"एक मिनट! रुको!" बोले दीप साहब!
"ठीक, रुकता हूँ!" बोले रजत जी,
"वहाँ देखते रहना!" बोले वो,
"कहाँ?" पूछा मैंने,
"उधर, जो वो पोस्ट बनी है!" बोले वो,
"अच्छा, लैंप-पोस्ट के साथ?" पूछा मैंने,
"हाँ, वहीँ!" बोले दीप साहब!
"ठीक!" कहा मैंने,
रात दो बजे का वक़्त! मौसम सर्द! गाड़ी के शीशों पर, ओंस जमा हो चली थी! बार बार साफ़ करनी पड़ती थी, और उस गाड़ी में, चार लोग थे, मैं, शर्मा जी, रजत जी और दीप साहब! दीप साहब ही हमें यहां तक लाये थे, ये एक हाई-वे है, आगे, शिमला तक चला जाता है यहीं से रास्ता, और हम ऐसी ही एक जगह थे, दीप साहब, यहां अभियंता के पद पर कार्य करते थे! साथ में थे रजत जी, वे भी वहीँ, उसी कार्यालय में नौकरी करते हैं, दोनों का आवास वैसे तो नॉएडा में है, लेकिन इस बार, वे हमें ले कर आये थे संग अपने, कुछ दिखाने को! दीप साहब को भी किसी ने कुछ दिखाया था, लेकिन हम यहां पहली बार ही आये थे! रजत साहब ने भी नहीं देखा था वो सब!
हमें हो गया करीब आधा घंटा! ओंस ऐसे गिरे जैसे बारिश! गाड़ी की छत पर गिर रही थी, पता चल रहा था साफ़ साफ़!
"और कितनी देर?" पूछा शर्मा जी ने,
"बस कुछ ही देर! दो बज कर चालीस मिनट पर आते हैं वो!" बोले दीप साहब!
हम सड़क किनारे खड़े थे, गाड़ी लगाये, रास्ते से, बड़ी बड़ी गाड़ियां गुजर रही थीं, शोर मचाते हुए! उनके पहियों के छप-छप दूर तक गूंजती थी! चार आती जातीं! बत्तियां ऐसी तेज के देखने वाला ही पल भर को अँधा हो जाए!
"दो तीस हो गए हैं!" कहा मैंने,
"हाँ, बस अब देखिएगा आप!" बोले दीप साहब!
दो पैंतीस!
दो उन्तालीस!
और! दो चालीस!
ठीक सामने, करीब चालीस फ़ीट दूर, उस लैंप-पोस्ट के साथ, कुछ दिखा, एक बच्ची, जिसकी उम्र करीब पांच या छह वर्ष की रही होगी! सफेद रंग की फ्रॉक सी पहने! हाथ में एक छोटा सा पर्स उठाये, पता नहीं, कि वो पर्स ही था या कुछ और, लैंप-पोस्ट की रौशनी को, वहां के पेड़ और मंद कर रहे थे, इसीलिए दिखा नहीं सबकुछ साफ़ साफ़, वो लड़की, वहीँ आ कर, वो बाएं से आई थी, और उस लैंप-पोस्ट के पास खड़ी हो गयी थी, बार बार पीछे मुड़कर देखती थी!
जैसे ही उसको देखा, हमारी आँखें फटीं! टिक गयीं उस बच्ची पर! कपड़ों से तो किसी अच्छे घर की बच्ची लगती थी, बाल भी बढ़िया से बंधे थे उसके, गले में, झालर जैसा कपड़ा पहना था, जुराब भी पहने थी वो! थी भी तंदुरुस्त ही!
"ये तो छोटी बच्ची है!" बोले शर्मा जी, फुसफुसाकर!
"हाँ!" बोले दीप साहब!
"ये अकेली ही आती है?" पूछा मैंने,
"नहीं, आप देखिये!" बोले दीप साहब!
हम सभी, गाड़ी के शीशों से चिपके हुए थे, इस तरह कि कहीं खुल जाता दरवाज़ा तो एक के ऊपर एक जा गिरता!
करीब पंद्रह मिनट गुजरे, दो बजकर पचपन मिनट हो गए थे, वो बच्ची वहीँ खड़ी रही, कभी सड़क को देखती, कभी लैंप-पोस्ट को और कभी पीछे!
"ये कर क्या रही है?" पूछा शर्मा जी ने,
"आप देखते रहो!" बोले दीप साहब!
पांच मिनट और बीत गए! बज गए तीन!
तभी पीछे से, एक आदमी आया, अपने हाथ में एक बैग पकड़े, आदमी ने बढ़िया कपड़े पहने थे, मैरून कमीज़, और काली पैंट, सेहत भी अच्छी थी उसकी, बाल भी छोटे छोटे थे, जैसे अक्सर फौजी रखते हैं ऐसे बाल थे, हाथ में एक काला बैग था, जूते पहन रखे थे उसने, वो आया तो उस बच्ची ने दौड़ कर, उसका हाथ पकड़ लिया एक! उस आदमी ने, बच्ची के सीने पर हाथ रखते हुए, अपने से सटा लिया उसे, बच्ची भी सट गयी उस से!
वे दोनों उस लैंप-पोस्ट के नीचे खड़े हो गए, वो आमदी, उस लड़की के सर से कुछ झाड़ने सा लगा, जैसे कोई घास-पत्ता आदि चिपक गया हो, बैग उसने कंधे पर लटका लिया था अपने, अब दोनों ही, पीछे देखने लगे थे! जैसे किसी का इंतज़ार कर रहे हों!
"क्या अभी भी कोई बाकी है?" पूछा मैंने,
"देखो आप!" बोले वो,
बजे तीन बीस!
वो आदमी, पीछे देख रहा था, कि बच्ची उस से हट कर, दौड़ी पीछे, उस आदमी ने जैसे आवाज़ दी उसे, लेकिन रुक गया, बच्ची वापिस भाग गयी थी पीछे, जहां से वो पहले आई थी! हाँ, वो आदमी अभी भी वहीँ खड़ा था!
"इस पोस्ट के पीछे क्या है?" पूछा मैंने,
"जंगल!" बोले दीप साहब!
"सारा?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
"तो ये जंगल में से कहाँ से आ रहे हैं?" पूछा मैंने,
"ये नहीं पता!" बोले दीप साहब!
तीन चालीस..........
एक घंटा हो गया था हमें वहीँ खड़े खड़े! गाड़ियां अभी भी दौड़े जा रही थीं सड़क से! जब कोई हॉर्न मारता तो वो आदमी पलट कर सड़क को देखता! हम जहां खड़े थे, वहां, पौधे लगे थे बड़े बड़े, हमने पहले से ही एक जगह बना ली थी, सोच ली थी कि कहाँ खड़ा हों अहै हमें! ताकि, हम तो उन्हें देखें, लेकिन वो नहीं!
तभी बच्ची भागती भागती आई वापिस! आते ही, उस आदमी का हाथ पकड़ लिया, अब आदमी ने, उस बच्ची को, अपनी गोद में उठा लिया! और देखने लगा पीछे, जहां से वो बच्ची भागती आई थी!
