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वर्ष २०१५, दिल्ली की एक घटना, शीतल की दर्दभरी लालसा!

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श्रीशः उपदंडक
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"समझ ही नहीं आया हमें तो साहब कभी.." बोले अवनीश जी,
"कमाल की बात है!" कहा मैंने,
"हाँ जी!" बोले अब नरेश जी,
"पुलिस का क्या कहना था?" पूछा मैंने,
"कुछ नहीं, आम सी खानापूर्ति!" बोली नरेश जी,
"समझ सकता हूँ" कहा मैंने,
"अब आप देखिये, उम्मीद से आये हैं आपके पास हम!" बोले अवनीश जी,
"कोशिश अवश्य ही करूंगा!" कहा मैंने,
"देख लीजिए, कुछ हो जाए, नहीं तो बर्बाद तो हुए ही पड़े हैं हम, मरने की ही देर है अब..." बोले बेचारे, उदास होते हुए वो, रुमाल निकाल लिया था, गला रुंध आया था उनका, नाक पोंछी चश्मा हटाकर, और फिर चश्मा साफ़ कर, फिर से पहन लिया!
"बेनी साहब ने भेजा है आपके पास" बोले नरेश जी,
"हाँ, मेरी बात हो गई थी उनसे" कहा मैंने,
"हमारे पुराने संबंध हैं उनसे, जब काम हुआ करता था उनका कमला मार्किट में" बोले वो,
"अच्छा, समझा!" कहा मैंने,
"जी" बोले नरेश जी,
"हम तो यही देख रहे हैं जी, कि कैसे वक़्त बदलता है, ये अवनीश, साढ़ू साहब हैं मेरे, कोई कमी नहीं थी इनके पास, किसी भी चीज़ की, और आज देखिये, किराए पर आ लगे हैं, क्या करें? माँ-बाप, कितनी मदद करते? टूट गए वो भी...." बोले नरेश जी,
"ये तो है साहब, वक़्त कब बदल जाए, कुछ पता ही नहीं!" बोले कपूर साहब,
उस दिन, कपूर साहब ही आये थे पास मेरे, नरेश जी, उनके ही जानकार थे, रहने वाले तो हरियाणा के हैं ये लोग, लेकिन काफी वक़्त से, दिल्ली में ही व्यवसाय रहा है सभी का, अवनीश जी का पूरा परिवार यहीं दिल्ली में ही रहता आया है, खिलौनों का बड़ा व्यवसाय था कभी इनका, आज, वक़्त ने करवट ली, तो सब गंवा बैठे, मामला, तीन साल में ही पलट गया था, तीन सालों में ऐसा अचानक क्या हुआ कि ऐसे दिन आ पहुंचे? बस, यही एक वजह रही कि मैंने इस मामले में दखल देना, ठीक समझा!
"अवनीश जी?" कहा मैंने,
"जी?" बोले वो,
"कुछ पूछ सकता हूँ?" कहा मैंने,
"हुक़्म करें गुरु जी?" बोले वो, हाथ जोड़ते हुए,
"हाथ न जोड़ें आप!" कहा मैंने,
"जी, पूछें?" बोले वो,
"भाई का नाम, क्या बताया?" पूछा मैंने,
"रोहन" बोले वो,
"क्या आपको, वो मंजर, अभी भी याद है?" पूछा मैंने,
"कब का?" बोले वो,
"जब आपने लाश देखी थी भाई की?" पूछा मैंने,
"जी, सब याद है, एक एक चीज़...." बोले वो,
"अब कुछ पूछूं? अगर बता सकें?" पूछा मैंने,
"जी?" बोले वो,
"जो भी जानते हों, जैसा मैं पूछूं?" कहा मैंने,
''क्यों नहीं?" बोले वो,
"क्या तारीख थी उस दिन?" पूछा मैंने,
"अगस्त तेईस" बोले वो,
"२०१२?" पूछा मैंने,
"जी" बोले वो,
"घर में कौन कौन था?" पूछा मैंने,
"उस दिन, माँ-पिता जी, रश्मि.." बोले वो,
"कौन रश्मि?" पूछा मैंने,
"रोहन की पत्नी" बोले वो,
"छोटा भाई था न आपका?'' पूछा मैंने,
"जी" बोले वो,
"अच्छा, रश्मि, और?" पूछा मैंने,
"उसकी बेटी, निवि, सो रही थी" बोले वो,
"अच्छा" कहा मैंने,
"उसके अलावा, कोई नहीं था" बोले वो,
"दो मंजिला है मकान?" पूछा मैंने,
"जी" बोले वो,
"कोई रहता है ऊपर?" पूछा मैंने,
"नहीं जी" बोले वो,
"सिर्फ खाली छत?" कहा मैंने,
"हाँ, कुछ सामान, थोड़ा बहुत" बोले वो,
"आपका कमरा?" पूछा मैंने,
"सबसे पहले ही है" बोले वो,
"माँ-पिता जी का?" पूछा मैंने,
"दूसरा" बोले वो,
"आपके साथ लगता हुआ?'' पूछा मैंने,
"जी" बोले वो,
"और रोहन का?" पूछा मैंने,
"माँ-पिता जी के साथ एक रसोई है, रसोई के बाद, रोहन का कमरा पड़ता है" बोले वो,
"अच्छा, कुल तीन कमरे!" कहा मैंने,
"जी, पांच" बोले वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"अच्छा जी!" कहा मैंने,
"जी गुरु जी" बोले, टूटे से वे, अवनीश जी,
"अरे हाँ, बुरा न मानें, तो एक बात, इन सभी से पहले पूछ लूँ?'' पूछा मैंने,
"बुरा क्या मानना गुरु जी, पूछिए आप?" बोले वो,
"मुझे नरेश जी ने बताया था कि आपकी स्वर्गीय पत्नी, किसी हादसे का शिकार हुई थीं?" पूछा मैंने,
वे चुप हो गए...शायद...खो गए थे उसी वक़्त में...कुछ यादें, हमेशा ही, पुराने ज़ख्मों को अक्सर ही, उलीच दिया करती हैं, ज़ख्म, हरे हो जाते हैं, बेचैनी की खारिश हुआ करती हे, और ज़ख्म, फिर से बाहर, झाँकने लगते हैं, ऐसा ही हुआ था, वे चुप हुए, तो मुझे अपनी बेबाकी पर ही अंदर ही अंदर, गुस्सा आ गया!
"हाँ गुरु जी, एक हादसा!" बोले वो,
"क्या हुआ था?'' पूछा मैंने,
वे उस लम्हे में जा पहुंचे थे, और ऐसे लम्हे में इंसान, बनावटी बातें नहीं कर पाता, कोई और मुलम्मा या रंग, नहीं चढ़ा पाता, और मेरे क्षेत्र में तो, एक एक कण की भी हैसियत होती है! मुझे चूक पसंद नहीं, चूक से, पता नहीं, कब क्या हो जाए!
"वो, करीब चार महीने पहले की बात थी!" बोले वो,
"वो, क्या वो?" पूछा मैंने,
"उस रात, जी घटा था!" बोले वो,
"एक मिनट!" कहा मैंने,
और, खिसक के पास चला आया उनके! अब कुछ अहम हाथ लगने वाला था जैसे, गौर से सुनने की अहम ही ज़रूरत थी!
"जी?" बोले वो,
"क्या नाम था आपकी पत्नी का?'' पूछा मैंने,
"शीतल, शीतल राजपूत!" बोले वो,
"ओह...और कहाँ की थीं वो?" पूछा मैंने,
"फरीदाबाद, हरियाणा!" बोले वो,
"उम्र क्या रही होगी?" पूछा मैंने,
"तीस साल" बोले वो,
"तीस? कोई बाल-बच्चा?" पूछा मैंने,
"हाँ..था" बोले वो,
"था?" मैंने चौंक कर पूछा,
"हाँ, वो भी उसी हादसे में, शिकार हो गया" बोले वो,
"ओह, मेरे खुदा...." कहा मैंने,
वे चुप हो गए, और मैंने टोका नहीं,
कुछ लम्हें आगे खिसके, मैंने, ढका हुआ पानी का गिलास उठाया, और न चाहते हुए भी, गिलास, खाली कर दिया!
"क्या उम्र थी बच्चे की?" पूछा मैंने,
"दस महीने, नौ दिन" बोले वो,
"ओह...नाम?" पूछा मैंने,
"प्यार से नॉटी और वैसे, शुभांश!" बोले वो,
"मुझे बेहद दुःख हुआ सुनकर.." कहा मैंने,
"क्या कहें, क्या किया जा सकता है, सब उसकी राजी" बोले वो, हाथ उठाते हुए, दोनों, छत की तरफ!
"कोई सड़क हादसा पेश आया था?" पूछा मैंने,
"नहीं जी" बोले वो,
"फिर?" पूछा मैंने,
"सिलिंडर फट गया था" बोले वो,
"सिलिंडर? कहाँ?" पूछा मैंने,
"यहीं, हमारे घर में" बोले वो,
"मतलब, आपके घर में?" पूछा मैंने,
"जी" बोले वो,
मैंने नहीं पूछा कि कैसे, किस वजह से, क्या खामी रही, चेक नहीं किया था आदि आदि, इन सभी से, मेरा कोई लेना-देना नहीं था, हादसा पेश हुआ था और शीतल और उसका बच्चा, उसमे हलाक हो गए थे, ये ही बहुत था, मेरे लिए!
"कहाँ बनाते वक़्त?" पूछा मैंने,
"नहीं जी" बोले वो,
"तो?" बोला मैं,
"शायद, लीक हुआ था" बोले वो,
"लीक हुआ और फिर भी फट गया?" अब पूछा मैंने,
"दो सिलिंडर रखे थे, एक बाहर आ गया था, उछल कर, हालांकि, वो भी गिरते ही, लीक होने लगा था, लेकिन किसी तरह, उसे ठीक कर ही दिया था, राहुल ने" बोले वो,
"राहुल?" पूछा मैंने,
"मेरा साला" बोले वो,
"ओ, अच्छा" कहा मैंने,
"तो हुआ कैसे ऐसा?" पूछा मैंने,
"रसोई, वो, काफी बड़ी है, करीब, बीस गुणा पंद्रह की" बोले वो,
"अच्छा" कहा मैंने,
"शीतल ने, ड्राइंग-टेबल, वहीँ रख ली थी" बोले वो,
"ओह..समझा!" कहा मैंने,
"दो एक दिन में ही, दूसरा कमरा तैयार हो जाता, उसमे, रंग-रोगन चल ही रहा था, पूरा हो ही चुका था शादी तक तो, लेकिन कुछ काम बाकी था, वही हो रहा था" बोले वो,
"समझा" कहा मैंने,
"तो, हमारा मानना है, कि जब उसने बत्ती जलाई होगी, तब, गैस ने आग पकड़ ली, सिलिंडर फट गया होगा" बोले वो,
"सम्भव है ऐसा!" कहा मैंने,
 

   
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श्रीशः उपदंडक
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"हाँ, फैली हुई गैस ने आग पकड़ी होगी, और ये हादसा हुआ" बोले वो,
"सच में बेहद ही दुखद है" कहा मैंने,
"क्या करें साहब" बोले वो,
"ये किस वक़्त की बात होगी?" पूछा मैंने,
"शाम, करीब छह बजे की" बोले वो,
"और आप कहाँ थे?'' पूछा मैंने,
"अपने ऑफिस में" बोले वो,
"आपको खबर?" पूछा मैंने,
"राहुल ने दी थी" बोले वो,
"ओह...तो आप तभी आये होंगे?" कहा मैंने,
"जी, तब तलक, पुलिस भी आ चुकी थी" बोले वो,
"हम्म, समझा" कहा मैंने,
"जी" बोले वो,
"कितने बरस आपने विवाहित जीवन बिताया?" पूछा मैंने,
"दो साल और ग्यारह महीने" बोले वो,
"निवि की उम्र क्या है?" पूछा मैंने,
"बड़ी है, नॉटी से" बोले वो,
"अच्छा अच्छा" कहा मैंने,
"जी, शादी के बाद, कुछ दिक्कतें आई थीं, उसने देर से, गर्भाधारण किया था" बोले वो,
"समझ गया" कहा मैंने,
"एक बात और पूछूं?" पूछा मैंने,
"जी?" बोले वो,
"कुछ पारिवारिक?" पूछा मैंने,
"जी" बोले वो,
"आपके, संबंध कैसे थे शीतल से?" पूछा मैंने,
"बेहद अच्छे" बोले वो,
"घरवालों की पसंद से शादी हुई थी या?" पूछा मैंने,
"जी, हुई तो घरवालों की राजी से ही थी, लेकिन ये एक प्रेम-संबंध था" बोले वो,
"अच्छा" कहा मैंने,
और तब उन्होंने, अपने पर्स में से, कुछ फोटो दिखाये, मैंने देखे, सच में, बेहद सुंदर थी शीतल! और उनका प्यारा सा बेटा नॉटी भी! साथ में उनका फोटो भी था, कुल मिलाकर, एक हंसी-ख़ुशी से रहता, छोटा सा खुशहाल परिवार था उनका!
