"वाह रे ढापले! कमा की बात पर रुक गया!" बोला!
"तू तू सब जाने है!" बोला कोई उस खोपड़ी के पास से,
"तू बता?" बोला वो,
"क्या?" बोला वो,
"यही कि किसको?'' बोला वो,
"नहीं पता!" बोला वो,
"नहीं पता?'' बोला वो,
"हां!" बोला वो,
"हम पागल हैं? खंडा पागल हो गया! हा! हा! हा! हा! पागल हो गया खंडा!" बोला हंसते हुए!
और फिर एकदम से कड़क हुआ!
"सुन ढापले! खंडा का गुस्सा नहीं देखा, गाड़ दूंगा! हमेशा के लिए! तेरा वंश कील दूंगा! कीड़े खा जाएंगे पेट उनका! समझा? बोल?" बोला वो,
"आसपास देख खंडा!" बोला वो,
खंडा ने आसपास देखा, हुजूम खड़ा था! ये खेंगा थे! चेतावर खेंगा! ये वो खेंगा थे तो बुलाने आ गए थे उसे! खेंगा भी सिवानों में वास करते हैं, अक्सर लोग इन्हें यमदूत और आत्मा के बीच का मुखबिर या पकडू या फिर चेतावर कहते हैं!
"खेल गया! खेल गया!" बोला वो,
और तभी वो खोपड़ी हिली, खड़-खड़ सी आवाज़ हुई और जैसे कोई फुग्गा फटा! और वो बूढ़ा चल दिया वहां से, पीण-चावल बिखर गए! खेल ख़तम! खेंगा लौट गए! रह गया देखता हुआ खंडा!
"हर्रू?'' बोला वो,
"बाबा?'' बोला वो,
"अब वक़्त आ गया!" बोला वो,
"आदेश!" कहा उसने,
"आज सांझ सब लौट जाओ!" बोला वो,
"कहां?" बोला वो,
"वापस!" बोला वो,
"और आप?" बोला वो,
"खंडा का काम अब यहीं है!" बोला वो,
"बाबा, आप भी चलो, छोड़ो, बाद में आ जाएंगे!" बोला वो,
"बाद का काम हारे का!" बोला वो,
"जानता हूं!" बोला वो,
"भगवान का नाम, काम बेसहारे का!" बोला वो,
"जी!" बोला वो,
"खंडा न हारा है, और न ही बेसहारा!" बोला वो,
"जानता हूं!" बोला वो,
"खंडा जब तक जिया है, सर उठा कर जिया है!" बोला वो,
"हां बाबा!" बोला वो,
"सब लौट जाना!" बोला वो,
"नहीं बाबा! जी नहीं मानता!" बोला वो,
"हर्रू?" बोला वो,
"हां?" कहा उसने,
"अब वो आएगा!" बोला वो,
"कौन?" बोला हर्रू!
"जिसे मैंने विवश किया है!" कहा उसने,
"फिर?'' बोला वो,
"सब बाद कि बात होगी!" बोला वो,
"नहीं बाबा!" बोला वो,
और पांवों में पड़ गया खंडा बाबा के!
"हर्रू!" बोला वो,
हर्रू उठा, आंसू पोंछे अपने!
"हर मैदान का जानता है ये खंडा!" बोला वो,
"आदेश!" बोला गला भर के,
"इस मैदान का छोर नहीं दीखता!" बोला वो,
"बाबा?'' बोला वो,
खंडा चुप!
"चलते हैं बाबा! चलते हैं!" बोला वो,
"नहीं हर्रू!" बोला वो,
"नहीं बाबा, मान जाओ!" बोला वो,
"नहीं!" कहा उसने,
"आदेश!" बोला वो,
"बोलना उस से!" कहा उसने,
"किस से?" बोला वो,
"बोलना मानू से!" बोला वो,
"क्या?" बोला वो,
"बोलना, जहां खंडा रीता, शुरू वहां से हो!" बोला वो,
"ऐसा क्यों कहते हैं?" बोला वो,
"देखना था, देख लिया!" बोला वो,
"बाबा?" बोला वो,
''अब जो करे, वो मानू!" बोला वो,
"मानू क्रोधी है!" बोला वो,
"उसका क्रोध ही उसका गुरु है!" बोला वो,
"बाबा? मान जाओ?" बोला वो,
"अब चल!" कहा खंडा ने, और अपना झोला कांधे रख, रेत फटकारता हुआ चला गया! कौन था ये मानू? मानू था बाबा खंडा का एकमात्र पुत्र!
आज उस सिवाने में अकेला था वो, साथ था कोई मुस्तैद तो वो डांची! वो था बस अपनी विद्याओं के सहारे, मुख पर उफ़ नहीं, भय नहीं, त्रास नहीं! विजय का मद और विजय कि चमक! अब भले ही वो किसी दर्पण कि ही चमक हो, दर्पण उसकी विद्याओं का!
"कपाला!" बोला वो,
और फूल चढ़ा दिए सामने रखे मांस पर!
"कपाला!" बोला वो,
अपनी देह पर अपना लोहे से बना त्रिशूल फेर लिया!
"कपाला!" बोला वो,
आकाश को देखा, दाएं देखा, बाएं देखा, भूमि को नहीं देखा!
"मार्ग दिया!" बोला वो,
और फूल चढ़ाया एक!
"उत्तर बांध रहा हूं!" बोला वो,
इतना बोल एक फूल मुख से छुआ, उत्तर में फेंक दिया! शून्य फट गया! भगदड़ सी मच गयी! चीख-पुकार सी मच गयी, मैदान छोड़ बागे खोपटे सारे! खोपटे मायने तमाशबीन!
"पूर्व बांध रहा हूं!" बोला और फेंका फूल!
फिर से वही सब हुआ! बालकों के रोने की आवाज़ें आने लगीं! यहां बालकों को दफनाया जाता था इसीलिए!