तभी वहां एक औरत आई, उस औरत के कंधे पर एक बैग लटका था और गोद में, एक बालक था, करीब साल भर का रहा होगा, औरत ने, हरे रंग का सूट-सलवार पहन रखा था, गले में चुनरी लटकी थी, संतरी रंग की, वो औरत आई उधर, और उस आदमी से कुछ बातें कीं! बच्ची, उस औरत के हाथों में पकड़े हुए बालक से छेड़छाड़ करने लगी थी! बालक, हाथ-पाँव मारने लगता था! और फिर, वे सभी, चले सड़क की तरफ! जब सड़क पर आये, तो हमारी गाड़ी दायें खड़ी थी, बत्तियां बंद, चुपचाप हम बैठे हुए थे, अब रौशनी बहुत कम थी उधर! वो आदमी आगे आया, अपने हाथों को फैला कर, उसने सभी को रुकने को कहा, बच्ची अब उतर गयी थी गोद से, और उस आदमी का हाथ पकड़े थी, आदमी ने दायें-बाएं देखा, बैग लिया उस औरत से, कंधे पर रखा, औरत का भी हाथ पकड़ा और धीरे धीरे सड़क की तरफ चलने लगे वो, सड़क पार की और अँधेरे में न जाने कहाँ लोप हो गए!
"बेचारे, अभागे!" बोले शर्मा जी,
"हाँ!" कहा मैंने, अँधेरे में देखते हुए!
"पता नहीं कौन हैं?" बोले रजत साहब!
"पता ही नहीं!" बोले दीप साहब!
"आपको किसने बताया था ये?" पूछा मैंने,
"आफ़ताब ने, ड्राइवर है वो!" बोले दीप साहब,
"अच्छा, और कब से हो रहा है ऐसा?" पूछा मैंने,
"मैं तो दो साल से हूँ यहां, एक बार आफ़ताब के साथ देखा था, और एक, आज!" बोले दीप साहब!
"और आफ़ताब ने?" पूछा मैंने,
"उस से नहीं पूछी मैंने!" बोले वो,
"बात तो करते?" बोले शर्मा जी,
"आज कर लेंगे!" बोले वो,
तब गाड़ी स्टार्ट हुई हमारी, और हम चल पड़े वापिस, लेकिन जो देखा था, उस से दिल में टीस सी उठ गयी थी, कौन हैं वो बेचारे?
हम चल दिए दीप साहब के आवास के लिए, बाहर जैसे धुंध का सा माहौल हुआ, हुआ था, ये ओंस थी, सुबह सुबह ऐसा ही माहौल होता है अक्सर पहाड़ी क्षेत्रों में! हम चल तो रहे थे आराम आराम से, लेकिन मुझे उस बच्ची का चेहरा याद आने लगा था, कैसे खुश लग रही थी वो, अपना वो सुनहरा सा छोटा सा पर्स लेकर! और वो आदमी, जो पिता रहा होगा उस बच्ची का, कैसे संभालता था अपने जी के टुकड़े को, उसके बाल साफ़ कर रहा हा, घास-पत्ता, फूस कुछ फंसा न हो, ख़याल रख रहा था पूरा! और वो औरत, खूबसूरत सी, जिसकी उम्र कोई तीस ही रही होगी, वो बार बार, अपनी सैन्डल को ठीक करती थी, जैसे काट रही हो सैन्डल उसकी, या फिर नयी रही हो! वो आदमी, कैसे संभाल संभाल कर, उनको सड़क पार करा रहा था, देख रहा था कि कोई गाड़ी, आ-जा तो नहीं रही? और उसके बाद, वो सड़क के पार ले गया! सोचते सोचते ही आवास का मुख्य-दरवाज़ा आ गया, गार्ड ने दरवाज़ा खोला और गाड़ी अंदर चली, बड़ी सी हैलोजन लाइट जल रही थी! आँखों में ऐसी पड़ी कि चुंधिया ही गयीं आँखें तो! खैर, गाड़ी अंदर लगाई गयी, और हम उतरे! बाहर तो ठंड का सा माहौल था!
"सर्दी हो रही है!" कहा मैंने,
"रात में ऐसा ही होता है!" बोले रजत जी,
"अच्छा!" कहा मैंने,
और चढ़ दिए सीढ़िया, सीढ़ियां चढ़े, और आ गये अपने कमरे में! कमरे में कुछ राहत मिली! अब तक साढ़े चार हो चुके थे! तो अब सोना ही बेहतर था, तो सोने के लिए चल दिए! और आराम से सो गए!
सुबह..........
सुबह, नहाये धोये और चाय का आनंद लिया! आज इतवार का दिन था, दीप जी की भी छुट्टी ही थी, रजत साहब, दस बजे आने वाले थे! दीप जी के आवास पर, उनकी नौकरानी ने, पकौड़े बना लिए थे! बड़े ही शानदार लगे साहब वो तो उस समय! चाय की चुस्कियां और गरमागरम पकौड़े! अब इसका क्या तोड़ हो सकता है! कोई तोड़ नहीं! तो चाय पी ली हमने, और करने लगे इंतज़ार रजत साहब का! आज हमें फिरसे, वहीँ जाना था, देखें तो सही, बात है क्या, क्या हुआ था बेचारों के साथ, और कब की बात है वो, यही कुछ जानकारी मिल जाए, तो फिर कुछ सोचा जाए!
"वैसे दीप साहब? आपको इस बारे में आपके ड्राइवर आफ़ताब ने बताया था?" पूछा शर्मा जी ने,
"हाँ जी!" बोले वो,
"अब कहाँ है ये आफ़ताब?" पूछा उन्होंने,
"अभी फ़ोन कर लेता हूँ!" बोले वो,
उन्होंने तब आफ़ताब को फ़ोन लगाया, फ़ोन आफ़ताब की बेगम ने उठाया, और फिर आफ़ताब को दे दिया, आफ़ताब से बात हुई और पूछा गया, जब बात हो गयी तो आफ़ताब ने बताया कि वो उन्हें करीब दस साल से देखता आया है, उन्होंने कभी किसी को आज तक नुकसान नहीं पहुंचाया है, वो रात दो बज कर, चालीस मिनट पर नज़र आते हैं और पूरे एक घटने के बाद सड़क पार करके, गायब हो जाते हैं, इस से अधिक और कुछ नहीं बता सका वो, बस इतना और, कि उनके बारे में, उसे, एक स्थानीय पत्रकार ने बताया था, अब वो पत्रकार कहना है, ये नहीं मालूम उसे! इतना जान, फ़ोन काट दिया गया!
