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वर्ष २०१५ एक गांव की घटना, कारुणि की पिपासा!

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श्रीशः उपदंडक
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बाबा ने कक्ष में आते ही अपने चेलों को वहां से जाने को कह दिया, कहर ढाना था उसने आज यहां नागों पर अपने विद्या-प्रहार से, अतः तैयारी परम आवश्यक थी! वो अंदर आया, चेलों को बाहर भेजा और अपने झोले से उलझ गया! तभी अंदर वो जोगन भी चली आयी!
"जोगन?" बोला वो,
"हां बाबा!" बोली वो,
"बोल?" बोला वो,
"बाबा? एक बात बतानी थी!" बोली वो,
"बता?" बोला वो,
और झोले पर अपनी एक कोहनी रख ली! जोगन समीप चली आयी!
"बोल?" बोला बाबा,
"मेरा एक पुत्र था!" बोली वो,
"अच्छा!" कहा उसने,
"जंगल में गया था!" बोली वो,
"फिर?'' पूछा उसने,
"वो ज़िंदा है या.....पता कर सकते हो?'' बोली वो,
"लोखन ने नहीं बताया?'' बोला वो,
"नहीं" बोली वो,
"तेरा आदमी?" बोला वो,
"छोड़ गया था!" बोली वो,
"तो तू यहां आ गयी!" बोला वो,
"हां!" कहा उसने,
"बता दूंगा!" कहा उसने,
"जय हो!" बोली और बाबा के चरण पकड़ लिए!
"मदद करेगी?" बोला वो,
"हां बाबा!" बोली वो,
"तू संग रहेगी?" बोला वो,
"हां!" कहा उसने,
"मत घबरा! मैं लोखन नहीं!" बोला वो,
"पता है बाबा!" बोली वो,
"नाम बता पुत्र का?" पूछा उसने,
"यादू" बोली वो,
"क्या उम्र थी?" बोला वो,
"नौ बरस" बोली वो,
"कितने साल हुए?'' पूछा उसने,
"तेईस" बोली वो,
"मतलब अब बत्तीस का हुआ होगा?" बोला वो,
"हां" बोली और रो पड़ी!
"रो मत! बता दूंगा, सांस चल रही है तो!" बोला वो,
अब तो बुक्का फाड़ के रोई वो!
"चल, चुप हो जा!" बोला वो,
और फिर से झोले से उलझ गया!
कुछ देर बीत गयी!
"बाबा?'' बोली वो,
"हां?" बोला वो,
"कैसे होगी?" बोली वो,
"क्या?" पूछा उसने,
''वो लड़की कैसे आएगी?" पूछा उसने,
"खुद से!" बोला वो,
"सच्ची?" बोली वो,
"हां!" कहा उसने,
"क्योंकि मैं वहां नहीं जा सकती अब!" बोली वो,
"समझ गया हूं!" बोला वो,
"तभी कहा!" बोली वो,
"मेरा बरुआ हांक लावेगा!" बोला वो,
"जय हो!" बोली वो,
"अब तू जा!" बोला वो,
"जी बाबा!" बोली वो,
बरुआ! बहरूपिया! ऐसा प्रेत जो सबकुछ बदल सकता है, लिंग भी अपना, परन्तु आवाज़ नहीं! इसीलिए चुप ही रहता है, इशारे में बतियाता है! इसे किस्से अक्सर गांव-देहात में मिल जाते हैं सुनने के लिए!
तो रात का वक़्त!
करीब बजे होंगे डेढ़!
"जोगन?" बोला वो,
"बाबा?" कहा उसने,
"नाचक जला!" बोला वो,
"अभी लो!" बोली वो,
"हर्रू?" बोला वो,
"आदेश?" बोला वो,
"सेजिया!" बोला वो,
"अभी!" कहा उसने,
"बिसन?" बोला बाबा,
"आदेश!" बोला दूसरा चेला,
"जा!" कहा उसने,
"आदेश!" बोला और चला गया, बैठ गया पीछे!
"नाचक जली!" बोली वो,
"रास्ता दे!" बोला वो,
"लो बाबा!" कहा उसने,
और झाड़ू लगा दी उधर! नाचक मायने कच्ची मिटटी का बना द्वादशमुखी दीया! अब मात्र कामाख्या में ही प्रयोग होता है ये!
"जोगन?" बोला वो,
"बाबा?" कहा उसने,
"हट्ल?' बोला वो,
"लायी!" बोली वो,
हट्ल मायने दो मूठ का फरसा! ये अक्सर, कटे सर को उठाने के काम में आता था! ये सब बाबा ले कर आया ही था, अब एक एक कर सभी का पूजन कर रहा था, ठीक दो बजे, वो बरुआ को भेज देता हांकने!


   
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श्रीशः उपदंडक
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तो बाबा ने हट्ल अपने पास रख दिया, ठीक सामने ही एक छोटा सा घड़ा रखा, घड़ा रखने से पहले कुछ आग ली थी, एक उपले का टुकड़ा, मंत्र पढ़ा और उस टुकड़े के ऊपर वो छोटा सा घड़ा, उल्टा रख दिया था!
"खामण! तेरी लाज!" बोला वो बाबा!
और मारा फेंक कर एक छोटा सा पत्थर घड़े पर! घड़ा हिलने लगा, इधर से उधर और उधर से इधर! और एक साथ ही हवा में उछल कर, थोड़ी दूर जा गिरा!
"बरुआ!" बोला वो,
धुआं सा नाचा उसके सामने!
"जा! हांक ला जो मन में बैठी हमारे!" बोला वो,
आदेश हुआ और पल में ही धुआं साफ़ हुआ! वहां सभी, चेले और वो जोगन, आंखें फाड़ फाड़ कभी बाबा को देखते और कभी उस औंधे पड़े घड़े को!
"जय हो! जय हो तेरी खंडा!" बोला एक चेला!
"जय! जय!" बोले सभी!
बाबा के होंठों पर मुस्कान तैर गयी! हाथ चलने लगे उसके! उसने हाथ से ऐसे ही किया जैसे किसी की ओढ़नी हटाई हो चेहरे से! आंखें बंद थीं बाबा की!
"उठ!" बोला वो,
और फिर, जैसे चादर हटा दी हो उसने किसी सोते की, ऐसा किया!
"ये रूप तो मेरा हक़ ही है! मैं ही थाल चढ़ाऊं! उठ!" बोला वो,
"उठ!" बोला वो,
और चुप हुआ!
"हां! चली आ!" कहा उसने,
चुप हुआ!
"उठ कर बैठी! उठ! खड़ी हो!" बोला वो,
और उसने हाथ बढ़ाया अपना, जैसे किसी बैठे हुए को हाथ दे कर सहारा दिया हो!
"माँ!" बोला वो,
और हंसने लगा!
"फाटक खुल जा!" बोला वो,
"एक! दो! तीन!" चुटकी मारते हुए, उसने जैसे अपने हाथ से, किसी दरवाज़े की दो सांकलें खोल दीं!
"आ! चली आ! चली आ! कोई नहीं है!" बोला वो,
मुस्कुराया वो!
"वाह बरुआ! वाह!" बोला वो,
और खड़ा हो गया! घूम क्र पीछे देखने लगा, जोगन और वो चेले भी!
"आ जा! आ जा!" बोला वो,
और आंखें फाड़, देखता रहा!
"आ गयी! आ! आ!" बोला हाथों को चलाते हुए कि जैसे कोई आ रहा हो, उसके इशारे समझ कर!
वे चेले और वो जोगन रह गए सन्न! उन्होंने देखा, अलसायी सी, नशे में बंधी सी, पाँव आगे सरकाती हुई, राधा चली आ रही थी! सर-माथे कोई ओढ़नी नहीं, वस्त्र, अस्त-व्यस्त थे, चेले तो गुच्छार(ख़ुशी के मारे फट ही जाना) भर उठे! एक कंधे से, वस्त्र ढुलक गया था! चोली की गांठ, ऊपर सरक आयी थी!
"आ जा! आ जा मेरो परधानी! आ जा!" बोला वो,
मित्रगण! क्षुद्र तांत्रिक, ऐसा ही करते रहे हैं! अपनी शक्तियों से अनैतिक कार्य करवा करवा, अपना अर्थ सिद्ध करते रहे! आज भी करते हैं! बरुआ, हांक लाया था, बरुआ जैसे और भी हैं, ये सब 'हांकला' श्रेणी के क्षुद्र-प्रेतगण हैं! अब इस से आगे का लक्ष्य होता है, उस अमुक स्त्री या कन्या से दैहिक-संसर्ग करना, अब वो स्त्री तो ऐसी चेतनावस्था में है नहीं? तब? तब, सूतनी जैसी कामुक, क्षुद्र-देवी आदि को वे इसमें प्रविष्ट करवा देते हैं! यथा, उद्देश्य पूर्ण हो जाता है!
अब आप स्वयं एक बात सोचिये! ये जो लोग, वशीकरण, प्रत्यक्ष-वशीकरण, महामोहन, महामोहिनी का दम भरते हैं, वे क्या सच में उस लक्ष्य हेतु लक्ष्य सिद्ध कर पाते हैं? अर्थात कोई जाए फलां ऐसे ही तांत्रिक के पास, कि फलां स्त्री मेरे वश में हो जाए, तब क्या होगा? पहले-पहल वो तांत्रिक उस स्त्री को अपने वश में करेगा, फिर वो आगे उसे 'सौंप' देगा, इसे मोहन-भाज कहते हैं! जब वो अपने वश में करेगा, और इस प्रकार के नीच-कर्म कर ही रहा है तब उस तांत्रिक का क्या विश्वास?
