वर्ष २०१५, दिल्ली क...
 
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वर्ष २०१५, दिल्ली की एक घटना, शीतल की दर्दभरी लालसा!

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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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भावना! ये नाम लिया था उसने, रश्मि, ये भी नाम! रश्मि से तो मिल लिए थे हम, ये रोहन की विधवा है, भावना कौन? ओह हाँ! याद आया! भावना तो शीतल की छोटी बहन है जो नरेश जी को ब्याही है! ठीक!
हाँ, तो वो अब हाज़िर हो गई थी! अब जब मैंने उसे देखा, तो मुझे बेहद सुंदर लगी वो! जैसी वो दिखती होगी, वो, झुकी बैठी थी, उस लाश के पास, और उस वॉकर के पास, उस पिछके है से मांस के लोथड़े को, उठाने की कोशिश कर रही थी............उठाती, न उठता, खुरचती, न खुरचा जाता...........रोटी जाए और सुबकती जाए, तन पर, मात्र वो अंदरूनी वस्त्र ही बस, और कुछ नहीं, हाँ, दो सोने के चैन, हाथों में चार चार कड़े, सोने के, एक अंगूठी, बाएं हाथ की अनामिका में, चमकदार सी, शायद हीरा रहा होगा वो, गुलाबी से रंग का! अब कोई अँधेरा नहीं था उधर, उसका प्रेत-मंडल चमक रहा था, प्रकाश भर गया था कमरे में! ये प्रकाश, हल्का सा हरा, सफेद और कुछ पीलापन सा लिए होता है! इसी को प्रेत-आभा या मंडल कहा जाता है!
"मेरा बच्चा.............." बोली वो अब सुबकते सुबकते!
वे दोनों ही मर चुके थे, मुझे ध्यान था, अतः मैं उन खोखली भावनाओं में नहीं बहा! न ही बहना चाहिए था और न ही ये उचित ही होता है!
"नॉटी....मेरा बच्चा....." वो मरी मरी से आवाज़ में बड़बड़ा रही थी!
और मैं चुपचाप, खड़े खड़े, वो सारा खेल, देखे जा रहा था! वो रो रही थी, रोती रहे! चिल्ला रही थी, चिल्लाती रहे! पत्थर बनना ही था, सो बन ही गया था!
"नॉटी....मेरा गोलू....." बोली फिर से, और उठाने की कोशिश की उसने, लेकिन वो, उठे ही नहीं, मांस, चिपक गया था फर्श से!
"कौन है ये?" पूछा मैंने,
"मेरा बच्चा" बोली सुबकते सुबकते!
"कौन?" पूछा मैंने,
"मेरा बच्चा" बोली वो,
"नाम?" पूछा मैंने,
"नॉटी" बोली वो,
"क्या हुआ इसे?" पूछा मैंने,
"पता नहीं" बोली वो,
"फिर?" पूछा मैंने,
"मर गया" बोली वो,
"क्या?" पूछा मैंने,
"हाँ? देखो? मर गया!" बोली अब, ठहाका मारते हुए!
ये प्रेत! पल में कुछ, पल में कुछ! पल में मोम, पल में पत्थर!
"कैसे मर गया?'' पूछा मैंने,
"पता नहीं" बोली वो,
"पता है!" कहा मैंने,
"क्या?" बोली वो,
"ये तुम्हारा बच्चा है!" कहा मैंने,
"हाँ" बोली वो,
"कहना है?'' पूछा मैंने,
"शहहह!" बोली वो,
और डांटा मुझे!
"सो रहा है!" बोली वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"हाँ, सो रहा है!" बोली वो,
वो घुटने मोड़, बैठ गई, पीठ मेरी तरफ और हाथ मोड़ लिए! और भींच लिए हाथ अपने! मैं देखता रहा उसे, न जाने क्या कर रही थी वो!
मुझे कुछ आवाज़ सुनाई दी, कोई दो-तीन मिनट के बाद, जैसे कोई बच्चा, अपनी माँ का स्तनपान कर रहा हो! दिमाग में खटका सा हुआ!
"क्या वो नॉटी है?" पूछा मैंने,
"हम्म" बोली वो,
और हिलाने लगी अपने हाथ, बीच बीच में सर उठाती, हिलाती और फिर से, जैसे उस बालक को, छाती में खोंस लेती!
"शीतल?" बोला मैं,
"हूँ?" बोली वो,
"तुमने रोहन को क्यों मारा?" पूछा मैंने,
"मुझे नहीं मार डालता वो फिर?" बोली वो,
"क्या?'' पूछा मैंने,
"हाँ" बोली वो,
"तुम्हें ऐसा क्यों लगता है?" पूछा मैंने,
"मैं जानती हूँ" बोली वो,
"क्या?'' पूछा मैंने,
"वो मुझे मार डालता" बोली वो,
"कैसे?" पूछा मैंने,
"बेचारा अवनीश?" बोली वो,
"बेचारा?" बोला मैं,
"हाँ, मिट्ठू!" बोली वो,
"मिट्ठू?" बोला मैं,
"हूँ" बोली वो,
"अवनीश, मिट्ठू?" कहा मैंने,
"हाँ" बोली वो,
"समझा नहीं?" बोला मैं,
अब वो चुप! हिलने लगी, जैसे, उस बालक को सुला रही हो अब!
"शीतल?" कहा मैंने,
नहीं बोली कुछ भी!
कुछ देर का इंतज़ार!
