वर्ष २०१५, दिल्ली क...
 
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वर्ष २०१५, दिल्ली के पास की एक घटना, रचिता के वो अंजान ख़्वाब!

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श्रीशः उपदंडक
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   रात थी वो! संजीदा सी रात! एक सुईं का भी शोर नहीं! न हवा ही, न कुछ शोर! घुप्प अँधेरा, ऊपर, अँधेरे में, सितारे से जड़े हुए! बेतरतीब से, जैसे, किसी ने बिखेरे हों और रोक दिए हों, वहीं के वहीँ! सितारे, कुछ लाल, कुछ पीले, कुछ चमकदार नीले से, कुछ संतरी रंग के, कुछ सोते से, कुछ अभी जागे हों ऐसे! कुछ टिमटिमाते से! उसकी आँखें जब खुलीं, तो यही नज़ारा था सामने! सामने, ऊपर की तरफ! जहाँ उसकी आँखें सबसे पहले जा टिकी थीं! वो, वहीँ जैसे उस बिस्तर में गड़ गई थी! उसने जब अपने हाथों की मुट्ठियां बंद कीं, तो हाथ में, महीन सी चादर हाथ आई! उसने छूकर देखा उसे! ठंडी! सर्द सी थी वो चादर! नज़रें घुमाईं! चादर को देखा, तो गहरे मैरून रंग की थी वो चादर! उसने हल्की सी कर्व ली, हाथ बढ़ाया एक तरफ, सर्द सा झोंका, उसके जिस्म को चूमता चला गया! हवा नहीं थी, वो फिर, झोंका कैसे? वो उठ बैठी! आसपास देखा, सितारे ही सितारे! उसके इर्द-गिर्द! दूर दूर तक! वो सिकुड़ गई, आसपास देखा फिर से! फिर, पीछे, पीछे, चाँद खिला था! दूध से नहाया हो चाँद, ऐसा! जैसे, बेहद ही करीब हो! समझ में आया क्यों उसका बदन, चांदी जैसा चमक रहा था! चाँद की चांदनी, जो, आ लिपटी थी उसके, खुले जिस्म के हिस्सों से! उसका हाथ पीछे गया, तो एक, बड़ा सा चौकोर सा तकिया था, उसने उठाया उसे! ये क्या? हवा से भी हल्का? इतना मुलायम? इतना ज़ाक़ीद(देव-श्रृंगार की वस्तु सा)? उसने, उठा उसे, अपनी गोद में रख लिया! न समझ आये, कि वो हे कहाँ? यकबयक, नज़र दूर पड़ी, नीचे, नीचे भी सितारे? उसने, झुक कर देखा! जैसे ही देखा, सिहर सी गई वो! चेहरा सफेद सा पड़ गया! लेकिन, वे सितारे तो जड़े थे! और ये बड़ा सा, बिस्तर? वो पलंग? वो है कहाँ? नीचे देखने के लिए, सर झुकाया! लगा, ज़मीन की जगह, कांच है! कांच, कशीशी कांच! एक पाँव नीचे किया! और अपने पांव के अंगूठे को छुआया उस से! ज़मीन जैसा! फर्श जैसा! पूरा पाँव रख दिया! फिर दूसरा! और हो गई खड़ी, लेकिन, जी में डर सा लगे! कहीं कांच, टूट जाए तो? तभी! नज़र पड़ी नीचे! कांच से नीचे! नज़र, जो कांच के अंदर से, नीचे गुजर गई थी! नीचे, बहुत नीचे, जैसे, आग सी जली हो! जैसे बिन धुंए का सा अंगार का, बड़ा सा ढेर हो!
ये क्या है? आया दिमाग में! लेकिन समझ में नहीं आया! पीछे नज़र पड़ी! बड़ा सा बिस्तर था वो! चादर जो पड़ी थी, जैसे सोने से टांकी गई थी! मैरून रंग, उस चांदनी में, कभी काला, तो कभी नीला सा और कभी लाल रंग की झाईं देता था! उसने, धीरे धीरे चलते हुए, उस पलंग का एक चक्कर सा काटा! पलंग में, छह पाये थे! एक एक पाया जैसे छह छह फ़ीट का रहा होगा! सभी, सोने के बने हों जैसे! हर एक में, चरस खाने बने थे, शतरंज के जैसे, और उन खानों की लकीरों में, काले और लाल, पीले और सफेद रंग की जैसे, कांच की धुल भरी गई हो! उसने एक पाया छुआ! बेहद ठंडा! बेहद ही! बर्फ की सी तरह! पलंग पर चढ़ने के लिए, बड़ी बड़ी सी, सीढ़ियां थीं! सारी की सारी सीढ़ियां, खुर्ब्दान(सोना-चांदी रखने का बर्तन जैसा सन्दूक) सी बनी थीं! वो, हल्के से मुस्कुराते हुए, धम्म से, उस बड़े बिस्तर में गिर गई, मुंह के बल! वो शनीली चादर, उसके गिरने से, उड़ सी चली! लहरें से बन गईं थीं उसमे! और फिर एक अजीब सी आवाज़! पलट कर देखा!
सामने, दीवार! दीवार पर टंगी, पुरानी सी एक 'साइंटिफिक' कंपनी की, चाबी भरने वाली, दीवार-घड़ी थी! उसमे से ही घंटे बजे थे! ये सुबह, पांच का वक़्त मुक़र्रर कर रही थी! उसकी आँखें खुलीं, लेकिन दिमाग नहीं! दिमाग तो अभी भी उन सितारों, उस कांच की सी ज़मीन पर, उस पलंग पर ही रुका था! और जैसे ही दिमाग को आया होश, खुला वो! तो झट से बैठ गई! नज़र गई आसपास! कोई सितार नहीं! ज़मीन देखे, तो कोई कांच की ज़मीन नहीं! चादर देखी, तो कोई शनील नहीं! पलंग देखे तो कोई पाये नहीं, उतना बड़ा नहीं! पीछेः देखे, तो दीवार, और दीवार से अंदर झांकता, उस कमरे का एयर-कंडीशनर, जो अभी भी, चले जा रहा था! उसने, बंद किया उसे, और खड़ी हो गई! खिड़की पर गई! खिड़की खोली! एक गर्म सा झोंका अंदर दाखिल हुआ! 
बाहर अभी हल्का सा ही उजाला पहुंचा था, सूरज अभी, बस निकलने ही वाले थे, बाहर, पेड़ शांत थे! पौधे, अभी भी सो ही रहे थे!
"सपना!" बोली वो,
और चली गुसलखाने की तरफ!
रुकी! पीछे देखा, फिर से खिड़की की तरफ गई! बाहर देखा, आसमान देखा, कोई सितारा नहीं! उचक कर, आगे बढ़ी, चाँद को ढूंढा, वो भी नहीं! हुई पीछे!
"सपना! लेकिन हक़ीक़त सा!" बोली वो, धीरे से, मुस्कुरा गई!
और चली गई, गुसलखाने!
कुछ देर बाद, लौटी, तैयार सी होकर! कुछ साज-श्रृंगार सा किया, बाल संवारे! और कमरे की घंटी बजी!
"रचिता?" आई आवाज़,
"हाँ?" बोली वो,
"उठ गई?" आई आवाज़,
"हाँ!" कहा उसने,
"तैयार हो गई?" आई आवाज़,
"हाँ!" बोली वो,
''और कितनी देर?" आई आवाज़,
"बस, आई!" बोली वो,
लिपस्टिक का खोल कसा, दराज़ में रखी, आँखें देखीं! बालों में, दो-चार बार हाथ मारा, पलटी, फ्रिज में से एक ठंडी पानी की बोतल निकाली, कमर में कसा बैग, बोतल खोंसी उसमे,
और चली दरवाज़े की तरफ! चिटकनी खोली, फिर लैच हटाया, और बाहर! साढ़े पांच बजे थे, और ये उसके रोज ही व्यायाम करने का वक़्त था!