"दस साल?" बोला मैं हैरत से,
"हाँ जी!" बोले दीप साहब,
"दस साल से रोजाना यही काम?" पूछा मैंने,
"जी!" बोले वो,
"अफ़सोस!" कहा मैंने,
"अब करें क्या?'' पूछा उन्होंने,
"हाँ, सही बात है!" कहा मैंने,
"अच्छा, दीप साहब?" बोले शर्मा जी,
"जी?'' बोले वो, शर्मा जी को देखते हुए,
"वो पोस्ट जो बनी है, वो क्या है?'' पूछा उन्होंने,
"वहां अब कोई नहीं, खाली है वो!" बोले वो,
"अच्छा?" कहा मैंने,
"हाँ जी, पहले वहाँ जांच के लिए वाहनों को रोका जाता था, अब नहीं, इसे तो करीब दस-बारह साल हो गए हैं, बताया मुझे एक जानकार ने!" बोले वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"इसका मतलब......" बोले शर्मा जी,
"क्या मतलब?" पूछा मैंने,
"वहां जो भी कुछ हुआ, वो दस साल पहले हुआ, शायद दो साल के अंदर, उस से पहले!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"नहीं तो चेक-पोस्ट वाले कुछ न कुछ तो करते?" बोले वो,
"हाँ, जैसे कोई पाठ-पूजा?" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
"चलो, देखते हैं!" कहा मैंने,
फिर बजे दस, और रजत साहब भी आ गए, साथ में अपने, एक प्रौढ़ से व्यक्ति को लाये थे, उनसे हमारा परिचय हुआ, वे मास्टर जी कहलाते थे, उन्होंने एक बार, उस आदमी से बात की थी, सड़क पर करते हुए! ये सुन, मेरे तो होश हिल गए! झटका सा खा गया मैं!
"कब बात हुई थी?" पूछा मैंने,
"जी कोई, आठ साल तो हो गए होंगे!" बोले वो,
"आठ साल?" कहा मैंने,
"हाँ जी!" बोले वो,
"हुआ क्या था?" पूछा मैंने,
"वो सर्दी की रात थी जी, हम कुल चार लोग थे, हमारे पास एक जीप थी, बंद वाली, हम आ रहे थे कहीं से, अचानक उसी जगह, ड्राइवर ने ब्रेक लगाये अचानक से!" बोले वो,
चश्मा ठीक किया अपना, याद कर रहे थे कुछ!
"फिर?" पूछा मैंने,
"मेरी नींद खुली, मैंने ड्राइवर से पूछा कि क्या बात है तो उसने सामने हाथ किया, मैंने सामने देखा, देखा, एक आदमी, एक औरत को उठाकर, बड़ी मुश्किल से, चल पा रहा था वो बेचारा, ले जा रहा था सड़क किनारे!" बोले वो,
"अच्छा?" कहा मैंने,
"हाँ जी!" बोले वो,
"फिर?" पूछा मैंने,
"मैंने सोचा, शायद कोई एक्सीडेंट हुआ है, तो मैं बाहर जाने लगा, तभी ड्राइवर ने रोक लिया, मैंने पूछा कि शायद मदद की ज़रूरत है उन्हें, और मदद करनी चाहिए उसकी!" बोले वो,
"हाँ, सही बात है!" कहा मैंने,
"फिर?" बोले शर्मा जी,
"फिर ड्राइवर ने कहा कि कोई गाड़ी तो नज़र आ नहीं रही? और इतनी रात गए, कोई पैदल क्यों जाएगा, वो भी ठंड में?" बोले वो,
"बात तो सही कही ड्राइवर ने!" बोला मैं,
"हाँ जी!" बोले वो,
पानी का एक घूँट भरा उन्होंने, गिलास रख दिया फिर,
"फिर साहब?" बोले शर्मा जी,
"अब तक, हम जाग ही चुके थे, सभी को चुप रहने को कहा, और सामने देखने को कहा!" बोले वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"तो?" शर्मा जी ने पूछा,
"तो जी, उस आदमी ने, उस औरत को बिठा दिया एक जगह, पास में ही!" बोले वो,
"ओह.......फिर?" पूछा मैंने,
"मुझ से रहा नहीं गया! मैं उतर गया गाड़ी से, और सीधा ही जा पहुंचा उनके पास!" बोले वो,
"अच्छा?'' मैंने हैरानी से पूछा,
"हाँ जी!" बोले वो,
"फिर?" पूछा मैंने,
"मैं गया तो वो कुछ चौंक सा पड़ा, मेरी मदद करो, मदद करो, बोलने लगा!" बोला वो,
"अच्छा, क्या मदद?" पूछा मैंने,
"मैंने पूछा कि क्या हुआ तो बोला की कल सुबह शिमला पहुंचना है, और हम यहां फंस गए हैं, कोई साधन है क्या?'' पूछा उसने,
"अच्छा, शिमला जाना था उन्होंने, अच्छा, क्या मदद और? साधन क्या?" पूछा मैंने,
"बोला कि कोई सवारी मिल जायगे, लेकिन तभी मैंने देखा, कि उसकी पत्नी की गर्दन में छेद था, छेद मतलब उसकी गर्दन का टेंटुआ बाहर निकला पड़ा था, अब मैं घबराया, वो ज़िंदा कैसे है? मेरे पाँव काँप गए, मैं घबरा गया! और लौट पड़ा कहते हुए कि अभी सवारी आ जायेगी!" बोले वो,
"ओह.......इसका मतलब कोई दुर्घटना हुई थी उनके संग........" बोले शर्मा जी,
"हाँ जी!" बोले वो,
"फिर?" पूछा मैंने,
"फिर क्या था! हम भाग लिए! नहीं रोकी गाड़ी हमने! वो चिल्लाता रहा, बुलाता रहा, लेकिन वो भूत हैं जी, कौन रुकता?" बोले वो,
"हाँ.........सही बात है" कहा मैंने, सांस छोड़ते हुए!
बात भी सही थी, वो क्या, कोई और भी होता तो भी यही कहता, भूतों से आम इंसान डरता ही है, और वो भी उस हालत में देख कर तो, अच्छे से अच्छा मज़बूत और न डरने वाला भी हल्का हो जाए! तो इसमें किसी अचरज की बात नहीं थी!
"चलें रजत साहब?" पूछा मैंने,
"हाँ जी!" बोले वो,
चाबी उठाते हुए,
और फिर हम चल दिए, नीचे, दीप साहब आगे आगे चले, और फिर रजत जी, उन साहब को भी साथ ले लिया था, तो हम नीचे पार्किंग तक पहुंचे, रजत साहब ने गाड़ी स्टार्ट की, मोड़ी और हम बैठ ये उसमे फिर, अब मंजिल थी हमारी वही जगह, जहां रात को गए थे हम!
"सुनसान है जी वो जगह!" बोले दीप जी,
"हाँ, बस वही रास्ता ही तो है?" बोले रजत जी,
"हाँ जी!" बोले दीप साहब,
"रात तो रात, दिन में भी अकेला आदमी डर जाए वहां तो!" बोले रजत जी,
"हाँ, मैं तो जाता ही नहीं!" बोले मास्टर जी,
"फायदा भी क्या है!" बोले रजत जी,
"हाँ, कहीं पकड़ लिया कि तू तो सवारी लेने गया था?" बोले मास्टर जी, हँसते हुए!
हम सभी हंस पड़े ये सुनकर!
वो जगह कोई पच्चीस किलोमीटर के आसपास रही होगी, मौसम साफ़ था, हना, हवा में ठंडक बनी हुई थी!
बातें करते करते, हम पहुंच ही गए उसी जगह! गाड़ी बाएं लगाई थी हमने, काफी जगह थी वहां, तब उतरे हम, और सड़क पार की, गाड़ियां अभी भी भागा-दौड़ी में लगी थीं! ये मार्ग तो कुछ ज़्यादा ही व्यस्त रहता है! मुझे लगा ऐसा!
