वर्ष २०१५, दिल्ली क...
 
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वर्ष २०१५, दिल्ली के पास की एक घटना, रचिता के वो अंजान ख़्वाब!

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श्रीशः उपदंडक
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वे आगे गए, और प्रांगण में आ गए उस मंदिर की! तभी एक नारा गूंजा, तारकेश्वर महादेव की जय! अब आया समझा कि ये कोई मंदिर है, तारकेश्वर महादेव का मंदिर! मंदिर बेहद ही खूबसूरत था! शान्ति भरी जगह और पावन सा माहौल! अचानक ही सामने, पूर्वी क्षितिज पर, बिजली कौंधी! पहाड़ों में कब मौसम बदल जाए, पता ही नहीं चलता! खैर, उन्होंने दर्शन किये और निकले वहां से, हवा बहुत तेज होने लगी थी! इतनी तेज कि वहां रखा साजोसामान भी, अस्त-व्यस्त सा होने लगा था! टीनों पर टकराती तेज हवाएं जैसे छेद करने को आमादा हों उन पर! पेड़, जैसे ज़मीन को चूमने ही जा रहे हों! लम्हे में ही ऐसा मौसम बदला था कि जैसे ये चौमासे का सा दिन हो कोई! और तभी, तेज बरसात होने लगी! वे मंदिर के प्रांगण में ही रुक गए थे! झमाझम बारिश हो रही थी! और भी कई लोगों ने, वहां आकर, पनाह ले ली थी! अभी कुछ ही वक़्त बीता था कि बत्ती भी चली गई! और हो गया अँधेरा वहां! बाहर बारिश और अंदर अँधेरा! जो दीये-बाती जले थे, उन्हें हवा ने समझा-बुझा दिया था! रह गया था तो एक, वो मुख्य दीया जो अंदर जल रहा था!
"जल्दी ही निकलना था!" बोले पिता जी,
"हाँ" बोलीं माँ,
"अब ऐसा क्या पता था?" बोला नितिन!
"हाँ, ये तो अचानक ही हुआ है!" बोले पिता जी,
तभी बाहर कोई फिसला! धम्म की सी आवाज़ हुई! कुछ लोगों ने देखा उधर...........और!
नींद खुल गई! पल भर को कुछ सोचा उसने! कमाल है, सपना एक ही जगह का, एक ही समय का, और कैसा यकीन करने वाला भी! जैसे, साफ़ साफ़ देख रही हो सबकुछ! पहली बार, फ़िक़्र को, मुस्कुराहट का थप्पड़ सा पड़ा! और आँखें मूंद लीं उसने!
दो घंटे बीत गए! और इस बार, एक नया ही ख़्वाब पेश आया उसके ज़हन में! ये जो जगह थी, ये किसी समंदर का किनारा था! रेत उसकी, हल्का सा पीलापन लिए, सफेद सी थी! गहराई नहीं थी वहां, वो घुटने तक, डूबी खड़ी थी! उसका नीचे का कपड़ा, लहरों के साथ, टकराने से, नाच सा रहा था! पास ही, एक लकड़ी, जो शायद, किसी नाव की थी, जिसमे एक बड़ी कील अभी भी निकली थी, और एक नीले रंग की रस्सी से बंधी थी, वो भी नाचे जा रही थी! पानी शांत था यहां, जैसे बस, हवा ही बहकर, उसे मज़बूर करती थी, किनारे की लिपटने की कशिश को सुनते हुए, जानते हुए, समझते हुए! वो हवा, पानी पर बहती तो पानी में लहरें बनतीं, छोटी छोटी सी! पानी आगे जा बढ़ता और किनारे से जा मिलता! दूर सामने, खाली सा समंदर था, कहीं हरा और कहीं गहरा नीला! ऊपर देखा, तो समंदर के बड़े बड़े, सफेद सफेद परिंदे, उड़े चले जा रहे थे! बादल सफेद थे, रुई की तरह! पानी में उनकी परछाईं बर्फ के बड़े बड़े टुकड़ों की तरह से दीख रही थी! बाएं हाथ पर, एक छोटी सी पहाड़ी थी, नारियल के पेड़ उगे थे, झुरमुट था उनका वहां! कच्चे, हरे से नारियल उस दिन के उजाले में, हरे से पन्ने के मानिंद दमक रहे थे! दाएं हाथ पर, किनारा था, दूर तलक चला गया था! कुछ दूर, समंदर के काले से परिंदे, बैठे थे, कुछ ठोंग मार रहे थे किसी समंदर में बहकर आये शिकार पर! शायद कोई बड़ा सा केंकड़ा रहा होगा!
और पीछे, खाली जगह थी, दूर दूर तक! बस कुछ समंदर के इर्द-गिर्द होने वाले पेड़ उगे थे! सफेद सी रेत के, टीले से बन गए थे! धूप भले ही तेज थी, लेकिन इतनी भी नहीं कि खाल झुलसा दे! हवा बड़ी सी सुकूनदेह थी! भले ही समंदर की, खारी रही हो, नमक वाली, लेकिन चिपचिपी तो क़तई नहीं थी!
पांवों के नीचे से, लहरों के टकराने से, जब रेत अपनी जगह बदलती, तो पाँव के तलवों में गुदगुदी सी उठ जाती! वो बार बार कदम बदलती! वो झुकी, और अपने बाएं हाथ में, समंदर का पानी लिया, पानी, कांच सा सफेद, जानदार सा! ठंडा! उसने वो पानी नीचे टपका दिया, जैसे ही टपकाया, छोटी छोटी रंग-बिरंगी मछलियों का झुण्ड दौड़ पड़ा उस तरफ! लाल, पीली, हरी, काली, दुरंगी, तिरंगी, क़िस्म क़िस्म की, सुनहरी, पयारी सी मछलियां! खुश हो उठी! पाने कभी वहां फेंकती, कभी वहाँ! मछलियां दौड़ पड़तीं!
"रचिता?" आई एक आवाज़!
उसने पीछे देखा, पानी हाथ में ही रह गया उसके! धीरे से गिराया! पीछे देखा, तो वही लड़की दिखी उसे, जो उस रोज उसे, उस पहाड़ी पर!
"आप?" बोली रचिता!
"हाँ!" बोली वो,
"यहां कैसे?" पूछा रचिता ने,
"मैं तो यहीं हूँ!" बोली वो,
"आप रहते हैं यहां?" पूछा उसने,
"हम....हर जगह!" बोली वो,
"उस दिन कहाँ चली गई थीं आप?" पूछा रचिता ने,
"वहीँ तो थी?" बोली वो,
"नहीं!" बोली मुस्कुराते हुए रचिता!
"आपने ढूंढा ही नहीं हमें!" बोली वो लड़की!
"हर जगह!" बोली रचिता!
"खैर, हम वहीँ थे!" बोली वो,
"झूठ?" बोली रचिता,
"नहीं, सच!" कहा मैंने,
''औेर ये जगह?" पूछा उसने,
"पसंद  है आपको?" बोली वो,
"बहुत सुंदर है!" बोली रचिता!
"आपको पसंद है?'' पूछा उसने,
"बहुत!" बोली वो,
"हाँ, मुझे भी!" बोली वो,
"आप यहीं रहते हो?" पूछा रचिता ने,
"हाँ!" कहा उसने,
"ऐसी जगह?" बोली वो,
"हाँ, सुकून है न?" पूछा उसने,
"हाँ!" बोली वो,
"मैं अक्सर यहां आती हूँ!" बोली वो,
"अच्छा!" कहा उसने,
"आप आओगे?" पूछा उसने,
''कहाँ?" पूछा रचिता ने,
"यहां?" बोली वो,
"क्यों नहीं!" बोली वो,
"पक्का?" पूछा उसने,
"हाँ, आप बुलाओगे तो!" बोली वो!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"क्यों नहीं बुलाएंगे आपको भला?" बोली वो,
"बुलाएंगे तो आउंगी!" बोली रचिता!
"अच्छा है, हमें अच्छा लगा!" बोली वो,
"सच में?'' पूछा रचिता ने,
"हाँ, सच में!" बोली वो,
"ऐसा क्यों लगता है, मैं आपको जानती हूँ?" बोली रचिता!
"अच्छा!" बोली वो,
"हाँ, जैसे पहले से जानती हूँ!" बोली वो,
"ये तो और अच्छा है!" कहा उसने,
"हाँ, अच्छा है!" बोली वो,
अचानक से समंदर में तेज सी लहर उठी! और आ टकराई किनारे से! झन्न की सी आवाज़ हुई! उसके बाल, उड़ चले, ठंडी हवा ने जैसे, जिस्म में ताज़गी भर दी! आँखें, बंद होने लगीं, और जब खुलीं, तो ठीक पांच बजने वाले थे! घड़ी में, पांच घंटे बजने लगे! वो उठी, लेकिन कोई अंगड़ाई नहीं! जैसे जिस्म, तरोताज़ा ही हो! उसने शीशे को देखा, बाल, बिखरे से थे, जैसे समंदर की हवाएं आ टकराईं हों उसके बालों से, संवारे हों उसके बाल! उसने बाल ठीक किये हाथों से, और शीशा देखते हुए, हल्का सा मुस्कुरा पड़ी वो!
उठी, थोड़ा साज-श्रृंगार किया, गुसलखाने गई और फिर उसके बाद, तैयार हो गई व्यायाम करने के लिए, पार्क में जाने के लिए! चली गई वो!
सात बजे लौटी वापिस, और नहा-धो, तैयार हो गई! पिता जी के साथ ही चाय-नाश्ता किया, पिता जी दफ़्तर गए और वो अपने सेंटर!
उस रोज सुबह से ही सेंटर में काफी व्यस्त रही वो! अंजू आज नहीं आई थी, उसको डॉक्टर के पास जाना था, कुछ कारण रहे होंगे! रजनी आई थी, रजनी से बात भी हुई उसकी, और उस रोज, रजनी, लाल बड़े से गुलाब लेकर आई थी! उसने पानी बदल, गुलदस्ते का, ताज़ा पानी डाल, एक चुटकी नमक डाल, नए गुलाब रख दिए थे! दोपहर को, रजनी भी साथ ही भोजन करने आ गई थी! आपसी कुछ बातें हुईं, सेंटर को लेकर, और फिर, खाना खोल, तैयार हुईं खाने के लिए!
"उस दिन पीले फूल कौन से थे रजनी?" पूछा उसने,
"कौन से फूल?" बोली रजनी, रोटी का टुकड़ा बनाते हुए,
"उस रोज? लायी नहीं थीं?" पूछा रचिता ने,
"कैसे फूल?" पूछा रजनी ने,
"पीले फूल?" बोली वो,
"पीले?" बोली चौंक कर!
"हाँ?" बोली रचिता!
"मैं तो कभी नहीं लायी पीले फूल?" बोली रजनी!
"क्या? तो कौन लाया था?" पूछा उसने,
"मुझे नहीं पता, शायद अंजू मैं'म?" बोली वो,
"वो तो कभी नहीं लाती?" बोली वो,
"तब आप लायी होंगी!" बोली हँसते हुए!
"मैं कहाँ से लाउंगी?" बोली रचिता!
"लाल ही लाती हूँ मैं तो!" बोली वो,
"पीले कभी नहीं लायी?" पूछा रचिता ने,
"नहीं तो? लाया करूं क्या?' बोली वो,
"नहीं, लाल ही ठीक!" बोली वो,
अब सोच में पड़ी रचिता! रजनी नहीं लायी, तो कौन लाया? कोई तो लाया ही होगा? अपने आप तो आने से रहे! शायद, भूल गई है रजनी, परेशान भी रहती है घर से थोड़ा!
"अरे वो, छोटी बहन के रिश्ते का क्या हुआ?" पूछा उसने,
"अभी कोई जवाब नहीं!" बोली वो,
"अच्छा, कब तक आएगा?" पूछा उसने,
"कुछ नहीं कह सकते!" बोली वो,
"जवाब तो देना चाहिए था उन्हें?" बोली वो,
''ऐसा ही तो हुआ है अभी तक!" बोली वो,
"कैसा?" पूछा उसने,
"उसे देखने तो आते हैं, लेकिन हाँ कोई नहीं कहता!" बोली वो,
"क्या नाम है लड़के का?" पूछा उसने,
"रोहित" बोली वो,
"चल, अब आएगा जवाब!" बोली रचिता!
''आ जाए तो नसीब वाली होगी वो! लड़का अच्छा है बहुत!" बोली वो,
"आ जाएगा!" बोली रचिता!
और तभी, बजा रजनी का फ़ोन! उसने देखा!
"माँ का है!" बोली वो,
"बात करो?" बोली रचिता!
वो, रजनी, जैसे जैसे बात करती जाए, ख़ुशी के मारे फूले जाए! खड़ी हो, बात करे! आखिर में बात खत्म हुई! और बैठी वो!