इसीलिए पायल पहनाने का, चूड़ियां पहनाने का रिवाज़ चलन में आया! ये कोई शास्त्रोक्त नहीं है! कोई नियम नहीं है! खैर!
"आ जा!" बोला वो,
और वो राधा, चलती चली आयी! सभी ने रास्ता छोड़ दिया! बाबा ने अपना सर बांधा अब एक कपड़े से और बैठ गया!
"सामने ला बरुआ!" बोला वो,
और राधा, सामने आ, नीचे बैठी, बैठी, तो जैसे बिस्तर पर हो, करवट बदली, घुटने अपने पेट से लगाए और गहरी नींद में चली गयी, जैसे, अपने घर में ही हो!
"तेरा ये उन्मत्त यौवन! किसे न विचलित कर दे!" बोला वो, और उठ खड़ा हुआ, अपनी धोती, थोड़ी सरका ली नीचे, नाभि से, अपनी तगड़ी, जिसमे, पकी मिटटी के नौ लिंग बिंधे थे, अब उतार दी और रख दी अपने झोले के पास!
"जाओ, सब पीछे जाओ! जोगन? तू भी जा पीछे!" बोला वो,
और आगे बढ़ा, जैसे ही बैठा कि!
"रुक?" आयी आवाज़!
वो खड़ा हो गया, मुस्कुराता हुआ!
"रुक? इसे मत छूना!" बोला कोई,
"अंधा-पीर! हां! हां! अंधा-पीर!" बोला हंसते हुए!
"हां! अंधा-पीर!" आयी आवाज़!
"हां! तूने ही मारा था न लोखन को?'' बोला वो,
"मैंने नहीं!" बोला कोई,
"फिर किसने मारा? किसकी मज़ाल?" बोला वो उपहास सा उड़ाते हुए!
"उसकी बदनीयत ने!" बोला वो,
"ये क्या होता है?" पूछा बाबा ने!
"जान जाएगा!" बोला अंधा-पीर!


   
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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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"जानता हूं!" बोला वो,
"तब भी चेता नहीं?" बोला वो,
"चेता?" बोला दहाड़ते हुए!
"हां! चेत जाता तो ये यहां नहीं होती!" बोला वो,
"तू तो ऐसे बोल रहा है कि जैसे तेरी ही बेटी हो ये?" बोला हंसते हुए!
"मेरी जगह पर आने वाली हर औरत मेरी बेटी ही तो है!" बोला वो,
"वाह रे अंधे पीर!" बोला वो,
"लानत है तुझ पर!" बोला वो,
"जानता है तू अंधा क्यों कहलाता है?" बोला वो,
"जानता हूं!" बोला वो,
"क्यों भला?'' बोला वो,
"यहां से कुछ दूरी पर, भूड़ी देवी का स्थान है! वहाँ, एक सिद्ध था, उसने ही मुझे चौबंद किया है! मैं अंधा हूं क्योंकि मैं, बुरा देखना नहीं चाहता!" बोला वो,
मित्रगण! ये अंधा पीर, सच में ही अंधा नहीं है! इसे पीर की उपाधि प्राप्त है, पीर का अर्थ होता है पीड़ा, जो, बिन कहे, फरियादी की, बिन सुने, बिन जांचे पीड़ा, उठा ले, उसे उस पीड़ा से निजात दे, ऐसी हर शय को पीर ही कहा जाता है! पीर, मज़हब से अल्हैदा ही रहता है, उसके लिए सब एक जैसे, क्या इंसान और क्या जानवर! जब भी कभी कोई भैंस या गाय, लात जाए, अर्थात दूध बंद हो जाए अचानक, तब नीम की डंडी ले जाइये किसी भी पीर की दरगाह पर, दूध का छींटा दीजिये, और वो ही डंडी थनों पर छुआ दीजिये, यदि कोई शारीरिक रोग भी हुआ तो ठीक हो जाएगा, थनैला आदि रोग समाप्त हो जाएंगे! अब कौन ध्यान देता है! अंग्रेजी के ज्ञान ने, ये मूलभूत ज्ञान, छिपा ही दिया है!
"तुझे जब चाहूं, तब यहीं दफन कर दूं!" बोला वो,
"जानता हूं खंडा!" बोला वो,
''तो हट जा!" बोला वो,
"मुझे गिरा दे!" बोला वो,
"तेरा अपमान नहीं करूंगा!" बोला वो,
"तो इसे मैं मान भी नहीं मानता!" बोला वो,
"नहीं हटेगा?" बोला वो,
"नहीं!" बोला वो,
"खंडा को क्रोध आएगा!" बोला वो,
"कुछ न होगा!" बोला वो,
"होगा!" बोला वो,
"तेरा नाश!" कहा उस अंधे पीर ने, और ज़ोर का ठहाका लगाया!
और ठहाका लगाया उस खंडा ने भी!
"अंधे?" बोला वो,
अब वो नहीं बोला!
"मुझे न धन चाहिए, न भूमि! मुझे ये लड़की चाहिए!" बोला वो,
"नहीं कह सकता!" बोला वो,
"नहीं कह सकता?" बोला वो,
"हां!" बोला वो,
"तब ये भूमि किसकी है?'' बोला वो,
"सिद्ध की!" बोला वो,
"मुझे कोई मतलब नहीं उस से!" बोला वो,
"जानता हूं!" बोला वो,
"तू हट! जा!" बोला खंडा और हट्ल उठा लिया झुक कर!
"तू कहना चाहता है कि मुझे ये नाग रोकेंगे?" बोला वो,
"पता नहीं!" बोला वो,
"कैसे नहीं पता?" बोला वो,
"देखता नहीं!" बोला वो,
"क्या?" बोला वो,
"दीखता नहीं!" कहा उसने,
"ये किसकी प्रेमिका है?'' बोला वो,
"पता नहीं!" बोला वो,
"और इसका प्रेमी कौन?" पूछा उसने,
"पता नहीं!" बोला वो,
"तो कौन इसे, प्रेम करता है?" बोला वो,
"पता नहीं!" बोला वो,
"और ये?'' बोला वो,
"दीखता नहीं!" बोला वो,
"क्या?" बोला वो,
"नहीं दीखता वो!" बोला वो,
"तो कोई है जिसे ये प्रेम करती है!" बोला वो,
"पता नहीं!" बोला वो,
"बस अंधे! बस!" बोला बाबा, आया आगे सामने, और पढ़ा मंत्र! मंत्र पढ़ते ही, कड़क की सी आवाज़ हुई और अंधा-पीर, हट गया! हटना पड़ा उसे! मान रखना पड़ा उसे उस अमोघिनि का! इसीलिए हट गया!
अब बाबा का सर खुजलाया! उसने झट से हवा में ही गिनती कर दी! और चला राधा की तरफ!
"लड़की? आंखें खोल?" बोला वो,
अलसायी सी, सीधा हुई और आंखें खोल दीं! लेकिन वो, राधा न हो कर, राधा मंत्रों में बंधी राधा थी, जो साफ़ सुने और साफ़ ही उत्तर दे!
"क्या नाम है तेरा?" बोला वो,
"राधा!" बोली धीरे से,
"यहां क्यों आयी?" बोला वो,
"घर पर हूं!" बोली वो,
बाबा मुस्कुराया!
"तेरे मन कौन बैठा?" बोला वो,
"वो!" बोली वो,
"कौन वो?" बोला ज़ोर से बोलते हुए!
"वो!" बोली अबकी बार, बाहर को इशारा करते हुए!
"नाम बता?" बोला वो,
"नहीं पता!" कहा उसने,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"कौन वो?" पूछा बाबा ने,
"वो, वो ही" बोली फिर से,
"कौन वो? बता?'' बोला गरज कर!
"व्यापारी" बोली बेचारी सहम कर!
"व्यापारी?" बोला वो,
"हूं" बोली सर हिलाते हुए!
"तू प्रेम करती है उस से?" पूछा उसने,
"हूं" बोली वो,
"कब मिला था?" पूछा उसने,
"मेले में!" बोली वो,
"जोगन?" बोला वो,
"बाबा?'' बोली वो,
"मेला कौन सा?" पूछा उसने,
"नाग-पंचमी का!" बोली वो,
"नाग-पंचमी!" बोला वो,
और एक कुटिल सी मुस्कान उसके होंठों पर तैर चली!
"ए लड़की?" बोला वो,
और अपने पांव से, उसका चेहरा उठाया!
"कभी फिर मिली?'' बोला वो,
"नहीं!" बोली राधा,
"कभी नहीं?'' पूछा उसने,
"नहीं" बोली वो,
"नाम क्या है उसका?" बोला वो,
"नहीं पता!" बोली वो,
"कौन गांव का है?" बोला वो,
"पता नहीं!" बोली वो,
"क्या था उसके पास बेचने को?" पूछा बाबा ने,
"पता नहीं!" बोली वो,
"तेरी मां का जंवाई!! बताती है या यहीं कर दूं उठा-पटक?" बोला वो,
"नहीं पता" बोली वो,
तब बाबा ने, उसके सामने के कपड़े पकड़ लिए, और उठाने के लिए खींचा, बटन एक एक कर टूटने लगे! बटन क्या थे, रस्सी की गांठें थीं! सीधा नज़र उसकी, उसकी चोली पर गयी!
"वाह! वाह लड़की!" बोला वो,
"हटा दो बाबा! जय हो! जय हो!" बोला एक चेला कहीं से! बाबा ने फौरन ही कड़वी निगाह से देखा उसे, हवा सरक गयी चेले की!
"जोगन?" बोला वो,
"बाबा?'' बोली वो,
"ये तो सच में ही छुरी है!" बोला बाबा!
चेलों के दांत फ़टे! खी-खी कर हंसने लगे सभी!
