वर्ष २०१५, दिल्ली क...
 
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वर्ष २०१५, दिल्ली के पास की एक घटना, रचिता के वो अंजान ख़्वाब!

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श्रीशः उपदंडक
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अगले दिन करीब दो बजे......
पिता जी, लंच के बाद घर चले आये थे, दोपहर तक ही रहे थे दफ़्तर में, बेटी की चिंता में न सोने का होश था, न जागने का, न खाने का और न ही किसी दूसरे काम में पड़ने का, दोपहर तक का भी वक़्त बड़ी ही बेसब्री से गुज़ारा उन्होंने! रचिता अपने कोचिंग-सेंटर पर थी, जांच अच्छे से हो जाती!
तक़रीबन, ढाई बज गया था, वीर का कोई अता-पता नहीं, न ही कोई फोन पर इत्तिला वग़ैरह, तब पिता जी ने ही फोन किया रोहतास को, रोहतास ने बताया कि तैयारी करने के बाद, वीर चला गया था करीब एक बजे, वो मोटरसाइकिल से आ रहा था, बस पहुंचने ही वाला होगा! फोन कटा और बाहर एक मोटरसाइकिल रुकी! उन्होंने खिड़की से झाँक कर देखा, वो वीर ही था, साथ में एक आदमी और आया था! पिता जी, झट से बाहर की तरफ लपके! और जाकर, दरवाज़ा खोला, वीर ने नमस्ते की, और उस आदमी को एक थैला पकड़ा दिया! उसको अंदर ले आये! अंदर आते ही वीर रुका, आसपास देखा, और फिर छत को देखा!
"क्या आपको कोई महक़ आ रही है?" पूछा उसने,
"कैसी महक़?" पूछा पिता जी ने,
"कुछ इत्र की सी?" पूछा उसने,
"नहीं तो?" बोले पिता जी,
''आ रही है" बोला वो,
"लेकिन यहां तो कोई इत्र नहीं लगता?" बोले वो,
"देख लेता हूँ!" बोला वो,
उसने पूरे घर का मुआयना किया, फिर रचिता के कमरे के पास जाकर, रुक गया! दरवाज़ा बंद था, लॉक्ड हुआ हुआ था!
"ये चित का कमरा है?" पूछा उसने,
"हाँ, यही है" बोले पिता जी,
"महक़, यहीं से आ रही है" बोला वो,
''अच्छा" घबरा कर बोलीं माँ,
"कौन हो सकता है?" पूछा पिता जी ने,
"अभी सामने नहीं आ रहा" बोला वो,
"ओह" बोलीं माँ,
"आप, ज़रा हटिये यहां से" बोला वो,
"अच्छा!" बोले वो,
और वे चले गए अपने कमरे में! वीर और उसका साथी, वहीं रह गए, थैले में से, पता नहीं क्या निकाला और छिड़क दिया उधर और बैठ गए दोनों वहीं! मंत्र पढ़ने लगे!
उधर कमरे में, जब बैठ बैठे आधा घंटा हो गया, तो पिता जी हुए परेशान! वो चले उधर देखने उनको! आये उधर, नीचे तो कोई नहीं, लेकिन, कुछ फर्श पर पड़ा था, जैसे कि खून! धक्क से रह गया उनका दिल! खून आ कहाँ से रहा है, ये देखने के लिए ऊपर देखा! और तभी!!
धम्म!
छत से जैसे, नीचे गिरे थे दोनों! मुंह से, कानों से, नाक से, दोनों की खून ही खून बह रहा था! उनको देख, चीख निकल गई उनकी! वे भागे अपने कमरे में! माँ ने पूछा तो कुछ बता भी न सके! इस से पहले कि वो कुछ बताते, वे दोनों जो गिरे थे, चिल्लाते हुए, दौड़ पड़े वहां से! सीधा बाहर चले गए, मोटरसाइकिल चालू की और ये जा और वो जा! हाथ-मुंह कहाँ धोए, कहाँ खून धोया कुछ नहीं पता!
घर में डर का माहौल छा गए! उन दोनों की हिम्मत ही न हुई कि वापिस जाकर, देखें उधर! वे उधर जाने की बजाय, सीधा अशोक के घर दौड़ पड़े! और वहां से ही, फोन किया रोहतास को! रोहतास की तो पाँव तले ज़मीन ही खिसक गई! सौइयों सवाल दाग़ दिए उसने! सांस फूल गई! कलेजा बैठ गया! और तब, रोहतास ने, उन दोनों को तभी के तभी अपने यहां आने की सलाह दी!
आनन-फानन में, अपनी गाड़ी ली, दरवाज़ा बंद किया, और चल पड़े, रचिता को फ़ोन किया माँ ने, कि घर में न जाए जब तक, वे नहीं लौट आएं, कुछ काम है, इसीलिए, पांच-छह बज सकते हैं! कुछ पूछा-पाछा रचिता ने तो बात गोलमोल कर दी उसकी और रचिता को, हाँ कहनी पड़ी! मानना पड़ा कहना!
पहुंचे रोहतास के यहां!
रोहतास के तो चेहरे पर हवाइयां उड़ें! खड़ा ही न हुआ जाए! उसने बिठाया उन्हें, उसी कमरे में!
"आज जो हुआ है वीर के साथ, उसके मामा के साथ, उतनी किसी की हिम्मत नहीं, ये कोई बड़ी ही चीज़ है!" बोला रोहतास,
''अब कैसा है वीर?" पूछा उस से, पिता जी ने,
"ठीक है" बोला वो,
"हुआ क्या था?" पूछा उन्होंने,
"जैसे ही चक पढ़ा, वे हवा में उठ गए, छत से टकराए, भींच दिए गए, खून बह निकला, और जब आप आये तो सब खत्म हो गया, ये सब, पल भर में ही हुआ था..." बोला वो,
"है भगवान..." बोले पिता जी,
"अब?" पूछा माँ जी ने,
''अब मैं चलूँगा" बोला वो,
"है क्या वहां? कुछ बताया वीर ने?" पूछा उन्होंने,
"नहीं, कोई सामने नहीं आया" बोला वो,
"तो क्या सामने आता है कोई?" पूछा पिता जी ने,
''हाँ" बोला वो,
"ओह" बोले वो,
"तब जान जाते हैं कि कौन है वहां" बोला वो,
''आप कब आओगे?" पूछा उन्होंने,
''आज रात" बोला वो,
"अच्छा!" थोड़ी घबराहट कम हुई उन दोनों की!
"जिसने ये हाल किया है उन दोनों का, पकड़ ले आऊंगा!" बोला वो,
"बिलकुल जी, हमें भी छुटकारा मिले!" बोले वो,
"मिलेगा, आज ही मिलेगा!" बोला वो,
"हम रुक जाएँ?" बोले वो,
"आप चलें, मैं नौ या दस तक आ लूंगा!" बोला वो,
"कोई और बात?" बोले वो,
"वहीँ बताऊंगा" बोला वो,
"इंतज़ार करेंगे" बोले वो,
"हाँ, आऊंगा, देखूं तो, कौन है वो?" बोला वो!


   
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श्रीशः उपदंडक
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रोहतास ने बड़े ही मज़बूत यकीन के साथ ऐसा कहा था! सो लाजमी था कि, माँ-पिता जी की चिंता थोड़ी कम तो होती ही! तो वे, हाथ जोड़, और कुछ धन दे, निकल पड़े वापिस! जब आधे रास्ते में थे, तब रचिता का फोन आया, वो चाचा जी के घर पर थी, तब माँ ने कह दिया था कि आते हुए, वे ले लेंगे उसे! डर था उन्हें तो उस खून का जो गैलरी में बिखरा था, वो भी साफ़ करना ही था, नहीं तो पता नहीं हो क्या! अब करते भी क्या? लेकिन एक अलग हिम्मत तो थी कि अभी तक घर में किसी का कोई नुकसान नहीं हुआ था! यही बस, एक वजह थी, घर में जाने की, नहीं तो आज जो देखा था, वो तो ऐसा था कि आदमी दुबारा उस घर में घुसे भी नहीं!
खैर, वे पहुंचे, सीधे अशोक के घर नहीं, सीधे अपने ही घर, अंदर गए, दूसरी चाबी थी ही उनके पास!
"तू आओ" बोले वो,
"हाँ" बोली माँ,
"पोंछा ले आओ" बोले वो,
"बाल्टी, फिनाइल भी लाती हूँ" बोलीं वो,
पिता जी अंदर गए, गैलरी में जैसे ही पहुंचे, होश का ठिकाना ही न रहा! न कोई खून ही था वहां और न ही कोई भभूत! न छत पर ही कोई निशान! सब साफ़ था! वे वापिस भागे, और चले आये लीला जी के पास!
"क्या हुआ?" पूछा उन्होंने,
"रहने दो!" बोले वो, बाल्टी उठाते हुए,
"क्या?' बोलीं वो, आश्चर्य से!
"अब कुछ नहीं है वहां!" बोले वो,
"क्या मतलब?" बोली माँ,
"हाँ, कुछ नहीं, न खून ही, न कुछ और!" बोले वो,
"अरे? दिखाओ?" कहा उन्होंने,
"आओ!" बोले वो,
और चले गैलरी में, वहां कुछ भी न था! आश्चर्य की कोई सीमा न रही! तभी पिता जी का फ़ोन बजा, रचिता का था, रचिता को बुला लिया उन्होंने! पांच मिनट में ही रचिता आ गई घर में! सामान रखा अपना, और बैठ गई!
"कहाँ जाना हुआ?" पूछा माँ से,
"अरे ऐसे ही!" बोलीं माँ,
"फिर भी?" पूछा उसने,
"कुछ काम था!" बोलीं माँ,
"ऐसा क्या काम?" पूछा उसने,
"अरे छोड़ न?" बोलीं माँ,
अब कुछ न बोली वो,
सामान उठाया और चली अपने कमरे की तरफ! कुछ देर आराम किया, चाय ले आई माँ, और फिर रचिता से कुछ बातें कीं! फिर उठ क्र, अपने कमरे में आ गईं! नौ बज चुके थे, बार बार फोन को देखते दोनों, कभी बाहर झांकते कोई रुकता तो! ऐसी बेचैनी थी उन्हें!
ठीक पौने दस बजे, रोहतास आया, साथ में एक दाढ़ी वाले आदमी को लेकर! लेकिन वे दोनों, अंदर नहीं आये! बाहर ही बुला लिया पिता जी को! पिता जी, उठ कर बाहर गए! उसको अंदर बुलाया लेकिन वो नहीं आये!
"क्या बात है?" पूछा उन्होंने,
"ये हमारे बस का नहीं...." बोला वो दाढ़ी वाल आदमी,
"क्या?" पूछा उन्होंने,
आसमान से गिरे और खजूर में अटके!
"यहाँ तो कोई बहुत ही बड़ी शय है!" बोला रोहतास!
"तो अब?" पूछा उन्होंने,
'है एक आदमी, उस से बात करता हूँ" बोला वो,
"कब करेंगे?'' पूछा उन्होंने,
"कल करूंगा" बोला वो,
"और कुछ हो गया तो?" पूछा उन्होंने,
"छेड़ा तो होगा" बोला वो,
"मतलब?" पूछा पिता जी ने,
"अगर इस शय को छेड़ा तो ये तबाही मचा देगा!" बोला वो,
"ओह...है भगवान..." बोले वो,
"हिम्मत न हारिये!" बोला वो,
''क्या करूं?" बोले वो, टूटे से,
"सब ठीक होगा!" बोला वो,
"जी, आप बात कर लेना" बोले वो,
"हाँ" कहा उसने,
''तो कब फोन करूं?" पूछा उन्होंने,
"मैं कर लूंगा" बोला वो,
"अंदर तो आ जाते?' बोले वो,
''आएंगे" बोला वो,
"बाद में!" बोला वो दाढ़ी वाला!