"कमाल हो गया मैं'म!" बोली रजनी!
"क्या हुआ?'' पूछा उसने,
"लड़के वालों का जवाब आ गया!" बोली वो,
"अच्छा? क्या कहा?" पूछा रचिता ने,
"लड़की पसंद है, इस इतवार, आगे की बात करने आएंगे वे लोग!" बोली वो!
"अरे वाह! बहुत अच्छा हुआ! तेरी चिंता हटी अब!" बोली रचिता!
"हाँ मैं'म! आपकी वजह से!" बोली वो,
"मेरी वजह से?" पूछा अचरज से रचिता ने!
"हाँ!" बोली वो,
"वो कैसे?" पूछना चाहा रचिता ने!
''आपने हाँ कही और उधर से हाँ हुई!" बोली वो,
"मैंने कुछ नहीं किया!" बोली वो,
"आप मानो या न मानो!" बोली वो,
''चल जा अब!" बोली रचिता हँसते हुए!
"आना होगा आप सभी को!" बोली वो,
"हाँ, क्यों नहीं!" बोली वो,
"मैं तो माँ को बताउंगी सब!" बोली वो,
"क्या ज़रूरत!" बोली रचिता!
"है न ज़रूरत!" कहा उसने,
"अब जा ना?" बोली वो,
"हाँ. जाती हूँ!" बोली वो,
रजनी ने बर्तन उठाये और रख लिए वापिस! चली गई बाहर, रचिता ने भी अपने बर्तन, रख लिए वापिस! अचानक से नज़र सामने पड़ी! उसे पल भर को लगा था की उस गुलदस्ते में, लाल की जगह, पीले फूल लगे हैं! वो करीब आई, उन्हें छूकर देखा, लाल ही थे!
तभी फ़ोन बजा उसका.......


   
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श्रीशः उपदंडक
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फोन बजा तो उसने उठाया, नंबर पहचान गई थी, ये नंबर अंजू का था! अंजू ने उसको खुशखबरी दी थी, कि अंजू पेट से है, और डॉक्टर ने इस बात की पुष्टि कर दी थी! पहली संतान होनी थी, अतः, उसके घर में, रिश्तेदारी में, सभी खुश हो उठे थे! इसीलिए, उसने इस ख़ुशी में रचिता को भी शरीक़ किया था! अंजू बहुत पुरानी जानकार और सहेली रही थी उसकी! कोई भी बात हो, खुलकर, एक दूसरे से कह लेती थीं! रचिता ने बधाई दी और फिर उसके बाद अपने कामों में मसरूफ़ हो गई! 
इस तरह से, कोई आठ दिन बीत गए! कुछ ख़्वाब के टुकड़े, याद रहे, कुछ धुंधले पड़ गए, वो धुंधलापन हट जाता अगर दोबारा से उन पर यादों का पोंछा लगाया जाता तो! खैर, सब कुछ याद रखना, इंसान की फ़ितरत नहीं, और सबकुछ भूल ही जाना, ये भी फ़ितरत नहीं! कुछ याद रखना ज़रूरी है तो कुछ भूल जाना भी उतना ही ज़रूरी है! तो जी, कुछ याद रहा और कुछ भूल गई!
वो दिन था, करीब ढाई बजे के आसपास का वक़्त! मौसम बेहद ही खुशगवार हो उठा था उस रोज! हवाएं, बावरी सी हो, अलमस्त सी जान पड़, पूरे घर में घमाचौकड़ी मचाए हुए थे! एक खिड़की बंद करो, तो दूसरी बाजै और दूसरी बंद करो तो दरवाज़ा खड़कै, अब दोनों की ही सम्भाल करो तो रौशनदान से झांक, मुंह चिढ़ावै! हवा तो हवा है, जब ठान ले अल्हड़पन तो फिर किसकी बिसात साहब! क्या मिट्टी और क्या रेत, क्या खलिहान और क्या खेत! सब पर, बेडौल सी डोला करती है! पेड़ गिराए, उखाड़े, झुकाए, फटकारे, पौधों को सताए, पानी से बैर बांधे! और इंसानों की तो छोड़ ही दो! अपनी पे आ जाए तो उड़ा ही ले जाए संग! छोटी रही तो सांस और बड़ी रहे तो तूफ़ान!
हाँ, तो कुछ ऐसा ही माहौल था! रचिता के कमरे के बार लगी, कत्थई-केतकी भी आज, नाच उठी थी! पीले फूलों वाली केली उसको देख, जैसे तैसे, ठुमके से भर देती थी! अनार का पढ़ा तो सब पर भारी था! संतरी से फूल रखे, क्या ज़ोर नाचता था वो! और उसके नीचे लगी घास, जैसे उसको बार बार अपने फूलों की क़द्र करना सिखा रही थी! कि अगर गिर गए तो बुरा होगा, भारी दिल से, कंधे देने ही होंगे उसे!
कमरे में लटकी पेंटिंग, जैसे उचक-उचक, बार बार, बाहर का नज़ारा देखने को बेसब्र हो! पर्दे, जैसे आज हुए ही बेलग़ाम! वो कैलेंडर, जिसमे बाल-कृष्ण जी थे, लगता था, कि उनका मक्खन से भरा मटका, अब गिरा, अब सरका और अब छिटका! उस कैलेंडर पर नीचे लिखा वो किसी कम्पनी का नाम, आज तो फड़क-फड़क रहा था! जैसे जीवन तो आज ही सफल हुआ हो उसका! दरअसल, ऐसी हवा में बदलाव तब आता है, जब दो भिन्न-भिन्न दिशाओं की हवाएं, आपस में टकराती हैं! जब पछां की हवा चले, और पुरवाई से टकराए तो ऐसा होता है! तो ज़ोर तब, पछां का था, पुरवाई को अभी सब्र करना ही था, आना था उसका वक़्त भी, कुछ माह बाद!
अपने बिस्तर पर लेटी, कुछ पढ़ती हुई, बार बार, सामने देख लेटी थी! चिटकनी ऐसे भर्रा सी जाती कि जैसे कोई तोड़ने ही वाला हो उसे!
तभी, दस्तक हुई दरवाज़े पर!
"कौन?" बोली वो,
"अरे मैं हूँ?" बोली माँ,
"अच्छा, आई!" बोली वो,
गयी आगे, चिटकनी खोली, माँ सामने खड़ी थी!
"आओ मम्मी!" बोली वो,
"हाँ, आ, बैठ ज़रा!" बोलीं माँ,
वो बैठ गईं दोनों, वहीँ बिस्तर पर!
"वो तेरे पापा का फ़ोन आया था अभी!" बोली माँ,
"अच्छा, क्या हुआ, सब ठीक?" पूछा उसने,
"हाँ, सब ठीक!" बोली माँ,
"अच्छा, फिर?" पूछा उसने,
"अगले हफ्ते, तेरे चाचा और उनकी फैमिली, जा रहे हैं घूमने!" बोली माँ,
"अच्छा, कहाँ?" पूछा उसने,
"क्या नाम बताया था तेरे पापा ने?" याद करते हुए बोलीं वो,
"कैसा नाम था?" पूछा रचिता ने,
"कोई अंग्रेजी सा नाम था...!" बोलीं वो,
"याद करो?" बोली वो,
"तू फ़ोन कर, ज़रा पूछ तो?" बोलीं वो,
रचिता हँसते हुए, फोन करने लगी पापा को अपने, पापा से बात हुई और जगह का नाम पता चला, फोन रख दिया गया फिर!
"मम्मी?" बोली वो,
"हाँ, बताया?" बोलीं माँ,
"हाँ!" बोली वो,
"क्या नाम बताया?" पूछा माँ ने,
"लैंड्सडाउन!" बोली वो,
"हाँ, यही, डाउन ही है!" बोलीं माँ!
रचिता ठहाका मारते हुए हंसी! माँ भी हंस पड़ी!
"नाम है ही अंग्रेजी!" बोलीं माँ,
"हाँ, अंग्रेजी!" बोली रचिता!
"हाँ, आगे तो सुन?" बोलीं माँ,
"हाँ, सुनाओ?" बोली वो,
"पापा तेरे पूछ रहे थे, क्या हम भी चलें उनके साथ?" बोलीं वो,
"जगह तो बहुत अच्छी है वो!" बोली रचिता!
"तो बता फिर?" बोलीं माँ,
"मैं क्यों मना करूंगी?" बोली वो,
"तो हाँ कह दूँ न?" पूछा माँ ने,
"हाँ, और क्या?" बोली वो,
"ठीक है, बाकी बात अपने पापा से कर लेना!" बोलीं माँ,
"हाँ, कर लूंगी!" बोली रचिता!
माँ खड़ी हुई, कमर पर हाथ रखा,
"चाय पीयेगी?" पूछा माँ ने,
"हाँ, ज़रूर मम्मी!" बोली वो,
"आवाज़ दूँ तो लेने आ जाना!" बोलीं माँ,
"हाँ, आ जउांगी!" बोली रचिता,
और माँ, चल पड़ीं बाहर जाने के लिए, पर्दा ठीक किया उन्होंने, और फिर, चली गईं बाहर!


   
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श्रीशः उपदंडक
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तो उसी शाम बात हुई पिता जी से, रचिता तैयार थी, घुमक्कड़ तो थी ही, घूमना बेहद पसंद था उसे! और फिर ठहरी अपने पापा की लाड़ली! और पापा भी, सबसे पहले अपनी गुड़िया से ही पूछें! बाकी सारे काम बाद में! रचिता ने हाँ की, तो फिर ना में बदल न हो, और जो ना की तो फिर हाँ का कोई सवाल ही नहीं! फिर न चले किसी की भी, न नितिन की ही, और न स्वयं रचिता की मम्मी की! अब घर में सिक्का चले पापा का! और साहब, फिर कैसी आह-कराह, जब दोस्त हो बादशाह! तो यही हाल था रचिता का! पापा की लाड़ली रचिता! रचिता ने हाँ की, तो सभी काम छोड़, तैयार हो गए उसके पापा!
मंज़िल थी लैंड्सडाउन! या लैंसडाउन, एक शानदार जगह! इसका वास्तविक नाम कालू-डांडा  है, कालू मायने काली और डांडा मायने पहाड़ी! ब्रिटिश वाइसराय लार्ड लैंसडाउन ने इसको, कहें तो आधुनिक रूप दिया था, ये आज भी उन्ही वाइसराय के नाम पर बसा है! पौढ़ी गढ़वाल क्षेत्र, उत्तराखंड में, कभी ये फौजी छावनी हुआ करती थी! अपने आप में, अपनी बेजोड़ खूबसूरती की
  मिसाल के रूप में है ये जगह! वर्तमान में, कई यात्री, पर्यटक यहां खींचे चले आते हैं, शहरी ज़द्दोज़हद से भरी ज़िंदगी से कुछ वक़्त के लिए ही सही, निजात पाने! दिल्ली से ये जगह, दो सौ इक्यावन या पचपन किलोमीटर के आसपास पड़ती है! प्राकृतिक सुंदरता यहां बिखरी पड़ी है! दृश्य ऐसे विहंगम हैं कि बरसों तक ज़हन में ही समाये रहते हैं! लोग-बाग़ भी सीधे-सरल स्वाभाव वाले हैं! हाँ, अब चूँकि पर्यटन-स्थल बन चुका है, इसीलिए होटल आदि मन-माफ़िक़ ही पैसा भी वसूलने लगे हैं! मुफीदगी तो अब या तो क़िताबों में, या फिर, ज़ुबानों में ही बची है! असलियत में, ये अब इस ज़मीन से फ़ना हो चुकी है!
तो जी, बातें हुईं, अगला दिन तैयारी का रखा गया, पिता जी, उस रोज, दफ़्तर का बचा-खुचा और अहम-ओ-ज़रूरी काम-काज़ भी निबटाने वाले थे, यहां, सामान वग़ैरह बाँधा जाना था! दरअसल, इस जगह के आसपास के कुछ धार्मिक-स्थल अति-प्राचीन एवं, दर्शनीय हैं, तो ये भी मुक़्म्म्ल किया गया था, कि वहाँ भी ज़रूर ही जाया जाए! अब कौन सी बेल का बीज ही फूट आवे, क्या पता!
अगले दिन शाम के वक़्त, चाय ली जा रही थी, सभी बैठे थे, चाचा जी भी चले आये थे, नैंसी के साथ ही! तमाम चीज़ों पर ग़ौर किया गया था, कि कहीं कोई भूल ही न हो जाए! अब दो मुंह हों तो नयी बातें अक्सर आ ही जाती हैं सामने, घटा-जोड़ वग़ैरह कर, मामला सुलट ही लिया जाता है! और फिर, नितिन भी दोपहर में चला ही आया था, ग्वालियर में पढ़ाई कर रहा था वो!