बाबा ने सर झुकाया और उस राधा के गले में पड़ी एक माला देखी, ये माला मां की दी हुई थी! उसने खींच कर तोड़ दी! और अपना सर, उसके वक्ष में धँसाने ही चला था की, सामने रखा घड़ा फट पड़ा! बरुआ की चीख गूंजी और लोप हुआ! चेले दौड़े और बाबा के पीछे आ सिमटे! वो जोगन वहीँ बैठ, पत्थर सी बन सब देखने लगी!
"ठहर जा!" आयी एक लड़की की आवाज़!
"ओ हिमायतन!" बोला वो,
और राधा को छोड़ दिया! राधा भड़भड़ा के नीचे जा गिरी!
"सामने तो आ?" बोला वो,
"चला जा खंडा!" आयी आवाज़,
"खंडा नहीं जाए!" बोला वो,
"अब इस छूना नहीं! सोचना भी नहीं!" आयी आवाज़,
और ठीक सामने से, वो ही छोटी सी लड़की, उस खजूर के पेड़ की करवट में आ खड़ी हुई!
"कन्या!" बोला वो,
"लौट जा!" बोली इशारे से,
"ओ कन्या!" बोला वो,
और वो परम् ढीठ, खिलखिला कर हंसा!
"खंडा, तो नीच ही नहीं अधम भी है!" बोली वो,
"मैं? हां! हूं!" बोला वो,
"मुझे पहचान नहीं पाया?'' बोली वो,
"पहचान गया!" बोला वो,
"कौन हूं मैं?" बोली वो,
इसकी हिमायतन!" बोला वो,
"बस?" पूछा उसने,
"यही बहुत है!" बोला वो!


   
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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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"उत्तम भी यही है तेरे लिए!" बोला वो,
"ओ हिमायतन!" बोला वो,
वो कन्या ज़रा आगे आयी अब!
"इस खंडा को शक्तियां दान में नहीं मिलीं! ये शक्तियां पैदा होते ही नहीं आ गयी थीं मुझ में! मैंने अथक परिश्रम किया है! गुरु-सेवा की है! भटक भटक कर मैंने ये सब अर्जित किया है! तेरे जैसी नाग-कन्या, मेरा कुछ अहित नहीं कर सकतीं!" बोला वो,
"अहित तो हो चुका खंडा!" कहा उसने,
"अच्छा? वो क्या?" बोला वो,
"तूने इस मासूम को स्पर्श किया, इसकी इच्छा के विरुद्ध कार्य किया, इसके तन को भोग्या का तन समझा!" बोली वो,
"भोग्या? हां!" बोला वो,
"यही अहित है तेरा!" बोली वो,
"ओ कन्या! तू छोटी नहीं कि तू अल्हड़ता दिखाए और मैं मूर्ख मनुष्य के समान  तुझ पर विश्वास कर लूं! मैं जानता हूं, सब जानता हूं! तभी तो चला आया हूं!" बोला वो,
"चला तो आया खंडा! अब लौटेगा नहीं!" बोला वो,
"ओह! मैं तो सदा से ही मृत्यु का प्रेमी रहा हूं! कर कन्या! प्रयास कर!" बोला वो,
"खंडा, तेरी शक्तियों का मान है जो तू अभी तक जीवित है!" बोली वो,
"ना! मान न कर! क़तई न कर!" बोला वो,
"यही तो अंतर् है हम दोनों में!" बोला वो,
"अंतर् क्या है? बताऊं? मैं इस लड़की के संग संसर्ग करूंगा! जो रोक सके, वो रोक ले!" बोला वो,
और ये कह आगे बढ़ा!
"ठहर खंडा!" बोली वो,
और अगले ही पल, एक नाग-कन्या में परिवर्तित हो गयी!
"ये तो सब, खचा है! नकली है! असली तो ये है! ये!" बोला वो राधा को देखते हुए!
"खंडा?" बोली वो,
"हां?" बोला वो उपहास में!
"इस निरअपराध राधा को घर जाने दे, फिर तू क्षमा मांग और लौट जा!" बोली वो,
"घर? नहीं! अब तो ये मेरी दासी है! इसके स्तन नहीं सूखने दूं!(अर्थात, सदैव ही वो गर्भवती ही रहे) इसे जो चाहिए, सिर्फ मैं ही दे सकता हूं!" बोला वो!
"क्यों अनर्थ को आमंत्रित करता है खंडा?" बोली वो,
"किया तो किया!" बोला वो,
और एक ही बार में ज़ोर से घूमा, पांव की उंगलियों से झट से मिट्टी उछाल, हाथ में लेनी चाही, कि तभी मिट्टी में जैसे आग सी लग गयी! एक पल के सौंवें भाग में रौशनी हुई उधर और फिर सब पहले जैसा हो गया!
"तू इतना चपल नहीं खंडा!" बोला वो,
"देख लिया!" बोला वो,
और अपना भाल छुआ उसने दो उंगलियों से, मन्त्र पढ़ा, नेत्र सूज चले इस से पहले कि थूकता, पांव उखड़ गए उसके! गिरते गिरते ही बचा!
"जा खंडा, जा!" बोली वो,
"नहीं! नहीं!" बोला वो,
और धम्म से बैठ गया वो, नेत्र बंद किये और वहां, भयानक सा ताप बढ़ने लगा! वो कुमारी दौड़ के आयी और उस राधा की देह को देखा, अगले ही पल, उस राधा की देह, ज़मीन से उठा गयी, करीब एक फुट ऊपर, केश सामने आ गए वक्ष पर, उसके वस्त्र आदि, अंगादि भूमि को स्पर्श नहीं कर रहा था अब!
ये देख खंडा बिफर पड़ा! उठा!
"तू है कौन?'' बोला वो चीख कर!
"तूने पहचाना नहीं?" बोली वो,
"मुझे मुग़ालता कैसे हुआ?'' बोला वो,
"तू मुग़ालते में ही तो है!" बोली वो,
''सच बता?'' बोला वो,
और तभी राधा का शरीर फिर से, आहिस्ता से भूमि पर रख दिया गया!
"खंडा!" बोली वो!
और अब स्वयं ही हवा में उठी! ये देख, खंडा ज़रा पीछे हुआ! पीछे बैठे चले, न कुछ सुन ही पा रहे थे, न देख ही पा रहे थे, जो देखा था, राधा का शरीर, जो उठा था और अब पुनः नीचे थे! ये देख वे सांस तक लेनी भूल गए थे, रेत की सी देह बन गयी थी उसकी उस समय! हाथ लगाओ और ढह जाए!
"जा खंडा!" बोली वो,
"जाऊंगा तो कभी नहीं!" बोला वो,
"परिणाम जानता ही होगा?'' बोली वो,
"इसे धमकी मानूं?" बोला वो,
"सलाह ही मान!" बोली वो,
"सब छोड़? ये बता, तू है कौन?" बोला वो,
"कौन लगती हूं?" बोली वो,
"मुझे बता?" बोला वो,
"जान नहीं सकता? नक्ष, अंडक, कुपाल, हहैया आदि सब, दग्ध हो गयीं? क्यों खंडा?" बोली वो अब ज़ोर से हंसते हुए!
और हुआ भी यही था, उसकी सहयोगिनियां,शक्तियां, विद्याएं, दग्ध हो चली थीं!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"खंडा?" बोली वो,
खंडा चुप्प!
"अग्नि से उसका गुणधर्म छीना जा सकता है?" पूछा उसने,
खंडा पर कोई उत्तर नहीं!
"उसका शमन ही हो सकता है, उसका मूलभूत गुण कदापि नहीं जाता!" बोली वो,
खंडा पर बोला न बना! न बना? या बोला नहीं? उस धूर्त का धूर्त मस्तिष्क, फौरन ही करवट बदल गया था! युक्ति-तर्क-नीति जो कहती है, उसी के अनुसार, फौरन ही ढाल गया था अपने आपको! अर्थात, हथियार हो, परन्तु बारूद नहीं, अश्व हो, परन्तु घायल हो, तब, कुछ किया ही नहीं जा सकता! उसके पास विद्या जगाने का अवसर था, दग्ध हो जातीं, नहीं किया! उसके पास, भिड़ने का पूर्ण अवसर था, परन्तु मन में संशय भी था! यदि संशय का, एक अंश भी किसी योजना में दिखे तो समझो वही सबसे कमज़ोर हिस्सा है उस बुनियाद का! इस समय तो बुनियाद हिल चुकी थी खंडा की! फौरन, परिस्थिति ताड़ गया और चुप्पी लगा गया!
"लौट जा खंडा!" बोली वो,
"ऐसे नहीं लौटूंगा!" बोला वो,
"जानती हूं!" बोली वो,
"क्या जानती है तू?" बोला वो,
"तू फिर से लौटेगा!" बोली वो,
और खिलखिला कर हंस पड़ी!
