"ये साया?" कहा मैंने,
"यही तो?" कहा उन्होंने,
"ये हमज़ाद नहीं!" कहा मैंने,
"कैसे?" बोले वो,
"शहह!" कहा मैंने,
और उनकी बाजू पकड़, ले चला ज़रा सा पीछे, धीरे धीरे!
"सामने देखते रहना!" कहा मैंने,
"ठीक" बोले वो,
सहम गए थे वो, इतना करीब से कभी ऐसा खेल देखा था उन्होंने! भले ही ऐसे मामलों में उन्होंने अच्छी जानकारी जुटाई हो, लेकिन आज साबका पहली बार ही पड़ा था!
"हे मेरे ईश्वर!" बोले वो,
"श्ह्ह्ह्ह्! एक हरक़त अलग और सब खत्म!" कहा मैंने,
"ओफ्फ्फ्फ्फ्फ्.....वो देखो?" बोले वो,
और जो मैंने देखा, वो तो बड़ा ही हौलनाक था! उस सीढ़ी के ऊपर, जो नीचे से ऊपर की तरफ आती थी, उसकी छत में से काला धुंआ निकल रहा था, एक नहीं कई जगहों से! और उन जगहों में से, हाथ निकलते थे, इंसानों के! अब भला कोई ऐसा क्यों करता? जिन्न तो ऐसे मामलात से दूर ही रहते हैं, वे खून पसंद नहीं होते, तो कौन हे ये?
"ये?" बोले वो,
"आप यहीं रहना!" कहा मैंने,
और मैं आगे बढ़ा, आया सीढ़ियों तक! जैसे ही आया, तो धुंआ बंद! सारा खेल ही बंद! ये तो कमाल ही था! मैं नीचे झुका और मिट्टी उठायी, थोड़ी सी हाथ में आई, एक मंत्र पढ़ा और अपना कंठ-माल, अपने हाथ में पकड़ा! और फेंक दी मिट्टी, फू करते हुए! भड़ाम-भड़ाम की सी तेज आवाज़ हुई! और पल भर में सब समाप्त हो गया! मैंने कुछ पल, इंतज़ार किया और फिर, बुलाया उनको!
'आओ?" कहा मैंने,
"अब बंद?" बोले वो,
'हाँ" कहा मैंने,
"ये है क्या?" बोले वो,
"ये कुछ अलग ही है!" कहा मैंने,
"ख़ौफनाक है बहुत!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
और तभी सीढ़ियों पर चढ़ने की आवाज़ आई, हम पीछे हटे, जो आया, वो दर्शन लाल जी थे!
"ले आया हूँ कीलें" बोले वो,
"ठीक, ये दे दो मुझे और एक हथौड़ी ले आओ!" बोला मैं,
"हाँ" बोले वो,
और चले गए नीचे, कीलें दे कर मुझे!
"आप कीलन करो" बोले वो,
"हाँ" कहा मैंने,
"इसे तो सजा देनी चाहिए" बोले वो,
"रुकिए" कहा मैंने,
और टोक दिया उन्हें!
इतने में दर्शन लाल जी ले आये हथौड़ी!
"ये लीजिए!" बोले वो,
अब आप दोनों नीचे बैठिए, मैं आता हूँ" कहा मैंने,
"जी" बोले वो,
और चले गए नीचे!
अब मैंने एक मुट्ठी कीलें लीं, और कीं अभिमंत्रित! और फिर एक एक कील, कुछ कुछ दूर ही, गाड़ता चला गया! ये कीलन था, कोई भेड़े तो खबर मुझे लग जाती!
मुझे बीस मिनट लगे, और पूरा घर कील दिया! फिर नीचे आ गया, हाथ धोए, फिर पानी पिया!
फिर मैं साथ में बैठा उनके!
"क्या आज रात, हम यहां ठहर सकते हैं?" पूछा मैंने,
"क्यों नहीं?' बोले दर्शन लाल जी,
"ये ठीक है" कहा मैंने,
"हमारी भी हिम्मत बंध जायेगी" बोले वो,
"ठीक" कहा मैंने,
"और हाँ, आज रचिता को, यहां सुलाइए" कहा मैंने,
"माँ के साथ?" बोले वो,
"हाँ" कहा मैंने,
"जी" बोले वो,
''आइये" बोले वो,
"जी" कहा मैंने,
ले आये एक कमरे में,
"ये नितिन का कमरा है" बोले वो,
"ठीक" कहा मैंने,
"ये ठीक रहेगा?" बोले वो,
"हाँ" कहा मैंने,
"जी" बोले वो,
मित्रगण!
अब देर नहीं करनी थी मुझे! तो मैंने उस कमरे को चाकबंद किया सबसे पहले! शहरयार साहब कुछ असहज हो गए थे, यहां सुरक्षित रहते!
"कैसा भयानक मंजर था" बोले वो,
"ये तो शुरुआत है!" कहा मैंने,
''आपकी हिम्मत है!" बोले वो,
"बनानी पड़ती है!" कहा मैंने,
"कोई हो, तो मर ही जाए!" बोले वो,
"मानता हूँ" कहा मैंने,
"आ जाऊं?" बोले दर्शन लाल जी,
"हाँ जी" कहा मैंने,
"ये चाय ले लीजिए!" बोले वो,
"लाइए" बोले शहरयार साहब! ली और एक कप मुझे दिया!
"आइये, बैठिए दर्शन जी" बोले शहरयार जी!
वे बैठ गए थे वहीं साथ में ही, मायूस से, उन्हें मैंने कुछ नहीं बताया था, नहीं तो वो सच में ही बेहद डर जाते, और पता नहीं, कहीं इसी सोच में तनावग्रस्त हो, बीमार ही न पड़ जाते!
"वैसे क्या लगता है?" पूछा उन्होंने,
"कल सुबह सब बता दूंगा!" कहा मैंने,
"जी, जी!" बोले वो,
"रचिता है कमरे में?" पूछा मैंने,
"जी, है" बोले वो,
"ज़रा ले चलिए?" कहा मैंने,
''ज़रूर" बोले वो,
और मुझे ले चले वे, मैं बैठ गया वहीँ, रचिता भी बैठी हुई थी, काम कर रही थी कुछ कंप्यूटर में अपने! मुझे देख, बंद कर दिया, पिता जी चले गए वापिस!
"रचिता?" कहा मैंने,
"जी?" बोली वो,
"उसने तुमको अभी तक, देखा जाए तो चेताया है, है न?" पूछा मैंने,
"हाँ" बोली वो,
"मतलब उसने नहीं चाहा कि तुम्हारा कोई नुकसान हो!" कहा मैंने,
"हाँ यही!" बोली वो,
"पिता जी को दुर्घटना से बचाया!" कहा मैंने,
"जी" बोली वो,
'और कभी सामने नहीं आया?" बोल मैं,
"हाँ" बोली वो,
"वो लड़की ही है?" पूछा मैंने,
"नहीं कह सकती" बोली वो,
"क्यों?" पूछा मैंने,
"वो तुम्बा?" बोली वो,
"हाँ! ये तो सोचा ही नहीं!" कहा मैंने,
"वो बड़ा ही अजीब था!" बोली वो,
"उसने भी तो ख़ैरियत ही पूछी न?" कहा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
"कोई हमसाये की तरह साथ है तुम्हारे!" कहा मैंने,
"लगता है मुझे!" बोली वो,
"लेकिन वो है कौन?" पूछा मैंने,
"नहीं पता" बोली वो,
"कब सोती हो?" पूछा मैंने,
"करीब दस, साढ़े दस?" बोली वो,
"कहीं जाती तो नहीं?" पूछा मैंने,
"मतलब?" बोली वो,
"पानी वग़ैरह?' पूछा मैंने,
"नहीं, पानी भरा होता है" बोली वो,
'और ख़्वाब दो बजे आते हैं?" पूछा मैंने,
"कभी भी" बोली वो,
"इसका मतलब, उसकी आमद, ख़्वाब से होती है!" कहा मैंने,
"हाँ, नयी घटना के लिए!" बोली वो,
"एक काम करो!" बोल मैं,
"क्या?" पूछा उसने,
"हाथ-मुंह धो कर आओ!" कहा मैंने,
''अभी" बोली वो,
वो गई तो मैंने झट से, एक वस्तु उसके बिस्तर में पैंताए की तरफ अंदर रख दी! अब देखें क्या ख़्वाब आता है!
वो आ गई, हाथ-मुंह धो कर, पोंछते हुए!
'एक कागज़ और एक पैन दो" कहा मैंने,
"अभी" बोली वो,
उसने दे दिया मुझे, अब मैंने उस पर एक रुक्का लिखा! उसको आठ जगह फाड़ा एक एक टुकड़ा, उसके चेहरे पर मारा, कुछ पढ़ते हुए!
"ठीक है, आराम करो" बोला मैं,
"जी" बोली वो,
और मैं बाहर आ गया! सीधा अपने कमरे में!
"रख दिया?" बोले वो,
''हाँ!" कहा मैंने,
उनको बता दिया था कि करना क्या है मुझे!
"ठीक!" बोले वो,
"अब ज़रा खेल देखो!" कहा मैंने,
"समझ गया!" बोले वो,
खाना खा कर हम अपने कमरे में आ गए थे, रचिता ने खाना खाया था, थोड़ा सा ही, उसका बदन गरम होने लगा था, जैसे बुखार सा हो रहा हो! ये उस रुक्के की वजह से था! वो चली गई, करीब दस बजे ही!
और हम, अपने कमरे में!
अब नींद किसे आनी थी!
"चाल तो ज़रूरी है!" बोले वो,
"बेहद!" कहा मैंने,
''अब कोई तो आएगा?" बोले वो,
"बिलकुल!" कहा मैंने,
"तो बस!" बोले वो,
"हाँ" कहा मैंने,
उसके बाद, कुछ नींद ली मैंने, शहरयार भी सो ही गए थे!
ठीक एक बजे से कुछ पहले........