"और घर में?" पूछा मैंने,
"जी?' बोले वो,
शायद, मेरा सवाल नहीं समझ पाये!
"मेरा मतलब, उनका व्यवहार, और दूसरे सदस्यों की ओर या प्रति कैसा था?" पूछा मैंने,
"सब अच्छा ही था, सभी से बात करती थी वो, हंसी-ख़ुशी, माता जी, पिता जी, सभी खुश थे!" बोले वो,
उनके इस जवाब से, नरेश जी ने कुछ मुंह सा बनाया, मैंने फौरन ही उनके भाव पकड़ लिए, बेहद ही संजीदा से भाव थे, इसका मतलब, कुछ छिपा रहे थे अवनीश जी! मुझे, उस पल तो, ऐसा ही लगा!
अब मेरे दिमाग में, मची खलबली! ऐसी भला क्या बात हो सकती थी, आज से, करीब दो-तीन साल पहले ये हादसा पेश हुआ था, एक बात और, शीतल की मौत हुई, नॉटी की मौत हुई और फिर, अवनीश के छोटे भाई की भी मौत हुई! एक ही घर में, एक, ज़्यादा बड़े अंतराल पर नहीं, तीन-तीन मौतें!
"ठीक है अवनीश जी!" कहा मैंने,
"अब आप देखिए" बोले वो,
और वे दोनों, खड़े हुए! हाथ मिलाया, और फिर, मैं उन्हें, बाहर छोड़ने तक गया!
"अगर कुछ और सवाल आये दिमाग में, तो पूछ लूंगा!" कहा मैंने,
"हाँ, कभी भी" बोले नरेश जी,
"जी ठीक!" कहा मैंने,
"जी, धन्यवाद, आपके समय के लिए!" बोले अवनीश जी,
"कोई बात नहीं जी!" कहा मैंने,
और इस तरह वे दोनों, चले गए! और मैं, अपने कमरे में, कपूर साहब के साथ आ कर आ बैठा!
अब शर्मा जी, सेवानिवृत हो चुके थे, इसी कारण, उनसे सलाह-मशविरा नहीं कर सका था मैं! ुयमरा का भी तक़ाज़ा होता है और परिवार के प्रति, ज़िम्मेवारियाँ भी! इसीलिए, अब कोई रोक-टोक नहीं उनके साथ!
"क्या लगता है?'' बोले कपूर साहब,
"मामले में पेंच हैं!" कहा मैंने,
"कैसे?" बोले वो,
"कुछ उलझा सा है मामला!" बोला मैं,
"कैसे?" बोले वो,
"अवनीश ने, खुल के नहीं बताया!" कहा मैंने,
"वो क्या?" पूछा उन्होंने,
"बताऊंगा!" कहा मैंने,
"वैसे आदमी तो ठीक है?'' बोले वो,
"अवनीश?" पूछा मैंने,
"हाँ, ठीक ही है!" कहा मैंने,
"कुछ और पता लगाऊं?" बोले वो,
"ज़रूर!" कहा मैंने,
और तभी........


   
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श्रीशः उपदंडक
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कपूर साहब चले गए, अपने मातहत कुछ और ज़रूरी जानकारी जुटानी थीं उन्हें! इस काम में माहिर हैं कपूर साहब! छुरी भी हैं और छुरा भी, और खोआ भी! बस, जानकारी हाथ लगे! कहा जाए कि पुराने चावल हैं, कोई ज़्यादा कहना नहीं होगा! मेरे से कुछ ज़्यादा ही बनती है उनकी! इसीलिए, मैं कभी उनकी बात को अनुसना नहीं करता, ये मामला, वे ही लाये थे, इसीलिए मैंने दखल दिया था, नहीं तो ये सरसरी नज़र में ही, पचड़े में पड़ने वाला काम नज़र आता था! नरेश जी चाहते थे कि इस समस्या का कुछ हल निकले, घर में, कुछ ऐसी चीज़ें हो रही थीं, जिनका खुलासा न तो विज्ञान ही कर पा रहा था और न ही इंसानी बुद्धि! मसलन, ऐसा क्यों था कि शीतल का कोई न कोई कपड़ा, कभी न कभी, यकायक, उड़ते हुए, अक्सर ही वहाँ आ गिरता था! क्यों, शीतल के लगाए हुए गमले, अभी तक सूखे नहीं थे? कौन उनमें लगातार पानी दे रहा था? देखने में सूखे थे, लेकिन फिर भी, फूल कैसे निकल रहे थे उनमे से? क्यों कभी कभी ऐसा एहसास होता था, कि शीतल अभी तलक वहीं मौजूद है? क्यों कभी कभी, किसी न किसी को, उस नॉटी की किलकारी, सुनाई दे जाती थी? क्यों अक्सर, हंसने की सी आवाज़ आती थी, जैसे, शीतल हंसी हो? क्यों, दो बार शीतल के ससुर साहब ने ये कहा कि, उन्होंने, टहलते हुए, देखा था शीतल को, रात दो बजे के वक़्त, उनके दालान में? जहां से आगे कुछ, एक लॉन था, जहां एक झूला, आज भी पड़ा था, और क्यों दो बार, वो हिलता भी दिखा था उन्हें? अब झूले का हिलना, मात्र वहम हो सकता है, मानता हूँ, शायद कोई और वजह रही होगी, लेकिन वो गमले? वो कपड़े? वो कहाँ से आते थे? जबकि वे सभी कपड़े, अब स्टोररूम में, रख दिए गए थे, जिसमे, ताला डाल दिया गया था! बस, इन्हीं कुछ बातों ने, मेरा इस तरफ ध्यान खींचा था! और मैंने, हाँ कर दी थी!
खैर, दो दिन बीते, और कपूर साहब का मेरे पास आना हुआ, हैरत मुझे इस बात की हुई, कि उनके साथ, नरेश जी भी थे! ऐसा मुझे शुरू से लग ही रहा था कि अवनीश ने मुझ से कुछ न कुछ छिपाने की कोशिश की थी! और ये भी, कि नरेश जी यहां आये हैं, तो इस बारे में, अवनीश जी को मालूम ही नहीं होगा, या यूँ कहें, वे खुद ही कहने वाले थे या कपूर साहब ही टोकते कि ये बात अवनीश को न पता चल पाये!
"आइये नरेश जी!" कहा मैंने,
"धन्यवाद गुरु जी!" बोले वो,
और हम, बैठ गए, कपूर साहब ने, पानी का इंतज़ाम किया, हमने पानी पिया और फिर, आराम से बैठ गए! और बातें शुरू कीं!
"नरेश जी?" कहा मैंने,
"जी?" बोले वो,
"ऐसा मुझे ही लगता है क्या कि अवनीश, कुछ बता नहीं रहे, छिपा रहे हैं या फिर, बताना नहीं चाहते कुछ भी?'' पूछा मैंने,
"आपका मानना सही है, शायद छिपा रहे हैं!" बोले वो,
"शायद, आप भी?" कहा मैंने, हँसते हुए!
"शायद नहीं, पक्का!" बोले वो,
लो जो! सीमेंट में, अब पानी मिला!
"खैर, सारी बातें बाद में, ज़रा काम की बात पूछ लेता हूँ!" कहा मैंने,
"जी" बोले वो,
"मुझे ये बताएं कि क्या शीतल उस घर में, खुश थी?" पूछा मैंने,
अब ज़रा, हुए बेचैन से वे! कुछ हिले-डुले, और देखा मुझे!
"नहीं" बोले वो,
"नहीं?" पूछा मैंने,
"जी" बोले वो,
"वजह?" पूछा मैंने,
"वजह क्या बताऊं आपको?" बोले वो,
"जो भी जानते हों?" कहा मैंने,
"मेरी तो बातें कम ही होती थीं शादी के बाद शीतल से, हाँ, मेरी पत्नी.........." बोले तो मैंने रोका उन्हें,
"क्या नाम है आपकी पत्नी का?'' पूछा मैंने,
"जी, भावना" बोले वो,
"बड़ी हैं?" पूछा मैंने,
"जी" बोले वो,
"अच्छा" कहा मैंने,
"जी" बोले वो,
"हाँ, तो आपकी बातें कम, और भावना जी की बातें ज़्यादा होती थीं, है न?" बोला मैं,
"जी" बोले वो,
"क्या भावना जी ने कुछ बताया आपको?" पूछा मैंने,
"हाँ, कभी-कभार" बोले वो,
"क्या, जैसे?'' पूछा मैंने,
"कि शीतल का घर पर झगड़ा हुआ है, वो मम्मी-पापा के पास चली गई है" बोले वो,
"किस बात पर झगड़ा?" पूछा मैंने,
"जितना मैंने जाना, उसके अनुसार, रश्मि की वजह से" बोले वो,
"रश्मि, वो रोहन की पत्नी?" पूछा मैंने,
"जी" बोले वो,
"उस से भला क्या झगड़ा?" पूछा मैंने,
"अब औरतों की सौ वजह और सौ सुलह!" बोले वो,
मैं हंस पड़ा! लाख पते की बात!
"दौरानी-जेठानी?" कहा मैंने,
"कुछ और भी!" बोले वो,
"हैं?" पूछा मैंने हैरत से!
"जी!" बोले वो,
"वो क्या, और भी?" पूछ मैंने,
"बताता हूँ" बोले वो,
तभी चाय आ गई, हमने चाय के कप ले लिए, और रख लिए सामने ही!
"जी" कहा मैंने,
"दरअसल, रश्मि का स्वाभाव काफी तेज, चपल था!" बोले वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"समझ गया, बेबाक सा!" कहा मैंने,
"जी, वही" बोले वो,
"अच्छा, आगे बताइए?" कहा मैनें,
"अब, शीतल को यही लगता था कि रश्मि की वजह से, सास-ससुर के सामने, उनकी अहमियत, मतलब, अवनीश और खुद शीतल की, कुछ कम हुए जा रही है!" बोले वो,
"अहमियत?" पूछा मैंने,
"जी" बोले वो,
"कैसी अहमियत? दोनों ही बहुएं तो बराबर ही हुईं न?" बोले वो,
"हाँ, देखा जाए तो!" बोले वो,
"समझा नहीं?" कहा मैंने,
"बता रहा हूँ" बोले वो,
चाय की चुस्की ली हमने फिर, रखे कप और मैंने लगाए कान उन पर!
"एक बात बताइए?" कहा मैंने,
"हुक़्म कीजिये?' बोले वो,
"ऐसा अक्सर होता है, अक्सर ही, मैं ये जानना चाहता हूँ कि, उनके पिता जी का रुझान, मतलब प्रेम, लाड़, किसकी तरफ ज़्यादा था?" पूछा मैंने,
कुछ सोचा उन्होंने!