"शीतल?" कहा मैंने,
"हूँ?" बोली वो,
"अवनीश बेचारा क्यों?" पूछा मैंने,
"भोला है बहुत!" बोली वो,
"कैसे?" पूछा मैंने,
"समझता ही नहीं?" बोली वो,
"क्या?" पूछा मैंने,
"चाल!" बोली वो,
"किसकी चाल?" पूछा मैंने,
"उन दोनों की?" बोली वो,
"दोनों की?" पूछा मैंने,
"हूँ!" बोली वो,
"कैसी चाल?" पूछा मैंने,
"तू नहीं जानता?" बोली वो,
"नहीं?" कहा मैंने,
'अ...हाँ!...झूठ!" बोली वो,
'सच" कहा मैंने,
"ना!" बोली वो,
"यकीन करो?" कहा मैंने,
"चाल?" बोली वो,
"मुझे बताओ?" बोला मैं,
"क्या करेगा?" पूछा उसने,
"मदद!" कहा मैंने,
"किसकी?" पूछा मैंने,
"तुम्हारी!" बोला मैं,
"क्यों?" पूछा उसने,
"सच्चाई जानकर!" कहा मैंने,
"सच? कैसा सच?" बोली वो,
"तुमने झूठ बोला मुझसे!" कहा मैंने,
"झूठ?" बोली वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"झूठ क्या होता है?" पूछा उसने,
"जो तुमने कहा!" कहा मैंने,
"क्या कहा?'' पूछा उसने,
"झूठ" कहा मैंने,
"कैसे?" पूछा उसने,
"रोहन ने कोई चाल नहीं खेली!" कहा मैंने,
ये सुन, ज़ोर से पलटी वो!


   
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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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इतनी ज़ोर से, कि मेरी पलकें भी न झपकी थीं और वो ठीक मेरे सामने थी! उसकी गोद में, सोता हुआ उसका बालक था, बड़ा ही सुंदर! घुंघराले से बाल, गोलू-मोलू सा! मोटे-मोटे से गाल! उसके बालों को, बालों वाली क्लिप से बाँध दिया गया था! हाथों में अभी भी, काले रंग का डोरा और चांदी के कड़े पड़े थे! गहरे लाल रंग के कपड़े पहने था वो! सो रहा था, प्यारा सा बालक, ऐसा प्यारा कि कोई भी उठा, चूम ही ले उसे!
"मैं झूठ बोली?' बोली वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"नहीं" बोली वो, सर हिलाते हुए!
"बोली तुम" कहा मैंने,
"नहीं" बोली वो,
"तुमने क्यों मारा रोहन को?" पूछा मैंने,
"क्यों?" पूछा उसने,
"बताओ?" बोल मैं,
"क्यों?" बोली वो,
"बताना होगा!" कहा मैंने,
"क्यों?" बोली वो,
"क्योंकि तुम झूठी हो!" कहा मैंने,
उसे दांत पीसे अब अपने, ज़ाहिर था, गुस्सा आया था बहुत उसे!
"उसे देख?" बोली वो चीखते हुए,
इशारा किया, उस लाश की तरफ!
"देख लिया!" कहा मैंने,
"क्या गलती थी?'' बोली वो,
"किसकी?'' पूछा मैंने,
"मेरी?" बोली चिल्ला कर!
"कैसी गलती?'' पूछा मैंने,
"मुझे क्यों मार डाला?" बोली वो, गुस्से से,
"शीतल? किसने मार डाला?' पूछा मैंने,
"उस...उस...रोहन ने?" बोली वो,
"रोहन ने?' पूछा मैंने,
"हाँ, उस हरामज़ादे ने?" बोली अब,
"मैं कैसे मान लूँ?" कहा मैंने,
"मैं नहीं छोडूंगी!" बोली वो,
"किसे?" पूछा मैंने,
"किसी को भी" बोली वो,
"किसी? कौन?" पूछा मैंने,
"मेरा अवनीश......" फूट फूट कर, टुकड़ों में, रोने लगी वो!
"तुम अवनीश से प्यार करती हो?" कहा मैंने,
सर हिलाकर, हाँ कहा उसने!
"और वो?" पूछा मैंने,
"वो भी" बोली वो,
"अजीब सी बात हे, जैसा तुमने कहा, अवनीश को कोई शक नहीं? ऐसा क्यों और कैसे हो सकता है?" पूछा मैंने,
"हुआ न?" बोली वो,
कुछ देर सोचा मैंने!
और हाँ! अब आया समझ मुझे!
"शीतल?" कहा मैंने,
उसने देखा मेरी तरफ!
"तुम्हें गलती हुई, गलतफहमी!" कहा मैंने,
"नहीं!" बोली वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"नहीं" बोली वो,
"मानो?" कहा मैंने,
"नहीं!" बोली वो,
"रोहन ऐसा क्यों चाहता?" पूछा मैंने,
"वो चाहता था!" बोली वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
"हाँ?" बोली वो,
"नहीं शीतल!" कहा मैंने,
"उसने क्यों कहा ऐसा फिर?'' बोली वो,
"क्या कहा?'' पूछा मैंने,
"कि मैं रोड़ा हूँ?" बोली वो,
"कब कहा?'' पूछा मैंने,
"जब मैंने सुना?" बोली वो,
"कब सुना?'' पूछा मैंने,
"सुन था..........!" चिल्ला कर बोली वो!
"तुमने खुद सुना?" पूछा मैंने,
"नहीं" बोली वो,
अब हुए मेरे कान खड़े! ये क्या? इसका मतलब? गलतफहमी ही है! महज़ एक गलतफहमी! ये प्रेत, अभी तक, उस गलतफहमी को पाले हुई है! और इसी वजह से, ये भटक रही है! अभी तक, शांत नहीं! ये खुद तो अँधेरे की सजा काट रही है, साथ कि साथ, इस मासूम को भी सजा दे रही है! ये गलतफहमी ही है! और कुछ नहीं!