"वहां तारकेश्वर महादेव मंदिर है!" बोले पिता जी,
"हाँ, कोई पैंतीस, चालीस किलोमीटर दूर!" बोले अशोक जी, चाचा जी,
"अच्छा!" कहा उन्होंने,
"प्रसिद्ध है!" बोले वो,
"बहुत!" कहा पिता जी ने,
"और फिर, मंदिर भी शानदार है, पुराना!" बोले वो,
"हाँ, कहा जाता है, इसका संबंध तारकासुर से है, जिसके वध के लिए ही कार्तिकेय का जन्म हुआ था!" बोले वो,
"हाँ, यही कहा जाता है!" बोले वो,
"फिर तो अच्छी जगह है!" बोले वो,
"बहुत अच्छी!" कहा चाचा जी ने,
"और भी जगह तो होंगी?" पूछा उन्होंने,
"बहुत हैं!" बोले वो,
"चलो, बच्चे भी खुश!" बोले वो,
"हाँ, ये तो है ही!" कहा चाचा जी ने,
"नैंसी?" बोली माँ जी,
"हाँ जी?" कहा उसने,
"गोविन्द नहीं आया?" पूछा उन्होंने,
"टिकट ही नहीं मिली!" बोली वो,
"ओहो!" कहा पिता जी ने,
"हाँ, उसकी कमी खलेगी!" बोली माँ जी!
"क्या करें अब?" बोले चाचा जी,
"आजकल टिकट मिलती ही नहीं!" बोले पिता जी,
"हाँ, एजेंटों से पता की, तो भी नहीं!" बोले वो,
"बुक होंगी?" बोले वो,
"हाँ!" कहा उन्होंने,
"अब कोई साधन भी तो नहीं दूसरा?" बोले पिता जी,
"यही तो भाई साहब!" बोले 
"अब क्या करें!" बोले पिता जी,
"चलो, कभी फिर सही!" बोले चाचा जी,
"हाँ, और क्या!" कहा पिता जी ने,
और चाचा जी खड़े हुए फिर, जाने के लिए,
"यहीं है नैंसी?" पूछा नैंसी से,
"हाँ" बोली वो,
"अच्छा, और, नितिन?" बोले वो,
"जी चाचा जी?" बोला वो,
"आ, वो कैमरा ले आ घर से!" बोले वो,
"हाँ, चलिए" बोला नितिन,
"अशोक?" बोलीं माँ,
"हाँ जी?" बोले वो,
"खाना खा लेते?" पूछा उनसे,
"घर में भी बना है, नहीं तो वो स्यापा पाएगी!" बोले हँसते हुए,
ये सुन, सभी हंस पड़े! और वे, चले गए घर के लिए अपने, नितिन को साथ ले!
तो, बना गया कार्यक्रम, लैंसडाउन जाने का! अब देखें, होता क्या है आगे वहाँ! मैं भी, बे-क़रार सा ही था, सुनने को, आगे की ये अंजान दास्तान!


   
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श्रीशः उपदंडक
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इस तरह से, सभी तैयारियां हो गईं! अशोक जी के बड़ी गाड़ी में, सभी आ ही गए! रचिता और नितिन, पीछे जा बैठे थे, रचिता को बाहर झाँकने की आदत थी, नितिन उसको टोकता रहता था अक्सर! इसी बात पर, भाई-बहन की झड़प भी हो जाती थी! अब भाई-बहन की झड़प का भी एक अलग ही अंदाज़ हुआ करता है! बड़ी बहन, माँ स्वरुप होती है, जैसे, एक बड़ा भाई पिता समान! भाई-बहन के इस प्रेम का कोई शब्द नहीं, कोई मोल नहीं! झड़प भी तो अक्सर, प्यार भरी ही होती है! बड़ी बहन कभी गुस्से में डांट भी दे, तो छोटे भाई की हंसी रोके नहीं रूकती! आखिर में, बड़ी बहन भी उसी हंसी में शामिल हो ही जाया करती है! ऐसे ही ये, रचिता और नितिन! बात बात में झड़प लेकिन पिता के गुस्से से भछव भी उसका! अब यहां बेटे को सरंक्षण सा मिलता है, पिता के गुस्से से, एक तो बड़ी बहन का और फिर माँ तो है ही! बेटे के लिए तो, सबसे बड़ी आराम-पनाह और सुकून की जगह, माँ की गोद ही होती है! तो मित्रगण! प्रेम के कई रूप! और सभी रूपों की जड़ मात्र एक! एक विशुद्ध प्रेम! इसकी कोई थाह नहीं! कोई ऊंचाई नहीं और कोई सीमा नहीं! कोई हद नहीं! प्रेम के दो बोल से, कोई प्राय भी अपने से ज़्यादा हो जाए, और कोई हिंसक पशु भी, दो बार सोचने को विवश हो जाए! प्रेम वो रस है, जिसमे जो घुल, घुलता ही जाए!
तो गाड़ी आगे भागे जा रही थी! नितिन आराम से बैठा था, माँ से बातें किये जा रहा था, नैंसी आगे की सीट पर बैठी, रचिता से बातें करती जा रही थी! नैंसी, उम्र में चार या पांच बरस छोटी थी, लेकिन अपनी तएरी बहन को, नाम से ही बुलाया करती थी! ये आदत भी रचिता ने ही डाली थी उसे, जब नैंसी तुतलाती थी, तब रचिता ही उसको अपना नाम, बार बार बुलवा-बुलवा खूब हंसा करती थी!
खिड़की से बाहर झांके जा रही थी रचिता, कुछ भी देखती, तो गर्दन पीछे कर, पुष्टि सी करने लगती! ऐसे ही जब देख रही थी तो.....
"खिड़की से बाहर कूदेगी क्या?" बोल नितिन,
"तू किसलिए है?'' बोली वो,
"धक्का दूँ?" बोला वो, हँसते हुए,
"हिम्मत है?" बोली रचिता!
अब हिम्म्त कैसे हो! अदालत तो ड्राइवर के साथ बैठी थी, यानि के पापा रचिता के, एक आवाज़ पड़ती कि नितिन की बिना जमा-तलाशी हुए, पर्चा कट जाता उसी लम्हे! सफ़ाई देने  की कोई गुंजाइश भी नहीं थी! सारी की सारी दलीलें धरी रह जातीं! इस्तगासा पर फौरन ही अमल किया जाता!
जा, कूद ले फिर!" बोला नितिन,
"मेरी मर्ज़ी!" बोली वो,
तो इस तरह, हंसी-खेल करते करते, ऊंघते, खाते-पीते वे आखिर, चार बजे तक, पहुँच ही गए लैंसडाउन! रास्तों ने ही मन मोह लिया था, ना चाहते हुए भी, गाड़ी की रफ़्तार धीमी कर दी गई थी! आसपास माहौल ही ऐसा था! जैसे, उस दोज़ख जैसे शहर से उठकर, कुछ वक़्त के लिए पैरोल मिली हो, जन्नत की! ये जन्नत ही तो है! हरियाली और उन खूबसूरत मंजरात ने, दिल में उसी लम्हे जगह बना ली!
"चाय पी जाए, क्यों?" बोले पिता जी,
"हाँ, थोड़ा पाँव भी राहत पाएं!" बोलीं माँ,
''आओ फिर" बोले पिता जी,
"रेखा, चल न?" बोलीं माँ,
"हाँ, आपके पीछे!" बोलीं अशोक जी की पत्नी, रचिता की चाची जी!
तो सभी उतर लिए, उतर कर देखा, खूबसूरत पहाड़ियां, फैली हुईं वादियां, पेड़, चीड़ के बड़े बड़े से पेड़! सभी बस, देखते ही रह गए!
वे बैठे एक जगह, छोटा सा टी-कार्नर था ये, तो उन्होंने चाय पी सभी ने वहाँ! करीब बीस मिनट रुके, और फिर आगे चल दिए! शाम करीब छह से पहले, एक लॉज में कमरे भी ले लिए! उस रात तो सभी बातें करते करते, सो ही गए थे, अब जो कुछ करना था, घूमना था, सो कल ही मुमक़िन था!
अगला दिन, और दिन की शुरुआत, अगर घूमने से हुई, वो एक पहाड़ी थी, नीचे देखने के लिए, जगह भी बनी थी, ये नया ही पर्यटन-स्थल था, यहां से ठीक सामने, सूर्योदय दीखता था, जगह बेहद ही शानदार थी! मौसम, बेहद ही सुकूनदेह था वहां का! कोई गर्मी का एहसास नहीं, बल्कि कभी कभी तो सर्द से झोंके, बदन को छूकर चले जाते थे! वे आगे चले और रचिता को वो जगह लगी अब कुछ जानी-पहचानी सी! तेजी से पलट कर पीछे देखा, वो, एक बड़ा सा पत्थर, घास, घास पर बैठे लोग, कुछ खाते-पीते हुए, सामने देखा, तो ठीक वैसा ही, वैसी ही जगह, जो उसने देखी थी उस ख़्वाब में! सीने में, कुछ जलन सी उभरी, लेकिन सोच की सर्दी ने, बुझा दी! इत्तिफ़ाक़ का नाम हम दे दिया करते हैं इस सारे घटा-जोड़ को अक्सर!
उसने पीछे देखा, मम्मी-पापा तो बैठे थे, नितिन भी था, लेकिन चाचा-चाची और नैंसी नहीं थे वहां, शायद कहीं और बैठे थे, या कहीं और घूम रहे थे, या फिर कुछ खरीदारी ही कर रहे हों!
कुछ लम्हे, आगे, वक़्त के कुँए में गिरे!
"रचिता?" आई आवाज़,
उसने पलट के देखा, माँ ने इशारा कर, बुलाते हुए, कहा था!
"हाँ मम्मी?" बोली वो,
"इधर आ?" बोलीं वो,
"आती हूँ" कहा उसने,
वो पहुंची वहां, तो नितिन उठकर, जा रहा था कहीं, जेब से पर्स निकालते हुए, कुछ टटोल रहा था!
"ये कहाँ गया?" पूछा उसने,
"आइस-क्रीम मंगवाई है!" बोलीं माँ,
आइस-क्रीम? यही तो? यही! उसी सम्पन में यही तो था? कमाल है! फिर से? फिर से वही? अभी सोच में ही थी कि....
"कैसी जगह है बेटा?" पूछा पिता जी ने,
बनावटी हंसी! बनावटी पहचान!
और इसी बनावट में, पहले सर हिलाया हाँ में! मुस्कुराई, आकाश को देखा!
"अच्छी लगी?" पूछा पिता जी ने,
"बहुत!"" बोली वो,
"मुझे पता था!" बोले वो,
"जय बाबा बर्फानी!" आई एक, भारी सी आवाज़!
सभी ने देखा उधर! ये एक बाबा था, कोई पचास बरस का, आधी सफेद दाढ़ी, आधी, मेहँदी लगाई हुई सी! गेरुए रंग का चोला सा पहने हुए, हाथ में पीतल का एक छोटा सा कमंडल! एक भुज-दण्ड पकड़े!
"जय बाबा बर्फानी!" बोले पिता जी,
"वो, तुम्हारा बेटा है?" पूछा बाबा ने,
इशारा किया था नितिन की तरफ! नितिन हाथ में नोट पकड़, कतार वाली भीड़ में खड़ा था, आइस-क्रीम लेने के लिए!
"हाँ बाबा!" बोले पिता जी!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"अच्छा लड़का है!" बोला बाबा,
"हाँ!" बोली माँ,
"क्या करता है?" पूछा बाबा ने,
"पढ़ रहा है अभी!" बोले पिता जी,
"जय तारकेश्वर!" बोला बाबा,
"बाबा सब ठीक?" पूछा पिता जी ने,
"हाँ, लेकिन लड़के पर संकट दीख रहा है!" बोला वो,
"संकट?" आये सकते में, पूछा तभी!
"हाँ, गहरा संकट!" बोला बाबा,
"कैसा संकट बाबा?" पूछा पिता जी ने,
रचिता, जैसे, पहले ही एक एक शब्द बोले जा रही हो, होंठों से न सही, मन से! वो जान रही थी कि ऐसा ही तो देखा था उसने, और फिर, वो भी जो आगे हुआ था!
"पेड़ से संकट है!" बोला बाबा,
"पेड़ से?" माँ ने पूछा,
"हाँ, पेड़ गिरेगा उसके ऊपर!" बोला बाबा,
सभी के होश उड़े! माँ के तो ज़्यादा ही, बाबा के हाथ जोड़ लिए, पाँव पड़ने को तैयार! पिता जी का भी यही हाल, हाथ जोड़े, बाबा से जैसे फरियाद करें!