"जी" कहा उन्होंने,
और तभी उस रोहतास ने ऊपर देखा! देखते ही पत्थर सा हो गया! ऊपर छत पर, रचिता खड़ी थी, उन्हीं को देख रही थी!
"वो है लड़की?" बोला रोहतास,
पिता जी ने ऊपर देखा, देखा रचिता को, रचिता मुड़ गई! उनके देखते ही!
"हाँ!" बोले वो,
"अच्छा" कहा उसने,
"कुछ देखा?'' पूछा उन्होंने,
"नहीं, लेकिन उसे पता चल गया है हमारा!" बोला वो,
"क्या?" पूछा उन्होंने,
"हाँ!" बोला वो,
"है भगवान, ये क्या हो रहा है हमारे साथ?" बोले पिता जी,
"अब चलेंगे हम, कल फोन करता हूँ!" बोला वो,
"जी ठीक!" कहा उन्होंने,
वे चले गए, पिता जी, थके-टूटे से वापिस हुए! अंदर आ गए कमरे में अपने! माँ परेशान हो उठी उन्हें परेशान देख, वजह पूछी!
"एक मिनट?" बोले वो,
"क्या?" बोलीं माँ,
"रचिता छत पर है?" पूछा उन्होंने,
"नहीं तो?" बोलीं माँ,
"क्या??" वे उछल से पड़े, और दौड़ पड़े कमरे की तरफ, जैसे ही पहुंचे वहां कि.............


   
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श्रीशः उपदंडक
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वे दौड़े, दोनों ही, रचिता के कमरे की तरफ! कमर तो बंद था! उन्होंने दस्तक दी! एक बार, दो बार!
"रचिता?" आवाज़ दी माँ ने,
"रचिता?" पिता जी ने आवाज़ दी!
दरवाज़ा, आहिस्ता से खुला, आँखें मलते हुए, रचिता बाहर आई!
"क्या हुआ पापा?" पूछा उसने,
रचिता को कमरे में देख, वे दोनों ही भय के मारे पीले पड़ने लगे थे! अगर रचिता यहां है तो फिर, छत पर कौन है?
पिता जी भागे छत की तरफ! चढ़े सीढ़ियां! पीछे पीछे माँ भी भागी! सीढ़ियों पर जब चढ़, ऊपर तक आये, तब देखा, कि ऊपर जाने के लिए वो दरवाज़ा तो बंद है! उस पर, ताला पड़ा है! ये देख, वे दोनों ही काँप से उठे!
"ऊपर कौन है?" पिता जी ने पूछा माँ से,
"ऊपर? कोई नहीं, क्यों?" पूछा माँ ने,
"ऊपर देखा मैंने किसी को, हू-ब-हू रचिता सी?'' बोले वो,
"क्या?" माँ का तो जिगर बैठा!
"क्या हुआ पापा?" पूछा रचिता ने, जो उनको, हड़बड़ाहट में आते देख, वहां तक चली आई थी!
"तू, नीचे जा? अभी?" बोले पिता जी, ज़ोर से!
रचिता ने ऐसा कभी पहले नहीं देखा था अपने पापा को, बेचारी रुआंसी हो उठी, होंठ बंद कर, भींच कर, भागी चली गई अपने कमरे में जाने के लिए!
"मेरी बेटी......" बोले धीरे से पिता जी,
"मैं देखती हूँ" बोलीं माँ,
"सुनो, चाबी लाओ!" बोले वो,
"नहीं, पता नहीं कौन हो?" बोलीं वो,
"लाओ तो?" बोले वो,
"नहीं" बोलीं वो,
"सुना नहीं? अभी लाओ?" बोले गुस्से से!
बोले थे गुस्से से, कभी बोलते नहीं थे ऐसे.......माँ, दौड़ी चली गई नीचे, और कुछ ही देर में, चाबी ले आईं, रख दी उनके हाथ पर!
चटख!
ताला खुला, और ताला हटाया उन्होंने, आहिस्ता से, दरवाज़ा खोला, अंदर की तरफ चले, पास ही, स्विच लगा था, ऑन किया, पूरी छत, रौशनी से नहा गई! पर ये क्या?? ये क्या??
वहां तो, रस्सियों पर, पर्दे पड़े हुए थे! पीले रंग के पर्दे! चमकदार से! शांत! हिल भी नहीं रहे थे! कमाल था, उस बल्ब की रौशनी में, हिलते हुए पेड़ों की परछाइयाँ ज़रूर हिल रही थीं, लेकिन वो पर्दे नहीं! कोई और रहा होता, तो यक़ीनन पछाड़ ही खा जाता उन्हें देख कर! वो पर्दे, ज़मीन तक छू रहे थे!
"ये.....ये क्या हैं...?" पूछा माँ ने,
"पता नहीं मुझे" बोले वो,
और आगे चले,
"रुको, रुको!" बोलीं माँ,
"तुम यहीं रुको!" बोले वो,
और चले आगे, पर्दे के पास आये, पर्दे पर, उनकी परछाईं पड़ी! हिलती हुई, हवा चल रही थी, कमाल था! पर्दा हिले नहीं और परछाईं हिले? ऐसा कैसे?
और पर्दा छूने पर, हल्की सी, 'सिर्रर्र' की सी आवाज़ आये! जैसे मख़मल से बना हो, या फिर कोई और, मख़मली ही कपड़ा हो!
अब तक, माँ करीब चली आई थी, भयभीत सी! पूरी छत पर, उन रस्सियों पर, पर्दे ही पर्दे पड़े थे!
"ये आये कहाँ से?" पूछा माँ ने,
"पता नहीं" बोले वो,
और तभी हैरान रह गए वे!
वे पर्दे, सभी, हवा में उड़े, एक से बने, रस्सी की तरह से गुंथते हुए, हवा में उड़ चले, एक दूरी तक जा, सभी गायब हो गए! सभ के सभी! बस, हिलती हुई रस्सियाँ ही रह गईं वहां! रस्सियाँ और पेड़ों के पत्तों, शाखों की हिलती हुई परछाइयाँ! और कुछ नहीं! ऐसा देख, माँ तो ज़मीन पर बैठ गए, पिता जी का मुंह खुला रह गया! वे बहुत देर तक, वहीं देखते रहे, जहां पर, वे पर्दे हवा में, गायब हुए थे!
''आओ?" बोले वो,
"कहाँ?" माँ ने उठते हुए पूछा,
"रचिता से बात करने" बोले वो,
"वो किसलिए?'' माँ ने पूछा,
''आओ तो?" बोले वो,
"वो बताएगी?" पूछा उन्होंने,
"बताना ही होगा!" बोले वो,
"चलो" बोलीं माँ,
वे दौड़ते हुए नीचे आये, रचिता का दरवाज़ा खुला था, अंदर बैठी थी, मुंह नीचे किये हुए, साफ़ था, अभी तक, रोये ही जा रही थी वो! लेकिन आज बात अलग थी! आज पिता जी, उसके आंसुओं पर नहीं गए! अंदर आये, और सीधे ही सवाल किया!
"रचिता?" बोले वो, कड़क सी आवाज़ में,
"जी?" सर उठाकर कहा उसने,
"कहीं गई थीं तुम?" पूछा उन्होंने,
"मतलब पापा?" पूछा उसने,
"किसी जगह?" पूछा उन्होंने,


   
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श्रीशः उपदंडक
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वे दौड़े, दोनों ही, रचिता के कमरे की तरफ! कमर तो बंद था! उन्होंने दस्तक दी! एक बार, दो बार!
"रचिता?" आवाज़ दी माँ ने,
"रचिता?" पिता जी ने आवाज़ दी!
दरवाज़ा, आहिस्ता से खुला, आँखें मलते हुए, रचिता बाहर आई!
"क्या हुआ पापा?" पूछा उसने,
रचिता को कमरे में देख, वे दोनों ही भय के मारे पीले पड़ने लगे थे! अगर रचिता यहां है तो फिर, छत पर कौन है?
पिता जी भागे छत की तरफ! चढ़े सीढ़ियां! पीछे पीछे माँ भी भागी! सीढ़ियों पर जब चढ़, ऊपर तक आये, तब देखा, कि ऊपर जाने के लिए वो दरवाज़ा तो बंद है! उस पर, ताला पड़ा है! ये देख, वे दोनों ही काँप से उठे!
"ऊपर कौन है?" पिता जी ने पूछा माँ से,
"ऊपर? कोई नहीं, क्यों?" पूछा माँ ने,
"ऊपर देखा मैंने किसी को, हू-ब-हू रचिता सी?'' बोले वो,
"क्या?" माँ का तो जिगर बैठा!
"क्या हुआ पापा?" पूछा रचिता ने, जो उनको, हड़बड़ाहट में आते देख, वहां तक चली आई थी!
"तू, नीचे जा? अभी?" बोले पिता जी, ज़ोर से!
रचिता ने ऐसा कभी पहले नहीं देखा था अपने पापा को, बेचारी रुआंसी हो उठी, होंठ बंद कर, भींच कर, भागी चली गई अपने कमरे में जाने के लिए!
"मेरी बेटी......" बोले धीरे से पिता जी,
"मैं देखती हूँ" बोलीं माँ,
"सुनो, चाबी लाओ!" बोले वो,
"नहीं, पता नहीं कौन हो?" बोलीं वो,
"लाओ तो?" बोले वो,
"नहीं" बोलीं वो,
"सुना नहीं? अभी लाओ?" बोले गुस्से से!
बोले थे गुस्से से, कभी बोलते नहीं थे ऐसे.......माँ, दौड़ी चली गई नीचे, और कुछ ही देर में, चाबी ले आईं, रख दी उनके हाथ पर!
चटख!
ताला खुला, और ताला हटाया उन्होंने, आहिस्ता से, दरवाज़ा खोला, अंदर की तरफ चले, पास ही, स्विच लगा था, ऑन किया, पूरी छत, रौशनी से नहा गई! पर ये क्या?? ये क्या??
वहां तो, रस्सियों पर, पर्दे पड़े हुए थे! पीले रंग के पर्दे! चमकदार से! शांत! हिल भी नहीं रहे थे! कमाल था, उस बल्ब की रौशनी में, हिलते हुए पेड़ों की परछाइयाँ ज़रूर हिल रही थीं, लेकिन वो पर्दे नहीं! कोई और रहा होता, तो यक़ीनन पछाड़ ही खा जाता उन्हें देख कर! वो पर्दे, ज़मीन तक छू रहे थे!
"ये.....ये क्या हैं...?" पूछा माँ ने,
"पता नहीं मुझे" बोले वो,
और आगे चले,
"रुको, रुको!" बोलीं माँ,
"तुम यहीं रुको!" बोले वो,
और चले आगे, पर्दे के पास आये, पर्दे पर, उनकी परछाईं पड़ी! हिलती हुई, हवा चल रही थी, कमाल था! पर्दा हिले नहीं और परछाईं हिले? ऐसा कैसे?
और पर्दा छूने पर, हल्की सी, 'सिर्रर्र' की सी आवाज़ आये! जैसे मख़मल से बना हो, या फिर कोई और, मख़मली ही कपड़ा हो!
अब तक, माँ करीब चली आई थी, भयभीत सी! पूरी छत पर, उन रस्सियों पर, पर्दे ही पर्दे पड़े थे!
"ये आये कहाँ से?" पूछा माँ ने,
"पता नहीं" बोले वो,
और तभी हैरान रह गए वे!
वे पर्दे, सभी, हवा में उड़े, एक से बने, रस्सी की तरह से गुंथते हुए, हवा में उड़ चले, एक दूरी तक जा, सभी गायब हो गए! सभ के सभी! बस, हिलती हुई रस्सियाँ ही रह गईं वहां! रस्सियाँ और पेड़ों के पत्तों, शाखों की हिलती हुई परछाइयाँ! और कुछ नहीं! ऐसा देख, माँ तो ज़मीन पर बैठ गए, पिता जी का मुंह खुला रह गया! वे बहुत देर तक, वहीं देखते रहे, जहां पर, वे पर्दे हवा में, गायब हुए थे!
