मैं बार बार, उन्हीं चट्टानों पर, रौशनी मारता था! कि कहीं कुछ नज़र ही आ जाए, नज़र तो नहीं आ रहा था, हाँ, आवाज़ें ज़रूर आ रही थीं उस डिंपल की! मैं रुक गया एक जगह! बहुत देर हो चुकी थी ये खेल खेलते खेलते! या तो डिंपल को कोई आने नहीं दे रहा था, या फिर कोई और वजह थी!
"रुको आप!" कहा मैंने,
और तब मैंने, विवशतावश, कलुष-मंत्र का प्रयोग किया! अपने और शर्मा जी के नेत्र पोषित कर दिए! नेत्र खोले और दृश्य स्पष्ट हुआ! अब कोई भी आता समक्ष, तो कलुष से बिंध जाता और वो, हमें नज़र आने लगता!
"डिंपल?' मैंने फिर से आवाज़ दी!
कोई जवाब नहीं!
आसपास बहुत देखा हमने!
कहीं कोई नहीं! कोई भी नहीं!
"वहीँ रुको?" आई एक आवाज़!
ये आवाज़, हमारे पीछे से आयी थी! हम जस के तस, वहीँ रुक गए! और धीरे धीरे पीछे की तरफ देखा! अब जो वहां खड़ा था, उसे मैं पहचान गया था! ये वही था, उसके पिता, उस डिंपल के पिता!
"कौन हो तुम?" उसने सवाल किया,
उसके सवाल करने के लहजे से साफ़ स्पष्ट था, कि वो शांत प्रकृति वाला, समझदार और हमसे बातें करने को आतुर था!
"हम यहीं रहते हैं!" कहा मैंने,
वो जैसे कुछ समझा नहीं! बस, कभी मुझे देखता और कभी शर्मा जी को!
"डिंपल को कैसे जानते हो?' पूछा उसने,
"आपको चोट लगी थी, डिंपल मिली थी, उसने बताया था आप सभी के बारे में!" कहा मैंने,
"चोट लगी थी? कब?" पूछा उसने,
हाँ! यही तो वो क्षण था! जहाँ वो अटक गए थे! उन्हें पता ही नहीं चला था कि क्या हुआ था! अब ये स्पष्ट हुआ था, कुछ कुछ पता चल गया था, वे शायद सभी सो रहे होंगे! जिस समय वो, दुर्घटना हुई होगी! लेकिन फिर से एक सवाल! क्या चालक भी? अब चालक कौन था? ये, या वो अखिलेश? कौन था वो?
"क्या आपको याद नहीं?" पूछा मैंने,
"क्या याद नहीं?" पूछा उसने,
"रक्षा-बंधन?" पूछा मैंने,
"हाँ, तो?" बोला वो,
"आप आ रहे थे न चंडीगढ़ से?" पूछा मैंने,
"हाँ? तो?' बोला वो,
"आप साथ ही थे उस समय?" पूछा मैंने,
"नहीं तो?" बोला वो,
"तो फिर, आपके परिवार को कौन ला रहा था वहां से?" पूछा मैंने,
"क्या कह रहे हो तुम? कौन हो, ये बताओ?" बोला वो,
"बता दूंगा, आप, ज़रा मेरे सवाल का जवाब दीजिये तो?" कहा मैंने,
"किसलिए?" पूछा उसने,
"आपके भले के लिए!" कहा मैंने,
"ये क्या कह रहे हैं आप?" बोला वो,
"आप नहीं समझ रहे हैं!" कहा मैंने,
"क्या नहीं समझ रहा हूँ?" बोला वो,
"यही कि आप हैं कौन!" कहा मैंने,
"कमाल है!" बोला वो,
"आप ज़रा मेरी बात सुनें!" बोला मैं,
"कैसी बात?" बोला वो,
"आपका नाम क्या है?" पूछा मैंने,
"किसलिए?'' बोला वो,
"बताइये तो?" पूछा मैंने,
"किसलिए?" पूछा उसने,
"बता दूंगा!" कहा मैंने,
"राजेश भार्गव!" बोला वो,
चलो! नाम तो पता चला! इसी से बहुत मदद मिलती मुझे!
"कहाँ के रहने वाले हैं?' पूछा मैंने,
"सोनीपत!" बोला वो,
''अच्छा!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोला वो,
"क्या काम करते हैं आप राजेश जी?" पूछा मैंने,
"इंजीनियर हूँ!" बोला वो,
और मुझे उस विभाग का नाम भी बताया जहाँ ये राजेश साहब, इंजीनियर थे, ये शिमला से आगे पड़ता है, करीब पैंतीस-चालीस किलोमीटर!
"और आपकी ससुराल चंडीगढ़ में है?'' पूछा मैंने,
"हाँ? आपको कैसे पता?'' पूछा उसने,
"डिंपल ने बताया!" बोला मैं,
"अच्छा!" बोला वो!
"आपके साथ, इस वक़्त और कौन कौन है?'' पूछा मैंने,
"मेरी पत्नी, मेरा साला, बड़ा साला, मेरी बेटी और बेटा!" बोला वो,
"साले साहब का नाम, अखिलेश है?" पूछा मैंने,
"हाँ, और पत्नी का सुलेखा!" बोला वो,
बस! अब यही तो चाहिए थे मुझे! मिल गए!
"अब बताइये मुझे?" पूछा उसने,
"वो दुर्घटना की रात, याद है आपको?" पूछा मैंने,
"कौन सी दुर्घटना?'' पूछा उसने,
उसे याद नहीं था! होता भी नहीं!
"आप रक्षा-बंधन के दिन कहाँ थे?" पूछा मैंने,
"अपनी ससुराल?' बोला वो,
"कितने बजे निकले थे वहां से" पूछा मैंने,
"हमने खाना खाया था, तक़रीबन बारह बजे होंगे? या पौने बारह?'' बोला वो,
"वहां से सीधा शिमला?'' पूछा मैंने,
"हाँ?" बोला वो,
"साथ में?" पूछा मैंने,
"सभी, ये जो मैंने बताये?" बोला वो,
"वाहन अपना ही था?" पूछा मैंने,
"हाँ?" बोला वो,
"कौन सा?" पूछा मैंने,
"कार थी?" बोला वो,
जो कार बताई थी, वो फोर्ड की थी, आइकॉन थी शायद! मई ज़्यादा नहीं पूछा, उसने ज़्यादा भी नहीं बताया!
:कार, चला कौन रहा था?" पूछा मैंने,
"मेरा साला?" बोला वो,
"वो आपको छोड़ने चला था?" पूछा मैंने,
"हाँ, उसे वहां से, कहीं और जाना था!" बोला वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"और कुछ?" पूछा उसने,
"आप शिमला पहुंचे?'' मैंने सवाल किया!
और ये सवाल!
ये सवाल, उसे समझ आना ही नहीं था! वे कभी शिमला नहीं पहुंचे थे! जो कुछ भी हुआ था, यहीं हुआ था, ठीक इसी सड़क पर! मैं जानता था, वो झुंझला जाएगा! उसके लिए, वो आज रात की ही बात थी! तो मेरा सवाल, बेहद ही अटपटा लगा था उसे!
"क्या?" पूछा उसने,
"क्या आप, आप सभी, शिमला पहुंचे?'' पूछा मैंने,
उसने, गौर से देखा हमें फिर! जैसे, हम कहीं और के प्राणी हों जैसे! और तभी.............!!
उसे जैसे समझ में नहीं आ रहा था, कि मैंने पूछा क्या है उस से! न उसने अपनी सोच पर ही ज़ोर डाला, जैसे हम डाला करते हैं! बस, हमें ही देखता जा रहा था! जैसे, हमने उसके कार्य में कोई अनावश्यक व्यवधान उत्पन्न कर दिया हो!