"अब दक्खन बांधू!" बोला वो,
और फेंक दिया फूल!
चीखें गूंज उठीं उधर से! सट्ट-सट्ट की आवाज़ें होने लगीं!
"पछा छोड़ दिया!" बोला वो,
और खड़ा हो हंसने लगा ज़ोर ज़ोर से!
"कपाला! मेरी लुगाई!" बोला वो,
"जा, सौत को ले आ अपनी!" बोला वो,
और बैठ गया उधर ही! कपाला नदारद सी हो गयी! भयानक सी दुर्गंद छोड़ती हुई, श्वानों, मवेशियों को पूरे कृत्य तक अंधी बनाती ही दौड़ गयी! दौड़ गयी अपनी सौतन, राधा के पास! हर लाना था उसे आज सिवाने में!
आज की रात बड़ी ही अलग थी! जो कमाया था, आज उसका हिसाब करना था! आज खंडा ने जो जंग छेड़ी थी, उसका फैंसला हो जाना था!
अधिक देर न लगी! हांक लायी थी राधा को वो उस बीयाबान में! ऐसी विद्याएं आज भी हैं! राधा आ गयी! अब बाबा गंभीर हो उठा!
"आ राधा!" बोला वो,
और सामने रखे टाट के बोरे पर बिठा दिया उसे! आज भी होश नहीं था उसे! आज भी आप में नहीं थी वो!
"राधा!" बोला वो,
"मेरा बैर तुझ से नहीं!" बोला वो हंसते हुए!
"तेरी इस जवानी से है!" बोला वो,
"तू अगर मेरी प्रेमिका होती!" बोला तो बवंडर सा उठा उधर!
"तू अब तक शत्रु का कंकाल बिछा दिया होता!" बोला वो,
खड़ा हो गया वो खंडा!
"कहां है?" बोला वो,
गर्रा कर!
"आता क्यों नहीं?" बोला वो,
"बचाता क्यों नहीं?" बोला वो,
"लानत है! आक थू!" बोला वो,
"ओ ब्योपारी?" बोला वो,
"अपनी कुमारी को आगे करता है?" बोला वो,
"आक थू!" बोला वो,
"मसल कर रख दूंगा! कुचल कर रख दूंगा!" बोला वो,
और उठा, उठते ही, उसने चुनरी खींच ली राधा की, जैसे ही ऊपर के वस्त्र पर हाथ रखा, हाथ खींच लिया!
"समझा?" बोला वो,
'आता क्यों नहीं?" बोला वो,
"डरता है मुझे?'' बोला वो,
"अरे ओ कुमारी?" बोला वो,
"ओ अंधा पीर?"
"ओ चामड़?" बोला वो,
"कहां गए सारे हिमायती?" बोला वो,
"कहां मर गए?'' बोला वो,
"ऐसे नहीं आओगे?" बोला वो,
"हैं? नहीं आओगे?" बोला वो,
"करूं नंगा इस लड़की को?" बोला वो,
"करूं?" बोला वो,
फिर हंसने लगा!
"तुझ जैसों से अच्छे तो हम हैं! ज़रा हाथ तो लगाता! तेरे हाथ काट के न उखाड़ फेंकता! लानत होता मेरे बाप पर! सूअर की औलाद होता मैं! खंडा हूं मैं खंडा! तुझ जैसे अच्छी तरह से जानते हैं मुझे!" बोला वो, और अट्हास लगाया उसने!
"लेकिन तू! तू क्यों आएगा! मारी तो ये जायेगी! हरण तो इसका होगा! अरे! अरे! मेरा इस से भला क्या बैर? कोई बैर नहीं! कोई बैर नहीं!" बोला वो,
और जम कर दो घूंट भरे मदिरा के!
"इस लड़की को देख!" बोला वो,
"देख तो? क्या गलती है इसकी?" बोला वो,
और फिर से एक घूंट!
"इसका रूप-यौवन?" बोला वो,
"क्या मैं रीझा?" बोला वो,
"क्या मुझे इसकी ज़रूरत?" बोला वो,
"क्या मैं चाहूं इसे?'' बोला और हंसा!
"क्या इस से?" कहा उसने,
"सुन लो!" बोला वो,
"मैं जानता हूं!" बोला वो,
"जानता हूं!" बोला दोबारा से!
"कोई नाग नहीं!" कहा उसने,
और हंस ज़ोर से!
"कोई नाग नहीं!" बोला वो,
"नाग जो होता? हैं? नाग जो होता?" बोला वो,
एक और घूंट!
"नाग जो होता, तो भीख मांगता!" बोला वो,
"नाग? भीख मांगता!" बोला वो,
"ओ चामड़?" बोला वो,
"तुझ से मेरा कोई बैर?'' बोला वो,
"बोल?" बोला वो,
"कोई बैर?'' पूछा उसने,
"बैर जो होता न? तो खंडा न खड़ा होता!" बोला वो,
"तू सब जानती है तो मैं भी जानता हूं!" बोला वो,
"तो अधिक है तो मैं तुझ से अधिक हूं!" बोला वो,
गया राधा के पास!
"राधा?" बोला वो,
''तुझे नहीं चाहा मैंने कभी!" बोला वो,
"कभी नहीं!" बोला वो,
"अरे! अरे!" बोला वो,
"जो लिया सो दूंगा!" बोला वो,
"ये खंडा, सबकुछ छीन कर तुझे देगा!" बोला वो,
"अरे हां!" बोला वो,
"ओ अंधा-पीर?" बोला वो,
"खड़ा है न?'' बोला वो,
"खड़ा ही रह!" बोला वो,
"तुझे बांधना चाहता तो तो कभी न निकलता! अपने टट्टू पर ही बंधा रहता! घूमता रहता! गोल! गोल!" बोला वो,
"खंडा? कभी न हारा! बोला वो,
''न ही हारेगा!" बोला वो,
तभी राधा को किसी ने ऊपर उठा लिया!