फूंकनी इस्तेमाल हो रही हो, चूल्हे पर, ऐसी आवाज़ हुई! मेरी नींद खुली! मैंने शहरयार को जगाया!
"सुनो?" बोला मैं,
"हाँ?" बोले वो,
"ध्यान से सुनो?" कहा मैंने,
"ये क्या है?" पूछा उन्होंने,
"आमद!" बोला मैं,
वो झट से खड़े हो गए!
"कहाँ?" पूछा उन्होंने,
"रचिता के कमरे में!" कहा मैंने,
"बीजना सा बज रहा है?" बोले वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
"फिर?" बोले वो,
"फूंकनी!" कहा मैंने,
"ओह..समझा!" बोले वो,
जैसे ही..........................!!
जिन्न की जब जब आमद हुआ करती है किसी जगह पर, जैसे कि ये घर, उधर, अक्सर, रात के वक़्त, तो आवाज़ हुआ करती है, एक कीलन के पश्चात! इसे वो जिन्न पकड़ नहीं सकता! ये इल्म उस से ज़रा दूर है! ये आमद की पहचान कर लेता है! अब फूंकनी की आवाज़ का आना, ये तस्दीक़ कर ही चुका था कि ये जिन्न ही है, उसी का खेल है! लेकिन ये जो भी जिन्न था, बेहद ही चालाक, शातिर और नायाब किस्म का था! आमतौर पर जिन्न अपना वजूद खुद ही बता दिया करता है! लेकिन इसने ऐसा नहीं किया था! या तो ये एक सोचा-समझा खेल था, या फिर, ये कोई मंझा हुआ खिलाड़ी था!
"आवाज़ कुछ अजीब सी है?" बोले वो,
"हाँ, अजीब ही है!" कहा मैंने,
"ये फूंकनी क्यों?" बोले वो,
"हवा में से रिसना!" कहा मैंने,
"ओह, समझा!" बोले वो,
"ये इसी कीलन से बींधने लगा है!" कहा मैंने,
"इस से कोई नुकसान उस लड़की को?" पूछा उन्होंने,
"नहीं" कहा मैंने,
"ये अब पहुंचेगा उधर?'' बोले वो,
"हाँ, लेकिन कैसे! ये देखना है!" कहा मैंने,
"समझा!" बोले वो,
"आप यहीं रहना ज़रा!" कहा मैंने,
"मैं नहीं चलूँ?" बोले वो,
"नहीं" कहा मैंने,
"जी, ठीक" बोले वो,
मैं उठा, और उस दरवाज़े को हल्का सा खोला, बाहर तो धुंध सी जमा थी! हल्का सा धुआं फैला था हर जगह! हैरत की बात ये, कि कोई सर्दी नहीं थी! मैं बाहर आया कमरे से, आहिस्ता से, चला ज़रा रचिता के कमरे की तरफ! और एक साथ ही, वो धुंध सी, इकट्ठी हो, चली एक तरफ! मेरे आजू-बाजू से गुजर गई पल भर में ही! मैं कुछ समझ ही न सका इतने में तो सब साफ़ हो गया था! हाँ, उधर लगे वो दो एल.ई.डी. बल्ब, ज़रूर धुंध खा बैठे थे, कुछ ही देर में, बूंदें जमने वाली थीं उन पर!
मैं आगे आये, और ठिठक कर रुक गया! रचिता के कमरे में से, न सिर्फ एक तेज महक़ उठ रही थी, बल्कि रौशनी सी भी फैली थी, ये रौशनी बिदकती हो बार बार, ऐसी लगती थी, जैसे किसी दीये की रौशनी अंत में, ज़ोर ज़ोर से फड़फड़ाती है, ठीक वैसे! जैसे उस कमरे में आग लगी हो कहीं! ये सब जिन्नाती खेल हैं! ये रौशनी उनमे से ही निकला करती है! अब साफ़ था कि उस कमरे में ज़रूर ही कोई न कोई जिन्न मौजूद था!
अब कुछ कर-गुजरने का ही वक़्त था! मैंने फौरन ही वो रास्ता बंद करने के लिए जैसे ही इल्म की शुरुआत की कि मेरे ऊपर से एक ज़ोरदार गर्म सी हवा गुजर गई! मैं लड़खड़ा गया! पीछे गिर पड़ता! मेरे चेहरे पर से जैसे कोई मशाल गुजार दी हो! और वो जो कोई भी था, शातिर जिन्न निकल गया था!
और फिर, सबकुछ शांत हो गया!
मैंने सम्भाला अपने आपको, मेरे कपड़े अभी तक गरम थे, और ये भी, कि रचिता ने शुरु ही कुछ न कुछ तो देखा ही होगा, उसके ख़्वाब में! इसीलिए, मैं पलटा वापिस, शहरयार साहब को साथ लिया, और दरवाज़े पर दस्तक दी दर्शन जी के, दरवाज़ा खुला और दर्शन जी बाहर आये,
"जी?" बोले वो,
"बाकी बातें बाद में, आप रचिता को उठाइए!" कहा मैंने,
"जी!" बोले वो,
दरवाज़ा भेड़ दिया वापिस, कुरता ठीक किया और चले हमारे साथ फिर, रचिता के कमरे पर दस्तक दी! कोई हरक़त न हुई अंदर से! कई बार नाम लिया, फिर भी दरवाज़ा न खुला! अब तो हवाइयां उड़ने लगीं उनके चेहरे पर! और सच पूछो तो मैं भी घबरा ही गया था! कि पता नहीं, रचिता के साथ हुआ क्या? जिन्न किसी की भी रूह को साथ ले जाने का माद्दा रखते हैं! बस यही एक डर था मेरे अंदर!
तो मैंने भी रचिता का दरवाज़ा पीटा! कुछ देर बाद, अंदर से आवाज़ आई!
"पापा?" ये रचिता थी,
अब कुछ राहत की साँसें लीं हमने!
"बेटी, दरवाज़ा खोल?" बोले वो,
"अभी पापा!" बोली वो,
और उसने दरवाज़ा खोल दिया! वो सही-सलामत थी!
"इतनी देर क्यों?" पूछा उन्होंने,
"बाथरूम गई थी" बोली वो,
"अच्छा, रचिता, कुछ बात करनी है तुमसे" कहा मैंने,
"जी?" बोली वो,
अब उन दोनों को मैंने वहीँ खड़े रहने को कहा, और खुद कमरे में चला गया, दरवाज़ा बंद करवा दिया फिर! और बैठ गया!
"रचिता?" कहा मैंने,
"जी?" बोली वो,
"कोई ख़्वाब आया था?" पूछा मैंने,
"नहीं तो?" बोली वो,
"कोई साथ में था?" पूछा मैंने,
"नहीं? क्यों?" पूछा उसने,
"सही सो रही थीं?" पूछा मैंने,
"हाँ?" बोली वो,
"कोई दिक्कत?" पूछा मैंने,
"नहीं तो?" बोली वो,
"कुछ भी अजीब नहीं?" पूछा मैंने,
"नहीं" बोली वो,
अब मैं हैरान था!
ये तो बड़ी ही अजीब सी बात थी!
सच में मैं, बड़ा ही हैरान! मैंने ऐसा जिन्न न देखा था! न देखा था और न सुना ही था! कमाल इस बात का, कि वो इज़हार भी नहीं कर रहा था! न खुद सामने ही आ रहा था! कीलन होने के बावजूद भी उसकी आमद हुई थी! हिम्मत वाला ही नहीं, माहिर मिजाज़ का जिन्न था! अगर, सामने आ जाता तो मैं पहचान लेता उसे! लेकिन न सामने ही आया था और न ही कुछ और ही निशानी दी थी! मैं तो सच में ही कायल होने को था इस जिन्न का!
"रचिता?" पूछा मैंने,
"जी?" कहा उसने,
"ज़िंदगी में कभी कभी ऐसा भी होता है कि जिसकी हम उम्मीद नहीं करते, वो हो जाता है, और जिसकी उम्मीद करते हैं, वो होकर भी नहीं हो पाता, मतलब, नहीं पूरी होती उम्मीद!" कहा मैंने,
"हाँ जी, होता है!" बोली वो,
"समझ सकती हो न?'' कहा मैंने,
"जी, बखूबी!" बोली वो,
मैंने एक गिलास पानी माँगा, पानी दिया मुझे और मैंने पानी पिया! रख दिया गिलास नीचे, उसने माँगा और मैंने, उठाकर, दे दिया उसे!
"शुक्रिया" कहा मैंने,
"कोई बात नहीं" बोली वो,
"क्या कभी कुछ ऐसा हुआ कि कोई दैविक मदद हुई हो तुम्हारी?" पूछा मैंने,
"दैविक?" बोली वो,
"मतलब, जो न हो सकता हो, हुआ हो?" कहा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
मुझे हुई हैरानी! जैसे यही से उस कुंजी को ढूंढने का रास्ता दिखा था! जैसे, यही था वो छिपा हुआ पहलू!
"क्या हुआ था?' पूछा मैंने,
"याद है मुझे!" बोली वो,
"बताओ ज़रा?" पूछा मैंने,
"आज से करीब छह महीने पहले की बात होगी, जहाँ मेरा कोचिंग-सेंटर है न?" बोली वो,
"हाँ?" कहा मैंने,
"आपने देखा भी होगा, अक्सर ही उधर नए नए निर्माण होते रहते हैं!" बोली वो,
"हाँ, अभी भी हो रहा है उधर!" कहा मैंने,
"तो हमारे कोचिंग-सेंटर के पास, एक साइबर-कैफ़े था, अब बंद हो गया है" बोली वो,
"अच्छा" कहा मैंने,
"उसका ही निर्माण चल रहा था, एक दिन शाम को जब मैं लौट रही थी तब....!!" वो रुकी! रुकी क्योंकि छत से एक ज़ोर की आवाज़ आई थी! जैसे छत ही फट गई हो! ये आवाज़ उसने तो क्या, सभी ने सुनी थी! हम सभी, एक जगह इकट्ठे हो गए थे उस समय! सभी घबराए हुए थे, लेकिन मैं जानता था कि कुछ बताने से रोक दिया गया है रचिता को! और इसका मतलब यही था, कि रास्ता यहीं से खुलता था!