"ज़्यादा वक़्त हुआ नहीं, हाँ, जितना देखा, जाना, जान सका, तो लगा कि उनके पिता जी का रुझान, रोहन के लिए ज़्यादा ही था!" बोले वो,
"और ऐसा, भला किसलिए?'' पूछा मैंने,
"शायद, रोहन अधिक पढ़ा-लिखा था, या, उसने, अपने माँ-बाप की मर्ज़ी से ही शादी की थी!" बोले वो,
इशारे इशारे में बहुत कुछ कह गए वो! अब समझ रहा था मैं, शीतल के मन में चलता हुआ गुबार! उसे कहीं न कहीं 'घटाव' दीख रहा था! जो शायद, भविष्य में, ज़रूर ही होता! लेकिन अभी इतनी जल्दी, इस फैसले पर पहुंचना भी ठीक नहीं था, अभी तो शक-ओ-शुबह की लकड़ी पर मेरी सोच का रंदा ही चला था, न रंग ही निकला था और न ही गंध ही उठी थी!
"एक बात और?'' पूछा मैंने,
"जी?" बोले वो,
"आपके हिसाब से, शीतल का स्वाभाव, किस प्रकार का था?" पूछा मैंने,
"मतलब?" बोले वो,
"मतलब कि, वो जज़्ब करती थी सबकुछ या फिर खुलकर विरोध किया करती थी?" पूछा मैंने,
"जज़्ब करना तो कभी नहीं सीखा उसने! खुलकर विरोध करना ही सीखा था उसने, यही स्वाभाव था उसका!" बोले वो,
हाँ! अब दिखा रंग! अब आया नज़र, वो रंग!
मुझे ऐसा ही लगा था! मैं जैसे, अब झाँक रहा था उस शीतल की गुजरी ज़िंदगी में! अब कुछ और सवाल फुदके दिमाग में! मेंढक की तरह! मचाएं टर्र-टर्र!
"अवनीश के पिता का नाम क्या है?" पूछा मैंने,
"विष्णु लाल" बोले वो,
"माता जी का?' पूछा मैंने,
"लक्ष्मी देवी" बोले वो,
"किसी और रिश्तेदार की घर में पैठ?" पूछा मैंने,
"अवनीश की मामी की" बोले वो,
"उनका क्या नाम?" पूछा मैंने,
"नाम नहीं पता, सभी पूजा मामी भी बोलते थे उसे" बोले वो,
"पूजा ही होगा" कहा मैंने,
"हो शायद" बोले वो,
"मामा नहीं हैं?" पूछा मैंने,
"नहीं जी" बोले वो,
"आप मिले हो, इस पूजा मामी से?" पूछा मैंने,
"हाँ, घर पर, तीज-त्यौहार पर!" बोले वो,
"कहाँ रहती है ये पूजा मामी?" पूछा मैंने,
"मेरठ" बोले वो,
"अच्छा" कहा मैंने,
"किस मिजाज़ की है?" पूछा मैंने,
"ठीक-ठाक ही?" बोले वो,
"और किसके साथ ज़्यादा पैठ?" पूछा मैंने,
"सभी के साथ ही.." बोले वो,
"शीतल के साथ?" पूछा मैंने, उनकी बात काटते हुए,
"कुछ ज़्यादा ही!" बोले वो,
ये! समझा मैं! अब उठी गंध!
तो साहब, एक एक करके, मैं अपनी सोच की गुल्लक में, एक एक किरदार, धरे जा रहा था! मुझे अब कुछ ज़्यादा ही दिलचस्पी होने लगी थी इस मामले में!
"समझा!" कहा मैंने,
"हूँ" बोले वो,
अब तक, चाय खत्म हुई!
"अवनीश का व्यवसाय, अवनीश का ही जमाया हुआ है या था?' पूछा मैंने,
"पिता का है व्यवसाय" बोले वो,
एक और दरक!
"अच्छा! सम्भालते अवनीश थे!" कहा मैंने,
"हाँ, लगभग!" बोले वो,
"लगभग?' पूछा मैंने,
"हाँ, शादी के बाद से, रोहन भी बैठने लगा था!" बोले वो,
ओहो! धुंध हटने लगी! दिखने लगा अब कुछ मद्धम मद्धम!
"समझ गया!" कहा मैंने,


   
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श्रीशः उपदंडक
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अब तक, मैं अपने दिमाग में उपजे, सवालों के सरकंडों के बीच आ खड़ा हुआ था, कुछ टूट गए थे और कुछ अभी भी ज़मीन, गहरी पकड़े बैठे थे! एक बात तो थी, मुझे उस घर में जाकर, एक बार देखना था, कि वहाँ किसी की मौजूदगी है भी या नहीं? सबकुछ गोल-गोल चकरघिन्नी की तरह से अभी भी घूमे ही जा रहा था! सोच का काँटा कहीं फंसकर, रुक ही नहीं पा रहा था! अचानक ही, दिमाग में एक अहम सा सवाल कौंधा! और यकबयक मैंने उसे जुबां पर लाते हुए, मुंह से बाहर निकाल ही दिया!
"नरेश जी?" बोला मैं,
"जी?" कहा उन्होंने,
"जिस शाम, वो हादसा, वो सिलिंडर वाला हादसा पेश हुआ, आप अपने घर पर ही थे?'' पूछा मैंने,
"जी?" बोले वो,
"और भावना जी?" पूछ मैंने,
"वो भी?'' बोले वो,
"आपका घर, अबनीश जी के पास ही है या कुछ दूर?" पूछा मैंने,
"करीब पंद्रह मिनट ही लगते हैं" बोले वो,
"तो जैसे ही आपको खबर लगी होगी, आप दौड़ लिए होंगे?" कहा मैंने,
"जी, ठीक वैसे ही" बोले वो,
"जब आप वहां पहुंचे, तो सबसे पहले आपने क्या देखा?" पूछ मैंने,
"जब मैं वहाँ पहुंचा, तब तक पुलिस आ चुकी थी, घर में, अफरा-तफरी मची थी, अवनीश पहुँच चुके थे, रोहन भी, बहुत बुरा वक़्त था वो, सभी के होश उड़े थे उस शाम तो!" बोले वो,
"क्या बजा होगा?" पूछा मैंने,
"कोई पौने सात?" बोले वो,
वैसे समय मेरे लिए यहां मायने नहीं रखता था! मुझे सिर्फ शीतल के बारे में जानना ही मायने रखता था उस वक़्त, कम से कम!
"क्या आपने शीतल की लाश देखी थी?" पूछ मैंने,
"जी" बोले वो, और उठ गए, टहले और फिर बैठ गए,
"क्या पहना था उसने उस शाम?" पूछा मैंने,
"गाउन, फ़िरोज़ी रंग का" बोले वो,
"पूरा मंजर बताएंगे?" पूछा मैंने,
"पूरा?" बोले वो,
"मतलब लाशों का, उन दो लाशों का" कहा मैंने,
"ओह.....बहुत बुरा मंजर था वो" बोले वो,
"शीतल. औंधे मुंह पड़ी थी, उसकी बायीं, पसलियां, बाहर आ कर खुल गईं थीं, शायद, जिगर भी बाहर आ गया था, टुकड़ों में था, तिल्ली, उधड़ गई थी, दिल, कहाँ था? शायद, अंदर ही रह गया था, चम्म्च और कांटे, घुस गए थे गर्दन में, टांगों का मांस, उधड़ चुका था, एक हाथ, कलाई से उखड़ गया था, बाल जल गए थे, गाउन में आग लग गई थी, कपड़े के नाम पर, बस, अंदरूनी कपड़े ही बचे थे, कोई देखता, तो उसको पहचान न सकता था, आँखें, जैसे गायब हो गई थीं, खून जल चुका था, सर न फटा था, हाँ, चौरस सा हो गया था................" इतना बोल, चुप हुए वो,
"सर, शायद, सामने दीवार से टकराया होगा, इसी वजह से, फटा तो नहीं, हाँ, चौरस हो गया होगा, हड्डी टूट गई होगी खोपड़ी की...." कहा मैंने,
"हाँ, कुछ ऐसा ही" बोले वो,
"और वो नॉटी?'' पूछा मैंने,
"बेचारा..........................बच्चा..." बोले वो,
"क्या हुआ था?" पूछा मैंने,
"वो अपने वॉकर समेत, दो टुकड़े हो गया था.............." बोले वो,
"ओह...." निकला मेरे मुंह से...
"बच्चा" बोले वो,
"बहुत बुरा हुआ..." कहा मैंने,
"हाँ, बहुत ही बुरा" बोले वो,
"पहचान में आ रहा था नॉटी?" पूछा
 मैंने,
"नहीं" बोले वो,
"क्यों?" पूछा मैंने,
"शायद, जब, शीतल उस धमाके में उड़ी हो, तो सामने नॉटी ही होगा, वो इस तरह से पिचका था कि चार फ़ीट तक, उसका शरीर फ़ैल गया था, बुरी तरह से जल रहा था बच्चा, सिर्फ सर की कुछ हड्डी और ठुड्डी ही बची थी....नॉटी के नाम पर..." बोले वो,
"ओ भगवान!" बोले कपूर साहब,
"बहुत ही ख़ौफ़नाक मंजर था वो" बोले नरेश जी,
"रहा होगा" कहा मैंने,
"दुश्मन भी न देखे ऐसे दिन" बोले वो,
"हाँ, नरेश जी" कहा मैंने,
"पुलिस की क्या जांच रही?" पूछा मैंने,
"वही, हादसा!" कहा उन्होंने,
"समझा" कहा मैंने,
"अब चलूँगा मैं, मेरा जी सही नहीं, कल आ जाऊँगा" बोले वो,
"हाँ, ज़रूर" बोला मैं,
उन्होंने विदा ली, और कपूर साहब के साथ, लौट गए वो, और मैं हुआ थोड़ा परेशान, वो बच्चा बेचारा, बलि ही चढ़ गया! बे-क़ुसूर!
बाहर आवाज़ हुई, मैं उठ कर चला...एक साधिका आई थी,
"आओ वनि!" कहा मैंने,
"कहाँ हो?" बोली वो,
"यहीं हूँ? क्या हुआ?" पूछ मैंने,
"यहीं तो नहीं हो!" बोली वो,
मैं मुस्कुरा पड़ा, स्त्री, चाहे लाख जतन करें, कि नहीं, नहीं, नहीं करना विरोध, किसी न किसी रूप में, उजागर कर ही देती है!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"अब क्या हुआ वनि?" पूछा मैंने,
"चलो, फुरसत तो मिली!" बोली वो,
"कैसी फुरसत?" पूछा मैंने,
"पूछने की!" बोली वो,
"आओ, बैठो पहले!" कहा मैंने,
आई अंदर, पाँव पटकते हुए और बैठ गई! वनि बहुत ही अच्छी और समझदार साधिका है! हालांकि मेरे साथ कभी किसी क्रिया में नहीं बैठी, न ही किसी आयोजन आदि में, बस उस से जान-पहचान, किसी पहाड़ी क्षेत्र में, अचानक से ही हो गई थी! सच पूछिए, तो चुलबुली, नटखट और हाजिरजवाब है वनि! यहां आये हुए उसको दो दिन बीते थे, और अफ़सोस ये कि मैं उसको अभी तक समय न दे सका था! बस नमस्ते और वही पुराने से शब्द, कि कैसी हो, आदि आदि!
"अरे गलती हो गई वनि!" कहा मैंने,
"वैसे आप व्यस्त कहाँ हैं?" पूछा उसने,
तो मैंने उसको, कुछ टुकड़े, इस शीतल की कहानी के सुना दिए, गौर से सुना उसने! और कुछ राय-मशविरा भी दिया!
