये सब जाने है!" बोले वो,
"उसने पूछा, आप जवाब दो?" कहा मैंने,
"क्या पूछा? हैं बे?" बोले वो,
"कि वो, ठंडी या गर्म?" बोला नीरज, हंसते हुए, शब्दों को जोड़ते हुए!
"गरम!" बोले वो,
''वाह!" बोला नीरज,
"और क्या ऐसे ही समझे हो इन्हें?" बोला मैं,
"बताओ, क्या समझ रहा है!" बोले वो,
"हो गए आप पास!" बोला नीरज,
"शुक्र है!" बोले वो,
तो जी, हंसते हुए, बातें करते हुए, हमने रात के साढ़े बारह बजा दिए! और फिर आ गयी नींद! कब क्या हुआ पता नहीं! तड़के ही नींद खुली! पहले शहरयार उठे, फिर मैं, और फिर नीरज!
"सब ठीक?" कहा मैंने,
"सब का सब!" बोले वो,
"मैं भी!" कहा मैंने,
"और मेरा भी सब ठीक!" बोला नीरज,
"कुछ नहीं हुआ?" कहा मैंने,
"कुछ भी नहीं!" बोले वो,
"कुछ महसूस हुआ?" बोला नीरज,
"चींटी भी न रेंगी!" कहा उन्होंने,
"यही है!" कहा मैंने,
"कमाल है!" बोला वो,
"कुछ भी नहीं?" बोला मैं,
"सब ठीक!" कहा नीरज ने,
तो अब ये तो अजीब ही बात थी, कि कुछ भी नहीं हुआ था, लेकिन उसकी कुछ वजह भी हो सकती थी!
खैर, हम फारिग हुए, नहाये-धोये और चाय-नाश्ता भी कर लिया! राजन भी आ ही गया था! उसको भी सब बताया, उसे भी हैरानी ही हुई!
"आपके डर से तो नहीं?" बोला राजन,
"नहीं?" कहा मैंने,
"डर तो तब हो जब कुछ करें!" बोले वो,
"तब भी नहीं?" बोला नीरज,
"नहीं!" कहा मैंने,
"सब ठीक हो गया इसका मतलब?" बोला वो,
"ये तो अच्छा ही रहेगा!" बोले वो,
"एक मिनट!" कहा मैंने,
"जी?" बोला राजन,
"शहरयार जी?" कहा मैंने,
"जी?" बोले वो,
"आज चढ़ जाओ घोड़ी!" कहा मैंने,
"घोड़ी?" बोले वो,
"हां?" कहा मैंने,
"क्यों जी?" बोले वो,
"अरे इनका मतलब आज घुड़सवार बन जाओ!" बोला नीरज,
"मैं ही मिला हूं?" बोले वो,
"तो?" बोला मैं,
"मैं ही क्यों?" बोले वो,
"आप अच्छा बता पाओगे!" कहा मैंने,
"न बता पाया तो?" बोले वो,
"तब समझ जाएंगे हम!" कहा मैंने,
"क्यों करवाते हो?" बोले वो,
"तब ठीक है!" कहा मैंने,
"आदेश?" बोले वो,
"नीरज?" कहा मैंने,
"जी?" बोला वो,
"आज किसी को बुलाओ!" कहा मैंने,
"पक्का!" बोला वो,
"मैं ठहरूंगा उधर!" कहा मैंने,
"हम?" बोले वो,
''आप नीचे मंज़िल पर!" कहा मैंने,
"ये ठीक है!" बोले वो,
"ठीक, पक्का रहा!" कहा मैंने,
"जी, आदेश!" बोला नीरज,
"तो आज ज़रा आसपास निगाह मारी जाए?" बोले वो,
"हां, ये ठीक है!" कहा मैंने,
"आप कुछ खा-पी लें पहले!" बोला राजन,


   
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श्रीशः उपदंडक
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 तो हम चारों घूमने निकल पड़े! यहां के छोटे छोटे मंदिर, आशीर्वादों की खान कहे जाते हैं, कुछ ऐसे देवी एवं देवतायें हैं, जिनके बारे में मुख्यधारा में प्रचलित देवी-देवताओं में उल्लेख ही नहीं है! ये मंदिर बहुत ही सुंदर एवं सुसज्जित होते हैं, मुख्यतः कोई पंडा-पुजारी नहीं होता, आप मन से कामना कीजिये और यही पूजन विधि भी है! ताल, तालाब आदि तो बेहतरीन हैं यहां! प्रकृति की अनुपम छटा यहीं दीखती है!