"नहीं! नहीं! नहीं डांची!" बोला वो,
राधा धम्म से नीचे!
"इस बेचारी ने तो 'फूल को ढकना मत' ये भी नहीं समझा! नहीं समझा!" बोला वो,
"इसकी कोई गलती नहीं!" बोला वो,
"कोई गलती नहीं!" बोलता गया!
"गलती है तो उसकी!" बोला वो,
"पलट के नहीं आया!" बोला वो,
"कभी नहीं आया!" बोला वो,
"कौन?" दूर देखते हुए बोला वो,
"कौन?" फिर से पूछा उसने!
और पहचान गया!
"ओहो! दुल्हनिया!" बोला वो,
और जम कर अट्हास लगाया उसने!
"कारुणि?" बोला वो,
कारुणि चुप!
"देख? देख तूने क्या कर दिया?" बोला राधा की तरफ इशारा करते हुए!
"देखा?'' बोला वो,
"देखा??" चिल्ला कर बोला वो,
कारुणि चुपचाप देखे!
"नहीं निकलता बोल?" बोला वो,
"है न?" बोला वो,
"क्या समझते हो? कोई है नहीं?" बोला वो,
"कोई नहीं?" बोला वो,
"कारुणि?" बोला वो और बोतल से फिर दो घूंट खींच लिए!
"कारुणि!" बोला वो,
"आज खंडा अंतिम तमाशा दिखायेगा!" बोला वो,
"अंतिम तमाशा!" बोला वो,
"याद है तुझे? हैं? याद है? याद है कि भूल गयी? याद है न?" बोला वो,
नहीं बोली कारुणि कुछ भी! हिली भी नहीं!
"तेरा नगर उठा आकर फेंक दिया था! याद है? कहां है अब तेरा किल्लोर?" बोला वो और हंसता रहा! किल्लोर बोले जाए और हंसता जाए!
(मित्रगण! किल्लोर ग्राम या क़स्बा, हिमाचल प्रदेश एवं उत्तराखंड की सीमा पर बसा एक सुंदर, नाग-गांव है! यहां के सर्प, कहा जाता है, दग्ध हैं, विष नहीं रहता उनमे! मैंने जांचा नहीं है स्वयं ही, और ये एक किवदंती भी हो सकती है, ऐसा माना जाए!)
"याद आया कारुणि?" बोला वो, उपहास सा उड़ाते हुए!
"बोल?" बोला वो,
"याद है न? तेरा पूरा का पूरा गांव?" बोला वो,
"हठेश्वर!" बोला वो,
"हां! गुरु श्री हठेश्वर!" बोला वो,
"उन्हीं का शिष्य हूं मैं कारुणि! उन्हीं का!" बोला वो,
"जानती हूं!" बोली वो,
"ये खेल कब तक?'' बोला वो,
"कौन सा खेल?" बोली वो,
"नहीं जानती?" बोला वो,
"नहीं!" बोली वो,
"झूठ!" बोला वो,
"झूठ बोलती है!" बोला वो,
"नहीं!" बोली वो,
"तूने जो किया वो तू जाने!" बोला वो,
"क्या?'' पूछा उसने,
"तेरी गलती ही है!" बोला वो,
"नहीं!" बोली वो,
"कारुणि!" बोला वो,
कारुणि चुप!
"क्या समझती है?" बोला वो,
"किस विषय में?'' बोली वो,
"की इस लड़की की कोई अहमियत नहीं?" बोला वो,
"नहीं, ऐसा नहीं!" बोली वो,
"अच्छा?" बोला वो,
"हां!" बोली वो,
"तो लोखन क्यों मारा तूने?" बोला वो,
''वो राज़ खोल देता!" बोली वो,
"बहुत छिपाया!" बोला वो,
"छिपाने में, इस लड़की की आबरू उघाड़ दी! है न?" बोला वो,
"नहीं, मैंने मदद की!" बोली वो,
"मैं इसे योजना कहता हूं!" बोला वो,
"कुछ भी मानो!" बोला वो,
"तू बाज़ नहीं आयी!" बोला वो,
"और न ही आएगी! है न?" बोला वो,
और बची-खुची मदिरा भी लील गया वो! फेंक मारी बोतल सामने!
"बस कारुणि!" बोला वो,
"तेरी पीएपस, पिपासा ही रहेगी!" बोला वो,
"खंडा?" चीख आकर बोली वो,
"चिल्ला ले!" बोला वो,
"चिल्ला!" बोला वो,
"बुला?'' बोला वो,
"बुला जिसको चाहे?" बोला वो,
"सौगंध गुरु की, न टुकड़े कर इस चामड़ को चढ़ा न दूं!" बोला वो,
भयंकर गुस्से में था वो!
"आज कर दूंगा हिसाब तेरा!" बोला वो,
"नहीं खंडा!" बोली वो,
"तू हाथ जोड़ेगी?" बोला वो,
"जोड़ लूंगी..........." बोली उदास सी,
"जैसे बाबा को जोड़े थे?" बोला वो,
"तभी उखाड़ फेंका था न?" बोला वो,
"नहीं!" बोली वो,
"तेरे से अच्छा वो ब्योपारी!" बोला वो,
''याद आया?" बोला वो,
"हां!" बोली वो,
"कांटा!" बोला वो,
"सब याद है खंडा!" बोली वो,
"उसे बुलाऊं?" बोला वो,
और हंस पड़ा! हंसता रहा!
"कलुषित!" बोला वो,
"तू कलुषित ही थी, है और रहेगी!" बोला वो,
"तेरी पिपासा!" बोला वो,
और हंसा! जम कर हंसा!