''आओ?" बोले वो,
"कहाँ?" माँ ने उठते हुए पूछा,
"रचिता से बात करने" बोले वो,
"वो किसलिए?'' माँ ने पूछा,
''आओ तो?" बोले वो,
"वो बताएगी?" पूछा उन्होंने,
"बताना ही होगा!" बोले वो,
"चलो" बोलीं माँ,
वे दौड़ते हुए नीचे आये, रचिता का दरवाज़ा खुला था, अंदर बैठी थी, मुंह नीचे किये हुए, साफ़ था, अभी तक, रोये ही जा रही थी वो! लेकिन आज बात अलग थी! आज पिता जी, उसके आंसुओं पर नहीं गए! अंदर आये, और सीधे ही सवाल किया!
"रचिता?" बोले वो, कड़क सी आवाज़ में,
"जी?" सर उठाकर कहा उसने,
"कहीं गई थीं तुम?" पूछा उन्होंने,
"मतलब पापा?" पूछा उसने,
"किसी जगह?" पूछा उन्होंने,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"यही है न कमरा उस लड़की का?" पूछा बाबा ने,
"हाँ जी" बोले पिता जी,
"हाँ, सजा रखा है!" बोले वो,
"सजा?" पूछा हैरत से पिता जी ने,
"हाँ! पीले फूल ही फूल!" बोले बाबा,
"बुलाओ लड़की को?" बोले वो,
''अभी" बोले वो,
और रचिता को आवाज़ दे, बुलाया! रचिता बाहर आई, आते ही पीछे पलटी, अपना स्टॉल लेने गई थी, ओढ़ा और आई,
"ये है लड़की!" बोले बाबा,
"हाँ जी, मेरी बेटी" बोले पिता जी,
"इसे बाहर भेजो?" बोले वो,
"अभी" कहा उन्होंने,
रचिता, इस से पहले कि पिता जी कुछ कहते, खुद ही चली गई! सीधे अपनी मम्मी के कमरे में!
"आओ!" बोले बाबा,
और सभी कमरे में घुसे!
बाबा ने आसपास, ऊपर-नीचे, हर जगह देखा! दीवारें छूकर देखीं! फ़र्श छूकर देखा! और बैठ गए उस तरफ, जहां खिड़की थी!
"ये जिन्न का खेल है!" बोले बाबा,
जिन्न! एक ऐसा नाम, जिस से ख़ौफ़ अपने आप ही जुड़ा है! बेहद ताक़तवर! अड़ियल, ज़िद्दी, लड़ाका, इल्मात जानने वाला! एक बार ज़िद पर आ जाए तो भले ही क़ैद हो, फ़ना हो, हार नहीं मानता! वायदे का पक्का, दुश्मनी का चार गुना पक्का! अठारह नस्लों तक का खाना खराब कर दे!
फिर भी, पिता जी ने कुछ सवाल पूछे, हालांकि जीभ में गाँठ पड़ चुकी थी, गले में कांटे उभर आये थे, थूक, निगले नहीं जा रहा था, पसीने छलछला गए थे, पाँव कांपने लगे थे, सर घूमे जा रहा था, लेकिन एक बाप ने, अपनी बेटी के लिए चंद सवाल किये!
"ये कैसे लगा पीछे?" पूछना पड़ा उन्हें!
"ये तो वो ही बताए!" बोले बाबा,
"कैसे?" पूछा उन्होंने,
"हाज़िर करेंगे उसे!" बोले बाबा,
"और भला रचिता ही क्यों?" पूछा उन्होंने,
"लड़की सुंदर है, अच्छी देह है, और क्या?" बोले बाबा,
"तो जिन्न के पास भला क्या कमी?" पूछा उन्होंने,
"आदमजात से हमेशा प्यार करता है ये जिन्न!" बोले वो,
"क्यों?" पूछा उन्होंने,
"बाद में बता दूंगा, अभी काम" बोले वो,
"जी, क्षमा करें!" बोले पिता जी,
बेचारे, आज ही सारे सवाल पूछ लेना चाहते थे वो तो!
"लड़की को बुलाओ!" बोले बाबा,
''अभी" बोले वो,
और चले बाहर, कुछ ही देर में, रचिता को ले आये, बाबा ने उसको बिठाया वहीं!
"रोहतास?'' बोले बाबा,
"हाँ जी?" बोला वो,
"भाई साहब को ले जाओ बाहर!" बोले बाबा,
"जी" कहा रोहतास ने,
और उठा, लिया रचिता के पिता जी को साथ और चला बाहर, अब हुई रचिता, थोड़ी सी असहज! बाबा ने रचिता को एक भरी सी नज़रों से देखा!
"क्या नाम है तेरा?" पूछा बाबा ने,
"जी, रचिता" बोली वो,
"खड़ी हो जा" बोले वो,
बेचारी खड़ी हो गई! लेकिन, असहज!
"ये तेरा जिसम अभी भरा है या पहले से ही ऐसा है?" पूछा बाबा ने,
आँखें बंद कर लीं ऐसे वाहियात सवाल पर बाबा के उसने!
''जवाब दे?" बोले वो,
"पहले से ऐसी हूँ" बोली वो,
"अच्छा" कहा उसने,
"महीना सही चढ़ता है?" पूछा उसने,
इस सवाल पर तो वो पलटी और जाने लगी वापिस, बाबा हुआ खड़ा और पकड़ लिया कन्धा उसका! जैसे ही कन्धा पकड़ा! मानो क़यामत टूटी! बाबा को उछाल फेंका किसी ने और दीवार से, जा टकराया बाबा! जब तक बाबा सम्भलता, हवा में उछला और लगा छत पर जाकर! चीखें निकल पड़ीं बाबा की! नीचे गिरा बाबा! उठा नहीं जाए! पेट, जैसे किसी ने भींच डाला! आंतें जैसे फटने को हो गईं! और बाबा बेहोश! बेहोश होते ही, आंतें सूज गईं, पेट में आँतों के गुच्छे बन गए!
रचिता तो भाग ली थी, अब रोहतास और पिता जी लौटे थे बाबा की चीखें सुनकर! बाबा को अधमरा सा देख, रोहतास के होश उड़े! उसने उठाया बाबा को, और पिता जी दौड़ पड़े बाहर की तरफ! फौरन जी चिकित्सा की आवष्यकता थी, इसीलिए!
हॉस्पिटल तक पहुंचे, और जब पहुंचे, तब तक बाबा ने दम तोड़ दिया....... एक मुसीबत हटी नहीं थी कि एक ने पाँव पसार लिए थे! अब तो पुलिस ले, उसकी कार्यवाही ले, वग़ैरह वग़ैरह!
मित्रगण!
अब क्या किया जाए? एक उम्मीद जगी थी, वो भी गहरे पाताल में जा घुसी! और मुसीबत, जस की तस! घर का सारा सुकूं हवा हो गया! कौन क्या कर रहा है, क्यों कर रहा है, कुछ तो पता चले? आखिर ये है कौन?


   
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हालांकि, घर में कोई दिक्कत नहीं थी, किसी को भी कोई समस्या नहीं थी, लेकिन कौन चाहेगा कि घर किसी जिन्न की नज़रों में रहे! जिन्न से इंसान का लेना-देना ही क्या! जिन्न अलग हैं, और हम अलग! उनके अपने क़ायदे-क़ानून हैं और हमारे अलग! हम मिट्टी हैं और वो आतिश! अब क्या वजह थी कि कोई जिन्न इस घर पर नज़र रखे हुए था? और फिर, रचिता पर ही क्यों? कौन था वो! कौन है वो? बाबा से तो बड़ी भूल हुई! उन्हें छूना ही नहीं चाहिए था रचिता को! छुआ और अंजाम भी भुगता!
खैर, घर में, जैसे एक ज्वालामुखी अंदर ही अंदर सांस ले रहा था, कब मुंह खोल दे, कुछ नहीं पता था! हैरत की बात ये, कि अब रचिता को कोई ख़्वाब भी नहीं आ रहा था! नहीं आ रहा था, लेकिन उस रात......
उस रात, रचिता का एयर-कंडीशनर खराब हुआ, शायद पंखे में कुछ अड़ गया था, अब तो कल कोई आये और वो ठीक हो! गर्मी की मारे नींद नहीं आये! और जब आँखें लगीं, तो.....
उसकी देह, आधी, पानी में डूबी थी! काले रंग की पोशाक पहनी थी उसने, झीनी सी! ये एक बड़ा सा तालाब था, सफेद पत्थरों की सीढ़ियां थीं, पूरा तालाब सा, सफेद रंग के पत्थरों से घिरा था! ठंडा पानी, उसकी पोशाक के झीनेपन को और उघाड़ देता था, टकरा टकरा कर! 
उसने चेहरे पर पानी डाला, फुरफुरी चढ़ आई, साँसें टूटने सी लगीं! बदन में, सर्द सा एहसास दौड़ गया!
और तभी, कुछ आवाज़ सी आई उसे, ये पीछे से आ रही थी, लगता था कि जैसे कोई रेगिस्तान में, तुम्बा बजा रहा हो! ताल छोटी लेकिन तेज थी! उसने सर उचका के देखा, दूर, कुछ दिखा! उसने गौर से देखा, चमकती हुई सी रेत में, दूर कोई जैसे चक्कर लगा रहा था, धीरे धीरे! और ग़ौर से देखा, ये कोई, पीली सी पोशाक पहने इंसान था! इंसान से मिलता-जुलता! शायद, तुम्बा उसके ही हाथों में था! उसने अपने कपड़े ठीक किये और उस आवाज़ में खो सी गई! वो आवाज़ ही ऐसी थी, कि जो सुने, खुद को खो बैठे! आँखें बंद हो गईं! कुछ लम्हे! कुछ लम्हे आगे बढ़ते गए! आँखें और भिंचती चली गईं और फिर..........
"आप ख़ैरियत से हैं?" आई एक आवाज़! एक भारी सी आवाज़! लेकिन आवाज़ में जैसे शीरीं भरी हो, चस्पा हो जैसे ज़मज़ी(मीठे शहद जैसा रोगन) उस आवाज़ में!
उसने झट से आँखें खोलीं! आसपास देखा! कोई न था! पानी की लहरों में बनती हुईं चमक के सफ़ीने बार बार उसके रुखसार से जब भी आ टकराते, सोना और चांदी भी फीके पड़ जाते! होंठों पर चमक पड़ती तो गुलाबी से होंठ, और सुर्ख़ हो उठते!
आसपास तो कोई न था?
कमर पर, टकराते उसके गीले बाल, जी हिलते हुए, उसके जिस्म से चिपक जाते थे और फिर हट जाते थे, बेहद ही सर्द और किसी की छुअन का सा एहसास करा रहे थे!
उसने उचक कर देखा, वो तुम्बा बजाने वाला, अभी भी वहीँ खड़ा था, हाँ, अब बजा नहीं रहा था! शांत सा खड़ा, देख रहा था उसकी ही तरफ!
जी में सवाल आया! एक सवाल!
"बजाओ न? वही ताल? फिर से?"
जैसे उसने सुनी! रखा तुम्बा सामने, किया कंधे से ऊँचा, लगाने लगा चक्कर फिर से, बजाते हुए, वही ताल!
आँखें, फिर से बंद!
"आप ख़ैरियत से तो हैं न?" आई फिर से आवाज़ एक!
इस बार न खोली आँखें! बस, होंठों के ऊपर जो उंगलियां रखी थीं, उनमे कुछ फांसला बढ़ा और होंठ, हल्के से फ़ैल गए, ज़ाहिर था, वो मुस्कुराई थी!
"बताइए? आप ख़ैरियत से तो हैं?" आई फिर से आवाज़!