"लगता है, कि रोहन की मौत के पीछे, इसी शीतल का हाथ है!" बोली वो,
"मायने उसकी रूह?" कहा मैंने,
"हाँ, रूह!" बोली वो,
"लेकिन, बिन देखे, जाए, कैसे कह दूँ?" कहा मैंने,
"यही होगा!" बोली वो,
"वैसे वनि, तुम कब तक हो यहां पर, और अम्मा भी यहीं है क्या?" पूछा मैंने,
"हाँ, सोच रही हूँ, कल या परसों लौट जाऊं, काफी काम हैं" बोली वो,
"अगर कहूं तो रुक जाओगी?" पूछा मैंने,
"आप कहोगे?" बोली वो,
"हाँ?" कहा मैंने,
"वैसे, किसलिए?" पूछ लिया उसने,
"सोच रहा हूँ, शीतल की इस कहने में, एक से भले दो!" कहा मैंने,
"अच्छा?" बोली वो,
"हाँ, देखो तो सही?" कहा मैंने,
"मैं नहीं आती-जाती कहीं वैसे!" बोली वो,
"मेरे साथ तो?'' पूछा मैंने,
"ठीक!" बोली वो,
अब पता तो था ही, कि न वो मना करेगी और न ही उसको इतनी जल्दी ही यहां से जाना था! वो पानी में पत्थर मार रही थी और मैं बस गिने जा रहा था! सो गिन ही लिए!
"घर जाओगे उधर?" पूछा उसने,
"शीतल के?'' पूछा मैंने,
"हाँ?" बोली वो,
"हाँ, जाना तो पड़ेगा!" कहा मैंने,
"कब?" पूछा उसने,
"बात करूंगा कल, फिर बताता हूँ!" कहा मैंने,
"ठीक!" बोली वो,
"अम्मा से बात कर लेना!" कहा मैंने,
"हाँ" बोली वो,
"ठीक है!" कहा मैंने,
"आउंगी फिर, शाम को यहीं हो?" बोली वो,
"हाँ, यहीं हूँ" कहा मैंने,
"अच्छा, आती हूँ फिर!" बोली वो,
"ठीक!" कहा मैंने,
अब वनि में सामर्थ्य था या नहीं, मुझे नहीं पता था, और मुझे कुछ करना भी नहीं था, साथ रहती तो उसकी शिकायत भी खत्म हो जाती और मेरा वक़्त भी कट जाता!
अगले दिन...
मैंने अवनीश से बात की, और अवनीश से कहा, कि कल, यानि शनिवार को वो घर पर ही मिलें हमें, हम, आ रहे हैं, एक बार घर का मुआयना ही कर लिया जाए, हो सकता है, कोई नयी दिशा मिल जाए! तो उन्होंने हाँ कर दी!
अगले ही दिन....
मैं, वनि और कपूर साहब, तैयार हो गए थे, नरेश जी लेने आ गए थे, तो हाँ-हूँ हुई, नमस्ते आदि और हम, चल पड़े अवनीश जी के घर की तरफ! करीब डेढ़ घंटे में पहुंचना हुआ हमारा! घर काफी बड़ा था, आसपास भी, बड़े बड़े ही मकान थे! रास्ता भी काफी चौड़ा था और उनका ये घर, 'एल' टाइप था! हम जैसे ही अंदर घुसने को हुए, कि एक जली हुई गंध, एक झोंका उसका मेरे नथुनों से टकराया! वो जैसे आया था, वैसे ही चला गया! साफ़ था, और किसी को वो गंध नहीं आने पायी थी! अब यहां से मुझे एक नयी ही दिशा मिली! जैसा मुझे शक था, वो अब कुछ कुछ यकीन में तब्दील होते हुए दिखने लगा! बाहर ही चले आये अवनीश जी, दरवाज़ा खोला और हमें अंदर ले आये! जैसे ही अंदर घुसे, फिर से एक तेज गंध मेरे नथुनों में समाई! ये भी जले की सी गंध सी थी!
"आइये गुरु जी!" बोले वो,
"जी!" कहा मैंने,
और हम, तीनों ही बैठ गए!
बड़ा ही सामान्य सा कमरा था वो, कुछ पपड़ी भी उधड़ आई थी, छत पर, जो पी-ओ-पी का काम था, अब बदरंग हो गया था, कोई रख-रखाव हो रहा हो, नहीं लगता था!
"आया जी मैं!" बोले वो, और चले बाहर,
"कोई बात नहीं!" कहा मैंने,
अब मैंने आसपास देखा, उजाड़खाना सा था वो कमरा तो! जैसे, कमरा बूढ़ा हो गया हो! तभी पानी का जग ले आये वे! दिए गिलास हमें! हमने लिए और पानी पिया! फिर वे भी बैठ गए वहीँ!
"यही है वो मकान?" पूछा मैंने,
"जी, यही है" बोले वो,
"ये आपका कमरा था?" पूछा मैंने,
"नहीं जी" बोले वो,
"फिर?" पूछा मैंने,
"ये तब खाली था!" बोले वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"अभी दिखा देता हूँ घर" बोले वो,
"आओ फिर?" कहा मैंने,
"वो माँ-पिता जी आ रहे हैं" बोले वो,
"अरे उन्हें क्यों तंग किया?" पूछ मैंने,
"कैसे तंग जी!" बोले वो,
और कुछ ही देर में, उनके माँ-पिता जी, आये कमरे में, चेहरों पर, शिकन, झुर्रियां और चिंताएं, ये मिला था बुढ़ापे में उन्हें!


   
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श्रीशः उपदंडक
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अवनीश जी के माँ-पिता जी से बातें हुईं, आभास ही नहीं, यकीन था कि वे अंदर से, टूटे हुए हैं, उनका व्यवसाय चौपट हो चला था, चलो व्यवसाय तो देखा जाए, फिर से खड़ा किया जा सकता है रूपये का पहाड़, लेकिन जो उन्होंने खोया था, उसकी भरपाई बेहद मुश्किल ही नहीं, ना-मुमकिन ही थी, एक प्यारा सा पोता और खुद उनका छोटा बेटा रोहन! मुझे दुःख था, सच में ही दुःख था, लेकिन मैं कर क्या सकता था भला, कुछ भी तो नहीं, हाँ, बस, कुछ कान और ले आया था, उनकी वो घटना सुनने के लिए, कुछ अफ़सोसज़दा अलफ़ाज़ कहने को, बस, महज़ इतना ही!
"चाय तो चलेगी?" पूछा नरेश जी ने,
"अरे नहीं जी!" कहा मैंने,
"कोई तकलीफ गुरु जी?" बोले नरेश जी,
"कैसी तकलीफ!" कहा मैंने, हल्का सा मुस्कुराते हुए
अब आवाज़ दी अवनीश ने, किसी महिला को, वो कामवाली थी, उसको चाय के लिए कह दिया, वो, महिला, हुक़्म बजा, चली गई वहां से!
"आइये" बोले अवनीश जी,
"जी" कहा मैंने,
"आओ वनि!" कहा मैंने,
वनि ने हाथ बढ़ाया और मैंने हाथ पकड़ कर, उठा लिया उसे, और हम, चल पड़े बाहर! सबसे पहले आये बाहर, दालान की तरफ! यहां बिगुल-बेलिया की झाड़ियां लगी थीं, प्याजी, सफेद और चटख लाल फूल खिले थे, बेहद ही शानदार! चार अशोक के, बड़े बड़े पेड़, कुछ और फूलों के पौधे और कुछ, ग्वार-पाठे के कुंदक! वहीँ, लोहे के दो बड़े पाइप लगे थे, उसमे एक झूला लगा था, झूला, काफी पुराना सा लग रहा था, लोहा गलने को था और एलुमीनियम, अब कमज़ोर हो चला था!
"यही है वो झूला!" बोले अवनीश जी,
"कौन सा?" पूछा मैंने,
"जो पिता जी ने, दो रात, हिलते हुए देखा था!" बोले वो,
"ओ! ज़रा पिता जी को बुलाइये, अगर आ सकें तो, नहीं तो हम चलते हैं!" बोला मैं,
"चलना पड़ेगा, पिता जी को, गठिया की दिक्कत है!" बोले वो,
"अच्छा अच्छा, चलिए फिर!" कहा मैंने,
"हाँ, आइये" बोले वो,
और हम, वापिस हुए, घर के अंदर के लिए, जैसे ही घुसे, फिर से एक तेज जले का सा झोंका सा मेरे नथुनों में समय, इस बार ये, जले हुए मांस का था, मैं रुक गया! आसपास देखा, ऊपर-नीचे. दाएं-बाएं, कुछ नहीं था, कहीं भी! अब तो ये साफ़ था, कि कोई हो, न हो, मैं ज़रूर ही किसी की निगाह में था! कोई निगाह में बांधे था मुझे, धरी जा रही थी नज़र मुझ पर! ऐसा लग्न कोई नयी बात नहीं, कोई भी प्रेतात्मा, ये नहीं चाहती कि उसको, उसकी मर्ज़ी या मंसूबे के रास्ते से हटाया जाए, या तंग किया जाए, वो विरोध करती हैं, ये विरोध, छोटे से बड़ा, होता चला जाता है और अंजाम, तब, खतरनाक ही हुआ करता है!
खैर, हम अंदर गए, अवनीश जी ले कर गए थे हमें, कपूर साहब भी साथ ही बने हुए थे हमारे, हाँ, वनि कुछ असहज थी, बार बार, इधर-उधर देखती थी, मैं गौर से उसको ही देखने लगता था, इसीलिए तो लाया था मैं उसे!
"आइये, बैठिए!" बोले अवनीश जी,
मैं बैठ गया, कपूर साहब भी, लेकिन वनि नहीं! ये बड़ी ही अजीब सी बात थी! वो खिड़की तक चली गई थी, और बाहर झाँकने लगी थी, कभी कभी, मुझे देख लेती!
"पिता जी, ये कुछ पूछना चाहते हैं" बोले अवनीश जी, अपने पिता जी से,
उन्होंने सर हिलाकर, हाँ कह दी,
"आपको ज़्यादा तंग नहीं करूंगा पिता जी, बस ये ही जानना चाहता हूँ कि, आपने क्या उस झूले को, हिलते हुए देखा था? रात में?" पूछा मैंने,
"हाँ, दो रात" बोले वो,
"कितने बजे?" पूछा मैंने,
"कोई दो बजे" बोले वो,
"आप जाग रहे थे?" पूछा मैंने,
"नींद नहीं आती" बोले वो,
"हम्म, अच्छा, तो आपने जाकर देखा था?" पूछा मैंने,
"हाँ" बोले वो,
"कोई था वहाँ?" पूछा मैंने,
"नहीं" बोले वो,
"कोई कुत्ता, बिल्ली या गिलहरी?" पूछा मैंने,
"नहीं, कोई नहीं" बोले वो,
"अच्छा, ज़ोर ज़ोर से हिल रहा था?" पूछा मैंने,
"हाँ" बोले वो,
"कहीं हवा से तो नहीं?" पूछा मैंने,
"हवा नहीं हिला सकती" बोले वो,
बात सच थी, हवा नहीं हिला सकती थी! भारी था वो झूला! तभी, वनि हटी खिड़की से और आ बैठी पास हमारे ही!
"कोई और बात?" पूछ मैंने,
अब वे चुप हुए, शायद सोच रहे थे कुछ,
"हाँ, गोमती कुछ बता रही थी" बोले वो,
"कौन गोमती?" पूछा मैंने अवनीश से,
"वो कामवाली" बोले वो,
"अच्छा, बुलाना उसे?" कहा मैंने,
"अभी" बोले वो, और चले बाहर,
कुछ ही देर में, वो पतली-दुबली सी महिला चली आई अंदर,
"आओ गोमती!" कहा मैंने,
वहीँ खड़ी हो गई वो!
"पिता जी बता रहे हैं कि कुछ देखा था तुमने इस घर में?" पूछा मैंने,
"हाँ" बोली वो,
"क्या?'' पूछा मैंने,
"धुंआ" बोली वो,
"धुआं?" मैंने अचरज से पूछा!
"हाँ" बोली वो,
"कहाँ?" पूछा मैंने,
"उधर से" बोली वो,
उसने जहाँ इशारा किया, वो था कमरे के बाहर, गैलरी में!