"कारुणि?" बोला वो,
"बेहतर है, मुझे मार डाल!" बोला वो,
"निहत्था हूं!" बोला वो,
"वचन भी देता हूं, नेत्र न खोलूंगा!" बोला वो,
"और यदि मैं, कुछ क्षण और जीवित रहा, तो खंडा और क़हर क्या हैं ये तू जान जायेगी!" बोला वो,
ये सुन, कारुणि के तो कंपकंपी सी चढ़ गयी! खंडा ने आरम्भ कर दिए मंत्र पढ़ने!
"तेरी पिपासा ने इस बेचारी राधा का जीवन नष्ट कर दिया!" बोला वो,
"लेकिन कारुणि?" बोला वो,
''अब नहीं होगा!" बोला वो,
"अब तेरा बिछाया खेल ही ख़तम!" बोला वो,
"कौन हूं मैं?" बोला हंसते हुए!
"खंडा!" बोला वो,
"जो ज़ोर चले तेरा, चला ले! जहां जाना चाहे, चली जा! खंडा प्राण तब तक नहीं त्यागेगा जब तक इस खेल का अंत नहीं हो जाता!" बोला वो,
"खंडा?'' बोली वो,
"बोल?" बोला वो,
"क्षमा कर दे!" बोली वो,
"मैं?" बोला वो,
"हां!" कहा उसने,
"मैं कौन होता हूं?" बोला वो,
"तू ही तो है!" बोला वो,
"सुन कारुणि!" बोला वो,
और खड़ा हो गया!
"मैं क्षमा नहीं कर सकता! कर ही नहीं सकता! क्षमा करना न करना इस लड़की पर है! ये चाहेगी तब भी नहीं करने दूंगा! समझ गयी?" बोला वो,
"इतना निर्दयी?" बोली वो,
"निर्दयी?" बोला वो,
"हां तू!" बोली वो,
"मैं नहीं हूं!" बोला वो,
"तू ही है!" कहा उसने,
"निर्दयी तो है तू!" बोला वो,
"याद हैं वो दो बुज़ुर्ग?" बोला वो,
"खतम हो लिए ना?" बोला वो,
चुप हो गयी वो!
"और वो सपेरा!" बोला वो,
"कहां गया वो?" पूछा उसने,
"एक ही तो भला था तुम में?" बोला वो,
"वो सपेरा!" बोला वो,
"कहां गया?'' बोला वो,
अब हंसा वो!
"बांध दिया! है न!" बोला वो,
"चेताने चला आय था बेचारा!" बोला वो,
"ये हाल हुआ!" बोला वो,
"जी में आवे है तुझे सर्पणी बना, नौल के बीच में छोड़ दूं!" बोला वो,
"लेकिन क्यों!" बोला वो,
"तू तो इस लायक भी नहीं!" बोला वो,
"पिपासा की दास!" बोला वो,
"कारुणि?" बोला वो,
"जो कहता हूं सुनती जा!" बोला वो,
"वो ब्योपारी!" बोला वो,
"तेरा प्रेमी!" कहा उसने,
"है ना? हां! हां!" बोला वो,
"तेरा प्रेमी!" कहा उसने,
"उस बेचारे को तो खबर भी नहीं!" बोला वो,
"जो खबर होती, तो आता नहीं?" बोला वो,
"आता! ज़रूर आता!" बोला वो,
"क्यों कारुणि? आता?" बोला वो,
"हां, आता!" बोली वो,
"अब आएगा नहीं?'' बोला वो,
"नहीं!" बोली वो,
"आएगा कारुणि! वो ज़रूर आएगा! मैं, खंडा लाऊंगा उसे!" बोला वो,
"खंडा?" बोला वो,
"बस? बस?" बोला वो,
"यही कहेगी न की ये जीवित न रहेगी?" बोला वो,
''है न?" बोला वो,
"तो तेरी हैसियत ही नहीं अब इसे छूने की!" बोला वो,
"तूने तो करौंदों का मान भी नहीं रखा!" बोला वो,
"और मुझे देख?" बोला वो,
"जब चला था, अपना दाह-संस्कार करके चला था!" बोला वो,
और जम कर हंसा! खुल कर हंसा!
"तूने बहुत खेल खिलाया!" कहा उसने,
''अब खेल ख़तम तेरा!" बोला वो,
"डांची?" बोला वो,
"ओ डांची!" बोला वो,
"आ जा! बेटी को स्नान करवा! दुल्हन बनवा! सजा इसे! दुलार इसे! रही ये कारुणि! ये तो बस अब..................!!" बोलते बोलते रुक गया,
और........................
"डांची!" बोला बाबा!
और दूसरी बोतल खोल ली उसने!
"डांची! बड़ा पुराना बैर है ये!" बोला वो,
"बड़ा ही पुराना!" बोला वो,
और जम कर एक बड़ा सा घूंट खींचा! मुंह से फव्वारा सा छूट चला तभी!
"ये! ये को कारुणि है! ये!" बोला वो,
एयर इशारा किया, कारुणि ने सर नीचे कर लिया!
"ये, इसने बैर पाला!" बोला वो,
"ये, ये कारुणि!" बोला वो,
"डांची!" बोला वो,
"ये, ये लड़की!" बोला बाबा,
और एक घूंट और भरा!
"ये जो लड़की है! मेरी बेटी ही तो है? मेरी बेटी बराबर? है न?" बोला वो,
और हवा में ही हाथ हिला, आशीर्वाद सा दिया राधा को!
"लेकिन?" बोला वो खड़ा हुआ!
"ये कारुणि?" बोला वो,
"मदांध!" बोला वो,
"कामांध!" बोला वो,
"खंडा?" बोली कारुणि गुस्से से!