   
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श्रीशः उपदंडक
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करीब सात बजे वो लौटी वापिस! चाय-नाश्ता किया, और अपनी माँ से कुछ बातें कीं, उसका अपना कोचिंग-सेंटर था, उसी में, मसरूफ़ रहा करती थी! नौ बजे पहुंचना था उसे उधर, सो आम दिन की तरह ही, वो अपने सेंटर जा पहुंची! और फिर हो गई मसरूफ़ जैसी अक्सर ही वो, रहा भी करती थी!
वो दोपहर थी, और दोपहर में, वो घर से लाया खाना ही खाया करती थी! तो उस दिन भी खाया! उसकी एक साथी थी वहां, अंजना, अंजना से काफी पुरानी जानकारी थी उसकी! अंजना, शादशुदा थी, करीब दो बरस पहले ही उसका ब्याह, यहीं इसी शहर में हुआ था, उसका घर तो बदला, लेकिन ये सेंटर नहीं!
"कैसी रही यात्रा अंजू?" बोली रचिता!
"थकाऊ बहुत!" बोली वो,
"क्यों?" पूछा उसने,
"गाड़ी में शुरू से ही दिक्कत जो थी!" बोली वो,
"चलने से पहले ही?" पूछा उसने,
"हाँ!" कहा उसने,
"तो ठीक करते उसे पहले?" बोली वो,
"अब ये! ये सुनते ही कहाँ हैं! अपनी अपनी हांकते हैं बस!" बोली वो,
"लेकिन ख़याल भी तो रखते हैं!" बोली रचिता!
मुस्कुरा गई अंजू!
"तू कब ढूंढेगी कोई ख्याल रखने वाला?" बोली अंजू,
"अपना तो बस...यूँ ही ठीक!" बोली वो,
"हाँ! तुझे क्या पता क्या ठीक और क्या गलत?'' बोली अंजू,
"क्यों?" बोली वो,
"देख, उम्र बीते जा रही हे, तू अभी छब्बीस की है, और कितना इंतज़ार?" बोली वो,
"कोई मिले तो सही?" बोली वो,
और तभी, बाहर, उस दरवाज़े पर, कोई आया!
"कौन है?'' बोली अंजू!
"बहन जी मैं!" आया अंदर एक, देहाती सा युवक!
"आ रामकिशोर!" बोली अंजू!
"क्या लाये हो किशोर?" पूछा रचिता ने,
"कुछ ख़ास!" बोला वो,
"क्या ख़ास?" पूछा अंजू ने,
"झिलमिला!" बोला वो,
और अपनी गठरी, रख दी नीचे! बैठा, और निकाल बाहर, कुछ, जो अखबार में लिपटा था! उसने, धीरे धीरे खोलना शुरू किया उसे, और जब खुला, तो वो, एक दीवार पर, लटकाने वाला सा जाल था! जिसमे, सितारे जड़े थे! नीले, पीले, लाल, संतरी, हरे से! रौशनदान से अंदर आती धूप ने जैसे ही छुआ उसे, वो सब सितारे, रौशन हो उठे!
"दिखा? बहुत खूबसूरत है!" बोली अंजू!
लेकिन रचिता!
रचित ने, एक बार ही देखा था! एक बार ही और याद हो आया उसे उस सुबह का सपना! जिसमे, वो सितारों के बीच लेटी थी! ऐसे ही तो थे, लाल, पीले, हरे, नीले, संतरी से! अंजू बातें करती रही किशोर से और रचिता, उसी ख़्वाब में लौटने भी लगी थी!
"ए?" बोली अंजू!
न दिया जवाब कोई!
"ओ?" बोली फिर से,
न कोई जवाब! आँखें, कभी छोटी हों, और कभी बड़ी!
"अरे कहाँ खो गई?" पूछा अंजू ने, उस बार उसका हाथ हिलाते हुए!
"ह.....हाँ!" बोली वो,
"तूने देखा?" पूछा उसने,
"क्या?" पूछा उसने,
''अरे ये?" बोली दिखाते हुए उसको!
"हाँ!" बोली वो,
"कैसा है?" पूछा उसने,
"बढ़िया है!" कहा उसने,
"बस बढ़िया बहन जी?" बोला किशोर!
"अरे नहीं, शानदार!" बोली रचिता!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"है न?'' पूछा उसने,
"हाँ!" बोली वो,
"दो लेलूं?" पूछा उसने,
"हाँ!" बोली वो,
दरअसल, सपने से बाहर न निकली थी रचित अभी! उसे, अभी तक, वो झिलमिलाते सितारे ही याद आ रहे थे! उनकी चमक और दमक!
"किशोर?" बोली अंजू,
"जी बहन जी!" बोला वो,
"ले, दो दे दे ये!" बोली अंजू,
"अच्छा जी!" बोला वो, और कागज़ में, लपेट दिया वो पहले वाली झालर, तह लगाकर!
"कहाँ खो गई थी?" पूछा अंजू नहीं,
"कहीं नहीं!" बोली वो,
"कुछ याद आया था?" पूछा उसने,
"नहीं!" बोली वो,
"कुछ न कुछ तो था?" बोली वो,
"नहीं!" कहा उसने,
किशोर ने, दो झालरें, निकाल कर, कागज़ में लपेट कर, रख दीं थीं सामने, अंजू ने पैसे दे दिए थे फिर, किशोर, पैसे ले, चला गया था वापिस!
और इसी तरह से दिन बीता, और शाम हुई, अब घर को चली रचिता! वही दिन का आखिर, वही सब, खाना और फिर, सो जाना! तो सो गई रचिता! न ख़्वाब की ही सोची और न उस झालर की याद ही आई, जो संग ले आई थी!
और इसी तरह से, सात दिन गुजर गए! न कोई ख़्वाब और न ही कुछ सोची भी उसके बारे में, वो झालर भी, अंदर, अलमारी में, जस की तस ही रखी रही!
और फिर आठवीं रात............
एक ख़्वाब शुरू हुआ.........
ये दिन के कोई ग्यारह बजे का ख़्वाब रहा होगा! लोग-बाग़ खड़े थे, एक कतार में, उनके हाथों में, थालियां, पूजा की सामग्री आदि थी! कुछ छोटी छोटी सी बच्चियां, सर पर लाल रंग की चुन्नियां बांधें, उन लोगों से कुछ मांग रही थीं! वो आगे बढ़ी, सहसा ही उसकी नज़र अपने आप पर पड़ी, गहरे नीले रंग का सूती सूट पहना था उसने! सभी उसको, देख लेते थे! बेहद सुंदर लग रही थी वो उसमे! उसके हाथ में, कुछ भी न था, वो उधर अपने मम्मी-पापा को ढूंढ रही थी, लेकिन कोई नहीं था वहां! वो थोड़ा और आगे बढ़ी, और उसे अपनी मम्मी दिखाई दीं! वो उधर के लिए ही दौड़ पड़ी! माँ ने, उसके हाथ में, एक थाली और प्रसाद का लिफाफा रखा था, थाली में एक दिया, दो मालाएं थीं! उसे तभी किसी ने आवाज़ दी, 'रचिता?' उसने पीछे देखा, और झट से आँखें खुल गईं!
दीवार पर, लटकी घड़े में, अभी साढ़े बारह हुए थे, उसने ज़्यादा ध्यान नहीं दिया, अक्सर ऐसे सपने तो आते ही रहते हैं, कहाँ याद रहा करते हैं ऐसे सपने दिन में! करवट ली, और फिर से आँखें बंद कर लीं! आधे घंटे के बाद...........
"रचिता?" एक आवाज़ आई,
उसने पीछे मुड़कर देखा, ये पिता जी थे, वो चल दी उनकी तरफ ही!
"कहाँ चली गई थी?" पिता जी ने पूछा,
"कहीं नहीं?" बोली वो,
"आधे घंटे से ढूंढ रहे हैं तुझे?" बोले वो,
"मै तो यहीं थी?" बोली वो,
"नहीं तो?" बोले वो,
"कमाल है!" बोले पिता जी,
"सच, मै तो यहीं थी!" बोली वो,
"बता कर जाना होता है बेटा!" बोले वो,
"हाँ" बोली वो,
अब पिताजी थोड़ा सख्त थे!
"आ, चल?" बोले वो,
चुपचाप, थाली पकड़े, चल दी उनके साथ वो!
"इधर लगा जा!" बोले वो,
और कतार में, मम्मी के आगे लगा दिया उन्होंने उसे!
आसपास देखा, तो शानदार जगह थी, सफेद रंग का फर्श और उसकी नज़र, एक जगह पड़ी, यहां एक मुख्य-द्वार सा था, लोग, यहीं से अंदर जा रहे थे, उस मुख्य-द्वार से, कुछ हटकर ही, एक छोटा सा मंदिर भी था! वे आगे गए और कुल पन्ध्र-बीस मिनट में, अंदर चले गए! ये मनसादेवी का मंदिर था, उनकी ही मूर्ति थी और उनकी ही पिंडी भी! नारे लग रहे थे देवी माँ के! उन्होंने दर्शन किये, दीया जलाया, प्रसाद चढ़ाया और वहाँ के अन्य देवी-देवताओं के भी दर्शन किये! फिर बाहर आये, जब बाहर आये, तो उस छोटे से मंदिर की तरफ चले, वो एक औघड़ बाबा का मंदिर था! धूनी, त्रिशूल और चिमटा रखा था वहां! इन्हीं बाबा ने इस मंदिर की नींव रखी थी, या रखी होगी! उन्होंने, सर नवाया और चल पड़े वापिस!
"कुछ खाना-पीना है?" पूछा उन्होंने,
"पानी पीना है पापा!" बोली वो,
"एक काम करो..." बोले वो,
"हाँ, उधर, उधर खड़े हो जाओ, मै लाया!" बोले वो,
और वे चल पड़े पानी लेने! वे दोनों, उस बड़े से पेड़ के नीचे जा खड़े हुए! पांच मिनट हुए, वे नहीं लौटे! दोनों की निगाह वहीँ लगे!
"देख कर आऊं मम्मी?" बोली रचिता,
''आ रहे होंगे" बोली माँ,
"पानी तो हर जगह मिल रहा है!" बोली वो,
"आ रहे होंगे!" बोली वो,
चुप हो गई वो! और एक, मैली-कुचैली सी बुढ़िया आ धमकी वहाँ! कृशकाय सी! मलिन सी! चीथड़े पहने! सीधे ही उनके पास!
"ये, ये तेरी लड़की है?" बोली बुढ़िया,
"हाँ अम्मा जी!" बोली माँ,
"ये यहां क्या कर रही है?" पूछा बुढ़िया ने,
"दर्शन करने आई है!" बोली माँ,
"किसे साथ लायी है?" पूछा उसने,
"किसे? इसके पापा हैं?" बोली माँ,
बुढ़िया हंस पड़ी! अपने बाल खुजाए, लेकिन नज़र न हटाए रचिता से! उसको देखे, ऊपर से नीचे तक!


   
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श्रीशः उपदंडक
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बुढ़िया तो नज़र ही न हटाए! उसको ही देखे! और रचिता, भय खाये उस से! वो बुढ़िया, कभी बाहर की तरफ देखे, कभी ज़मीन की तरफ! और कभी, उस रचिता की तरफ!
"तू क्या कर पाएगी!" बोली अब वो बुढ़िया, माँ से उसकी!
"आप जाओ अम्मा?' माँ बोली,
"कहाँ?'' पूछा बुढ़िया ने,
"जाओ, जहां मर्ज़ी" बोली माँ,
"और ये?" पूछा उसने,
"ये मेरी बेटी है!" बोली माँ,
"हाँ, तेरी बेटी!" बोली वो,
"जा अम्मा!" बोली माँ,
"सम्भाल ले तू!" बोली वो, और उस रचिता का हाथ पकड़ लिए अचानक ही! रचिता, बस गिरने को ही हो डर के मारे! मारी चीख! और हुआ कमाल! उस बुढ़िया को, जैसे किसी ने दिया धक्का! और बुढ़िया, कलाबाजी सी खा, पीछे जा गिरी! वहां खड़े सभी, चौंक पड़े! अब न उठा जाए बुढ़िया से! जैसे बेहोश ही हो गई हो! माँ ने हाथ पकड़ा रचिता का और ले भागी बाहर की तरफ उसे! जैसे ही सामने आये, तो रचिता के पिता जी, दो बोतल पानी ला रहे थे, दौड़ते हुए, वहीं जा लपकीं दोनों! साँसें चढ़ी हुईं! कुछ बोल न सके! और तभी, इस से पहले पिता जी कुछ पूछते, उसकी आँख खुल गई!
सांसें तेज! दम, उखड़ा हुआ! खड़ी हुई! आसपास देखा! बड़ी राहत हुई कि वो अपने घर में ही थी! न कोई बुढ़िया ही थी, और न ही कोई और, न मंदिर ही और न कोई भी! अकेली ही थी कमरे में अपने! उठी, दरवाज़ा खोला, रसोई की तरफ चली, पहुंची फ्रिज तक, खोला, पानी की बोतल बाहर निकाली, और पानी पिया! पानी पिया तो राहत की सांस ली! आँखें बंद कीं, मन को समझाया, बोतल वापिस रखी, और चली अपने कमरे की तरफ, अंदर पहुंची, बंद किया दरवाज़ा और फिर से लेट गई! घड़ी पर नज़र दौड़ी, तो सवा तीन बजे थे उस वक़्त! लेट गई! लेकिन आँखें बंद न हुईं!
कितना हक़ीक़त भरा सा ख़्वाब था ये! बिलकुल असली सा! उसे तो उस बुढ़िया की शक़्ल भी याद है! वो बड़ा सा, पेड़ भी, शीशम का सा! वहां सफेद से पाइप! चमकदार सा मंदिर, सफेद रंग का! जैसे, अभी तो हो कर आई हो वहां से! कितना डरावना सा ख़्वाब था! इसी पशोपेश में, आधा घंटा गुज़र गया, करवट ली, और सो गई! फिर कोई सपना नहीं! सुबह, उसकी बहन ने जगा दिया और चली गई व्यायाम करने! सब कुछ, रोज का सा ही रहा उस दिन, न ख़्वाब ही याद रहा और न ही कोशिश की! ख्वाब, ख़्वाब की तरह से, ख़्वाब हो गया!
चार दिन बीत गए!
और एक शाम, पिता जी आये अपने दफ्तर से! रोज का सा ही था सबकुछ! हाथ-मुंह धोए, कपड़े बदले, चाय की तैयारी की! और तभी अंदर आई थी रचिता भी! अपना सामान रखा, पापा से, हंस कर, नमस्ते हुई, पापा ने दिन भर की बातें पूछीं! रचिता भी वहीं साथ में, बैठ गई उनके, सोफे पर!
"वो अपने चोपड़ा साहब हैं न?" बोले पिता जी,
"कौन से?'' पूछा माँ ने,
"अरे वो जिनकी लड़की के ब्याह में गए थे?" बोले वो,
"हाँ!" बोली माँ,
"कह रहे थे कि वे लोग, अपनी बेटी को लेकर, मन्नत भरने, माँ मनसादेवी के पास जा रहे हैं!" बोले पिता जी,
"जय माता दी!" बोली माँ,
"कौन सी देवी पापा?" पूछा रचिता ने,
"बेटा, मनसादेवी माँ!" बोले वो,
"अच्छा" बोली वो,
कुछ याद सा आया उसे, मनसा, मनसा...........नाम सुना सुना सा लग रहा है.............कौन हैं.....कहाँ सुना है?.....
"इस इतवार चल रहे हैं!" बोले वो,
"अच्छा, अच्छी बात है!" बोली माँ,
"कह रहे थे, मन्नत मांग लो, उन्होंने मन्नत मांगी, माँ मनसा ने पूरी की, अब भरने जा रहे हैं!" बोले वो,
"अच्छा?'' बोली माँ,
"हाँ!" बोले वो,
"भागों वाले हैं!" बोली माँ,
"रचिता के लिए.सोच रहा हूँ,,,चला जाए?" बोले वो,
"इसमें सोचना क्या?" बोली माँ, आश्चर्य से!
"हाँ!" बोले पिता जी, समर्थन पा!
"कब जा रहे हैं?" पूछा माँ ने,
"इतवार" बोले वो,
"परसों?" पूछा माँ ने,
"हाँ!" कहा उन्होंने,
"कौन से मंदिर?" पूछा माँ ने,
रचिता, उठ खड़ी हुई, फोन बजा था उसका, शायद कोई कोचिंग-सेंटर के मामले में था, वो उठी, और अपने कमरे में चली गई!
"चंडीगढ़ के पास है वो मन्नत वाल मंदिर!" बोले पिता जी!
"तो दुरी थोड़े ही देखी जाती है?" बोली माँ,
"हाँ, तो इतवार का कह दूँ?" बोले वो,
"बिलकुल कह दो जी!" बोली माँ,
"और ये, रचिता?" पूछा पिता जी ने,
"ये क्यों मना करेगी? मई आज ही कपड़े आदि मंगवा लेती हूँ, बोल देती हूँ, आशू को, आज ही ले आएगी!" बोली माँ,
"हाँ, तो मैं कह देता हूँ!" बोले पिता जी!