"तो बाबा कोई उपाय?" पूछा माँ ने,
"हाँ, अमरनाथ जाऊँगा, पूजन कर दूंगा, टल जाएगा संकट! ग्यारह सौ रूपये का कुल खर्च आएगा!" बोला बाबा,
"पैसे की कोई चिंता नहीं बाबा, बस बेटे से संकट टले!" बोले पिता जी,
"टल जाएगा, बाबा ने कहा तो टल जाएगा!" बोला बाबा,
"अभी बाबा, अभी देता हूँ, आने दो बेटे को, आशीर्वाद भी ले लेगा!" बोले पिता जी,
"हाँ, आने दो!" बोला बाबा,
उन सभी को गौर से देख रहा था, बैठी हुई, उसकी तरफ, घूरती हुई रचिता को देखा उसने! बाबा मुस्कुराया!
"ये लड़की है तुम्हारी? बेटी?" पूछा बाबा ने,
"हाँ बाबा!" बोलीं माँ,
"सुंदर! बहुत सुंदर है!" बोला बाबा,
और झुकने लगा, सर पर हाथ रखने को! जैसे ही झुका वो! ठीक वैसे ही, जैसे उसका हाथ थाम लिया किसी ने! पल भर में ही, हाथ की हड्डियां चटक गईं! आवाज़ आने लगी! इस से पहले बाबा चीख मारता, किसी ने एक कस कर, लात बिठा दी छाती में बाबा की! बाबा उछला हवा में! कंधे से लटका बैग, नीचे जा गिरा! अमंडल-कमंडल, सब बिखर गए! बैग में से, सारा सामान बाहर आ गया! रचिता, जैसे एक एक सामान को पहचानती हो, वो टूटा हुआ पैन, वो एक छोटी सी डायरी! दो मालाएं, पंचांग आदि आदि!
और बाबा, करीब बीस-बाइस फ़ीट दूर जाकर गिरा! धम्म से! हाथ सूज कर, पाँव सा हो गया! सर फटते-फटते ही बचा, घास न होती, मिट्टी न होती, तो बाबा ने वहीँ दम तोड़ दिया होता! गिरते ही, बाबा तो ढेंचुआ गया! औरत रोये या मर्द रोये, पता ही न चले! अजीब सी आवाज़ निकाले! आसपास, भगदड़ सी मच गई, कुछ साहसी सी लोग, बाबा की तरफ दौड़ पड़े! कई कंधे उचकाए. और कई, बार बार, उस रचिता को, उसके परिवार को, और इस बाबा को देखें!
रचिता के पिता जी ने सभी से कहा, परिवार वालों को, कि फौरन ही निकल लिया जाए! पता नहीं, क्या हुआ था, कैसे उछल गया था वो बाबा! किसने उछाल फेंका था! और अब, पहली बार, पिता जी को भी संदेह का दंश चुभने लगा!
"ऐसा होता ही नहीं है?" बोले पिता जी माँ से,
लॉज लौट आये थे वापिस, हैरत में पड़े हुए! सच पूछें तो ख़ौफ़ज़दा से! फौरन ही माँ को बुलाकर, बात करने लगे थे उनसे!
"वही तो बताया था?" बोली माँ,
"तुमने कहा था कि माँ मनसा के यहां भी ऐसा हुआ था?" बोले वो,
"हाँ, वो बुढ़िया!" बोली माँ,
"उसे भी फेंका था न?" बोले वो,
"हाँ?" कहा माँ ने,
''और मुझे, हैदराबाद जाने से रोकना?" बोले वो,
"अरे हाँ!" बोली माँ,
"संयोग बार बार नहीं होते!" बोले वो,
"यही तो मतलब था मेरा!" बोली माँ,
"अब क्या करें?" पूछा उन्होंने,
"वो है न पड़ोसन?" बोलीं वो,
"तुम, बात करो, दिखाओ!" बोले वो,
"हाँ, जाते ही बात करूंगी!" बोलीं माँ,
"मुझे तो चिंता होने लगी है!" बोले वो,
"पता चल जाएगा" बोलीं माँ,
"हाँ, कम से कम, वहम हो, तो दूर हो?" बोले वो,
"हाँ" कहा उन्होंने,
"घर में कैसा व्यवहार है रचिता का?" पूछा पिता जी ने,
"सामान्य सा ही?" बोलीं वो,
"कुछ अजीब?" बोले वो,
"ना" कहा माँ ने,
"खाना-पीना?" पूछा उन्होंने,
"सब ठीक" बोलीं माँ,
"सोती तो आराम से है?" पूछा उन्होंने,
"हाँ" बोलीं माँ,
''और हाँ!" बोले वो,
"क्या जी?" बोलीं वो,
"डॉक्टर का फ़ोन आया था, कि रचिता कैसी है, मैंने यही कहा कि ठीक है! जबकि एक रात पहले तब, उसको बुखार था काफी, फिर अचानक से ठीक?" बोले पिता जी!
"हाँ, हाँ!" बोलीं माँ,
"यहां से कल निकल चलेंगे, तुम, समय मिले तो कल रात को ही बात करो!" बोले वो,
"जी ठीक!" कहा उन्होंने,
और उधर रचिता! अपने बिस्तर पर! आँखें मूंद, बस................


   
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श्रीशः उपदंडक
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हाँ तो रचिता ने आँखें मूंद ली थीं! उसके बदन में जैसे सर्द हवाओं ने, कई सूराख़ बना, एक अजब सी मदहोशी सी भर दी थी! देह में, अंगड़ाई जैसे, कहीं फंसी हुई थी! कभी दोनों पाँव, इकट्ठे कर, खींचती, तो कभी पसलियां अंदर कर लेती, कभी बाहर को निकाल लेती! उसके टॉप का ऊपर का बटन, अपने काज से ही ज़द्दोज़हद करने को मज़बूर हो रहा था! काज, उसे गिरफ्त में लेता और बटन, जा निकलता बाहर! कुछ ऐसा ही हो रहा था रचिता के साथ! वो अपने आप में भी थी, और अपने आप में नहीं भी थी! खुद क़ैद भी थी, और क़ैद से बाहर निकलना भी चाह रही थी! उसके गले में पड़ी, वो महीन सी ज़ंजीर और ज़ंजीर में लटका तो छोटा सा लॉकेट, जो तीज के चाँद जैसा था, उसके बदन से सट, सर्द एहसास देता था! कभी कभी, फंस जाता, तो अपने हाथों की उँगलियों से बाहर कर देती थी उसे! और कभी कभी, बाजू पर झूल आये बालों में जा अड़ता! उसने, न जाने कितनी बार ही करवटें बदलीं! चैन, कहीं न आया और न आये! पांवों की उंगलियां सर्द पड़ें तो चाड में घुसेड़ ले,जब गरमऐश ज़्यादा बढ़े, तो बाहर निकाल ले! वो फिर, पेट के बल लेट गई! उसका वो लॉकेट छिप गया उसके गले के नीचे! चुपचाप पड़े, दबे, अब सिर्फ राह ही तके! राह उन नाज़ुक सी उँगलियों की, जो उसको बाहर निकाल दिया करती थीं!
फिर अगले ही लम्हे, आँखें भारी हुईं! पिंडलियों पर खड़े रोएं जैसे, किसी के हाथ की छुअन का सा एहसास दें! कई बार, ऐसे ही, एक पाँव से, एक पिंडली पर, और दूसरे पाँव से, दूसरी पिंडली पर, छू ले! लेकिन जी! राहत कहाँ नसीब हो!
दो-चार लम्हात बीते होंगे, कि पलकें भारी हुईं! वो नींद की जकड़ में जकड़ी गई! जब आँखें खुलीं, तो दूर एक अँधेरी जगह पर खुद को पाया! आसपास देखा, कोई नहीं! दूर दूर तलक, कोई नामोनिशान नहीं न इंसान का और न ही इंसानों से वाबस्ता किसी शय का भी! हवा चली और हवा से नीचे की सर्द रेत उँगलियों के नीचे से जा खिसकी! यकायक, नज़र ऊपर गई! खुल सा आसमान! आसमान में, नायाब सितारे! बड़े बड़े! चमकदार! कहीं कहीं जैसे, नारंगी, पीली, नीली, सफेद सी चुनरियाँ अटकी हों! उजाला, उनको पार कर, नीचे आ टकराए! और, रेत में दूर कहीं, दूर, ज़मीन पर, जैसे चाँद उतरा हो, ठीक आँखों के सामने! दूधिया, शफ़्फ़ाफ़ चाँद! नज़रें ऊपर गईं! चाँद तो ऊपर था, फिर ज़मीन पर, कैसे? बढ़ चली आगे! जैसे ही चली, पांवों से खनकने की आवाज़ें आने लगीं! छन्न-छन्न! उसने उस चाँद के उजाले में पाँव उठाकर देखा, आधे पाँव से, ऊपर, आधी पिंडली तक, महीन सी जाली जैसे चढ़ी हो! उसी जाली पर, छोटे छोटे कज़राश(एक दूसरे में पिरोये हुए मनके, खोखले से, जब हवा भी तो हल्की सी आवाज़ करें) जड़े हों! लेकिन, पांवों की खूबसूरती का क्या कहना! पांवों पर, हिना से सजावट की गई थी! कहीं हल्का सा रंग, कहीं खून सा गाढ़ा! वो आगे चली, रेत की सर्द हवा, पांवों से टकराई, और पखवाज जैसे बज उठे! वो मुस्कुरा पड़ी! ठीक सामने देखा! और..........
नींद खुल गई!
उसके तमाम जिस्म पर, रोएं, सर्द एहसास के, नुमाया हो उठे थे! वो चौंक कर, उठ बैठी! सीधे ही अपने पाँव देखे! पकड़े! न कोई हिना ही, न कोई कज़राश वाली वो, महीन सी जाली! एक लम्बी सांस भरी उसने! उठी, घड़ी पर नज़र फेरी, तीन बजे थे!
"रचिता?" आवाज़ आई,
"हाँ नैंसी?" बोली वो,
"सो रही हो?" पूछा उसने,
"नहीं तो?' बोली वो,
"चलना नहीं है?" पूछा नैंसी ने,
"कहाँ?" पूछा उसने,
"बाज़ार?" बोली वो,
"हाँ हाँ!" कहा उसने,
"आओ फिर?" बोली नैंसी!
"आती हूँ!" बोली वो,
कपड़े बदले, हाथ-मुंह धोए, बीस-पच्चीस मिनट लग गए फिर भी! और तैयार हो, आ गई बाहर! माँ खड़ी थीं उधर!
"नैंसी कहाँ है?" पूछा उसने,
"अपने कमरे में" बोली माँ,
"अच्छा" कहा उसने,
और आवाज़ दी नैंसी को, वहीँ से! नैंसी दौड़ी चली आई!
"क्या हुआ?" पूछा नैंसी से,
"बाज़ार?" बोली वो,
"हाँ, चलो?" बोली वो,
''एक मिनट, नीचे होइए ज़रा!" बोली नैंसी,
"क्या हुआ?" बालों को झाड़ते हुए बोली वो!
"फूलों में लेटी थीं?" पूछा नैंसी ने!
"फूलों में?" पूछा रचिता ने,
"ये देखो ना?" बोली वो,
और नैंसी ने जो दिखाया, वो एक फलक थी, पीले रंग की! किसी फूल की फलक!
"होगा कमरे में ही!" बोली रचिता!
"हाँ?" बोले पिता जी, आते हुए,
"हाँ पापा?" बोली वो,
"चलें?" बोले वो,
"बिलकुल!" बोली वो,
"तो चलो फिर?" बोले वो,
"हाँ" कहा उसने,
"आओ!" बोले पिता जी,
और सभी चल दिए, बाहर की तरफ, जहाँ गाड़ी खड़ी थी! सभी गाड़ी में बैठे, और गाड़ी चल दी आगे की तरफ!
"मंदिर भी हो आएंगे!" बोले अशोक जी,
"तो पहले मंदिर ही चलो!" बोले वो,
"ये ठीक है!" बोले वो,
गाड़ी से बाहर झांकते हुए, कुछ देखा रचिता ने!
क्या??????