"अब क्या बोलेगी तू?" बोला वो,
''चल? बोल? आज बोल तू भी!" बोला वो,
"तू क्या सोचता है?" बोली वो,
"कि तू विजयी हुआ?" बोली वो,
''याद है न तुझे भी?" बोली वो,
"या बताया नहीं?" बोली वो,
"सब याद है, लज्जाहीन!" बोला वो,
''सब याद है!" बोला वो,
"क्षमा मांग और लौट जा?" बोली वो,
"और?'' बोला वो,
"और?" फुसफुसाया वो!
"और?" बोला इस बार चीख कर!
"हठेश्वर! जय हो! हठेश्वर को रिझाया तूने!" बोला वो,
"याद है?" बोला वो,
"हठेश्वर?" बोला वो,
"जानती थी न उसका भार?" बोला वो,
''खेली तू उस से?" बोला वो,
"बोल?" बोला वो,
"सुन?" बोला वो,
''सुन ले?" बोला वो,
"खंडा अब भी नहीं आता!" बोला वो,
"सुनी?" बोला वो,
''अब भी नहीं आता!" बोला वो,
"लेकिन आया!" बोला वो,
"क्यों?" बोला वो,
"जानती है न?" बोला वो,
"हां!" बोला वो,
और लगाया एक और घूंट!
"अब बस!" बोला वो,
"तेरा बहुत हुआ खेल!" बोला वो,
"बहुत हुआ!" बोला वो,
"चाहता तो उस रात ही काट देता तुझे!" बोला वो,
"है न?'' बोला वो,
''जानती है न?" बोला वो,
"तब ये खंडा, उंगली पकड़ता था हठेश्वर की!" बोला वो,
''कौन हठेश्वर?'' बोला वो,
"मुझे क्या लेना?" बोला वो,
"क्या लेना ओ धृष्ट कारुणि? क्या लेना?'' बोला वो,
"हठेश्वर!" बोला वो,
"मेरे गुरु!" बोला वो,
"मेरे गुरु पहले!" बोला वो,
और भर आया गुस्से में!
"और फिर??" बोला चीख कर!
एक एक प्रेत भाग जाए उसकी चीख सुन कर! एक एक चुड़ैल उड़ जाए उसका रूप, क्रोधी रूप देख कर!
"और?" बोला वो!
"बता?'' बोला वो,
"बता कारुणि? बता?" बोला वो,
"और?" बोला वो,
"नहीं बताएगी? लाज आती है? लज्जा??" बोला वो,
"लाज तब नहीं आयी थी?" बोला वो,
"तब कहां गयी थी तेरी ये खोखली लाज?" बोला वो,
''जब हठेश्वर हाथ नहीं आया कार्य-सिद्धि में तब क्या किया था?" बोला वो,
"है याद?" बोला चीख कर!
"याद है?" बोला वो,
"याद है कारुणि?" पूछा उसने,
"सच पूछे तो मुझे उस ब्योपारी से कोई बैर नहीं!" बोला वो,
"कोई बार नहीं!" कहा उसने,
"ना! कोई बैर नहीं!" बोला वो,
"बैर है तो तुझसे निर्लज्जा!" हंसा वो! ज़ोर से हंसा!
"कौन था हठेश्वर?'' बोला वो,
"पता है?'' बोला वो,
"पता तो होगा? बोल?" बोला वो,
"हां!" बोली वो,
"कौन?" पूछा उसने,
"अग्रज!" बोली वो,
"हां!" कहा उसने,
"कारुणि! मैंने जीवन लगा दिया! झोंक दिया अपने को! सींचा मैंने सब का सब! खेया मैंने एक एक सोपान को! मात्र इसीलिए कि ये खेल ख़तम हो!" बोला वो,
"और तू?" बोला वो चीख कर!
"तू? तू नहीं बाज़ आयी!" बोला वो,
"कमाल का खेल खेला तूने!" बोला वो,
"और झोंक दिए ये बेचारे अबोध मनुष्य!" बोला वो,
"वाह री कलुषा!" बोला वो,
"लेकिन अब? अब ये लड़की? राधा? जिसे तूने मोहरा बनाया, तेरा ही नाश करेगी!" बोला वो,
"जानती है?" बोला वो,
"क्या कहा मैंने?" बोला वो,
"हैं?" बोला वो,
"क्या कहा खंडा ने?'' बोला वो,
"नाश!" बोला वो,
"तुझे प्रतीक्षा थी न?" बोला वो,
"तो?" बोला वो,
"तो?" फिर से बोला,
"तो प्रतीक्षा मुझे भी थी!" कहा मैंने,
"प्रतीक्षा!" बोला वो,
"कारुणि!" बोला वो,
"वो न तेरा हो सका और न होता, और अब, मैं होने नहीं दूं!" बोला वो,
"नहीं होने दूं!" बोला वो,
"नहीं होने दूं!" चीखा गुस्से में!
और फिर से तीन या चार घूंट भरे!
"ओ निर्लज्जा?" बोला वो,
''क्या वो आएगा?" बोला वो,
"बोल?" चीखा क्रोध में,
"बोल?" बोला वो,
"बोल नहीं तो अभी क्रोध टूटेगा मेरा!" बोला खाली बोतल फेंकते हुए ज़मीन पर!
"नहीं" बोली वो,
"नहीं आएगा!" कहा उसने,
बाबा हंसने लगा! उसकी बेबसी पर हंसी आ गयी!
"नहीं आएगा?" बोला वो,
"नहीं!" कहा उसने,
"तू बुलाएगी, तो भी नहीं?" बोला वो,
"नहीं!" बोली लरजते हुए!
"नहीं?" बोला वो,
"नहीं!" कहा उसने,
"वो आएगा!" बोला वो,
"आएगा!" बोला वो हंसते हुए!
"आएगा! अवश्य ही आएगा!" बोला वो,
"कारुणि?" बोला वो,
"अब तक तो थे जो तुझे जानते थे!" बोला वो,
"क्यों?" बोला वो,
"वे सब? याद है?" बोला वो,
"हां खंडा!" बोली वो,
"और अब?" बोला वो,
"बोल?" बोला वो,
"मात्र तू!" बोली वो,
"हां! मात्र मैं!" बोला वो,
"मेरे बाद?" बोला वो,
"नहीं खंडा! नहीं! नहीं!" बिलबिला उठी वो!