"आज तेरे प्राण शेष रहे, उस दिन तक के लिए!" बोली वो,
"तो सुन कन्या! लौटूंगा? हां! अवश्य ही लौटूंगा! इसे अपनी शैय्या-दासी बनाऊंगा? तो अवश्य ही बनाऊंगा! इसे कौन कौन नहीं भोगना चाहेगा! जानती है न? साफ़ साफ़ कह रहा हूं!" बोला वो,
"ज्ञात है! यही तो कारण है इसे यहां लाने का! तूने धन नहीं चुना! यही तो तेरे धन के लालच से भी बड़ा लालच है!" बोली वो,
"वाह री! तुझे सब ज्ञात है?" बोला वो,
"हां, सब ज्ञात है!" बोली वो,
"क्या ये भी, कि चौभुजा में तू बंध गयी है?" बोला वो,
"ज्ञात है!" बोली वो,
"कोई भय नहीं?" पूछा उसने,
"कैसा भी खंडा?" बोली वो,
"कि अब तू हिमायत कैसे करेगी इसकी!" बोला वो,
"क्या आवश्यकता!" बोली वो,
"नहीं है क्या?'' बोला वो,
"नहीं है!" बोली वो,
"मैं तो देख रहा हूं!" बोला वो,
"मैं देख रही हूं खंडा का सर, धड़ से अलग हो गया है!" बोली वो,
"यदि ऐसा हुआ, जो तू देख रही है, तो समझना खंडा गलत था!" बोला वो,
"खंडा गलत ही है!" बोली वो,
"ये अंतिम वार्तालाप है?'' पूछा उसने,
"हां!" बोली वो,
"तब तो कुछ बता! बता इसका प्रेमी कौन है?'' बोला वो,
"तुझे क्या लेना?" पूछा उसने,
"जान कर भी अनजान?" बोला वो,
"तभी तो कहा!" बोली वो,
"बता दे?'' बोला वो,
"तेरी पहुंच नहीं!" बोली वो,
"और तेरी भी नहीं!" बोला और जमकर हंसा!
"ये तो तू जानता है! मानना नहीं चाहता!" बोली वो,
"मैं मानता हूं! लेकिन कुछ जानना भी है!" बोला वो,
"तब, प्रतीक्षा कर!" बोली वो,
"नहीं करूंगा!" बोला वो,
"खंडा! पवन में मुट्ठी बांधने से, पवन, पकड़ में नहीं आती!" बोली वो,
"आती है!" बोला वो,
"असम्भव!" बोली वो,
"असम्भव को सम्भव ही बनाने आया है खंडा!" बोला वो,
"असम्भव तो असम्भव ही है!" बोली वो,
"कन्या?" बोला वो,
"बोल?" बोली वो,
"इस खेल में तीसरा, यानि मैं, लाभ उठा गया!" बोला वो,
और अब खिलखिला कर हंसा!
"ये तो तूने सही कहा!" बोली वो,
"जो करूंगा, वो भी सही होगा!" बोला वो,
"सही तो यही था, तेरा यहां न आना!" बोली वो,
''आना तो था!" बोला वो,
"वो भी जानती हूं!" बोली वो,
"दया कर रहा हूं! कुछ दिनों के लिए!" बोला वो,
"किस पर?'' बोली वो,
"इस राधा पर! ओ लड़की? उठ? भोर फट लेगी! जा, घर को जा अब!" बोला वो,
उसने बोला, और राधा उठी, न देखा कुछ, न सुना ही कुछ, चुपचाप वहां से चलती चली गयी राधा! और......................


   
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श्रीशः उपदंडक
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प्रसन्न सा हो, बाबा खंडा भी ठहाके लगाने लगा! सामने से, वो कन्या, वो कारुणि भी चली गयी थी! भोर होने को थी, आकाश पर लालिमा, पूर्वी क्षितिज पर नज़र आने लगी थी! जब सब सामान्य हुआ तो मुस्तैद से चेले भी सभी सम्मुख आ गये, चरणों में पड़ उसके, गुणगान करने लगे! वो जोगन भी कुछ प्रसन्न सी ही लगी! उम्मीद बंध गयी थी कि हो न हो, बाबा खंडा ही कुछ न कुछ तो ज़रूर ही ले लेगा!
"जय खम्मणनाथ!" बोला वो,
और लौट पड़ा, अब स्नान और फिर कुछ देर विश्राम! उसके चेहरे से देख पता चलता था कि कुछ तो है ही ऐसा जो उसकी उलटी-खोपड़ी में सीधा घूम रहा है! लेकिन ये था क्या? उसके सिवाय नहीं जानता था कोई!
शाम की बात होगी...
"जोगन?" बोला वो,
"बाबा?" बोली जोगन,
और दूध का लोटा उसे पकड़ा दिया, उसने दूध का लोटा लिया और सकोरे में परोस लिया दूध!
"नाग-पंचमी अब से नौ दिन बाद है!" बोला वो,
"हां बाबा!" बोली वो,
"ये पंडत?" बोला वो,
"आ लेंगे!" बोली वो,
"ठीक है!" बोला वो,
"कोई काज?" बोली वो,
"ना! कुछ ना!" बोला वो,
"हर्रू?" बोला वो,
हर्रू दौड़ के आया वहां!
"आदेश!" बोला वो,
"कुछ रकम इस जोगन को दे दे, मेले तक रुकना है!" बोला बाबा,
"अभी देता हूं!" बोला वो,
और अपनी धोती में उड़ेसे हुए नोट, दे दिए उसे, इतने कि खान-पीन हो ही जाता उनका, कुछ तो लोग दे जाते थे, कुछ तीज-त्यौहार से पहले भी मिल ही जाता!
"जोगन?" बोला बाबा,
"बाबा?" बोली वो,
"तू खाये है?" बोला वो,
"क्या बाबा?" बोली वो,
"बकरा!" बोला वो,
"हां, कभी-कभी!" बोली वो,
"कहां?" पूछा उसने,
"किसी के घर, जब रांधता है तो!" बोली वो,
"पंडत जाने हैं?" बोला वो,
"ना!" बोली वो,
हंस पड़ा बाबा!
"आज रंधवा ले कहीं?" बोला वो,
''कह देती हूं!" बोली वो,
"आवे है कोई?" बोला वो,
"एक की औरत आती है, सस्वती!" बोली वो,
"वाह! नाम सरस्वती काम उलटी मति!" बोला बाबा,
तो साहब, बाबा की दावत हुई उस दिन, उस दिन क्या, अब तो रोज सी ही दावत थी! वजन ही बढ़ गया हो तो कुछ कहा नहीं जाए! इधर बाबा भी तल्लीनता से दूर जंगल में जा जा, अपनी विद्याएं, सिद्धियां जगाता रहता! मेले का दिन निर्णायक था, या तो खंडा नहीं, या सब खंडा का ही!
एक दिन की बात है, करीब दोपहर का समय था! गांव में दो सपेरे चले आये, एक युवक था और एक अधेड़, एक एक के घर में जा, कुछ न कुछ मांग ही लेते थे, नाग-पंचमी बस आने को थी, श्रद्धा का सैलाब फूटा हुआ था गांव में, गांव में कुछ मुस्लिम लोग भी थे, वे भी साज-सज्जा में सभी का हाथ बंटा रहे थे! ये लोग,, टोकरा आदि बनाते थे बांस का, गांव के बामणों को, जूतियां भी दी जाती थीं, सभी का काम, आपस में ही मिल-बांट कर ही चलता था! तो जब ये सपेरे वहां से निकले, तब एक बूढ़ा आदमी चला आया उनके पास! और छूटते ही पूछा...
"सधुआ ज़िंदा है?'' बोला वो,
युवक तो समझ नहीं पाया, लेकिन वो अधेड़ चौंक पड़ा!
"कौन सधुआ बाबा?" बोला वो,
"वो सपेरा?" बोला वो,
"कौन सपेरा?'' पूछा उसने,
"बरलोई वाला?" बोला वो,
"आप कैसे जानते हो उन्हें?" पूछा अधेड़ ने,
"बता तो?" बोला वो,
"हां, ज़िंदा है!" बोला वो,
"वो नहीं आया?" पूछा उस से,
"नहीं!" बोला वो,
"क्यों?" बोला वो,
"पता नहीं, उसकी राजी!" बोला वो,
"सधुआ से मिलेगा?'' बोला वो,
''हां?" बोला वो,
"कब?" पूछा उसने,
"मेले बाद!" बोला वो,
"तब तक तो ख़तम सब!" बोला वो,
"ख़तम?" बोला वो अधेड़,
"हां, ख़तम!" बोला वो,
"क्या ख़तम?" पूछा उसने,
"मैं भी, सधुआ भी!" बोला वो,
"क्या मतलब?" बोला वो,
"नब्बे एक इक्यानवे मिले थे, सो पूरे हो लिए!" बोला वो,
अब तो अधेड़ का गला सूखा!
"आ...आप कौन हो?" पूछा उसने,
"जान जा?'' बोला वो,
"नहीं जान रहा...हाय रे मेरा नसीब....." कहते हुए आंसू निकल पड़े उसके,
"मत रो!" बोला वो बूढ़ा!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"पहचान गया!" बोला वो,
"सधुआ को बोलना, आ सके तो आना!" बोला वो,
"हां, आज ही बुलावा भेज देता हूं!" बोला वो,
"ठीक है!" बोला वो,
और वे दोनों ही सपेरे, लौट लिए! न जाने क्या राज़ था, न जाने क्या बात थी, जो सिर्फ इन बुज़ुर्ग को और उस सधुआ को ही पता थी! ये सधुआ, उस सपेरे कबीले का सरदार था, अब वृद्ध था, लेकिन उसका मान अभी तक क़ायम था और जो ये बुज़ुर्ग थे, ये भी उनके ही हमउम्र ही थे! उस गांव में, न जाने क्या खेल खेला जा रहा था, हर कोने में खेल और इस बार, इस गांव में, एक मासूम सी लड़की, राधा को भी चुन लिया गया था!
देखा जाए तो सबसे ज़्यादा फ़ज़ीहत, इस राधा की हुई थी! एक तो कुंवारी, रूप-यौवन से भरपूर, और सबसे बड़ी बात एक औरतज़ात! अब छुरी खरबूजे पर गिरे या खरबूजा छुरी पे, कटना तो खरबूजे को ही था, बस यही बात थी!