   
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श्रीशः उपदंडक
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रचिता ने क्या देखा? यही तो मैं भी सुनना जानना चाहता था! मैं भी ठीक वैसे ही बेचैन था, जैसे, उस लम्हे, कुछ देख, रचिता भी हुई थी! आखिर क्या देखा था उसने? तो मेरे मित्रगण! रचिता ने, गुज़रते हुए, उस बाज़ार से, एक दुकान के सामने, जिसके आगे, कृत्रिम फूलों, बलों आदि की झालरें लगी थीं, उसी लड़की को देखा था, जो उसे, उस रोज ख़्वाब में, उस समंदर के किनारे पर मिली थी! उस लड़की ने, देख उसे, मुस्कान जैसे उसकी तरफ उछाल दी थी! और दोनों हाथों से ख़ैर-ख़्वाही लुटा दी थी रचिता पर! वो लड़की मुस्कुरा रही थी! आँखों से आँखें मिलीं तो मुस्कान, रचिता के होंठों पर कब चोरी से चली आई, ये तो, उसे भी पता न चला! उस लड़की ने, एक बेहद ही प्यार सा रंग पहना था, पटियाला के जैसी सलवार, ऊपर, ख़ूबसूरत सा सूट! रंग ऐसा उस सूट का, कि इंसानी आँखें तो क्या, तितलियों की आँखें और सूंघने की ताक़त भी मुग़ालता खा जाएँ! लाल-चटकीला सा रंग! बीच बीच में गहरी नीली सी चमक! रंग, बेहद ही गोरा! जैसे दूध का होता है! सर ढका हुआ था, नीले से रंग के शनील के कपड़े से, जैसे कोई स्कार्फ! कद बड़ा ही ज़बरदस्त! रचित तो उसके कंधे तक ही आती! हालांकि, रचिता की लम्बाई भी कोई कम नहीं थी! कम से काम, पांच सात या आठ तो बैठती! बूट पहन लेती थी तो डेढ़ इंच कुछ ज़्यादा ही! भरा-भरा सा जिस्म था रचिता का! गोरा-चिट्टा! और मुलायम सी देह थी उसकी! हाथ लगाओ, लाल हो उठे, ऐसी! अपने बालों में, सुनहरे रंग का खिजाब कहीं कहीं, लगा लेती थी, इस से, उसके बालों की ख़ूबसूरती, बेतहाशा ही अपने आप बढ़ जाती थी! आँखें बेहद ही सुंदर थीं रचिता की, गोल-गोल, सफेद सी आँखों में, हल्का सा सुनहरापन लिए हुए, काले से दीदे! जो एक बार देखे, बंधा ही चला आये! पलकें घुमावदार थीं! फूली सी, और फिर, घूम कर, ऊपरवाली ऊपर और नीचे वाली नीचे! भौंहें ज़रा सी भारी थीं, सुनहरी सी, छिकी-छिकी सीं! भरा-पूरा चेहरा और सुर्ख़, उभरे से होंठ! लिपस्टिक लगाने की भी ज़रूरत नहीं थी उसे तो! क़ुदरत ने, क़ुदरती कुर्बश-सुर्ख़रू से नवाजे थे उसके होंठ! कुर्बश मायने, जैसे गहरे काले रंग में से नीली सी झाईं निकले! सुर्ख़ में से, कुर्बश! जिस्म, नपा-तुला था उसका, जैसे, उसकी तस्वीर बनाई गई हो पहले, नुस्ख, हटा दिए गए हों, और आलमी-आला नक्काश ने भर नक्काशी का बेहतरीन नमूना पेश कर दिया हो!
ख़ैर साहब!
दोनों की नज़रें एक हुईं और मुस्कुराहटों की अदल-बदल भी हो गई! थोड़ा, अंजानपन का, ढीला सा पड़ा, धागा, अब इस से कड़ा तो हो जाना, लाज़िम ही था!
"कुछ लेंगे, चाय-कॉफ़ी?" बोले अशोक जी,
"अभी नहीं" बोले पिता जी,
"हाँ, रचिता?" बोले वो,
रचिता ने, चौंक कर, चाचा जी को देखा, ना में सर हिलाया और झट से पीछे देखा, खाली! वो जगह, खाली! उठ हई वो, झुक कर, उधर देखा, भले ही भीड़ थी, लेकिन जब नज़रें, तलाशी पर निकलती हैं, तो क्या ज़मीन और क्या पत्थर, ये तो लोग थे! तो जी, अब कुछ न था वहाँ! वो लड़की, जा चुकी थी वहाँ से!
तो नज़रें, कुछ भी बरामद
 न करते हुए, लौट आईं वापिस! वो फिर से बैठ गई, सामने देखा, माँ-पिता जी, उसे ही देख रहे थे, कुछ संजीदा से होकर!
"कुछ दिखा था?" पूछा पिता जी ने,
"नहीं तो?" बोली वो,
"कोई जान-पहचान वाले?" पूछा उसने,
"नहीं" कहा उसने,
"ग़ौर से देख रही थीं तुम बाहर!" बोले पिता जी,
"वो, फूल लटके थे ना वहां? वो ही!" बोली वो,
"फूल?" बोलीं माँ,
"हाँ, वो फूलों की झालरें सी!" बोली वो,
"झालरें?" बोले पिता जी,
"हाँ?" कहा उसने,
"लेकिन वहां तो कुछ नहीं था?" बोले पिता जी,
अब ये सुन, सभी चौंक पड़े! गाड़ी के ब्रेक पर दबाव पड़ा और गाड़ी धीमी हुई!
"वहां दुकान नहीं थी?" बोली वो,
"नहीं तो?" बोले वो,
"फिर क्या था?" पूछा उसने,
"होटल है?" बोले वो,
"अरे नहीं पापा!" बोली वो,
"हो सकता है, हमें ही धोखा हुआ हो?" बोले चाचा जी,
पिता जी ने बात संभाली, तब, समझ गए थे!
"हाँ, ये हो सकता है!" बोले वो,
"चाचा जी?" बोली रचिता,
"हाँ बेटा?" बोले वो,
अब बात घुमाई रचिता ने! अलबत्ता, पता उसे भी नहीं था, बस, उस नज़र और माहौल को, बदलने की कोशिश, महज़, की थी!
"कॉफ़ी पीनी है!" बोली रचिता!
"अच्छा बेटा! अभी!" बोले चाचा जी!
और बाहर देखने लगी! माँ और पिता जी के दिल में, एक काँटा सा उतर गया था! ये काँटा, अब गहरे घुस न जाए, तीमारदारी, ज़रूरी हो पड़ी थी!
"अशोक?" बोले पिता जी,
"हाँ भाईसाहब?" बोले वो,
"कल कब निकलेंगे?" पूछा उन्होंने,
"दोपहर बाद! क्यों?" बोले वो,
"ऐसे ही! ठीक है!" बोले वो,
"कोई काम है क्या?" पूछा उन्होंने,
"कुछ ख़ास नहीं!" बोले पिता जी,
"रचिता, आओ बेटे!" बोले चाचा जी! और गाड़ी, एक छोटे से रेस्टोरेंट के सामने, रोक दी! इंजन बंद हो गया!


   
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श्रीशः उपदंडक
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तो, कॉफ़ी लेने वालों ने कॉफ़ी ली, चाय वालों ने चाय और शीतल-पेय लेने वालों ने शीतल-पेय! साथ में कुछ चिप्स आदि भी ले लिए थे! कुल पच्चीस-तीस मिनट लग गए होंगे उन्हें! और उसके बाद, वे चल पड़े आगे के लिए, अब उनका गंतव्य था तारकेश्वर महादेव का मंदिर! गाड़ी सरपट दौड़ने लगी! वैसे तीस-बत्तीस किलोमीटर कुछ ज़्यादा दूरी नहीं, लेकिन रास्ता संकरा हो तो ये दूरी भी कुछ ज़्यादा ही लगने लगती है! खैर, वे लो, जा ही पहुंचे! वहां के सौंदर्य ने तो जैसे जी लूट लिया! ऐसी पावन जगह और वो भी कुदरती खूबसूरती से लबालब! जहां थकावट होनी चाहिए थी, वहीँ चुस्ती सी भर गई सभी में! और वे, चल दिए, जूते-चप्पलें, गाड़ी में ही उतार आये थे, कौन आगे जाकर, कतार में लगता, टोकन सम्भालता! हाथ-मुंह धोए उन्होंने और फिर चल पड़े, पूजा की सामग्री भी ले ली! और जब वे पहुंचे वहां, तो रचिता ने जो देखा वो, उसे देख, वहीँ रुक गई! ये वही तीन लटके हुए घंटे थे! ठीक वैसे ही, जैसे उसने अपने ख़्वाब में देखे थे! और अगली चीज़ जिस पर उसकी निगाह दौड़ी, वो था आसमान! आसमान साफ़ था अभी तो! लेकिन वो जानती थी, कि सपने में देखा था उसने, कि यहां पर, दर्शन करने के बाद, तेज बारिश हुई थी, शुरू हो गई थी! मौसम अचानक से बदल गया था!
"रचिता?" आई आवाज़, और उसका ध्यान टूटा!
आसपास देखा, तो पिता जी खड़े थे साथ में!
"आगे चलो? यहां क्या देख रही हो?" बोले वो,
"हाँ" बोली वो,
और चल पड़ी आगे के लिए! जब आगे पहुंचे वे लोग, तो पीछे घंटा बजा! वो पावन माहौल, और पावन हो उठा!
"आओ?" बोले पिता जी,
"हाँ, चल रही हूँ!" बोली वो!
वे चले गए अंदर, अशोक जी का कोई फ़ोन आया और वे बातें करने लगे, कुछ ऐसी बात हुई कि अशोक जी, रचिता के पिता जी को लिवा ले गए, शायद काम हो ऐसा कुछ! अब रह गई रचिता, चाचा जी और पिता जी, पीछे खड़े हो गए थे, नैंसी और नितिन, एक जगह, मूर्ति आदि को देख रहे थे! माँ को धूंचा तो माँ किसी महिला से बातें करती दिखीं! वो वहीँ के लिए चल दी! वहां पहुंची!
''आओ रचिता! ये तुम्हारी मामी की रिश्तेदार हैं, सावित्रि!" बोलीं माँ,
सावित्रि? यही तो नाम था? एकदम, यही! यही तो सुना था? और ये महिला? इनको ही तो देखा था? ये सब, आखिर में है क्या? क्या हो रहा है ये? ये सब, कैसे मुमक़िन है?
"नमस्कार!" बोली रचिता!
"नमस्कार बेटा!" बोलीं वो महिला!
"ये भी आई हुईं हैं!" बोलीं माँ,
"हाँ!" बोली रचिता,
उस महिला के साथ, दो बालक भी थे, शायद पोते रहे होंगे! बालक, बार बार, रचिता को देखते, शर्माते और छिप जाते दादी के पीछे! फिर से देखने लगते!
"छोटी सी देखी थी ये लड़की मैंने!" बोली सावित्रि,
"हाँ, तब, सात या आठ की होगी!" बोलीं माँ,
"हाँ, इतनी ही! ब्याह हुआ? लगता तो नहीं?" बोली सावित्रि!
माँ के मन का कागज़ सा फटा ये सुनकर! फिर भी, बात घुमा ही ली!
"बच्चे आजकल बड़े हो ही जाते हैं जल्दी ही!" बोलीं माँ,
"हाँ, वैसे मई कोशिश करूं?" बोलीं सावित्रि,
"कोशिश.....?" माँ ने, समझा नहीं, और बोलीं वो,
"किसी रिश्ते की?" बोली वो महिला,
"हाँ, क्यों नहीं! आज तक, ढंग का रिश्ता मिला ही नहीं!" बोलीं माँ,
"मिलेगा जी, ज़रूर मिलेगा! कोई कमी थोड़े ही है बिटिया में!" बोली सावित्रि!
"मिल जाए तो मैं और ये, गंगा जी नहाएं!" बोलीं माँ,
सावित्रि हंस पड़ी!
"मैं करती हूँ कोशिश!" बोली वो,
"आपका धन्यवाद!" बोलीं माँ,
"किस बात का? आखिर बेटी भी है ये तो हमारी?" बोली सावित्रि!
'सो तो है जी!" बोलीं माँ,
"अच्छा, आप दर्शन कीजिये, मैं इन बच्चों को खिला-पिला दूँ!" बोलीं सावित्रि!
"हाँ हाँ! क्यों नहीं!" बोलीं माँ और बच्चों के हाथ पर, पचास-पचास के दो नोट रख दिए! सावित्रि ने मना किया, लेकिन नेग था ये तो, अच्छा ही लगा! इसके बाद, सावित्रि, चल दी अपनी राह!
"नसीब वाली है!" बोली माँ,
"कैसे?" पूछा रचिता ने,
"पोते-पोती वाली हो गई, दो बेटियां थीं, ब्याह दीं!" बोलीं माँ!
"क्या मम्मी!" बोली वो,
'अब तुझे क्या पता?" बोली माँ,
"आओ आओ!" आई आवाज़ पिता जी की, निबट लिए थे वे दोनों फोन से!
"रचिता?" बोले पिता जी,
"हाँ?" बोली वो,
''आओ?" बोले वो,
"हाँ!" कहा उसने,
और अब वे सभी जा लगे कतार में! मुख्य-दर्शन, यहीं से होने थे! दर्शन हो जाते तो ये काम भी फ़ारिग़ हो जाता!