"बताइये आप? कब पहुंचे शिमला?" पूछा मैंने,
"मुझे नहीं समझ आ रहा?" बोला वो,
"क्यों नहीं समझ में आ रहा?" पूछा मैंने,
"नहीं पता?" बोला वो,
"मैं बताऊँ?" कहा मैंने,
"क्या?" तपाक से पूछा उसने,
"यही?" कहा मैंने,
"क्या यही?" बोला वो,
"यही कि आप शिमला पहुंचे या नहीं?" कहा मैंने,
"आपको कैसे पता?" पूछा उसने,
"मुझे बहुत कुछ पता है!" कहा मैंने,
"तो बताइये?" बोला वो,
"आप, अपने परिवार के संग, चंडीगढ़ से चले, रात बारह के आसपास?" पूछा मैंने,
"हाँ?" बोला वो,
"साथ में आपके साले साहब, अखिलेश भी थे?'' पूछा मैंने,
"हाँ?" बोला वो,
"आपकी बेटी?" पूछा मैंने,
"हाँ?" बोला वो,
"आपकी धर्मपत्नी?" पूछा मैंने,
"हाँ?" कहा उसने,
"आपका वो छोटा बालक, नवु?" पूछा मैंने,
"हाँ?" बोला वो,
"रक्षा-बंधन की रात थी न वो?'' पूछा मैंने,
"बिलकुल?" बोला वो,
"उस रोज, बारिश भी थी?" कहा मैंने,
"हाँ, थी?" बोला वो,
"मौसम खराब रहा होगा, पहले से ही बारिश भी पड़ रही होगी?" पूछा मैंने,
"हाँ, ऐसा ही है!" बोला वो,
"आपने शिमला की राह पकड़ी?" पूछा मैंने,
"हाँ, जाना ही वहां है?'' बोला वो,
"आप इसी रास्ते से आ रहे थे, अपनी गाड़ी में!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोला वो,
"आप यहां तक आये!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोला वो,
"और.................यहीं रुक गए!" कहा मैंने,
"रुक गए?" बोला वो,
"हाँ, रुक गए आप!" कहा मैंने,
"मैं...नहीं समझा!" बोला वो, हैरत से!
"समझाता हूँ!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोला वो,
"आप एक काम करेंगे?" पूछा मैंने,
"बताओ?" बोला वो,
"सभी को बुला लीजिये!" कहा मैंने,
"किसलिए?" बोला वो,
"समझा देता हूँ सभी को!" कहा मैंने,
"आप, मुझे बताइये?'' बोला वो,
"बुलाइये तो सही?" कहा मैंने,
और तभी, उसी क्षण, उस अँधेरे में से, वे सब, आने लगे उधर! अखिलेश, डिंपल, सुलेखा और उसके साथ वो, छाती से चिपका, सोया हुआ, नवु! जैसे, सभी इंतज़ार कर रहे थे! उन पर न घबराहट ही छायी थी, न कोई खौफ, न ही वो, संजीदा से लगे! बस ऐसे ही, जैसे किसी राहगीर को कोई दूसरा राहगीर मिल जाता है, एक नज़र भरता है, आगे चला जाता है! और फिर, भूल जाता है सबकुछ! ठीक वैसे ही!
"अब बताइये?" बोला वो,
"बताता हूँ!" कहा मैने,
"एक बात बताएं?" कहा मैंने,
"पूछें?" बोला वो,
"उस रात, गाड़ी कौन चला रहा था?" पूछा मैंने,
"मैं!" बोला राजेश!
"घर से कौन ले कर चला था?" पूछा मैंने,
"मैं!" बोला वो,
"और इस रास्ते पर?'' पूछा मैंने,
"रुको!" बोला वो, अपने सर को पकड़ते हुए! फिर, अपनी पत्नी को देखा, फिर अखिलेश को!
"करीब दो बजे हमने दूध लिया था, पीछे, एक होटल से, नवु के लिए, हैं न सुलेखा?" पूछा राजेश ने सुलेखा से,
सर हिलाकर, हाँ कहा सुलेखा ने!
"वहां से...........वहाँ से......." बोलते बोलते रुका वो!
"वहां से?" पूछा मैंने,
"वहां से?" बोला वो,
"याद करो!" कहा मैंने,
"हाँ! वहां से, अखिलेश ने चलायी थी गाड़ी, है न?" पूछा सुलेखा से फिर से,
इस बार, फिर से सर हिलाकर, हाँ कही उसने!
"अच्छा!" कहा मैने,
"फिर?' पूछा इस बार अखिलेश ने,
"अखिलश!" कहा मैंने,
"हाँ?" बोला वो,
"वहां से तुमने चलायी थी गाड़ी?" पूछा मैंने,
"हाँ, मैंने ही!" बोला वो,
"कौन कौन, कैसे बैठा था?" पूछा मैंने,
उसने याद किया! कोशिश की!
"आगे मैं था, साथ में, ड्राइविंग सीट पर अखिलेश!" बोला राजेश,
'फिर?'' पूछा मैंने,
"पीछे सुलेखा और डिंपल!" बोला वो,
"डिंपल सोयी थी?" पूछा मैंने,
"हाँ, शायद?" बोला वो,
"और आपकी पत्नी?" पूछा मैंने,
"पीछे सर लगाये, बोतल से दूध पिला रही थी सुलेखा!" बोला वो,
"जागी थीं?" पूछा मैंने,
"हाँ, शायद?" बोला वो,
"शायद या पक्का?" पूछा मैने,
"जागी नहीं थी!" बोली सुलेखा इस बार!
"नींद आई थी?" पूछा मैंने,
"आँखें बंद की थीं!" बोली वो,
"और आपने राजेश जी?" पूछा मैंने,
"मैं जागा था!" बोला वो,
"बारिश हो रही थी?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोला वो,
"लेकिन क्यों जान रहे हो आप?" पूछा अखिलेश ने!
"बता रहा हूँ!" कहा मैंने,
"बताइये?" बोला अखिलेश!
"आप यहां तक आये?" पूछा मैंने, सड़क की तरफ, इशारा करते हुए!
"हाँ? क्यों नहीं आये? वहीँ तो जाना है?" बोला अखिलेश,
मैं मुस्कुराया! हालांकि, मुझे मुस्कुराना नहीं चाहिए थे, लेकिन मैं मुस्कुरा पड़ा, शायद ये मुस्कुराहट मुझे उसके उस भोलेपन के कारण आई थी! शायद यही कारण था!
"तो कब जाओगे अखिलेश?'' पूछा मैंने,
"अभी!" बोला वो,
"अभी कब?'' पूछा मैंने,
"बस, गाड़ी मिल जाए?'' बोला वो,
"गाड़ी? कौन सी?" पूछा मैंने,
"हमारी, हमारी गाडी?'' बोला वो,
"कहाँ है वो गाड़ी?" पूछा मैंने,
"वही तो ढूंढ रहे हैं?" बोला वो,
"कहाँ थी?" पूछा मैंने,
"अब ये ही तो नहीं पता?'' बोला वो,
"चोरी हो गयी?'' पूछा मैंने,
"नहीं तो?" बोला वो,
"फिर?" पूछा मैंने,
"हमारा तो सामान भी है उसमे?'' बोला वो,
"वो गाड़ी?" पूछा मैंने,
"हाँ?" बोला वो,
"एक मिनट!" बोला राजेश!
मैंने देखा उसे, तब ही!
"क्या आपको पता है, कहाँ है वो गाड़ी?" पूछा राजेश ने,
"हाँ!" कहा मैंने,
"तो बता दीजिये, हम कब से परेशान हैं!" बोला वो,
"यक़ीन कर लोगे?" पूछा मैंने,
"कैसा यक़ीन?" पूछा उसने,
"वो, जो मैं कहूँगा?'' कहा मैंने,
"हाँ, क्यों नहीं?" बोला वो,
"तो जान लो, मान भी लेना, वो गाड़ी, अब कहीं नहीं है!" कहा मैंने,
अब तो, सभी ने एक दूसरे को देखा!
जैसे मैंने मज़ाक किया हो उनके साथ!
"ये क्या कहते हो आप?' बोला राजेश,
"हाँ, नहीं है, जैसे आपका कोई नामोनिशान अब बाकी नहीं, आप, यहां तक आये, किसी दुर्घटना का शिकार हुए, आप सभी की मौत हुई, आप यहीं अटक कर रह गए, आपको याद नहीं, होगा भी नहीं, अब आप जीवित नहीं, सभी प्रेतावस्था में हो, आप सभी प्रेत हो, भटकते हुए, अनवरत, इसी स्थान पर घूमते हुए, आब चंडीगढ़ से तो चले, लेकिन शिमला कभी नहीं पहुँच पाये!" कहा मैंने,
अब जो मैंने बताया! तो बवाल सा मच गया! वे दोनों तो, मुझे मारने के लिए जैसे ही आगे बढ़े, मैंने फौरन ही, मंत्र पढ़ा, वे ठिठक कर रह गए! सभी एक साथ इकट्ठे हो गए! सभी! उन्हें मेरे शब्दों पर कोई यक़ीन नहीं हुआ था!