"मैं जानता था!" बोले वो,
"क्या?'' कहा मैंने,
"यही कि आप ही आगे बढ़ोगे!" बोले वो,
"आप भी तो?" कहा मैंने,
"हां, परन्तु कच्चा सदैव पकने की राह देखता है" बोले वो,
"ये तो है!" कहा मैंने,
"कुछ लोग, धन के पीछे पड़, उसकी चकाचौंध की चमक में आ, अपनी ज़रूरतों को पूरा करने में, पका होने का नाटक कर दिया करते हैं! आप बखूबी..................!" बोले वो,
"हां, जानता हूं!" कहा मैंने,
"तो झूठ कभी नहीं पकता!" बोले वो,
"हां!" कहा मैंने,
"जो चाहते हैं, हटा दिए जाते हैं!" बोले वो,
"सच ही कहा!" कहा मैंने,
"खैर छोड़िये, उनकी करनी उनके साथ, हमारे दंड हमारे साथ!" बोले वो,
"यही सोचता हूं!" कहा मैंने,
तो हमारी गाड़ी अब भागी जा रही थी, ये जगह कुछ शहर से अलग है, सुना है यहां लोगबाग दूर से आया करते हैं, शायद पूजा आदि के लिए, लेकिन मित्रगण, बहुत ही दुःख की बात तो ये है, कि ऐसे पावन जगहों को भी आज के मनुष्य ने नहीं छोड़ा! यहां भी एय्याशी और ऐसे ही कुकृत्य! यहां भी वही सब! कहा जाए कि एकांत ही ढूंढने आये हैं तो कोई गलत नहीं होगा ऐसा कहना!
''गुरु जी?" बोला नीरज,
"हां?" कहा मैंने,
"एक मिनट!" बोला वो,
"एकांत में?' पूछा मैंने,
"जी!" बोला वो,
"आओ!" कहा मैंने,
और हम एक तरफ जा कर खड़े हो गए!
"बताओ?" बोला मैं,
"उम्र क्या हो?" बोला वो,
"अच्छा, अरे यार!" कहा मैंने,
"बताओ न आप?" बोला वो,
"सुनो, मुझे कुछ करना नहीं है!" कहा मैंने,
''कब क्या हो जाए?" बोला वो,
"ये मेरे बस में है!" कहा मैंने,
"बताओ तो आप?" बोला वो,
"जो मर्ज़ी, लेकिन समझदार, डरे नहीं, साहस हो!" कहा मैंने,
"ठीक! लेकिन ये पहाड़न तो डरपोक बहुत हैं!" बोला वो,
"बताओ मत!" कहा मैंने,
"ठीक है!" बोला वो,
और हम आ गए वहां से!
"कर दिया जुगाड़?" बोले शहरयार,
"कैसा जुगाड़?" बोला नीरज,
"रात का जुगाड़?" बोले वो,
"पीने का?" बोला वो,
"नहीं, सीने का!" बोले वो,
''अरे बाप रे!" बोला नीरज!
"क्या हुआ?" पूछा मैंने,
"ये तो मुझे चरित्रहीन करवा के छोड़ेंगे!" बोला नीरज!
मुझे हंसी आ गयी!
"हां, सब जुगाड़!" बोला वो,
"समझ गया था, ठरकी महाशय!" बोले वो,
"ठरकी?" बोला वो,
"हां, ठरकी!" बोले वो,
"तो कोई बुरी बात है?" बोला नीरज,
"ना!" बोले वो,
"फिर?'' बोला नीरज,
"फ़ख्र की बात है!" बोले वो,
"अब दो मतलब हैं इस शब्द के!" बोला नीरज,
"जो मर्ज़ी ले यार!" बोले वो,
"लो साहब!" आया राजन,
गाड़ी एक जगह रुक गयी थी हमारी! शहरयार जी दौड़ा रहे थे उसको! राजन उतर कर एक होटल में चला गया था!
"बीयर्स!" बोला मैं!
"हां जी!" बोला राजन!