"तेरा वो हाल करूंगा कारुणि, कि तू पशु का जन्म भी मांगने को तरसेगी! लेकिन वो योनि भी नसीब नहीं होगी तुझे!" बोला वो,
और उठ कर चला कारुणि की तरफ!
"हां!" बोला वो,
"हां कारुणि!" बोला वो,
"हां! दुल्हन!" बोला वो,
"हम मनुष्य, दुल्हन कहते हैं!" बोला वो,
"तुम तुम्हारी जानो!" बोला वो,
"ये! ये लड़की!" बोला वो,
''देख ये लड़की!" बोला वो,
"भोली सी लड़की! अबोध! मासूम!" बोला वो,
"सुना तूने क्या कहा मैंने?" कहा उसने,
"सुना? सुना? सुना?" चीख चीख कर आसमान ही उठा लिया सर पर!
"क्या हाल किया तूने इसका?'' बोला वो,
"देखा है?'' बोला वो,
"देखा?" बोला वो,
"मां गुजर गयी, इसे भान नहीं! क्यों?" बोला वो,
"कारुणि? क्यों?" बोला वो,
"क्योंकि ये आप में है ही नहीं!" बोला वो,
"अपने मंतव्य के लिए इसे झोंक दिया?'' बोला वो,
''इस मासूम को?" बोला वो,
"है कोई तुझ सा नीच?" बोला वो,
"बोल?" बोला वो,
"है कोई परम नीच तुझ जैसा?" बोला वो,
"नहीं!" बोला वो,
"कोई नहीं!" कहा उसने,
"कारुणि!" बोला वो,
"दुल्हन!" बोला वो,
"हैं?" बोला वो,
"दुल्हन!" बोला वो और ताली बजायी तीन बार!
लेटी हुई राधा बैठ गयी! बैठ गयी चौकड़ी मार! हाथ पर हाथ रख! नेत्र बंद किये हुए!
"देख कारुणि!" बोला वो,
"देख!" बोला वो,
"और....ये देख!" बोला बाब और मारी एक ताली!
अगले ही पल, खनखनाता स्वर्ण, स्वर्ण के आभूषण, उस राधा की देह में अलंकृत हो उठे! कोई ऐसा हिस्सा नहीं जहां स्वर्ण के तार न हों! महीन, जालीदार सा स्वर्ण था कोहनी पर भी! माथे पर, केशों में, गले पर, हाथों पर, कानों पर! हर अंग पर स्वर्ण सुशोभित हो उठा था!
"खंडा????" चीखी वो!
"चुप?? चुप कारुणि! जिव्हा को शूल लगा दूंगा!" बोला वो,
मंत्र पढ़ा बाबा ने, और अगले ही पल! अगले ही पल, वैवाहिक लाल वस्त्र धारण हो गया अपने आप ही राधा को! ये सब, बाबा खंडा का प्रबल तेज था, जो रख छोड़ा था अपने उद्देश्य-निष्पादन हेतु!
"खड़ी हो जा पुत्री!" बोला वो,
राधा ने जैसे आदेश माना, सर झुकाये खड़ी हो गयी!
"खंडा???" फिर से चीखी वो!
''सुना नहीं तूने? शूल! शह्ह्ह्हह्ह!" बोला वो,
"डांची!" बोला वो,
"ओ डांची!" बोला वो,
"आ जा!" कहा उसने,
"सजा इस पुत्री को!" बोला वो,
मित्रगण! पुष्प ही पुष्प! सुगंध ही सुगंध!
"वेदिका!" बोला वो,
वेदिका प्रकट हो गयी! भूमि से ऊपर उठती हुई, पीले और लाल रंग की अग्नि!
"भालंग!" बोला वो,
हरे पत्तों की कतारें लग गयीं! साज-सज्जा हो गयी! हर जगह से, हर कोने से, सुगंध ही सुगंध उठने लगी!
"कारुणि!" बोला वो,
"ना! तू हिल भी नहीं सकती!" बोला वो,
"वो भूमि, मेरी है!" बोला वो,
"डोल भी नहीं सकती!" बोला वो और जम कर अट्टहास लगाया!
"ये?" बोला वो,
"तेरा ही तो खेल है?" बोला वो,
"आरम्भ तूने किया! है न?" बोला वो,
"बस, अंत? मैं करूंगा!" बोला वो,
"डांची?" बोला वो,
"दीप-प्रकाश हो!" बोला वो,
अगले ही पल कोने कोने में कतारें लग गयी दीपों की, वे दीप हवा में झूल रहे थे, ऊपर और नीचे!
बाबा जम कर हंसा! जम कर!
"देखा तूने??" बोला वो,
"देखा?" बोला वो,
"और अब??" बोला वो,
"अब? क्या कारुणि?" बोला वो, उपहास सा उड़ाते हुए उसका!
"खंडा...." इस बार गिड़गिड़ा गयी कारुणि! वाणी में टूटन आ गयी, स्वर, भारी से हो गए! जैसे कंठ में पीड़ा उभरने लगी हो!
"नहीं खंडा नहीं!" बोली वो,
खंडा बाबा ने एक कड़वी नज़र से देखा उसे!
"नहीं खंडा!" बोली वो,
"नहीं!" बोली वो,
"नहीं!" बोला वो,
"नहीं?" बोला फिर ज़ोर से!
"नहीं?" इस बार चीख कर बोला!