तब हम उस पोस्ट के पास आये, कंक्रीट की बनी थी वो, लेकिन अब टूटी फूटी थी, छत पर टीन पड़ी थी, लोहे के, जंग खाए पाइप आदि, अभी भी लगे थे, खिड़कियों के पल्ले नहीं थे, दरवाज़े भी नहीं थे, अंदर पत्थर और कूड़ा भरा पड़ा था! पेड़-पौधों के पत्ते आदि! कीड़े-मकौड़ों का स्वर्ग बन अतः वो कमरा तो अब! मकड़ियों ने जले बन रखे थे, दीवारों में, जगह जगह गड्ढे पड़े थे, पपड़ी तो हट ही चुकी थी, अब कब गिर जाए रही-सही, पता नहीं, कुछ नहीं कहा जा सकता था! उसके तो नज़दीक भी खड़ा होना खतरनाक था!
"इसका तो बुरा हाल है!" बोले रजत जी,
"हाँ!" कहा मैंने,
"अब तो खंडहर भी नहीं बचा!" बोले शर्मा जी,
"हाँ!" कहा मैंने,
"सांप-बिच्छू पल रहे हैं अब तो जैसे!" बोले मास्टर जी!
"बिलकुल!" कहा मैंने,
"आओ, उधर चलते हैं!" कहा मैंने,
एक लैंप-पोस्ट लगा था वहां, बिजली की तार थी उधर लगी हुई, वहां आसपास कहीं कोई गाँव नहीं था, एक क़स्बा था, लेकिन वो दक्षिण में था, करीब पांच किलोमटर के आसपास!
"यहीं थे न वो?" पूछा शर्मा जी ने,
"हाँ!" बोले दीप साहब,
"लेकिन मुझे तो सड़क पर मिले थे?' बोले मास्टर जी,
"वो शायद पार कर रहे हों सड़क!" कहा मैंने,
"हो सकता है!" कहा मास्टर जी ने!
तभी, पास में से ही एक आवाज़ सी हुई! खरड़-खरड़ की! मास्टर जी ने, झट से मेरा कंधा पकड़ा! रजत जी, डर के मारे, पीछे लौटे, मेरे पीछे! दीप जी, खड़े हो गए!
आवाज़ फिर से हुई!
"ये क्या है?' बोले मास्टर जी,
"कोई जानवर है!" कहा मैंने,
"भूत तो नहीं है?' बोले मास्टर जी,
"अरे नहीं!" कहा मैंने,
सांस में साँस लौटी सभी की!
"आओ!" कहा मैंने,
"और आगे?" बोले दीप साहब,
"हाँ?" कहा मैंने,
"जंगल है आगे!" बोले वो,
"आओ तो सही?" कहा मैंने,
तीनों ने एक दूसरे को देखा, मैं समझ गया, डरे हुए हैं तीनों ही!
"आप यहीं रुको फिर!" कहा मैंने,
"और आप?" बोले मास्टर जी,
आवाज़ फिर से हुई! इस बार लौट पड़े रजत साहब! मास्टर जी भी संग उनके!
"मैं चलता हूँ!" बोले दीप साहब!
"आओ फिर!" कहा मैंने,
हम आगे बढ़े, एक रास्ता सा बना था बीचोंबीच उस जगह! वहीँ से अंदर चले, जैसे ही चले, कोई भाग, जानवर! झलक दिखी तो कोई हिरण सा था वो! कोई जंगली जानवर, हिरण जैसा था! उसी की आवाज़ आ रही थी बार बार!
"ये था वो!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले दीप साहब,
"अब जंगल है!" बोले शर्मा जी,
"हाँ!" कहा मैंने,
"तेंदुआ ही खतरनाक है जी यहां!" बोले दीप साहब!
"हाँ!" कहा मैंने,
हम चलते रहे आगे, घना जंगल नहीं था, छितरा सा था, आगे, दीख रहा था साफ़ साफ़! पत्थर थे बड़े बड़े! और सुनसान! कुछ नहीं!
"न कोई आदमी न आदमी की जात!" बोले शर्मा जी,
"यहां भला कौन आएगा?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोले दीप साहब!
खटाक!! आवाज़ हुई एक! सामने, पत्थर आ कर गिरा नीचे कहीं से! बड़ा तो नहीं था, ईंट भर का होगा, कहीं सर पर आ गिरता तो जान पर ही बन आती!
वो पत्थर कहाँ से आया? किसी ने फेंका क्या? अगर हाँ, तो किसने? क्यों? मैंने आसपास देखा, पास में ही, चट्टानें थीं, कुछ छोटी छोटी पहाड़ियां भी, शायद वहीँ से गिरा हो, लगता तो यही था! नहीं तो कोई क्यों फेंकेगा? वो भी इस जंगल में?
"वहां से गिरा होगा!" कहा मैंने,
एक ऊँची जगह पर इशारा करते हुए,
"हाँ, हो सकता है!" बोले दीप साहब!
"अब आराम से चलो, देखते हुए!" कहा मैंने,
और तब हम, दूसरी जगह के लिए मुड़ गए, यहां से कोई पत्थर नहीं आ सकता था, न पहाड़ी ही थी कोई, न कोई चट्टान! बस जंगल ही जंगल, और कुछ नहीं!
"यहां तो कुछ नहीं!" बोले शर्मा जी,
"हाँ, कुछ नहीं!" कहा मैंने,
"थैली-गिलास, पन्नी आदि भी नहीं!" बोले दीप साहब!
"हाँ, आओ, चलें!" कहा मैंने,
"चलो!" बोले दीप साहब!
और हम वापिस हुए फिर, कुछ न मिला था यहां तो, दूर दूर तक बस जंगल ही जंगल! पहाड़ियां थीं, पत्थर गिर रहे थे, फिसल रहे थे, कहीं चाँद फूट जाती तो लेने के देने पड़ जाते! इसीलिए वापिस हुए हम! वापिस हुए, तो आये उस लैंप-पोस्ट के पास! हुए खड़े!
थोड़ा आराम किया, सामने ही, सड़क के पार, वे गाड़ी में बैठे हुए थे दोनों ही! हमें ही देख रहे थे बाहर!
"ये देखना ज़रा?" बोले शर्मा जी,
"क्या है?" पूछा मैंने,
"ये देखो?" बोले वो,
उस लैंप-पोस्ट के चबूतरे पर, कुछ खुदा हुआ सा दिखा, जैसे कुरेद कर लिखा गया हो कुछ! अब मिट्टी पड़ी थी उसके ऊपर, लेकिन दीख तो रहा था, मैं तभी नीचे बैठा, और फूंक मारी, मिट्टी उडी, तो कुछ दिखा, अंग्रेजी में लिखा था कुछ, एक ही अक्षर दीख रहा था, अंग्रेजी का डी, बस, बाकी मिट चुका था, शायद, बहुत साल पहले कुरेदा गया हो, ऐसा लगता था, या कहीं इस चबूतरे वाले ने, बनाते वक़्त ही कुछ न लिख दिया हो, या जब ऊख रहा हो वो चबूतरा, तो किसी ने लिख दिया हो!