   
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श्रीशः उपदंडक
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हमने बीयर्स का भरपूर आनंद लिया! वहां कुछ विदेशी पर्यटक भी मौजूद थे, वे भी सभी वहां मजे ही ले रहे थे, लेकिन यहां मुझे, गांजे की महक़ आ रही थी, अवश्य ही यहां कहीं गांजे का सेवन हो रहा था! अकसर ये विदेशी लोग भी ऐसा ही किया करते हैं, इनके लिए ये स्वर्ग जैसा ही होता हे!
"गांजा चढ़ा रहा हे कोई!" बोले शहरयार,
"हां, आसपास ही!" कहा मैंने,
"यहां तो बहुत मिल जाएंगे!" बोला राजन,
''चौतरफा नशा ही नशा!" कहा मैंने,
"आप भी तो लगाते होंगे?" बोला नीरज,
"बहुत लगाई!" कहा मैंने,
"लगाओगे?" बोला वो,
"नहीं यार!" कहा मैंने,
"कोई वजह?" बोला वो,
''हां!" कहा मैंने,
"क्या जी?" बोला वो,
"ये श्मशानी नशा है!" कहा मैंने,
"मसानी!" बोले शहरयार!
''अरे बाप रे!" बोला वो,
"गांजे के सेवन से, अंडकोष सख्त हो जाते हैं, थकावट नहीं होती, काम-रसिका बनाता है ये और स्तम्भन करता है!" कहा मैंने,
"सख्त मायने?" बोला वो,
''मायने, दर्दरहित!" कहा मैंने,
"हैं?" चौंक के पूछा उसने,
"हां!" बोले शहरयार!
"ये तो पता ही नहीं था!" बोला राजन,
"होता भी तो क्या होता?" पूछा उन्होंने,
''एक दो चिलम का घूंट हम भी भर लेते!" बोला नीरज!
"एक घूंट में ही उड़ जाएगा! गुब्बारा बन जाएगा!" बोले वो,
'हैं?" बोला वो,
"हां, कोई होश नहीं रहेगा!" बोले वो,
"आओ चलें!" कहा मैंने,
"चलो जी!" बोला नीरज,
और गाड़ी में बैठ हम फिर से चल पड़े, अब वापिस ही जाना था, भूख लगी थी ज़ोरों से! और फिर बीयर पी अब बदन भी ज़रा लोचदार हो चला था, बेहतर यही था कि भोजन किया जाए और फिर कुछ आराम, जो कुछ आसपास था, वो भी देख आना था!
तो हम पहुंच गए उधर! हाथ-मुंह धोये और खाना खाने बैठ गए!
"अब तो भूख लगी है!" बोले वो,
"सही बात है!" कहा मैंने,
"बस अभी लगता है!" बोला राजन,
"अभी चलें उधर?" पूछा मैंने,
"खाना खा कर, थोड़ा आराम करेंगे!" बोले वो,
"ठीक!" कहा मैंने,
"लो जी!" बोला राजन,
खाना लगवा दिया गया! दाल, राजमा, चावल, रोटियां, पापड़, सलाद वाह भाई वाह! देखा जाए तो हमारी बहुत ज़बरदस्त ही दावत हो रही थी यहां! और क्या चाहिए था!
"कुछ लगवाऊं क्या?" 
"हां जी?" पूछ मैंने शहरयार से,
"आप बताओ?" बोले वो,
'ले लो!" कहा मैंने,
"हां!" कहा उन्होंने!
"ज़्यादा भीम नहीं!" कहा मैंने,
"हां, हल्का सा ही!" बोले वो,
आ गया सामान, और हमने एक एक अच्छा सा खींच लिया! अब नींद बढ़िया आ ही जानी थी!
"आओ जी!" बोले वो,
"चलो साहब!" बोला नीरज!
और हम, अब एक अच्छे से सूट में आ गए! आराम से लेट गए और फिर कब आंख लग गयी नहीं पता चला!
शाम से कुछ पहले....
"उठो?" बोले शहरयार!
"क्या है?" पूछा मैंने,
"सुबह हुई!" बोले वो,
"सुबह?" मैं हड़बड़ा के उठा!
"शाम होने को है!" बोले वो हंसते हुए!
"लो जी!" कहा मैंने,
"अरे बहुत सोये हम तो!" बोले वो,


   
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