"शीतल!" कहा मैंने,
"है न?'' बोली वो,
"सुनो?" बोला मैं,
"है न?'' बोली वो,
"सुनो तो?" कहा मैंने,
"है न???" चीख कर बोली वो!
"मेरी बात सुन ओ औरत?" कहा मैंने अब गुस्से से!
वो ज़रा सहमी! फिर हंस पड़ी! खिलखिलाकर!
"तू, बचा लेगा?" बोली वो,
"किसे?" पूछा मैंने,
"बचा लेगा?" बोली वो,
"किसे?" पूछा फिर से मैंने,
"बता? बचा लेगा??" फिर से चीखी!
"सुन! मैं अगर चाहूँ, तो तेरी ये सारी हेकड़ी अभी, इसी वक़्त, एक ही चुटकी में, निचोड़ के रख दूंगा! दया खा रहा हूँ, तो कमज़ोर मत समझ! डरा नहीं, मैं नहीं डरने वाला! तरस आता है, तो इस मासूम पर! नहीं तो तुझे, अभी तक खींच कर, बाँध देता कहीं, चिल्लाती रहती छूटने के लिए, समझी?" कहा मैंने अब गुस्से से!
वो इस बार पीछे हटी! अपने बालक को, भींच लिया! असर हुआ उस पर मेरी धमकी का! यही तो मैं चाहता था! वो ज़िद्दी रही होगी, अड़ियल, अपनी अपनी सुनने वाली, सुनाने वाली, एक ऐसी औरत, जो घर ही बिगाड़ा करती हैं, जिनमे, नमी नाम की कोई चीज़ नहीं हुआ करती, जो, झुकना नहीं पसंद करतीं!
"तेरी मैंने सारी बात सुनी, सुनी ना?" बोला मैं,
और चला आया आगे!
"क्या चाहती है?" पूछा मैंने,
"न....." बोली वो,
"बता?" कहा मैंने,
"न....." फिर से बोली!
"शीतल?" कहा मैंने,
टकटकी लगाए देखे!
"कैसी औरत है तू? हैं?" बोला मैं,
चुप!
"अरे, खुद पर नहीं, तो इस मासूम पर तरस खा?" कहा मैंने,
"नहीं, नहीं! इसे नहीं लेना! नहीं!" सहम कर बोली वो!
"नहीं ले रहा!" कहा मैंने,
"नहीं लेना?" बोली वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"नहीं...लेना......" बोली, अब सुबकते हुए!
"यकीन रख!" कहा मैंने,
"नहीं लेना.....नहीं लेना.......नहीं..." बोली वो,
"अरे नहीं लूंगा! तेरी इजाज़त के बगैर नहीं!" कहा मैंने,
वो नीचे बैठ गई, अब, आलती-पालती मार कर!
बालक के सर पर, हाथ फेरती रही! चूमती रही! और इस बार, मुझे, तरस आ ही गया उसकी दशा पर! मेरे होंठों के बीच, एक रिक्त-स्थान, बढ़ता ही चला गया!
 

   
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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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भले ही वो प्रेत थी! लेकिन एक माँ का ममत्व नहीं भूल सकी थी वो! जिस तरह से वो, अपने उस बालक को चूम रही थी, सर पर हाथ फेर रही थी, साफ़ दीखता था कि माँ, माँ ही होती है! मुझे सच में ही उसकी इस दशा पर तरस आ गया था! ये उसकी ममता ही थी, जो उस, बालक को अभी तक अपने साथ रखे हुए थे! उस बालक ने, उसके पांवों में, बेड़ियां डाल रखी होंगी! वो जहाँ ध्यान रखती होगी उसका, वहीँ अपना भी और ये भी, कि कोई उस बालक का अहित ही न कर दे!
"शीतल?" कहा मैंने,
"हाँ?" बोली वो,
"इसे जाने दो!" कहा मैंने,
"नहीं! नहीं! मैं नहीं!" बोली वो,
"अकेले नहीं?" पूछा बताया मैंने,
वो चुप! खामोश!
"तुम भी जाओ साथ इसके!" कहा मैंने,
"कहाँ?" अब, चिपटा कर बोली उस बालक को अपनी छाती से!
"नहीं, जाना तो होगा! अब ये संसार तुम्हारा शेष ही नहीं!" कहा मैंने,
"नहीं!" बोली वो,
मैंने इस विषय को बदलना ही ठीक समझा तब! और बदल दिया!
"शीतल?" कहा मैंने,
"हाँ?' बोली वो,
"क्या वजह थी?" पूछा मैंने,
"किसकी?'' बोली वो,
"उस रोहन को मारने की?" पूछा मैंने,
"वो ठीक नहीं था!" बोली वो,
"कोई खतरा था?" पूछा मैंने,
"हाँ" बोली वो,
"किसको?" पूछा मैंने,
"मेरे बच्चे को" बोली वो,
"क्या?" पूछा मैंने, चौंक कर!
"हाँ, यही बताया था" बोली वो,
"किसने?" पूछा मैंने,
"किसी ने" बोली वो,
"कौन?" पूछा मैंने,
"कोई" बोली वो,
"बताओ तो?" पूछा मैंने,
"है कोई" बोली वो,
"समझा मैं!" कहा मैंने,
"वो क्या?'' बोली वो,
"वो, बड़ी मामी?" कहा मैंने,
उसने आह भरी! जैसे भेद खुल गया हो उसका!
"है न?" कहा मैंने,
अब वो चुप!