   
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श्रीशः उपदंडक
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इस तरह माँ और बेटी में आपसी गुफ़्त-गू आगे बढ़ती रही! रचिता माँ को जैसे जानबूझकर तंग कर तंग किये जा रही थी! माँ कुछ कहती, गुस्से में, तो रचिता हंसकर टाल देती! इसी आपसी माँ-बेटी की तक़रार में, वे मुख्य-स्थल तक आ पहुंचे! यहाँ दर्शन किये उन सभी ने! कोई जगह भी न छोड़ी! और फिर वे बाहर की तरफ चले! जब बाहर आये, तब तक तो मौसम करवट बदल चुका था! ठंडी हवाएं चल रही थीं, तेज तेज! पेड़ झूम रहे थे! टीन-शेड आदि, ज़ोर ज़ोर से आवाज़ें करने लगे थे! मंदिर पर लगे झंडे ऐसे फड़फड़ा रहे थे कि जैसे अभी हवा के साथ ही उड़े चले जाएंगे! यही सब तो देखा था रचिता ने! एक पल को तो, चेहरे पर मुस्कान तैर आई उसके! सोचा ही नहीं कि ये कैसे मुमक़िन हुआ था! पेड़ झूम रहे थे! पौधे बस उखड़ने को ही तैयार! तभी पूर्वी क्षितिज पर, थोड़ा आगे आकर, नज़र गई रचिता की! बिजली कौंध रही थी! काले बादलों के बीच जैसे लुका-छिपी खेल रही हो वो!
"ओह! मौसम बदल गया!" बोले अशोक जी,
"एकदम ही!" बोले वो,
"जब आये थे, तो ऐसा नहीं था!" बोला नितिन,
"पहाड़ हैं, अक्सर ही मौसम बदल जाता है!" बोले पिता जी,
और तभी बारिश होने लगी! तड़ातड़! लोग इधर-उधर भागने लगे! जिसको जहां जगह मिलती सर छिपाने की, वो वहीँ चला आता!
धड़ाम! कोई आगे गिरा था! देखा तो ये एक औरत थी! हाय-हाय चिल्लाई तो उसको उठाया लोगों ने, ले आये पास में ही, बिठा दिया वहीँ!
"जल्दी निकल जाते तो अच्छा रहता!" बोले पिता जी,
"ऐसा थोड़े ही पता था?" बोले अशोक जी,
"अब रास्ता पता नहीं कैसा हो?" बोले वो,
"निकल जाएंगे, आराम से!" बोले अशोक जी,
अँधेरा छा गया अचानक ही! बिजली काट दी गई थी! आसपास के दीये भी हवा ने बुझा ही दीये थे, बस अंदर जला एक बड़ा सा दीया, वही जलता रह गया था! फड़क वो भी रहा था लेकिन हवा जब तक पहुँचती थी वहां तक, बुढ़ापा आ जाता था उसे!
कोई एक घंटा वे लोग वहां रुके, और मौसम खुलना शुरू हुआ! अब उजाला आया बाहर! पानी जो पड़ा था, उसी से पता चलता था कि जमकर बारिश हुई है, नहीं तो सब वैसा ही हो गया था जैसा पहले था! लोग अब निकलने लगे थे, अपने कपड़े ऊपर करते हुए, पांवों से!
"शुक्र है!" बोले पिता जी,
"हाँ, आओ!" बोले अशोक जी!
"हाँ, जल्दी पहुंचो!" बोले पिता जी,
"आ रचिता? नैंसी?" बोलीं माँ,
"आते हैं!" बोले वे दोनों,
और चले फिर, पहुंचे गाड़ी तक और चल पड़े! पेड़ ज़रूर टूटे थे, लेकिन रास्ता बच गया था, वे आराम से पहुँच गए अपनी लॉज! रास्ते में रचिता ने उधर भी देखा जहां वो दुकान थी, वो दुकान वहीँ थी, मुग़ालता ही हुआ था सभी को! अपनी जीत हुई हो, ऐसा महसूस करवाया रचिता ने सभी को! खैर, बाज़ार तो बंद था, अब कल ही खुलता, पानी जम गया था वहां, कल खुलता तो कुछ खरीदारी ज़रूर करते वो!
रात...........
करीब एक बजे, सो रही थी रचिता!
कि एक ख़्वाब ने, ज़हन में दस्तक दी! माथे पर, ज़रा सी, हल्की सी शिकन उभरी रचिता के! और ख़्वाब शुरू हुआ!
ये एक पुरानी सी जगह थी! लाल से रंग के पत्थरों से बनी हुई! दूर दूर तक कोई नहीं था! लगता था कि जैसे ये जगह, रात ही रात में, ज़मीन से निकल आई हो! जिसके बारे में, किसी को अभी तक मालूम ही न चला हो! दीवारें उसकी, रेत में धंसी थी! रेत में, उधर, पेड़ों की शाखाएं पड़ी थीं, जो अब चमक रही थीं, जैसे चांदी का सा मुलम्मा चढ़ा हो उन पर! वो जहां खड़ी थी, पीछे, एक पुराना सा कुआं था, उस कुँए के साथ, कुछ सूखी हुई झाड़ियां भी थीं, उन्हीं में से एक झाड़ी में पीले से रंग का एक कपड़ा सा फंसा था! हवा चलती तो कपड़ा हिलता था, जैसे झंडा सा लगा हो!
''आप थक गए हैं?" आई एक आवाज़!
उसने पीछे देखा! ये एक छोटी सी लड़की थी! सफेद रंग के कपड़े पहने हुए, पूरा जिस्म उसका ढका हुआ था, हाथों की उंगलियां, पांवों की उंगलियां, नाक का आधा हिस्सा और आँखें, माथा ही दीख रहा था! लड़की की उम्र दस-बारह से ज़्यादा नहीं रही होगी!
"आपको प्यास लगी होगी?" लड़की ने कहा,
"अ....हाँ, थक भी गई हूँ और प्यास भी लगी है!" बोली रचिता मुस्कुराते हुए!
"आइये, आइये न?" लड़की अपनी कच्ची सी आवाज़ में बोली!
"कहाँ?" पूछा रचिता ने,
"आप आराम कर लेंगी और मैं पानी भी पिला दूंगी!" बोली लड़की!
''अच्छा? यहीं रहती हो?" पूछा उसने,
"हाँ, गाँव में, उधर!" बोली वो,
"अकेली हो इधर?" पूछा उसने,
"नहीं!" बोली वो,
''और कौन हैं?" पूछा उसने,
"वो उधर हैं!" बोली वो, एक झुरमुट की तरफ इशारा करते हुए!
"अच्छा!" कहा उसने,
''आइये?" बोली लड़की, हाथों से इशारा करते हुए!
"हाँ, पानी पिलाओ!" बोली वो,
"ज़रूर! आइये!" बोली वो,
और लड़की मुड़ी, रचिता उसके पीछे पीछे! वो उस जगह पर, मुड़ते चली, जैसे, उस लड़की को सब पता हो उधर, जैसे रोज ही आती-जाती हो उधर! कुछ पतले से रास्ते, कुछ ऊँचे, चौड़े से!
वो लड़की रुकी एक जगह, इंतज़ार किया रचिता का,
''आइये?" बोली फिर से,
"आ रही हूँ...वो.......नाम क्या है तुम्हारा?" पूछा रचिता ने!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"आइये तो?" बोली वो लड़की!
"तुम तो तेज हो बहुत!" बोली रचिता, साँसें सम्भालते हुए!
हंस पड़ी वो लड़की! खिलखिलाती हंसी, बेहद ही प्यारी सी!
"नाम नहीं बताया तुमने?" पूछा उसने,
"ज़ु'लैल!" बोली वो,
"ज़ु'लैल?" बोली रचिता,
"हाँ, कैसा नाम है?" पूछा उस लड़की ने,
"मायने क्या हैं इसके?" पूछा उसने,
"मायने, मायने हुए रात की ख़ूबसूरती!" बोली वो,
"ओह! बड़ा ही प्यारा नाम है तुम्हारा!" बोली रचिता!
"आपका भी!" बोली वो लड़की,
"मेरा नाम कैसे जानती हो तुम?" पूछा उसने,
"जानती हूँ!" बोली वो,
"बताओ न कैसे?" पूछा उसने,
"जानती हूँ ना!" बोली वो,
"ठीक है, गुस्सा नहीं करो!" बोली रचिता!
"आपसे गुस्सा? ना जी!" बोली वो,
अब रचिता भी हंस पड़ी! खिलखिला कर!
"कहाँ जाना है ज़ु'लैल?" पूछा उसने,
"आ ही गए!" बोली वो लड़की!
"यहां?" बोली वो,
"हाँ, आओ अंदर?" बोली वो,
"चलो!" कहा उसने!
वो अंदर आई, अंदर तो जैसे, पूरा महल ही था! शानदार महल! ऊँचे ऊँचे से मेहराब बने थे! फर्श पर, ऐसी नक्काशी थी, सफेद और काले रंग की कि देखते ही बने!
"आप यहां बैठिए?" बोली वो,
"हाँ!" कहा रचिता ने,
"मैं लायी पानी!" बोली वो,
"हाँ, प्यास लगी है बहुत!" बोली वो,
"बस, अभी!" बोली लड़की!
लड़की गई, और रचिता उस कमरे की एक एक चीज़ को देखने लगी! कैसी ऊँची छत थी! छत में भी, नीले और पीले रंग का काम हुआ, हुआ था! क़शीफ़े लटके हुए थे! क़शीफ़े मायने, झूमर, जिन पर पर्दे टंगे होते हैं! ये पर्दे जब हिलते हैं तो कमरे में रंग-बिरंगी सी चमक दीवारों और छत वग़ैरह को चार चाँद लगा देते हैं! चाँद की चांदनी में, ये सफेद सी रौशनी अंदर भेज देते हैं!
"ये लीजिए!" बोली वो लड़की,
सोने के से गिलासों में, पानी था, रचिता ने लिया और पिया! ये पानी तो अलग सा ही था! देह में जान फूंक दी हो, ऐसा था वो पानी! दे दिया गिलास उसे!
"ज़ु'लैल?" बोली रचिता!
"जी?" बोली वो,
''और कौन कौन हैं यहां?" पूछा उसने,
"फिलहाल मैं ही!" बोली वो,
"ओह, और ये जगह कौन सी है?" पूछा उसने,
"दरू'लम!" बोली वो,
"दरू'लम?" बोली रचिता!
"जी!" बोली वो,
"इसका क्या मतलब हुआ?" पूछा उसने,
"मेरा कमरा!" बोली वो,
"क्या मतलब?" पूछा उसने,
"सिर्फ मेरे लिए!" बोली वो,
"ओ! तो मुझे यहां लायीं तुम?" पूछा रचिता ने!
"आप ख़ास हैं!" बोली वो,
हंस पड़ी रचिता!
"ख़ास कैसे?" पूछा उसने,
"ख़ास!" बोली, ज़रा शरारत से!
"कैसे? बताओ?" पूछा उसने,
"नहीं बता सकती!" बोली वो,
"क्यों?" पूछा उसने,
"जान जाओगे!" बोली वो,
"कब?" पूछा उसने,
"आप खुद जानते हो!" बोली वो,
"नहीं तो?" बोली वो,
"इंतज़ार कीजिये!" बोली वो,
"किसका?" पूछा उसने,
"हाँ का!" बोली वो,
"हाँ?" बोली वो, हैरत से!
"हाँ, हाँ का!" बोली वो,
"नहीं समझी?" बोली वो,
"वक़्त आ गया!" बोली वो,
"कौन सा?" पूछा उसने,
"जानने का!" बोली वो लड़की!
"क्या जानने का?'' पूछा उसने,
"खुद को!" बोली वो,
"क्या?" फिर से, हैरत से पूछा!
"जो हो रहा है!" बोली वो,
"क्या भला?" पूछा उसने,
"नहीं समझ रहे?" बोली वो,
"नहीं!" बोली वो,
"चिलमन से झांको!" बोली वो,
"कैसा चिलमन?" पूछा उसने,
"यक़ीन का!" कहा उसने,
"ये क्या कहे जा रही हो?" बोली वो,
""हक़ीक़त!" बोली वो,
"मेरी समझ से बाहर!" बोली वो,
"नहीं, समझिए!" बोली वो,
"क्या समझूं?" पूछा उसने,
"जो हो रहा है!" बोली वो,
"क्या हो रहा है?'' पूछा उसने,
"नज़रें बंद न रखो, सामने देखो, सब दिखेगा! बस, थोड़ा सा इंतज़ार! फिर, सब साफ़!" बोली वो लड़की!


   
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श्रीशः उपदंडक
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कुछ समझी नहीं रचिता! कैसी नज़रें, क्या हक़ीक़त और क्या सामने? 
"जागो! और जानो!" बोली वो लड़की!
और अगले ही लम्हे, नींद खुल गई उसकी! अपने आसपास देखा उसने, ये तो लॉज का कमरा था! उसे याद आने लगा वो सब! करवट बदली, और आँखें मूंद लीं, दिल में कहीं लालच जाग चुका था कि उस लड़की से और बातें की जाएँ! कुछ और जाना जाए, कुछ ऐसा, जिस से, शायद कुछ पता चले उसे अपने अंजान ख़्वाबों के बारे में! लेकिन फिर नींद नहीं आई! जैसे, किसी ने, अपनी मर्ज़ी से, उसे छोड़ दिया था कि अब जो जानना है, वो अब हक़ीक़त में ही जाने!