"कोई कमरा है?" पूछा मैंने,
"नहीं जी" बोले अवनीश जी,
"फिर?" पूछा मैंने,
"आइये" बोले वो,
"चलिए" कहा मैंने,
अब वो आगे आगे, और हम पीछे पीछे! थोड़ा सा ही आगे चले, कि फिर से वही गंध, मेरे नथुनों में इतनी ज़ोर से आई, कि मुझे धसका उठा गया! मैं हुआ कैसे करके संयत! और तब......सामने जो देखा!!!


   
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श्रीशः उपदंडक
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सामने जो देखा, तो एक दरवाज़ा था, दरवाज़ा, बंद था, उस पर एक ताला पड़ा था, ताला भी कोई छोटा-मोटा नहीं, बड़ा सा ताला, जैसे जानबूझकर, डाला गया हो, कि वो दरवाज़ा, वो कमरा बंद ही रहे!
"ये किसका कमरा है?" पूछा मैंने,
"ये कमरा नहीं है" बोले वो,
"फिर?" पूछा मैंने,
"ये रसोई है" बोले वो,
"ओह...वही रसोई?" पूछ मैंने,
"जी, वही रसोई" बोले वो,
अब घूमा मैं गोमती की तरफ, वो उसी ताले को देख रही थी, और हाँ, वनि, मेरी बाजू पकड़े, उसी दरवाज़े को देख रही थी!
"यहां से" बोली गोमती,
उसका कहने के मतलब था, इसी रसोई से, अब रसोई को बाहर से देखा तो कोई ऐसी जगह नहीं थी कि जहां से हवा भी अंदर या बाहर, आ-जा सके, रौशनदान बंद था, सील्ड था, कोई खिड़की थी नहीं, हाँ, दूसरी तरफ हो, तो मुझे पता नहीं था, लेकिन सामने वाली दीवार पर, कुछ भी न था!
"यहां कहाँ से देखा था वो धुंआ?" पूछा मैंने,
"यहां से" बोली वो,
उसने जहाँ से बताया था, उसके अनुसार, दरवाज़े की झिरी से, ये दो पाट वाला दरवाज़ा था, बीच में एक कुण्डी और कुण्डी में एक बड़ा सा ताला, मैंने ऊँगली फिरा के देखी, तो कोई ऐसी जगह नहीं पता चली!
तभी गोमती कुछ और भी बताना चाहती थी, कि अवनीश जी बात को टालने लगे! अब पता नहीं क्यों! मैंने मौक़ा न जाने दिया हाथ से और सीधा ही अवनीश जी से बातें करने लगा!
"अवनीश जी?" कहा मैंने,
"जी?" बोले वो,
"आपको यकीन नहीं होगा कि गोमती ने धुआं देखा था!" कहा मैंने,
"ऐसा कैसे मुमकिन है?" बोले वो,
"सबकुछ मुमकिन है!" कहा मैंने,
"पता नहीं जी" बोले वो, कंधे उचकाते हुए!
"ज़रा मैं गोमती से बात कर लूँ?" पूछा मैंने,
"हाँ, क्यों नहीं" बोले वो,
"गोमती?" कहा मैंने,
"जी?" बोली वो,
"यहां आओ!" कहा मैंने,
और मैं गोमती को ले, चल पड़ा बाहर की तरफ, वहां, दालान की तरफ! रुक एक जगह, आसपास देखा, कोई न था, गोमती यहां नौकरी कर रही थी, रहती भी यहीं थी, पक्ष ले इनका,  तो कोई बात अजीब नहीं थी, बस छाजन तो मुझे ही करना था!
"गोमती, वो धुआं?" पूछ मैंने,
"वहीँ से आ रहा था" बोली वो,
"पूरी बात तो बताओ?" पूछा मैंने,
"रात का वक़्त था, करीब ग्यारह बजे का, मैं ऊपर छत से कपड़े ले कर, नीचे आ रही थी, उस दिन तबीयत खराब थी मेरी, तो देर हो गई थी, नहीं तो नौ बजे तक सारा काम निबटा ही लेती हूँ" बोली वो,
"अच्छा" कहा मैंने,
"मैं जब नीचे आई, तो कुछ जले-जले की सी बदबू सी आई, सोचा, कहीं गैस पर कुछ भूल तो नहीं आई, तो भागी रसोई की तरफ!" बोली वो,
"अब रसोई दूसरी है?" पूछा मैंने,
"हाँ, बाहर की तरफ" बोली वो,
"अच्छा" कहा मैंने,
"रसोई पहुंची, तो सब ठीक था, बाहर आई, तो गैलरी में जैसे ही कदम रखा, उस बंद रसोई के दरवाज़ों के बीच से धुंआ उठते देखा, सोचा कहीं अंदर आग ही न लग रही हो, दौड़ कर, बाबू जी के पास पहुंची, उन्हें बताया, और जब उनको लेकर आई, तो कुछ न था वहाँ! मैं ही झूठी पड़ गई, कैसे यकीन दिलाती उन्हें, जबकि मैंने, वो धुंआ साफ़ साफ़ देखा था!" बोली वो,
"देखा होगा, मैं यकीन कर रहा हूँ तुम्हारा!" कहा मैंने,
ये एक मानसिक प्रहार था, छोटा लेकिन गम्भीर! सम्भव था, कुछ और जानकारी हाथ लगे मेरे!
"कुछ और?" पूछा मैंने,
"घर में कुछ भी ठीक नहीं" बोली धीरे से,
"मतलब?" पूछा मैंने,
"ज़्यादा नहीं बोल सकती, आप रश्मि दीदी से मिल लो एक बार!" बोली वो, और चल पड़ी वापिस!
रश्मि!
रोहन की बेवा! हाँ, बात तो सही थी, उसी से मुलाक़ात ज़रूरी थी अब! हो सकता है, कुछ और भी पता चले!
"हो गई बात?'' आये अवनीश जी,
"हाँ, वही सबकुछ!" कहा मैंने,
"यही तो कह रहा था मैं!" बोले वो,
"हाँ! ठीक" कहा मैंने,
"जब मैंने देखा ही नहीं, तो हाँ कैसे कह दूँ?" बोले वो,
"सही बोले आप!" कहा मैंने,
"आइये, और दिखाता हूँ" बोले वो,
"हाँ, दिखाइए!" कहा मैंने,
हम फिर से अंदर की तरफ चले, और जैसे ही चले, अचानक से, मुझे एक तेज आवाज़ सुनाई दी! जैसे कोई धमाका हुआ हो! मैं जस का तस रुक गया, चौंक कर पीछे देखा! था तो कोई नहीं, बस, गम्भीर सा हो गया था मैं!
"क्या हुआ?" बोले अवनीश जी,
अब साफ़ हुआ, कि आवाज़, सिर्फ मैंने ही सुनी थी, किसी और ने नहीं! धमाका, शायद, वही धमाका, जिसकी वजह से वो हादसा हुआ था! कोई है! कोई है जो दोहरा रहा है सभी घटनाओं को! कोई है, जो कुछ तो कहना चाहता है!
"कुछ नहीं, चलिए!" कहा मैंने और, चला अब उनके साथ, घर के अंदर!


   
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श्रीशः उपदंडक
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हम अंदर चले आये, घर वैसे तो काफी बड़ा था, देखा जाए तो ऐसा घर दिल्ली जैसे शहर में मिलना मुश्किल ही है अब तो, अब या तो जेब कुछ ज़्यादा ही भारी हो, या फिर कोई गैबी इमदाद ही मिले! खैर, पुराने, सस्ते-मंदे ज़माने में, विष्णु बाबू ने, ये मकान खरीद लिया था, ज़मीन खरीदी होगी और बाद में, बनवा लिया होगा, एक वक़्त में, ये घर, चहकता रहा होगा, और आज, मकड़ियों का, दीमकों का स्वर्ग बन चुका था, पिछले तीन-चार बरसों में ही घोर बुढ़ापे ने आ घेरा था इसे!
"ये है जी वो कमरा!" बोले वो,
"मतलब आपका?" कहा मैंने,
"हाँ जी, मेरा!" बोले वो,
"शीतल वाला ना?" पूछा मैंने,
"हाँ जी" बोले वो,
"अंदर चलें?" कहा मैंने,
"हाँ हाँ, क्यों नहीं?" बोले वो,
और हम, अंदर चले आये! काफी बड़ा कमरा था वो! अलमारियाँ बनी थीं, शानदार सी खिड़की थी, पर्दे नहीं थे, अब नीले रंग के शीशे ही, पर्दों का काम कर रहे थे! एक वक़्त में, ये कमरा, चहकता होगा, शीतल की कलाइयों में पड़ी चूड़ियों की खनक से! उस नॉटी की किलकारियों से! लेकिन आज, जज़्ब किये बैठे था वो, उसकी दीवारें, वो चहक, वो खनक और वो मासूम सी किलकारियां! ये सब वक़्त की चाल है! उजाड़ को कब बाग़ और कब बाग़ को उजाड़ बना दे, ये बस, उसी के हाथ में है! उस वक़्त का बाग़, आज उजाड़ हो गया था! हम सब तो, बस प्यादे हैं, जो आगे चलते हैं, पीछे भी नहीं हो सकते! एक प्यादे के न जाने कितने दुश्मन! कहाँ कहाँ बचोगे! कभी मज़बूरी का ऊँट मारेगा, कभी गरीबी का हाथी! कभी सितम का घोड़ा और कभी ज़िंदगी का वज़ीर! मज़बूरी, गरीबी, सितम! यही तो हैं इस ज़िंदगी के हिस्से! ख़ुशी क्या है, पल दो पल का बस सुकून! और कुछ नहीं! तो इस कमरे में, हाथी, घोड़ा, ऊँट और वज़ीर, सब खुलकर खेले थे अपना अपना खेल! खैर........खेल, खेल जा चुका था और बिसात अब उठ भी गई थी! रह गए थे, तो कुछ निशान! कुछ निशान जो शायद, कुछ बयान करना चाहते थे, किसी की लालसा के ज़रिये! लालसा, जलसी से इस अलफ़ाज़ पर नहीं पहुंचना चाहूंगा, ठहरना, अभी ठीक ही रहेगा! कम अज कम, इस सिलसिले में तो!
मैं, उस कमरे की, ख़ौफ़नाक तन्हाई से बाहर आया, आया तब, जब, मेरी कलाई, रगड़ी वनि की कलाई से, उसके रोंगटे से खड़े थे, इसीलिए उस छुअन से मैं बाहर आया!
"आइये बाहर!" कहा मैंने,
"हाँ" बोले अवनीश जी,
जब हम चले बाहर, तो फिर से एक आवाज़ आई! ये आवाज़ सबसे अलग थी! ये आवाज़, किसी बालक के वॉकर में लगे, छल्लों के बजने की सी थी! अब तो थूक गटक लिया मैंने! गटका, किस जो मामला मैं, इतना सीधा और साफ़ सोच रहा था, वो साफ़ नहीं था, सीधा तो हरगिज़ नहीं! ये वॉकर किसका था? घर में तो कोई उस वक़्त, बालक ही नहीं था? था तो बस, नॉटी, निवि तो अपने पांवों पर चल निकली थी?
तो क्या...........??
मैं जा रुका, थोड़ा सा पीछे जाते हुए, सामने ही वो रसोई थी! न जाने क्यों, मेरा मन हुआ, उस रसोई को देखने का! क्यों लगा की कुछ है वहां! कोई है!
"अवनीश जी?" कहा मैंने,
"जी?" बोले वो,
"क्या ये ताला, खुल सकता है?" पूछ मैंने,
ओहो!
ये मैंने क्या पूछा! क्या खोलने को पूछा! अवनीश जी के तो चेहरे का रंग ही उड़ गया! जैसे, उस कमरे में, उनकी ज़िंदगी ही क़ैद हो! जो, कमरा खुलते ही, वो रसोई खुलते ही, फुर्र से उड़ जायेगी! कुछ बोल न सके वो! अचानक से, उस ताले को देखते रहे!