हिलना भी बंद!
"कहाँ तुम उस औरत की बातों में आ गईं?" बोला मैं,
चुप! बिलकुल चुप!
"काश तुमने, उसकी जगह, अवनीश की बातें मानी होतीं!" कहा मैंने!
चुप्पी!
"ये हश्र न होता तुम्हारा!" कहा मैंने,
चुप एकदम!
"तुमने गुस्सा किया, शक किया उस रोहन पर, तुम लड़ीं अवनीश से, अपने घर भी चली गईं, नॉटी को लेकर! अवनीश ने मनाया होगा, तुम मानी तो होंगी, लेकिन शर्त पर! वो शर्त, मंज़ूर न होगी, किसी को भी! काम से मन उचट गया होगा अवनीश का! क्या सम्भाले? घर, तुम्हें या फिर अपना काम?" कहा मैंने, और सुनाई उसे!
"तुम्हारे कान भरे गए, तुमने भरने दिए, एक बार को भी सच जानने की कोशिश ही न की! सब तुम्हें, अपने दुश्मन नज़र आने लगे! बस एक के अलावा! वो निवि! समझ नहीं आया, तुम, निवि से इतना प्यार क्यों करती हो?" बोला मैं, मुस्कुराते हुए!
अब भी न बोली!
"शायद, ममत्व! यही तुम्हारे अंदर भरा है, कूट कूट कर! लेकिन शीतल! तुमने तो उस बच्ची से भी, उसका बाप छीन लिया! रोहन ने कभी बुरा नहीं सोचा तुम्हारा! उसने तो सोचा था, ज़मीन का मुक़द्दमा वे जीत जाएँ तो वो, यहां से चले जाएँ, वो पढ़ा-लिखा ज़्यादा था, कर लेता काम उस ज़मीन पर, कुछ भी! रश्मि भी तैयार हो जाती, लेकिन! लेकिन तुम्हारे अंदर, एक घटत-बढ़त बनी रही! घाटे में अवनीश और, बढ़त में रोहन!" कहा मैंने,
वो चुप्प! दम सा साधे सब सुने!
"है न?'' बोला मैं,
खामोश!
"काश!" बोला मैं,
मैं पीछे हुए!
"तुमने समझा होता!" कहा मैंने,
वो खड़ी हुई!
"अब?" बोला मैं,
"अब देखो तुम?" कहा मैंने,
"अब, तुम, हटाना चाह रही हो, उस रश्मि को!" कहा मैंने,
"है न?" बोला मैं,
चुप्प!
"बोलो?" बोला मैं,
"वारिस रोहन था उस ज़मीन का! और अब, उसकी पत्नी! उसे भी हटाओगी, फिर? फिर क्या होगा?" पूछा मैंने,
"नहीं" बोली वो,
"तो?" पूछा मैंने,
"नहीं" बोली वो,
"तो बताओ?" कहा मैंने,
"नहीं, नहीं" बोली वो,
"तो, क्यों लौटी तुम?" पूछा मैंने,
"अवनीश...." बोली वो,
"अवनीश?" पूछा मैंने,
"हाँ, अवनीश" बोली वो,
"अब अवनीश से क्या लेना तुम्हें?" पूछा मैंने,
"उसका हक़" बोली वो,
"हक़?" पूछा मैंने,
"हाँ" बोली वो,
"कैसा हक़?" पूछा मैंने,
"उसका अपना हक़" बोली वो,
"नहीं जानता!" कहा मैंने,
"नहीं जानते?' बोली वो,
"नहीं?" कहा मैंने,
"अवनीश कौन है?'' बोली वो,
"अवनीश? कौन है?" पूछा मैंने,
"हाँ, कौन है?'' पूछा मैंने,
"अवनीश, अवनीश ही है!" कहा मैंने,
"नहीं" बोली वो,
"तो?" बोला मैं!
"अवनीश, रोहन, सगे नहीं!" बोली वो,
"क्या?" बोली वो,
और तब.............एक..............!!


   
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श्रीशः उपदंडक
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और तब! तब मुझे उस पर बेहद गुस्सा आया! वो मुझे बरगलाना चाह रही थी! कहानी, उसमे मोड़, फिर से नई कहानी, और फिर से उसमे मोड़! न जाने कितने मोड़! जी तो करे, अब करूं इबु को हाज़िर, कर दूँ उसके हवाले, और कर दे वो तार-तार इसकी प्रेत-नैसर्गिकता को! दिखा दे कि झूठ बोलने का नतीजा होता क्या है, ये ठीक है, कि प्रेत अक्सर ही झूठ बोला करते हैं, लेकिन इतने मोड़ तो कोई शायद ही लाये! जो मुंह में आये, जो जी में आये, बक दो बस! लेकिन फिर भी, फिर मैंने मैंने जज़्ब किया अपने गुस्से को! एक बार और पाल लिया उसे, पुचकार लिया!
"कितना झूठ बोलोगी शीतल?" पूछा मैंने,
"झूठ?" बोली वो,
"ओहो! सच्ची!" कहा मैंने,
"कैसा झूठ?" बोली वो,
"जो अभी बोला तुमने?" कहा मैंने,
"क्या झूठ बोला मैंने?" बोली वो,
मैं हंस पड़ा! इतनी साफगोई से झूठ! और वो भी, एक प्रेत हो कर! हैरत ही हो गई मुझे! हाँ, अब तक कोई अंजान प्रेत होता, तो माना जा सकता था, लेकिन अब तक तो, सही तरह से रु-ब-रु हो चुका था मैंने उस से!