"ये क्या था?" माँ ने पूछा,
"कुछ नहीं, आप अपने कमरे में जाओ!" कहा मैंने,
"दर्शन जी? आप भी" बोले शहरयार जी,
"जी" बोले वो,
"रचिता?'' कहा मैंने,
"जी?" बोली वो,
"तुम भी, इनके साथ जाओ" कहा मैंने,
"ये है क्या?" पूछा उसने,
"छोड़ो तुम, जाओ अभी" कहा मैंने,
"आ रचिता?' बोलीं माँ,
"हाँ" कहा उसने,
और चल पड़ी उनके साथ ही,
"शहरयार जी?" कहा मैंने,
"जी गुरु जी?" बोले वो,
"आओ" कहा मैंने,
"चलिए!" बोले वो,
''अब नहीं घबराना!" कहा मैंने,
"जी!" बोले वो,
"छत तो खुली है?'' पूछा मैंने,
"हाँ, खुली ही छोड़ी थी" बोले वो,
''आओ ज़रा!" कहा मैंने,
"चलिए" बोले वो,
हम एक साथ ही चले थे, सीढ़ियां चढ़े, ऊपर का दरवाज़ा खुला था! और छत पर, एक बड़ा सा पेड़, झुक गया था, ये सफेदे का पेड़ था, वो झुका था ऐसे, जैसे किसी ने उसको धक्का मार कर, झुका दिया हो!
"इसके पास नहीं जाना!" कहा मैंने,
"हाँ" बोले वो,
"कौन है?'' चिल्लाया मैं,
कोई नहीं आया!
"सामने आओ?" कहा मैंने,
"नहीं आया कोई भी!
"बहुत हो गया तेरा खेल, अब बस!" कहा मैंने,
मैंने जैसे ही कहा, कि पेड़, उठा और उठ कर, पत्ते गिराता हुआ, सीधा खड़ा हो गया! पत्ते हम तक पहुंचने लगे!
"आओ सामने?' चीखा मैं!
सन्नाटा!
कोई नहीं था!
हाँ, पास की खिड़की में से लाइट नज़र आने लगी थी! कोई उठ गया था, देख तो पा नहीं रहा होगा, क्योंकि पेड़ घने थे!
''वो देखना?" बोले शहरयार जी!
सामने, ठीक सामने, कोई जैसे लेटा था! ठुड्डी के नीचे दोनों हाथ रखे, एक मूर्ति की तरह से खामोश! हाँ, आँखें चमक रही थीं उसकी! खौफनाक सी आँखें थीं! करीब पंद्रह फ़ीट दूर! उसके पाँव, हवा में उठे हुए थे, इधर-उधर हिलते थे! लेकिन सर नहीं हिलता था उसका, न हाथ ही!
"कौन है वहां?'' पूछा मैंने,
कोई उत्तर नहीं, हाँ उसने जैसे पलकें पीटीं!
"बताओ?"" कहा मैंने,
एक हंसी सी गूंजी! हल्की सी!
"मैं आ रहा हूँ!" कहा मैंने,
और मैं, बढ़ चला आगे, उसकी तरफ!
मैं आहिस्ता से आगे बढ़ता चला! हैरत ये, कि उसमे कोई हरकत नहीं! कमाल की बात थी! एक जिन्न, एक आलिम से ख़ौफ़ न खाये, ये अलग बात लेकिन, ग़ौर ही न करें, ये सबसे अहम बात! बला की शय पेश हुई थी इस बार तो!
जैसे ही मैं आगे बढ़ा, छत की बॉउंड्री की तरफ से एक झोंका सा आया, धूल भरा सा, मेरी आँखों में, धूल भर उठी, जब आँखें खोलीं तो वो शय, सामने न थी! वो हवा में जैसे, उसी अवस्था में टंग गई थी! कम से कम, छह फ़ीट!
"कौन हो तुम?" पूछा मैंने,
उसने तब सर उठाया अपना, और ज़ोर का एक झटका खाया! और दूर, ऊपर हवा में उड़ती चली गई! मैं तो सन्न रह गया! क्या तेजी थी उसमे! आँखों से ओझल ही हो गई थी वो तो! इस तरह के खेल खेल रही थी वो मुझ से!
न सामने ही आये पूरी तरह और न छिपे ही पूरी तरह! क्या चाहती है, पता नहीं, क्या मंसूबा है, पता नहीं!
"कौन है ये?'' पूछा शहरयार जी ने,
"हमज़ाद नहीं है!" कहा मैंने,
"कैसे?" बोले वो,
"उसकी आँखों में आतिश नूर नहीं होती!" कहा मैंने,
"फिर?'' पूछा उन्होंने,
''काली होती हैं, इंसानों की तरह, हाँ रूप बदले तो बात अलग है!" कहा मैंने,
"तो ये जिन्न है कोई?" बोले वो,
"यकीन से कह सकता हूँ!" कहा मैंने,
"क्या चाहता है?'' पूछा उन्होंने,
"यही तो नहीं पता!" कहा मैंने,
"कैसे पता चले?'' बोले वो,
"यही सोच रहा हूँ" कहा मैंने,
"क्या तातार से कोई मदद?" बोले वो,
"नहीं" कहा मैंने,
"क्या हरज़ा?" पूछा उन्होंने,
"भिड़ंत!" कहा मैंने,
''अंजाम?" बोले वो,
"ये तो मुझे भी नहीं पता!" कहा मैंने,
"सामने औरत है!" बोले वो,
"ज़रूरी नहीं!" कहा मैंने,
"क्या मुसीबत है?" बोले वो,
'यही तो!" कहा मैंने,
"अब?" बोले वो,
"देखते रहो बस!" कहा मैंने,
"क्या एक काम हो सकता है?" बोले वो,
"क्या?'' बोले वो,
"एक बात कहूं?" बोले वो,
"हाँ ज़रूर!" कहा मैंने,
"ये तो है कि कोई, या ये शय, इस लड़की की हिफाज़त कर रही है?" बोले वो,
"हाँ?" कहा मैंने,
सही जा रहे थे शहरयार साहब! ये मैं पहले ही सोच चुका था!
"अगर...?" बोले वो,
"क्या?" पूछा मैंने,
"अगर लड़की को, डाला जाए, किसी......अ......." बोलते बोलते ज़रा सा हिचके!
"बोलिए?'' कहा मैंने,
''छोटा मुंह बड़ी बात न हो जाए?" बोले वो,
"अरे नहीं, बोलिए!" कहा मैंने,
"मेरा मतलब था, किसी खतरे में तो?" बोले वो,
"ठीक!! यही!" कहा मैंने,
"समझा नहीं?" बोले वो,
"मैंने यही सोचा था!" कहा मैंने,
"यानि शिकार का शिकार!" बोले वो,
"यक़ीनन!" कहा मैंने,
"और है भी ठीक!" बोले वो,
'हाँ!" कहा मैंने,
"बात बन जायेगी फिर!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
'वो आएगा हिफाज़त के लिए!" बोले वो,
"आना ही होगा!" कहा मैंने,
"तो घुमा दो चकरी!" कहा उन्होंने,
"यही करना होगा!" कहा मैंने,
"रास्ता भी तो नहीं?" बोले वो,
"हाँ, सिर्फ यही!" कहा मैंने,
तभी, हमारे ऊपर आकर कुछ टकराया! मैंने ऊपर देखा! आजू-बाजू! कोई नहीं, ऊपर, पीछे, कोई नहीं!
"ये क्या है?" बोले वो,
"उठाओ?" कहा मैंने,
वे झुके और उठाया उसे! देखा ग़ौर से,
"अब ये क्या है?" पूछा उन्होंने,
"दिखाओ?" कहा मैंने,
उन्होंने मुझे दिखाया, मैंने लिया!
"ये तो सुतली की पूड़ी सो लगती है!" बोले वो,
"कोई परिंदा तो नहीं डाल गया?" बोले वो,
"अरे नहीं!" कहा मैंने,
"हाँ इस वक़्त परिंदे कहाँ?" बोले वो,
मैंने उस सुतली की पूड़ी को, हिला-हिला के देखा, कुछ भी नहीं! खोलना चाहा तो खुले नहीं!
"कोई जिन्नाती कीज़ दीखै!" बोले वो,
''लगता है!" कहा मैंने,
अचानक से हाथ खुला मेरा और वो सुतली की पूड़ी, हवा में ये जा और वो जा! ऊपर जा, आग लग गई उसमे! ख़ाक़ भी उड़ती ही चली गई!
"हैं?" बोले वो,
"ओह! समझा!" कहा मैंने,
"क्या?" बोले वो,
"हो जाओ तैयार!" कहा मैंने!
"तैय्यार?" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"वो कैसे जी?" बोले वो,
"गया हमारा पता!" कहा मैंने,
"पता?" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"कैसा पता?'' बोले वो,
"हमारी थाह!" कहा मैंने,
"अरे! कैसे?'' बोले वो,
"वो पूड़ी, सूंघ ले गई हमारी!" कहा मैंने,
"ओफ़्फ़ ओ!" बोले वो,
"देख लो आप!" कहा मैंने,
''तो अब?'' बोले वो,
"अब? आमने सामने!" कहा मैंने,
"वो और हम?" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"कुछ कुछ समझा मैं!" बोले वो,
"पूरा समझ जाओगे!" कहा मैंने,
"कैसे?' बोले वो,
"देखो!" कहा मैंने,
"और तब, एक जिन्नाती सरदार का रुक्का पढ़ा मैंने! ज़मीन पर, ऊँगली से एक घेरा काढ़ा! और फिर इल्म पढ़ा! इसको, ज़मी'ज़ू कहा जाता है! इस इल्म को हम, प्रत्यक्ष-क्रिया, हाज़िरी-रोज कह सकते हैं!
''आओ!" कहा मैंने,
"घेरे में?'' बोले वो,
"हाँ, आ जाओ, नहीं तो जबड़ा भी फुक जाएगा!" कहा मैंने,
वे झट से अंदर आये!