एक दिन शाम की बात है, राधा की मां की तबीयत बिगड़ी, हाल हाल में वैद्य जी को बुलाया गया, न बचाया जा सका, शहर तक जाने के लिए न कोई साधन ही था, न कोई समय ही, इस कारण राधा की मां पूरा हो ली, अब एक तरह से राधा, बेसहारा सी ही हो गयी थी, रह गया था तो बस उसका भाई वासु, जो उसकी देख-रेख करता था, आंसू भाता, नसीब को रोता, लेकिन कर कुछ नहीं सकता था!
और फिर मित्रगण!
आ गया मेले का दिन! राधा, न खाने का होश और न पीने का ही! भाई भी कहां उसके आगे पीछे घूमता, मेले का शोर सुन, राधा भी निकल पड़ी मेला देखने, उस वक़्त की राधा, और इस वक़्त की राधा, अलग अलग हो गयी थीं! और अब कोई उसके पीछे थे, तो वो था बाबा खंडा!
आज कोई संग नहीं था उसके, हां, इक्का-दुक्का मनचले ज़रूर निगाह भर लेते थे उस पर! न उसे कुछ उनसे लेना था, न बाज़ार से ही, न मेले से ही! वो तो चले जा रही थी, जो कुछ उसे याद था, याद था तो बस वो बड़ा सा पेड़, जिसकी जड़ें बाहर निकली हुई थीं! उसके पांव में कांटा लगा था! और किसी व्यापारी ने निकाला था! बस! यही याद था उसे! उसे हृदय में वही एक चेहरा था, जिसे वो न भूल सकी थी! मन ही मन, अपने मन को भी झुठला, आगे बढ़ते जाते हुए, प्रेम का कांटा हृदय में बींधे, चलते जा रही थी!
"रुक?" बोला कोई,
वो रुकी बाएं देखा, दो बुज़ुर्ग, कमर झुकी हुई! एक बुज़ुर्ग गांव के और एक सधुआ!
"ले, ये रख ले!" बोला सधुआ!
और दे दिया एक रुद्राक्ष सा फल उसे!
"इसे, हाथ से अलग नहीं करना, जो भी मांगे दे देना!" बोले बुज़ुर्ग!
"याद रखना, स्वयं ही नहीं, किसी के मांगने पर देना!" बोला सधुआ!
इतना बोल, वे दोनों बुज़ुर्ग चले गए! मेले से अगले दिन, वो बुज़ुर्ग और वो सधुआ, इस संसार को छोड़ चुके थे!
"ध्यान रखना!" जाने से पहले, वे कहते चले थे!
राधा ने वो फल, मुट्ठी में पकड़ लिया! जैसे ही पकड़ा, कि जैसे उसमे कुछ संचारित हुआ, उसका जैसे, मस्तिष्क, परिवर्तित हो गया! उसने पीछे देखा, भीड़ थी! दाएं, बाएं, भीड़, फिर अपने पांव देखे, कीचड़ में सने! फिर अपने वस्त्र देखे, अस्त-व्यस्त! होश क़ाबिज़ हो उठे! अब संतुलित सी हो, आगे चल पड़ी! उसी पेड़ के लिए! वहीँ से तो सब शुरू हुआ था!
वो कभी दौड़ती, कभी रुक जाती, आसपास देखती, जैसे ढूंढ रही हो किसी को! फिर से चल पड़ती!
और इस बार जैसे ही सर उठाया, कि सामने खड़ा था बाबा खंडा!
"जानता था तू बदल जायेगी!" बोला वो,
"कौन?" बोली वो,
"बता दूंगा!" बोला वो,
"बता?'' बोली इरादे देख उसके!
"बाबा खंडा!" बोला वो,
"क्या चाहिए?'' बोली वो,
"हाथ खोल?" बोला वो,
"क्यों?" बोली वो,
"मुझे दे वो फल!" बोला वो,
"फल?" बोली वो,
"हां, याद नहीं?" बोला वो,
"कोई फल-वल नहीं मेरे पास!" बोली वो,
"ए लड़की!" बोला वो,
वो उसे किनारे कर आगे चल तो हाथ पकड़ लिया उसका! राधा को आया गुस्सा! हाथ झिड़का और खींच कर एक चांटा जड़ दिया! चलती भीड़ रुक गयी! हाथ छोड़ दिया उसका! वो दौड़ चली!
"आनंद! आह! आनंद!" बोला मुस्कुराते हुए!
और पीछे लग लिया!
"हर्रू?" बोला वो,
"आदेश?" बोला वो,
संग ही चल रहा था वो, साथ ही साथ!
"नज़र में रख!" बोला वो,
"आदेश!" बोला वो,
और दौड़ लिया, बाबा भी चलता रहा पीछे पीछे!
एक जगह दोनों ही रुक गए, पीछे देखा, कोई नहीं आ रहा था!
"कहां है?'' बोला बाबा,
"उधर!" बोला वो,
''समझ गया!" बोला वो,
और दौड़ पड़ा उधर के लिए!
"हर्रू?" बोला वो,
"आदेश?" बोला वो,
"कोई भी रोके, तो हटा देना!" बोला बाबा,
"आदेश!" कहा उसने,
"जहां मैं होऊंगा, कोई नहीं आये!" बोला वो,
"हां!" कहा उसने,
और तभी बाबा के पहियों को जैसे किसी दीवार ने रोका! बाबा झुक कर रुक गया! सामने देखा!


   
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श्रीशः उपदंडक
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खंडा ने नज़र उठा के देखा सामने! ये क्या? वहां एक नहीं, सैंकड़ों वृक्ष थे! और वे भी सभी एक ही जैसे? और राधा? वहां तो राधा भी असंख्य दीख रही थीं! ये कैसा दृष्टि-दोष हुआ था उसे? कौन असली थी और कौन नकली? छाया? प्रतिरूप? क्या खंडा बाबा गच्चा खा गया?
"किसका खेल है ये?" वो चिल्लाया!
और वो जो लड़की थी राधा, वो जो सब उसके रूप में थीं वहां, वे सब सर घुमा उसे देखने लगी थीं!
"ये नाग-विद्या नहीं!" चिल्लाया वो!
और थोड़ा सा आगे बढ़ा! जैसे ही बढ़ा, वो जगह, जहां वे सब वृक्ष थे, वो लड़कियां थीं, जितना आगे वो बढ़ा था, उतना पीछे हट गयी थी!
"ये तो ढाकरी है!" बोला वो,
और आसपास देखा उसने!
"ढाकरी?" चिल्लाया वो!
वे सब मुस्कुरा उठीं!
"तू कौन है?" पूछा उसने,
अब हंसने लगीं!
"क्या तू स्वयं ढाकरी है?" बोला वो,
वे लड़कियां खड़ी हो गयीं! और एक बोली...
"मैं कारुणि हूं खंडा!" बोली वो,
''कारुणि?" बोला वो,
"हां!" बोली वो,
"ऐसा नहीं हो सकता!" बोला वो,
"क्यों?" पूछा उसने,
"कारुणि को तो मैं चौभुजा में बांध आया हूं!" गरज के बोला वो,
"ये तेरी भूल ठहरी!" बोली वो,
"खंडा कभी भूल नहीं करता!" कहा उसने,
"खंडा, मुझे एक के गिनने में ही उम्र कट जायेगी! जा लौट जा!' बोली वो,
''तू कारुणि नहीं!" बोला वो,
"कारुणि हूं!" बोली वो,
"ये हाम-माया है ढाकरी की!" बोला वो,
"तू सच में जीवट वाला है खंडा!" बोला वो,
"खंडा कभी पीछे नहीं हटा!" बोला वो,
"अब तक ही!" बोली वो,
"अब भी नहीं हटेगा ढाकरी!" कहा उसने,
"तो क्या करेगा?" बोला वो,
"ढाकरी तेरा नाश करूंगा!" बोला वो,
और धम्म से पृथ्वी पर बैठ गया! अपने दांतों से, अपनी तर्जनी उंगली को काट, उसका रक्त अपने मुख में रखा! और मन ही मन, मन्त्र पढ़ता रहा! अचानक से उठा, और सामने थूक दिया! लाल थूक बाहर गिरा!
"जा ढाकरी! तेरा नाश हो!" बोला वो,
और अगले ही पल! अगले ही पल माया का नाश हो गया! खंडा ने दिखा दिया कि वो कम नहीं था! एक एक तैयारी कर के ही आया था!
अब वो आगे भागा और एक जगह आ कर रुका! चारों तरफ देखा और फिर सीधे चल पड़ा! फिर रुका, झुका, और एक चुटकी मिट्टी उठायी! नेत्र बंद किया, विद्या का संधान किया और मिट्टी अपने नेत्रों से लगा ली! ये हामतृण-महाविद्या है! इसकी अधिष्ठात्री श्री स्वप्नचक्रेश्वरी हैं! विकट से विकट माया को भी चीर के रख देती है! शून्य में छिपे, प्रत्येक अवयव को स्पष्ट करवा देती है! और यही हुआ! सर घुमा घुमा के देखा उसने!
''तो वहां है तू!" बोला वो,
और चल पड़ा! चलता जाए, मंत्र पढ़ता जाए!
आखिर में वो वृक्ष ढूंढ ही लिया उसने! और चल पड़ा! वृक्ष की एक जड़ के पास रखे पत्थर पर राधा सर को दबाये हुए बैठी थी!
"राधा!" बोला वो,
राधा ने चेहरा उठाया!
"तो यहां है तू!" बोला वो,
राधा का चेहरा, भावहीन!
"देख!" कहा उसने,
राधा ने उसे ही देखा!
''आ गया हूं मैं!" बोला वो,
राधा मुस्कुरायी और खंडा चौंका!
"कौन है तू?" बोला वो,
उसने सर हिलाकर पूछा कि क्या?