"कितना और बरगलाोगी?" पूछा मैंने,
"कैसे?" पूछा, इस बार आह सी भर कर!
"क्या कहने सुनाने लगी हो अब?" पूछा मैंने,
"जो सच है?" बोली वो,
"और सच क्या है?" पूछा मैंने,
"यही?" बोली वो,
"क्या यही?" पूछा मैंने,
"कि अवनीश और रोहन सगे नहीं?" बोली वो,
"लो! दो भाई और सगे नहीं!" कहा मैंने,
"हाँ?" बोली वो,
"चलो! चलो मान लिया कि सगे नहीं, तो विष्णु लाल का असली पुत्र कौन है?'' पूछा मैंने,
"था!" बोली वो,
"था.....अच्छा अच्छा! वो रोहन?" कहा मैंने,
"हाँ, रोहन" बोली वो,
"मान लिया, और ये अवनीश?" पूछा मैंने,
"बड़े मां का लड़का है!" बोली वो,
"हैं? क्या?" पूछा मैंने,
"हाँ?" बोली वो,
"बड़े मामा, यानि, उस बड़ी मामी का?" पूछा मैंने,
"बड़े मामा का, लेकिन बड़ी मामी का नहीं!" बोली वो,
अब ये क्या कहानी?
ये कौन सी नयी बात?
मुझे क्यों न बताई किसी ने?
या ज़रूरी ही न समझी बतानी?
"एक मिनट?" कहा मैंने,
कुछ सोचा मैंने तभी! क्या ऐसा हो सकता है? हां? क्यों नहीं?
"तो बड़े मामा का लड़का है अवनीश?" पूछा मैंने,
"हाँ, मुकुंदी लाल का" बोली वो,
"मुकुंदी लाल का क्या हुआ?" पूछा मैंने,
"बीमार हुए, चले गए" बोली वो,
"और ये? क्या नाम है, पूजा या पूनम?" पूछा मैंने,
"पूजा" बोली वो,
"हाँ, बड़ी मामी" बोली वो,
"हाँ, तो ये?" पूछा मैंने,
"मुकुंदी लाल की पहली पत्नी पुष्पा का लड़का है अवनीश" बोली वो,
"और पुष्पा का क्या हुआ?" पूछा मैंने,
"अवनीश के छह महीने के रहते, उसकी मौत हो गई थी" बोली वो,
"ओह!" कहा मैंने,
"हाँ" बोली वो,
"तो मुकुंदी लाल का ये बेटा, गोद लिया विोषणु लाल ने?" पूछा मैंने,
"हाँ, क्योंकि, पत्नी के इलाज आदि में, खत्म, हो लिए थे वो" बोली वो,
"क्या करते थे?" पूछा मैंने,
"विष्णु लाल के साथ ही काम था उनका" बोली वो,
"मतलब, हिस्सेदारी का?" पूछा मैंने,
"हाँ" बोली वो,
"ओहो! अब समझा!" कहा मैंने,
"क्या?" पूछा उसने,
"क्यों इस पूजा को, पैसे की मदद मिलती थी इस घर से!" कहा मैंने,
"हाँ" बोली वो,
"और इसीलिए, शायद, वो कान भरती थी तुम्हारे?" बोला मैं
"नहीं" बोली वो,
"फिर?" पूछा मैंने,
"मुझे, अपनी बोलती हैं वो" बोली वो,
"बोलेगी ही?" बोला मैं,
"नहीं" बोली वो,
"क्या नहीं?" पूछा मैंने,
"मेरे लिए बुरी नहीं हैं वो" बोली वो,
"कैसे?" पूछा मैंने,
"मुझे सब बताती थी हैं वो" बोली वो,
"बताएगी ही?" कहा मैंने,
"क्या?" बोली वो,
"दो की चार!" कहा मैंने,
"नहीं" कहा उसने,
"पूजा को लगता होगा, कि विष्णु लाल ने, हिस्सेदारी हड़पी होगी मुकुंदी लाल की, इसी का बदला, वो इस तरह से ले रही होगी!" कहा मैंने,
"नहीं" बोली वो,
"तुम्हें अपने पक्ष में किया होगा!" कहा मैंने,
"नहीं" बोली वो,
"क्या नहीं, नहीं?" पूछा मैंने,
"उन्होंने ही तो बताया था कि....." रुकी वो, मुट्ठी भींचे, बेचैनी से, मुझे देखा,
"क्या?' पूछा मैंने,
"कि...." बोली वो,
"यही, कि रोहन और दूसरे, रास्ते से हटा देंगे शीतल को!" कहा मैंने,
"सिर्फ रोहन" बोली वो,
अब मैं मुस्कुराया!
खुलने लगे राज! उठने लगे पृष्ठ उस बंद किताब के!
एक एक करके!