"इतनी आतिश?'' बोले वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
"तो?'' बोले वो,
"जिन्नाती सरदार का जलाल!" कहा मैंने,
''बैठ जाओ!" कहा मैंने,
वे बैठ गए नीचे!
"अब देखो आप खेल!" कहा मैंने,
मैंने इल्म का रुक्का पढ़ा, हजफ किया, और फिर, अपनी बड़ी ऊँगली के पीछे की हड्डी, ज़मीन से छुआई, बार बार पढ़ता और छुआता!
कुल पच्चीस या तीस मिनट गुजरे होंगे कि! आवाज़ें आने लगीं! आवाज़ें! हल्की-हल्की, धीमी धीमी सी!
"ये कैसी आवाज़ है?'' फुसफुसा के बोले वो,
"शहहह...सुनते जाओ!" कहा मैंने,
आवाज़ फिर से आई! कोई बालक रो रहा था! बार बार! कोई, कच्च की सी आवाज़ करता और बालक हंसने लगता, किलकारी मार!
"ये खेल है?'' पूछा उन्होंने,
"हाँ, खतरनाक खेल" कहा मैंने,
फिर आवाज़, बंद हो गई एकदम!
और कुछ ही पलों के बाद, फिर से आवाज़ आने लगी! अब जो ये आवाज़ सुनी तो मेरे तो होश ही उड़े! शहरयार साहब तो पत्थर से बन गए!
"आज तो बच गई!"
"ऊपर आ गिरता तो?"
"लगी तो नहीं?"
"ओह, शुक्र है भगवान का!"
"पुण्य किये होंगे, जो मौत छू भी न पायी!"
फिर से सन्नाटा!
"रचिता?"
"बताया क्यों नहीं?"
आवाज़, फिर से ग़ुम!
"बताया क्यों नहीं?"
"ओह....मैं तो मर ही जाती..."
"कुछ नहीं हुआ!"
"हो जाता तो?"
"ध्यान कहाँ रहता है?"
"छुड़ा दूँ? बंद कर दूँ?"
फिर से ग़ुम! कुछ पलों के लिए!
"ओह....पता चला...ठीक हो न?"
"हुआ क्या था?"
"बंद करवाया?"
"बात की?"
ओह...मेरे भगवान, तेरा लाख लाख शुकर!"
और आवाज़ें, फिर से ग़ुम!
"ये सब?......?" बोलते बोलते रुके वो,
"हाँ, उन्हीं जाउंगी"
"कहा न? नहीं जाउंगी?"
"नैंसी ने बताया मुझे तो?"
"ओ लड़की?"
"क्या करती हो तुम?"
"मुझे क्या पता था?"
आवाज़ें फिर से गायब!
क्या अजीब सा खेल था! मेरे अंदाज़े से उलट!
"गायब?" बोले वो,
"हाँ, शायद" कहा मैंने,
"ये रचिता, उसके पिता जी, माँ है न?" बोले वो,
"हाँ, अशोक जी, उनकी पत्नी भी!" कहा मैंने,
"इसका क्या मतलब हुआ?" बोले वो,
"कुछ समझाया किसी ने!" कहा मैंने,
"क्या?" बोले वो,
"रुको ज़रा!" कहा मैंने,
और फिर से, ऊँगली टकरा दी ज़मीन से!
मैंने एक बार नहीं, कई बार टकराई ऊँगली! पर लगता था कि वो अब जा चुका है, वैसे भी सुबह होने में अब कुछ ही देर रह गई थी! मैंने इल्म वापिस लिया, शुक्रिया अता किया और फिर खड़ा हो गया!
"आओ!" कहा मैंने,
"खत्म?" बोले वो,
"हाँ" कहा मैंने,
"क्या पता चला?'' पूछा उन्होंने,
"मुझे चल गया पता!" कहा मैंने,
"बताइए?" बोले वो,
"अभी समझ जाओगे!" कहा मैंने,
"इन आवाज़ों से?'' बोले वो,
"हाँ, जो जानना था, सो जान लिया!" कहा मैंने,
"क्या?" पूछा उन्होंने,
"यही कि ये जिन्न....!" कहा मैंने, और रुका!
"हाँ, ये जिन्न?" बोले वो,
"ये जिन्न वैसा नहीं जैसा हमने अंदाजा लगाया था!" कहा मैंने,
"मतलब?" बोले वो,
"ये आशिक़ नहीं रचिता पर!" कहा मैंने,
"कैसे?'' बोले वो,
"अगर शुरू से ही देखो, तो उसने ऐसा कुछ किया ही नहीं!" कहा मैंने,
"मतलब, सामने नहीं आया?" बोले वो,
"हाँ, उसने न डराया ही कभी!" कहा मैंने,
"लेकिन उसने उन दोनों को पीटा, एक की जान भी ली!" बोले वो,
"पीटा इसलिए कि उनसे ये जिन्न, नहीं चाहता था, मिलना उस रचिता का!" कहा मैंने,
"और जान?'' बोले वो,
"सम्भव है, बाबा की नीयत न साफ़ हो?" कहा मैंने,
"हाँ, ये हो सकता है!" बोले वो,
"और फिर, उसने हमें भी जांचा!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
"उसने फिर, जांच कर, हमें कुछ बताया!" कहा मैंने,
"वो क्या?" पूछा उन्होंने,
"जान बचाई रचिता की!" कहा मैंने,
"कैसे?' चौंक कर पूछा उन्होंने,
"आओ, बताता हूँ!" कहा मैंने,
"नीचे?" बोले वो,
"हाँ" कहा मैंने,
और हम, नीचे उतरे! जैसे ही आये, दर्शन लाल जी मिले, वे न सोये थे!
"कुछ पता चला?'' बोले वो,
"हाँ" कहा मैंने,
"क्या है?'' पूछा उन्होंने,
"डरने की ज़रूरत नहीं!" कहा मैंने,
मेरी ये बात थोड़ी अजीब सी लगी उन्हें, समझ नहीं पाये!
"रचिता कहाँ है?'' पूछा मैंने,
"वो सो गई है" बोले वो,
"सुला दी गई है!" कहा मैंने,
"क्या? जगाऊँ?" बोले वो,
"नहीं" कहा मैंने,
"नहीं?" बोले वो,
''सुबह बात करते हैं!" कहा मैंने,
"कहो तो जगा देता हूँ?" बोले वो,
"नहीं" कहा मैंने,
"जी" बोले वो,
"ठीक है, आप भी सोइए" कहा मैंने,
"नींद कहां आती है?" बोले वो,
"मैंने कह रहा हूँ, आराम कीजिये!" कहा मैंने,
"नहीं आती नींद" बोले वो,
"कोशिश करें" कहा मैंने,
"जी, कुछ चाय आदि?" बोले वो,
"नहीं, बाद में, सुबह ही!" कहा मैंने,
"जी" बोले वो,
और हम अपने कमरे में लौट आये! मैं लेट गया था सोफे पर! शहरयार साहब कुर्सी पर बैठ चुके थे!
"ऐसे भी हैं?" बोले वो,
"बहुत" कहा मैंने,
"मैंने तो कुछ और ही सुना?" बोले वो,
"बिगड़ैलों की कहानी ही बाहर आती है!" कहा मैंने,
"ये भी है!" बोले वो,
"अब सो जाइये" कहा मैंने,
"हाँ, थक गए!" बोले वो,
"अब सुबह सबकुछ साफ़ हो जाएगा!" कहा मैंने,
"मुझे तो इंतज़ार है!" बोले वो,
"देखिये सुबह!" कहा मैंने,
"वैसे खुराफ़ाती तो है!" बोले वो,
"वो तो फितरत है!" कहा मैंने,
"डरा क्यों रहा था?" बोले वो,
"जांच रहा था!" बोला मैं,
"चलो जी!" बोले वो,
"उसकी जांच में हम, अव्वल उतरे!
"सुबह पता चले!" बोले वो,
"जैसा मैंने सोचा है, तब तो कोई बात नहीं!" कहा मैंने,
''और जो न हो तो?'' बोले वो,
"तब तो इसकी थाह मैं लूंगा!" कहा मैंने,
"हाँ जी!" बोले वो,
"लेकिन मुझे तो यही लगता है!" कहा मैंने,
"जैसा सोचा है?" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने, लेटते हुए, अब बिस्तर पर!
खैर, अब कुछ ही घंटों की बात थी, सुबह होती, थोड़ी देह की अलकत दूर होती तो हम कुछ पूछताछ करते रचिता से! अगर सबकुछ मेरे सोचे मुताबिक़ ही रहे, तब तो कोई दिक्कत थी ही नहीं और अगर न रहे, तब तो मेहनत करनी ही थी!
सो साहब!
सुबह तो कब की बीती, जब आँखें खुलीं तो नौ से ज़्यादा का वक़्त था, हाथ-मुंह धोए, दर्शन जी से बातें हुईं, उन्होंने चाय-नाश्ते का प्रबंध करवाया, परांठे, आलू और गोभी के, मक्खन और दही! अब भूख न भी लगी तो, तो भी लग ही जाए! लीला जी, उत्तर प्रदेश की हैं तो मोटे मोटे परांठे बनाए थे उन्होंने! अदरक घिस, पुदीना घिस, अजवाइन डाल, बढ़िया लज़ीज़ परांठे बनाए थे! दही के साथ तो मजा ही बंध गया! मैंने तो तीन भांज लिए और शहरयार साहब ने, देहाती तरीके से, चार तो कम से कम लील ही लिए होंगे! और फिर अदरक वाली चाय! गाढ़े दूध की चाय! मजा ही आ गया था, देहाती खाने की सी महक़ आ रही थी, देसी खाने की अब बात ही अलग है! इसका भला क्या मुक़ाबला और कौन सानी! अब शहरी लोगों को नसीब ही नहीं ऐसा खाना! हर चीज़ बनावटी, किसी में वसा का डर, कोलेस्ट्रॉल का डर और पता नहीं क्या क्या! अब देसी घी खाओगे तो उसे हज़म करने को हाज़मा और हाज़मे में दुरुस्त रखने के लिए, मेहनत ज़रूरी है! अब मेहनत करो मत, किलोमीटर तो दूर लगे बहुत! पैदल चलो मत! तो भाई साहब, मर्ज़ तो बनेगा ही!