"कौन है?" बोला वो,
"कौन?" बोली वो,
''नहीं! तू राधा नहीं!" बोला वो,
और दौड़ कर चला आया उसके पास! अब गौर से देखा, ये थी तो एक स्त्री ही, लेकिन छाया सी ही!
''फिर से खेल रहा है?" चिल्लाया वो!
और ऊपर देखा!
"डरता है खंडा से?" बोला वो,
और अट्ठहास लगाया!
"खंडा के सामने कोई नहीं रुका!" बोला वो,
थोड़ा और आगे चला!
"अरे सामने आ? उस लड़की को एक बार दया-दान दी! क्यों? अब नहीं दूंगा! तू जानता है! बखूबी जानता है!" बोला वो,
फिर से पलटा, अब उस पेड़ के नीचे कुछ न था, कोई स्त्री नहीं थी!
वो फिर से हंसा!
"नहीं आएगा?'' बोला वो,
और फिर से ज़ोर से हंसा!
"नहीं आएगा?" बोला उपहास सा उड़ा कर!
"ओ कन्या! ओ अंधे! देख! देख खंडा का भय!" बोला वो,
और फिर से पीछे लौट पड़ा!
''ढूंढ लूंगा तुझे!" बोला वो,
और एक जगह, फिर से रुक गया! पास ही एक पत्थर पर निगाह जा पड़ी उसकी!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"हर्रू? ओ हर्रू?" बोला वो चीख कर!
"आया बाबा!" बोला दूर खड़ा हर्रू हाथ हिलाते हुए!
"तो लाख जतन कर ले!" बोला वो,
"हां बाबा?" बोला हर्रू, चला आया था!
"ये देख!" बोला वो,
"क्या बाबा?'' बोला वो,
"कुछ नहीं दिखा?" बोला वो,
"नहीं तो?" बोला वो,
"गौर से देख!" बोला वो,
हर्रू ने गौर से उस पत्थर को देखा और फिर एक झटका सा खाया!
"यहां क्या है?" बोला वो,
"धन!" बोला वो,
(ये धन बाद में सरकार द्वारा निकाल लिया गया था, प्रचुर मात्रा में ये धन निकाला गया था, उन्हें वहां कुछ भग्नावशेष भी मिले थे, वे आज तक जस के तस पड़े हैं!)
"धन?" बोला वो,
"हां!" कहा उसने,
"कितना है?" पूछा उसने,
"पता नहीं!" बोला वो,
"इतना?" पूछा उसने,
"कहा न?" बोला वो,
"क्षमा!" बोला हाथ जोड़ते हुए!
"जा, चला जा वहीँ!" बोला वो,
"आदेश!" बोला वो,
और लौट पड़ा, मुस्तैद हो गया था, उसके और भी संगी-साथी यहां-वहां, योजना के मुताबिक़ तैनात थे!
और वो फिर से चल पड़ा उस पेड़ के लिए! आया पेड़ तक, आसपास देखा, राधा नहीं थी, माथे में शिकन पड़ीं! माथा खुजला लिया उसने! नज़रों ने तो ज़मीन के अंदर तक झांक लिया था!
"चली गयी क्या?" बोला खुद से ही,
"हां!" आयी आवाज़!
'कौन?" बोला वो,
"पहचान?" बोला वो,
"अंधे!" बोला वो,
'हां!" कहा उसने,
"चला जा!" बोला वो,
"तुझे अंतिम बार समझाने चला आया!" बोला अंधा-पीर!
"तू मुझे समझायेगा!" बोला वो,
"हां, समझाऊंगा!" बोला वो,
"क्या समझायेगा?" बोला वो,
"तेरा उद्देश्य नहीं पूर्ण होगा!" बोला वो,
"कैसे नहीं होगा?" बोला वो,
"आज अंतिम दिवस है तेरा!" बोला वो,
इतना सुन, वो तो जमकर हंसा!
"अंधे! आज ईंट से ईंट न बजा दूं तो कहना!" बोला वो,
"प्रत्येक दम्भी का कहना यही होता है!" बोला वो,
"मैं दम्भी?" बोला वो,
"हां!" कहा उसने,
"दम्भ ही दिखाऊंगा आज!" बोला वो,
"कुछ बस में नहीं तेरे!" बोला वो,
"जा! जा! इस से पहले यहीं से रवाना कर दूं तुझे दूर कहीं!" बोला वो,
"समझाना उद्देश्य था!" बोला वो,
"समझा दिया?" बोला वो,
''हां, प्रयास किया!" कहा उसने,
"अब जा अंधे!" बोला वो,
"जाता हूं! जिसे ढूंढता है, वो अध्-कोस पर है!" बोला वो,
"देख लूंगा!" बोला वो,
और अंधा-पीर, चला वहां से!
अब खंडा ने लगाई दौड़! और जा पहुंचा उस पेड़ के पास! लेकिन वहां राधा नहीं थी! राधा कहां थी? आयी भी थी या आयी और चली भी गयी? यहां से मेला दीखता था, लोगबाग आ जा रहे थे, उधर ही पास में, कुछ अश्व भी बंधे थे, जो कि चारा चर रहे थे!
बाबा पेड़ के पास गया! और नेत्र बंद किये! नेत्र बंद करते ही, उसने अपनी विद्या का संधान किया! और जान लिया कि राधा है कहां!
"तो तू वहां है!" बोला वो,
और चल दिया, यहां कुछ तबेले से पड़े हुए थे, कुछ लोग आराम कर रहे थे और कुछ लोग सामान आदि बांध रहे थे!
वो रुका! और देखा एक तरफ, दिखी राधा उसे, वो अकेली ही थी, संग कोई नहीं! जा दौड़ा और जा पहुंचा!
"ओ लड़की?" बोला वो,
राधा ने पीछे देखा, और झट से आगे बढ़ गयी!
"रुक जा?" बोला वो,
रुकने की बजाय और तेज हो गयी वो!
"मैं कहता हूं रुक?" बोला वो,
राधा फिर से भीड़ में जा घुसी, बाबा की नज़र, एक एक को देखे, दिखाई दी और चल पड़ा! वहां पहुंचा, वहां नहीं थी! आसपास देखा, फिर दिखी और फिर उसके पीछे जा भागा!
"रुक राधा!" बोला वो,
वो नहीं रुकी!
"रुक जा?" बोला वो,
ना जी! नहीं रुकी!
"राधा?" बोला गुस्से से!
और भाग लिया उसकी तरफ, आयी वो जैसे ही करीब कि दौड़ कर, उसका कंधा पकड़ लिया! वो चिल्लाई और लोग रुक गए! सभी देखने लगे! गुस्से के मारे कांप रहा था खंडा बाबा!


   
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श्रीशः उपदंडक
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छोड़ना पड़ा हाथ उसे उसका! तब तक राधा भाग कर आगे जा चुकी थी! भीड़ थोड़ा छिटकी तो वो फिर से भागा उसके पीछे! राधा उसे देखा, दौड़े जा रही थी! एक जगह आ कर, रुक जाना पड़ा उसे! आगे हर्रू खड़ा था और उसके साथी! ये देख बाबा के चेहरे पर एक कुटिल सी मुस्कान तैर आयी! राधा, जहां थी, वहीँ ठहर गयी! लेकिन वो घबराई नहीं थी, न ही नज़रें ही छिपाई थीं उसने! बाबा पहुंचा उसके पास!
"लड़की?" बोला वो,
"क्या बात है?'' बोली वो,
"मुझे जानती है?'' बोला वो,
"नहीं!" बोली वो,
"मैं खंडा बाबा हूं!" बोला वो,
"तो?' बोली वो,
"देख, तेरे से जो पूछूं, बताती जा, इसी में तेरी भलाई है, नहीं तो तेरा क्या हाल करूंगा, कि ऊपर तेरी बैठी माँ भी छाती पीट लेगी!" बोला वो,
मौके की नज़ाक़त भांप ली राधा ने!
"पूछ?'' बोली वो,
"किस से मिल कर आयी?" पूछा उसने,
"किसी से नहीं" बोली वो,
"किस से मिलने जा रही है?'' बोला वो,
"किसी से नहीं!" बोली वो,
"झूठ?" बोला वो,
"नहीं" बोली वो,
"तो सच बता?'' बोला वो,
"बता दिया!" कहा उसने,
"तू ऐसे नहीं मानेगी?" बोला वो,
"बता दिया जो जानती हूं!" बोली वो,
"रहम खा गया तुझ पर!" बोला वो,
"अच्छा?" बोली वो,
"हां!" कहा उसने,
"क्या चाहिए?'' बोली वो,
"तू!" बोला वो,
"क्यों?" पूछा उसने,
"तुझे भोगना है!" कहा उसने,
"कैसे नीच बाबा हो?" बोली वो,
"नीच?" बोला वो,
"महानीच!" कहा उसने,
"हां हूं!" बोला वो,
"एक सौदा करेगी?" बोला वो,
"कैसा सौदा?" बोली वो,
''तू बन जा मेरी!" बोला वो,
''क्यों?" बोली गुस्से से, नथुने फुला कर!
"तुझे तेरा प्रेमी मिल जाएगा!" बोला वो,
''शर्म नहीं आती?" बोली वो,
"कैसी शर्म?" बोला वो,
"तेरी बेटी समान हूं आयु में?" बोली वो,
"लेकिन बेटी नहीं!" बोला वो,
"मुझे जाने दे!" बोली वो,
"नहीं तो?" बोला वो,
"नहीं तो तू जानेगा!" बोली वो,
"अच्छा?'' बोला वो,
"झूठ नहीं कहा!" कहा उसने,
"तुझे कैसे जाने दूं!" बोला वो,
अब चुप हुई वो!
"तेरे जैसा बदन किसका भला!" बोला वो,
गुस्सा ऐसा राधा को कि बस चले तो गला घोंट दे वहीं!