"यही सच्चाई है!" कहा मैंने,
अब तो वे, सभी चुप!
"अब आप वैसा ही करो, जैसा मैं तुम्हें कहता हूँ, मेरी मंशा गलत नहीं राजेश जी, कोई और आया तो उठा ले जाएगा आपको, एक घायल प्रेत, किसी भी तांत्रिक, ओझा, गुनिया, तरेड़ा के लिए बहुत मायने रखता है! सभी क़ैद हो जाओगे, या अलग अलग कर दिए जाओगे! भटकते रहोगे पता नहीं कब तक! इस भटकाव का कोई अंत नहीं होगा! इस संसार में आपका जीवन तो दस बरस पहले ही समाप्त हो गया, बस एक क्षण में ही आप अटक कर रह गए हो! दस बरस से, सभी पीड़ा झेल रहे हो! इस बच्ची को देखो, इस बालक को देखो, राजेश, अखिलेश, अब और नहीं, हो जाओ मुक्त! बढ़ जाओ आगे! सम्भव है, सभी का पुनः मिलान हो, एक नए जीवन में! नहीं तो बरस गुजरेंगे, अनगिनत! और तुम सब लोग, यहीं, इसी जगह, भटकते रहोगे! समय चलता रहेगा, रात के दो चालीस रोज बजेंगे, तीन चालीस तक आप यहीं मौजूद रहोगे! हमेशा हमेशा के लिए! अवसर है आपके पास! हो जाओ तैयार! मान जाओ मेरा कहना!" कहा मैंने,
"झूठ! मैं कैसे यक़ीन कर लूँ?" बोला राजेश!
"यक़ीन करना चाहते हो?" पूछा मैंने,
"हाँ, क्यों नहीं?" बोला वो,
"मेरे शब्दों पर यक़ीन नहीं?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोला अखिलेश!
"नहीं?' पूछा मैंने,
"नहीं!" बोला राजेश!
मित्रगण!
अब इस संसार में, किसी भी प्रेत को ये यक़ीन दिलाना, जिसे ये ज्ञात ही न हो, कि उसकी मृत्यु हो चुकी है, बेहद ही मुश्किल काम है! हर कोई, उन हलकारे जमाल खान जैसा नहीं, कोई, उन सूबेदार हैदर साहब सा नहीं! बेहद ही मुश्किल काम है ये! मैं चाहे लाख दलीलें दूँ, उन्हें वे कभी मंजूर नहीं होंगी! वे तो अभी तक उसी लम्हे से वाबस्ता हैं, जिस लम्हे में वो बस, बीते लम्हे के, बीते क़तरे में धड़कते हुए दिल वाले थे!
अब मेरे पास और कोई दूसरा रास्ता नहीं था! मेरे कहने से वे मानते नहीं, क़ैद मैं उनको करना नहीं चाहता था, उस बच्ची डिंपल की उन घूरती निगाहों को देख नहीं पा रहा था! हिम्मत ही नहीं थी! और फिर ये बेचारे मासूम! मासूम से प्रेत! ये नहीं समझते! इसीलिए, अब यहां पर, सिर्फ इबु ही पेश हो, सारे सवालों का जवाब देता! बस, वही अब कुछ कर सकता था! ये जान भी जाते, मान भी जाते और उसके भय से, शायद तैयार भी हो जाते! इबु जैसे सिपहसालारों को ही अक्सर मुवक़्क़िल कहा जाता है!
तो मैंने तब, तब, इबु का शाही-रुक्का पढ़ा! झर्र-झर्र सी आवाज़ हुई! वे सभी एक दूसरे से जा सटे! प्रेतों की नैसर्गिक शक्तियों को बाँधने के लिए, इबु बस, हाज़िर होने ही वाला था! झम्म के साथ ही, इबु हाज़िर हुआ! हवा में, ज़मीन से करीब आधा फ़ीट ऊपर! उसे देख, चीखें निकल पड़ीं उनकी! कोई डर के मारे भाग ही नहीं सका! इबु की ताक़त, बाँध देती है इन प्रेतों को, वही हुआ! इबु भांप गया, मेरे से उद्देश्य जाना, मैंने बताया और अगले ही क्षण! अब वहां कोई था हमारे सिवाय तो बस इबु! इबु ने गिरफ्त में जकड़ लिया था सभी को! और तब इबु, वापिस हुआ!
अब ये स्थान, रिक्त हुआ था! किसी भी प्रेत माया से! अब रात के दो तो बजते, लेकिन अब प्रेत-लीला नहीं होती! अब ये स्थान, सच में बियाबान हो गया था! मुझे सुकून पहुंचा था, कि कम से कम, अब वे सुरक्षित तो थे! किसी के गलत हाथों में तो नहीं पड़े थे! उनका कोई गलत इस्तेमाल तो नहीं होना था अब! और अब, मुझ पर एक फ़र्ज़ आयद था, वही पूरा करना था! फ़र्ज़, एक इंसान होने का!
"आओ!" कहा मैंने,
"सब खत्म!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"बहुत अच्छा किया आपने!" बोले वो,
"करना ही था!" बोला मैं,
"समझता हूँ!" बोले वो,
"रुको!" कहा मैंने,
वे रुके, और तब मैंने कलुष-ईष्ट को नमन किया और फिर, कलुष को वापिस फेरा! और इस तरह, हमारे नेत्र फिर से हमारे इस भौतिक संसार से जुड़ गए!
"चलो अब!" कहा मैंने,
"हाँ, चलिए!" बोले वो,
"इसीलिए मैने पहले उन्हें नहीं पकड़ा था!" कहा मैंने,
"ताकि वे संज्ञान लें!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"बहुत खूब!" बोले वो,
और हम वापिस हुए तब! अब कुछ ज़रूरी काम थे! मसलन, उनके साथ हुआ क्या था? क्या वे सब क़ुदरती-ओ-अमलिया क़हर का शिकार हुए थे या फिर हलाक़ हुए थे किसी सड़क-हादसे में? कौन ज़िम्मेदार था? क्या वे ज़िम्मेदार, अभी भी ज़िंदा हैं? हैं तो कहाँ? आखिर, क्या बीती थी उस काली रात में इन सभी के साथ?
"अब तो पता चल ही जाएगा?" पूछा उन्होंने,
"यक़ीनन!" कहा मैंने,
"ये अच्छा रहेगा, जानना तो पड़ेगा ही!" बोले वो,
"हाँ, ये तो है ही!" कहा मैंने,
अब हम सड़क तक आ गये थे, हमारी गाड़ी की पार्किंग-लाइट नज़र आने लगी थी, वे दोनों ही, बेसब्री से हमारा ही इंतज़ार कर रहे होंगे, ये तो मैं जानता था, इसीलिए, हम तेज क़दमों से आए बढ़ लिए थे! गाड़ियां अभी भी भागम-भाग भागे जा रही थीं! ट्रकों के तीरों की आवाज़ें दूर तक चली जाती थीं! वे टायर, सड़क से बातें कर रहे होते! हमने सड़क पार की, और अब गाड़ी की तरफ बढ़े, रजत जी ने देखा हमें और निकले बाहर गाड़ी से! और तब तक, हम पहुंच गए वहाँ!
"काम हुआ गुरु जी?" पूछा रजत जी ने,
"हाँ! हो गया!" बोला मैं,
"क्या रहा?" पूछा उन्होंने,
"अभी चलते हैं, फिर बताता हूँ!" कहा मैंने,
"हाँ ठीक है, आइये, बैठिये!" बोले वो,
दीप साहब ने भी ऐसा ही सवाल पूछा था, मैंने उन्हें भी यही जवाब दिया था! वे भी अब उत्सुकता से, जानने के लिए कि हुआ क्या था, अंदर ही अंदर, जागे हुए थे!