खैर, उनकी यात्रा समाप्त हुई, और उन्होंने दोपहर से कुछ पहले ही, भोजन आदि से निबट कर, डगर पकड़ ली वापसी की! माँ और पिता जी, अब चिंता में थे, कुछ व्यवहार भी बदल सा गया था रचिता का, वो अब ज़्यादा संजीदा, इस जहां से उचाट सी और अलहैदा रहना, पसंद करने लगी थी! ऐसा कभी उसके साथ न हुआ था, बस चिंता यही थी! उसके माँ-पिता जी, कोई क़सर न छोड़ना चाहते थे! भले कुछ भी हो!
तो शाम के बाद, वे लौट आये घर, आम और रोज़मर्रा की ज़िंदगी जैसे उनका वहीँ इंतज़ार कर रही थी, सो, शुरू हो गई! रात को खाना खाया सभी ने और सो गए, उस रात बेहद कसक़ की सी रात गुज़री थी रचिता की! कोई ख़्वाब दरपेश ही न हुआ था, उसने न जाने कितनी मर्तबा अंजान सी फरियाद और गुजारिश कर डाली थी, लेकिन कोई ख़्वाब पेश न आया उस रात!
अगले दिन, सरकारी छुट्टी थी, माँ ने, पड़ोसन से बात कर ली थी, वो आदमी गाज़ियाबाद में कहीं रहता था, ये, शहर दिल्ली के पास ही पड़ता है, वहीं जाना था, उस आदमी से बातें हो गई थीं, उस आदमी ने, एक कपड़ा लड़की का, एक फोटो मंगवाया था, ये सब, रख ही लिया था उन्होंने! पता मालूम चल ही गया था, वक़्त मुक़र्रर हो ही गया था तो, कोई ज़रूरी काम है, कह कर घर में, माँ और पिता जी, चल पड़े थे गाज़ियाबाद के लिए, उस आदमी से मिलने!
रोहतास नाम था उस आदमी का, वो जिला गाज़ियाबाद का ही रहने वाला था, कहने वाले कहते हैं, अच्छी पकड़ थी उसकी! देखते ही सारा मामला जान जाता था! उम्र में करीब पैंतालीस का रहा होगा, उसका एक लड़का, उसकी राह पर ही चलता था, उसको भी यही काम, सिखा रहा था रोहतास! नाम था उस लड़के का, वीर, उम्र में करीब बीस का रहा होगा!
जब वे वहां पहुंचे, तो बाहर, काफी भीड़ लगी थी, गाड़ियां खड़ी थीं, लोग आये हुए थे, सभी के नंबर लगे हुए थे, उनकी चूँकि चलने से पहले बात हो चुकी थी रोहतास से, तो उन्हें कोई दिक्कत नहीं हुई, एक आदमी ने, उन्हें अंदर बुला लिया था! वे जब अंदर गए, तो कमरे में, रोहतास, बैठा था, एक सफेद सी दरी पर, चारों कोनों में दीये, धूपबत्ती सुलगी थी! एक स्थान पर, श्री महा काली की एक बड़ी सी तस्वीर भी रखी थी, कुछ निम्बू, पान और फूल रखे गए थे! रोहतास के साथ ही, बाएं हाथ पर, एक कटोरा रखा था, इसमें शायद भभूत रखी थी!
"नमस्ते!" बोले पिता जी,
''आइये!" बोला वो!
"धन्यवाद!" बोले पिता जी,
"बैठिए!" बोला वो,
"वो आपसे बात..........." कहते कहते, उस आदमी ने, हाथ आगे कर, रोक दिया उन्हें!
"कपड़ा लाये?" पूछा उस आदमी ने,
"हाँ जी!" बोले वो,
"दिखाओ!" बोला वो,
माँ ने, थैले में से, एक सूट निकाल दिया, उस आदमी ने वो सूट पकड़ा, कुछ भभूत छिड़की उस पर, एक मंत्र पढ़ा और कपड़ा उठा लिया! दो बार सूंघा! और रख दिया नीचे!
"फोटो?" बोला वो,
"हाँ" बोले वो,
माँ ने फोटो निकाल कर दिखाया!
उसने लिया और उलट-पलट कर देखा, दो-तीन बार!
"नाम क्या बताया?" पूछा उसने,
"रचिता!" बोले वो,
"उम्र?" पूछा उसने,
"छब्बीस" बोले वो,
"कोई और बहन भी है?" पूछा उसने,
''नहीं!" बोले वो,
"भाई?" पूछा उसने,
"एक, छोटा!" बोले वो,
"नाम?" कहा उसने,
"नितिन" बोले वो,
"खाना-पीना ठीक लड़की का?" पूछा उसने,
"हाँ" बोले वो,
"सजती-धजती है?" पूछा उसने,
"नहीं तो?" बोलीं माँ,
"दूर जाती है कहीं?" पूछा उसने,
"नहीं" बोलीं माँ,
"कोई प्रेम-संबंध?" पूछा उसने,
"नहीं जी" बोले पिता जी,
''आपका कोई बैरी?" पूछा उसने,
"नहीं जी" बोले वो,
"लड़की पर साया तो है!" बोला वो,
"साया?" पिता जी तो जैसे सुनते ही काँप से गए! माँ की आँखें फटीं!
"हाँ, एक काला साया!" बोला वो,
"और बताइए?" पूछा माँ ने,
"पीछे लगा है इस लड़की के!" बोला वो,
"किसलिए?'' पूछा उसने,
"पसंद करता होगा!" बोला वो,
"ओह...तो अब?" बोले पिता जी,
"चिंता न करो!" बोला वो,
"इसीलिए तो आये आपके पास!" बोले वो,
"खाली नहीं जाओगे!" बोला वो,
''आप छुड़ाओ ये साया?" बोले वो,
"छुड़ा दूंगा!" बोला वो,
"जो भी खर्च आये, बता दें" बोले वो,
'वो सब बाद में!" बोला वो,
"जी!" कहा उन्होंने,
"कुछ देता हूँ, इसकी घर में तीन जगह छिप देना, कल मुझे फोन कर बताना, कि लड़की कैसी है? ठीक?" बोला वो,
"जी, ठीक!" कहा उन्होंने,
और तभी, रोहतास ने.............................!!


   
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श्रीशः उपदंडक
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और फिर रोहतास ने, अपने नीचे बिछी हुई दरी के ऊपर बिछे हुए उस कपड़े के नीचे से, तीन धागे निकाले, धागे, भस्म में रगड़े, और उनमे, सात सात गांठें बाँध दीं! हाथ में ले, उन्हें, मंत्र पढ़ा और खोल दिया हाथ अपना, बढ़ाया आगे!
"ये लो!" बोला वो,
"जी" कहा उन्होंने,
"इन्हें, तीन जगह रख देना छिपा कर कहीं भी!" बोला वो,
"जी ठीक" बोले वो,
''और हाँ, कल शाम तक, बता देना मुझे जो कुछ भी हुआ हो!" बोला वो,
"ज़रूर बता दूंगा!" बोले पिता जी!
तब पिता जी ने, वो सामान उस थैले में रख दिया वापिस, धागों को अपने रुमाल में बाँध लिया, और वे भी रख लिए थैले में, फिर जेब से निकाल कर, पैसे भी दे दिए उसे, रोहतास ने पैसे, अपने उसी कपड़े के नीचे रख दिए!
"चिंता नहीं करना!" बोला वो,
"आप हो तो, क्या चिंता!" बोले वो,
"ऐसे बहुत से मामले आये हैं!" बोला वो,
"जी" कहा उन्होंने,
"थोड़ा समय लगता है लेकिन सब ठीक हो जाता है!" बोले वो,
"जी" बोले वो,
"ठीक है, अब आप जाइये, जैसा कहा, वैसा कीजिये!" बोला वो,
"जी, नमस्ते!" बोले वे दोनों!
"नमस्ते!" बोला रोहतास!
और वे दोनों निकले बाहर! बाहर आये, तो कई औरतें दिखीं, जिन्हें बाँध कर रखा गया था उधर, देखने पर पता चलता था कि वे सभी, बाधाग्रस्त हैं!
तो साहिबान! वे आये घर, और घर में, वे धागे, छिपा के रख दिए, एक चुपके से माँ ने, रचिता के बिस्तर के नीचे रख दिया, एक बाहर दरवाज़े पर बाँध दिया और एक को, रसोई में रख दिया! और किया तब इंतज़ार!
उसी रात..........करीब एक बजे............
एक ख़्वाब, फिर से, आँखों में उतरा! 
ये एक जगह थी पावन सी! पीछे, पहाड़ थे, रेल की आवाज़ आई, उसने पीछे देखा तो रेल की पटरियां दिखाई दीं! आगे, एक स्टेशन था, थोड़ा दूर ही! तभी एक और आवाज़ गूंजी, ये आवाज़, हेलीकॉप्टर की थी, पीले रंग का था वो, काफी बड़ा सा दीख रहा था! वो उस जगह अकेले ही थी कि अचानक से एक आवाज़ आई! उसने बाएं देखा, बाएं एक बूढ़ी सी औरत थी, हाथ में एक पतली सी लाठी लिए, लाठी, चिकनी हो चुकी थी, इसका मतलब बेहद ही पुरानी रही होगी वो! वो बुढ़िया एक हाथ कमर पर रखे और एक हाथ से उस लाठी को पकड़े, उसकी तरफ आ रही थी! जब वो करीब आई, तो चेहरा देखा रचिता ने उसका, आँखें बूढ़ी थीं उसकी, सफेद सा मोतिया पक चुका था, अम्मा को दिखाई भी न जाने कैसे दे रहा होगा! ये, सोचा था रचिता ने!
"तू चिंता न कर!" बोली वो बुढ़िया उस से,
"कैसी चिंता अम्मा?" बोली वो,
"तू मत घबरा!" बोली वो बुढ़िया,
"क्या अम्मा?" बोली वो,
"तू पानी पिएगी?" पूछा अम्मा ने, 
"नहीं अम्मा?" बोली वो,
"कुछ खायेगी?" पूछा अम्मा ने,
"नहीं अम्मा!" बोली वो,
"दर्शन लाल तेरे पिता हैं?" बोली अम्मा,
"हाँ अम्मा!" बोली वो,
"अच्छा, और लीला तेरी माँ?" पूछा उसने,
"हाँ अम्मा!" बोली वो,
"इधर आ?" बोली अम्मा,
"हां अम्मा?" आगे आते हुए बोली वो,
सर पर हाथ फेरा और कुछ बुदबुदाई अम्मा! और माथे पर, तर्जनी ऊँगली से, कुछ लिखा दिया!
"अब मैं चलती हूँ!" बोली अम्मा,
"कहाँ?" पूछा उसने,
"दूर" बोली अम्मा, पलटते हुए,
"ये कौन सी जगह है?" पूछा उसने,
"दर्शन लाल बता देगा!" बोली वो,
''आप बताओ?" पूछा उसने,
"सामने देख ले!" बोली वो अम्मा,
उसने सामने देखा, दूर पहाड़ी पर, मंदिर की तरह से बने थे, कोई रास्ता भी दीख रहा था, लेकिन साफ़ नहीं, सुबह का वक़्त जो था!
और उसने फिर सामने देखा, अब कोई नहीं! अम्मा जैसे, उड़ गई थी! या, ज़मीन में उतर गई थी! जैसे आई थी, वैसे ही चली भी गई थी! वो हैरान सी पड़ी! और तभी, फिर से रेल का हॉर्न बजा! उसने देखा उधर, कोई रेल आ रही थी! उसका इंजन, काला सा धुंआ छोड़े जा रहा था! उसने फिर से ऊपर देखा, ऊपर कोई मंदिर तो ज़रूर था! तो वो, आगे चल पड़ी! जब चली, तो कुछ लोग दिखे! हैरत की बात! वो ठिठक कर खड़ी हो गई उसी लम्हे! हैरत की बात ये, कि वे सभी लोग, एक ही साथ, उसे देख रहे थे! क्या बच्चे, क्या बालक-बालिकाएं, क्या औरतें, क्या मर्द और क्या बुज़ुर्ग!


   
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वे सब के सब उसी को देख रहे थे! पता नहीं क्या बात थी! उसकी नज़र फिर से पहाड़ी पर गई! और जब नीचे की, तो नींद खुल गई! ये कैसा अजीब सा ख़्वाब था? वे सब लोग कौन थे? और वो बुढ़िया? वो कौन थी? सवाल तो बहुत आते थे मन में, लेकिन जवाब ही नहीं मिलते थे उनके! उसने तो अब, अजीज़ अपने ख़्वाबों में ही जीना भी सीख ही लिया था! न जाने क्यों, उसे, ख़्वाबों की ये दुनिया, बढ़िया लगने लगी थी! वो रात होने का इंतज़ार करती, अकेले रहने का उसका मन करता! किसी की भी बातें अब बेमायनी सी ही लगतीं! ये सब, महज़ ख़्वाबों की वजह से ही हो रहा था!