   
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श्रीशः उपदंडक
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तो कार्यक्रम बन गया इतवार का! फ़ोन भी हो गया और वक़्त मुक़र्रर भी! इतवार सुबह, चोपड़ा साहब, आने वाले थे उनके घर और वे सब, संग ही चलने वाले थे फिर वहां से, पहले चंडीगढ़ और फिर उसके बाद, सीधा मनसा माँ के मंदिर!
तो इस तरह, वो दो दिन भी बीत गए! रचिता को बता दिया गया था कि नहा-धो कर, वो तैयार ही रहे! साथ में, रचिता की चचेरी बहन भी जा रही थी साथ, इस से रचिता का समय भी कट जाता!
तो इतवार की सुबह! करीब छह बजे, माँ ने, कपड़े दिए रचिता को! रचिता ने, वो बैग सम्भाला और चली अपने कमरे की तरफ! जैसे ही वो कपड़ा बाहर निकाला, उसकी आँखें चुंधिया सी गईं जैसे! ये गहरे नीले रंग का सूट था, चुस्त सी पाजामी और नीला सूट! उसने कहाँ देखा था ये सूट? सोचने लगी, कब देखा था? और फिर, यकायक, वो ख़्वाब याद आया! अरे हाँ! माँ मनसा का मंदिर! ये ही सूट! चीज़ें जैसे तेजी सी घूमने लगीं आँखों के सामने से! घूमीं तो रुकी उसी बुढ़िया पर! सूट पर, पकड़ मज़बूत सी हो उठी! अब तो दिल ही, सोच ही, दो-फाड़ होने लगी! फिर, विज्ञान जीता! ऐसा होता है क्या? ये इत्तफ़ाक़ भी तो हो सकता है! नहीं नहीं! ऐसा थोड़े ही होता है! ख़्वाब, हक़ीक़त थोड़े ही बन जाता है!
"रचिता?" आई माँ की आवाज़,
"हाँ मम्मी?" बोली वो,
"तैयार हुई या नहीं?" पूछा माँ ने,
"हाँ बस, एक मिनट!" बोली रचिता, और जल्दी जल्दी ही, सारे कपड़े भी पहन लिए! ठीक किये, साज-श्रृंगार किया और फिर, परफ्यूम वगैरह भी लगा लिया! बेहद ही सुंदर लग रही थी रचिता!
अरे हाँ! रुमाल! रुमाल ज़रूरी है! खोली अलमारी और जैसे ही खोली, वो कागज़, जिसमे वो झालर रखी थी, ठीक सामने आ गई! सितारे, चमक उठे! जैसे, बेहद खुश हुए हों वो रचिता को देखकर! रचिता भी मुस्कुरा पड़ी! रखी वो झालर, एक तरफ और उठा लिया रुमाल! सफेद रंग का रुमाल, जिस पर, पीले रंग के फूल कढ़े  थे!
"क्या हुआ?" आई आवाज़ माँ की!
"हाँ मम्मी? आ रही हूँ ना?" बोली वो,
"टाइम देखा है?'' बोली माँ, बाहर से ही,
"हाँ, बस!" बोली वो,
उठाया रुमाल, लिया बैग, रखा फोन उसमे, और निकल पड़ी बाहर! माँ की सारी झुंझलाहट, अपनी बेटी को, उस सुंदर से सूट में, सुंदर सी बनी देख, फुर्र हो गई!
"आ?" बोली माँ,
"हाँ, चलो" बोली वो,
आ गए बारामदे में, पिता जी फोन पर बात कर रहे थे, चोपड़ा साहब से, बात हुई तो फोन रखा जेब में!
"गाड़ी निकालता हूँ, आने ही वाले हैं!" बोले वो,
"हाँ!" बोली माँ,
"नैंसी कहाँ रह गई?" पूछा रचिता ने,
"उसे घर से ही लेना है!" बोली माँ,
''अच्छा!" कहा रचिता ने,
गाड़ी निकाली गई, स्टार्ट की गई, और वे बैठ गए, पीछे से हॉर्न बजा, चोपड़ा साहब भी आ लिए थे, बार हुई पिता जी से उनकी, औरतें आपस में मिलीं! तब एक और बात! वो ख़्वाब वाली नव-विवाहिता! वो ठीक, ऐसी ही तो दिखती थी? खैर, ध्यान न दिया ज़्यादा! गाड़ी में बैठे वे सभी, नैंसी को ले लिया गया और गाड़ी, दौड़ पड़ी चंडीगढ़ के लिए! बीच रास्ते में, एक बार भोजन किया उन्होंने, तब तक, आपस में सब घुल-मिल ही गए थे! भोजन किया, और कुछ आराम, चाय-कॉफ़ी पी, और फिर से चल पड़े!
और गाड़ियां अब जाकर रुकीं उसी मंदिर के सामने ही! पार्किंग की गई! सभी ने हाथ जोड़े अपने!
"ये हैं माता मनसा!" बोलीं श्रीमति चोपड़ा!
"जी!" बोली माँ,
"बहुत मान्यता है इनकी!" बोलीं वो,
"हाँ जी" बोली माँ,
"जब हार गए, थक गए, तब इनसे गुहार लगाई! मन्नत मांगी और रिश्ता आया! शादी हो गई! अब मन्नत भरने आये हैं!" बोलीं वो,
"हाँ, इन्होने बताया!" बोली माँ,
"चिंता न करो आप!" बोलीं वो,
"जी" कहा माँ ने,
"ये बेटी भी, चली जायेगी अपने घर, जल्दी ही अब!" बोली वो,
"हो जाए तो माँ के चरणों में शीश नवा दें हम!" बोली माँ,
"समझती हूँ जी!" बोली वो,
आसपास देखा, रचिता वहीँ खड़ी थी, गाड़ी में, अपना सामान रख रहे थे सभी!
"मम्मी?" बोली रचिता,
"हाँ?" बोली माँ,
"ये चप्पलें यहीं उतार दें?" पूछा उसने,
"हाँ, अच्छा रहेगा!" बोली माँ,
"ठीक!" कहा रचिता ने,
"आओ बहन जी!" बोली माँ,
"आप रखो, मैं उधर रखती हूँ" बोलीं वो, अपनी ही गाड़ी की तरफ इशारा करते हुए!
"हाँ, रखिये आप!" बोली माँ,
और चल पड़ीं, रचिता के पास! पहुंचीं,
"मम्मी?" बोली रचिता,
"हाँ?" कहा माँ ने,
"ये बैग भी?" पूछा उसने,
"हाँ, अच्छा ही है!" बोली माँ,
"फिर फोन?" पूछा उसने,
"यहीं रख दे!" बोली माँ,
"न ले जाऊं साथ?" पूछा उसने,
"नहीं, क्या ज़रूरत?" बोली माँ,
अनमने मन से, फोन भी रख दिया उसने!


   
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श्रीशः उपदंडक
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सामान वगैरह, सब रख दिया गाड़ी में! अंदर भी रखना ही था, टोकन लिया जाता, कतार में लगना पड़ता, बढ़िया हुआ था कि सामान रख दिया गया था! आज मंदिर में काफी भीड़ थी यहां, दूर दूर से लोग आये थे, ये जान पड़ता था! माँ मनसा मन की मुराद पूरी किया करती हैं, ये जग ज़ाहिर ही है! परन्तु, असलियत में माँ मनसा कौन हैं, ये किसी को नहीं पता होगा होगा तो थोड़ों को ही! बस इतना ही बताऊंगा कि इनका संबंध नागराज वासुकि से है और ये रूप में, एक नाग-देवी हैं! राजगीर, राजगृह, प्राचीन राजधानी, मगध की, बिहार में, एक मठ है, मनियार मठ, ये इन्हीं से संबंधित है! कहा जाता है यहां पर, आज भी मनसा देवी का वास है! बिहार, तपोभूमि, योगभूमि एवं सिद्धभूमि रही है, सदैव ही!
"सुन रचिता, ए नैंसी?" बोली माँ,
"हाँ?" बोली रचिता,
"तुम लोग, यहीं रहो, मैं प्रसाद की थाली लाती हूँ!" बोली माँ,
"हम भी चलें?" पूछा नैंसी ने,
"क्या करोगी?" पूछा माँ ने,
"सामान ज़्यादा हुआ तो?" पूछा नैंसी ने,
"अ....चल, ठीक, आ जाओ दोनों!" बोलीं वो,
"सुनो?" बोले पिता जी, गाड़ी की चाबी जेब में रखते हुए बोले,
"हाँ पापा?" बोली रचिता,
"कहाँ?" पूछा उन्होंने,
"वो, उधर, प्रसाद!" बोली नैंसी,
"अच्छा अच्छा! जाओ, यहीं खड़ा हूँ!" बोले वो,
"आते हैं!" माँ बोलीं,
वे चली गईं और पिता जी, वहीं खड़े रहे, देखते रहे उन्हें! कोई दस मिनट के बाद, वे लौटे सभी वापिस! हाँ, रचिता, बार बार वो थाली ही देखे! ठीक, वैसा ही दिया! वैसी ही धूप, वैसी ही लाल सी चुनरी! और वैसी ही दो, मालाएं फूलों की!
"आओ!" बोले वो,
"हाँ!" बोलीं माँ,
"चोपड़ा जी?" आवाज़ दी पिता जी ने,
"हाँ जी?" बोले वो,
"आते हैं हम!" बोले वो,
"हाँ, ठीक, ज़रा हम भी निबट लें!" बोले चोपड़ा जी! मन्नत के लिए कुछ दान-दक्षिण भेंट चढ़ानी थी, इसीलिए, वे अलग ही रुके थे, और ये, आगे चल दिए!
"आओ" बोले पिता जी,
रचिता का एक हाथ पकड़, चलते रहे आगे, संग माँ और नैंसी भी चल रही थीं! वे सभी उतरे नीचे, कुछ सीढ़ियां उतर! रचिता ठिठक सी गई! सामने का नज़ारा, ठीक वैसा ही था, जैसा, उसने उस ख़्वाब में देखा था! वो, धीमे से पांवों से, आगे चलती रही, कतार लगी थी! अचानक ही, दो कन्याओं पर नज़र पड़ी उसकी! सर पर चुनरी बांधे, कुछ मांगते हुए, कतार में लगे लोगों से! उसे लगा, वो दुबारा से इसी समय को जीने लगी है! जैसे, अभी तो देखा था उसने, अभी ही तो आई थी वो!
"यहां आ जाओ!" बोले पिता जी,
और वे, एक एक करके, कतार में लग गए!
अचानक ही, नज़र पड़ी रचिता की मुख्य मंदिर पर! और उसने बाएं देखा तभी! एक छोटा सा मंदिर! ठीक वैसा ही, जैसा उसने देखा था ख़्वाब में! चेहरे पर कई रंग आये, और गए! ऐसा भला कैसे हो सकता है? कैसे ख़्वाब की चीज़ें, असलियत में सामने हो सकती हैं? दिमाग़ घूम गया उसका! और तभी, तभी वो नव-विवाहिता लड़की, आ खड़ी हुई उधर, अपने माँ-बाप के साथ! ये भी ठीक वैसी ही? ऐसा कैसे? इत्तिफ़ाक़ होते हैं, लेकिन ऐसे? एक के बाद एक? क्यों लगता है, कि वो अपना ख़्वाब ही जी रही है?
"चलो, आगे बढ़ते जाओ!" बोली पिता जी,
और वे सभी, आगे बढ़े!
"रचिता?" बोली माँ,
"ह...हाँ मम्मी?'' बोली वो,
"आगे आ तू" बोली माँ,
रचिता, आगे लग गई माँ से! और पिता जी, सभी से पीछे!
"चलते रहो!" बोले पिता जी,
"हाँ" बोली माँ,
"अब ज़्यादा नहीं!" बोले वो,
"हाँ, बस कुछ ही और हैं!" कहा माँ ने,
"नैंसी?" बोले पिता जी,
"जी?" कहा उसने,
"बेटा, तुम रचिता के पीछे हो जाओ!" बोले वो,
"जी" कहा नैंसी ने, और आगे बढ़, रचिता के साथ लग गई, दोनों ही बतियाने भी लगीं! लेकिन रचिता! उसकी नज़रें, ढूंढें किसी को! किसी को यानि, उसी बुढ़िया को! अब तक तो कोई नहीं था, उस जैसा, उस जैसी औरत, बूढ़ी औरत, जो देखी थी उसने सपने में!
"रचिता?" बोले पिता जी,
"हाँ?" बोली वो,
"क्या कर रही हो बेटी? आगे बढ़ो ना?" बोले पिता जी,
"हाँ, सॉरी!" बोली वो,
और आगे चलने लगे सभी! अंदर जाने से पहले, पाइप लगे थे, एक बार में एक ही जा सकता था, घुमावदार से पाइप थे, अंदर, भीड़ न रहे, इसीलिए ऐसा इंतज़ाम किया गया था!
"चलो?" बोली माँ,
और वे, आगे बढ़ीं! बाईं तरफ, जैसे ही निगाह गई, वही छोटा सा मंदिर था, कुछ लोग अंदर जाते थे, कुछ बाहर आते थे! वहीं देखे जा रही थी वो!
 