गाड़ी स्टार्ट हुई, और हम, देख कर, आगे बढ़े, आये सड़क पर, गाड़ी में दूसरा और फिर तीसरा गियर बदला गया, और गाड़ी ने फिर राह पकड़ी! और अब, एक समान गति से आगे बढ़ते चले गए हम!
वो रात भी कुछ ऐसी ही रही होगी, शांत और बे-खबर! अनजान! अनजान, आने वाले वक़्त में एक छेद होने वाला था जल्दी ही, हुआ और वे पांच के पांच उस छेद में जा पहुंचे! अब वहां से वापिस आना, मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन ही है! वहां जो चला जाता है, वापिस नहीं आने पाता! हाँ, मंत्र, अमलात, विद्याएँ और पकड़-देख से ही उस छेद तक पहुंचा जा सकता है! जैसे कि हम पहुँच पाये! न दीप साहब ने मुझे बताया होता, न ही मैं यहां आया होता, तो पता नहीं, मैं कुछ नहीं कह सकता, कि इन सभी का क्या होता! वे कहीं और भी भेजे जा सकते थे, किसी ओछे तांत्रिक के द्वारा, या फिर, यहीं भटकते रहते! हमेशा, हमेशा के लिए! मैं ऐसे ही कुछ ख्यालों में डूबा था, खिड़की से बाहर, छंटते हुए अँधेरे को देखे जा रहा था, अँधेरा, जो रोज छंटता तो है, लेकिन अपने साथ ही ले जाता है उन सभी को, जो उसमे रहा करते हैं, बसा करते हैं! वे सब, वक़्त के कैदी हैं और ये अँधेरा, उनका निगेहबान! न जाने कितने ही ऐसे आज भी हैं, जो इस अँधेरे में ही क़ैद हैं! न जाने कितने! मुझे कुछ कुछ याद आने लगते हैं, कुछ कुछ भूले बिसरे से हो चुके हैं! और कुछ कुछ हमेशा के लिए मेरे ज़हन पर चस्पा हो चुके हैं! हमारे रंगीले और रंगीन मिजाज़ दोस्त, चुलबुले दोस्त, पांडे साहब की वो दिलरुबा! वो माह-ए-ज़बीं, वो क़ौसर-ए-रु, नूर, आज तलक याद है मुझे! ऐसे बहुत हैं! बहुत! मुझे नूर का ज़िक्र इसलिए करना पड़ा, क्योंकि आज ही सूरज साहब का फ़ोन आया था, वे दिल्ली आने वाले हैं कुछ ही रोज के बाद! तो वो हवेली, वो सभी, याद आ गए थे मुझे!
"कही चाय मिल जायेगी?" बोले शर्मा जी,
और मैं, उस हवेली से, बाहर निकला!
"हाँ जी!" बोले दीप साहब,
"दूर है क्या?" पूछा शर्मा जी ने,
"नहीं जी, बस-अड्डा, वहीँ चलते हैं!" बोले वो,
"हाँ, वहां तो मिलेगी ही!" बोले शर्मा जी,
"हाँ, चलता हूँ!" बोले रजत जी!
गाड़ी ने रफ़्तार पकड़ी, और हम चल दिए! करीं बीस मिनट में, आ पहुंचे उधर, खाली ही था बस-अड्डा, ज़्यादा बड़ा नहीं है, हाँ, गाड़ियां बहुत खड़ी थीं वहां! वहीँ एक जगह, गाड़ी लगा दी हमने, और रजत साहब, निकल चले बाहर!
"आमलेट लेंगे?' पूछा रजत जी ने,
"हाँ, ले लेंगे!" बोले शर्मा जी,
"आता हूँ मैं भी!" बोले दीप साहब, और उतर गए!
वे चल दिए थे आगे, कहीं से चाय और आमलेट का प्रबंध करने के लिए! अब अँधेरा छंटने लगा था, सुबह सुबह का वो वक़्त, बड़ यही खुशगवार था! मस्तानी हवा, ताज़ा हवा! ठंडी हवा! जैसे, कोई शानदार बाग़! ऐसा लगा रहा था वहां!
"अब इनकी पेशी कहाँ करोगे?'' पूछा शर्मा जी ने,
"देखते हैं!" कहा मैंने,
"अता-पता काढ़ लेना!" बोले वो,
"हाँ, सो तो है ही!" कहा मैंने,
"हाँ, चले जाएँ बेचारे आगे!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
उन्होंने पानी की बोतल निकाल ली थी पीछे वाली सीट से, और तब, मैंने और उन्होंने कुल्ला आदि कर लिया था, मुंह-मांह पोंछ लिया था अपना!
करीब पंद्रह मिनट के बाद वे दोनों न आ गए! रख दिया सारा सामान वहीँ सीट पर, और हमने चाय पीनी शुरू की, आमलेट बड़ा ही बढ़िया बनवाया था उन्होंने! चाय के साथ बढ़िया लग रहा था!
"अब यहां से घर?" बोले दीप साहब,
"हाँ!" कहा मैंने,
"ठीक!" बोले वो,
हमने चाय-आमलेट खत्म किया, और फिर आगे के लिए चल पड़े! दीप साहब के घर पहुंचे, आराम किया, चाय आई, तो चाय भी पी ली! फिर आराम किया!
रजत साहब, उसके बाद चले गए, अब ग्यारह बजे आना था उनको वहां! और हमने, थोड़ी देर के लिए ही सही, बिस्तर पर आराम किया, नींद आ गयी थी! हाँ, दिमाग में अभी भी, उन सभी के चेहरे और आवाज़ें याद आ रहे थे! लेकिन उसकूँ भी था, इन अभागों की यात्रा का अब अंत होने ही वाला था! बस एक बार, उन अपराधियों के बारे में पता चल जाता तो, और ज़्यादा सुकून मिलता जी को! सारे वक़्त, बस यही ख़याल दिमाग में कुलांचें भरता रहा!
करीब ग्यारह बजे......
रजत साहब आ गए थे, साथ में मास्टर जी भी आये थे, वे रजत साहब से सब पूछते रहे थे कि अब क्या हुआ और तब क्या हुआ! और इस तरह, शर्मा जी ने, उन सभी को, पूरा वाक़या और हक़ीक़त कह सुनाया सब! वे चारो ही, गंभीर हो गए थे, सबसे पहले दीप साहब ने ही सवाल किया था!
"अगर वे ज़िंदा हुए, वो दोषी?" पूछा उन्होंने,
"तो कुछ तो ज़रूर करेंगे हम!" बोले वो,
"समझ गया!" बोले रजत साहब!
"ज़रूरी भी है!" कहा मैंने,
"हाँ!" कहा मैंने,
"कम से कम, इन्हें तो शान्ति मिले?" बोले मास्टर जी,
"सच कहा आपने!" बोला मैं,
फिर और भी कई बातें!
कई सुझाव और कई मशविरे!
"दीप साहब?" पूछा मैंने,
"जी?' बोले वो,
"कोई एकांत जगह है?" पूछा मैंने,
"वो है तो सही? जहां भाई साहब का मकान है?" बोले रजत साहब,
"कोई बाल-बच्चा या गर्भवती स्त्री तो नहीं वहां?" पूछा मैंने,
"बाल-बच्चा?" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"पता कर लूँ?" बोले वो,
"कर लो!" कहा मैंने,
"अभी करता हूँ!" बोले वो,
और तब, उन्होंने अपने उन्हीं लड़कों को फ़ोन लगाया, काफी देर के बाद फ़ोन उठा तो मुंह से माँ-बहन की गालियां सुन दी उन्होंने! कि फ़ोन क्यों नहीं उठाया, ये और वो, वो और वो!
तो उन्होंने ने बात कर ली थी, बालक भी था वहां और एक औरत, पेट से भी थी, इसका मतलब, वहां काम नहीं हो सकता था! अब यहां ऐसी कौन सी जगह ढूंढी जाये जहां से कुछ काम किया जा सके! उन दोनों ने ही, दिमाग के घोड़े दौड़ा दिए! इनसे बात और उनसे बात! यहां बात और वहां बात! लेकिन कहीं न बनके की दी ये बात! अब क्या किया जाए?