   
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श्रीशः उपदंडक
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ग़लतफ़हमी क्या करवा सकती है, कच्चे कान क्या करवा सकते हैं, ये सामने ही, नतीजा था! ऐसा अंजाम! मैंने तो सोचा भी नहीं था! सोचने वाली बात है, रोहन को इस से क्या फायदा होता? रोहन पढ़ाई कर रहा था, जब अवनीश का ब्याह हुआ था, अवनीश ने अपने 'पिता' विष्णु लाल का समस्त व्यापार देख रहा था, उसने तो कभी मना भी नहीं किया था कि रोहन कभी, कोई दखलंदाज़ी करें उसके या उसके व्यापार में! रोहन भी बैठता था साथ ही, हाथ बंटाने को! लेकिन यही बात, उस बड़ी मामी, पूजा को नागवार गुजरती थी! रोहन समझदार था, नहीं आया बातों में उसकी कभी, रश्मि भी समझदार औरत थी, वो भी नहीं आई उसके चंगुल में, अब अवनीश, अवनीश ज़्यादा मुंह लगता नहीं था, क्योंकि उसको असलियत तो मालूम ही थी सारी कि पूजा मामी, किस कारण से घर में आया करती है! हाँ, ये शीतल. आ गई उसकी बातों में, और चढ़ गई हपट्टे में! इसी पूजा के मारे, घर में क्लेश होता था! अवनीश मना करता, शीतल संग बिठाती! बात ज़्यादा बढ़ जाती तो अपने घर चली जाती शीतल, रूठ कर, उस नॉटी को लेकर! बाप पर क्या गुजरती होगी? बार बार, मान-मुनव्वत कर, वो लाता उसको घर वापिस! हिम्म्त बढ़ती चली गई होगी शीतल की! औरत को अगर एक बार शक हो जाए, तो वो पतला भले ही हो जाए, टूट नहीं सकता! यही हुआ था! यहां पतला तो छोडो, मोटा ही हुए जा रहा था वो शक! इसी तरह से, पूजा ने शीतल के कान भरने शुरू किये, कि वो अलग ही हो जाए तो अच्छा, अलग रसोई, अलग ही सब! और तो और, उस ज़मीन का फँसल आएगा, उसका वारिश, ये, रोहन ही है! क्या लगेगा हाथ उसके? मकान? क्या कीमत है? व्यापार? उस पर ही आधा कब्ज़ा रोहन का! रोहन एक दिन, उन्हें ही साफ़ कर देगा! रोहन से बचना ही ही ठीक! दूरी बना कर रखो! और फलां फलां, सौ बातें! शक तो था ही, और पुख्ता होता चला गया शीतल के दिमाग में!
वो हादसा, जिसमे शीतल हलाक हुई, वो बस, किसी क्लेश के दूसरे रोज ही बरपा था! उस हादसे में दोषी कोई नहीं था, शीतल का वक़्त खराब था, वो लम्हा खराब था, मौत पास ही खड़ी थी उसके, कभी गिरे, और कब वो गोद में ले उसको! अफ़सोस ये, कि वो बालक, नॉटी भी, इसी गलतफहमी की भेंट चढ़ गया!
अब सवाल ये, कि शीतल की रूह को, सच्चाई पता क्यों नहीं चली, जब वो प्रेत बन गई? मित्रगण! प्रेत तो उसी क्षण में अटक जाते हैं, जिस क्षण में वे प्रेत-योनि प्राप्त किया करते हैं! यूँ कहें कि एक सफेद सा कागज़ और कागज़ में, बस एक छोटा सा दाग़! उसे रोहन से नफरत थी और ये नफरत, उसके दिल में प्रेत बनने के बाद भी रही! वो जानती थी, कि शीतल के साथ जो हुआ, वो, उसी रोहन की वजह से हुआ है! इसी लिए, उस रात, उसने, रोहन का खेल ही खत्म कर डाला! इंसान की बिसात ही क्या? चंद लम्हें सांस रुकी, तो सारा खेल ही खत्म! यही हुआ था उस रोहन के साथ! रोहन तो शायद, जान भी न सका होगा कि उसकी मौत की वजह क्या रही? या क्या हुआ था उसके साथ, उस रात, उस लम्हे? कैसे एकदम, भले चंगे इंसान की सांस, एक बार जो अंदर गई, फिर बाहर ही न निकली! छटपटा कर, गिर गया था और, साँसें उखड़ गईं! लेकिन, पूजा, पूजा तो अभी भी उसके लिए, वही थी! उसकी शुभचिंतक! अब भले ही, वो शुभचिंतक, कारण बन गई, इस बर्बादी की! एक नहीं, तीन मौतें हुईं! मैं सब समझ गया था! सब का सब! सबब और तलब, सा!
"शीतल?" कहा मैंने,
"हूँ?" बोली वो,
"तुम...निवि से बहुत प्यार करती हो न?" पूछा मैंने,
"औ, मेरी बच्ची! नॉटी जैसी!" बोली वो,
मई मुस्कुरा पड़ा! ऐसी औरत, लेकिन ममत्व में कोई सानी नहीं उसका!
"क्यों?" पूछा मैंने,
"बेटी है न?" बोली वो,
"किसकी?" पूछा मैंने,
"मेरी? ऐसी?" बोली नॉटी को पुचकारते हुए!
"लेकिन वो तो....रोहन और रश्मि की बेटी है न?" बोला मैं
"तो?'' बोली वो,
"तो इतना प्यार क्यों?" पूछा मैंने,
"मैं उसकी बड़ी मम्मी हूँ ना?" बोली वो,
"बड़ी मम्मी!" कहा मैंने,
"हाँ, यही बोलती है न?" बोली वो,
"दुश्मन की बेटी से इतना प्यार?" पूछा मैंने,
"हाँ?" बोली वो,
मैंने सर हिलाया! ना मैं! कहीं कहीं, समझने में, मुझे या तो देर हो जाती है, या फिर समझ से बाहर ही हो जाती है वो वजह! इस दफा भी ऐसा ही हुआ!
"इस औरत को देखो?" कहा मैंने,
"कौन औरत?" बोली वो,
'वो?" कहा मैंने,
इशारा किया उस लेटी हुई लाश की तरफ!