   
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श्रीशः उपदंडक
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इस तरह से, उनका भी दर्शन करने का सौभाग्य आया! और वे, अंदर, दरबार में चले! सब वैसा ही वैसा! चक्कर सा आने लगा था उसे तो! मनसा देवी के सामने आये! ठीक वैसी हीं! सबकुछ ठीक वैसा ही! उसने हाथ जोड़े, थाली माँ को दी, माँ ने सभी विधि पूर्ण की! और रचिता के सर पर हाथ रख, मन्नत मांग ली! कांपे सी जा रही थी रचिता उस समय और घबराते हुए, वो बाहर जाने को, मचल सी उठी और वे सब बाहर निकले! जब बाहर आये, तो...
"वो भी हे एक मंदिर!" बोली पिता जी,
"हाँ, आओ" बोली माँ,
और रचिता का हाथ पकड़, माँ ले चली उस मंदिर की ओर उसे! पहुंचे! रचिता की निगाह जैसे ही पड़ी उधर, पाँव काँप गए! धूनी, चिमटा और त्रिशूल! ये किसी बाबा का स्थान रहा होगा, जिन्होंने इस स्थान को रखा होगा!
"रचिता?" बोले पिता जी,
"ह..हाँ?" बोली वो,
"बेटा, सर झुकाओ?" बोले वो,
रचिता ने, श्रद्धा से सर झुकाया!
''आओ, सभी!" बोले पिता जी,
"हाँ, चलो!" बोली माँ,
एक जगह ले आये वे सभी को! ये तो वही पीपल के पेड़ था जो उसने उस ख़्वाब में देखा था, गहरी नज़रों से, उसने पेड़ की एक एक शाख को देखा! और फिर, एक झटके से ही, आसपास देखा! कोई बुढ़िया नहीं थी वहाँ! अभी तक, फिलहाल!
"कुछ खाना-पीना है?" पूछा पिता जी ने!
अपने पिता जी का तो मुंह ताकते रह गई रचिता! यही! यही शब्द तो बोले थे उस ख़्वाब में उन्होंने? सभी ने मना किया था और जब रचिता से पूछा, तो पानी मंगवाया था रचिता ने! सब जैसे, आँखों के सामने घूम गया!
"हाँ? बोलो?" पूछा उन्होंने,
"नहीं, कुछ नहीं!" बोली माँ,
"नैंसी?" बोले पिता जी,
"नहीं" बोली सर हिलाते हुए!
और रचिता! आधी ख़्वाब में, और आधी हक़ीक़त में, उलझी हुई सी! एक पाँव, सोच की चौखट से बाहर और एक पाँव, चौखट के अंदर!
''हाँ रचिता?" पूछा पिता जी ने,
" आ...पानी" बोल गई वो!
"पानी तो सभी पी लेंगे! अभी लाया!" इतना कहा, और वे चले गए, पानी लेने! 
बस! यही तो वक़्त था! रचिता ने आसपास देखा, ना! कोई बुढ़िया नहीं! कोई नहीं था, पास क्या, आसपास भी नहीं! ज़मीन पर गिरे, उड़ते पत्तों पर निगाह गई! उसने, पत्तों को, हटा दिया पाँव से! पाँव के नीचे न आएं, इसलिए! कुछ पल बीते! हवा चली, और कुछ पत्ते उड़ चले! वो तो क़तई नहीं जो उसने पाँव से इकट्ठे किये थे! वे तो जैसे चिपके ही रह गए थे ज़मीन से!
"मम्मी?" बोली रचिता,
"हाँ?" पूछा माँ ने,
"पापा कहाँ रह गए?" पूछा उसने,
''आते ही होंगे!" बोलीं वो,
"इतनी देर?" पूछा उसने,
"यहां नहीं मिला होगा?' बोलीं वो,
"मैं लाऊँ देख कर?" पूछा उसने,
"नहीं, आते ही होंगे!" बोलीं माँ,
रचिता ने कुछ न कहा, माँ तो जाने वैसे भी नहीं देतीं, रचिता, चाहती थी कि जल्दी से जल्दी, वे सब, निकल लें वहां से! पता नहीं, आगे क्या हो? और तब!
यकायक, न जाने कहाँ से, हाज़िर हो गई थी वो बुढ़िया! कुछ देर पहले तक, वो तो क्या, उस जैसी भी कोई नहीं थी वहां!
"ये, ये तेरी बेटी है?" आई आवाज़!
वही! मैली-कुचैली सी बुढ़िया! बाल, मैले-कुचैले! रूखे! कंबल सा ओढ़ रखा था उस बुढ़िया ने! सर खुजाती थी बार बार अपना! कभी सर, कभी गला! कभी कोहनी तो कभी टांगें अपनी!
"ये?" बोली वो बुढ़िया!
उस बुढ़िया को देखा! उस बुढ़िया को देख, माँ से जा चिपकी रचिता! डर गई बुरी तरह से! एक अलफ़ाज़ न निकले मुंह से! आँखें ख़ौफ़ से, फट पड़ीं! रंग सफेद पड़ने लगा! गला ख़ुश्क हो उठा!
"ये तेरी बेटी है?" बोली माँ से, वो बुढ़िया!
"हाँ अम्मा!" बोली माँ,
"हम्म्म!" बोली बुढ़िया!
"ये यहां क्या कर रही है?" पूछा बुढ़िया ने! देखते हुए, रचिता को!
"दर्शन करने आई है!" बोली माँ,
"किसे साथ लायी है?'' पूछा बुढ़िया ने!
"किसे?" पूछा माँ ने,
"हाँ?" बोली बुढ़िया, उस रचिता को घूरते हुए!
"इसके पापा हैं साथ?" बोलीं माँ,
"पापा!" कह कर, हंस पड़ी! बहुत तेज! अब तक समझ गए कि ये बुढ़िया, दिमाग़ से कमज़ोर है! वही, जिन्हें आम लोग आमतौर पर, पागल कह देते हैं!
"सम्भाल इसे!" बोली बुढ़िया!
माँ अवाक! रचिता, देखे नहीं उसे! नैंसी डरे! रचिता को पकड़े!
"ओ?" बोली बुढ़िया और पकड़ लिया हाथ रचिता का! चीखे रचिता! ज़द्दोज़हद करें छूटने की! माँ भी बीच में कूद पड़ी! लेकिन बुढ़िया के पकड़ ऐसी, कि जैसे, सभी को उठा फेंकेगी!
और तभी!
तभी वो बुढ़िया, ऐसे घिसटी उस ज़मीन पर, कि चीख भी न निकली! खाईं कलाबाजियां हवा में! और धड़ाम! इतना देख, सभी पलटे उसकी तरफ! और माँ, माँ ले भागीं उन लड़कियों को वहां से! न देखा कि बुढ़िया मरी या बची!


   
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श्रीशः उपदंडक
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रचिता की हालत, खराब सी हो गई थी!  बताए, तो कैसे बताए किसी को? न बताए तो छिपाए कैसे? थोड़ा आगे गए तो पिता जी दिखे! बोतल लिए हुए पानी की, दो दो! फौरन ही दौड़ पड़े सब उनकी तरफ!
"क्या बात हुई?" पिता जी भांप गए, कुछ कुछ माज़रा!
अब माँ ने सब बातें बतायीं उन्हने, उन्हें भी विश्वास न हुआ! ऐसा कैसे हुआ? हुआ भी, मान लो वो पागल थी, तो इतनी दूर तक, घिसट कैसे गई? कहर, रचिता को तो जैसे काटो तो खून नहीं! फौरन ही पानी पिलाया गया उसे, और साथ ले जाते हुए, गाड़ी में बिठा दिया! चोपड़ा साहब को देखने निकले वे, जब पहुंचे, तो चोपड़ा साहब भी फारिग हो, आ ही रहे थे उधर! उन्हें भी बताया गे, वे भी हैरान!
"चलें?" बोले पिता जी,
"हाँ, चलो" बोले चोपड़ा साहब,
पिता जी ने गाड़ी आगे की, और चल दिए! तभी सामने, वही बुढ़िया, आ धमकी! ब्रेक लगाया ज़ोर से! बुढ़िया दौड़ कर लपकी रचिता की तरफ! रचिता इस बार देख उसे, बेहोशी की कगार पर पहुंचे! और इस से पहले कि वो बुढ़िया पहुंचे उधर, फिर से वो हवा में उछली और इस बार, दूर जा गिरी! माँ चीखी, नैंसी चीखी लेकिन रचिता! मारे भय के बस, प्राण छोड़ने को ही आमादा हो!
"चला लो, चला लो?" अब चीखी रचिता!
और पिता जी ने, दौड़ा दी गाड़ी! तेजी से! मंदिर पीछे छूटता चला गया और वे, आगे निकट चले गए! कुछ ही देर में, गाड़ी, मुख्य-मार्ग पर आ लगी, चोपड़ा साहब भी भगा ही रहे थे गाड़ी!
तो इस तरह, हक्क-बक्क में, वे शाम को, घर आ लगे! जब घर आये तो तेज बुखार रचिता को! आँखें खुलें नहीं! तो डॉक्टर को बुलाया गया, डॉक्टर आये, जांच की, बुखार बताया और कुछ थकावट भी, कुछ अंदेशा, शॉक का भी जता दिया था, इसके लिए कल क्लिनिक बुलाया था रचिता को! रात को, हल्का-फुल्का खा, दवा ले, सो गई थी रचिता! गहरी नींद! और उसी नींद में, एक दूसरा ही ख़्वाब दाख़िल हुआ!
उसने अपने आपको, एक बेहद ही खूबसूरत सी जगह पाया! पीले रंग के फूलों से सजी एक जगह! ठीक सामने, फूस की बनी एक झोंपड़ी थी! बस, एक ही! वो चल दी उस तरफ! अचानक ही, अपने कपड़ों की तरफ नज़र गई! कपड़े, लाल रंग के, छाजन वाले, चमकदार से! हाथों में, कोहनी तक, हीरे लगे हुए से गहने! कोई हूर ही लगे उस वक़्त तो वो!
खैर, वो झोंपड़ी तक गई! झोंपड़ी की चौखट, बेहद ही बड़ी! करीब बीस फ़ीट की! सोने के तारों से बनी थी पूरी चौखट! दरवाज़ा, कोई न था! अंदर, चली, अंदर, एक अजब सा उजाला बिखरा था, जैसे कोहरे के गोले, इकट्ठे हो गए हों! जैसे, बादलों ने, उस झोंपड़े में आ, पनाह ली हो!
"मेरी बेटी!" आई एक आवाज़!
उसने पलट के देखा! एक वृद्ध औरत थी वो! लम्बी सी, गोरी सी, हालांकि, चेहरे पर कोई शिकन वगैरह तो न थीं, लेकिन बाल, दूध से सफेद! आँखों में अपनापन! अपनी बाजुएं, फैलाए हुए! जैसे, अभी छाती से लगा लेगी वो उसे! एक अजब सी कशिश थी उस औरत की निगाहों में! जैसे माँ ही हो उसकी!
"आओ बेटी!" बोली वो,
वो चली आगे! और रुकी, आसपास देखा! फिर उस औरत को!
"आप कौन हैं?" पूछा रचिता ने!
"मैं, मुझे तुम अपनी माँ ही मान सकती हो बेटी!" बोली वो,
"ये कौन सी जगह है?" पूछा उसने,
"ये, तुम्हारी ही जगह है!" बोली वो,
कुछ खांसी सी उठी उसे!
"बेटी?" बोली वो औरत! और पीठ पर हाथ फेरा!
"रुको!" बोली वो औरत,
और अपनी कमर में से, खोंसी हुई, एक शीशी निकाल ली! वो शीशी, कोई, चार इंच बड़ी, दो इंच चौड़ी और नीचे उसमे, सोने का पायदान सा लगा था! अंदर उसके, जैसे धुआं सा क़ैद था! ये धुआं, अंदर ही अंदर, कभी उठता, कभी बैठ जाता!
"ये क्या है?' पूछा उसने,
"दवा!" बोली वो,
"किसलिए?" पूछा उसने,
"तबीयत खराब है न मेरी बेटी की?" बोली वो,
"हाँ, बुखार है!" बोली वो,
''आओ इधर बेटी!" बोली वो औरत!
वो आगे चली!
उस औरत ने, वो शीशी खोली! धुंआ बाहर को चला! और चला सीधे, नथुनों की तरफ, रचिता की! रचिता ने सूंघा! ढक्कन, कस दिया वापिस, रख ली खोंस कर अपने कमर में उस औरत ने! और रचिता! उस महक में खो सी गई! इस पूरी क़ायनात में ऐसी महक, ख़ुश्बू, कभी न सूंघी थी उसने! आँखें खोलीं, तो वो औरत गायब! हर जगह ढूंढे रचिता उसे! कहीं नहीं! रह गई तो बस वो ख़ुश्बू!
बेदम सी रचिता, तरोताज़ा हो उठी! बदन में जान भर उठी! जी करे, भर भर, कुलांचें मारे! निकली बाहर झोंपड़ी से! सामने देखा, बादल ज़मीन पर उतर आये थे! उन बादलों में, रंग सी भरे थे! लाल, नीले, पीले से!
वो जैसे ही बैठी, आँखें बंद हो गईं! और जब खुली, तो ये एक अलग ही जगह थी! वो एक सड़क पर थी! एक पेड़ के नीचे खड़ी हुई! आसपास, भीड़-भाड़! आसपास, दुकानें! यातायात! भागते, दौड़ते से लोग! सामने एक जगह, कुछ लिखा था, यहां दो ज़ुबानें लिखी थीं, एक अंग्रेजी और एक अजब सी ही ज़ुबान! और एक जगह, हिंदी भी लिखी थी! उस पर लिखा था किसी सड़क का नाम! उसके लिए सब अंजान ही था!
अचानक से ही, जैसे दो वाहन आपस में टकराए! लोग भाग चले उधर, हड़कम्प सा मच गया, वो भी चली उस तरफ! ये सड़क-हादसा था! उसने, एक जगह, देखा, कुछ लोग, उन दोनों ही वाहनों में से, कुछ लोगों को खींच कर निकाल रहे थे! वो चुपचाप देखती रही!
"ओह्ह!"
"है भगवान!"
"कोई बचा या नहीं?" 
"तेज थे दोनों ही?"
"शायद ही बचा हो कोई??"
"बुरी तरह से टक्कर हुई है"
ऐसी आवाज़ें हर तरफ से आएं उसे! जहां भी सुने, ऐसी ही आवाज़ें! लोग अभी भी भीड़ लगाए खड़े थे, पुलिस और एम्बुलेंस आ चुकी थीं! घायलों को, सभी ज़रूरी इमदाद दी जा रही थीं! एक एक करके उठाया जा रहा था उन्हें!
और अचानक ही!
एक झटके के साथ, वो उठ बैठी! चेहरे पर, पसीना ही पसीना! दिल बाहर को आये मुंह से! देह, कांपे ही जाए!
आखिर, क्या देखा था रचिता ने? क्या?