"यहां तो कोई जगह है नहीं जी?" बोले रजत जी,
"फिर कैसे हो?" पूछा मैंने,
"कहीं और देखी जाए?" बोले दीप साहब,
"कहीं और? जैसे?'' पूछा मैंने,
"जैसे यहीं कहीं आसपास, कोई गाँव देहात?" बोले वो,
"जगह कहीं भी हो, बस एकांत हो!" कहा मैंने,
"ठीक!" बोले वो,
तो उन दोनों ने आपस में किया राय-मशविरा! ये ठीक नहीं और वो ठीक! ऐसे ऐसे बातें करते रहे! और करीब आधे घंटे के बाद, एक नतीजे पर पहुंचे, पास में ही एक गाँव था, वहां रजत साहब के जानकार थे, वहां काम किया जा सकता था, वहीं खाली ज़मीन पड़ी थी, खेती की या फिर बाग़ आदि की, कोई था भी नहीं रोकने-टोकने वाला! वहां देखा जा सकता था!
तब दीप साहब ने एक फ़ोन मिलाया, फ़ोन लगा, और बातें हुईं, जिस से बातें हो रही थीं, वो खूब-परिचित हो उनका, ऐसा लगा मुझे! और देखा भी जाए तो ऐसी ही कोई जगह हमें चाहिए थी! अब पता नहीं कतना समय लगे! होने को अभी हो जाए तो न होने को पांच-छह घंटे भी लग ही सकते थे, क्या पता, कर्ण-पिशाचिनि की मदद ली जाती, क्या पता, वाचाल ही बता देता! या सम्भव था, इन्हीं में से किसी को कुछ याद आ जाता तो बता देता!
तो हमारी बात यहीं पक्की हो गयी! अब कल, हमें वहां के लिए निकलना था, जो समय मिला था, उसमे सामान आदि खरीदा जा सकता था! और यही किया हमने फिर!
अगला दिन.... साँझ का समय....
सामान खरीद ही लिया था, कुछ 'कच्चा-सामान' लेना था, तो वो अब ले लेते! हमने सभी ज़रूरी सामान, बाज़ार से ले लिया था! और करीब छह बजे हम, निकल चुके थे उस जगह के लिए, ये जगह, एकांत में पड़ती थी, गाँव की आबादी से थोड़ा दूर, और इसी जगह पर कॉटेज बना था एक दीप साहब के जानकार का! हम सभी उसी कॉटेज में ठहरते भी, और रात में अपना काम भी कर ही लेते! यदि कभी कोई शिशु-आत्मा हो, तो किसी, ऐसी स्त्री का दूध होना साथ में आवश्यक हुआ करता है जो अभी स्तनपान कराती हो, लेकिन ऐसी कोई भी स्त्री, अपना दूध नहीं दिया करती! अब चाहे भय कह लो, चाहे अभिचार-कर्म से डर! दीप साहब के जानकार ने काफी कोशिश की थी, लेकिन उपलब्ध न हो सका था, अतः, हमने फिर, शिशु-लंगोट से ही काम लेने की सोची! तो हम वो भी खरीद ही लाये थे! ये भी काम कर ही देती या काम चला ही देती!
करीब आठ बजे, हम वहां जा पहुंचे थे, सामान रख दिया था, बेहद ही सुंदर जगह थी वो! खूबसूरत कॉटेज, और ऊपर की तरफ झिलमिलाती हुई रोशनियाँ! वो गाँव था! जहाँ हम ठहरे थे, वो एक कॉटेज था, नया सा था, मज़बूत बना था, उसमे छोटे छोटे चार और बड़े, तीन कमरे बने थे! दीप साहब के जानकार ने, काफी गर्मजोशी से हमारा स्वागत किया! आज वे वहां आने दो साथियों के साथ थे, घर के अन्य सदस्यों को उन्होंने गांव भेज दिया था! दीप साहब ने उन्हें बता दिया था की कुछ आवश्यक काम है, कुछ कल्याण का! कुछ एक समस्या आदि उनके जानकार की भी थीं, तो वो भी सुननी थी! लेकिन वो सब बाद में!
करीब साढ़े नौ बजे भोजन किया हमने, हल्का-फुल्का, हाँ, साथ में कुछ मदिरा अवश्य ही ली! शेष मदिरा साथ में रख ली, ये क्रिया में काम आती, सारा सामान उठाया और एक जगह के लिए चल पड़े हम! ये जगह साफ़-सुथरी थी! यहां काम किया जा सकता था! मैंने वो जगह साफ़ की, उसके बाद, स्थान-नमन, गुरु-नमन व् अन्य पूजन किये! और सारा सामना निकाल लिया! भस्म के टीके लगा लिए, कलुष का संधान कर लिया, पुष्टिकरण कर लिया, सारा सामान आदि सजा कर रख लिया बाहर! अब सबसे पहले, इबु को भोग देना था! ये सबसे ज़रूरी था! वही तो था कर्णधार!
"शर्मा जी?" कहा मैंने, अपना आसन, बांधते हुए!
"जी?" बोले वो,
"दीप लगा दीजिये!" बोले वो,
"अभी!" बोले वो,
उन्होंने सामान निकाला, तेल डाला उनमे, और एक एक कर, दीप प्रज्जवलित कर दिए! एक बड़ा सा दीप, सामने रख दिया, ये अच्छा था कि आज हवा में तेजी नहीं थी! दीप स्थिर हो जल रहे थे! उस स्थान पर प्रकाश जगमगा गया!
"खड़िया खेंच दो!" बोला मैं,
"जी!" बोले वो,
और उन्होंने, वहां एक वृत्त खेंच दिया! आ गए हम उसके अंदर!
"ये, थाल, वहां रख दो!" कहा मैंने,
उस थाल में, 'कच्चा-सामान' था, ये ही इबु का भोग था!
"अभी!" कहा उन्होंने,
"भूतांजलि का जाप कर लो!" कहा मैंने,
उन्होंने हाथ जोड़, पढ़ लिया एक मंत्र!
"आओ, यहां बैठो!" कहा मैंने,
वे, आ बैठे मेरे पास ही, एक दूसरे आसन पर!
"सुलाह-अलख उठा दो!" कहा मैंने,
और तब, वो अलख उठा दी उन्होंने! हम दोनों ने ही, अलखनाद किया तब!
"अब, इबु हाज़िर होगा!" कहा मैंने,
उन्होंने, एक रुक्का पढ़ लिया! ताकि, इबु के वेग से, कोई दोष ही न ही हो जाए देह में उनके! इबु, अपनी नैसर्गिकता के कारण, ऊर्जा को सोखने लगता है, इस से, रक्त-चाप बढ़ने लग जाता है, धड़कनें बढ़ जाती हैं, साँसें फूलने लगती यहीं, हलक सूखने लगता है, प्राण-वायु का क्षय आरम्भ हो जाता है! इसीलिए, एक रुक्का पढ़, अपने कंधे फूंक लिए जाते हैं, इस से बचाव हो जाता है!
इस्लामिक-तंत्र, काफी अचूक एवं प्रभावी है, सटीक एवं प्राण-रक्षक है! एक सबसे बड़ी बात! इसमें मारण नहीं है! और जो है भी, वो अत्यंत ही क्लिष्ट है! इसमें, देह-रक्षा, प्राण-रक्षा, रोजगार, संतान-सुख, निरोगी-काया, समस्त दोषों का अचूक निवारण है! किसी भी महा-मारण को भेद सकने में सक्षम है! अघोर में, इस्लामिक-तंत्र को इसीलिए शामिल भी किया गया है! इसमें कई, वीर, पीर, शैख़ साहब,साहब आदि हैं! वे सभी, अपनी आन से बंधे हैं! अतः उनसे, किसी भी प्रकार का, अहितकारी, अकल्याणकारी एवं स्वयं-हितकारी कार्य नहीं लिए जाने चाहियें!
"हो गया?'' पूछा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
"थाम लो!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
और तब, तब मैंने शाही-रुक्का पढ़ा! और रुक्का पढ़ते ही, झम्म से हवा में, वो भीमकाय इबु, हाज़िर हुआ! मुस्कुराता हुआ! हवा में उठा हुआ, ज़मीन से दो फ़ीट ऊपर! उस को, उसका रुक्का पढ़, भोग स्वीकारने को कहा, क्षण के सौंवें भाग में ही, थाल घूम गया ज़मीन पर पड़े पड़े ही!