चलो जी, चाय-नाश्ता हो गया! हाथ-मुंह साफ़ क्र, आराम करने बैठे, उस दिन रचिता को कोचिंग-सेंटर जाने से मना कर दिया था दर्शन जी ने, तो जब हम फ़ारिग़-फुरीग हो लिए, तब मैंने रचिता को बुलाया! रचिता आ गई थी, पीले रंग के सूट में, उस दिन सुंदर लग रही थी बहुत वो!
"आओ रचिता!" कहा मैंने,
"जी!" बोली वो,
"काम की बात करते हैं!" कहा मैंने,
"ज़रूर!" बोली वो,
"कल तुम मुझे कुछ बताते बताते रुक गईं थी, कुछ आवाज़ हुई थी उसकी वजह से, बात पूरी नहीं ही पायी थी, वो क्या बात थी?" पूछा मैंने,
"हाँ, मैं कह रही थी कि आप तो जानते हैं, वहां निर्माण-कार्य चलता ही रहता है!" बोली वो,
"हाँ, देखा मैंने" कहा मैंने,
"हमारे साथ ही एक चार-मंजिला इमारत भी है, याद होगा?" बोली वो,
"हाँ, लगभग तैयार ही है" कहा मैंने,
"कोई छह महीने पहले की बात होगी ये" बोली वो,
''अच्छा" कहा मैंने,
"दिन के कोई चार बजे थे, उस दिन मैं चार बजे ही घर के लिए निकल पड़ी थी, अंजू आई नहीं थी, रजनी को काम से जाना था, कोई ज़रूरी काम था नहीं, तो निकल पड़ी थी!" बोली वो,
''अच्छा" कहा मैंने,
"मैं उस रोज जब निकली, तब उस इमारत पर, ऊपर की मंजिल पर, बाहर की तरफ, प्लास्टर का काम हो रहा था, टाइल्स लगानी थी उन्हें!" बोली वो,
''अच्छा, फिर?" पूछा मैंने,
'आपने देखा ही होगा, अक्सर मिस्त्री लोग, मज़दूर आदि, बांस की बल्लियों पर, फट्टे फंसा कर, बाहर की तरफ से प्लास्टर करते हैं!" बोली वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"उस रोज भी काम चल रहा था, लेकिन उधर दो ही आदमी थे, मसाला बन रहा था, कि अचानक, ऊपर की मंजिल से टिकी वो बल्लियां न जाने कैसे खुलीं, और पूरा फट्टे का वो खांचा नीचे गिरने लगा! मुझे शोर सुनाई दिया, कि हटो हटो! मैं समझी कुछ नहीं, और अचानक ही, वो मेरे ऊपर आ कर गिरे! लेकिन कमाल हुआ! उन फट्टों को जैसे किसी ने हवा में ही बिखेर दिया था! जो मेरे ऊपर गिरे, मेरे आसपास, वो दिरफ वो खांचा ही था, जिसमे, मैं खड़ी थी बीचोंबीच! हाँ, मेरी स्कूटी की गद्दी पर ज़रूर खरोंच सी लगी थीं, और कुछ नहीं!" बोली वो,
अब ये बात सुन, मुझे हुई हैरानी!
ऐसा कैसे सम्भव है? कीलों से ठुके वो फट्टे, हवा में, एक एक करके, कैसे अलग हो गए? और जो गिरे उसके ऊपर, वो सिर्फ खांचा? उन फट्टों का? शायद...शायद! शायद यहीं से शुरुआत हुई थी इस खेल की! किसी ने उसे बचाया था! ऐन वक़्त पर! ऐन वक़्त पर? लेकिन उसे कैसे पता था? वो ऐन वक़्त पर ही क्यों आया? कहीं कोई छिपा हुआ खेल तो नहीं ये?
"तो सभी के मुंह से हैरानी के शब्द निकले!" बोली वो!
''लाज़मी है! कुछ ऐसे?" कहा मैंने,
"आज तो बच गई!"
"ऊपर आ गिरता तो?"
"लगी तो नहीं?"
"ओह, शुक्र है भगवान का!"
"पुण्य किये होंगे, जो मौत छू भी न पायी!"
फिर से सन्नाटा!
"यही न? मैंने पूछा!
"हाँ! ऐसे नहीं, ये ही!" बोली वो,
''उसके बाद, जब पिता जी को बताया, माँ को, चाचा जी को, चाची जी को, ततो सभी ने डाँट मारी होगी!" कहा मैंने!
"बहुत!" बोली वो,
"पिता जी ने कहा होगा, छुड़वा दूँ वहाँ जाना?" बोला मैं,
"जी! जी यही!" बोली वो!
"बंद करवा दूँ जाना? यही न?" कहा मैंने,
"हाँ! यही बोला था!" कहा उन्होंने,
"समझा मैं!" कहा मैंने,
"क्या?" बोली वो!
"समझा दूंगा रचिता!" कहा मैंने,
"मुझे बताइए न?'' बोली वो,
"बस, अब ज़्यादा नहीं!" कहा मैंने,
"मुझे, बेचैनी है बहुत!" बोली वो,
"समझ सकता हूँ!" कहा मैंने,
"बता दीजिये?" बोली वो,
"बस आज ही, सम्भव हुआ तो!" कहा मैंने,
"कोई गलत चक्कर है क्या?" पूछा उनसे,
"बिलकुल भी नहीं!" कहा मैंने,
"यही लगता है मुझे भी!" कहा उसने,
"सही लगता है!" कहा मैंने,
"क्या मैं उसको देख सकती हूँ?" बोली वो,
बड़ा ही मुश्किल सवाल!
"नहीं" कहा मैंने,
"क्यों?'' बोली वो,
"वो नहीं चाहता!" बोला मैं,
"कैसे?" पूछा उसने,
"नहीं तो, आता सामने तुम्हारे!" बोला मैं,
"तो आया क्यों नहीं?" बोली वो,
"क्योंकि वो नहीं चाहता!" कहा मैंने,
''अगर मैं चाहूँ तो?" बोली वो,
"कोशिश कर लो!" कहा मैंने,
"बुलाऊँ?" बोली वो,
"बुलाओ!" कहा मैंने,
"किस नाम से?" पूछा उसने,
"नाम की ज़रूरत नहीं!" कहा मैंने,
"फिर?" बोली वो,
"सिर्फ याद करो!" कहा मैंने,
"कैसे?" पूछा उसने,
"उस तुम्बे वाले को याद कर, उस लड़की को याद कर!" कहा मैंने,
"करती हूँ!" बोली वो,
"करो!" कहा मैंने,
वो अपने पाँव ऊपर कर, बैठ गई, और आँखें कर लीं बंद! करने लगी याद उसे! उसने कुछ कुछ बोला भी, लेकिन दस मिनट की कोशिश के बाद भी कोई नहीं आया!
"एक बात कहूं?" बोली वो,
"हाँ?" कहा मैंने,
"हो सकता है, आपके मारे न आ रहा हो?'' बोली वो,
"समझा!" कहा मैंने, और उठ गया!
"ठीक है" बोली मुस्कुरा कर!
"जैसे मर्ज़ी याद करना!" कहा मैंने,
"हम्म" बोली वो,
"मैं आता हूँ पंद्रह मिनट के बाद!" बोला मैं,
और चला आया बाहर! मुझे यक़ीन ही नहीं, ऐतबार था, कि उसे कुछ नहीं होगा! जो उस लड़की की हिफाज़त कर रहा है, वो नुक़सान नहीं करेगा! ये तो साफ़ ही था! और अगर आ ही जाए तो भी मेरा ही फायदा था, कम से कम रु-ब-रु तो हो जाता!
मैं बाहर खड़ा रहा, कुल बीस मिनट, फिर अंदर आया!
"रचिता?" कहा मैंने,
"हाँ?' बोली वो,
"कोई आया?'' पूछा मैंने,
"नहीं" बोली वो,
"कुछ सुनाई दिया?" पूछा मैंने,
"नहीं" बोली वो,
"सबकुछ कहा?" पूछा मैंने,
"हाँ" बोली वो,
"कोई आहट भी नहीं?" पूछा मैंने,
"नहीं" बोली वो,
अब मैं हंसा!
"समझीं अब?'' कहा मैंने,
"क्या?'' बोली वो,
"यही कि वो ऐसे नहीं आएगा!" बोला मैं,
"लेकिन क्यों?" बोली वो,
"क्योंकि वो न तो आशिक़ है और न रजू तुम पर!" कहा मैंने,
"और जो होता?" बोली वो,
"तब माज़रा ही दूसरा होता!" कहा मैंने,
"कैसे?'' बोली वो,
"तुमसे बात करना भी मुश्किल होता!" कहा मैंने,
"समझी" बोली वो,
"अब देखो!" कहा मैंने,
"क्या?' बोली वो,
"मैं बुलाऊंगा उसे!" कहा मैंने,
"मैं देखूंगी?" बोली वो,
"अगर उसने चाहा तो!" कहा मैंने,
"अगर आप कहोगे तो?" बोली वो,
"वो कोई गुलाम नहीं!" कहा मैंने,
"क्या?" पूछा उसने,
"मैं भी बस गुज़ारिश ही करूंगा!" कहा मैंने,
"मुझे क्या करना है?'' बोली वो,
"जो चाहो!" कहा मैंने,
"मतलब?" बोली वो,
''रुकना है तो रुको, जाना हो, तो जाओ!" कहा मैंने,
"मैं रुकूंगी!" बोली वो,
रचिता रुक गई वहां, मैंने कमरा बंद कर दिया फिर, उम्मीद थी, कि अब कोई टोका-टोकी नहीं होगी, वक़्त कम ही था, न जाने वो हाज़िर हो या नहीं! वो कौन है, कैसा है, क्या चाहता है, ये जानना ही चाहता था मैं, और ये भी कि क्यों उसने इस रचिता की मदद की थी, क्यों जान बचाई थी, क्या वजह थी उसकी?