   
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श्रीशः उपदंडक
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उसने देखा अपने पिता जी को! आँखें बंद और मुट्ठियां भींचे हुए! खून से लथपथ! वो चीख पड़ी! ऐसी तेज चीखी, कि घर के सभी लोग भी जाग गए! लप्पधप्प में दरवाज़ा खोला गया! पसीने से तरबतर थी रचिता! बिस्तर पर, आँखें बंद किये, लेकिन आंसू बहाते हुए! पापा-पापा चिल्लाते हुए! दौड़ते हुए आये थे पिता जी, पास बैठे! समझ गए थे कि कोई डरावना सपना ही देखा है रचिता ने! समझ गए थे कि क्या करना है! माँ और पिता जी, बराबर से ही, पुचकारे उसे! पिता जी, माथे पर हाथ फेरें! आंसू पोंछें! अपने पापा से लिपट गई थी रचिता! और पिता जी, उसको कसे, समझाए, जा रहे थे!
"कोई सपना देखा बच्चे?" पूछा पिता जी ने!
कुछ न बोली वो, पापा से लिपटी ही रही!
"बेटा? बताओ?" बोले वो,
रोये ही जाये रचिता! माँ बहुत समझाए! पिता जी समझाएं! लेकिन नहीं माने, आंसू और आंसू!
"क्या देखा था?" माँ ने पूछा,
"पापा?" बोली रोते रोते वो!
"हाँ बेटे?" बोले वो,
"नहीं जाना" बोली वो,
"जाना?" पूछा पापा ने,
"हाँ, नहीं जाना" बोली वो,
"कहाँ बेटे?" पूछा उन्होंने,
"पता नहीं" बोली वो,
"बताओ तो?" पूछा उन्होंने,
"नहीं जाना कहीं दूर" बोली रचिता!
"ओ! अच्छा!" बोले वो,
"नहीं जाना पापा!" बोली वो,
"नहीं जाऊँगा!" बोले वो,
"दूर नहीं जाना!" बोली वो,
"अच्छा, नहीं जाऊँगा, चल, कह दिया!" बोले वो,
अब चुप सी हुई, लेकिन सिसकियाँ, अभी भी उभरें!
"पानी पिलाओ इसे?" बोले वो,
"हाँ" माँ ने कहा,
माँ ने पानी निकाला बोतल से, गिलास में डाला और दे दिया! दो घूंट पानी पिया उसने! अनमने से मन से!
"और पी ले?" बोली माँ,
सर हिलाकर, न कही उसने!
"अंदर सोना हो, तो आ जा?" बोली माँ,
"नहीं" बोली रचिता!
"चल बेटा, सपना था, असलियत नहीं, समझीं!" बोले पिता जी,
हाँ, सपना ही तो था, और भला सपने, असलियत में थोड़े ही जीए जाते हैं!
''चलो, आराम से सोना अब! ठीक?" बोले पिता जी,
"हाँ" बोली गर्दन हिलाकर रचिता!
चार बजने में कुछ ही वक़्त बाकी था, कुछ ही देर में, पौ फटने ही वाली थी! जो वक़्त बजा था, उसी में, थोड़ी देह को आराम मिल जाता तो कौन सी बुरी बात थी! तो माँ-पिता जी, चले गए थे, और चुपचाप सी, लेट गई थी रचिता!
आँखें लगीं और फिर से, जैसे कोहरा सा छाया! उसी कोहरे को, जैसे चीरा उसकी नज़रों ने! वो फिर से उसी जगह पहुँच गई थी! सामने, दो वाहन आपस में टकराए थे, चालक, एक वाहन का, आधा, कमर से, बाहर आ पड़ा था! वाहन, कुचल से गए थे, दरअसल, एक तरफ से और एक वाहन से टक्कर हुई थी! लोगबाग खड़े थे, एम्बुलेंस की बत्तियां, रह-रहकर, चमक रही थीं! एम्बुलेंस के कर्मचारी, तेजी से इधर-उधर, दौड़े जा रहे थे!
"अच्छा हुआ!"
"ये तो कमाल हुआ!
"चमत्कार से कम नहीं!"
"बड़े भाग्य हैं!"
"जैसे मौत ने छोड़ दिया हो!" 
ऐसी आवाज़ें गूँज उठीं! लोग, एक आदमी को, छू रहे थे! वो आगे बढ़ी! चेहरा देखा, ये तो उसके पापा थे!
सब ठीक था! और जैसे ख़्वाब शुरू हुआ था, यहीं पर उसका अंत भी हो गया था! बाहर का दरवाज़ा बंद था, घड़ी ने पांच बजाए! खुश थी अब तो! पिता जी अब सकुशल थे! जागी भले ही थी, लेकिन अभी भी ख़्वाब में ही पाँव थे उसके!
व्यायाम किया, स्नान से निबटी और चली सीधे कोचिंग-सेंटर! वहां, रोज़मर्रा के से काम! हुई दोपहर! और वो, दोपहर का खाना खाने, ऊपर की मंज़िल पर बने, केबिन में चली आई! अंजू भी चली आई! कुछ बातें हुईं उनके बीच, और अचानक ही!
सामने एक गुलदस्ता था! पीले रंग के फूल थे उसमे! उसे याद आया कुछ, उसे तो कल बुखार था? आज डॉक्टर के पास भी जाना था? लेकिन? न तो पापा को ही याद रही, न मम्मी जी को ही? और न उसे ही? और वो, वो तो एकदम ठीक थी अब! न बुखार, न खांसी-खुर्रा वगैरह!
"ये फूल कौन लाया?" पूछ उसने,
"रजनी!" बोली अंजू,
"बड़े ही प्यारे हैं!" बोली वो,
"हाँ!" कहा उसने,
"रजनी फूल अच्छे लाती है!" कहा रचिता ने,
"हाँ!" बोली वो,
"और सुना, घर में सब?" पूछा रचिता ने,
"सब ठीक!" बोली वो,
"अच्छा!" कहा उसने,
"तू सुना, कोई खबर?" पूछा अंजू ने,
"कैसी खबर?" पूछा उसने,
"कोई रिश्ता?" बोली वो,
"तुझे बड़ी चिंता है!" बोली रचिता!
"नहीं होगी क्या?'' बोली वो,
"होगी!" कहा रचिता ने,
"तो है न!" बोली वो, और हंस पड़ी!