"हाँ!" बोली वो, मन ही मन!
और उधर, तुम्बा ज़ोर से बजा! ख़ुशी की ताल थी, कोई भी जान जाता!
"लेकिन? आप हैं कौन?" पूछा मन ही मन उसने!
"हम? कोई नहीं!" आई आवाज़ फिर से!
"बताइए?" पूछा उनसे, मन ही मन,
"आपके तो कोई नहीं!" आई आवाज़!
"फिर ख़ैरियत? कौन ख़ैरख़्वाह?" निकला सवाल!
"फ़क़त नाज़ुकी!" आई आवाज़!
"न मानें तो?" पूछा उसने,
"ये तो वाइज़-ए-नालिश(मलाल की वजह) न होगा?" पूछा किसी ने,
वो मुस्कुरा पड़ी!
और मुस्कुराते हुए ही, आँखें खुल गईं उसकी! पांच बज चुके थे! लेकिन वो बोल क्या रही थी? कैसे अलफ़ाज़ थे वो? क्या मतलब था उनका? याद तो थे अभी भी, तो, लिख लिए वो अलफ़ाज़!
वो जब लौटी, पार्क से, तो सबसे पहले उसने मतलब जानने चाहे उन अल्फ़ाज़ों के! और जब मालूम हुए, तो हैरान रह गई! वो क्या बोल रही थी? कैसे बोल रही थी? या कोई बुलवा ही रहा था? कौन है आखिर?
ये सभी बातें, बता दीं उसने अपने मम्मी-पापा को! घबरा गए! और घबरा गए! अब मचाई ढूंढेर किसी आलिम की!
उस दिन, करीब चार बजे, मेरे पास मेरे एक जानकार, आदिल साहब का फ़ोन आया, आदिल साहब, बिजनौर के आलिम हैं एक! अक्सर, लोक-भलाई के ही काम करते हैं, पहले तो उनसे खूब बातें हुईं और फिर वो पते की बात पर आ गए!
मैंने सारी बातें सुनीं उनकी!
"लड़की खान की बताई?" पूछा मैंने,
"आपके शहर की ही है" बोले वो,
"अच्छा, घर पर ही है?" पूछा मैंने,
"जी" बोले वो,
"तो आप कहें उनके वालिद साहब से, कि एक मर्तबा मुझे फोन करें, तब मैं ज़रूर ही इस मामले को देखूंगा, तभी जान भी सकूंगा, ये शय कई बार, अपने आपको, जिन्न, ब्र्ह्मराक्षस आदि बताया करते हैं! एक बार बात हो, तो मैं देखूं फिर!" कहा मैंने,
"बेहतर है, आज ही करवा देता हूँ!" बोले वो,
"ठीक है साहब!" बोला मैं,
"जी, अच्छा, नमस्ते!" बोले वो,
"नमस्ते, और हाँ, आना पड़े तो एक बार आ ही जाना?" बोला मैं,
"जैसा कहोगे आप!" बोले वो,
"ठीक है!" कहा मैंने,


   
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श्रीशः उपदंडक
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अभी कोई दस मिनट भी नहीं बीते थे कि रचिता के पिता जी का फ़ोन आ गया! मैं समझ गया कि ये बेचारे कितने दुखी हैं अपनी बेटी रचिता को लेकर! मैंने ज़्यादा कुछ नहीं पूछा और उनसे उनका पता पूछ लिया, और कहा कि कल मैं, करीब दो बजे उनके पास पहुँच जाऊँगा! आदिल साहब ने बता दिया था मुझे पहले ही कि ये कोई जिन्नात के मामला है, तो जो कुछ तैयारी करनी थी, मुझे, वो मैं आज रात ही कर सकता था! ज़्यादा कुछ नहीं, बस कुछ ज़रूरी सी विद्याएं जागृत करनी थीं, अपने कुछ तन्त्राभूषण अभिमंत्रित करने थे! मैंने अपने एक जानकार, जी कि अब मेरे साथी है, और अक्सर ऐसी ही 'मुहीम' में मेरे साथ रहते हैं, उनको कल के लिए कह दिया था! नाम है उनका शहरयार साहब! नाम से मुस्लिम हैं वैसे हिन्दू हैं, दोस्तों के बीच शहरयार नाम से जाने जाते हैं! तो अक्सर, उन्हें मैं भी शहरयार साहब ही कहता हूँ! ऊँचे कद, डील-डौल वाले हैं ये साहब! करीब तीस बरसों से, इसी क्षेत्र में रहे भी हैं, आदमी क़ाबिल हैं और जुझारू भी! हंसमुख भी और जीदार भी! आँखें बंद कर मेरी बात मानते हैं, कोई सवाल हो तो खुलकर पूछ भी लेते हैं! वे उन दिनों खाली भी थी, सो उनको ले लिया था संग मैंने!
तो उस रात, मैंने जो ज़रूरी काम थे निबटा लिए थे! विद्याएं संचरित कर ली थीं और तन्त्राभूषण भी सभी, अभिमंत्रित कर लिए थे! शहरयार साहब ठीक डेढ़ बजे आ गए थे मेरे पास, मैंने उनको पता बता दिया था, वो और मैं तब निकल जाने वाले थे वहां के लिए! उनको भी कुछ, बता दिया था मैंने, और कुछ अभिमंत्रण कर, उनको भी सशक्त कर लिया था, हाँ, कलुष, आदि मंत्र आदि नहीं पूर्ण कर पाये हैं अभी, उम्मीद है, कर लेंगे शीघ्र ही! तो हम, निकल पड़े थे, श्री भैरव नाथ जी का नाम लेकर, उन्हें भोग देकर!
"जिन्नात का मामला है?" पूछा उन्होंने,
"हाँ, बताया तो यही है!" कहा मैंने,
"किसी ने मालूमात की?" पूछा उन्होंने,
"हाँ, और एक मौत भी हुई है" कहा मैंने,
"मौत?" बोले वो,
"हाँ, गलती हो गई थी किसी से" कहा मैंने,
''अब गलती की तो कोई गुंजाइश है ही नहीं!" बोले वो,
"यही तो" कहा मैंने,
"ज़्यादा ही भिड़ लिए होंगे?" बोले वो,
"ये अभी पता चला जाएगा!" कहा मैंने,
"हाँ, सो तो है!" बोले वो,
"जिन्नात कोई मौक़ा क्यों देंगे!" कहा मैंने,
"हाँ, नहीं देते!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"कोई रजू का मसला है?" पूछा उन्होंने,
"लगता तो यही है!" कहा मैंने,
"ओहो, तब तो आसान नहीं मामला!" बोले वो,
"देखते हैं!" कहा मैंने,
बातें चलती रहीं हमारी, और इस बीच तीन बार फोन आ गया दर्शन लाल जी का, उन्हें हम बताते रहे कि यहां तक आ लिए, वहाँ तक पहुँचने वाले हैं! और इस तरह करीब डेढ़ घंटे में, हम वहां जा पहुंचे! वे बाहर ही मिल गए, सरल स्वाभाव है उनका, दरम्याने कद के, सैद्धांतिक व्यक्ति हैं! अपने आप में ही मस्त से रहने वाले! लेकिन इस वक़्त पूछो तो उनसे ज़्यादा परेशान तो शायद दुनिया में कोई न हो!
मैंने घर देखा! सामान्य सा ही! कुछ बदलाव नहीं था! पेड़ पौधे सभी खुशहाल से थे! कोई पाबंदी नहीं थी, कोई जिन्नाती इल्म नहीं सरपरस्त था उधर, कम से कम उस वक़्त तो!
"आइये" बोले वो,
"हाँ, चलिए" कहा मैंने,
"ये है जी घर" बोले वो,
"देखा" कहा मैंने,
तभी पानी आया, हमने पानी पिया!
"रचिता कहाँ है?" पूछा मैंने,
"यहीं है, बुलाऊँ?" बोले वो,
"हाँ" कहा मैंने,
और उन्होंने, माँ से कहा, माँ चली गई लेने उसे! बुलाने!
"बस जी, बहुत परेशान हैं हम!" बोले वो,
''समझता हूँ" कहा मैंने,
"निकाल दो जी बाहर हमें, चाहे जो लगे!" बोले वो,
"कोशिश पूरी करूंगा!" कहा मैंने,
"हर वक़्त डर ही लगा रहता है" बोले वो,
"हाँ जी, समझते हैं" बोले शहरयार साहब,
"हुआ क्या था, कौन आया था, ये तो बता चुका हूँ" बोले वो,
"हाँ, बताया आपने!" कहा मैंने,
तभी रचिता आ गई अंदर!
सीधी सी लड़की! सच पूछो तो दुनिया की ऊंच-नीच, नेक-बद से अंजान सी लड़की! बेचारी, न जाने किस चक्कर में पड़ गई थी!
''आओ रचिता!" कहा मैंने,
उसने नमस्ते की, और बैठ गई!
"कोचिंग-सेंटर कैसा चल रहा है?" पूछा मैंने,
"जी ठीक" बोली वो,
"क्या बात है, डर क्यों रही हो?" पूछा मैंने,
उसने अपने पापा की तरफ देखा!
"घबराओ नहीं रचिता! न डरो ही!" कहा मैंने,
"जी" बोली वो,
"रचिता, जो पूछूं, बताना सच, पापा यहीं रहेंगे आपके!" कहा मैंने,
उसे तो हैरत हुई! मैंने एक तीर छोड़ा था, सही लगा निशाने पर! और फिर मैंने.............


   
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श्रीशः उपदंडक
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"भाई साहब, आप बैठिए यहां!" कहा मैंने दर्शन लाल जी से,
"ज...जी..!" बोले वो,
"एक काम और कीजिये?" कहा मैंने,
"जी?" बोले वो,
"रचिता की मम्मी को भी बुला लीजिए यहां!" कहा मैंने,
"जी, धन्यवाद!" बोले वो,
और रचिता, मुझे देख, हैरान ही रह गई! ये कैसा आलिम! कमाल है! न बड़ी बड़ी मालाएं, न टीका और न कोई ऐसा ऐसा परिधान ही! और तो और, माता-पिता भी संग! मित्रगण! स्त्रियों के संग, उनका कोई रिश्तेदार, लड़की के संग उसके माँ-बाप, या बड़े भाई का होना आवश्यक है! अन्यथा, वे भय खा सकती हैं, सवालों को गलत समझ सकती हैं अथवा, किसी गलत परिस्थिति घटने के चेत के कारण, कुछ का कुछ कह सकती हैं! इसीलिए, महिलाओं को कभी भी, इन ओझा, गुनिया, भगत, भोपा आदि के पास, अकेला नहीं छोड़ना चाहिए, ज़माना सही नहीं, कुछ जानते होंगे तो कहीं अपना ही कुछ और न बिठा दें! कुछ का कुछ हो जाए! कोशिश यही हो, कि उनको छुआ न जाए, छूना ही पड़े तो कोई वरिष्ठ सदस्य संग हो!
तो रचिता की मम्मी भी आ गईं उधर, बैठ गईं उधर ही!
"रचिता?" कहा मैंने,
"जी?'' बोली वो,
"कोई मानसिक तनाव तो नहीं आजकल?" पूछा मैंने,
"बस, मम्मी-पापा को देख" बोली वो,
"उसी लिए पूछा!" कहा मैंने,
"नहीं, और नहीं!" बोली वो,
"कोई प्रेम-प्रंसग?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोली वो,
"कभी रहा?" पूछा मैंने,
"नहीं" बोली वो,
"कोई तंग करता तो नहीं?" पूछा मैंने,
"नहीं" बोली वो,
तो ये, कोण खत्म! अब इस विषय में कोई सवाल नहीं!