"रचिता?" कहा मैंने,
"जी?" बोली वो,
"यदि घबराहट हो, तो लेट जाना" कहा मैंने,
"अच्छा" बोली वो,
उसके इस अच्छा बोलने के लहजे से एक बात तो साफ़ ही थी, कि उसे बस जिज्ञासा भर ही थी, कि क्या कोई है जो उसकी हिफाज़त कर रहा है? खैर, मुझे क्या लेना-देना इस से, मैं तो बस वजह जानूं, कोई गलत इरादा हो उसका तो उसको हटा दूँ, यही काम था मेरा, आगे, रचिता खुद समझदार थी, क्या करना है क्या नहीं, ये, वो जाने, या उसके मम्मी-पापा! मैं इल्म का जानकार हूँ, इस नाते इस इल्म की भें, कोई नाजायज़ तौर पर, कोई मासूम न चढ़ जाए, इतना फ़र्ज़ तो आयद था मुझ पर! गलत कुछ होने दूंगा नहीं, किसी का कोई नुक़सान हो, ये भी नहीं चाहता था मैं!
"अब मैं, हाज़िरी लगवाता हूँ!" कहा मैंने,
"जी" बोली वो,
"चुप ही रहना, कुछ न कहना!" कहा मैंने,
"हाँ" बोली वो,
"और अगर डर लग रहा हो, तो अभी जा सकती हो!" कहा मैंने,
"नहीं, मैं नहीं डर रही!" बोली वो,
तब मैं खड़ा हुआ, और इल्म बांधना शुरू किया, पहले हर तरफ, कोर्निश की, फिर उसके बाद, इल्तज़ा की, कि भूल हुई हो, तो सुधार लूँ, इतनी मोहलत उस इल्म से मांगी और तब, इल्म बांधना शुरू किया!
कुल पंद्रह मिनट के बाद, वहां एक तेज ख़ुश्बू आने लगी! ऐसी तेज कि जैसे आसमान से या छत से उस इत्र की बारिश आ पड़ी हो! ये ख़ुश्बू, लोहबान और खस-खस की सी मिली-जुली थी! अब तो यक़ीन था, कि क़ुबूल हुआ था मेरा इल्म-ए-कलंदरी! मैंने आँखें बंद कर रखी थीं, बस, ख़ुश्बू ही सूंघे जा रहा था मैं! कुछ ही लम्हात बाद मैंने आँखें खोलीं, तो पाया कि रचिता, अपने बिस्तर पर, अपने दोनों हाथ, पेट पर रख, गहरी नींद सो गई है! माज़रा समझ आ गया मुझे! वो नहीं चाहता था कि रचिता किसी को भी देखे! कमाल की बात थी! ये कैसा जिन्न था! कैसा, बे-मिसाल! एक पल को तो मैं मुरीद ही हो जाता उसका! एक मिट्टी की बुत की ऐसी निगेहबानी! ऐसी सरपरस्ती! ऐसी बे-पनाह हिफाज़त! मुस्कुराहट जहाँ आई मेरे होंठों पर, वहीँ उस जिन्न के लिए, एक अलग सा ही इज़्ज़त का एहसास मेरे दिल सी गुज़रा!
"सामने आओ ओ अज़ीम जिन्न!" कहा मैंने,
फूल! लगा जैसे, रचिता के पास, फूल आकर गिरे! पल भर को देखा था, लेकिन था कुछ नहीं! या फिर मुझे ही दिखाया गया था!
"अज़ीम?" एक आवाज़ गूंजी!
ये आवाज़, किसी औरत की थी! बेहद ही शीरीं सी आवाज़! जिसमे न गुस्सा था, और न ही कोई कड़वाहट!
"हाँ, अज़ीम!" कहा मैंने,
"क्यों?" आवाज़ आई!
"मैं सब जान गया हूँ!" कहा मैंने,
"मालूम था आलिम आला!" आई आवाज़!
"सामने तो आओ?" कहा मैंने,
"ज़रूरत?" आई आवाज़,
"मुझसे न डरो!" कहा मैंने,
"हम जिंसआई तौर पर बेख़ौफ़ हैं आलिम आला!" आई आवाज़,
''तो सामने आओ!" कहा मैंने,
"पूछें जो पूछना है?" आई आवाज़,
"बातें काटो मत!" कहा मैंने,
एक हंसी, बेहद ही लज़ीज़ सी!
"आप जिन्नात से वाक़िफ़ हैं, हम जानते हैं!" बोली वो,
"फ़ितरत से अंजान हूँ!" कहा मैंने,
"ऐसा न केहन?" आई आवाज़,
"ऐसा जिन्नाती-वाक़या पहला ही देखा!" कहा मैंने,
"पहला?" आई आवाज़,
"हाँ, सरपरस्ती!" कहा मैंने,
"अब मान रहे हैं!" आई आवाज़,
"शुक्रिया!" कहा मैंने,
"और पूछें?" आई आवाज़,
"सामने तो आएं?" कहा मैंने,
"ज़रूरत क्या?" आई आवाज़,
"मान लें ये भी!" कहा मैंने,
झन्न सा उजाला कौंधा! मेरी आँखें चुंधियायीं! और जब खोलीं, तो ज़मीन से ऊपर खड़ी एक बेहद ही ख़ूबसूरत औरत को देखा! जैसे होलोग्राम होता है, ऐसी! उसमे से आरपार दीख रहा था, लगता था कांच ही है!
"क्या आप ही हैं वो?" पूछा मैंने,
"कौन?" पूछा मैंने,
"इसके निगेहबान?" पूछा मैंने,
"नहीं!" आई आवाज़,
'तो फिर?" पूछा मैंने,
"ज़ु'हैर!" बोली वो,
"ये भला कौन हैं?'' पूछा मैंने,
"वालिद!" बोली वो,
"आपके?'' पूछा मैंने,
"हाँ आलिम आला!" बोली वो,
"तो आप?" पूछा मैंने,
"ज़ु'लैल!" बोली वो,
ज़ु'लैल? सुना-सुना सा नाम लगा! अरे हाँ! उस सहरा में वो छोटी सी लड़की, जिसका दीदार किया था खुद रचिता ने, ख़्वाब में! उसने बताया था अपना नाम यही!
"आप वही हैं?" पूछा मैंने,
"जी हाँ!" बोली वो,
"क्या आप ही हिफाज़त किये जा रहे हैं?" पूछा मैंने,
"हाँ" बोली वो,
"ओह...क्या मैं पूछ सकता हूँ इसकी वजह?'' पूछा मैंने,
"वजह हमें नहीं मालूम" बोली वो,
"तो किसे मालूम है?" अगला सवाल किया मैंने,
"बाबा ज़ु'हैर का हुक़्म!" बोली वो,
"आपके वालिद, बाबा ज़ु-हैर?" पूछा मैंने,
"जी हाँ" बोली वो,
"समझ गया!" कहा मैंने,
"उन्होंने ही पीछे किया हमें!" बोली वो,
"इस लड़की के?'' पूछा मैंने,
"हाँ जी, आली!" बोली वो,
"इस से कोई मुहब्बत?" पूछा मैंने,
"दीनी-मसलाह जानिये!" बोली वो,
"जिन्न और दीन?" पूछा मैंने,
"हम, आलमी-उरूज़ जिन्नात हैं आला!" बोली वो,
"क्या?'' पूछा मैंने,
"हाँ, आलमी-उरूज़!" बोली वो,
आलमी-उरूज़ मायने, सूफियाना किस्म के जिन्न! जिन्नात का कोई दीन-मज़हब नहीं होता! ये इस ज़मीन पर, इंसान के मौजूद होने से पहले के हैं! इतने इंसान नहीं जितने ये जिन्नात हैं! सभी तबकों में बनते हैं! इनका पूरा एक कुनबा, एक ही नफ़ासत पर यक़ीन किया करता है, ये बेहद शालीन, और अव्वल दर्ज़ के साफ़-सफाई पसंद होते हैं! इंसानों से ज़्यादातर आमने-सामने यही जिन्नात ही होते हैं! कुछ रजू हो जाते हैं, कुछ दोस्ती गाँठ लेते हैं, कुछ दुश्मनी क़ायम कर, अमल करते जाते हैं! कुछ वायदों पर फ़ना तक हो जाते हैं! कुछ आशिक़ हो, रह को भी संग ले जाते हैं! कुछ मौत को भी कजकमा दे देते हैं! अलग अलग तबके, अलग अलग खासियतें!
अब जो इसने बताया था, ये तो सुकून-पसंद जिन्नात हैं! इनकी ज़मीन पर, कुछ भी तामीर हो, लेकिन इंसानों की भलाई के लिए हो, तो ये पसंद करते हैं, हर इमदाद को तैयार रहते हैं! बशर्ते, नफ़्स से दूर हों वो इंसान! दिल्ली में एक जगह है, बेर-सराय, यहां पुराने वक़्त से ही, एक बाग़ हुआ करता था बेरों का! इसी बाग़ में, दो कुनबे जिन्नात के रहा करते थे, अब भी हैं, कुछ इलाके आज भी वैसे ही हैं, खासतौर पर, देहाती इलाक़ा, अब ज़्यादातर, जाट लोग यहां रहते हैं! यहीं, आलमी-उरूज़ जिन्नात आज भी आया-जाया करते हैं! यहां, शाही, खरबा, वाजीज वग़ैरह जिन्नात मौजूद हैं! आज तलक, किसी पर भी कोई लपेट-झपेट नहीं! प्रेतों का तो कोई सवाल ही नहीं!
उसी तरह एक और गाँव है, नेब सराय, यहां भी आलमी-उरूज़ जिन्नात आदि के बसेरे रहे हैं! चूँकि, गुलाम-वंश के समय में, खासतौर पर, नासिरूद्दीन के समय में, कई जगह, इन जिन्नात को दे दी गई थीं! हज़रत क़ुतुबुद्दीन बख़्तियार ककि के वक़्त से ही, ये जगह आज भी जिन्नाती ही है!