   
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श्रीशः उपदंडक
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और इस तरह, वक़्त आगे बीतने लगा! अब वक़्त कहाँ रोके रुकता है! वक़्त तो बेलग़ाम घोडा है! जो थामे न थमे और रोके न रुके! उसके खुरों के नीचे, क्या हंसीं फूल और क्या कंकड़-पत्थर, क्या बिसात, सब रौंदे जाते हैं! यादें, दर्द, क्या सरोकार उसे! वो तो, बस कुलांचे भरता हुआ, नथुने फुलाता हु, इधर से उधर, और उधर से किधर! किसे, क्या ख़बर! तो बीस रोज बीत गए थे, फ़र्क़ इतना पड़ा कि जहां पहले, रचिता के पास, उसके पापा का दिन में एक-दो बार ही फ़ोन आता था, अब रचिता के, उनके पास चार या पांच पहुँच जाते थे! ये तो क़ुदरत है! बेटा माँ का और बेटी, बाप की! बाप वैसे आंसू बहाए न बहाए, लेकिन अपनी फूल सी गुड़िया के लिए, क्या से क्या नहीं कर दे! बेटी तो बाप के लिए, किसी अनमोल दौलत से कम नहीं! बेटी की एक खरोंच भी, बाप के सीने में छुरी बन उतर जाए! और आंसू, ज़िद! पूछो ही मत! उठक-बैठक ही करवा दे! तो ऐसे ही, ये रचित और उसके पापा!
हाँ, तो वक़्त, परवाज़ थाम, चल पड़ा! हाँ, वो ख़्वाब, चलिए, वक़्त के साथ ने, भले ही उस फ़िक़्र पर, परचम-ए-नुसरत फहरा दी हो, लेकिन दर-किनार नहीं किया था! गाहे-बगाहे, अपने पापा से, पूछ ही लिया करती कि कहीं बाहर जाने का कोई मिजान तो नहीं!
एक शाम की बात है, पिता जी ज़रा देर से पहुंचे घर, फ़िक़्रमंद सभी! रचिता कुछ ज़्यादा ही रही! कई मर्तबा फ़ोन कर डाले! आ रहा हूँ-आ रहा हूँ सुन सुन, रचिता तो जैसे पागल हो! जब पापा ने कही कि कहीं जा नहीं रहे हैं, तब जाकर, जान में जान आई! और जब घर पहुंचे!
"आज इतनी देर क्यों पापा?" पूछा रचिता ने,
"आज दफ्तर में, आये हैं कोई!" बोले वो,
"कौन लोग?" पूछा उसने,
"ऑडिट करने वाले!" बोले वो,
"तो देर क्यों?" पूछा उन्होंने,
"बेटा, अब वक़्त तो लगता ही है!" बोले वो,
"किसमें?" पूछा उसने,
"ओहो! बेटा, ठहराने में, खाना वगैरह!" बोले वो,
"सब आपकी ही ज़िम्मेदारी?" बोली वो,
"अब था ही मैं वहां!" बोले वो,
"दूसरा कोई क्यों नहीं?" पूछा उसने,
"छुट्टी पर गए हैं!" बोले वो,
"खाना?" पूछा उसने,
"नहीं!" बोले वो,
"नहीं, पापा?'' बोली गुस्से से, प्यार भरे गुस्से से!
"मेरा मतलब, खाना कहकर नहीं आया, यहीं खाऊंगा!" बोले वो,
"हम्म! लगाऊं?'' पूछा उसने,
"अभी नहीं" बोले वो,
"तो?" पूछा उसने,
"ज़रा नहा तो लूँ?" बोले वो,
"ठीक, तब तक चाय बनाती हूँ!" बोली वो,
"ठीक!" कहा उन्होंने,
माँ, जो अब तक चुप थी, सर नीचे कर हंसती रही!
"क्या बात है?" पूछा उन्होंने,
"कुछ नहीं!" बोली माँ,
"कुछ तो है?' बोले वो,
"वो ये, कि अगर मैं पूछती, तो एक भी जवाब, सीधा नहीं आता!" बोलीं वो!
"न देता तो गुस्सा हो जाती! मनाओ फिर!" बोले वो,
"आप बाप-बेटी जानो!" बोलीं माँ,
और उठ खड़ी हुईं वो! पिता जी भी उठे, अपने कपड़े लेने लगे! तभी रचिता आ गई अंदर!
"पापा?" बोली वो,
"हाँ?" बोले वो,
"आप गए नहीं?" बोली वो,
"जा रहा हूँ" बोले वो,
"चाय तैयार है!" कहा उसने,
"बस दो मिनट!" बोले वो,
"जल्दी!" बोली वो,
"हाँ हाँ!" बोले वो,
और चले गए, दौड़ते हुए, अपने पांवों में, चप्पलें, फंसा कर, पता नहीं ठीक से पहनीं भी कि नहीं उन्होंने!
तो इस तरह, ये दिन भी कटने लगा! और कट गया! उसी रात पिता जी के पास एक फ़ोन आया, उन्हें किसी काम से, प्रशिक्षण के मामले में, हैदराबाद जाना था, तीन दिन के बाद! न जाने क्यों, रचिता की बात याद आई उन्हें, उन्होंने, मना किया था जाने के लिए, तो पिता जी ने, कुछ ज़ाती-वजह बता, जाने से मना कर दिया था! अगले दिन...नाश्ते के वक़्त...
"रात मना कर दिया बेटा!" बोले वो,
"क्या मना?" पूछा उसने,
"हैदराबाद जाना था, दफ्तर के काम से!" बोले वो,
रचिता के हाथों में पकड़ा कप, काँप सा उठा! मुंह में रखा खाना, जस का तस हो गया! याद हो उठा वो मंजर!
"क्या हुआ बेटी?" पूछा उन्होंने,
"आपने मना कर दिया न?" पूछा रचिता ने,
"हाँ!" बोले वो,
"पक्का?" पूछा उसने,
"हाँ बेटा!" बोले वो,
"ओ पापा!" बोली वो, और आगे बढ़, चिपक गई अपने पापा से! पापा ने भी भर लिया बाजुओं में!
"तुझसे कहा था न, कि नहीं जाऊँगा!" बोले वो,
"हाँ पापा! नहीं जाकर, अच्छा किया!" बोली वो,
और फिर, कुछ कुछ सहज सी होने लगी, कुछ लम्हात बीतते बीतते!

   
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श्रीशः उपदंडक
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और इस तरह से, तीन दिन और गुजरे हुए, वक़्त के रोजनामचे में दर्ज़ हो गए! वक़्त का ये रोजनामचा, न जाने कब से, वक़्त की तशबीह को, घुमाते हुए, लम्हा दर लम्हा, दर्ज़ किये जाता है! इसी रोजनामचे में, हमारे पिता-माँ, दादा-दादी, पुश्तें वगैरह, सब दर्ज़ हैं! तमाम खुशिया, तमाम अहजान(दुःख) इसी के सफ़े में, कहीं न कहीं मिल ही जाएंगे! और, साहिब, कुछ खाली जगह रख छोड़ी गई है, यहां, मेरा और तुम्हारा नाम भी एक न एक रोज, दर्ज़ होगा! खैर, अब बात करें, रचिता की, उसके अंजान ख़्वाबों की!
हाँ, तो तीन रोज और मुक़्म्म्ल हो गए थे! ठीक चौथे ही रोज, जब रचिता, अपने कोचिंग-सेंटर में थी, उसके पास, फ़ोन पहुंचा उसके पिता जी का! फ़ोन उठाया, और तफ़्सील से, कुछ यूँ बात हुई!
गला रुंधा था पिता जी का, अलफ़ाज़, जुबां पर पूरे चढ़ ही न रहे थे, फिसल जाते थे, ऐसा सोच, देख, पाँव तले ज़मीन, खिसक गई रचिता की तो!
"पापा?" बोली वो,
"हाँ?" बोले पिता जी,
''सब ठीक न?'' पूछा उसने,
"हाँ मेरी बच्ची!" बोले वो,
"फिर क्या बात है?" पूछा उसने,
"घर पर बताऊंगा" बोले वो,
"नहीं पापा, अभी, प्लीज़ पापा, अभी, मुझे घबराहट हो रही है पापा!" बोली वो,
"घबराओ नहीं मेरी गुड़िया, सब ठीक है!" बोले वो,
"फिर क्या बात है?" पूछा उसने,
"एक घंटे बाद, घर पहुंचूंगा, आ जाओगी तुम भी तब तक" बोले वो,
"कहो तो अभी निकल आती हूँ पापा?" बोली वो,
"नहीं बेटी, अपना काम निबटा लो पहले" बोले वो,
"जी" बोली वो,
"मैं भी बस निकल रहा हूँ, और हाँ, घबराना नहीं, ठीक है सबकुछ, ठीक बेटी?" बोले वो,
"जी पापा!" बोली वो,
और फ़ोन कट गया! घड़ी देखी तो साढ़े पांच बजे थे, अमूमन वो, छह या सवा छह तक रुक जाया करती थी, अंजू पांच बजे ही चली जाती थी, वो बैठ गई, पानी पिया, और फिर से पापा के बारे में ही सोचने लगी! न जाने क्या बात है? पापा जज़्बाती तो हैं, लेकिन इतने नहीं कि फ़ोन करके बता दें? क्या बात हो सकती है?
मित्रगण!
इस दुनिया में, अगर सबसे ज़्यादा तेज और उलटी कोई चीज़ चलती है, तो वो है इंसानी दिमाग़! ज़हन में, खुद के बनाए सवाल और उन्हीं सवालों में उलझ कर, सुलझने का रास्ता देखा करता है ये! सीधा या तो चलता ही नहीं, या फिर, इसने चलना ही नहीं सीखा कभी!
वो खड़ी हुई, पशोपेश में उलझ गई थी, खुद के ही स्वाला और जवाब कहीं नहीं! ऐसी हालत, बेहद ही संगीन हुआ करती है! संजीजदगी जहां खत्म होती है, संगीन सोच हावी हो जाती है! यहां भी कुछ ऐसा ही था! वो उठी, अपना फ़ोन रखा बैग में, और जैसे ही चलने को हुई, खिड़की, भर्राते हुए खुल गई! एक सर्द सा झोंका अंदर दाखिल हो आया! वो खिड़की बंद करने आगे बढ़ी, और जब आई खिड़की पर, तो मौसम देखा! मौसम का तो मिजाज़ ही बदल गया था! सर्द सा माहौल हो चुका था! हवा, आवारा-बावरी हो, जहां-तहां जाकर, पता जैसे पूछ लेती हों, उस गुजरी हवा का, जो चंद लम्हात पहले, वहां से हो गुजरी हो!
"घर जाएंगी अब?" आई आवाज़ एक!
उसने दरवाज़े में देखा, रजनी खड़ी थी, रजनी वहां टीचर ही थी, वो दूर से आया करती थी, और जल्दी ही चली भी जाया करती थी!
''आओ रजनी!" बोली रचिता!
और कर दी खिड़की बंद उसे, लगा दी चिटकनी!
"घर जा रहे हो?" पूछा रजनी ने,
"हाँ, बस" बोली वो,
"वो मुझे उस चौराहे तक छोड़ देंगे?" पूछा उसने,
''अरे क्यों नहीं!" बोली रचिता!
"आज छोटी बहन को देखने वाले आने हैं!" कहा उसने,
"अच्छा है!" बोली वो,
बैग उठाया और चली बाहर!
"चाबी?" पूछा रचिता ने,
"योगेश को दे दी" बोली वो,
"ठीक" कहा उसने,
"आपने वो नहीं लिया?" पूछा रजनी ने,
"वो? वो क्या?" पूछा उसने,
"वो, देखिये?" बोली वो,
उसने पीछे मुड़कर देखा, उसका रुमाल, गुलदस्ते पर पड़ा था!
"अरे हाँ!" बोली वो,
और ले लिया रुमाल वहां से!
"आओ रजनी!" बोली रचिता!
"हाँ, जी!" बोली वो,
और छोड़ दिया रजनी को उसने, उस चौराहे तक, जहाँ से रजनी आगे चली जाती! रास्ते में ही स्टेशन था वो, तो कोई दिक्कत ही नहीं हुई!
और तभी, पापा की याद आई! रफ़्तार बढ़ी उसकी स्कूटी की! कैसे भूल गई वो? पहुँच चुके होंगे अब तक तो? माँ को बता रहे होंगे? आगे पड़ी बत्ती! रुक गई!
"ये आपका है, उठाइए?" बोल एक लड़का, साथ में खड़ा था बत्ती पर!
रचिता ने, नीचे देखा, अरे! ये रुमाल तो उसने रख दिया था बैग में? और बैग है अब सीट के नीचे, तो यहां कैसे आया?
खैर, उसने उठा लिया! और पकड़ लिया हाथ में, बत्ती हुई हरी और चल पड़ी आगे! रफ़्तार फिर से पकड़ ली, सहसा ही, नज़र पड़ी हाथ पर, रुमाल, फिर से गिर पड़ा था कहीं!