"कोई मानसिक-बदलाव?" पूछा मैंने,
"नहीं तो?'' बोली वो,
"कोई शारीरिक?" पूछा मैंने,
"नहीं" बोली वो,
"कोई और चिंता?" पूछा मैंने,
"नहीं" बोली वो,
"मित्रवर्ग?" पूछा मैंने,
"अधिक नहीं!" बोली वो,
"कहीं आना-जाना?" सवाल पूछा,
"नहीं" बोली वो,
नहीं! तो ये भी खत्म!
"अब वो सपने!" कहा मैंने,
"जी!" बोली वो,
"ताज़ा कौन सा आया?" पूछा मैंने,
अब उसने मम्मी को देखा, फिर पापा को! मैं समझ गया!
"अच्छा, चलो, अपने कमरे में जाओ!" कहा मैंने,
वो उठी और चली गई!
"कोई बात?" पूछा पिता जी ने,
"होगी कोई" कहा मैंने,
"तब?" बोले वो,
"मैं पता करता हूँ!" कहा मैंने,
"जी" बोले वो,
तब मैं चला उसके कमरे की तरफ! आवाज़ दी उसे, उसने दरवाज़ा खोला,
"आइये" बोली वो,
"हाँ" कहा मैंने,
"बैठिए" बोली वो,
मैं बैठ गया,
मैंने सरसरी नज़रों से सारा कमरा छान मारा! कमरे को देख, वो मुझे एक सामान्य सी ही, लड़की लगी! कोई सजावट नहीं, कोई कुछ तड़कीला-भड़कीला नहीं! अपने काम से काम रखने वाली सी, एक आम सी लड़की!
"हाँ, वो सपना!" कहा मैंने,
"जी" बोली वो,
और उसने, एक एक शब्द, बता दिया! एक बात तो साफ़ हो गई कि ये ज़रूर किसी जिन्न का ही खेल था, लेकिन कमाल ये, कि कोई असरात नहीं थे उस रचिता पर! नहीं तो असरात, हमेशा ही हुआ करते हैं!
"क्या उस तुम्बे वाले को देखा?" पूछा मैंने,
"नहीं" बोली वो,
"क्यों?" पूछा मैंने,
"दूर था" बताया उसने,
"चेहरा नहीं दिखा?" कहा मैंने,
"हाँ" बोली वो,
"तालाब?" पूछा मैंने,
"वहीँ थी मैं" बोली वो,
"कोई और भी?" पूछा मैंने,
"नहीं" कहा उसने,
"क्या वक़्त होगा?" पूछा मैंने,
"दिन का" बोली वो,
"दोपहर?" पूछा मैंने,
"हाँ, इतना ही" बोली वो,
"उसने ख़ैरियत पूछी!" कहा मैंने,
"हाँ" बोली वो,
"और कुछ नहीं?" पूछा मैंने,
"नहीं" बोली वो,


   
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श्रीशः उपदंडक
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सिर्फ ख़ैरियत ही, और कुछ नहीं! कमाल है! ये जिन्न है भी कि नहीं? अगर है, तो बड़ा ही सब्र वाला है! और अगर नहीं, तो बड़ी ही सोची समझी चाल चली गई है किसी खिलाड़ी ने! जिन्न में चार किस्में हैं! पहले बता चुका हूँ! इफ़रित सबसे ऊपर हैं, इंसानों से ज़्यादा तआल्लुक़ नहीं रखते! उनके लिए कोई कमी नहीं, हुक़्म बजाया और हाज़िर वही! 'खुल जा सिमसिम' वाली गुफा, इब्ज-बाश'उर'अज़, ऐसे ही एक इफ़रित की गुफा थी, अब है या नहीं, पता नहीं ,किवदन्ती ही हो, हो सकता है! फिर तो ये मामला, इफ़रित का भी नहीं लगता था, नहीं तो उनके सामने, कोई ठहरने वाला, है नहीं! साले इल्मात को घोल कर पी जाए वो और डकार भी न ले! यही नैसर्गिकता है इनकी! बिगड़ैल होते हैं लेकिन इंसानों के लिए नहीं! सामने ही नहीं आते! वो अलग बात है कि कभी कभी हो ही जाए टकराव!
"क्या रचिता, कोई सामने आया है?" पूछा मैंने,
"नहीं" बोली वो,
'वो लड़की?" पूछा मैंने,
"हाँ, वो ही बस!" बोली वो,
"दिखने में कैसी है?" पूछा मैंने,
"बहुत सुंदर!" बोली वो,
"मैं कुछ पूछता हूँ, जवाब दीजिये मुझे, जहां तक मालूम है!" कहा मैंने,
"जी" बोली वो,
"उसका चेहरा?" पूछा मैंने,
"गोल" बोली वो,
"भारी?" पूछा मैंने,
"नहीं" कहा उसने,
"फिर?" पूछा मैंने,
"खिंचा हुआ" बोली वो,
"समझा! और माथा?" पूछा मैंने,
"चौड़ा" बोली वो,
"रोयेंदार?" पूछा मैंने,
"हल्के से" बोली वो,
"रोयों का रंग कुछ?" पूछा मैंने,
"गुलाबी सा" बोली वो,
"सुनहरा नहीं" पूछा मैंने,
"वैसे बाल हैं" बोली वो,
"घुंघराले?" पूछा मैंने,
"नहीं" कहा उसने,
"फिर?" पूछा मैंने,
"सीधे, यहां तक" बोली वो,
मतलब, घुटनों तक!
"बांधती है?" पूछा मैंने,
"नहीं" कहा उसने,
"फिर?" पूछा मैंने,
"ढकती है, सर के आधे से, कमर तक, फिर नीचे, खुले" बोली वो,
"किस से ढकती है?" पूछा मैंने,
"कपड़े से" बोली वो,
"कपड़ा कैसा?" पूछा मैंने,
"मलमल सा" बोली वो,
"किस रंग का?" पूछा मैंने,
"फ़िरोज़ी रंग का" बोली वो,
"ओह...अच्छा!" कहा मैंने,
"एक बात और!" बोली वो,
"क्या?" पूछा मैंने,
उसकी भौंहें, पलकें, कान के पास के बाल, सुनहरी हैं!" बोली वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"और कद?" पूछा मैंने,
"यहां तक" बोली वो,
कम से कम, छह फ़ीट!
"तुमको डर नहीं लगा?" पूछा मैंने मुस्कुराते हुए,
"नहीं" बोली वो,
"उसने लगने नहीं दिया!" कहा मैंने,
"हो सकता है!" बोली वो,
''अच्छा, जिस्म, सुतवाँ है या भारी?" पूछा मैंने,
"न भारी, न हल्का" बोली वो,
"समझा!" कहा मैंने,
"और जिस्म से ख़ुश्बू आती है" बोली वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
''और कपड़े?" पूछा मैंने,
"सलवार सी, ऊपर कुर्ते की तरह, जिसमे से, कई तरह की, चमकदार सी लड़ें निकलती रहती हैं!" कहा उसने,
"आलिश!" कहा मैंने,
"क्या?" पूछा उसने,
"कुछ नहीं, ये एक अरबी, पुरानी अरबी का शब्द है!" कहा मैंने,
"इसका मतलब क्या हुआ?" पूछा उसने,
"बिन सिलाई का, गांठें लगायी हुईं हों, ऐसा कपड़ा!" कहा मैंने,
"ओह!" बोली वो,
तभी मेरे नथुनों में एक तेज महक़ आई! बहुत ही तेज! जैसे इत्र का पीपा रिस गया हो, फट गया हो आसपास ही!
"रचिता?" कहा मैंने,
"जी?" बोली वो,
"आप जाओ, अभी, अपने मम्मी-पापा के पास!" कहा मैंने,
उसे हैरानी हुई! मुझे देखा ग़ौर से!
"जाओ, अभी!" कहा मैंने,
वो चली गई, और मैंने अपना कंठ-माल, अपने हाथ में पकड़ लिया! ये सिद्ध-कंठी है, इसीलिए ले आया था संग!
मेरे सामने एक किताब रखी थी! फट से उसकी जिल्द खुली! और किताब नीचे आ गिरी! मैंने इंतज़ार किया थोड़ा! मन ही मन, कुछ पढ़ा!
"कोई है?" पूछा मैंने,
नहीं जी! कोई जवाब नहीं!
मैं आगे बढ़ा, वो किताब उठायी, "केन एंड अबेल-डैन ब्राउन" ये थी वो किताब! और जहां जिल्द खुली थी, वहां, एक नंबर सा लिखा था, ये नंबर चार अंकों का था, उस नंबर को, गोल धारे के अंदर काढ़ा गया था या फिर नंबर, लिख कर, गोल खींच दिया गया था! किसी काम का नहीं था, बस याद कर लिया वो नंबर!
और रख दी किताब फिर से वहीँ! चला दरवाज़े तक, बंद करना चाहता था, तो बंद कर दिया! मुड़ा, तो किताब की जिल्द, फिर से खुली मिली!
"कौन है?" पूछा मैंने,
कोई जवाब नहीं!
"कोई तो है?" कहा मैंने,
अब भी कोई जवाब नहीं!
"सामने आओ?" बोला मैं,
न आया कोई!
"तो जानूंगा कैसे?" पूछा मैंने,
और बैठ गया सोफे पर ही!
''आओ?" बोला मैं,
कोई नहीं!
"कोई तो है? आओ सामने?" बोला मैं!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"देखो, मुझे पता है तुम यहीं हो, आओ सामने?" कहा मैंने,
कोई नहीं आया जवाब! हाँ, वो किताब ज़रूर
 गिर गई नीचे!
"सामने आओ?" बोला मैं,
तभी, एक आवाज़ सी उभरी, जैसे बाहर गैलरी में, कोई इंजन सा स्टार्ट हुआ हो! मेरा ध्यान उधर ही चला गया! और एक तेज भभका सा उठा उस महक़ का! और फिर, नदारद! एकदम से गायब! अब कोई महक़ नहीं!
अब भला इसका क्या मतलब?
मैं उठा और वो किताब उठाई! अभी भी वही नंबर दिख रहा था, बार बार यही नंबर क्यों दिख रहा था? कोई तो वजह होगी? और हाँ? वो इंजन? उसकी आवाज़? कहीं वैक्यूम-क्लीनर तो नहीं था? ऐसी ही आवाज़ थी! मैं तभी उठा, दरवाज़ा खोला, पर्दा हटाया, और बाहर देखा! बाहर तो कुछ नहीं था, सभी कमरे बंद थे, न कोई साफ़-सफाई ही! मैं चल पड़ा रचिता के पास! पहुंचा वहां तो वे सब खड़े हो गए, शहरयार साहब, कॉफ़ी का मजा ले रहे थे!
''आप को दूँ?" बोली रचिता,
"अभी नहीं, आप लो!" कहा मैंने,
"कुछ पता चला?" पूछा पिता जी ने,
"अभी नहीं, लेकिन चल जाएगा!" कहा मैंने,
"सब ठीक ही होगा न?" बोले वो,
"चिंता न करो आप!" बोले शहरयार साहब!
"रचिता, कॉफ़ी वहीँ पी लेना? क्यों?" पूछा मैंने,
"हाँ, कोई बात नहीं!" बोली वो,
और अपना कप उठा, चल पड़ी अपने कमरे के लिए, मैं साथ ही चला उसके, आये कमरे में, अभी भी कोई महक़ नहीं! इसका मतलब था, जो आया था, वो चला गया था वहां से! तभी नज़र किताब पर पड़ी!
"अरे हाँ रचिता!" कहा मैंने,
"जी?" बोली वो, कॉफ़ी का कप, हटाते हुए,
मैंने किताब खोली, पीछे से, जिल्द हटाई और उसकी तरफ बढ़ाई किताब, उस नंबर पर ऊँगली रखते हुए!
"ये क्या नंबर है?" पूछा मैंने,
उसने किताब ली, और नंबर देखा, फिर मुस्कुरा पड़ी!