"ये डी ही समझ आ रहा है बस!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले दीप साहब,
"है तो कोई नाम!" बोले शर्मा जी,
"हाँ, नाम ही है!" कहा मैंने,
"कहीं कोई सरकारी चिन्ह तो नहीं?" बोले दीप साहब,
"अरे नहीं!" कहा मैंने,
"वो होता तो यहां नहीं लिखा जाता, इस पोस्ट पर ही लिखा जाता!" बोले शर्मा जी,
"हाँ! सही बात है!" बोले दीप साहब,
"आओ!" कहा मैंने,
"चलो!" बोले दीप साहब,
हम पहुंचे गाड़ी तक, दरवाज़ा खुला एक,
"कुछ दिखा?" मास्टर जी ने पूछा,
"ना!" बोले दीप साहब,
"दिन में कोई न दिखेगा!" बोले वो,
"कुछ देखने नहीं गए थे हम!" बोले शर्मा जी,
"अच्छा!" बोले मास्टर जी!
"पानी दो ज़रा!" बोले शर्मा जी,
रजत जी ने पानी दे दिया, बोतल ली हमने, और पानी पिया फिर!
"शर्मा जी?" कहा मैंने,
:हाँ जी?" बोले वो,
"ज़रा आइये?" कहा मैंने,
"कहाँ?" पूछा उन्होंने,
"इधर ज़रा!" कहा मैंने,
"अच्छा!" बोले वो, और पानी पी, बोतल वापिस कर दी,
"मैं भी चलूँ?" बोले दीप साहब,
"हाँ, आ जाओ!" कहा मैंने,
"यहां कहाँ?" पूछा दीप साहब ने,
"वो रात को यहीं जाते हैं न?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
"देखते हैं!" कहा मैंने,
"अच्छा!" बोले शर्मा जी,
हम चले उधर, उधर तो एक खाई सी थी, लेकिन अधिक गहरी नहीं! हम पार करने लगे उसे,
"ये खाई तो नहीं है?" बोले दीप साहब,
"ना, नाला है, बरसाती!" बोले शर्मा जी,
"अच्छा!" बोले दीप साहब,
हम अंदर चले, जंगल यहां भी छितरा ही था! आगे तो, मैदान सा था खाली, झाड़ियाँ लगी थीं, पहाड़ी जंगली पेड़ और पौधे!
"ये फूल कैसा?" बोले दीप साहब,
"अच्छा ये!" कहा मैंने,
"हाँ, कैसा काल और सफेद सा है?'' बोले वो,
"अभी कच्चा है ये, जंगली अदरक है!" कहा मैंने,
"अच्छा, किस काम आती है?" पूछा उन्होंने,
"ज़हर उतारने के लिए!" कहा मैंने,
''अच्छा!" बोले वो,
"हाँ, इसको उबाल कर, इसका अपनी पिलाते रहो, एक एक चम्मच, ज़हर उतरता चला जायेगा!" कहा मैंने,
"कैसा भी ज़हर हो?" पूछा उन्होंने,
"हाँ!" बताया मैंने,
"वाह!" बोले वो,
"वो देखो?" बोले शर्मा जी,
हमने सामने देखा! एक टूटी-फूटी सी झोंपड़ी पड़ी थी वहाँ! सामने, आसपास पेड़ लगे थे उसके, सुनासन जगह थी वो!
"आओ!" कहा मैंने,
"जंगल में झोंपड़ी?" बोले दीप साहब,
"चरवाहों की हो शायद?" बोला मैं,
''अच्छा!" बोले वो,
हम पहुँच गए वहां! उसको देखा! वो तो शायद सालों से ऐसे ही पड़ी थी! अब कुछ नहीं बचा था, बस कुछ लकड़ी के शहतीर से, पतले पतले!
"बनाई होगी किसी ने!" बोला मैं,
"हाँ चरवाहों की ही लगती है!" बोले वो,
आसपास नज़र डाली, और कुछ नहीं था!
"कुछ नहीं है!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले शर्मा जी,
''आओ, वापिस चलें!" कहा मैंने,
और हम वापिस चले तब! कुछ नहीं था यहां और वहां!
"आओ!" बोले शर्मा जी,
"जी!" बोले दीप साहब,
और हम, वापिस हो लिए गाड़ी तक जाने के लिए!
तो हम वापिस आ गए, कुछ हाथ लगा नहीं, सोचा था कि कुछ दिख ही जाए, सो नहीं मिला, अब वैसे भी उस दुखदायी घटना को घटे दस बरसों का समय हो गया था, अब क्या निशान बाकी रहना था, वक़्त सब बहा ले जाता है, बड़े से बड़ी घटना भी आगे जा कर, छोटी और मामूली सी लगने लग जाती है, जैसे भोपाल गैस त्रासदी, लातूर और भुज के भूकम्प में मचा सर्वनाश और वो जल्दी में ही घटी, केदारनाथ की भयानक त्रासदी, ये सब इतिहास में जाकर एक दिन, धूमिल पड़ जाएंगी! सिर्फ किताबों आदि में ही निशान बाकी रह जाएगा! और फिर ये तो एक दुर्घटना थी, शायद कोई सड़क दुर्घटना, अब ऐसी दुर्घटनाएं, रोज़मर्रा की सी बातें हो चली हैं, लोग तो भूल ही जाया करते हैं! तो ये भी एक भूली-बिसरी सी ही घटना बन गयी होगी!
ये बेचारे कौन अभागे हैं, कहाँ से आ रहे थे, कहाँ को जाना था, अब ये सिर्फ, वही जानते थे, मैं सीधे सीधे उनसे पूछ नहीं सकता था, कहीं कोई बात हो जाती, तो शायद फिर आते ही नहीं सामने! वे अब समय से पार हैं, समय से कोई लेना-देना नहीं है उनका, इस से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि उन्हें, दस साला हुए हैं या बीस, या फिर सौ, उनके लिए तो ये बस, उसी क्षण की बात है, बस इसी क्षण की, जो अभी अभी ही गया है! इसीलिए, मुझे अब हर क़दम फूंक फूंक कर ही रखना था, कोई चूक हो जाए, या गुंजाइश रह जाए तो ये एक बड़ी भूल साबित हो सकती थी!
खैर, हम आवास पर पहुंचे दीप साहब के, भोजन किया और फिर आराम किया, शाम को, हम लोग स्थानीय-बाज़ार देखने चले गए थे, कुछ गरम कपड़े खरीद लिए थे जैसे दस्ताने, मफलर, टोपी आदि, ये अच्छा मिलता है यहां, मैंने भी लिए और शर्मा जी ने भी, वहीँ कॉफ़ी भी पी, कुछ हल्का-फुल्का सा खाया भी और फिर वहाँ से हम वापिस हुए, रात को, भोजन किया और फिर आराम किया, हमें करीब दो बजे से पहले उसी जगह जाना था आज भी, उन्हें देखना था, कि क्या वे वहीँ हैं अभी भी, उसी ढर्रे पर, या कुछ बदलाव भी होता है? ये देखना बेहद ज़रूरी हुआ करता है, वे अब प्रेत थे, लेकिन, उनको अभी भान नहीं था क्या असलियत का? या था? था तो ऐसे सभी को नज़र क्यों आ रहे थे? क्या कारण रहा होगा? ये जानना ज़रूरी था!