   
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श्रीशः उपदंडक
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खैर जी, घर पहुंची वो, स्कूटी खड़ी की घर में ही, सामान निकाल लिया बाहर! और चल पड़ी अंदर, बाहर, गाड़ी खड़ी थी पिता जी की, वे आ चुके थे, देर ना की, लपक कर अंदर चली गई! अपने सैंडल्स उतारे और सीधा, धड़धड़ाते हुए अपने कमरे में, वहाँ रखा सामान अपना, और फिर वहां से भी चली, पापा-पापा, कहते हुए! आ गई अपने पापा के कमरे में, पापा उसके, सोफे में घुसे पड़े थे, रंग उड़ा हुआ था चेहरे का उनके! जैसे ही उन्होंने, रचिता को देखा, लपक लिए और सर पर चूमने लगे उसे!
"बैठो!" बोली माँ,
रचिता बैठ गई, नज़र न हटाए अपने पापा से!
"क्या बात है पापा?" पूछा उसने,
पिता जी, थोड़ा चुप लगा गए, सोचा हो जैसे कुछ! रचिता को देखा उन्होंने फिर! फिर हल्के से मुस्कुरा गए!
माँ, बड़ी ही बेचैन थीं! जैसे, पता नहीं, अब क्या हो?
"तूने बचा लिया मुझे बेटी!" बोले वो,
"क्या हुआ?" पूछा उसने,
"याद है, मैंने दफ्तर से जाने को मना किया था, हैदराबाद?" बोले वो,
"हाँ?" बोली वो,
"अच्छा रहा, नहीं तो आज मैं.........................." कहते कहते, गला रुंध सा गया उनका!
रचिता हुई बेचैन!
"क्या हुआ पापा? बताओ न?" बोली वो,
पिता जी चुप, एक तरफ ही देखें!
अब माँ को देखा रचिता ने!
"आज, जो लोग गए थे हैदराबाद, उनका एक्सीडेंट हो गया, चार में से तीन, वहीँ के वहीँ मारे गए" बोली माँ,
"क्या?" खड़ी हो गई रचिता! अवाक सी! सन्न! काटो तो, खून नहीं! बर्फ की मानिंद! और वे आवाज़ें! वही आवाज़ें जैसे गूंजने लगीं उसके कानों में!
"हाँ बेटी, अगर मैं जाता तो आज यहां न होता" बोले पिता जी,
"कैसे न होते?" बोली वो,
"और क्या? हमारी बेटी है न?" बोली माँ,
"हाँ, मेरी बच्ची!" बोले पिता जी!
कुछ सोचते हुए, वो उठी, और चल पड़ी अपने कमरे की तरफ! पिता जी ने रोकना चाहा तो माँ ने रोक दिया उन्हें! कुछ बोला भी!
रचिता, अपने कमरे में लौट आई, सीधा अपने बिस्तर पर! एक तरफ वो जहां बेहद खुश थी, की उसके पापा नहीं गए थे और जान बच गई थी, खैरियत से थे, तो दूसरी तरफ, कुछ बेहद ही शदीद पीने से, कांटेनुमा सवाल, उपज आये थे दिमाग़ में उसके! वो लेटी और छत को देखा!
वो ख़्वाब! कैसे सच हुए जा रहे हैं? क्या वजह है? क्या हुआ है? ये सारा, चक्कर आखिर है क्या? अजीब से सवाल, अजीब से ही जवाब! शायद, कुछ लेना-देना ही हो? शायद, पिछले जन्म की ही कोई बात हो? शायद, वो क्या क्या कहते हैं, हाँ! सिक्स्थ-सेंस, शायद, वो ज़्यादा काम करने लगा हो? पढ़ा तो है ऐसा? क्या यही है ये? कौन बताएगा? किस से पूछे वो?
दरवाज़े पर दस्तक हुई! उसका ध्यान टूटा!
"कौन?" पूछा उसने,
"मैं!" आई आवाज़,
"मम्मी!" बोली वो,
"हाँ, ले, चाय ले ले!" बोली माँ,
"आई मम्मी!" बोली वो,
और दरवाज़ा, खोल दिया, चाय ले आई थी माँ, चाय ली उसने,
"चल, अंदर चल ज़रा!" बोली माँ,
"आओ?" बोली वो,
माँ अंदर आई, बिस्तर पर ही बैठ गईं!
"तूने सपना देखा था न?" पूछा माँ ने,
"हाँ मम्मी!" बोली वो,
"क्या देखा था?" पूछा माँ ने,
"एक्सीडेंट!" बोली वो,
''और?" पूछा माँ ने,
"यही की, पापा भी........." रुकी बोलते बोलते वो,
माँ बाकी समझ ही गईं!
"क्या जगह थी?" पूछा माँ ने,
''वही" बोली वो,
"कैसे पता?" पूछा माँ ने,
"पापा से पूछना, एक हरी गाड़ी थी, एक नीली" बोली वो,
माँ से बात करे वो, और माँ को चढ़े, धीरे धीरे बुखार! ऐसा कैसे हो सकता है? कभी नहीं सुना? कहीं कोई हवा का चक्कर तो नहीं?
"सुन?" बोली माँ,
"हाँ?" बोली वो,
"कहीं गई थी क्या अकेली?" पूछा माँ ने,
"नहीं तो?" पूछा माँ ने,
"किसी के साथ, उसके घर?" पूछा माँ ने,
"नहीं तो?" बोली रचिता!
"कहीं कुछ खाया ही हो?" पूछा माँ ने,
"नहीं तो, लेकिन ऐसे सवाल किसलिए?" पूछा रचिता ने,
"कुछ नहीं!" बोली माँ,
"फिर?" पूछा रचिता ने,
"अच्छा, किसी को कोई कपड़ा दिया हो?" पूछा माँ ने,
''अरे नहीं माँ!" बोली रचिता!
"चल चाय पी तू, फिर आउंगी बाद में!" बोली माँ, खड़ी हुईं और चल पड़ीं बाहर, बाहर जाने से पहले, एक बार देखा ज़रूर रचिता को उन्होंने!


   
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श्रीशः उपदंडक
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माँ ने दरवाज़ा बंद किया था, और चल पड़ीं थीं, अपने कमरे की तरफ! पिता जी, वहीँ बैठे थे, कुछ कागज़ वगैरह, देख रहे थे, ये सब, उन मरहूमात के काम के कागज़ थे, सोचा, जल्दी ही निकाल लिए जाएँ, पेट भर दिया जाए उनका, जितना जल्द से जल्द हो सके! और इधर, माँ, माँ के जी में, अब वहम घुस चला था, वहम का तो इस दुनिया में कोई इलाज है नहीं! या तो हाथ कंगन को आरसी क्या और पढ़े-लिखे को फ़ारसी क्या! वो ही काम आया करती है! माँ के चेहरे और माथे में पड़ीं शिकनें! बैठ गई, साथ ही, कुछ न कहते हुए! थोड़ी देर बीती कि....
"क्या बात हुई?" बोले वो,
"कुछ नहीं" बोली वो,
"कुछ?" पूछा उन्होंने,
"नहीं तो?" बोलीं वो,
"इतनी शांत क्यों?" पूछा उन्होंने,
"ऐसे ही, ये भी कोई बात है?" बोलीं वो,
"तुम चुप बैठ नहीं सकतीं न!" बोले वो,
"क्यों? मैंने कौन सा शोर मचाया है?" बोलीं वो!
"मैंने कब कहा?" बोले वो,
""मतलब तो यही था न?'' बोलीं वो,
"नहीं, कोई मतलब नहीं!" बोले वो,
"अभी कितनी देर और?" पूछा माँ ने,
"बस, दस मिनट" बोले वो,
फिर, दस मिनट बीते, और माँ ने, उनसे, सारी बात बता दी, अजीब अजीब से सवाल, और अजीब अजीब सी दलीलें! कुछ कहानियां, भी और कुछ सुने-सुनाये किस्से भी!
"क्या कहना चाहती हो?" बोले वो,
"ज़रा इसको दिखवा दो कहीं?" बोलीं माँ,
"किसलिए?" बोले वो,
"कुछ न कुछ तो ज़रूर है!" बोलीं वो,
"क्या कुछ न कुछ?" पूछा उन्होंने,
"लो जी, इतनी कहानी सुना दी और आपने ध्यान ही नहीं दिया?" बोली माँ,
"क्या!" बोले वो,
"कोई हवा का चक्कर तो नहीं?" बोलीं माँ, अंदेशा आगे रख!
"हवा?" पूछा उन्होंने,
"नहीं पता?" पूछा उन्होंने,
"नहीं तो?" बोले वो,
और तब, माँ ने सारी गठरी खोली अंदेशे की! तब जाकर कुछ समझे वो!
"ऐसा कुछ भी नहीं!" बोले वो,
"दिखाने में क्या हर्ज़?" बोलीं माँ,
"कहाँ दिखाऊं?" पूछा उन्होंने,
"कोई मालूम नहीं?" बोलीं, झींकते हुए वो!
"मुझे तो नहीं पता, तुम जानती हो?" बोले वो,
"वो साथ वाली मधु नहीं है?" बोलीं वो,
"वो, हाँ?" बोले वो,
"उसकी लड़की पर चक्कर था हवा का, ठीक हो गई फिर, उस से बात करूं?" बोलीं वो,
"सुनो, एक तो रिश्ता नहीं, कहीं और खबर उड़ गई तो समझो, निकली जान, कौन ज़िम्मेवार?" बोले वो,
"वो ऐसा नहीं करेगी!" बोलीं वो,
''ऐसा?" बोले वो,
"हाँ!" कहा माँ ने,
"तो मिटा लो अपना वहम!" बोले वो,
"वहम?" बोलीं माँ,
"और क्या?" बोले वो, हँसते हुए!
"इस घर एम तो मई सभी की बुरी ही रही!" बोलीं माँ,
"अरे?" बोले वो,
"पहले सास, फिर नन्द, फिर जेठानी!" बोलीं वो,
"कहाँ की बात कहाँ ले आईं!" बोले वो,
''और फिर आप!" बोलीं वो, गुस्से से!
"अब मैंने क्या किया?" बोले वो,
"वहम, हैं?" बोलीं वो,
"अरे! ठीक है, जो चाहो, करो!" बोले वो,
"कोई दिक्कत तो नहीं, आपको?" पूछा तुनक कर!
"क्यों होगी?" बोले वो,
"लाड़ली है न?" बोलीं वो,
हंस पड़े वो!
"सो तो है!" बोले वो,
"ठीक है, अब खाना लगाऊं?" पूछा माँ ने,
"अभी रुको!" बोले वो,
पेन का ढक्कन कसा और रख दिया मेज़ पर!
खैर जी, खाना भी हो गया और सभी, अपने अपने कमरे में क़ैद भी हो गए! कुछ सुकून, कुछ डर सा, अंजान सा डर, रचिता को! आँखें बंद कीं, और सो गई! सोई, तो खोयी! और इस बार, एक नए ही ख़्वाब ने दस्तक दी!
"आप पहले आई हो इधर?" एक लड़की ने, रचिता से पूछा, वो पहाड़ी सा इलाक़ा था, बेहद ही सुंदर, ऊपर खड़े थे वहां सभी, मम्मी-पापा उसके, उधर, घास पर बैठे थे, साथ में, उसका छोटा भाई, नितिन भी, मम्मी-पापा के साथ ही बैठा था!
"नहीं, पहली बार!" बोली वो,
"मैं आती रहती हूँ!" बोली वो लड़की!
"अच्छा!" कहा रचिता ने,
"हाँ, हर साल!" बोली वो लड़की!
"वो उधर?" पूछा रचिता ने,
"झरना है!" बोली वो लड़की!
"खूबसूरत है!" बोली वो,
"ये वादियां भी बेहद ही खूबसूरत हैं!" बोली वो,
"हाँ, देख रही हूँ!" बोली रचिता!
''वो, देख रही हो?" पूछा उस लड़की ने,
"कहाँ?" पूछा उसने, और.................!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"कहाँ?" बोली रचिता!
"वो देखो न?" कहा उस लड़की ने, इशारा करते हुए सामने!
"मुझे तो दिख नहीं रहा कुछ?" बोली रचिता!
"इधर आओ!" बोली वो,
रचिता ने जगह बदल ली अपनी!
"अब देखो, सामने?" बोली वो लड़की,
"हाँ, देखा!" बोली वो,
"क्या है?" पूछा उसने,
"आपको क्या दीखता है?" बोली वो,
"कोई खड़ा है जैसे?" बोली वो,
"हाँ!" कहा उसने,
"यही दिखा रही थीं?" पूछा रचिता ने,
"नहीं, उसके साथ तो देखो?" बोली लड़की, वो!
उसने देखा, गौर से! सामने ही!
"ये क्या हुआ?" बोली रचिता,
"क्या हुआ?" बोली वो,
"वो कहाँ गया?" पूछा उसने,
"वहीँ तो है?" बोली लड़की,
"अरे नहीं!" बोली वो,
"नीचे देखो?" बोली वो,
उसने नीचे देखा,
"अरे, इस पहाड़ी से नीचे, उस तरफ!" बोली वो,
रचिता ने देखा नीचे! और रह गई हैरान! नीचे तो फूल ही फूल बिखरे थे! पीले रंग के, बड़े बड़े, फूल! उनकी पंखुड़ियों में जैसे सफेद सी किल्लियां निकली थीं! पूरी ज़मीन फूलों से ढकी पड़ी थी! एक अंगूठा रखने की जगह भी नहीं थी वहां!
"ये क्या है?" पूछा रचिता ने, नीचे देखते हुए,
लेकिन, कोई जवाब नहीं!
"यहां तो लोग थे, उधर, लंगूर बैठे थे, अब ये फूल?" बोली रचिता!
कोई जवाब नहीं, न हूँ, न हाँ!
"लगता है जैसे फूलों की जमकर बरसात हुई हो! ये आये कहाँ से? लोग कहाँ गए? बताओ?" बोली रचिता, देखते हुए नीचे ही!
"बताओ?" बोली वो,
और रखा हाथ किसी के कंधे पर, ये एक महिला थी, दोनों ही चौंक पड़े!
"ओ, सॉरी!" बोली रचिता!
"इट'स ओके!" बोली वो औरत!
"अभी यहां एक लड़की खड़ी थी न?" पूछा उस औरत से उसने,
"लड़की?" चौंकी वो औरत!
"हाँ, उम्र कोई बीस के करीब, गोरी सी, सर ढके हुआ अपना?" बोली वो,
"नहीं तो? यहां तो मैं खड़ी हूँ बहुत देर से, और आप, नीचे देख रही थीं!" बोली वो,
नीचे? रचिता ने , चौंक के नीचे देखा! हैं? अब कोई फूल नहीं? लोग-बाग़ आ-जा रहे थे, वहां, लंगूर भी बैठे थे! उनके हाथों में, पता नहीं कैसे कैसे फल थे, कोई तो कोल्ड-फ्लेवर्ड-मिल्क की बोतलें ले आये थे! लेकिन, ये हुआ क्या? कहाँ चले गए वो फूल? कहाँ गए वो पीले पीले, बड़े बड़े से फूल?
आई ज़रा होश में, और चली अपने मम्मी-पापा के पास, आते ही बैठी, पानी लिया, और पानी पिया उसने! भाई, आइस-क्रीम लेने चला गया था!
"कैसी लगी ये जगह बेटा?" पूछा पिता जी ने,
"ह....हाँ....अच्छी है बहुत!" बोली वो,
"हाँ, मौसम भी अच्छा है!" बोले पिता जी,
"ह...हाँ!" बोली वो,
तभी एक साधू आया वहां! कहीं नहीं रुका, सीधा उनके पास ही चला आया!
"जय बाबा बर्फानी!" बोला वो,
"जय हो बाबा की!" बोले पिता जी, हाथ जोड़ते हुए, सभी ने हाथ जोड़े उसको!
"तारकेश्वर नहीं गए?" बोला बाबा,
"अभी नहीं!" बोले पिता जी,
"जाना चाहिए?" बोला वो,
"हाँ, ज़रूर जाएंगे!" बोले वो,
"तेरे लड़के पर, संकट है!" बोला वो,
अब ये सुन, चौंके माँ-पिता जी!
"कैसा संकट?" पूछा पिता जी ने,
"वही लड़का है न तुम्हारा?" बोला बाबा,
इशारा किया था उसने, नितिन की तरफ, जो आइस-क्रीम लेने वाली भीड़ में खड़ा था, पैसे निकालकर!
वे हैरान हुए!
"हाँ, वही है, लेकिन कैसा संकट?" पूछा उन्होंने,
"पेड़ गिरेगा, सर पर!" बोला वो,
"पेड़? बच तो जायेगा?" बोले पिता जी,
"जय तारकेश्वर!" बोला बाबा,
"बताओ बाबा?" बोली माँ,
"हाँ, अमरनाथ जाऊँगा, पूजा के लिए, कर दूंगा पूजा, बच जाएगा तेरा लड़का!" बोला बाबा,
"जय हो! जय हो बाबा! जय हो!" बोलीं माँ और और पिता जी भी!
"ग्यारह सौ दे दे मुझे, खर्चा होगा!" बोला वो,
"हाँ, अभी बाबा!" बोले वो,
"और ये लड़की है तेरी?" बोला वो,
"हाँ!" बोले वो,
"सुंदर है!" बोला वो,
"इसका भी कल्याण करवा दो बाबा?" बोले वे,
"कैसा कल्याण?" बोला बाबा, रचिता को घूरते हुए!
"इसका बताह नहीं हो रहा, कोई ढंग का रिश्ता ही नहीं आता!" बोलीं माँ,
रचिता को बुरा तो लगा, लेकिन कहे क्या!
"हो जाएगा! हो जाएगा!" बोला बाबा, और बढ़ा आगे, रचिता के सर पर हाथ रखने के लिए, और जैसे ही झुका वो कि तभी.........................