"मेरी स्कूटी का!" बोली वो,
"ओ! तो यहां लिखा?" पूछा मैंने,
"जब नंबर मिला था, तब लिखा था!" बोली वो,
"याद रखने के लिए!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
मैंने रचिता को कुछ नहीं बताया था कि उसके जाने के बाद, यहां क्या हुआ था! पता नहीं क्या होता, क्योंकि आँखों के सामने उसके, ऐसी कोई ग़ैबी हरक़त उसके साथ न हुई थी अभी तक, वो डरे नहीं, इसीलिए!
"रचिता?" पूछा मैंने,
"जी?" बोली वो,
''अगर कोई अच्छा रिश्ता आये, तो हाँ है न?" पूछा मैंने, कुछ आगे की सोच कर ही पूछा था मैंने उस से ये सवाल!
"जैसा मम्मी-पापा कहें!" बोली वो,
"शाबास!" कहा मैंने,
मुस्कुरा पड़ी वो!
"अच्छा एक बात अब!" कहा मैंने,
"जी" बोली वो,
"एक बाबा आये थे यहां, जिन्होंने तुमसे कुछ सवाल पूछे थे, मेरे सवाल वैसे तो नहीं हैं, लेकिन आपको जवाब देना होगा, चाहें तो मम्मी को बुला लें?" कहा मैंने,
"आप पूछें!" बोली वो,
समझदार थी वो रचिता!
"रचिता, क्या आपको महीना सही आता है? कोई दिक्कत या परेशानी, खासतौर से, पांच महीनों से?" पूछा मैंने,
"कोई परेशानी नहीं, कभी-कभार एक दिन इधर या उधर" बोली वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"जी" बोली वो,
"हाँ, कोई शारीरिक बदलाव?" पूछा मैंने,
"जी कैसे?" पूछा उसने,
"कुछ...घटाव-बढ़ाव?" पूछा मैंने,
"नहीं" बोली वो,
"ठीक!" कहा मैंने,
"जी, ऐसा कुछ नहीं लगा मुझे" बोली वो,
"ये तो अच्छी बात है!" कहा मैंने,
"जी" हंसी वो इस बार!
"अच्छा, रात को आराम से सोती हो?" पूछा मैंने,
"हाँ" बोली वो,
"कोई है पास में, ऐसा लगा कभी?" पूछा मैंने,
"नहीं" बोली वो,
"किसी ने छुआ हो?" पूछा मैंने,
"नहीं" बोली वो,
"बस रचिता! जो पूछना था, पूछ लिया! अब कोई सवाल नहीं!" कहा मैंने मुस्कुराते हुए!
"जी, अच्छा!" बोली वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"भेजूं पापा को?" बोली वो,
"नहीं, एक बात भूल गया!" कहा मैंने,
"क्या?" पूछा उसने,
"क्या कभी आपके कोचिंग-सेंटर आ सकता हूँ देखने?" पूछा मैंने,
"अरे क्यों नहीं!" बोली वो,
"बस!' कहा मैंने,
"जब चाहो!" बोली वो,
''आऊंगा!" कहा मैंने,
"जी" बोली वो,
"आओ अब" कहा मैंने,
और हम चले कमरे की तरफ! वे सभी फिर खड़े हो गए!
"बैठो बैठो!" कहा मैंने,
रचिता, चली गई थी, उसे बाज़ार जाना था कुछ सामान लेने, तो तैयार होने चली गई होगी!
"कुछ पता चला?" पूछा दर्शन लाल जी ने,
"हाँ" कहा मैंने,
वे हुए हैरान! आँखें चौड़ गईं!
"क्या मामला है?" पूछा उन्होंने,
"देखा जाए तो कुछ नहीं!" कहा मैंने,
"मतलब?" बोले वो,
"रचिता को कोई नुक्सान नहीं! न आपको ही!" कहा मैंने,
"लेकिन...." बोले वो,
"हाँ लेकिन!" कहा मैंने,
अब न बोले वो!
"मैं अवश्य ही देखूंगा!" कहा मैंने,
"आपकी मेहरबानी!" बोले वो,
''आओ साहब!" कहा मैंने शहरयार जी से!
"हाँ जी!" बोले वो,
"खाना?'' पूछा माता जी ने,
"फिर कभी!" कहा मैंने मुस्कुराते हुए,
"आओ" कहा मैंने,
''चलो" बोले वो,
और हम बाहर आ गए, पिता जी, कुछ देने लगे, मैंने मना कर दिया! ज़बरदस्ती की तो रख लिए!
रचिता भी बाहर आ गई! हमें देखा, और मुस्कुराई! की उसने अपनी स्कूटी स्टार्ट! और जैसे ही स्कूटी हुई स्टार्ट कि.......................!!


   
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श्रीशः उपदंडक
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ये आवाज़? यही तो आवाज़ थी उस गैलरी में आई थी! जिसे मैंने, किसी वैक्यूम-क्लीनर की सी आवाज़ कहा था! ये आवाज़, बिलकुल इसी स्कूटी के स्टार्ट होने की थी! कमाल था! पहले किताब का खुलना और उसमे इसी स्कूटी का नंबर, अब आवाज़ भी ऐसी? इसका भला क्या मतलब?
"चलें जी?" आई आवाज़ शहरयार साहब की!
"अरे हाँ!" कहा मैंने,
और वो स्कूटी, जिसे चला रही थी वो रचिता, आगे गली में जाकर मुड़ गई थी और हो गई थी ओझल!
मैं गाड़ी में बैठा, दर्शन लाल जी से बात हुई, विदा ली! और तब, गाड़ी आगे बढ़ी और हम चल दिए वापिस फिर!
"कुछ पता चला?" बोले वो,
"नहीं" कहा मैंने,
"लड़की से क्या बात हुई?" पूछा उंन्होंने,
"सारी बातें हुईं" कहा मैंने,
"तब भी?" बोले वो,
हाँ, बताता हूँ" कहा मैंने,
और उन्हें मैंने, सारी बात बता दी! उन्होंने गौर से सुनी सारी बात!
"ये नंबर?" बोले वो,
"है न अजीब?" कहा मैंने,
"हाँ, बिलकुल!" बोले वो,
"और फिर वो आवाज़?" कहा मैंने,
"हाँ, यही तो?" बोले वो,
"अब समझ ही नहीं आ रहा!" कहा मैंने,
"कोई सामने भी नहीं आता?" बोले वो,
"नहीं" कहा मैंने,
"ये कमाल है!" बोले वो,
"सब कमाल है!" कहा मैंने,
''और वो लड़की?" बोले वो,
"हाँ, यहीं से कुछ आये हाथ!" बोले वो,
"हाँ" कहा मैंने,
"लेकिन, पहुंच?" पूछा उन्होंने,
"रचिता!" कहा मैंने,
"सो तो ठीक, लेकिन..." बोले वो,
"क्या?" पूछा मैंने,
"वो तो महज़ ख़्वाब में आती है न?" बोले वो,
"हाँ" कहा मैंने,
"सामने तो नहीं?" बोले वो,
"हाँ" कहा मैंने,
"फिर?'' बोले वो,
"आएगी सामने!" कहा मैंने,
"कैसे?" पूछा उन्होंने,
"देखो आप!" कहा मैंने,
"ठीक" बोले वो,
"आना ही होगा!" बोला मैं,
"आप जानते हो जी!" बोले वो,
"देखते जाओ!" कहा मैं,
'अच्छा, यहीं बैठना है या फिर डेरे?" बोले वो,
"डेरे" कहा मैंने,
"ठीक है" बोले वो,
तब, गोल-मार्किट से सामान ले लिया हमने! और फिर चल पड़े!
"मामला बड़ा ही अजीब है!" बोले वो,
"बहुत!" कहा मैंने,
"मैंने तो सुना नहीं!" बोले वो,
"यहां कुछ अलग है!" कहा मैंने,
"ये तो है ही!" बोले वो,
"चलो, देखते हैं!" कहा मैंने,
"वैसे लड़की को कोई खतरा नहीं?" बोले वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
"ये है सबसे अजीब बात!" बोले वो,
बातें करते करते, पहुंचे डेरे हम! गए अपने कमरे में! एक सहायक से सामान लाने को कहा, ठंडा पानी, बर्फ और कुछ सलाद भी!
''आ जाओ" कहा मैंने,
"हाँ" बोले वो,
और तभी बत्ती हुई गुल!
"लो जी!" बोले वो,
"कोई बात नहीं, मोमबत्ती है!" कहा मैंने,
"हिंदुस्तान से ये मोमबत्ती ही खत्म न हो कभी!" बोले वो,
"हाँ जी, सुनो, अंदर ही आओ!" कहा मैंने,
"हाँ, बाहर तो पहना देंगे मच्छर जैकेट!" बोले वो,
"हाँ, तभी!" कहा मैंने,
सहायक आया, रख गया पानी, दो तश्तरी, जब लौटने लगा तो आवाज़ दी मैंने, उसे,
"गोविन्द?" कहा मैंने,
"हाँ जी?" बोला वो,
"यार एक कोइल ही ला दे?" बोला मैं,
''अभी लियो!" बोला वो,
"आओ जी, बैठो" कहा मैंने,
बैठ गए हम, पानी ठंडा था, झोला निकाला उन्होंने, और निकाल लिया कड़वा-सत बाहर! बनाए गिलास!
"कहीं कोई.....?" बोलते बोलते रुके वो,
"क्या?" कहा मैंने,
"कोई रक्षा तो नहीं कर रहा उसकी?" बोले वो,
"किस से?" पूछा मैंने,
"ओहो! आई समझ!" बोले वो,
"क्या जी?" पूछा मैंने,
"बरेली के पास एक गाँव है, मीरगंज!" बोले वो,
''अच्छा!" कहा मैंने,
"वहाँ आज से कोई चार साल पहले, एक साहब रहते थे, रहमान!" बोले वो,
"फिर?" पूछा मैंने,
"लो, गिलास लो!" बोले वो,
"हाँ, भोग दिया और गिलास आधा कर दिया! साथ में प्याज, चटनी वाले, चबा लिए!
"हाँ, तो फिर, उनकी एक लड़की थी, शबनम, उस पर ऐसा ही एक जिन्न रजू हो गया था, लेकिन सामने न आये, कुछ असरात नहीं!" बोले वो,
"अच्छा!!" कहा मैंने, मुझे अब इस बारे में सुनना अच्छा लगा! शायद कुछ आ ही जाए पकड़ में!
"ये मामला भी वैसा ही है, लगता है!" गिलास खाली करते हुए!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"फिर हुआ क्या था?" पूछा मैंने,
"जी, कम से कम एक साल तक तो भनक ही न लगने दी!" बोले वो,
''अच्छा?" पूछा मैंने,
"हाँ जी!" बोले वो,
"फिर?" पूछा मैंने,
"एक दिन लड़की, रात को जागी तो सामने उसके सारा सामना रखा था!" बोले वो,
"सामान?" पूछा मैंने अचरज से,
"जी, सामान!" बोले वो,
"कैसा सामान?" पूछा मैंने,
"जेवरात!" बोले वो,
"जेवरात?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
"उसके लिए लाया था?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
"लेकिन यहां तो ऐसा हे ही नहीं!" कहा मैंने,
"क्या पता हो?" बोले वो,
"कैसे?" पूछा मैंने,
"कुछ दिया हो, किसी और शक़्ल में?" पूछा उन्होंने,
"ये हो सकता है!" कहा मैंने,
"यही तो?" बोले वो,
"अभी पूछ लेता हूँ!" कहा मैंने,
और तब मैंने कॉल किया रचिता के घर, पिता जी से बात हुई और फिर रचिता से, खूब टटोला मैंने उसे, कुछ नहीं दिया था किसी ने भी!
"क्या हुआ?" पूछा उन्होंने,
"कुछ नहीं दिया!" कहा मैंने,
"अरे!" वे चौंक पड़े!