तो हम, डेढ़ बजे उठ गए थे, रजत साहब वहीँ सोये थे, वे भी उठ गए थे, चाय बना ली थी उन्होंने, तो हमने चाय पी, और उसके बाद, हम निकल गए थे उसी जगह के लिए! हम करीब सवा दो बजेतक वहाँ पहुँच गए थे, आज बड़ा ही अँधेरा था वहां, आज वो सड़क की लाइट नहीं जल रही थी, लाइट हम जला नहीं सकते थे, पता नहीं क्या बात होती, लेकिन क़िस्मत मेहरबान हुई, वो लाइट जल पड़ी थी! तो हमने अपनी गाड़ी एक तरफ लगा दी थी, और सामने देखने लगे थे! अभी उस लैंप-पोस्ट के पास कोई नहीं था, हाँ, आज कोहरा काफी था, कोहरे के बादल से छाये हुए हे, कभी साफ़ सा लगता और कभी घुप्प सा!
दो बज कर तीस मिनट.............ढाई बजे....
हम चुपचाप सामने देखने लगे थे, बस अब कोई दस मिनट के बाद ही, वे नज़र आते हमें! वही तीनों, उस छोटे से बालक के साथ, जो उस औरत की गोद में था!
दो बज कर चालीस मिनट...........
ठीेक इसी समय पर, वही छोटी, प्यारी सी बच्ची, नज़र आई, अकेले, पीछे देखती और आगे बढ़ती जाती, आगे आते आते, उस लैंप-पोस्ट के पास आ खड़ी हुई! कभी उस बत्ती को देखे, और कभी उस सड़क को, जहां हम, अँधेरे में खड़े थे! बच्ची, उस चबूतरे पर एक पाँव रखती, फिर दूसरा पाँव, खड़ी हो जाती थी उस पर, उसके लिए ये एक खेल ही था! उसके हतहों में पकड़ा हुआ वो छोटा सा सुनहरा सा, चमकीला पर्स, अब गले में पड़ा था उसके! वो पर्स, आगे आ जाता था बार बार, तो उसे , कंधे से, डोरी खींच कर, पीछे कर लिया करती थी! उसके बल चेहरे पर आते तो अपनी छोटे छोटे हाथों से, उनको पीछे कर लिया करती थी! बच्ची बेहद ही प्यारी थी! बेहद ही प्यारी! परी, एक छोटी सी परी लग रही थी वो! वो खुश थी बहुत! आसपास देखती थी वो, उस खाली पड़ी चौकी को भी, नज़र में भर लेती थी!
करीब दस मिनट तक, वो अकेले ही रही, फिर पीछे की तरफ दौड़ी, गायब हो गयी! हम नज़रें वहीँ टिकाये रहे!
करीब पांच मिनट के बाद, वो लौटी, एक आदमी का हाथ पकड़े हुए, उछलते और कूदते हुए, वो आदमी, बेहद ही सलीके से सामने चलता आ रहा था! वे आये और उस लैंप-पोस्ट तक आ कर रुक गए!
"ये आते कहाँ से हैं?" फुसफुसाए दीप साहब,
"पता नहीं!" बोले शर्मा जी,
"पीछे तो कुछ है नहीं?" बोले दीप साहब,
"हो सकता है हमसे चूक रहा हो?" कहा मैंने,
"हाँ, हो सकता है!" बोले वो,
वो बच्ची, अपने पिता के साथ, खड़ी हो गयी थी, अपने पिता का हाथ, बार बार हिला देती थी, ऊँगली पकड़ कर! पिता भी, आराम से उस बच्ची को वो सब करने देता जो वो चाहती थी, वो कभी गिरने को होती, तो संभाल लेता था उसका पिता! तभी बच्ची ने, उसका हाथ छोड़ा और पीछे अँधेरे में भाग चली, वो पिता वहीँ अकेला रह गया, खड़ा हुआ, सामने सड़क को देखा उसने, वाहन जाता तो गौर से देखता, फिर वो भी पीछे लौट पड़ा!
"चले गए क्या?" बोले रजत साहब,
"देखते हैं?" कहा मैंने,
करीब दस मिनट गुजरे.............
तब वो आदमी, अपनी पत्नी के साथ आया नज़र, लेकिन वो बच्ची नहीं थी साथ में उनके! उस औरत के हाथ में दो बैग थे, एक बैग ले लिया था उस आदमी ने, कंधे पर टांग लिया था अपने, और उस औरत के हाथ से, वो बालक ले लिया था, जो एक बैग-पैक जैसे कंबल में लिपटा हुआ था, बालक दीख नहीं रहा था, बहुत छोटा था वो, बेचारा.............दिल पसीज गया उनकी इस हालत पर, अचानक से बच्ची भागी भागी आई! और अपनी माँ का हाथ पकड़ लिया, माँ बैठी, और उस बच्ची के बाल साफ़ करने लगी! कुछ घास के तिनके आदि!
तब वो आदमी, आगे बढ़ा, बच्ची को साथ लेते हुए, पीछे पीछे वो औरत चली, वे सब आये सड़क तक, हमारे पास तक, करीब दस फ़ीट तक, आदमी ने, दायें-बाएं देखा, और बच्ची का हाथ कद, उस औरत से कुछ बोल, आगे चल पड़ा, सड़क पार कर ली उन्होंने! तब उस बालक को, उस औरत के हाथ में दे दिया उसने, बच्ची को गोद में उठाया, सड़क के पार ही, नीचे की तरफ उतरने लगे वो, और देखते ही देखते, गायब हो गए! ये रोज़मर्रा का खेल था उनका! दस साल या अधिक से, रोज यही करते थे वो सब! यही करते आ रहे थे!
वे चले गए थे, पता नहीं कहाँ से आते थे और कहाँ को चले जाते थे! हमने तलाश की, तो कुछ नहीं दिखा था, कोई खंडहर होता, कोई चौकी सी ही, कोई इमारत आदि, तो भी समझ आता, लेकिन वो कहां घूमते थे जंगल में, किसलिए, ये जवाब नहीं था हमारे पास!
"चले गए!" बोले दीप साहब,
"हाँ!" कहा मैंने,
"आओ, हम भी चलें!" बोले वो,
"हाँ, चलो!" कहा मैंने,
गाड़ी स्टार्ट की, और हमने मोड़ी फिर, और वापिस घूमे! तभी अचानक से, ब्रेक लगाये रजत साहब ने! हम सभी ने एक झटका सा खाया! ये भी नहीं पूछा कि क्या हुआ था, क्यों लगाये ब्रेक! बस सभी की गर्दनें सड़क के उस तरफ मुड़ चली थीं जहां वे गए थे तीनों, उस बालक के साथ! उस जगह, वो लड़की खड़ी थी, बच्ची, छोटी! जो हमें देख रही थी, हमारी गाड़ी को! और कोई नहीं था उसके साथ! रजत जी घबरा गए थे, गाड़ी का इंजिन, शर्मा जी ने बंद किया, बत्तियां बंद कीं अंदर की, वो लड़की सड़क किनारे खड़ी थी, हमें ही देखते हुए!