"मैं!" बोली वो,
"हाँ, तुम!" कहा मैंने,
"ये मर गई?" पूछा मैंने,
"हाँ" बोली वो,
"कैसे?" पूछा मैंने,
"मार डाला!" बोली वो,
"किसने?" पूछा मैंने,
"जिसे मैंने मारा!" बोली वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"तो?" बोली वो,
"अब कौन?" पूछा मैंने,
"कोई नहीं?" बोली वो,
"लेकिन तुमने तो कहा, और हैं?" पूछा मैंने,
"नहीं?" बोली वो,
"तो बदला पूरा हुआ?" पूछा मैंने,
"हाँ?" बोली वो,
"चलें अब?" पूछा मैंने,
"कहाँ?" बोली वो,
"जहाँ कोई नहीं मरता!" कहा मैंने,
"क्या?" बोली चौंक कर!
"हाँ!" कहा मैंने,
"कौन सी जगह?" बोली वो,
"बस, तुम हाँ कहो?" कहा मैंने,
"हाँ?" बोली वो,
"तैयार हो?" पूछा मैंने,
"क्यों?" बोली वो,
अब पलट गई! कुछ आया था जी में उसके!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"क्या हुआ?" पूछा मैंने,
"नहीं, नहीं जा सकती" बोली वो, हो कर, बेचैन!
"क्या हुआ शीतल?" पूछा मैंने,
"नहीं" बोली सर हिलाते हुए,
"बताओ तो?" पूछा मैंने,
''वो......" बोलते बोलते रुकी वो,
"क्या वो?" पूछा मैंने,
"अवनीश?" बोली एकदम!
"तो?" पूछा मैंने,
"अवनीश का क्या होगा?" पूछा उसने,
"क्या होना है?" पूछा मैंने,
"वो तो, अकेला है?" बोली वो,
मई हंसा तब! उसे अजीब सा गुजरा होगा, कोई शक नहीं इसमें!
"अकेला?" पूछा मैंने,
"हाँ?" बोली वो,
"वो अकेला नहीं है!" कहा मैंने,
"है?" बोली वो,
"नहीं है!" कहा मैंने,
"उसका क्या होगा? क्या होगा?" बोली वो,
"शीतल?" पूछा मैंने,
"ह...हाँ?" बोली वो,
"प्यार करती हो अवनीश से? बहुत?" पूछा मैंने,
"ह...हाँ...बहुत...मेरा अवनीश...अकेला रह जाएगा......नहीं" बोली वो,
"नहीं शीतल! कोई अकेला नहीं रहता! वक़्त अगर सहारा उखाड़ता है, तो एक सहारा खड़ा भी कर देता है!" कहा मैंने,
"नहीं..नहीं" बोली वो,
"तू हाँ करो, या ना!" कहा मैंने,
"नहीं, नहीं जाउंगी" बोली वो,
"जाना ही होगा!" कहा मैंने,
"नहीं" बोली वो,
"जाना ही होगा!" कहा मैंने,
"थोड़ा वक़्त और.हैं.....हैं?" बोली वो,
"वक़्त के कोई मायने नहीं तुम्हारे ;लिए!" कहा मैंने,
अब वो चीखी! चिल्लाई! रोई! लेकिन, कोई असर नहीं पड़ा मुझ पर! पड़ता भी कैसे? ये सब, उसकी भलाई के लिए ही तो था! वो मासूम बालक, मुक्त हो जाता! ये, खुद, मुक्त हो जाती! मुक्त, हर पीड़ा से! हर क़तरा-ए-तन्हाई से! दूर! बहुत दूर! जहाँ, असीम शान्ति है! जहां, इंसानी, जज़्बात कहीं नहीं! सफर! एक सफर! फिर एक ठहराव! बस! मेरी पहुंच, यहीं तक है! इस से आगे कोई इजाज़त नहीं मुझे!
"शीतल?" कहा मैंने,
वो चुप हुई! मुझे देखे!
"तुम हाँ कहोगी, तो भी, न कहोगी, तो भी! जाना ही होगा!" कहा मैंने,
"नहीं" बोली वो,
"या तो मान जाओ, या मनवाना ही पड़ेगा!" कहा मैंने,
"नहीं, ऐसा मत करो!" गिड़गिड़ा के बोली वो!
"मान जाओ!" कहा मैंने,
"कैसे?' बोली वो,
"जानती हो!" कहा मैंने,
चुप!
"बस मानना नहीं चाहतीं!" कहा मैंने,
"नहीं" बोली फिर से!
"शीतल! तुम्हें जाना ही होगा!" कहा मैंने,
"नहीं, नहीं!" बोली वो!
तब मैंने, कुचंग-विद्या का संधान किया! मनोश्च! विद्या जागृत हुई! ताप बढ़ने लगा! और वो, बेचैन हुई! प्रेतों की, शक्ति को सोखने लगती है कुचंग!
"शीतल?" कहा मैंने,
"आह............." वो पीड़ित हुई!
"मान जाओ?" कहा मैंने,
"न.हीं" बोली वो,
"ज़िद न करो!" कहा मैंने,
"नहीं" बोली वो,
और तब, वो बालक जाग उठा! उठते ही, हुआ बेचैन! पाँव मारे! मुझे देखे! सर, थामा न जाए! हिले-डुले!
"अब और देर नहीं शीतल?" कहा मैंने,
"नहीं" वो पलटी, लोप होने को हुई! लेकिन न हो सके!
मित्रगण! 
इसे कहते हैं, प्रेत का दोहन! इसी क्षण में, जो माँगा जाए उस से, वो देगा! जो करवाया जाए, करेगा! वचन कबूलेगा! गुलाम बन जाएगा! और आप मालिक! उसके मालिक! आका! ऐसे में, प्रेत छटपटाता है! रोता है! चिल्लाता है! टक्करें मारता है! गिड़गिड़ाता है! भीख सी मांगने लगता है!