वो पलटा, सम्मुख हुआ, उद्देश्य मालूम था उसे, उसने एक थाप दी, अपनी छाती पर, और अगले ही क्षण, इबु तो हुआ लोप, और हाज़िर हुए वे पांच!
हाज़िर होते ही, सभी चिपके से थे एक दूसरे से! आसपास देख रहे थे! उन जलती हुई रौशनियों को देख रहे थे! कभी ऊपर, कभी नीचे, कभी मुझे, कभी उन दीपों को! डरे-सहमे से!
"घबराओ नहीं!" कहा मैंने,
बड़ी हिम्मत करी उन्होंने! मुझे जो देखा!
"कहाँ हैं हम?" पूछा राजेश ने!
"सुरक्षित हो!" कहा मैंने,
"कहाँ हैं?" पूछा उसने दुबारा!
"सुरक्षित हो!" कहा मैंने,
"बताओ?" बोला वो,
"मेरे पास!" कहा मैंने,
"किसलिए?" पूछा उसने,
"लौटने के लिए!" कहा मैंने,
"कहाँ लौटने के लिए?" पूछा उसने,
"वापिस, वापिस, जहाँ से यात्रा आरम्भ हुई थी!" कहा मैंने,
"यात्रा?" गड़बड़ाते हुए सा, पूछा उसने!
"राजेश जी! बहुत भटक लिए! बहुत!" कहा मैंने,
"मैं नहीं समझा पा रहा हूँ, कुछ भी?" बोला वो, परेशान सा हो कर,
उसी परेशानी देख कर, दोस्तों, सच कहता हूँ, अच्छे से अच्छा पत्थर दिल वाला भी, अपने दिल के दरकने की आवाज़ सुन लेता! उसके भाव, वो बेचैनी, उसके न समझ पाने की वजह और उसके परिवार की सकुशलता, सब एक साथ दौड़ रहा था उसके जी मैं! वो बार बार, डिंपल के कंधे पर हाथ लगाता, बार बार अपने छोटे बच्चे को देखता, अपनी पत्नी का हाथ पकड़ता, काँप जाता! घबरा जाता!
"राजेश जी?" बोला मैं,
"जी?" इस बार वो, सही ढंग से बोला, कुछ मृदुता से!
"सुनो!" कहा मैंने,
"बताइये?" बोला राजेश,
"आप सभी, मृत्यु को प्राप्त हो चुके हैं!" कहा मैंने,
"मैं नहीं मानता?" बोला अखिलेश,
"अच्छा?" कहा मैंने,
"हाँ?' बोला वो,
"कैसे पता?" पूछा मैंने,
"हमारी गाड़ी वहीँ है!" बोला वो,
"नहीं है!" कहा मैंने,
"कैसे नहीं है?" बोला वो,
"कैसे है?" पूछा मैंने,
"मैं दिखा दूँ तो?" बोला वो,
"दिखाओगे?' पूछा मैंने,
"हाँ, दिखाउॅंगा?'' बोला वो,
"ठीक है अखिलेश! जाओ, इसे ही पार कर के दिखा दो!" कहा मैंने, उस खड़िया से कढ़ी हुई, रेखा को दिखाते हुए!
वो चला आगे! और जैसे ही चला, छुआ, सर्राट से हवा में उछला! लोप हुआ और फिर प्रकट! ये देख, वे सभी भौंचक्के रह गए! जैसे उनके किले ढह गए हों, एक ही क्षण में!
"मान जाओ अखिलेश!" कहा मैंने,
बस! मैंने जैसे ही ये कहा, उन्होंने रोना शुरू किया तब! रोना-झींकना! सभी चिपट गए एक दूसरे से! बस वो डिंपल, अपने पापा की कमीज़, आस्तीन से पकड़, मुझे देख रही थी! अनजान सी! उसकी बाल-बुद्धि से ये कोसों दूर की बात थी, वो बच्ची कुछ न समझ सकी थी! और उनका रोना, झींकना, सब सही था उस वक़्त! सच्चाई जान जाएँ, इस से बढ़िया और क्या था! वे जान जाएँ, लालायित हो जाएँ यहां से छूटने को, बढ़ जाएँ आगे! मैं भी तो यही चाहता था!
"राजेश जी?" कहा मैंने,
वो पलटा, देखा मुझे, थोड़ा आगे आया! हाथ जोड़ लिए! मेरा तो कलेजा ही बैठने लगा! बेचारा! बेचारा वो राजेश! मुझे आज ही उसकी वो शक्ल याद है, फ़िक़्र-मंद, सोच में डूबा, लेकिन मज़बूर! ऐसा मज़बूर, कि कुछ कर न सके! दोस्तों! यही ओछे तांत्रिक, घटिया तांत्रिक, निम्न दर्ज़े के तांत्रिक, इन असहाय प्रेतों का सहारा लिया करते हैं! उनसे चाकरी करवाया करते हैं, पता नहीं क्या क्या गलत, उल्ट-पलट के सारे काम करवाया करते हैं, स्त्रियों का शोषण, कन्यायों का शोषण, अच्छे-खासे को बीमार कर, धन कमाया करते हैं! जो एक बार फंसा इनके पास, समझो इनके घर की मुर्गी हुआ!
"कुछ कहना चाहते हैं राजेश जी?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोला वो, रोते हुए,
"बताइये?" पूछा मैंने,
"वजह!" बोला वो,
अब तक, सुलेखा भी आगे आ गयी थी, उसके कंधे पर हाथ रख दिया था सुलेखा ने, अपने पति को, ऐसे रोते हुए वो, नहीं देख पा रही थी, शायद!
"वजह!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोला वो,
"ठीक!" कहा मैंने,
और सोचने लगा फिर!
"एक काम करें आप?" कहा मैंने फिर,
"ये सामान यहीं रख दें!" कहा मैंने,
सामान, वहीँ रख दिया उन्होंने, इस से, मुझे आसानी होनी थी, उनके बारे में जानने के लिए! मैं बस, उनकी मृत्यु का कारण ही जानना चाहता था, शेष मुझे पता था, और हाँ, कि क्या, वो दोषी, अभी भी जीवित हैं? ये सबसे महत्वपूर्ण था! शर्मा जी से कह कर, सामान उठवा लिया, एक सूटकेस, एक बैग, दो छोटे से बैग थे वे, मुझे बैग में से कुछ नहीं निकालना था, बस, उनका सामान ही काफी था, उसी से काम चल जाता!
तब मैंने, शर्मा जी से, फिर से रुक्का पढ़ने को कहा, उन्होंने पढ़ा, और तब मैंने शाही-रुक्का पढ़ा! इबु फिर से हाज़िर हुआ, और ले चला संग उन्हें! एक ही क्षण में अपने साथ!