"यही बोला था न हठेश्वर ने भी!" बोला वो,
"है न? कारुणि?" बोला वो,
"नहीं! नहीं कारुणि!" बोला वो,
"यही! यही बोला था न?" बोला वो,
"किल्लोर क्यों विस्थापित हुआ?'' बोला वो,
"वहां के सर्प, क्यों दग्ध हुए?'' बोला वो,
"किल्लोर के स्थान पर अब, वो तालाब क्यों है?" बोला वो,
"वो ब्योपारी? बोला वो,
और हंसने लगा!
"वो उस दिन मेले में क्यों आया था?" बोला वो,
"बोल कारुणि?" बोला वो,
"तुझे नहीं जानता, तो क्यों आया था?'' बोला वो,
"क्यों?" बोला वो,
"किस से मिलने आया था?" बोला वो,
"बता?" बोला वो,
"मुझे नहीं पता!" बोली वो,
"पता भी होगा तो किस मुख से बताएगी!" बोला वो,
"वो दो बुज़ुर्ग, कौन थे?" बोला वो,
"सधुआ और वो बुज़ुर्ग अगले दिन क्यों पूरे हुए?'' बोला वो,
"बता?'' बोला वो,
"बता कारुणि?" बोला वो,
"मैं बताऊं?" बोला वो,
"तो सुन!" बोला वो,
"चूंकि उनका कोई कार्य शेष नहीं रहा था!"" बोला वो,
"है न?'' बोला वो,
और बाबा धम्म से बैठ गया नीचे! अपना सर अपने हाथों में टिकाये! जैसे, उसे आज शान्ति मिली हो बहुत!
"कारुणि!" बोला वो,
"आज की रात्रि! ये रात्रि!" बोला वो,
"अंतिम रात्रि होगी!" बोला वो,
कारुणि चौंकी! खन्न की सी आवाज़ हुई!
"अंतिम!" बोला वो,
"हैं आज अंतिम रात्रि होगी!" बोला वो,
"तेरी और?" बोला वो,
"बोल?" बोला अब धीरे से!
''तेरी तो होगी ही कारुणि!" बोला वो,
"मेरी भी!" बोला वो,
"नहीं खंडा! क्षमा! क्षमा!" बोली वो,
"क्षमा?" बोला वो,
"किस से क्षमा?" बोला वो,
"इस लड़की से?" बोला वो,
"नहीं" बोली वो,
"मुझ से?" बोला वो,
"नहीं" कहा उसने,
"उस ब्योपारी से?" बोला वो,
"नहीं" बोली वो,
"फिर?" बोला वो,
"हठेश्वर से!" कहा उसने!
बाबा खड़ा हुआ! बुक्का फटा! रो पड़ा बाबा! फट पड़ा उसका सैलाब!
"हठेश्वर!" बोला वो,
"सुन हठेश्वर!" बोला वो चीख कर!
"उधार चुकता कर दिया!" बोला वो,
"कर दिया मैंने!" बोला वो,
"कारुणि?" बोला वो,
"अब कुछ ही समय शेष!" बोला वो,
"खंडा?" बोली वो,
"कुछ ही समय!" बोला वो,
"बस कुछ ही क्षण!" बोला वो,
"इसे, इसका सौंपूंगा! तुझे अनंत तक का दंड दूंगा! जब तक एक अंश भी रहेगा, तू पुनः सजीव न हो सकेगी! हां! तुझे भान अवश्य रहेगा! ताकि, एक एक क्षण, एक एक अंश खोते हुए, तुझे प्रायश्चित होगा! इसे मात्र मैं भंग कर सकता हूं! मात्र मैं! और मैं? बस! कुछ ही क्षण!" बोला वो,
और तब, बाबा खंडा ने एक मंत्र पढ़ा! उठायी मिट्टी और अपने माथे से रगड़ी! दूसरी चुटकी, सम्मुख डाली!
"खम्मणनाथ!" बोला वो,
"न्याय हो!" बोला वो,
"कारुणि?" बोला वो,
"सुन? सुन? ध्वनि! ध्वनि! सुनी? आया वो! आ रहा है! आ रहा है!" बोला वो, और अट्टहास जड़ दिया उस सिवाने में उसने!
अचानक ही, मरघट का सा भयावह सा सन्नाटा पसर गया! एक आवाज़ निरंतर आ रही थी, ये कहां से आ रही थी ये नहीं पता चल पा रहा था! न ज़मीन से ही, न दिशाओं से ही, न नभ से ही! ये आवाज़ ऐसी थी जैसे रथ के पहिये से घूम रहे हों और अश्वों की लयबद्ध सी टापें बढ़ती चली आ रही हों!
"सुना? सुना तूने?'' बोला वो हंसते हुए!
कारुणि ने जैसे ही वो आवाज़ सुनी, कि जी में उसके चाकी सी चल गयी! दो पाट जैसे, विपरीत दिशाओं में, घूर्णन करने लगे, एक दूसरे को घिसते हुए! एक पाट कहे हां! और दूसरा पाट कहे, ना!
"ये? इस लड़की ने भुगता? भुगता न?" बोला वो,
"भुगता?'' बोला वो, चीख कर!
"अब तू भुगत!" बोला वो,
और उदा दी चुटकी उधर! उड़ाते ही, जैसे शून्य के दो भाग हो गए! जैसे कोई जल में डूबता हुआ, चिल्ला रहा हो और उसके स्वर को मात्र उसके अन्तःश्रवण नलिका ही सुन पा रही हो! न जल के बुलबुले, न जल की निचली और ऊपरी सतह ही!
और अचानक ही शून्य, फट पड़ा! सामने जो प्रकाश में लिपटा हुआ प्रकट हुआ, वो कोई नाग-वंशी नहीं था! वो एक यक्ष-कुमार था!
और फिर जो हुआ, क्षण भर में ही हो गया! बाबा की नज़रों के समक्ष ही! एक ही क्षण में! इसी एक क्षण के लिए, बाबा ने अपने को न्यौछावर करने की ठानी थी!
"अन्त्याक्ष! जाओ! स्वीकार करो!" बोला बाबा!