"अब बताओ!" कहा मैंने,
"मेरा तो दिमाग ही जकड़ गया!" बोले वो,
''और मेरा अकड़!" कहा मैंने,
हम हंस पड़े दोनों ही!
"एक काम न हो सके?" बोले वो,
"क्या?" पूछा मैंने,
"किसी को भेजो?" बोले वो,
"अरे नहीं!" कहा मैंने,
"तो ख़लील?" बोले वो,
"अभी नहीं!" कहा मैंने,
"जैसी मर्ज़ी!" बोले वो,
सलाद आ गई, रख दी उसने उधर ही!
"पानी है?" पूछा उसने,
"हाँ" कहा मैंने,
"अच्छा" कहा और सहायक बाहर चला!
"अब क्या करना है?" पूछा उन्होंने,
"अभी कुछ नहीं!" कहा मैंने,
"ठीक!" बोले वो,
खाना खाया और फिर वे चले गए! रात के ग्यारह बज चुके थे, अब कोई काम नहीं था, बस सोया ही जाए! तो सो गया मैं!
अगली सुबह......
करीब दस बजे...........
मेरे पास कॉल आया रचिता का! उसने फिर से एक ख़्वाब देखा था! इस बार, कोई नहीं था वहां और वो, अकेली ही थी, उस तालाब के पास! मैंने बात की फिर,
"कितने बजे?" पूछा मैंने,
"कोई दो बजे" बोली वो,
"कोई आवाज़?" पूछा मैंने,
"नहीं" बोली वो,
"कोई नहीं?" पूछा मैंने,
"नहीं" बोली वो,
"ठीक" कहा मैंने,
एक और ख़्वाब! लेकिन खाली! ये भी हैरानी की बात! खैर, अब सर दिया ओखली में तो मूसल से क्या डर!
करीब दो बजे शहरयार साहब आ गए! उनसे बातें हुईं मेरी, कुछ इधर-उधर की और कुछ इसी मामले पर!
"कुछ मिला?" पूछा उन्होंने,
"नहीं जी!" कहा मैंने,
"वही ढाक के तीन पात!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"अब क्या करना है?" पूछा मैंने,
"एक काम न करें?" पूछा मैंने,
"क्या?'' बोले वो,
"एक बार, रचिता के कोचिंग-सेंटर चलें?" बोला मैं,
"जब कहो!" बोले वो,
"आप फ़ोन करो, दर्शन लाल जी को!" कहा मैंने,
"इत्तिला करने के लिए?" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"अभी लो!" बोले वो,
मैंने इतने में, कुछ सामान ले लिया था, आज रख आता उनके घर में, दो दिन में पता चल ही जाता, या पहले भी!
तो उन्होंने फ़ोन कर दिया, वे हमें, कोचिंग-सेंटर मिलने वाले थे!
"चलें?'' पूछा उठाने,
"हाँ" कहा मैंने,
''आइये" बोले वो,
"चलो!" कहा मैंने,
और हम निकल लिए!
"एक शक है!" बोले वो,
"क्या?" पूछा मैंने,
"कहीं ये हमज़ाद तो नहीं?" बोले वो,
हमज़ाद?
मेरे कान हुए खड़े! हाँ! ये हो सकता है! हमज़ाद, बड़ा ही कारगुज़ार हुआ करता है! बड़े ही ऊँचे खेल खेलता है वो!
"क्यों जी?" पूछा उन्होंने,
"ये हो सकता है!" कहा मैंने,
"इसी पहलू से जांच करो आप!" बोले वो,
''अभी, पहुंचते ही!" कहा मैंने,
मैं बाहर देख रहा था, शहरयार साहब ने, अच्छी बात कही थी! इस बारे में तो सोचा ही नहीं था मैंने! कुछ शक था, लेकिन, हमज़ाद के लिए कोई मुहकिल नहीं ऐसा करना! और तभी, जैसे ही मेरी नज़र एक जगह पड़ी...................................!!
"रोको!" कहा मैंने...........और......!!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"रोको?'' मैं चिल्ला ही पड़ा था!
उन्होंने झट से ब्रेक लगाए औे एक तरफ, जहां कुछ बैरिकेड से लगे थे, गाड़ी रोक दी! जगह पर यातायात तो था, लेकिन ठहर कोई नहीं रहा था वहां! मैंने गाड़ी रुकते ही, झट से दरवाज़ा खोला और बाहर निकला, चला, भाग पड़ा थोड़ा सा, पीछे जाने के लिए! एक तरफ वहां, नाला था, उसके साथ एक खाली सी ज़मीन थी, यहां रिक्शे, एक के ऊपर एक कर, चढ़ा, खड़े किये गए थे, उसके ठीक साथ ही, एक पार्क था, उसी पार्क के अंदर, एक कोने के पास ही मैंने किसी को देखा था! मैं भाग कर अंदर गया! अंदर आया तो एक तेज सी महक़ वहां फैली हुई थी! ये महक़, ताज़ा गेंदे के फूलों की सी थी, कुछ कुछ खटास भरी सी! मैं अंदर आया और इधर-उधर देखने लगा! गाड़ी में बैठे हुए, मुझे न जाने क्यों लगा था कि अंदर, उस जगह कोई लड़की खड़ी है, हू-ब-हू वैसी, जैसा मुझे बताया गया था रचिता द्वारा! लेकिन यहां तो कोई नहीं था? क्या मुझे धोखा हुआ था? कोई मुग़ालता?
"क्या हुआ?'' आ गए थे शहरयार भी अंदर ही!
"कुछ देखा मैंने!" कहा मैंने,
"क्या?'' बोले वो,
"जैसे वही लड़की!" बोला मैं,
"वैसी, जैसा उस रचिता ने बताई थी?'' बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"अब है क्या कोई?" बोले वो,
"नहीं" कहा मैंने,
आओ फिर" बोले वो,
"हाँ" कहा मैंने,
हम बाहर चलने लगे, ये सरकारी पार्क था, था तो काफी बड़ा लेकिन लोग नहीं थे, कोई कर्मचारी भी नहीं था, और कोई इतनी जल्दी ये पार्क, घूम कर, पूरा भी नहीं कर सकता था! हो न हो, ये वही लड़की ही रही होगी!
हम गाड़ी में आ बैठे, आगे-पीछे देखा और गाड़ी आगे बढ़ने लगी फिर हमारी! दूसरे गियर में ज़रा कुछ दिक़्कत थी, कर्र की सी आवाज़ करता था, लेकिन मैं तो अभी तक उसी लड़की में जैसे अटका ही हुआ था!
"पीछा कर रही है?" बोले वो,
"देख रही है!" कहा मैंने,
"इसका मतलब हम सही ठिकाने पर हैं!" बोले वो,
"हाँ बस..." कहा मैंने,
"बस क्या?" बोले वो,
"पता चल जाए कि ये है कौन?" पूछा मैंने,
"चल ही जाएगा!" कहा उन्होंने,
"हाँ, आज तो पता करके ही रहूंगा!" कहा मैंने,
"ठीक!" बोले वो,
और हम बढ़ते रहे, कभी लाल-बत्ती और कभी हरी-बत्ती!
आखिर में, हम जा पहुंचे उस कोचिंग-सेंटर, दर्शन लाल जी से बात हो गई थी तो वो बाहर ही मिले हमें, मुलाक़ात हुई, और हम तब अंदर चले! रचिता से मिले! यहां तो सब ठीक था, कोई आमद नहीं थी यहां पर, रही हो, तो सुबूत साफ़ कर दिए गए थे पहले से ही!
हम एक जगह बैठ गए थे, कमरे में ही! कि अचानक ही मेरी नज़र उधर उस गुलदस्ते पर पड़ी! उसमे लाल फूल रखे गए थे, गुलाब के बड़े बड़े!
"रचिता?" कहा मैंने,
"जी?" बोली वो,
"ये फूल?" पूछा मैंने,
"रजनी लाती है!" बोली वो,
"लाल ही?" पूछा मैंने,
"हाँ, लेकिन एक दिन मैंने पीले देखे थे इसमें!" बोली वो,
''समझा!" कहा मैंने,
"कैसे थे फूल?" पूछा मैंने,
"कहीं और नहीं देखे!" बोली वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"कोई गड़बड़?" पिता जी ने पूछा,
"नहीं, बस जो है, वो लगातार नज़रों में रखता है रचिता को!" कहा मैंने,
थूक गटका तभी उन्होंने!
"अभी भी?" बोले वो,
"अभी तो कोई नहीं" कहा मैंने,
"ओह" बोले वो,
"होता, तो चलता पता!" कहा मैंने,
"हमारे साथ ही होना था ये?" बोले वो,
"किसी के साथ भी सम्भव है!" कहा मैंने,
"मैंने तो नहीं सुना?" बोले वो,
"सालों गुज़र जाते हैं!" कहा मैंने,
"हे भगवान!" बोले वो,
"ये करामाती होते हैं!" कहा मैंने,
"और अगर रीझ जाएँ तो समझो नहीं छोड़ते फिर!" बोले शहरयार जी,
"ओह..." बोले वो,
"हाँ" कहा मैंने,
"पीछा छुड़ाओ जी हमारा!" बोले वो,
"ज़रूर!" कहा शहरयार साहब ने!
"सबसे पहले पता चले!" कहा मैंने,
"जी" बोले वो,
तभी फिर से वही तेज महक़! साफ़ था, आमद हुई है किसी की! मैंने झट से सभी से कह दिया कि वो कमरा खाली करें और बाहर जाएँ, फौरन! वे सभी निकल गए! मैं उस कुर्सी पर आ बैठा! शांत! सबकुछ शांत! बस पंखे की आवाज़ ही आये!
"कौन है?" पूछा मैंने,
शांत, सब शांत!
''आओ सामने, अब बहुत हुआ!" कहा मैंने,
कोई नहीं!
"आना ही होगा! छिप नहीं सकते!" कहा मैंने,
एक हंसी! दबी दबी से! जैसे हंसी को हाथ से रोका गया हो!
"आओ, सामने तो आओ?" बोला मैं,
हंसी बंद तब!
और सर पर टंगा पंखा कट-कट कर बैठा! वो ज़ोर ज़ोर से हिल रहा था, छत से टकराता हुआ! छत से प्लास्टर हटने लगा था, अजीब सी आवाज़ होने लगी थी, मिट्टी सो झड़ने लगी थी! मैं उठ गया वहां से! कहीं गिर ही न जाए!
"सामने आ?" अब मैं चीखा!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"आओ सामने?" कहा मैंने,
न, कोई नहीं!
"बहुत हुआ खेल!" कहा मैंने,
नहीं जी!
"ऐसे नहीं आओगे?" बोला मैं,
खिड़की भड़ाक से बंद हुई तभी!
"मैं नहीं डरने वाला, बताओ, कौन हो तुम?" चिल्लाया मैं,
फिर से एक हंसी!
"ठीक!" कहा मैंने,
और मैंने तब. एक मंत्र पढ़ना शुरू किया! जैसे ही आधे में आया! मेरे पाँव घिसटते चले गए! ऐसी बेपनाह ताक़त तो मैंने कभी पहले देखी ही न थी! इस हरकत ने मुझे एक नहीं दो बार सोचने को मज़बूर कर दिया कि मेरे सामने वाला कोई मामूली जिन्न नहीं, कोई माहिर, इल्मात को जानने वाला और बेहद ही ताक़तवर है! मेरा मंत्र टूट गया था! मैं हैरान तो था लेकिन घबराया नहीं था! घबराता तो सूंघ हो जाती उसे! और हो जाता हावी मुझ पर!
"सामने आओ!" कहा मैंने,
फिर से एक हंसी!
"आओ?" चिल्लाया मैं!
नहीं, कोई नहीं!
वो महक़, मेरे नथुनों के बेहद करीब से गुज़री! जैसे, मेरा जायज़ा लिया हो किसी ने! मैंने उसी क्षण, कुछ मन ही मन पढ़ना शुरू कर दिया था, अपने कंठ-माल को, हाथ में लिया और हुआ सामने!