जिन्नात दुनिया के हर हिस्से, हर कोने, हर जगह मौजूद हैं! जिनका साबका पड़ा है इनसे, वो ही जानते हैं कि जिन्न कैसा होता है! आप देखें तो कोई स्वर्गदूत है या कोई कुमारदेव, ऐसा ही लगेगा!
हर पूनम की रात को, दिल्ली के तुग़लकाबाद किले में, जिन्नाती महफिलें सजती हैं! उनके बालक-बालिकाएं खेला करते हैं! आप जाएंगे, बदनीयत से नहीं, तो आप भी मेहमान बनाए जा सकते हैं!
एक हैं राकेश साहू जी, वे भी गए थे, ज़िद्दी हैं, हिम्मत वाले भी, उन्होंने जो देखा, आज तलक भूल नहीं पाये! ऐसा मंजर कि, रेलवे के नौकरी से, जी ही उचाट कर बैठे! हैरत ये, कि उसके बाद वे कई मर्तबा गए, लेकिन कोई दिखा ही नहीं! अब नीयत कैसी थी, या उस लम्हे क्या बदल आया, ये तो वो ही जानें! जिन्नातों में, इंसान की जीव-शक्ति को सोखने का माद्दा है, खड़े खड़े ही, वे सौ किलो के इंसान को आधा कर दें! हाँ, ये उनकी मर्ज़ी कि ऐसा वे करें या नहीं! आपकी नीयत साफ़ है, बे-नफ़्स है, तो उम्मीद है आपको दीदार हो ही जाएँ!
खैर...
"ज़ु'लैल?" कहा मैंने,
"फ़रमाएं?" बोली वो,
"क्या मैं ज़ु'हैर बाबा से मिल सकता हूँ?" पूछा मैंने,
"वाजुफ खमंज!" बोली वो,
"कहाँ?" पूछा मैंने,
"वाजुफ!" कहा उसने,
"समझ गया मैं!" कहा मैंने,
"आली!" बोली वो,
"हाँ?" कहा मैंने,
"इज़ाज़त?" बोली वो,
''ज़रूर!" कहा मैंने,
और आँखों के सामने ही, रौशनी घट सी गई! न मेरे अलफ़ाज़ ही किसी ने सुने, न देखा ही उसको किसी ने! यही तो रौयब है इन जिन्नात का!
मैं, बैठ गया वहीँ!
रचिता, बेसुध सी, सो रही थी! मैं उठा, और चला बाहर! आया कमरे तक! मुस्कुराता हुआ! मेरी साँसे कुछ तकलीफदेह सी हो रही थीं, हलक़ सूखे जा रहा था, मैंने दर्शन जी से पानी माँगा और पिया!
"पता चल गया?" पूछा शहरयार साहब ने,
"हाँ!" कहा मैंने,
"वजह भी?" पूछा उन्होंने,
"हाँ सब!" कहा मैंने,
"अब कुछ न होगा?" बोले वो,
"अभी कुछ है!" कहा मैंने,
"वो क्या?" बोले वो,
'जाना है हमें!" कहा मैंने,
'कहाँ जी?" पूछा उन्होंने,
"ज़िया सराय!" कहा मैंने,
दर्शन लाल जी से बातें कर, उन्हें समझा, और ताक़ीद कर कि रचिता को न उठायें जब तक वो खुद ही न उठे, हम वहां से निकल लिए थे! वहां से सीधा अपने स्थान पर आये, आराम किया था, और सो गए थे, रात की नींद की ख़ुमारी बाकी थी, शाम को, नहा-धो, थोड़ी तैयारी कर, फिर से आठ बजे करीब हम निकले थे, मंज़िल थी ज़िया-सराय! दोपहर में रचिता की नींद खुल गई थी, उसने मुझे कॉल भी की थी, मैंने उसको बताया था कि कुछ पता नहीं चला था, ये मैंने शहरयार जी के सिवाय किसी को नहीं बताया था! अब बस, ज़ु'हैर बाबा से मुलाक़ात होती, वजह पता चलती और हम तब सब समझ पाते! और इस कहानी का अंत होता! सबसे बड़ा सवाल अब यही था कि ज़ु'हैर बाबा ने इस लड़की रचिता की हिफाज़त क्यों की थी, क्या वजह थी! हम साढ़े नौ बजे करीब वहां पहुंचे थे, वहां, पुराने वक़्त की कुछ जगह आज भी हैं, आबादी से थोड़ा दूर ही, यहीं वो आलमी-मंज़िल भी है!
"यहां कहाँ?" बोले वो!
"अभी चलो आगे थोड़ा!" कहा मैंने,
"यहां तो देहात सा है?" बोले वो,
"कभी ये बेहद ख़ास जगह हुआ करती थी, अब ज़माना बदल गया है, वक़्त हर चीज़ को बदल दिया करता है!" कहा मैंने,
"हाँ, इसमें क्या शक़!" बोले वो,
हम आगे चलते रहे, आगे, जहाँ कुछ सरहदी सा इलाक़ा आता था, अब वैसे कहाँ कोई शहरी सरहद, सब खत्म! इसी देहली में, ऐसे न जाने कितने पुराने खंडहर हैं, जिनका कोई न कोई इस्तेमाल हुआ करता था, कोई नाका था, कोई महसूल-चौकी, कोई रसदगाह और कोई सराय! देहली में ऐसी बहुत सराय हैं! जैसे यूसुफ़-सराय, नेब-सराय, सराय रोहिल्ला, लाडो सराय. कटवारिया सराय, कालू सराय आदि आदि! इन सभी का अपना अपना इतिहास है, यहां आज भी पुरानी इमारतें देखी जा सकती हैं, जो बस, अपना बचा वक़्त, काटे जा रही हैं!
"यहीं रोकिये!" कहा मैंने,
"यहाँ?" बोले वो,
"हाँ, यहीं बस!: कहा मैंने,
गाड़ी रुक गई, जांच के लिए, रुक्का मैंने मन ही मन पढ़ा, आँखें खोलीं तो कई जगह मुझे रौशनी के गोले से दिखाई दिए! लाल और पीले से! इसका मतलब यहां उनकी मौजूदगी तो ज़रूर ही थी! लेकिन अब, ज़ु'हैर बाबा को कैसे ढूंढा जाए?
मैं आगे गया, थोड़ा आगे, ये खुला सा इलाक़ा था, ज़्यादा खुला भी नहीं, कुछ सरकारी ज़मीन ही समझिए! नहीं तो अब जगह कहाँ बची है! मैंने हर जगह देखा, कोई खमंज नज़र नहीं आया! अब कैसे पता किया जाए? ये तो मैंने सोची ही नहीं थी!
अब बस एक ही तरीक़ा था, कि रचिता के पास जाया जाए, वहीं से ज़ु'लैल से पेश होने की गुज़ारिश की जाए! तभी आगे का रास्ता साफ़ हो! अब तक, शहरयार साहब भी आ चुके थे,
"क्या हुआ?'' पूछा उन्होंने,
"कुछ नहीं कहा जा सकता यहां" कहा मैंने,
"क्यों?'' बोले वो,
"कहीं किसी की अमानत में ख़यानत ही न हो जाए!" कहा मैंने,
"हाँ, इस चीज़ का तो हमेशा से ही ख़तरा लगा रहता है!" बोले वो,
दरअसल, कई पीर हैं, मालूम-नामालूम, सय्यद बाबा हैं, कहीं उनकी शान में कोई ग़ुस्ताख़ी ही न हो जाए! बहुतेरे जिन्नात ऐसे बाबाओं के, मुरीद भी होते हैं, ख़िदमतगार भी होते हैं, और भी कई ऐसे मसलहे हैं, जिनकी वजह से मैं यहां कुछ नहीं कर सकता था! ज़रूरी नहीं कि अपने मज़हब का बड़ा ही बड़ा हो, ये तो किसी भी मज़हब का हो सकता है! कोई भी मज़हब, रातोंरात नहीं खड़ा हो जाता, उसमे आस्था-श्रद्धा की ईंटें लगती हैं! तब जाकर वो तामीर हुआ करता है! जो लोग, मज़हब-मज़हब में फ़र्क़ किया करते हैं, वे मज़हब के शुरूआती मायने ही नहीं जानते! इस जहां में, कोई बड़ा नहीं, कोई छोटा नहीं, उपरवाले ने, कभी कोई फ़र्क़ नहीं किया! उसने महज़ इंसान बनाया और इंसान ने पता नहीं क्या क्या बना दिया! कई लोग तो जिन्नात को भी मुस्लिम मज़हब से जोड़ देते हैं! कि उनके नाम मुस्लिम हैं! जबकि जिन्नात तो किसी भी मज़हब से भी पहले के हैं! इनका कोई मज़हब नहीं! बात वही है, कि संस्कृत पुरानी या वेद, संस्कृत न होती तो वेद कैसे लिखे जाते! वैसे ही अरबी, ये भी संस्कृत के समान ही पुरानी भाषा हैं संस्कृत और अरबी, एक ही परिवार की भाषाएं हैं! आप जिस भाषा में बात करें इन जिन्नात से, ये उसी में जवाब दे देंगे! ये इल्म के जानकार हैं!
खैर जी,
हम फिर वापिस हुए, दर्शन जी को बता दिया कि हम, उनके यहां आ रहे हैं, बाकी बातें वहीँ होंगीं! तो हम, एक घंटे से थोड़े ज़्यादा वक़्त में, वहां पहुँच गए थे! वहां, जल्दबाजी ही की मैंने, रचिता की अब कोई ज़रूरत नहीं थी, इसीलिए, उसे उसके कमरे से बाहर भेज दिया था मैंने अपने मम्मी-पापा के पास!