"अवनीश जी?" मैंने उनके कंधे पर हाथ रखते हुए कहा,
"ज...जी?" बोले वो,
"क्या मैं देख सकता हूँ, अंदर?" पूछा मैंने,
"ह...हाँ, लाया चाबी, रुकिए" बोले वो, और दौड़ से पड़े वो!
"इसे क्या हुआ?" बोले कपूर साहब,
"समझिए आप?" कहा मैंने,
"हम्म" बोले वो,
"पुराने सफ़े हैं, कहीं उड़ न जाएँ, वक़्त की किताब से!" कहा मैंने,
"यही लगता है!" बोले वो,
कुछ मिनट बीते, और अवनीश जी, एक चाबी ले आये, मुझे दी, मैंने पकड़ ली!
"आप देखिये, और क्षमा चाहूंगा, मैं नहीं जाता अंदर" बोले वो, और वापिस हो लिए! समझ सकता था मैं, कैसा बोझ पड़ता है दिल पर, जब अपना ही कोई, गया हुआ, ख्यालों में, फिर से ज़िंदा हो जाता है! न पकड़ ही सको! न बतिया ही सको! न कह ही सको! न समझा ही सको! समझ सकता हूँ! ठीक वही, महसूस हुआ होगा उन्हें, उस लम्हे! वे लौट गए और चाबी, मेरे हाथों में ही रही!
मैंने तब, उस धूल खाये हुए ताले में, लगाई चाबी! घुमाया!
"खट्टक!" आवाज़ आई!
मैंने ताला खोल दिया था, और अब, सांकल से अलग किया, लिया हाथ में अपने, दरवाज़ा को हल्का सा धक्का दिया, दरवाज़ा ज़िद्दी! एक बार, दो बार, नहीं खुला! गौर से देखा, कुछ नहीं अटका था! और तीसरी बार, जैसे ही धक्का देना चाह, बायां दरवाज़ा, हटा अपनी जगह से, न कोई आवाज़, न कोई चर्र-चर्र! अंदर झाँका मैंने, अँधेरा था! दूसरा खोला, खुल गया, अंदर, सूरज की रौशनी खेल रही थी, दाएं से, एक रौशनदान था, हरे रंग के कांच वाला, तीन, चौरस टुकड़े, हट चुके थे, वहीँ से, धूप ने रास्ता बनाया था अपना! तब मैंने...


   
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"वनि, कपूर साहब, आप ज़रा बाहर ही रहना!" कहा मैंने,
"हूँ" बोली वनि!
"ठीक" कहा कपूर साहब ने,
और तब मैंने, अपने सेलफोन की टोर्च जला ली, अंदर अँधेरा था, धूप जहाँ पर पड़ रही थी, वहीँ और उस तक ही उजाला था! तो मैं अंदर गया! ज़मीन पर मिट्टी जम गई थी, गुबार सा उठा मिट्टी का! पता नहीं, कब से, ये रसोई बंद ही पड़ी थी! मैंने आसपास, रौशनी मारी! और एक जगह, सामने जैसे ही रौशनी मारी, मेरे पाँव जहां के तहां ही रुक गए! मुझे पल भर को लगा था कि सामने, कोई बालक, सामने की अलमारी के कुन्दे से लटका हुआ है! दुबारा रौशनी मारी, तो कोई नहीं!
मैं चला वहीँ तक, वहां दीवार में, लकड़ी की अलमारी बनी थी! पीछे देखा, तो पीछे, रसोई की स्लैब बनी थी, इसका मतलब, वहाँ, कोई कामचलाऊ ही रसोई की व्यवस्था की गई होगी, ये पहले कोई कमरा या स्टोररूम ही रहा होगा! अलमारी के दरवाज़े बंद थे, उनको थामने के लिए, चुंबक के गुटके इस्तेमाल किये गए थे, कुन्दे अभी तक सही-सलामत थे, मैंने नीचे वाली अलमारी के एक कुन्दे को झटका दिया, तो खुल गया वो, रौशनी मारी अंदर, तो कुछ नहीं था, मकड़ी के जाले और छिपकली के टूटे अंडे ही पड़े थे! दरवाज़ा बंद कर दिया मैंने तभी, और ऊपर की अलमारी खोलने लगा, जैसे ही कुंदा पकड़ा, पीछे से, एक आवाज़ गूंजी! जैसे सिलिंडर लीक कर रहा हो! ये आवाज़, बस कोई सेकंड, दो सेकंड के लिए ही आई थी, लेकिन हवा में, उस रसोई की, एल.पी.जी. गैस की तेज गंध घुल गई थी! अब मेरा शक, यकीन में बदल चुका था! शक की दीवार, ढह गई थी, अब यक़ीन की ज़मीन, साफ़ नज़र आने लगी थी! वो शीतल, जो इस दुनिया से चली गई थी, वापिस लौटी थी! जिस्म न था, लेकिन रूह, उसकी लौट आई थी! या फिर, शीतल, कहीं गई ही नहीं थी! वो, शुरू से, उस लम्हे से, यहीं थी! मैंने अभी उसी जगह देख रहा था, जहाँ से आवाज़ आई थी, कि मेरे घुटने पर, किसी बालक का नरम सा हाथ टकराया! जैसे किसी बालक ने, मेरी पैंट को पकड़ा हो! बेहद ही गरम एहसास था उस छुअन का! मैंने झट से उधर देखा! कोई नहीं था! लेकिन! था! शायद, शीतल ने, उस नॉटी को जाने नहीं दिया था! अक्सर, छोटे बालकों की रूह, खुद-ब-खुद, 'मुक्त' हो जाती है, या लौट जाती है, लेकिन कोई उसको रोकना चाहे, तो रुक सकती है वो! और ये नॉटी, ये नॉटी तो उसके जिस्म का ही हिस्सा था! उसका खून! उसका प्याराआ बेटा!
उस वक़्त, कोई हल्के दिल वाला, कमज़ोर दिल वाला या दिल का मरीज़, वहां रहा होता, तो सीधा ही इमरजेंसी की गुहार लगा देता, या फिर, कुछ ही कर जाता इस जहान से! मैंने, ऊपर वाला दरवाज़ा खोला! अंदर, एक तस्वीर चिपकी थी! मिट्टी जम चुकी थी उस तस्वीर पर! मैंने, हाथ से वो मिट्टी हटाई! एक शक़्ल नुमाया हुई! ये किसी औरत की तस्वीर थी, अब बदरंग थी वो तस्वीर, बता पाना मुश्किल था कि वो किस उम्र की रही होगी, शायद, अधेड़ ही रही हो, कौन है, नहीं किया गौर मैंने! और कर दिया दरवाज़ा बंद फिर से! जैसे ही बंद किया, मेरी नज़र, मुझ से चार फ़ीट दूर, बाएं हाथ पर गई! एक ड्रा'अर खुल गया था! करीब दो फ़ीट का वो ड्रा'अर, डेढ़ फ़ीट बाहर आ गया था! मैं चला उस तरफ! आया ड्रा'अर तक, अंदर रौशनी डाली, कुछ रखा मिला! गौर से, देखा, सर झुका कर, ऊपर से, खड़खड़ हुई! मेरा ध्यान चूका, ऊपर देखा, रौशनदान से कबूतर एक, रगड़ कर, आ बैठा था! अभी मैं कबूतर को ही देख रहा था कि उस ड्रा'अर की बाहरी दीवार से, कुछ, अंदर, आ टकराया! मैंने फिर से रौशनी डाली उस पर! पहली नज़र में, वो मुझे, कोई परफ्यूम की सी शीशी लगी! लेकिन, न नाम था कोई, न कोई निशान! मैंने जेब से रुमाल निकाला अपना, और उस शीशी को उठाया, अब आया समझ, ये शीशी नहीं थी, ये एक गोल सा बॉक्स था! करीब पांच इंच लम्बा और चार इंच के घेरे वाला! ये भला क्या हो सकता है? सोचा मैंने! और तब, उसको लिया हाथ में, रुमाल से पोंछा, अब नाम दिखाई दिया, 'रुख़सार' नाम लिखा था अंग्रेजी में, बड़े ही अच्छे से तरीके से! मैंने उसका ऊपर का ढक्कन खोला! अंदर, एक पेंसिल सी निकली, वो खोली, वो सिंदूर था! लेकिन, अब काला पड़ चुका था! बंद की, और रख दी, फिर दो लिपस्टिक थीं, वो खोल कर देखीं, वो भी काली, खराब पड़ चुकी थीं! मैंने, सारा वो सामान, वापिस उस बॉक्स में रख दिया, बंद किया, और उस ड्रा'अर में वापिस रख दिया, जैसे ही अंदर रखा, किसी बालक ने, मेरी छोटी ऊँगली पकड़ी हो, ऐसा लगा! मैंने झट से से रौशनी डाली उस में! ड्रा'अर में कुछ न था! हाथ अंदर डाला, तो सामने, लकड़ी की दीवार ही मिली! हाथ निकाल लिया बाहर, और कर दिया ड्रा'अर अंदर! आसपास देखा, दीवार में, कुछ निशान बने थे, शायद, धमाके से बने हों! मैंने छत को देखा, पंखा हटा दिया गया था, हाँ, जहाँ से हटाया था, वहां भी जले का ही निशान बन गया था! क़यामत बरपी थी, उस रोज यहां पर! पता चलता था ये साफ़ साफ़!
अचानक, मेरे पीछे, कुछ आवाज़ सी हुई! जैसे किसी ने एक लम्बी सी सांस भरी हो! मैं फौरन ही पलटा! चिमनी, जिसके चीथड़े उड़ गए थे, अभी तक लगी हुई थी, उसे न हटाया गया था अभी तक, उसमे भारी सा कम्पन सा हुआ! मैं दौड़ चला उधर! आसपास देखा! था कुछ भी नहीं! मैंने फिर से, रौशनी डाली! कुछ नहीं! सन्नाटा!
मैं लौटने को हुआ, और फिर रुक गया! चिमनी तक आया! क्या अजीब? क्या अजीब सा लगा था मुझे? हाँ! एक बात! जब शीतल यहां रही होगी, तो, खाना वही बनाती होगी! ठीक! बिलकुल ठीक! रसोई उसी के हवाले होगी, ये भी ठीक! रख-रखाव उसी का रहा होगा! हाँ, ये भी ठीक! तो क्या वो गैस बंद करना भूल गई थी? या फिर................ये कहीं किसी की साजिश तो नहीं? ओह! सम्भव है! लेकिन पता कैसे लगाया जाए? और शक किस पर? दो हैं, नहीं तीन! एक अवनीश, एक रोहन, जो है नहीं अब! और एक रश्मि! जो है अभी भी! तो क्या किया जाए? मिला जाए रश्मि से?


   
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श्रीशः उपदंडक
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हाँ ठीक! रश्मि से ही मिला जाए, उसी से कुछ सूत्र हाथ लगे! हो सकता है कि कोई नया ही पहलू हाथ आये, कोई कोना जो अभी तक दिखा ही न हो मुझे! उस से मिला अब ज़रूरी बन पड़ा था! मैं तब धड़धड़ाते हुए, कमरे से बाहर चला आया!
"ये लो ताला कपूर साहब, आप लगाइए और मैं आता हूँ अभी!" कहा मैंने,
"कहाँ चले?" पूछा वनि ने!
"आया अभी" कहा मैंने,
और चल दिया अवनीश जी के पास, नरेश जी, अभी तक, पूरा समय, यहीं बैठे हुए थे, मुझे देखा तो खड़े हुए!
"आइये" बोले वो,
और मैं, बैठ गया उधर!
"देख ली रसोई?" पूछा उन्होंने,
"हाँ" कहा मैंने,
"कुछ आभास हुआ?" पूछ उन्होंने,
"अभी तो नहीं कह सकता?" कहा मैंने,
"अच्छा अच्छा" बोले वो,
कुछ देर चुप्पी!