"तू ही झेल सकती है मुझे!" बोला वो,
"कोई बेटी नहीं तेरी?" बोला वो,
"चुप्प??" बोला वो,
और आगे बढ़ कर जैसे ही हाथ उठाने को हुआ कि सामने से एक आवाज़ आयी!
"राधा?" सभी ने सामने देखा!
एक ग्रामीण सी महिला थी वो!
"क्या बात है?'' बोली वो महिला आते हुए!
"देखो न? मेरा रास्ता रोके खड़े हैं ये बदमाश लोग?" बोली वो,
अब उस औरत ने सभी को देखा!
"क्या आंखें फाड़ती है?'' चीखा बाबा!
"ये जिव्हा, बाहर आ जायेगी खंडा!" बोली वो,
अब वो चौंका! झटका खा गया!
"जा राधा!" बोली वो औरत!
राधा झट से आगे बढ़ी! और दौड़ ली!
"खंडा?'' बोला वो,
"ये ही है न तू?" बोली वो,
"तू कौन है?" पूछा उसने,
"अब बहुत हुआ खंडा!" बोली वो,
"ओहो! समझ गया!" बोला वो,
"तो लौट जा!" बोली वो,
"मां?" आयी आवाज़ एक!
और एक बालक, दौड़े दौड़े आ गया उस औरत के पास, पता नहीं कहां से!
"जा! जा!" बोली वो,
और वो बालक, फिर से लौट गया! हंसी-ख़ुशी!
तभी वो औरत हंसी! बहुत तेज! बहुत ही तेज!
"कोई विद्या नहीं चलेगी खंडा!" बोली वो,
"तू?" बोला वो,
"हां!" कहा उसने!
और फिर से हंसी!
कौन है ये औरत? कौन?


   
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श्रीशः उपदंडक
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वो ग्रामीण महिला मंद मंद मुस्कुराने लगी थी! और राधा वहां से नदारद हो चली थी! बाबा और उस महिला के बीच नज़रों का कड़वा, तोल-ताल चल रहा था, बाबा कम नहीं था, वो भांप तो गया ही था, लेकिन ये कौन है, अभी सही तरह से जांच नहीं पाया था, उसके जांचने की एक एक विद्या पी ली गयी थी, दग्ध का दी गयी थी, शून्यमान कर दी गयी थी!
"खंडा! अब बहुत हुआ!" बोली वो,
"अभी नहीं औरत!" बोला वो!
''अब आगे तू घटेगा ही!" बोली वो,
"इस से मरणा ही बेहतर होगा!" गर्राया बाबा!
"अब उस लड़की का पीछा नहीं करना! अब तेरा पाप क्षमा योग्य नहीं!" बोली वो,
और तभी टट्टू के रेंकने की आवाज़ हुई! और तपाक से समझ गया वो कि ये औरत कौन थी! औरत लोप हो गयी थी!
"तो तूने भेजी अपनी लड़ावनी!" बोला वो,
आगे दौड़ा! और रुक गया!
"तूने? अंधे?" बोला वो,
और फिर से दौड़ लिया, अब उस पेड़ के पास चला आया, अब न वहां राधा ही थी और न कोई व्यापारी, आकाश को देखा, दिन ढलने में कुछ ही देर शेष थी, अब तो मेला भी बस कूच करने वाला था! रह गए थे तो सामान लाने और ले जाने वाले! और कुछ महिलायें जो गांठ में बंधे पैसे, सामने रख, गिन रही थीं!
"बाबा?'' बोला हर्रू,
"रुक जा!" बोला वो,
इतने में और भी संगी आ गए उसके वहां!
"पानी पी लो जी?" बोला एक भिश्ती!
"ला?" बोला बाबा,
और पानी पिया उन सभी ने, हर्रू ने एक सिक्का उस भिश्ती को पकड़ा दिया! भिश्ती कोर्निश से दे, निकल गया!
"हर्रू?" बोला वो,
"हां बाबा?'' बोला वो,
"गांव में कल मरेगा कोई!" बोला वो,
"तो?" बोला वो,
"पीण-चावल लाने होंगे!" बोला वो,
''उसके ही न?" बोला वो,
"हां!" कहा उसने,
"वो दोनों बुड्ढे, ज़रूर जानते थे कुछ!" दौड़ाया दिमाग उसने!
"कौन से?" बोला वो,
''तू नहीं जनता!" बोला वो,
"जान सकता हूँ?" बोला वो,
"तेरे काम का नहीं!" बोला वो,
"आदेश!" बोला वो,
बाबा टहला, कुछ सोचते हुए!
"वो फल?" बोला वो,
और दौड़ाया दिमाग!
"किसलिए?" बोला वो,
"उनके पास कैसे?" बोला वो खुद से,
और फिर से टहला!
"मासोल?" पूछा हर्रू ने,
मना कर दिया हाथ हिला क़र बाबा ने!
"उस लड़की को क्यों दिया?'' बोला वो,
"क्या चक्कर है?" बोला वो,
और सर खुजला लिया अपना!
"हर्रू?" बोला वो,
"आदेश?" बोला वो,
"पीण-चावल ला क़र, बाहर सिवाने रखना!" बोला वो,
"आदेश!" बोला वो,
"इसे ही पकड़, मैं पूछता हूँ!" बोला वो,
"आदेश!" कहा उसने,
पीण-चावल, वे चावल होते हैं जिन्हें मुर्दे या अर्थी के आगे आगे ले जाया जाता है, और मंत्र पढ़े जाते हैं, ये मंत्र, मात्र तीन ही शब्दों के होते हैं! इस से, उस अर्थी की रूह, मुर्दे की, क़ुबूल क़र लेती है और तब तक भूखी रहती है, जब तक पीण-चावल उसे नहीं दे दिए जाते! अब इन पीण-चावल के देने के बीच, कई सवाल-जवाब होते हैं और ओझा, गुनिया आदि अपना मतलब साध लेते हैं!
तो इस बाबा की यही इच्छा थी, कि उस फल में क्या था? क्या कोई वचन था? क्या कोई खेल था? क्या कोई योजना थी? थी तो क्या? और वे बुज़ुर्ग जो राज जानते थे, आखिर वो था क्या?


   
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श्रीशः उपदंडक
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"हर्रू?" बोला वो,
"हां बाबा?" कहा उसने,
"चल. सिवाने चल?" बोला वो,
"अभी?" बोला वो,
"वक़्त नहीं है अब!" बोला वो,
"चलो बाबा!" बोला वो,
और वे सब, वहां से चल पे सिवानों के लिए! सिवाना भले ही छोटा श्मशान हो, पुराना हो तो दमदार हुआ करता है, अक्सर, डाकिनियां यहां वास किया करती हैं! शाकिनी, से अलग हुआ करती हैं डाकिनी! दोनों के ही कर्म-विधान अलग अलग हैं! इन्हें क़ैद किया तो जा सकता है, परन्तु ये सरल कार्य नहीं!
तो वे एक सिवाने पहुंच गए, आसपास जगह देखी, एक पेड़ दिखा, उस पेड़ के साथ एक अर्जुन का वृक्ष था, एक सफेदे का और उधर ही एक कट्ठे का वृक्ष भी था, यही पेड़ चुन लिया उन्होंने!
"हर्रू?" बोला बाबा,
"जी?" कहा सुने,
"देख बाकी कौन है?" बोला बाबा,
"अभी!" बोला वो,
तब तक बाबा ने चाक़ू से ज़ीक़ा काढ़ लिया था, ज़ीक़ा काढ़ा तो स्पष्ट हो गया वो किसी की आमद चाहता था, कारण वो ही जाने! तभी हर्रू आ गया, साथ में एक लकड़ी में उड़ेसा हुआ एक मांस का लोथड़ा ले आया था, ये टखने की हिस्सा था, जल रहा था, गंध भी उठ रही थी!
"रख दे!" बोला वो,
"जी!" बोला वो,
और रख दिया रेत में ही!
"बाकी नज़र लगाए हैं?" पूछा उसने,
"हां!" कहा उसने,
"इस पर ज़रा पानी डाल तो?" बोला बाबा,
"अभी लो!" बोला वो,
और उषर बनी एक हौद से पानी ले आया, उस लोथड़े पर छींटे डाले, चटचट की आवाज़ हुई और तब गंध और तेजी से उठने लगी!
"हट जा अब!" बोला वो,
"आदेश!" बोला हर्रू, और हट गया,
बाबा ने, जीके में प्रवेश किया, एक लकड़ी से अंदर कुछ लिखा, नौ बार तालियां बजायीं और फिर हंस पड़ा!
"रास्ता दे!" बोला वो,
और फिर हंस पड़ा,
"आने दे!" बोला वो,
और उठ खड़ा हुआ, जीके में लेट गया!
''बोल?" बोला वो,
दोनों हाथ कानों पर रख, दबा लिए! और कुछ बुदबुदाने लगा!
"भलोक!" बोला वो,
और उठ बैठा!
"भलोक!" बोला वो अब हिलने लगा! कुछ देर ऐसे ही रहा और फिर दोनों पांव उठा लिए ऊपर!
"भलोक!" बोला फिर से,
और अगले ही पल वो मांस का लोथड़ा उछला और चला हवा में दूर कहीं! कहां गिरा, कहां गया, कुछ पता नहीं!
"चामड़!" बोला वो,
और उठ खड़ा हुआ!
''चामड़!" बोला वो,
और ज़ीक़ा, चाक़ू से काटा उसने! आया बाहर!
"तुझे ही देखता हूं!" बोला वो,
और चला पड़ा आगे के लिए, हौद तक आया और कुल्ला किया, चेरा धोया, हाथ धोये! और अपनी धोती से पोंछ लिए!