और तभी वो कुमार राधा की तरफ बढ़ा! राधा के नेत्र खुले, कुछ न समझ पायी सम्मुख जो था, वो वो ही ब्योपारी था! कांटा निकालने वाला! अन्त्याक्ष ने एक नज़र बाबा को देखा, बाबा के होंठों पर मुस्कान आयी और! अगले ही क्षण, वे दोनों ही सदैव के लिए लोप हो गए! भावं भावना, द्वेग, उद्वेग ये मनुष्यों तक ही सीमित हैं, तब भी रहे! शांति का अनुभव क्या होता है, परम ध्येय-पूर्ति सुख कैसा होता है, ये तो जिसने बाबा को देखा, वो ही जानता!
धड़ाम!
बाबा का शरीर, नीचे आ गिरा! और हंसने के स्वर गूंज उठे बाबा के! ज़ोर लगा कर उठा बाबा! उस शून्य को चीर के रख दिया! जिव्हाहीन सी कारुणि, सब देखा उसने, कर कुछ न सकी! और तब बाबा ने अट्टहास जमाया!
"कारुणि!" कहा बाबा ने,
और अपने अंगोछे में बंधा खंजर निकाल लिया!
"मैं, हठेश्वर शिष्य, खंडा, तुझे पाषाण में परिवर्तित करता हूं!" कहा बाबा ने,
और तत्क्षण ही, अपना मस्तक, उस खंजर से, काट कारुणि की तरफ फेंक दिया! रक्त के छींटे पड़े उस पर और कारुणि, सदा के लिए पाषाण में परिवर्तित हो गयी!
सन नब्बे में, एक सात फ़ीट की सर्प-मूर्ति उस स्थान से प्राप्त हुई, जो रिसती है, आज कहां है, ज्ञात नहीं!
बाबा हठेश्वर, एक हठी साधक थे! इस स्थान पर, इस स्थान के ग्राम, किल्लोर में आये थे, आये थे नाग-शंख की खोज में! ये शंख, मणि से अलग होता है! इसमें कई सिद्धियां स्वतः ही बसा करती हैं! परन्तु इसे प्राप्त करना इतना सरल भी नहीं! सरल हो हो, तो हठ कैसा! युक्ति लड़ाई और उसी ग्राम की नाग-कन्या कारुणि से संधि हुई! वो उपलब्ध करवा सकती थी! बशर्ते वो उसका भी एक कार्य करे! कारुणि के कृत्य का भान सभी को था, अतः उसको दूर ही रखा जाता था, लेकिन हठेश्वर को मात्र स्थान प्राप्त करना था, बदले में, एक यक्ष-कुमार से, जिस पर वो रीझी, प्रेम करती थी, राह सरल करनी थी! कारुणि का ध्येय मात्र कुमार था, और हठेश्वर का, शंख प्राप्त करना! कारुणि, हर प्रकार से नाग-वंश के लिए एक संकट ही थी, अतः नाग-प्रमुख ने उस से भी यही वचन तय किया, कि मनुष्य को दूर रखा जाए, उसका भला क्या काम?
हठेश्वर के संग छल हुआ, मृत्यु ही होनी थी, हुई, परन्तु तब तक हठेश्वर ने किल्लोर को डुबोने की सोची, और किल्लोर तक मंत्र-बल साथ देता रहा, तब प्राण साथ छोड़ गए, सर्प दग्ध हो गए, किल्लोर, शेष-झील में न जा सका! वो वहीँ स्थापित हो गया! वहां के निवासी भी कुछ ऐसी ही कथा सुनाते हैं कि ये ग्राम वहां नहीं था, वहां की वनस्पति आदि भी अलग ही है!
इस समय तक बाबा खंडा ने होश संभाल लिए थे, वे बैरी हो गए! और वही हुआ, जो लिखा मैंने!
वे लोग जो मिले, वे भी सब जुड़े थे! वे बुज़ुर्ग, उनके पास एक फल था, ये फल उनको किसी ने दिया था, इसी फल से उस नाग-शंख तक पहुंचा जा सकता था! जब राधा के पास वो फल देखा, तो बाबा ने वो फल लिया ही नहीं!
अब राधा, राधा ही वो मोहरा थी जिसके कारण वो कुमार पुनः आता! यदि वो आता, तो कारुणि द्वारा उसकी मृत्यु निश्चित ही थी! यक्ष जिसे देख लें, भूलते नहीं! तो क्या वो आया? नहीं! क्या वो आता? हां! परन्तु, उस से पहले ही बाबा खंडा वहां पहुंच गए! तब वो अंत में ही क्यों आया? चूंकि बाबा ने बुलाया! बाबा ने एक एक युक्ति का नाश किया कारुणि की! पीची पीछे वे सब देखते रहे करते रहे! राधा को न्याय मिला, कारुणि को दंड और बाबा को, परम-शान्ति! उन्होंने वचन पूरा किया जो उन्होंने उसी दिन, मन ही मन कर लिया था कि वो ही इस प्रकरण का अंत सदा सदा के लिए कर देंगे! और कर भी दिया!
नमन बाबा खंडा को!
साधुवाद!
यह संस्मरण अन्य संस्मरणों से अलग है, क्योंकि आरंभ में बाबा खंडा किसी लालच से आए हैं ऐसा प्रतीत होता है पर बाबा तो अपना शिष्य धर्म निभा रहे थे। बहुत ही रोचक संस्मरण।🙏
ऐसे भी शिष्य है, जो अपने गुरु की आन की खातिर, इतना बड़ा दाव भी खेलते है, और वही किया जो न्याय संगत था।
अद्भुत, प्रभु आपके बाकी संस्मरणों की तरह ये भी एक अविस्मरणीय गाथा थी, अंतिम शब्दों तक कुछ ना पता चला, की किसका क्या मंतव्य है,,