फिर अर्ज़ी लगाई, और अर्ज़ी क़ुबूल हुई! ज़ु'लैल से अपनी, इंसानी मज़बूरी कही! ज़ु'लैल को क्या बताना, वो तो पहले से ही जानती थी! हाँ, उसने मेहर की, कुछ वक़्त बाद ही वो गायब हुई....अब वक़्त था....इस कहानी के सबसे अहम किरदार ज़ु'हैर बाबा से रु-ब-रु होने का!
कुछ ही लम्हात बाद............
उस कमरे में जैसे सर्द सा माहौल भर गया था! जैसे सुबह की ओंस उस कमरे में आ जमी हो! हल्का-हल्का सा गुलाबी सा धुआं, ज़मीन पर बिखरने लगा था! अल-दाऊनि गुलाबों की ख़ुश्बू हर तरफ मौजूद हो गई थी! लगता था, कि जैसे, मैं किसी बड़ी सी इबादतगाह में आ खड़ा होऊं!
मेरे तरफ की बाईं दीवार, धुंध में घिर सी गई! अब न दीवार ही दिखे और न खिड़की ही! ऐसे ही दायीं और ऐसे ही मेरे आँखों के सामने! और ऐसे ही ठीक मेरी पुश्त पे! ज़मीन गुलाबी सी हो गई थी, छत की तरफ, अब्र-ए-खज़'आलत की रौशनाई सी फूट रही थी!
ये सब, जिन्नाती माहौल था! जो मैं देख रहा था, वो कोई और न देख पाटा, सिवाय इल्म की इमदाद लिए! जो ख़ुश्बू मैं सूंघ रहा था, वो कोई और न सूंघ पाता, वही, इल्म के बिना तो क़तई मुमक़िन नहीं!
मित्रगण!
जिस अकेले खजूर के पेड़ पर, ढापरी( सफेद फूलों वाली एक पीली सी बेल, जिस पर पांच फलकों वाला एक फूल अक्सर ही आता है, ये फूल सदाबहार के फूल जैसा ही होता है, लेकिन इसमें गंध नहीं हुआ करती) अगर सत्ताइस दिन चिरागी की जाए, सच्ची लगन से, दिन में पांच बार नहा-धो, विचार शुद्ध रखें जाएँ, तो ठीक सत्ताइसवें दिन, यहां आपको, जिन्नात के दीदार हो सकते हैं!
ध्यान रखिये, वो आपके दिल की, हर इच्छा को जान लेंगे! गलत काम की उम्मीद न कीजिये! न धन ही मांगिये! आप आपदाओं से दूर रहें, आपको मदद मिलती रहे, रोज़गार में इजाफा होता रहे, यही मांगिये! बाकी चीज़ें तो दुनियावी हैं, फिर से ढेर हो, ख़ाक़ हो ही जानी हैं!
चलिए, अब वापिस इसी घटना में................
हाँ, तो मैं, खामोश खड़ा अब इंतज़ार कर रहा था....
और तभी, एक सुनहरा सा उजाला हुआ! आसपास से जाइए, सोने के कण बिखरे! और किसी की आमद हुई! मेरी नज़र पड़ी! वो शीशे के समान श्वेत, चमकदार, पारदर्शी सा था! हाँ, उम्र में, बुज़ुर्गवार सा लगता था! सर पर, सुनहरी-हरा सा साफ़ा बांधे हुआ था, शफ़्फ़ाफ़ चेहरा था! सफेद ही दाढ़ी गले तक, करीने से रखी हुई! उसके साफे में से लड़ें निकली हुई थीं पीछे की तरफ! लम्बा-चौड़ा जिस्म था, कद्दावर सा! हाथों की उंगलियां और चेहरा ही दीख रहा था, बाकी सब ढका हुआ था! उसके कपड़े, ऐसे तो मैंने कहीं देखे ही नहीं थे! न इंसानी हाथ न मशीन ही बुन सकती हैं ऐसे कपड़े! पांवों में, बड़ी बड़ी सी जूतियां थीं! सलवार खुली हुई सी, कमर में, कमरबन्द कसा था, काले रंग का!
चेहरे पर मुस्कुराहट थी! यही सबसे बड़ा सुकून था!
"याद फ़रमाया आलिम आला?" गूंजी एक तेज आवाज़!
और तभी पीछे मुझे, उसकी बाजू थामे हुए, एक हाथ दिखा, जब चेहरा देखा तो ये ज़ु'लैल थी! अब आया समझ! ये ही ज़ु'हैर बाबा हैं!
"आप ही जनाब ज़ु'हैर हैं?" पूछा मैंने,
"हाँ, आला!" बोल वो,
"मेरा नसीब!" कहा मैंने,
मुस्कुरा गया वो!
मैं भी मुस्कुरा पड़ा था! मेरे संग, ज़ु'लैल भी!
अब भला जिन्न का नसीब से क्या वास्ता! नसीब से क्या लेना-देना उनका! इसका मतलब तो बस हम, बुत-ए-ख़ाक़ तलक ही हद है! यहीं से शुरू और यहीं पे ख़तम! इसीलिए शायद, वो मुस्कुरा गए थे!
"आपका ज़्यादा वक़्त न लूंगा................." कहा मैंने तो मेरे बात होने से पहले ही ज़ु'हैर बाबा ने बात आगे बढ़ा दी!
"यही की उस लड़की की हिफाज़त क्यों!" बोले वो,
"जी, यही!" कहा मैंने,
"उस लड़की का एहसान है हम पर!" बोले वो,
हैं? एहसान? एक इंसान का, एक जिन्न पर एहसान? सो कैसे?
"उसने, हमें पानी पिलाया था प्यास में!" बोले वो,
"क्या जी?" मैंने तो कुछ कहा भी नहीं, बरबस ही, यकबयक मुंह से, अपने आप ही निकल गया ये सवाल!
"हाँ, हम रौ-गज़ में थे उस दिन! ठीक सामने, वहीँ, जहाँ वो हादसा पेश हुआ था, वहीँ!" बोले वो,
रौ-गज़ मायने, एक जलसा, एक रूहानी क़िस्म का जलसा! जैसे हम कहें तो हमारा कुआँ-पूजन आदि!
"हम जब लौट रहे थे, तब, हमारा हलक़ सूखा था! हम, आप जानते हैं, ज़म-ए-जीनिया ही लिया करते हैं, लेकिन हमें देख, उसने हमें पानी पिलाया! हमने कहा कि आपका पानी कहीं ख़तम ही न हो जाए, तो वो, लड़की, बोली, कोई बात नहीं, आप पीजिए! हमें, उसकी इस नफ़ासत की वजह से, पानी पीना पड़ा! उसकी ये, हालांकि नहीं कहना चाहिए, गुज़ारिश क़ुबूल करनी पड़ी! कैसे न करते! हमने उनके वालिद को भी देखा है, तो वो लड़की हमारी ही बेटी हुई! अब एक बाप, हिफाज़त को आगे नहीं आएगा, तो कैसा बाप, कैसा क़ौल!" बोले वो,
अब समझा! जिन्नात, इंसानी भेस में, अक्सर ही ऐसे जलसों में, जमातों में शिरक़त किया करते हैं, उस रोज भी शायद कुछ ऐसा ही हुआ हो!
"आपने जो किया, उसका कोई मोल नहीं, लेकिन, आखिर वो ख़्वाब कब तक? आप तो जानते ही हैं, हम इंसानों पर क्या फजीहत बीता करती है, मुस्तक़बिल को पेश-ए-चश्म होते देख!" कहा मैंने,
"जानते हैं! अब ऐसा न होगा!" बोले वो,
"और हिफाज़त?" पूछा मैंने,
"वो हमारा क़ौल है, बरक़रार रहेगा!" बोले वो,
चंद घूंट पानी की ऐसी क़ीमत? काश, काश ये सबक हम इंसान भी सीख पाते! फिर कहाँ इस दुनिया में बदनीयत, बुराई ठहरती!
मित्रगण!
वे चले गए, और मेरा बदन, भारी सा हो गया! दिमाग़ तो होना ही था! हम क्या, इंसान कहलाने लायक हैं भी? शायद, नहीं! झूठा तमग़ा लटकाए घूमते रहते हैं! इंसानी तक़ाज़ों का ढोल पीटते रहते हैं! जिस थाली में खाएं, उसी में छेद किया करते हैं! जिस घर ठहरे, वहीँ सेंध लगाए करते हैं! ये भला कैसी इंसानियत है!
और एक इनको देखो! चंद घूँट पानी का क्या मोल चुका रहे हैं ये बाबा ज़ु'हैर! जी अपने आप ही, सलाम करने को मज़बूर हो ही जाए!
मित्रगण!
उस रोज के बाद से, कभी कोई ख़्वाब नहीं आया रचिता को! वो अब बेहद खुश है! असरात से दूर है! जल्दी ही खबर भी मिली कि रिश्ता भी तय हो गया है एक बहुत ही अच्छे घर में! विवाह, इसी साल नवंबर में है!
बाबा ज़ु'हैर कहाँ हैं, ये तो मुझे नहीं पता! हाँ, उनकी नज़र, ज़रूर ही है रचिता पर! आखिर, उनकी बेटी जो ठहरी!
इसीलिए, भूखे को भोजन, प्यासे को पानी, बीमार को तीमारदारी ज़रूर, ज़रूर ही देनी चाहिए, आप न कर सकें तो रास्ता ही बता दें! गलत जाने से बेहतर है, सीधे रास्ते पर चलना, भले ही कोई पहुंचे या नहीं! आप अपना काम, सच्चे दिल से कीजिये!
बाबा ज़ु'हैर, ज़ु'लैल जैसे जिन्न भी, शायद, नसीबवालों को ही मिलते हैं! नसीब, नसीब तो इंसान खुद बनाता है! बिना रोपे, फल नहीं मिलता! खुद रोपो, खुद ही खाओ, ये भी पक्का नहीं, क्योंकि, हम भी तो, किसी दूसरे के रोपे फल ही तो खाये जा रहे हैं! दूसरे, हमारे माँ-बाप! बड़े! शिक्षक आदि! है न!!
साधुवाद!