"शर्मा जी?" कहा मैंने,
"आदेश?" बोले वो,
"आप तनिक हटें यहां से!" कहा मैंने,
"अभी!" बोले वो,
और वे, चले वहां से उठ कर! कोई सवाल नहीं, कोई जवाब नहीं! जानते थे कि अब होगा क्या! मैंने आह्वान करना था अब, उस कर्ण-पिशाचिनि का! तो मैंने सामग्री एकत्रित की, और महामंत्र पढ़ने लगा उस कर्ण-पिशाचिनि के! दस मिनट, पंद्रह मिनट! आधा घंटा! और तब! एक प्रबल अट्ठास गूंजा! गरदन में पीड़ा होनी आरम्भ हुई! छाती फटने को होने लगी! घुटने जैसे सूजने लगे! प्रवेश हुआ अंदर! देह के अंदर! भोग अर्पित किया! तेज तेज स्वर गूँज उठे! तेज तेज साँसों की आवाज़ें! भयानक दुर्गन्ध! ऐसा ही होता है इस कर्ण-पिशाचिनि के आह्वान के समय! और तब, मैंने, प्रश्न, पूछा मैंने प्रश्न उस से! अट्ठास हुआ! और मैंने एक तेज झटका खाया! मेरे मसूड़ों से खून निकलने लगा! जिव्हा पर खून का स्वाद आ गया था उसी क्षण! मैं संयत हुआ! और फिर से अट्ठास हुआ! तब मैं जान गया था कि ये कर्ण-पिशाचिनि की सहभागिनी, हिलाभि है! चूंकि, घटना को दस या बारह वर्ष ही बीते थे, इसीलिए, हिलाभि ही अब वो सब बताने वाली थी! मैंने, कुछ फेंका उस सामान पर! और तब, मेरे कानों में, शब्द पड़ने लगे! एक एक कर के! ये शब्द, दीर्घ-स्वर वाले होते हैं, एक बार ही उच्चारित हुआ करते हैं! पुनः नहीं! शब्द के अंत में हः का एक दीर्घ-स्वर गूंजता है, हर बार! नेत्र बंद हो जाते हैं! और शब्दों से, मस्तिष्क में, स्वतः ही घटना, कारण का चित्रण हो जाया करता है! मैंने एक एक शब्द सुना! मेरे मस्तिष्क में जैसे वही रात, घुस गयी थी, गाड़ी की आवाज़ आ रही थी, सड़क पर पड़े पानी को जब को गाड़ी उड़ाती तो आवाज़ आती थी! कोई तेज वाहन गुजरता तो आवाज़ आने लगती थी! कोई हॉर्न मारता तो भी आवाज़! शब्दों से चित्रण होता रहा! होता रहा! अचानक ही! और मेरा सर, तब, भड्ड से नीचे लगा! हिलाभि लौट गयी थी! और मैं, अब घटना और कारण से अवगत हो चला था! देह को सामान्य होने में, अभी कम से कम, आधा घंटा लगा जाता! मैं लेटा ही रहा! आँखें खोलता, तो तारों को देख लेता, आँखें बंद होतीं, तो जैसे गाड़ी के अंदर बैठा होता! कहाँ, ये नहीं पता, जैसे, बोनट पर बैठ, अंदर झाँक रहा होऊं!
आधा घंटा बीता!
मुझे क़दमों की आहट आई! मेरी नज़र दौड़ी उधर, ये शर्मा जी थे, दौड़े दौड़े आ रहे थे! आ गए मेरे पास, बैठे, हाथ बढ़ा, मुझे उठाया! मैं उठा!
"सब कुशल से तो है?" पूछा उन्होंने,
"हाँ!" कहा मैंने,
मेरे सर और कमर से मिट्टी साफ़ की उन्होंने तब!
"चला पता?" पूछा उन्होंने,
"हाँ!" कहा मैंने,
"पानी?" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
उन्होंने गिलास में पानी दिया मुझे, मैंने पिया!
अपना मुंह साफ़ किया, मसूड़ों में खून तो नहीं था, लेकिन दर्द था, थोड़ा थोड़ा!
"मैं बैठूं?" पूछा उन्होंने,
"हाँ!" कहा मैंने,
"क्या हुआ था उस रात?" पूछा उन्होंने,
मैं गंभीर सा हुआ तब!
पानी और माँगा, पानी मिला तो पिया!
"बताता हूँ!" कहा मैंने,
और मैं तब, खड़ा हुआ वहां से!
मैं खड़ा हो गया था, मुझे अब सब मालूम पड़ गया था कि उनके साथ उस रात क्या बीती थी! इसको कुल ग्यारह वर्ष, इस वर्ष, हो चुके हैं, न राजेश ज़िद ही करता और न ये घटना कभी घटती, लेकिन कहते हैं न, होनी बड़ी बलवान! होनी से बड़ा कोई नहीं! ये तो वहां बुला ले जहां कभी सोचा भी न हो जाने का! कुछ ऐसा ही हुआ था उस रात!
"क्या हुआ था?" पूछा शर्मा जी ने,
"शर्मा जी?'' कहा मैंने,
"जी?" बोले वो,
"उस रोज, दिन से ही अंधड़-तूफ़ान बवाल मचाये थे, बारिश रह रह कर पड़े जा रही थी, सड़कों पर, पानी जमने लगा था, बारिश ने कहर ढाया था उस रोज! मौसम, पिछले कई दिनों से उग्र था, उसी रोज, शाम को, राजेश को वापिस लौटना था शिमला, वो इंजीनियर था, एक औद्यौगिक विभाग में, उसका जाना बेहद ज़रूरी भी था, वो पहले, सोनीपत गया था अपने घर, और फिर दोपहर में अपनी ससुराल पहुंचा था, रक्षा-बंधन का दिन था, जाना भी ज़रूरी था, और उसी शाम, उसने वापिस जाने की कही भी थी!" कहा मैंने,
"ओह...तो रोका नहीं उसे किसी ने?'' पूछा उन्होंने,
"रोका था, सभी ने रोका था, लेकिन ज़िद पकड़ी थी राजेश ने उस शाम!" कहा मैंने,
"समझता हूँ, होनी के आगे किसी की नहीं चलती!" कहा उन्होंने,
"हाँ, शाम से रात हुई, रात में बारिश कुछ थमी, भोजन कर ही लिया था उन्होंने, राजेश की कार नयी थी, दिक्कत होनी नहीं थी, अखिलेश को भी एक ज़रूरी काम था वहीँ शिमला के पास, सोचा, वो भी साथ ही चल पड़े, सो हो लिया!" बोला मैं,
"ओह....शुरुआत यहीं से हुई!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"मान जाता तो ये..............हाल न हुआ होता!" बोले शर्मा जी,
"हाँ, रात पौने बारह बजे करीब, उसने अपने सोते हुए बच्चों को उठाया, डिंपल को, उस छोटे नवु को, जबकि राजेश की सास ने ये सलाह दी, कि वे, बाद में आ जाएंगे, लेकिन नहीं माना राजेश! सोते हुए बच्चे उठाये गए शर्मा जी, सोते हुए!" कहा मैंने,
"हे भगवान!" बोले वो,
"ये सब उस मौत का ताना-बाना था, जो बैठी थी अपना नाच करने के लिए, जो आई ही थी, उन पाँचों को संग लेने के लिए! उन सोते हुए बच्चों ने अब, अगले दिन का सूर्य नहीं देखना था..............ओह.........कैसा दुर्भाग्य!" कहा मैंने,
"इस से बड़ा दुर्भाग्य और क्या होगा?" बोले शर्मा जी,
"सच कहा आपने, तो शर्मा जी, रात बारह के आसपास, उस बरसात में, वे पाँचों, सवार हो कर, निकल पड़े शिमला के लिए! शर्मा जी, वे दो बजे के आसपास, शिमला से, करीब तीस किलोमीटर दूर रह गए थे, कि दूध याद आया उन्हें, दूध रास्ते में से ही मिल सकता था, उस नवु के लिए, अब बरसात की रात, दूध मिले तो मिले कहाँ से? फिर भी, एक ढाबे से, उन्हें दूध मिल गया, सुबह जब वो पहुँचते, दूध तभी मिल पाता उस बच्चे को, तब तक वो भूखा नहीं रह सकता था, सुलेखा के दूध आ नहीं रहा था, ठीक दो बज कर पांच मिनट पर, वे वहां से रवाना हुए, इस बार गाड़ी, अखिलेश चलाने लगा था, डिंपल, माँ के साथ पीछे बैठी थी, बायीं तरफ, सुलेखा दायें, बालक को छाती से लगाये!" कहा मैंने,
"दो पांच?" बोले वो,
"हाँ! दो पांच!" कहा मैंने,
"इसका मतलब वो पहुँचने ही वाले थे?" बोले वो,
"हाँ, बस थोड़ा ही दूर थे!" कहा मैंने,
"फिर?" पूछा उन्होंने,
"जहाँ वो लैंप-पोस्ट है न?" बोला मैं,
"हाँ?" बोले वो,
"उस से, कोई पचास मीटर पहले, एक ट्रक खड़ा था, ट्रक की कमानियाँ टूट गयी थीं, और उसमे भरे थे बाहर निकले हुए सरिये! बरसात पड़ ही रही थी, अखिलेश को अभी तक तो कोई दिक्कत आई नहीं थी, लेकिन, ठीक दो बज कर, सत्रह मिनट पर, अखिलेश से गाड़ी का संतुलन डगमगाया! वो घबरा गया उस ट्रक को देखकर, शायद, नींद का झोंका आया था उसे, आँखें खोलने से पहले! लेकिन तब तक, बहुत देर हो चुकी थी! मुंह फाड़े मौत, अपने शिकारों को, लील जाने के लिए वहीँ खड़ी थी! गाड़ी नहीं रुकी! और उसी क्षण! वे सरिये, बींधते चले गए सभी को! अखिलेश का सर फाड़ते हुए, सरिया बाहर जा निकला, दूसरा आँखों के मध्य से गुजरा, जिसने पीछे बैठी सुलेखा के वक्ष को बींध दिया! वक्ष बिंधा, तो छटी से चिपका वो शिशु भी कमर से गुजरते हुए सरिये से जा बिंधा! उधर, राजेश, उसके बाएं कंधे को चीरते हुए एक सरिया गुजरा, एक उसके जिगर को चीरता हुआ, और एक, उसके पेट में जा घुसा, पीछे, दो सरियों ने, सोती हुई डिंपल को आधे में से चीर के रख दिया था!" कहा मैंने,
"ओह मेरे भगवान! ऐसी भयानक मौत?" बोलते हुए उठे शर्मा जी, नीचे ज़मीन को देखते हुए!