"ईस्स्स्स्स्स्स! ईह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्!" चिल्लाई वो!
"मान जाओ?" कहा मैंने,
"मान जाओ?" चिल्लाया मैं!
"मान जाओ!" आदेश दिया!
"मान जाओ!" विनम्रता से पूछा!
"मान जाओ शीतल!" कहा मैंने,
आई वक्रांशावस्था!
"मान जाओ?" कहा मैंने,
"क़ैद हो जाओगी शीतल??" चिल्ला के बोला मैं!
और, वो धम्म! से गिरी! बालक छिटक गया! शांत! दोनों ही शांत! टूट गई शीतल! मान गई शीतल! और मैंने, राहत की सांस ली! एक हस्त-मुद्रा बनाई और फेरा हाथ ऊपर उनके! धीरे धीरे, वे दोनों ही, लोप हुए! लोप! मुक्त नहीं! अयोप-मंडल में जा पहुंचे!
और इस तरह!
इस तरह से, इस धरा से, उस शीतल और उस बालक का, नामोनिशान मिट गया, अब बस, देर थी, तो एक मुक्ति-क्रिया की! एक मुक्ति-क्रिया सम्पन्न हो, वो भी मुक्त, और मैं भी फ़ारिग़!


   
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श्रीशः उपदंडक
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अन्धकार छंट गया! वो गंध! वो मंजर, वो वक़्त की जमी गर्द! वो मौजूदगी, वो आहें और वो हंसी, अब सब जा चुके थे! यह गया था कुछ शेष तो, बस वो रसोई, वो घर और कुछ यादें! और कुछ नहीं! कमरे में, उजाला सा फ़ैल गया था, जैसे बाहर, सूरज खिल गया हो! धूप जैसे, अब अंदर चली आई हो! रौशनदान के शीशों से, अंदर आती वो धूप अब, जोड़ रही थी मुझे, वापिस इस संसार से! मैं लौटा! आया दरवाज़े तक! देखा पीछे! कुछ नहीं! आगे बढ़ा, दरवाज़ा खोल, बाहर की गर्म हवा, अंदर चली आई! चमक सी पड़ी, मेरी आँखें पल भर को छोटी हो गईं! अभी, बाहर उजाला था! मैं आया गैलरी में, और चला बाहर की तरफ! अचानक से, उस कमरे के दरवाज़े पर नज़र पड़ी, जिसमे मैं पहले था! वो दरवाज़ा बंद था! टाला लता था उस पर! मैं उसे देखता हुआ, आगे चलता चला गया! जब बाहर आया, तो न कपूर साहब से, न ही नरेश जी और न ही वो नौकरानी! मैं घर से बाहर आया, बाहर झाँका, दो दरवाज़े खुले, एक से, नरेश जी और एक से कपूर साहब बाहर निकले! मुझे देखते ही, दोनों लपक क्र मेरी तरफ चले! मुझ गौर से देखा!
"आप ठीक हो?" पूछा नरेश जी से,
अब कार से और कोई उतरा, ये नौकरानी थी, नमस्ते की उसने!
"हाँ अब ठीक, माफ़ कीजिये, मैं घबरा गया था बहुत!" बोले वो,
"कोई बात नहीं!" कहा मैंने,
"आप कपूर साहब?" पूछा मैंने,
"ठीक!" बोले वो,
'और आप?" दोनों ने पूछा!
"ठीक!" कहा मैंने,
उसके बाद, हम घर में अंदर आ गए, जो बताना था, थोड़ा-बहुत बता दिया, कि अब सबकुछ ठीक है! अवनीश जी आ जाएँ, तो बात कराना मेरी उनसे, एक बार! और फिर हम, वापिस हुए!
तीन दिन के बाद.............
वो रात आई, जब मुझे उनकी मुक्ति करनी थी! उस रात, उस पल, शीतल बेहद शांत थी, जब मैंने, उसको उसको प्रत्यक्ष किया था, वो शांत सी खड़ी थी अपना बालक थामे हुए! कोई बात नहीं हुई ख़ास, कोई इच्छा नहीं थी उसकी! रात एक बज कर, इक्कीस मिनट पर, मैंने अंतिम चरण में प्रवेश किया और एक बज कर, उनत्तीस मिनट पर, वे दोनों, लोप हो गए! मेरा यहां का काम, समाप्त हो गया था!
अगले दिन अवनीश जी आये, उन्हें मैंने सब बता दिया, फूट फूट कर रोये वो, एक बारगी, मेरा कलेजा भी, काँप सा उठा! उनको मैंने बताया, कि उस रसोई में, सबसे बाईं दराज में, कुछ रखा है शीतल का! उसको प्रवाहित कर दें! उस पर, सिर्फ, उनका ही हक़ है!
मित्रगण!
इस प्रकार! इस प्रकार वो शीतल, अपनी मुक्ति को प्राप्त हुई!
अवनीश जी से, नरेश जी से, हो जाया करती है, कभ-कभार बात! नरेश जी ने समझाया तो है, कि वे सबकुछ, एक दुःस्वप्न मसन कर, भूल जाएँ सबकुछ, और न्य जीवन आरम्भ करें! कुछ समय तो ज़रूर लगेगा, उबरने में! लेकिन वक़्त वो मरहम है, जो हर चीज़ को धुंधला करने का माद्दा रखता है! धुंधली न भी हों, छोटी तो हो ही जाती हैं! यही उम्मीद भी है और यही विश्वास भी!
एक लालसा! एक दर्दभरी लालसा! और उसका ऐसा अंत!
खैर............................
साधुवाद!

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