"रुको!" कहा मैंने,
हम तो वैसे भी रुके हुए ही थे! मुझे भी याद न रहा था!
"आना शर्मा जी?'' कहा मैंने,
"हाँ, चलो!" बोले वो,
तब मई अपना दरवाज़ा खोला, अपनी तरफ वाला, शर्मा जी ने अपनी तरफ वाला, और हम उतर गए नीचे, वो बच्ची, अभी भी हमें ही देख रही थी, अब भी कोई साथ में नहीं था उसके! अब ये सोचने का समय नहीं था कि वो अन्य कहाँ हैं, या क्यों नहीं आये साथ में? अब बस, उस लड़की से बात करनी थी, अगर उसने की तो!
हम धीमे क़दमों से आगे बढ़ चले, दोनों ही, दूरी कम होती गयी उस बच्ची और हमारे बीच की, अब बस कोई पांच-छह फ़ीट ही दूरी थी, मैंने शर्मा जी को रोक दिया, और आगे बढ़ा, चला आगे, अक्रीब दो फ़ीट पर रुका!
बेहद सुंदर बच्ची थी वो! बेहद ही सुंदर! गोल-मटोल सी! गोरा रंग और करीने से कढ़े उसके बाल! बालों में, हेयर-बैंड लगाया हुआ था उसने, बंद गले तक की फ्रॉक सी पहने थी वो! उसका छोटा सा सुनहरी पर्स, फूला हुआ था, शायद उसने, कुछ रुमाल या कुछ और रखा हो उसमे! एक घड़ी भी पहने थी वो, घड़ी, डिजिटल थी, पीले रंग की! पाँव में नीचे मौजे पहने थे! सफेद रंग के, बड़े वाले, और नीचे चमकीली सी बैलियाँ पहनी थीं, सुनहरे रंग की थीं वो!
"क्या नाम है बेटे तुम्हारा?'' पूछा मैंने,
"डिंपल!" बोली वो,
सहसा कुछ याद आया! वो खरोंचा हुआ डी! शायद इसी ने ही कुरेदा हो, या फिर कोई और ही इत्तिफ़ाक़ हो, खैर,
"अकेली हो बेटे?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोली वो,
"और कौन है साथ?" पूछा मैंने,
"मम्मी-पापा और नवु!" बोली वो,
शायद उस बालक का, बोली का नाम हो ये नवु!
"नवु?" पूछा मैंने,
"हाँ, छोटू भैय्या, नवोदय!" बोली वो,
बच्ची, हाजिरजवाब थी! बिना संकोच के, सब बता देती थी! अब बच्चे साफ़ दिल के होते हैं, जैसे खुद हैं, वैसा ही सामने वाले को भी समझ लेते हैं! उनकी दुनिया में, कुछ भी 'क' नहीं, हम, पढ़े-लिखे, 'बड़े' ही इस 'क' से पीड़ित रहते हैं! बच्चे नहीं!
"मम्मी-पापा कहाँ हैं?" पूछा मैंने,
"उधर" बोली इशारे से,
"वहां क्या कर रहे हैं?" पूछा मैंने,
"लेटे हुए हैं!" बोली वो,
"अरे? वो लेटे हुए हैं और तुम इस जंगल में, अकेली जागी हो?' पूछा मैंने,
"वो उठ ही नहीं रहे?'; बोली वो,
अब दिल धड़का मेरा! क्या? नहीं उठ रहे हैं वो? इसका क्या मतलब?
"तुमने, जगाया नहीं उन्हें?" पूछा मैंने,
"बताया न? वो नहीं उठ रहे?" बोली वो,
"और नवु?" पूछा मैंने,
"वो भी" बोली वो,
हे भगवान!
क्या? क्या जो मेरे दिमाग में आया है, वो सही है? क्या ये बच्ची, सबसे आखिर में..............ओह..........बहुत बुरा हुआ ये तो........
"मुझे दिखाओ? कहाँ हैं वो?"
"उधर!" बोली वो,
"चलो!" कहा मैंने,
और वो सड़क के नीचे की तरफ चल पड़ी, वो आगे आगे, और मैं पीछे पीछे, मेरे पीछे, शर्मा जी, हम उस बरसाती नाले में उतरे, उजाला तो नहीं था, अँधेरा ही था, हाँ, सड़क से आते जाते वाहनों की बत्तियों का प्रकाश पड़ जाता था उधर, रास्ता दीख जाता था, वो आगे चलती रही, और एक जगह, रुक गयी, पीछे देखा हमें, तभी किसी वाहन की रौशनी ने बींधा उसे, रौशनी, आरपार हो गयी थी उसके!
मैं वहां तक गया, जहां तक, वो रास्ता था, रास्ता क्या था, बस एक समतल सी ज़मीन ही थी, वहीँ खड़ी थी वो बच्ची! मैं जैसे ही पहुंचा, मेरे पाँव ठिठक गए! मैं रुक गया! नीचे ज़मीन पर, एक औरत और एक आदमी लेटे पड़े थे, साथ में ही, बैग-पैक में लिपटा वो बच्चा भी था, मैं हिम्मत कर, आगे तक गया! और जैसे ही देखा उन्हें, मेरी साँसें ही जैसे थमने को हो गयीं!
उस औरत का गला चिरा पड़ा था, स्तन, फट कर बाहर आ गए थे, खूनम-खान हुई पड़ी थी वो, और वो आदमी, उसकी कमर बीच में से टूट गयी थी, सर पर एक बड़ा सा घाव था, कमर टूट कर, आधी ही रह गयी थी, पसलियां टूट कर बाहर आ गयी थीं, ये दुर्घटना के कारण ही था, चोटें सामने लगी थीं, अर्थात, किसी ने टक्कर सामने से ही मारी होगी जिस से उनके शरीरों का ऐसा बुरा हाल हुआ था, कोई साधारण इंसान देख ले तो कै ही कर दे, भोजन ही न कर पाये, चर्बी सारी बाहर लटक आई थी, खून अब जम चुका था पूरी तरह..
और वो बालक, बेचारा, शायद सोते सोते ही इस संसार को विदा कर गया था, उसने तो आँखें भी न खोलीं थीं इस संसार में! उस से पहले ही उनकी आँखें मुंद गयी थीं! उस पर चोट का कोई निशान नहीं था, शायद, दबने से उसकी मौत हुई हो...
लेकिन ये बच्ची? डिंपल?
ये? इसके साथ क्या हुआ था?
"पापा?" बोली बच्ची,
अनजान! बेखबर कि क्या हुआ था उसके पापा के साथ!
"मम्मी? मम्मी?'' बोली वो, मम्मी को जगाते हुए,
लेकिन अब माँ कहाँ उठती? वो तो हमेशा के लिए उठ गयी थी बेचारी.......
"इन्हें जगाओ अंकल?" बोली वो,
"हाँ बेटे! अभी!" कहा मैंने,
कैसी मज़बूरी थी! सब सच देखते हुए भी, झूठ बोलना पड़ रहा था! दिल में, बवंडर सा उठा था उस वक़्त!
"अंकल, इन्हें जगाइए, मैं थक गयी हूँ!" बोली वो, पाँव पटकते हुए!