"हाँ, ऐसी भयानक मौत!" कहा मैंने,
"पता ही न चला?" बोले वो,
"रत्ती भर भी नहीं!" कहा मैंने,
"इसी कारण से वे प्रेत बन गए!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"हे मेरे भगवान! किसी के साथ न कर ऐसा!" बोले वो,
"हाँ शर्मा जी!" कहा मैंने,
"लेकिन?" बोले वो, मेरे पास आते हुए, तेजी से,
"क्या लेकिन?" पूछा मैंने,
"पचास मीटर पहले?'' बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"तो लैंप-पोस्ट?" बोले वो,
"बताता हूँ!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
"जब कार, पीछे से जा घुसी, तो दो मज़दूरों ने देखा सबसे पहले, वे चीखते हुए, मदद के लिए दौड़ भागे कार की तरफ!" कहा मैंने,
"अच्छा! फिर?" बोले वो,
"जब तक दूसरे आते, ट्रक में से, तब तक ये पता चल चुका था कि सभी की मौत हो चुकी है, अब किसी को भी बचाया न ही जा सकता!" कहा मैंने,
"अरे रे!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"फिर?" बोले वो,
"लेकिन शर्मा जी!" कहा मैंने,
"क्या?" बालकों की तरह से, पूछ लिया उन्होंने!
"लेकिन क्या?" दुबारा से पूछा शर्मा जी ने,
"राजेश की मौत, तभी नहीं हुई थी! उसमे प्राण बाकी थे!" कहा मैंने,
"क्या?'' पूछा उन्होंने, हैरत से,
"हाँ! तत्क्षण नहीं हुई थी मौत!" कहा मैंने,
"फिर?" पूछा उन्होंने,
"वही बता रहा हूँ और इसी में एक राज है, वही राज, जिसके कारण वे सब बंध गए थे उस समय के उस खंड में!" कहा मैंने,
"बताइये?'' पूछा उन्होंने,
"हालांकि राजेश को ये नहीं पता चला कि हुआ क्या था? न उसे उन सरियों का ही पता चला, उसकी हल्की सी चीख निकली अवश्य ही थी, लेकिन वो उसी क्षण, यूँ कहें, कोमा की स्थिति में चला गया था! लेकिन उसके संग जो थे, वे जानते थे कि राजेश की साँसें अभी शेष हैं! सभी ने चिंता ज़ाहिर की होगी! वे हटे ही नहीं होंगे! राजेश ही केंद्र में रहा होगा उनके स्नेह के! कर्तव्य के फेर के कारण, एक बच्ची का पिता होने के कारण!" कहा मैंने,
"लाजमी है, फिर?" पूछा उन्होंने,
"अब यहां देखिये कि हुआ क्या! जब उन सभी ने देखा, कि उन सभी की मौत हो गयी है, कोई नहीं बच सका है, और सीधा-सीधा, ये उनकी लापरवाही का मुक़द्दमा बनता है, तब, उन्होंने, किसी तरह से, ट्रक को आगे-पीछे कर, वे लाशें वहां से निकालीं, उनको उठाया, और ठिकाने लगाने के लिए, अंदर चल पड़े जंगल तक, उनका नसीब जागा हुआ था, पास में ही, एक बड़ा सा बरसाती नाला उफान पर था, वे वहीँ सभी को ठिकाने लगा देना चाहते थे, उन्होंने सभी को उठाया और ले चले उधर, ठीक उसी लैंप-पोस्ट के पास, राजेश की साँसें टूट गयीं!" कहा मैंने,
"अच्छा! अब समझा!" बोले वो,
"हाँ, अब एक सवाल और?" कहा मैंने,
'वो क्या?" बोले वो,
"वो गाड़ी?" कहा मैंने,
"अरे हाँ! क्या हुआ गाड़ी का?" पूछा उन्होंने,
"वो सड़क की दूसरे लगा दी गयी! टूटी-फूटी! पता नहीं, क्या हुआ उसका फिर! कभी बरामद हुई या नहीं, पता नहीं ये तो मुझे भी!" कहा मैंने,
"अच्छा! और वो सब, सड़क इसीलिए पार किया करते थे? गाड़ी ढूंढने? ताकि जा सकें आगे?" बोले वो,
"बिलकुल!" कहा मैंने,
"अब आ गया सब समझ! सब!" बोले वो,
मित्रगण!
अब सब, साफ़ हो चुका था! शर्मा जी, वहां से उठ गए थे, और भारी मन से, लौट चले थे, ये सारी घटना बताने के लिए, उन दोनों को, जो, हमसे कहीं अधिक बेचैन और बेसब्र थे!
मैंने देर न की, मैंने इबु को हाज़िर किया तब ही! उनको पेश किया, वे पेश हुए, और इबु, लौटा वापिस!
अब वे सब मेरे सामने थे, बेहद ही संजीदा और डरे हुए, सहमे हुए! सभी का चेहरा मेरी तरफ था! और फिर, मैंने उन सभी को, उस कड़वी हक़ीक़त से रु-ब-रु करा ही दिया! वे, फफक फफक कर रो पड़े! रोना ही था अब शेष! और कुछ नहीं था उनके पास! कुछ भी नहीं!
मित्रगण!
उसी रात बारह बज कर, बीस मिनट पर, मैंने मुक्ति-क्रिया आरम्भ की, और इस प्रकार, वे अभीगे, एक एक करके, मुक्त होते चले गए! अंत में, बचा राजेश, मुक्त होने से पहले, मुझे, मेरे कंधे पर हाथ रख कर दबाता हुआ, कुछ न बोलता हुआ, उस मुक्ति-रेखा को पार कर गया!
अब वे सभी, पार लग चुके थे!
कुछ शेष था, तो मेरे ज़हन में क़ैद, उनकी शक्लें! उस बच्ची की प्यारी सी शक्ल और आवाज़! हाँ, उनकी पीड़ा को मैं भुलाता चला गया था! अब पीड़ा की सोच कर, मैं दुखी नहीं होता!
रात दो बज कर चालीस मिनट................उसी रात..............वही जगह.............वही लैंप-पोस्ट...........आधा घंटा.............एक घंटा...............डेढ़ घंटे................और कोई नज़र नहीं आया उसके बाद...............
जितना, इस ज़मीन पर, मैं क़ाबिल था, उस क़ाबिलियत में कोई क़सर नहीं छोड़ी! ईमान आड़े खड़ा था! मैंने अपना काम तो कर दिया था, अब 'वो' जाने! आगे उसी रजा!
हाँ, इतना तो आज ही कहता हूँ, मैं तैयार हूँ, ऐसे अभागों के लिए, जो यहीं के हो कर रह गए हैं, और जिनका वजूद, मानो तो, एक हवा से ज़्यादा नहीं!
वो डिंपल..........प्यारी सी बच्ची! आज जवान होती, तो कैसी चुलबुली, अपने माँ-बाप की लाड़ली, सुंदर, हाजिरजवाब और खूबसूरत रही होती! बस, यही सोचा था , जाते हुए, उस जगह से, जब गाड़ी के इंजिन ने, साँसें लेना शुरू कीं थीं तो!
साधुवाद!