"अच्छा, अवनीश जी?" पूछा मैंने,
"जी?" बोले वो,
"क्या रश्मि से मुलाक़ात हो सकती है?" पूछा मैंने,
"हाँ, हो जायेगी" बोले वो,
बड़े ही आत्मविश्वास से बोले थे वो!
"क्या उसका आना-जाना है अभी?" पूछा मैंने,
"क्यों नहीं!" बोले वो,
"अच्छा, अच्छी बात है!" कहा मैंने,
"अच्छी लड़की है वो" बोले वो,
"अच्छा" कहा मैंने,
"जी" बोले वो,
"तो कैसे हो मुलाक़ात?" पूछा मैंने,
"कब चलना है?'' पूछा अवनीश जी ने,
"कितनी देर लगेगी?" पूछा मैंने,
"आधा घंटा!" बोले नरेश जी!
"ओ, पास ही हैं!" कहा मैंने,
"हाँ जी" बोले वो,
"कोई नौकरी या फिर घर में ही?" पूछा मैंने,
"घर में ही" बोले वो,
"अच्छा" कहा मैंने,
"बात कर लेता हूँ" बोले अवनीश जी,
और उन्होंने तब, बात की, हाल-चाल मालूम किये घर में, और फिर उद्देश्य भी बता दिया! रश्मि तैयार हो गई मिलने के लिए! मैंने जैसा मुश्किल सोचा था, ऐसा कुछ नहीं था! इसका मतलब, रश्मि का व्यवहार, सच में ही अच्छा रहा होगा! तो दौरानी-जेठानी वाली बात, कुछ अजीब सी लगने लगी थी, खैर, इतनी जल्दी भी कुछ कहना, गलत ही था, आजकल ज़माना खराब है, कौन क्या है और क्या कौन, कुछ नहीं कह सकते! किसके संबंध कैसे हैं और कैसे नहीं, नहीं समझा जा सकता, परखना आवश्यक ही होता है! मैं ये नहीं कह रहा की अवनीश और रश्मि के संबंध कुछ अनैतिक रहे हों, नहीं, ऐसा नहीं सोचा था मैंने, और अभी तक, ऐसा सोचने का कोई इरादा भी न बना था, न कोई सुबूत ही था और न ही कोई वाक़या!
तो जिस वक़्त हम चले, चार का वक़्त था! दो गाड़ियां थीं, एक अवनीश जी की, और एक नरेश जी की! मैं अवनीश जी की गाडी में बैठा था, वनि सहित और कपूर साहब, नरेश जी की गाड़ी में!
आधा घंटा तो नहीं, कुल पैंतालीस मिनट लगे, जिस क्षेत्र में हम गए, वो अभी कुछ नया सा ही था, अभी निर्माण कार्य चल ही रहा था आसपास! या तो जगह नयी ली थी, या फिर गाँव का रूप परिवर्तित होने को था!
और फिर, हम आ रुके एक बढ़िया से मकान के आगे! गाड़ी का इंजन, एक जगह, बंद कर दिया गया!
"आइये!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"ये ही है!" बोले वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
घर की घंटी बजाई गई, तो एक महिला ने दरवाज़ा खोल दिया, अवनीश जी को नमस्ते की उसने, इसका मतलब वो वाक़िफ़ रही होगी उनसे और उनका आना-जाना होता होगा वहाँ!
हम अंदर आये! और एक सुंदर सी महिला ने प्रवेश किया! अवनीश जी के, नरेश जी के. कुल मिला कर, सभी के चरण-सपर्श करने के लिए झुकी वो! मेरे पास आई, तो मैंने रोक लिया उसे! लेकिन उसको देख, मैं प्रसन्न हुआ! सुसंस्कृत परिवार से है, ये पता चला गया! षसधान भी, ठीक सम्भ्रान्त घर के ही थे! पीछे पीछे, एक बच्ची भी दौड़ आई और लिपट गई अपने ताऊ जी से! ताऊ जी ने भी गले से लगा लिया उसे उठाकर, चूमते ही रहे! वो बच्ची भी, अपने छोटे छोटे होंठों से, लगातार चूमे उन्हें! मन हर्षित हो उठा! वो दुःख जो उस घर में था, कुछ राहत की सांस ली उसने! हमें अंदर बिठाया गया! हाँ, अवनीश जी नहीं आये अंदर!
"अवनीश जी कहाँ रह गए?'' पूछा मैंने,
"उधार चुकाने!" बोले नरेश जी!
रश्मि, मुस्कुरा के रह गई और बाहर चली गई!
"कैसा उधार?" पूछा मैंने,
"अरे, निवि का!" बोले वो,
"समझा नहीं?" कहा मैंने,
"टॉफ़ी! चॉक्लेट और बिस्कुइट्स! सॉफ्ट-ड्रिंक, बड़े वाली!" बोले वो!
"ओ! अच्छा अच्छा!" कहा मैंने,
"है न उधार!" बोले वो,
"बिलकुल जी बिलकुल!" कहा मैंने,
"बड़े पापा बोलती है उन्हें!" बोले वो,
"बहुत अच्छा!" कहा मैंने,
"जी!" बोले वो!
"अच्छा लगा!" बोले कपूर साहब!
"हाँ, बहुत अच्छा!" कहा मैंने,
 

   
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श्रीशः उपदंडक
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यहां बड़ा ही अच्छा लगा था आ कर! आपसी सौहार्द देख कर, जी खुश हो गया था! तभी, अंदर आई रश्मि, पानी लायी थी, हमने पानी पिया और फिर, गिलास आदि ले वो वापिस हो गई!
"इनके माँ-पिता जी?" पूछा मैंने,
"दोनों ही हैं!" बोले वो,
"नज़र नहीं आये?'' पूछा मैंने,
"अभी पूछ लेता हूँ" बोले नरेश जी.
तभी रश्मि आ गई अंदर!
"आओ, बैठो!" बोले नरेश!
मुस्कुराते हुए, बैठ गई रश्मि!
"अरे, रश्मि?" बोले वो,
"जी?" बोली वो,
"माँ-पिता जी कहाँ हैं?" पूछा उन्होंने,
"वो सालासर गए हैं!" बोली वो,
"अच्छा! भाई बढ़िया!" बोले वो,
"और चंदन?'' बोले वो,
"भैय्या, अपने दफ्तर" बोली वो,
ओ, समझा! तभी कहूं कौन है ये चंदन! भाई है रश्मि का!
"और नेहा?" बोले वो,
"भाभी जी भी अपने दफ्तर!" बोली वो,
"अरे हाँ, लो जी, भूल गया था मैं!" बोले नरेश जी,
"चंदन इनके बड़े भाई हैं! सरकारी विभाग में हैं! और इनकी भाभी भी सरकारी नौकरी में ही हैं!" बताया नरेश जी ने!
"बहुत बढ़िया!" कहा मैंने,
अब और बातें होती रहीं, और इस तरह करीब आधे घंटे के बाद, मुझे मौक़ा मिला, रश्मि से अकेले बात करने का! वो मुझे अपने कमरे में ले आई, चाय आदि ले ही ली थी, सो अब बात हो जाए तो काम हो अपना, लौटें फिर!
"रश्मि?" कहा मैंने,
"जी गुरु जी?" बोली वो,
"मुझे कुछ बताओगी?" पूछा मैंने,
"जी" बोली वो,
"मैं सिलसिलेवार पूछूंगा!" कहा मैंने,
"जी" बोली वो,
"सबसे पहले, ये, की शीतल का और अवनीश जी के आपस में संबंध कैसे थे?" पूछा मैंने,
"मैं बीच के ही सा कहूँगी" बोली वो,
"मतलब?" पूछा मैंने,
"न मीठे, न कड़वे ही" बोली वो,
"वजह?" पूछा मैंने,
"भाई साहब ने नहीं बताई?" बोली वो,
"नहीं" कहा मैंने,
"वजह थी कि शीतल जी, रोहन से अंदर ही अंदर कुछ बैर रखती थीं" बोली वो,
"बैर? कैसा बैर?" पूछा मैंने,
"शायद, पिता जी के अधिक लाड़ के कारण?" बोली वो,
"लाड़ से क्या कारण हुआ? क्या बैर हुआ भला?" पूछा मैंने,
"व्यापार!" बोली वो,
"ओह! समझा!" कहा मैंने,
"आगे, आप समझ गए होंगे!" बोली वो,
"हाँ" कहा मैंने,
"ये सबसे बड़ी वजह थी" बोली वो,
"हम्म, और रश्मि, आप से कैसी बनती थी?" पूछा मैंने,
"बोलचाल ही बंद थी" बोली वो,
"क्या?" पूछा मैंने, हैरत से,
"हाँ, बात नहीं करती थीं मुझ से वो" बोली वो,
"अजीब सी बात है?" कहा मैंने,
"जी" बोली वो,
"जिस दिन वो हादस हुआ, उस दिन आप वहीं थे?" पूछा मैंने,
"हाँ, मंदिर गई थी मैं" बोली वो,
"अच्छा" कहा मैंने,
वो चुप, मैं चुप!
"अरे हाँ!" कहा मैंने,
"जी?" बोली वो,
"रोहन के प्रति कैसा व्यवहार था उसका?" पूछा मैंने,
"आप जान सकते हैं, कैसा होगा?" बोली वो,
"हम्म! समझ गया!" कहा मैंने,
"बात ही नहीं करती थीं वो किसी से भी!" बोली वो,
"और निवि से?" पूछा मैंने,
वो चुप हुई! आँखें छोटी हुईं! कुछ वक़्त, पीछे चली वो!
"निवि से लगाव था उन्हें!" बोली वो,
"अच्छा?" मैंने अचरज से कहा,
"हाँ, झूठ नहीं बोलूंगी" बोली वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"हाँ, निवि, अक्सर उनके ही संग रहा करती थी!" बोली वो,
"मतलब प्यार था काफी!" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
''और नॉटी के जन्म के बाद?" पूछा मैंने,
नॉटी के नाम से, चौंक गई वो! उठ गई! शायद, आँखों में आंसू आ गए थे उसके! मैं समझ सकता था!
"रश्मि?" कहा मैंने,
उसने आंसू पोंछे अपने,
"माफ़ कीजिये" बोली वो,
"कोई बात नहीं" कहा मैंने,
"हाँ, नॉटी के जन्म के बाद, जैसे प्यार और बढ़ गया था उनका निवि के लिए!" बोली वो!
"मातृत्व!" कहा मैंने,
"जी!" बोली वो,
"निवि, सारा दिन वहीं रहती! खाती! पीती! और तो और, नहाती और सोती भी संग उनके!" बोली वो, मुस्कुरा कर!
इसका मतलब, शीतल का दिल भी मृदु ही था! लेकिन फिर ऐसी क्या वजह थी? जिसके कारण, वो बातें नहीं करती थी इनसे?
क्या वजह हो सकती थी?
क्या छूट रहा था मुझ से?
कुछ न कुछ तो छूट ही रहा था, कुछ अभी भी दबा था, व्यापार की बात तो खुल कर भी की जा सकती थी, और विष्णु बाबू मुझे ऐसे आदमी भी नहीं लगे कि वे सबकुछ रोहन को ही दे जाएँ? फिर ऐसी क्या वजह थी? सर भन्नाने लगा था! मामला, गहरा और गहरा हुए जा रहा था! लेकिन अभी तक, वो दफन वजह, न नज़र आई थी!
अचानक ही...........!!


   
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श्रीशः उपदंडक
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कुछ मेरे दिमाग में कुलबुलाया! एक लम्हे को, जैसे मेरे दिमाग के मैदान से वो गुजरा हो! लेकिन मैंने उसे देखा नहीं, ये कुछ तो था, लेकिन था क्या? मैं पहचान नहीं सका था उसे, हालाँकि उसने कोई जामा नहीं पहना था!
अरे हाँ! आया याद!