"क्या चाहते हो?" पूछा मैंने,
जैसे बहुत ही तेज हवा चल रही हो बीहड़ में! जैसे आवाज़ दो, तो लौटकर ही न आये  वापिस, ऐसा बीहड़ रहा हो वो! सांय-सांय की सी तेज आवाज़ गूंजने लगी, हर तरफ! हर तरफ! जैसे कोई बड़ा ही भीषण तूफ़ान बस गुज़रने ही वाला हो वहां से! और उसी सांय-सांय की सी आवाज़ में, कुछ अलफ़ाज़ से गूंजे, हालांकि मद्धम ही थे, अगर मंत्र-पोषण नहीं किया होता, तो सुनना, शायद ही मुमक़िन होता!
"जाओ" आई थी आवाज़!
न मर्द की, और न औरत की!
"कौन?" मैंने पूछा,
"जाओ!" फिर से आवाज़ गूंजी!
"कौन है?" मैं चिल्लाया,
"जाओ!" आई फिर से आवाज़!
"जाऊँगा मैं नहीं, जाएगा तू!" कहा मैंने और उतार लिया अपना कंठ-माल गले से, एक ही झटके में, अंगूठे में फंसा लिया, और हो गया भिड़ने को तैयार!
"अंत'आ'क़िल इ'अला अल'फ'अवर!" आई आवाज़!
ये तो अरबी थी! पुरानी अरबी! इसका मतलब हुआ, अभी लौट जाओ, अभी के अभी!
"हल हू तेहदिद?" पूछा मैंने,
मायने, क्या मैं इसे धमकी समझूं!
"ल' तज'ओ'लीनी घड़ी'बाह!" आई आवाज़!
"इन् लस्त ख़'ईफ!" कहा मैंने,
मायने, मैं नहीं डरता!
फिर से एक हंसी! दबी दबी सी!
अब हिंदी में ही लिखता हूँ!
तो मैंने बता दिया था कि मैं नहीं डरता! नहीं घबराता! वो हंसने लगा था, कमाल तो ये था कि ये ज़ाहिर नहीं होने दिया था उसने कि वो औरत थी या मर्द! और इसी में, हमज़ाद माहिर हुआ करते हैं! ये आपके साथ साये की तरह से रह सकते हैं, आपका साया भी चुरा लेते हैं! हमज़ाद, कुल चार तरह के हैं, कौन कौन से, ये फिर कभी!
''सामने तो आ?" कहा मैंने,
फिर वो आवाज़ खत्म!
वो तूफानी सा शोर, खत्म! 
एकदम! हाँ, पंखा अजीब सी आवाज़ें कर रहा था, पंखडियाँ मुड़-तुड़ गई थीं उसकी!
"है कोई?" पूछा मैंने,
नहीं, कोई नहीं!
वो महक़, वो भी नहीं! इसका मतलब, वो जो भी था, जा चुका था! मंसूबा, धमकाने का था, धमका दिया था! असलियत न खोली थी उसने! उसने तो पूरी कोशिश की थी, अब मेरा वक़्त था कोशिश करने का!
मैं बाहर आया, और सब बता दिया! दर्शन लाल जी तो पंखा देख, पंखे जैसे हो गए! वो जो देख रहे थे, कभी देखा क्या, सुना भी न था!
"दर्शन जी?" कहा मैंने,
"ज..जी?" बोले वो,
''अभी चलिए घर" कहा मैंने,
"जी" बोले वो,
"अब देर नहीं!" कहा मैंने,
''व..वो...रचिता?" बोले वो,
"उसे रहने दीजिये" कहा मैंने,
"ले ही लूँ?" बोले वो,
"ठीक, ले लो!" कहा मैंने,
"आया अभी" बोले वो,
"हमज़ाद ही है?" पूछा शहरयार साहब ने,
"अभी नहीं पता!" कहा मैंने,
"क्या रहा?" पूछा उन्होंने,
मैंने सब बता दिया उन्हें! वे भी ख़ौफ़ज़दा से हो गए!
"ये शय तो कोई नई है!" बोले वो,
"हाँ" कहा मैंने,
"हमज़ाद अँधेरे में आता है!" बोले वो,
"ज़्यादातर!" कहा मैंने,
"कलूटा बोलते हैं न इसे?" बोले वो,
"हाँ, कालू वीर!" कहा मैंने,
"तब तो ये बिगड़ैल है!" बोले वो,
"हमज़ाद ही हो, तो कर लें क़ैद!" कहा मैंने,
"पहचान ही तो नहीं दे रहा!" बोले वो,
"यही!" कहा मैंने,
"देगा, कब तक नहीं देगा!" बोले वो,
"हाँ, देगा पहचान अपनी!" बोला मैं,
"कर दो मज़बूर!" बोले वो,
"तभी घर चल रहे हैं!" कहा मैंने,


   
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श्रीशः उपदंडक
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और हम निकल पड़े घर के लिए! करीब आधे घंटे में वहां जा पहुंचे! घर में आये तो कोई निशान नहीं किसी की कोई आमद नहीं थी! सबकुछ वैसा ही था जिसे हम साधारण ही कहते हैं! हम अंदर बैठे, नमस्कार हुई रचिता की माँ से, वे पानी ले आईं और हमने पानी पिया फिर! 
"कीलें हैं घर में?" पूछा मैंने,
"कैसी कीलें?" पूछा उन्होंने,
"कोई इंच भर की?" पूछा मैंने,
"नहीं होंगी, ले आऊं?" बोले वो,
"हाँ, ज़रूरत पड़ेगी" कहा मैंने,
"आप बैठिए, मैं लाता हूँ!" बोले वो,
"ठीक" कहा मैंने,
''आप चाय-कॉफ़ी लीजिए तब तक, अभी आया मैं!" बोले वो,
और चले गए बाहर, माँ भी चली गईं, चाय ले लिए हाँ कही थी हमने!
"या तो रजू है इस लड़की पर, या फिर कहीं से लगवाया गया है!" बोले वो,
"लेकिन अभी तक तो कुछ मालूम ही नहीं?" कहा मैंने,
"कीलन कर तो रहे हो?" बोले वो,
"हाँ" कहा मैंने,
"तो बस!" बोले वो,
"देखते हैं!" कहा मैंने,
"अब कहाँ जाएगा?" बोले वो,
"पहले देखूं कि हमज़ाद ही है या कोई और?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
"तब देखते हैं!" कहा मैंने,
"यही ठीक!" कहा उन्होंने,
चाय आ गई, साथ में नमकीन, बिस्कुट आदि भी! चाय पीने लगे हम! कि तभी एक शोर की आवाज़ हुई छत पर! चढ़ाक जैसी! जैसे लोहे की सी कोई सीढ़ी नीचे गिरी हो! मैंने कप रखा, और शहरयार जी को लेकर, दौड़ा उधर, आवाज़ और किसी को नहीं आई थी! अब कोई मुझ से खेल रहा था!
"ताला लगा है!" कहा मैंने,
"चाबी लाता हूँ!" बोले वो,
नीचे जाने लगे तो रास्ते में ही रचिता मिली उन्हें, अजीब सी निगाहों से देखा उनको! आँखें सुर्ख़ और जबड़ा गुस्से से भिंचा हुआ! वे एक पल को तो सहम ही गए थे! खैर, माँ मिलीं, चाबी दी उन्हें, रचिता अपने कमरे में जा घुसी!
चाबी ले आये मेरे पास, दरवाज़ा खोला और हम छत पर आये! आसपास देखा! कुछ भी न था! कोई सीढ़ी ही नहीं थी! सबकुछ सही था वहाँ!
"यहां तो कुछ नहीं!" कहा मैंने,
"है!" बोले वो,
"कहाँ?" पूछा मैंने,
"नीचे!" बोले वो,
"नीचे?" कहा मैंने, हैरानी से,
"हाँ, उस समय जब चाबी लेने जा रहा था, तब रचिता मिली थी, लेकिन वो गुस्से में थी बहुत, मुझे गुस्से में देखा था उसने, जबड़ा भींचे!" बोले वो,
"शहरयार साहब?" कहा मैंने,
"जी?" बोले वो,
"ये क्या कह रहे हो?" कहा मैंने,
"सही तो कह रहा हूँ?" बोले वो,
"रचिता अभी घर नहीं पहुंची!" कहा मैंने,
"क्या? अरे???" माथे पर हाथ रख, ज़ोर से बोले वो!
"वो रजनी को छोड़ कर आएगी!" कहा मैंने,
"लेकिन कमरे में है वो?" बोले वो,
''आओ, देखें!" कहा मैंने,
"हाँ, आइये, चलिए!" बोले वो,
हम दौड़ कर आये वहां!
"खोलो?" बोला मैं,
उन्होंने दरवाज़ा खिसकाने के लिए ज़ोर लगाया, लेकिन दरवाज़ा, खुले ही न!
"बंद है!" कहा मैंने,
"सच कहता हूँ, यहीं जाते देखा था उसे!" बोले वो,
मामला बेहद ही संजीदा था! कोई था यहां! बिना अपनी सूँ दिए!
उन्होंने मुझे घूर के देखा! मैं हल्का सा मुस्कुराया! और तभी छत पर फिर से आवाज़ हुई, जैसे कोई भागा हो!
"आओ!" कहा मैंने,
"हूँ!" बोले वो,
और हम, सीढ़ियां फरलांगते हुए ऊपर चढ़ चले!
''वो देखो!" बोले वो,
मैंने गौर से देखा! उफ्फ्फ! कैसा मंजर था वो!
उस छत पट एक ममूटी बनी थी, जिस पर पानी की दो बड़ी टंकियां रखी गईं थीं! बाईं टंकी के पास, अपने आपको कोई जैसे छिपाए खड़ा था! सिर्फ कूल्हे ही दीख रहे थे, या फिर, दोनों टंकियों के बीच में जो फांसला था, उसके बीच से निकलते हुए बाल किसी के! बाल लम्बे थे, शायद कोई औरत रही हो! चूँकि, कूल्हे ही दीख रहे थे, तो ये बताना भी मुश्किल ही था कि कौन है वो, कोई औरत या कोई और?
"श्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्!" कहा मैंने,
"ह....हाँ!" बोले धीरे से,
"कौन है वहां?" मैं ज़ोर से चिल्लाया!
पत्थर की तरह, बे-हरक़त कोई, जस का तस खड़ा रहा!
"बताओ? कौन है?" चिल्लाया मैं,
पल भर में ही फटाक की सी आवाज़ हुई! ममूटी पर बिखरा पानी इधर-उधर फ़ैल गया! और कोई, गायब हो गया!
मैं आगे गया! गौर से देखा! ममूटी की सीढ़ी लगाई और चढ़ने लगा उस पर! कोई नहीं था उधर! या तो नज़रों का धोखा था, या फिर किसी का कोई ग़ैबी खेल!
"कोई है?" बोले शहरयार साहब!
"नहीं!" कहा मैंने,
"मैं आऊं?" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
वे आगे आने लगे! और तभी रुक गए! पीछे देखा उन्होंने पलट कर, धीरे से! मैं समझ गया कि किसी को देखा है उन्होंने, मैंने झट से सीढ़ियां छोड़ीं और उनके पास आया! सामने देखा, सीढ़ियों का रास्ता था, और कुछ नहीं!
"क्या हुआ?" पूछा मैंने,
"कोई है वहां!" बोले वो, धीरे से,
''आओ?" कहा मैंने,
हम गए वहां तक, देखा, कोई नहीं!
"कोई नहीं!" कहा मैंने,
"देखा था मैंने कुछ!" बोले वो,
"क्या?" पूछा मैंने,
"किसी साये को, जो झुक कर, हमें देख रहा था!" बोले वो,


   
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