जब घड़ी देखी तो ढाई का वक़्त था! अभी तो रात जवां थी! सुरूर उसका अभी पूरे शग़ल में शुमार था! पहली बार, उसकी नज़र उस पेंटिंग पर पड़ी! पहली बार ही ग़ौर से देखा था उसने! उसमे जो बेल-बूटे थे, वो पीले रंग के ही थे! आज उसे, बेहद ही सुंदर से लगे थे वो! पीले फूल! वैसे ही पीले फूल! ख़्वाब ग़र हक़ीक़त में तब्दील हो जाएँ तो रौ-ए-वक़्त-ए-नाफ़िज़(एक तो कमज़ोर,देह से नहीं, जान से,) मुश्किल हो जाता है! और फिर ख़्वाब भी ऐसे, जिनका वजूद भी अक्स में नुमाया हो जाए! कहते हैं, ख़्वाबों की ज़िंदगी से ग़र मुहब्ब्त हो ही गई तो इस जहां से छूटे! तो, यही हाल पेश-ए-निहाँ(अज्ञात) हो रहा था साथ उसके!
लेकिन, सौ बात की एक बात! आख़िर किसी को तो मालूम था उसका ये हाल-ए-एबतेसाम(हर्षातिरेक, उल्लास)! कौन है वो? कहाँ है? क्या मंशा है? क्या मंसूबा है? कौन है इस ज़र्द से पर्दे के पीछे खड़ा, जो जा रहे है पेंच लड़ा? उसके ज़ाबित होने का इस से बड़ा और क्या सुबूत होगा भला?
खैर साहिब!
अगला दिन आया! और उस दिन, पिता जी ने, माँ को कुछ समझाया-बुझाया! क्या समझाया होगा, ये तो लिखने की ज़रूरत ही नहीं! और करीब, नौ बजे, वे अपने दफ़्तर चले गए! दस बजे करीब ही, रचिता भी अपने कोचिंग-सेंटर के लिए निकल पड़ी! जैसी रोज ही निकलती थी, ठीक वैसी ही, न कुछ ख़ास ही! न कोई व्यवहार में बदलाव ही! पिता जी से रोज़मर्रा की तरह मिली थी, माँ से भी! जाने से पहले, माँ ने दूध का गिलास दिया था, तब भी सामान्य ही थी! हाँ, फोन पर बात ज़रूर की थी अंजू से, अंजू जो आज आ रही थी कोचिंग-सेंटर! बस, और कुछ ख़ास नहीं!
दोपहर का वक़्त था, खाना खाने की तैयारी से थोड़ा पहले ही, रचिता अपने उस कमरे में आ बैठी थी! आज बदन में, कुछ आलस सा भरा था! जी चाह रहा था कि बस बिस्तर मिले और नींद ले ली जाए! उबासियों ने तंग करके रख दिया था!
अपनी कुर्सी पर बैठ, वो उस बड़े से गुलदस्ते के, लाल से रंग के बड़े बड़े फूलों को देख रही थी! तभी खिड़की खुली और एक अजीब सी, मदहोश करने वाली महक़ कमरे में दाखिल हो गई! महक़ ऐसी तेज थी कि आँखें ही बंद हो गईं उसकी! ना, सोई नहीं वो! बस उस महक़ ने जैसे नशा सा भर दिया था रोम रोम में उसके!
जैसे तैसे, उसने खुद को सम्भाला! अंगड़ाइयां लीं और जैसे, कोई उसको अंगड़ाईयाँ लेते देख, देखता रहा था, ठीक उसी कमरे में! खिड़की के कांच में, जैसे दीये से जल उठते थे बार बार! इस पर, ज़्यादा ग़ौर नहीं किया था उसने, हो सकता हे, खिड़की के बाहर ही कुछ चमकदार रखा हो, जो हवा के साथ साथ, हिलता रहा हो!
बीस मिनट के बाद, अंजू अंदर आई! पानी का जग लेकर! पानी मेज़ पर रखा, बैग से खाना निकाल लिया अपना, कुर्सी खींची और बैठ गई!
''और रचिता?" पूछा उसने,
"सब ठीक!" बोली वो,
"कैसा रहा टूर?" पूछा उसने,
''अच्छा रहा!" बोली वो,
"बस अच्छा?" पूछा उसने,
"हाँ? और क्या होना था?" पूछा उसने,
"खाना निकालो पहले!" बोली वो,
"हाँ, अभी!" बोली वो,
उठी, पीछे रखी बड़ी टेबल से एक बैग उठाया और निकाल लिया खाना, रखा उसे उस मेज़ पर, और पानी का गिलास, अपनी चुन्नी से पोंछ लिया!
"कोई बात बनी?" पूछा अंजू ने,
"कैसी बात?" पूछा उसने,
''अरे!" बोली अंजू!
"ओ! मैं क्या जानूं?" बोली वो,
"तो कौन?" पूछा उसने,
"मुझे क्या पता?" बोली वो,
"कमाल करती हो!" बोली अंजू!
"कोई कमाल नहीं!" कहा रचिता ने!
"अच्छा सुनो?" बोली अंजू,
"हाँ?" कहा उसने,
"एक फंक्शन रखा है घर में, छोटा सा, आना है!" बोली अंजू!
"पापा से पूछ लूंगी!" बोली वो,
"माँ-पिता जी, दोनों को लाना, नितिन है?" पूछा उसने,
"है!" बोली वो,
"ले आना उसे भी!" बोली वो,
"वो शुक्रवार को चला जाएगा!" बोली वो,
"ओह...ठीक, तो तीनों ही आ जाना!" बोली अंजू!
"जी! धन्यवाद!" बोली और मुस्कुरा पड़ी!
"इंतज़ार रहेगा, फोन नहीं करूंगी अब!" बोली अंजू!
"ठीक है!" कहा उसने,
खाना निबटाया, और भी बातें हुईं, हुई शाम और घर को चली फिर रचिता! अब देखें, क्या होता है घर में!


   
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श्रीशः उपदंडक
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घर पर, उसके पहुँचने से पहले ही पिता जी भी पहुँच चुके थे! जब उन्होंने धागे देखे तो होश ही उड़ गए! धागे तो जल चुके थे! छूते ही, राख हो गए थे! अब ये तो पक्का था कि उस घर में, रचिता के साथ, कुछ न कुछ तो हो रहा था! वो काला-साया कहीं भड़क ही न जाए, कोई नुकसान ही न कर डाले, इसके लिए ये सब, उस रोहतास को बताना बेहद ज़रूरी था! इसीलिए उन्होंने फोन लगाया! घंटी गई उस तरफ और फोन उठा!
"हेलो!" बोले पिता जी,
"जी, दर्शन जी, बताएं!" बोल रोहतास,
"वो जो धागे आपने दिए थे, रखने के लिए, हमने जी वो रखे, अब आकर देखा तो सभी के सभी, जले हुए हैं?" बोले वो, घबराते हुए!
"जले हुए?" रोहतास जैसे चौंक पड़ा!
"हाँ जी, सभी जले हुए!" बोले वो,
"ऐसा नहीं होना चाहिए?" बोला वो,
"हुआ है ऐसा ही" बोले वो,
"ये तो बड़ी गड़बड़ है" बोला रोहतास,
"कैसी बड़ी गड़बड़?" पूछा उन्होंने,
''अभी लड़की कहाँ है?'' पूछा उसने,
"आने ही वाली है बस" बोले वो,
"अच्छा, तो क्या आप मिल सकते हैं मुझ से, आज?" बोला वो,
"अरे जी, क्यों नहीं? बताइए कब?" बोले वो,
''आ जाइये, बैठा हूँ" बोला वो,
''आता हूँ, एक घंटे तक पहुंचता हूँ" बोले वो,
"आ जाओ" बोला रोहतास,
और फोन कट गया, पिता जी जल्दी से तैयार हुए, रचिता की माँ को बताया उन्होंने और रचिता के आने से पहले ही, घर से निकल पड़े! वे निकले, और कोई दस मिनट के बाद, रचिता भी आ गई! स्कूटी खड़ी की और अंदर आई!
"मम्मी?" दी आवाज़ उसने,
"हाँ?" बोलीं माँ,
"आज पापा नहीं आये?" पूछा उसने,
"आने वाले हैं, कुछ काम था, देर से आएंगे" बोली माँ,
"बात हुई थी?" पूछा उसने,
"हाँ" बोलीं माँ,
"कब?" अपने कान के झुमकों को उतारते हुए पूछा था उसे!
"कोई एक घंटा पहले" बोलीं माँ,
''अच्छा" कहा उसने,
"और हाँ, चाय पिएगी?'' पूछा माँ ने,
"हाँ, अपने कमरे में" बोली वो,
"ठीक है, दे जाउंगी, तू कपड़े बदल!" बोली माँ,
और चली गई रचिता अपने कमरे में! माँ उसे देखती ही रह गई! क्या हुआ है इस लड़की को? कौन दुश्मन लड़ बैठा है? क्या हो रहा है?
और उधर.......
एक घंटे से ज़्यादा लग गया था पिता जी को, जब पहुंचे तो रोहतास वहीँ मिला, उनका ही इंतज़ार कर रहा था जैसे!
''आइये!" बोला वो,
"जी" बोले वो,
"बैठिए" बोला वो,
"कुछ पता चला?" पूछा, बैठते हुए उन्होंने,
"हाँ, चल जाएगा पता!" बोला वो,
"जी, कब?" पूछा उन्होंने,
"चिंता कैसी?" बोला वो,
"जवान लड़की है, डर लगता है" बोले वो,
"रोहतास के यहां डर नहीं आता!" बोला वो,
"जी" बोले वो और कुछ हिम्मत बंधी!
"वो धागे जो हैं, कोई माहिर ही काट सकता है, आपने बताया कि जल गए, इसका मतलब मामला गम्भीर है!" बोला वो,
''अब?" बोले वो,
"जा कर ही पता चलेगा!" बोला वो,
"घर?" पूछा उन्होंने,
"हाँ" बोला वो,
"कब?" पूछा उन्होंने,
"चलूँगा.....रुकिए.........अरे वीर?" आवाज़ दी उसने,
एक आदमी आया अंदर, 
"धीरु, वो वीर कहाँ है?'' पूछा उसने,
"बाहर है, बुलाऊँ?" बोला वो,
"हाँ" कहा उसने,
"अभी" बोला वो, और लौट पड़ा,
और कुछ ही देर बाद, एक बीस-बाइस साल का लड़का अंदर आया! ताबीज़-गंडे पहने हुए! कुरता पहने हुए, सर के बाल, बहुत ही कम, एक काला सा टीका खींचे हुए!
"आ वीर!" बोला वो,
लड़का वहीँ बैठ गया!
"ये लड़का है मेरा!" बोला वो,
''अच्छा" कहा पिता जी ने,
"ये कल पहुंच जाएगा आपके घर" बोला वो,
"कितने बजे?" पूछा उन्होंने,
"कोई दो बजे, दोपहर? क्यों?" बोला रोहतास, देखते हुए वीर को!
"हाँ, पहुँच जाऊँगा" बोला लड़का,
"वीर?" बोला रोहतास,
"जी?" बोला वो,
"इनके घर में कुछ बड़ी गड़बड़ है" बोला वो,
"वो देख लूंगा!" बोला वो,
"हाँ, देखना, ग़ौर से!" बोला वो,
"जो भी हो" बोला वो,
''अगर पकड़ बड़ी हो, तो छोड़ आना!" बोला रोहतास,
''देख लूंगा" बोला वो,
"मुझे बताते रहना" बोला वो,
"हाँ" कहा उसने,
'अच्छा, आप मिलोगे उधर?" पूछा रोहतास ने, पिता जी से,
"हाँ, मिलूंगा" बोले वो,
"ये ठीक रहेगा" बोला वो,
"जी" कहा उन्होंने,
"वैसे क्या लगा?" पूछा वीर ने,
"बता दूंगा अभी" बोला वो,
''अच्छा" कहा उसने,
"तो चलूँ?" बोले पिता जी,
"हाँ" बोला वो,
तब पिता जी ने, कुछ और पैसे उसकी तरफ बढ़ा दिए, रोहतास ने लिए और वीर को दे दिए, वीर ने गिने और जेब में रख लिए!
''दो बजे तक आ जाएगा ये" बोला वो,
"जी ठीक है" बोले पिता जी,
"हाँ, आप मिलिए" बोला वो,
"जी, मिलूंगा, कोई सामान आदि लाना हो तो बताइए?" बोले वो,
"नहीं, कोई ज़रूरत नहीं!" कहा रोहतास ने!


   
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