"रश्मि?" पूछा मैंने,
"जी?'' बोली वो,
"ज़रा रोहन के बारे इमें बताओगी?" पूछा मैंने,
"आप पूछें?" बोली वो,
मैं कुछ सकपकाया! कुछ सवाल जाती भी हो सकते थे, और रश्मि से ये मेरी पहली ही मुलाक़ात थी, मैं हरगिज़ नहीं चाहता था कि मेरी बातों का वो औरां मतलब निकाल ले! ये सकपकाहट मेरे सवालों को छोटा और मुलायम कर सकती थी! इसीलिए. मैंने एक बार फिर से जी पर, मोटा कपड़ा लपेट लिया!
"रोहन के संबंध आपके साथ कैसे थे?" पूछा मैंने,
"बहुत ही अच्छे" बोली वो,
भाव पकड़े मैंने, सच ही कहा था उसने!
"और अवनीश के साथ?'' पूछा मैंने,
"एक छोटे भाई की तरह ही, बहुत मान करते थे वे बड़े भाई का, जैसा कहा जाता उन्हें, ठीक वैसा ही करते, भले ही, वो सलाह इन्हें नागवार ही गुजरे!" बोली वो,
इस बार भी भावों ने, गवाही दे दी उसके हक़ में ही! सच ही कहा उसने!
"क्या कभी भाइयों के बीच कोई खटपट?" पूछा मैंने,
"नहीं" बोली वो,
"हम्म, समझ गया!" कहा मैंने,
एक बात अब साफ़ होने को थी, रोहन, अच्छा इंसान था, रश्मि के साथ अच्छे संबंध थे, भाई के साथ भी अच्छे संबंध थे! अब बची वो शीतल!
"शीतल के साथ कैसी बातचीत थी रोहन की?" पूछा मैंने,
"बहुत मान करते थे वो अपनी भाभी जी का, कभी सामने नहीं आते थे, कभी कोई मौक़ा ही नहीं देते थे कि उनको कोई परेशानी हो, इनकी वजह से!" बोली वो,
अब ये सुन, दिशा ही बदली!
कोई भी गोटी कहीं न टिके!
और अब सबसे अहम बात! जो शायद, इस पूरी कहानी को एक नया ही रंग दे दे, या दिशा ही बदल दे, ये सभी आंकलन, खोखले हो जाएँ या, अभी तक जो कुआँ खोदा था, भरना पड़े और दूसरा ही खोदना पड़े!
"रोहन की मौत कैसे हुई?'' पूछा मैंने,
अब हुई वो संजीदा! उठ खड़ी हुई! सर पकड़ लिया अपने हाथों में! खिड़की तक गई, सर छोड़ा, और बाजू, बाँध लिए एक-दूसरे से! पीठ मेरी तरफ थी उसकी! मैं उसको, लगातार देख रहा था! कुछ मिनट बीते, और आँखें पोंछने के बाद, वो मुड़ी और चली आई मेरे पास ही, आ बैठी, वहीँ कुर्सी पर, इत्मीनान से तो नहीं, हाँ, कुछ बेचैनी में, मैं ये बेचैनी, भांप रहा था उसकी, उसके चेहरे से!
"ये बात आज तक किसी को समझ नहीं आई" बोली वो,
"क्या बात?" पूछा मैंने,
"किसी ने कहा कि आत्महत्या है, किसी ने कहा, एक हादसा" बोली वो,
"एक और हादसा?" पूछा मैंने,
"हाँ, एक और" बोली वो,
नहीं, वक़्त बे-रहम ज़रूर हो सकता है, लेकिन इतना भी नहीं, उस पल, यही विचार आया दिमाग में मेरे तो! शायद करोड़ों में एक आद ही हो, जिस पर, बिजली टूटे दो-दो बार!
"हुआ क्या था?" पूछा मैंने,
"ये रात का वक़्त था" बोली वो,
"कितना बजा होगा?" पूछा मैंने,
"करीब, ग्यारह" बोली वो,
"अच्छा, फिर?" पूछा मैंने,
"एक आवाज़ तो आई थी, मैं उनींदा थी उस वक़्त, लेटी थी, निवि मेरे बाएं सोई थी, लेकिन बिस्तर पर वो न थे" बोली वो,
"अच्छा" कहा मैंने,
"जी" बोली वो,
"फिर?" पूछा मैंने,
वो थोड़ा चुप सी हो गई, बाहर की, आवाज़ें सुनने लगी! मैंने इंतज़ार किया कुछ, जब बात न बन पड़ी तो टोका उसे!
"कैसी आवाज़ रश्मि?" पूछा मैंने,
वो चौंकी! खड़ी हो गई! बाहर चली! अजीब सी बात! पर्दा हटा कर, बाहर देखा, दाएं और बाएं, फिर शोर की सी सांस भरी!!
अब मैं भी खड़ा हो गया!
"रश्मि?'' बोला मैं,
न सुने वो, बाहर ही देखे!
"कोई है क्या?'' पूछा मैंने,
नहीं सुना उसने, जैसे, खो चली थी कहीं! एक हाथ से पर्दा पकड़े और एक हाथ से, दीवार थामे!
"रश्मि?" कहा मैंने,
"ह....हाँ?" बोली वो,
तब मैं आगे गया, उसके पास, साथ जा खड़ा हुआ!
"क्या हुआ?" पूछा मैंने,
उसने, मुझे देखा! चेहरा सफेद! ज़र्द से होंठ! आँखें फैली हुईं! जैसे कोई डरा कर गया हो उसे!
"क्या हुआ?" पूछा मैंने,
"आ..आपको...कुछ.....सुगंध आई?' पूछा उसने,
मैंने ज़ोर की सांस भरी! हाँ, कुछ भीनी भीनी सी! ओपियम के सेंट की सी खुश्बू, हल्की हल्की सी! ज़रूर आई!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"हाँ, आई खुश्बू!" कहा मैंने,
"यही खुशबू....यही..." बोली वो,
"बताओ? कैसी यही खुश्बू?'' पूछा मैंने,
"यही आती है यही, उस घर में मुझे!" बोली वो घर में,
"तो इस से क्या?" पूछा मैंने,
"यही खुश्बू तो लगाती थीं शीतल?" बोली वो,
"क्या?" मैंने खाया झटका!
"हाँ, यही खुश्बू!" बोली वो,
बाहर झांकते हुए!
"बाहर क्या देख रही हो बार बार?" पूछा मैंने,
"यही, कि शीतल तो नहीं यहां?" बोली वो!
ओहो! यही! यही वो पहली थी, जिसने, मेरी अनगढ़ सी शक की मूरत को, अब साँचा दिया था! जो मैं सोच रहा था, उसको हाथ मिला! रश्मि के रूप में!
"अंदर आओ?" कहा मैंने,
न बोली कुछ, हड़बड़ में थी, बार बार बाहर झांके वो!
"कोई नहीं है यहां, आओ, बैठो!" कहा मैंने,
"है! वो यहीं हैं!" बोली रश्मि!
"ऐसा कैसे सम्भव है?" पूछा मैंने,
हालांकि, मैं जानता था, कि ये सम्भव है! और ठीक वैसा ही है, जैसा मुझे लगा है और जैसा, रश्मि बोल रही है!
वो अंदर चली आई, मैं हटा और वो बैठ गई, चेहरे पर, हवाइयां उड़ी हुईं थीं, घबराहट के मारे, होंठ भी सूख चुके थे उसके!
"लो, पानी पियो रश्मि" कहा मैंने,
"नहीं" बोली वो,
मारे घबराहट के, खुल ही चुकी थी बेचारी रश्मि! उसका डर, कूंचे दे रहा था उसे! मुझे आभास हुआ, कि ये रश्मि, किसी भी 'खेल' से दूर है! या तो अंजान, या फिर ऐतबार में उसके, छेद कर दिए गए हैं!
"क्या कभी और भी महसूस की है ये खुश्बू?" पूछा मैंने,
"हाँ" बोली वो,
"कब?" पूछा मैंने,
"अक्सर" बोली वो,
"अक्सर?" मैंने हैरत से पूछा,
"हाँ, अक्सर" बोली वो,
"कैसे?" पूछा मैंने,
"खासतौर पर, निवि के करीब" बोली वो,
"क्या?" पूछा मैंने,
"हाँ" बोली वो,
"ज़रा बताओ?" पूछा मैंने,
"ऐसा अक्सर होता है, लेकिन उस रात......" बोली वो,
"किस रात?" पूछा मैंने,
बड़ा ही पेचीदा मामला होने वाला है ये, मुझे अब पता चलने लगा था!
"कोई दो महीने हो गए" बोली वो,
"तो?" कहा मैंने,
"उस रात निवि को तेज बुखार था, काफी तेज" बोली वो,
"अच्छा" कहा मैंने,
"घर में सभी परेशान थे" बोली वो,
"अच्छा" कहा मैंने,
"दिन में, बारिश में नहाई थी निवि, नहीं मानती कहना, चाहे कितना भी कह लो!" अब थोड़ा सा सहज हो कर बोली वो!
"अच्छा, बुखार था तेज?" कहा मैंने,
"हाँ" बोली वो,
"फिर?" पूछा मैंने,
"उसी दवा भी लायी गई थी, थोड़ी थोड़ी देर में, पानी मांगती थी वो, मैं पास ही थी, बैठी हुई, थोड़ा थोड़ा पानी दे देती थी उसे" बोली वो,
"फिर?'' पूछा मैंने,
"जिस वक़्त मैंने उसको आखिरी बार पानी पिलाया था, उस समय रात के कोई पौने ग्यारह बजे होंगे" बोली वो,
"कमरे में, सिर्फ आप दो ही थे?" पूछा मैंने,
"हाँ, बीच बीच में भैय्या, भाभी और माँ, आकर, पूछ लेते थे" बोली वो,
"अच्छा" कहा मैंने,
"करीब इसी वक़्त मेरी आँख लग गई" बोली वो,
"ओ, अच्छा!" कहा मैंने,
और वो हुई चुप फिर! चुपचाप! ऊपर वाले दांतों से, नीचे वाला होंठ काटे, बार बार! फिर जीभ फिरा, चुप!
"फिर?'' पूछा मैंने,
"मेरी आँख खुली करीब डेढ़ बजे!" बोली वो,
"तो?" पूछा मैंने,
"मैंने निवि को देखा, वो आराम से सोई थी!" बोली वो!
"अच्छा, फिर पानी नहीं माँगा होगा!" कहा मैंने,
"नहीं! माँगा था!" बोली वो,
"हैं?" पूछा मैंने, अचरज से,
"हाँ, माँगा था!" बोली वो,
"आप तो सोये थे, कैसे पता?" पूछा मैंने,
"क्योंकि, टेबल पर रखा वो कांच का जग, आधा था!" बोली वो,
"क्या?'' पूछा मैंने,
"हाँ, निवि ने पानी पिया था!" बोली वो,
"एक मिनट! एक मिनट!" कहा मैंने, और सोचा तभी कुछ!
"हो सकता है, खुद ही पिया हो?" कहा मैंने,
"नहीं!" बोली वो,
"नहीं?" कहा मैंने,
"हाँ, नहीं!" बोली वो,
"तो निवि...से पूछा?" कहा मैंने,
"हाँ, मैंने तभी उठाकर पूछा था, भूल गई कि उसको बुखार है!" बोली वो,
"निवि उठी?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
"बताया?" पूछा मैंने,
"हाँ, बताया!" बोली वो,
"क्या?'' मैंने मुंह फाड़ते हुए पूछा!
"कि पानी कैसे पिया? पूछा था मैंने, बोली वो,
"अच्छा, क्या बोली?" पूछा मैंने,
"निवि मुस्कुराई! बाहर देखा, और मुझे देख कर बोली!" बोली वो,
"क्या बोली?" पूछा मैंने,
"बड़ी मम्मी ने!" बोली वो! अब, हल्के से, मुस्कुराते हुए!


   
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