   
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श्रीशः उपदंडक
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बाबा जैसे ही झुका, उसका हाथ जैसे किसी ने पकड़ लिया, पहले सामने की तरफ खींचा, बाबा की तो आँखें ही चढ़ गईं! हाथ की हड्डियां तलक टूट गईं, चटकने की आवाज़ सभी ने सुनी, बाबा ने मारी चीख और इस से पहले चीख खत्म होती, उसकी छाती में किसी ने जमकर एक लात बिठा दी! बाबा तो दुल्लर हो गया! हवा में उड़ता हुआ, पीछे करीब बीस फ़ीट जाकर, गिर पड़ा, खून का फव्वार छोड़ते हुए! हाथ सूज कर, पाँव जैसा हो गया था, छाती भी सहला न सका था! बेहोश सा पड़ा था, हाय-हाय की आवाज़ निकालता हुआ! उसके कंधे पर लटका थैला, दूर जा पड़ा था, भस्म की सी पोटलियां, मालाएं, एक छोटी सी डायरी, एक टूटा पैन, कुछ मुलैहठी सी औषधि, बाहर जा पड़ी थीं!
तभी एक झटके से, नींद खुल गई रचिता की! चेहरे पर छोटे, लेकिन ठंडे से पसीने आराम-तलब से हो आराम कर रहे थे! वो उठी, तो सब मिल कर, बूंदों की शक्ल में अख़्तियार हो उठे, और पोंछ दिए गए, हाथ से, रचिता ने!
"ये कैसा सपना?" मुंह से, धीमे से निकला उसके! उसने चाड हटा दी, चप्पलें पहन लीं और साथ पड़ी कुर्सी पर जा बैठी, माथे से हाथ लगाया, अभी भी ठंडा था माथा उसका! गिलास से, ढक्कन हटा, पानी पिया और दो घूंट पीने के बाद रख दिया गिलास, वापिस ढक्कन लगा कर!
"ये कैसे अजीब सपने आने लगे हैं मुझे? ये सब क्या हो रहा हे? सपने, फिर, हक़ीक़त कैसे बन जाते हैं?" बार बार सोचे वो ये सब! अब उसके सपने, ख़्वाब, अंजान ख़्वाब, हावी से होने लगे थे उस पर! कैसे पीछा छुड़ाए उनसे वो? ख़्वाब आएं, कोई शिक़ायत नहीं, लेकिन हू-ब-हू हक़ीक़त कैसे?
आधा घंटा बैठी, कभी टेढ़ी हो, कभी मेढ़ी हो, कभी पाँव सीधे करें, कभी कुर्सी पर, दोनों पाँव रख ले, कभी हाथ ढीले छोड़े, कभी बाँध ले! बेचैन और कुछ कुछ हताश सी! करें भी तो क्या करें! न करें तो ये ख़्वाब?
तो साहब, कुछ न बन पड़ा! रात के करीब एक बज रहे थे, बाहर तो सन्नाटा सा पसरा था, कमरे में जलता वो नाईट-लैंप, बेचारा, उसकी हालत देख, वहीँ लटका, पता नहीं क्या क्या बड़बड़ाए जा रहा था! दीवार पर लटकी एक पेंटिंग भी, उसी की जानिब बार बार, उड़ उड़ कर, देख ही लेती थी!
रहा नहीं गया तो, लेट गई फिर से, इस बार माथे पर हाथ रख! कुछ वक़्त बीता और नींद ने आ घेर! जब नींद के आग़ोश में क़ैद हुई, तो ख़्वाब के अँगने में रिहा हुई!
उसने देखा..........
ठीक सामने, एक जगह है, बेहद ही सुंदर! हर तरफ, कायनाती खूबसूरती की नुमाइश! क्या दरख़्त, क्या फूल और क्या नज़ारा! हरी सी पहाड़ियां, दूर, दूर खड़े पहाड़, जिन पर, बर्फ ने शिकंजा सा जड़ा था! और ठीक सामने, आँखों के उसके, एक रास्ता था, खुल हुआ, उस रास्ते पर, तीन बड़े बड़े घंटे टंगे थे! लोग आते, और चले जाते! पीछे देखा, तो मम्मी-पापा नहीं थे साथ उसके! न भाई ही! यक़ीनन ये कोई बड़ा सा मंदिर ही था!
"रचिता?" आवाज़ आई माँ की,
पीछे देखा, तो माँ नहीं, कोई नहीं!
"रचिता?" आवाज़ फिर से आई!
उसने फिर से पीछे, आसपास देखा!
"अरे इधर?" बोलीं माँ!
उसने सामने देखा, ठीक कुछ दूरी पर, उसकी मम्मी किसी महिला के साथ खड़ी थीं, हाथों में एक छोटा सा थैला था, थैले में से पूजा की सामग्री झाँक रही थी!
"इधर आ?" बोलीं माँ,
रचिता चल पड़ी!
"ये है मेरी बेटी रचिता!" बोलीं माँ,
"नमस्ते!" रचिता ने उस महिला को नमस्ते की, और नमस्ते का जवाब भी मिला!
"रचिता? ये तेरी मामी जी की रिश्तेदार हैं!" बोली वो,
"अच्छा!" कहा उसने,
"बड़ी हो गई लड़की, छोटी सी देखी थी!" वो महिला बोली!
"हाँ जी, बच्चे बड़े हो ही जाते हैं जल्दी!
"हाँ, ब्याह नहीं हुआ?" पूछा उसने,
"अभी कहाँ!" बोली माँ,
"क्यों पढ़ाई?" बोलीं वो,
"कोई ढंग का रिश्ता ही नहीं मिल के दे रहा!" बोली माँ,
"ओह!" बोली वो महिला,
"हाँ जी!" कहा माँ ने,
"मैं देखती हूँ!" बोली वो महिला!
'आपका बहुत बहुत धन्यवाद जी!" बोली माँ,
"धन्यवाद किस बात का! हमारी भी तो बेटी है ये!" बोली वो महिला!
"सो तो है ही!" बोलीं वो,
"आओ!" बोली वो महिला,
"आप चलिए, इसके पापा आते हैं अभी!" बोली वो,
"अच्छा, ठीक, मिल के जाना!" बोली वो महिला,
"हाँ, ज़रूर!" दिया जवाब माँ ने,
वो महिला, आगे चली गईं! साथ उनके दो लड़के भी थे, छोटे छोटे, शायद पोते रहे हों उनके! और यही था भी!
"ये लो, पोते वाली हो गईं ये!" बोलीं माँ,
"आपसे बड़ी भी तो हैं!" बोली रचिता, हंस कर!
"नसीब वाली भी है!" बोलीं माँ,
"कैसे?" पूछा रचिता ने,
"दो दो बेटियां ब्याह दीं!" बोलीं वो,
"ओहो मम्मी!" बोली रचिता!
"तू भी अपने घर चली जाए तो नसीब जागे!" बोलीं माँ,
"मम्मी?" बोली रचिता!
"तू नहीं समझेगी!" माँ बोली,
"हाँ भाई?" आई आवाज़,
ये पिता जी थे, कुछ सामान पकड़े हुए! नितिन भी!
"हाँ?" बोलीं माँ,
"चलो अब अंदर?" बोले वो,
"चलो!" बोलीं वो,
"जल्दी निबट लेंगे तो अच्छा रहेगा!" बोले वो,
"अरे वो, सावित्री मिली थी, इसकी मामी की रिश्तेदार!" बोलीं माँ,
"आये हुए होंगे?" बोले पिता जी,
"हाँ!" कहा माँ ने,
"अच्छा है!" बोले वो,
"हाँ, अब निबट गई है, अब कैसी चिंता!" बोलीं माँ,
"ये तो है ही!" बोले पिता जी!
तभी पीछे से, एक घंटा बजने की आवाज़ आई! वो स्थान और पावनता से भर गया उसी वक़्त! और वे, आगे बढ़ते चले गए!


   
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