"हर्रू?" चिल्ला के बोला वो,
आया दौड़ क़र सुनते है हर्रू!
"उधर बालक दफनाए हैं!" बोला वो,
''आदेश!" बोला वो,
"एक नवजात ले आ!" बोला वो,
"आदेश!" बोला वो,
हर्रू ने आवाज़ दी एक साथी को, और उस सिवाने से आगे चले गए, यहां बालकों को दफनाया जाता था, जो पत्थर गीला और ज़मीन जितनी गीली होती, वो बालक उतना जल्दी ही दफनाया गया होता! वे ढूंढते रहे और आखिर दो जगह उनको ऐसी मिलीं! उन्होंने एक लकड़ी से मिट्टी खोदनी शुरू की, बड़ा सा पत्थर एक तरफ किया, शोर नहीं होने दिया, कोई देख लेता तो उन्हें ही जान से हाथ धोना पड़ जाता!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"हां?" बोला वो,
"मिल गया!" बोला वो,
"कैसा है?" बोला वो,
"ताज़ा!" बोला वो,
"क़दम?" पूछा उसने,
"छोटे!" बताया उसने,
"ले आ!" बोला बाबा,
"ला?'' बोला अपने साथी से हर्रू!
और उसके साथी ने सफेद कपड़े में लिपटी एक नवजात की लाश सामने रख दी!
"देख, रंग तो नहीं?'' पूछा उसने,
"नहीं, देख लिया!" बोला वो,
"ला, खोल!" बोला वो,
और अब उन्होंने उस नवजात को खोला, छोटा सा शिशु था, उलट-पलट कर देखा, सब साफ़ था, शायद कुछ गड़बड़ हुई थी उसके साथ, छाती पर एक काला सा निशान पड़ा था, उसी से, शायद दबने से या गिरने से मौत हुई होगी!
"ये ठीक!" बोला वो,
"जी!" कहा उसने,
"पानी ला, स्नान करवा!" बोला वो,
"अभी लाया!" बोला हर्रू,
गया और एक घड़े में पानी भर लाया, पानी से उस नवजात को बहलाया और फिर सामने ज़मीन पर हाथों से साफ़ कर रख दिया!
"जा अब!" बोला वो,
"आदेश!" बोला हर्रू!
हर्रू गया तो बाबा ने अब मंत्रोच्चार आरम्भ किया, मिट्टी उठा, उस शिशु के दाएं बाएं डालता रहा, हर पांचवीं चुटकी अपने मुंह में रख लेता निगल जाता! ये देह-रक्षा का सूत्र था! खेला-खिलाया था ये खंडा बाबा! कुछ भी हो, उस में सच में ही न सिर्फ जीवट था, विश्वास था, साहस था और सबसे बड़ी बात वो विचलित नहीं होता था, किस परिस्थिति में कब क्या करना है, कैसे ढालना है, सब जानता था, शायद इसीलिए अभी तक उसकी जोत जल रही थी!
"डांची! जाग जा!" बोला वो,
और एक चुटकी मिट्टी अपने बाएं कंधे लगाई!
"डांची!" बोला वो,
"जाग जा!" कहा उसने,
अब मिट्टी, दाएं कंधे!
"डांची!" बोला वो,
और एक चुकती जिव्हा पर रखी!
"जाग जा!" बोला वो,
और फिर से एक चुटकी, कूल्हे उठा अपने, उनके नीचे रख दी!
"डांची! ओ शाकिनि! खा जा! खा जा!" बोला वो,
और हंसे तेज तेज!
"शाकिनि! लाज रख! लाज!" बोला वो,
"चामड़ रोके है!" बोला वो,
"चामड़!" कहा उसने,
मिट्टी उठायी, उठा और उस शिशु के माथे से रगड़ दी! अभीष्ट हुआ! शिशु की कराह निकली, आंखें खुल गयीं और चेहरे पर लकीरें बन आयीं!
"तैयार है!" बोला वो,
"तैयार! तैयार!" बोला और छाती पर हाथ मारा उसने अपनी!
''डांची! डांची!" कहा उसने,
जैसे ही खा, उस शिशु का सर फट पड़ा! भेजा उड़ गया, टुकड़े आसपास बिखर गए, देह अकड़ क़र उठ गयी और तब छाती फ़टी! गाढ़ा सा खून बह निकला! और वो खंडा जम कर अट्ठहास लगाए!
कलेजा चीर क़र बाहर निकाल लिया किसी ने, बाकी बची लाश गलने लगी, लोथड़ा रहा गया! उठा खंडा, रेत से ढकने लगा उसे!
''खा! खा!" बोला वो,
तीन बार हंसी गूंजी! और ठहाका लगाया उस खंडा ने! खंडा का चेहरा सख्त हो गया! थूका बाहर तो मांस के टुकड़े बाहर आ गिरे! डांची ने उसे भी भोग लगवा दिया था! प्रत्येक शाकिनि ऐसा ही करती है! वो सिवाने नहीं आती! यही तो कमाल था उस खंडा का कि वो डांची शाकिनि को, वहां तक ले आया था! भलोक के आह्वान से, अपने साहस और मंत्र-बल, सिद्धि-बल से समस्त प्रेतों को,महाप्रेतों को और डाकिनियों को हटा दिया था उसने! खंडा यहां तक तो सफल हुआ था!
डांची और चामड़, इनमे सर्प और नेवले जैसा बैर होता है! ये कभी एक दूसरे को बर्दाश्त नहीं कर सकतीं! यही कारण था, कि उसने चामड़ को उलझाने के लिए डांची का आह्वान कर मुस्तैद कर लिया था! इसके पीछे जीवन-दान भी छिपा था!
"राधा!" बोला वो, और हंसा!
"चामड़!" बोला वो,
"क्या समझा मुझे? क्या समझा? देख! दिखाता हूं तुझे!" बोला और ज़मीन पर लेट गया! जम जम कर मंत्र पढ़ने लगा!


   
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श्रीशः उपदंडक
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तो मित्रगण! उसने जो चाहा, वो पूरा कर लिया था! बाबा पीछे हटने वाला नहीं था! न ही हटा! अंजाम भले ही कुछ भी हो, उसने कोई कसर न छोड़ी थी! अपनी तरफ से, अपनी बुद्धि से उसे जो उचित लग रहा था कर ही रहा था!
अगली सुबह....
"हर्रू?" बोला वो,
"जी?" कहा उसने,
"आज खबर आएगी!" बोला वो,
"खबर तो आ चुकी!" बोला वो,
"चला गया?" बोला वो,
"हां, कल रात को ही!" बोला वो,
''वाह!" बोला वो,
"अब पीण-चावल?" बोला वो,
"सब तैयार हैं!" बोला वो,
"तो ठीक है!" बोला वो,
"हां, क्या बंधवा दूं?'' बोला वो,
"जो तू चाहे!" कहा उसने,
"ठीक!" बोला वो,
"हर्रू!" बोला वो,
"हां बाबा?" बोला वो,
बाबा उसे देख मुस्कुराया!
"चल, बाद में बताता हूं!" बोला वो,
"ठीक है!" कहा उसने,
सर झुकाया और बाहर की तरफ जा बैठा! सुबह करीब दस बजे, उस बुज़ुर्ग की अर्थी वहां से ले जाई गयी! अब काम हर्रू का था, हर्रू ने वे पीण-चावल लिए, एक एक दाना गिरता चला गया उनका! और अपना काम क़र, लौट आया!
बाबा इंतज़ार में था!
"लो बाबा!" दे दी पोटली बाबा को!
"राज ले जा रहा था!" बोला वो,
"हां!" कहा हर्रू ने,
''देखता हूं!" बोला वो,
"दूसरा भी टिक लिया होगा?'' बोला हर्रू,
"हां!" कहा उसने,
"उसकी ज़रूरत नहीं?" बोला वो,
"नहीं!" कहा उसने,
"जो राजी!" बोला वो,
मित्रगण!
शाम चार बजे, वे लोग फिर से सिवाने जा पहुंचे! और तैयारी की साथ बाबा ने अब आगे की क्रिया आगे बढ़ायी, काम सरल था, उस बुज़ुर्ग को हाज़िर करना, सवाल करना, जवाब पाना और फिर उसे भोजन दे देना! काम ख़तम!
कुछ ही देर में, एक खोपड़ी पर, हाज़िर क़र दिया उसने उसे!
"आ गया?'' बोला वो,
"पीण!" आयी आवाज़,
"मिलेगा!" बोला वो,
"आज़ादी!" बोला कोई,
"मिलेगी!" बोला वो,
"दे दे!" बोला वो,
"मिलेगी!" कहा बाबा ने,
"छोड़!" बोला कोई,
"बता पहले?'' बोला वो,
"क्या?" पूछा किसी ने,
"जानता नहीं?" बोला वो,
पीण-चावल हाथ में लेते हुए बोला बाबा!
"नहीं!" बोला कोई,
"नहीं?" बोला वो,
"नहीं जानता!" बोला वो,
"जानता है!" बोला वो,
"पूछ?" बोला वो,
"क्या दिया था लड़की को?" बोला वो,
"फल!" बोला वो,
"कैसा फल?" बोला वो,
"नाग-फल!" बोला कोई,
"नाग-फल!" बोला वो,
"हां!" कहा किसी ने,
"किसने दिया तुझे?'' बोला वो,
"बाबा ने!" बोला वो,
"कौन बाबा?" पूछा उसने,
"सपेरे बाबा ने!" बोला वो,
"किसलिए?'' पूछा उसने,
"किसी को............!" कहते कहते रुक गया वो!
और बाबा ने आंखें गोल करते हुए, नज़रें गड़ा लीं खोपड़ी पर!


   
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