कैसा जगाऊँ? काश कि जगा पाता! किसी बच्ची के सामने, शब्द ही न फूटें, ऐसा तो पहली बार हुआ था ज़िंदगी में तब! वो बेचारी, उन्हें जगा जगा कर, थक गयी थी, लेकिन जो जागने वाला ही नहीं था, वो कैसे जागता?
"अंकल?'' बोली वो,
"ह...हाँ..हाँ बेटे?" कहा मैंने,
"पता है, मैं कब से किसी को बुला रही हूँ, कि इनको जगा दो, कोई नहीं मिला, कोई रुका ही नहीं, आप रुके, आप इन्हें जगा दीजिये?" बोली वो,
कब से! मायने, कोई नहीं आया था, कोई नहीं रुका था वहां, कोई रुकता भी कैसे? किसको फुर्सत है और कौन ऐसे पचड़ों में पड़ना चाहता है, कोई भी नहीं, दिल से इंसानियत सूख गयी है आजकल, कोई नहीं है जो मदद के लिए सामने आये! कोई भी नहीं! कैसी विडंबना है! ये क्या हो गया है आज के इंसान को, क्या गुजरी होगी इस बच्ची के छोटे से दिल पर, अपने मम्मी-पापा को इस हाल में देख कर, उस छोटे बच्चे को ऐसे बेसुध देख कर!
"पापा?" बोली वो,
अपने पापा का हाथ पकड़ते हुए, खींचते हुए, ओहो! दिल पर खंजर रेंग गया! चिंगारियां छूट पड़ी उसकी मज़बूरी पर! कैसा भयानक अंत देखा था इस बच्ची ने सभी का, और.....अपना भी!
"बेटे?" कहा मैंने,
"हूँ? बोलो?" बोली वो,
"आप लोग आ कहा से रहे हो?" पूछा मैंने,
"नानी के यहां से, सुबह जाना है न, पापा ने, दफ्तर?'' बोली वो,
"नानी के घर से?" कहा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
"बेटा? कहना हैं आपकी नानी जी?" पूछा मैंने,
"चंडीगढ़!" बोली वो,
"अच्छा! और पापा का दफ्तर शिमला में है?" पूछा मैंने,
"हाँ, थोड़ा आगे, नानी की तबीयत खराब थी, इसीलिए गए थे!" बोली वो,\मैं चुपचाप उसकी बातें सुन रहा था, कुछ अहम जानकारियां मिल रही थीं, ये बहुत काम की थीं, बच्ची से मैं प्रभावित था, सवाल-जवाब करने में माहिर थी अवश्य ही ज़हीन दिमाग़ की रही होगी वो! बेहद ही प्यारी! लाड़ली रही होगी सभी की, अपने नाना-नानी की, दादा-दादी की, और अपने मम्मी-पापा की! प्यारी इतनी, कि जी करे, बातें करते रहो उस से बस! बातचीत में, उसकी बचकानी आवाज़, बड़ी ही प्यारी लगती थी!:
"आप उठाइये?'' बोली वो,
"हाँ बेटे!" कहा मैंने,
मैं नीचे बैठा, ध्यान से देखा उस आदमी को, उम्र में, करीब पैंतीस के आसपास रहा होगा, सभ्रांत घर का लगता था वो, उसकी पत्नी, वो भी करीब तीस के आसपास की रही होगी, हाँ, कोई जेवर नहीं पहना था उसने, ऐसा कैसे हो सकता था? कान में, झुमके या बाली भी नहीं? कहीं किसी साजिश के शिकार तो नहीं हो गए?
मैं उठ गया फिर,
"क्या हुआ?" उसने पूछा,
"बेटे, लगता है तबीयत खराब है इनकी, मैं एक काम करता हूँ, मैं ले कर आता हूँ किसी डॉक्टर को, ठीक?" बोला मैं,
"जल्दी आओगे न?" पूछा उसने,
"हाँ बेटे!" कहा मैंने,
"ठीक!" सर, हाँ में, हिलाते हुए बोली वो,
"हाँ बेटा, आऊंगा! ज़रूर आऊंगा!" कहा मैंने,
और लगाया उसके सर को हाथ, जैसे ही हाथ लगाया, मेरे हाथ से स्पर्श हुआ, खून का, अब ध्यान से देखा, देखा तो बच्ची का आधा सर फटा था, पीछे वाला हिस्सा, मतलब की, खोपड़ी का पीछे वाला आधा हिस्सा, पहले वाले हिस्से पर चढ़ गया था, उसकी तो, क्षण भर में ही मौत हो गयी होगी.......अब गौर से देखा, तो उसका एक कान, नीचे की तरफ, लटक रहा था, उसके घने बालों के कारण, कुछ भी नहीं दीख रहा था पहले, मैं तो अंदर तक काँप गया था ये देख कर..........
"आता हूँ बेटे! यहीं रहना, कहीं नहीं जाना!" कहा मैंने,
"मैं यहीं हूँ, आप जल्दी आना?" बोली वो,
"हाँ, जल्दी आऊंगा!" कहा मैंने,
और मैं लौट पड़ा, तभी के तभी,
शर्मा जी मिले, अब उन्हें सब बताया मैंने, वे भी हैरान रह गए वो सब जानकर, मैं और भी पूछताछ कर सकता था, लेकिन नहीं की, बच्ची का विश्वास जीतना था, नहीं तो, नज़र ही नहीं आते वे मुझे, तब और मुसीबत हो जाती!
"नाम बताया?" पूछा शर्मा जी ने,
"हाँ, डिंपल!" कहा मैंने,
"ओह....और मम्मी-पापा का?" पूछा उन्होंने,
"मैं नहीं पूछ पाया!" कहा मैंने,
"अच्छा!" बोले वो,
"कौन हैं?" पूछा उन्होंने,
अब बताया उन्हें कि कौन है, कहाँ से आये थे और कहाँ जाना था उन्हें!
"नहीं पहुंच सके बेचारे!" बोले वो,
"हाँ, यहीं अंत हुआ उनका!" कहा मैंने,
हम गाड़ी तक आये, अंदर बैठे,
मैंने हाथ धोये, खून से सने हाथ, पोंछ लिए,
और तब, सब बता दिया उन दोनों को, रजत साहब तो संजीदा हो गए, आंसू निकलने लगे उनके, दीप साहब का भी यही हाल था,
"अब उनकी जगह कोई भी हो सकता है, कोई भगवान का बेटा थोड़े ही है? मैं भी हो सकता था?" बोले रजत साहब!
"हाँ, कोई भी!" कहा मैंने,
"अब?" बोले दीप साहब,
"कल फिर आना होगा!" कहा मैंने,
"अच्छा!" बोले वो,
तब, गाड़ी स्टार्ट की, और हम बढ़ चले आगे!
"बड़े दुःख की बात है" बोले दीप साहब,
"हाँ!" कहा मैंने,
"कोई जानकारी मिल सकती है?" पूछा शर्मा जी ने,
"कैसी?" पुछा रजत जी ने,
"कोई अखबार?" कहा मैंने,
"कोशिश की जा सकती है!" बोले रजत जी,
"कीजिये!" कहा मैंने,
हम शहर में घुसे, एक जगह पहुंचे, यहां चाय मिल सकती थी, चाय ली, और कार में आ बैठे हम फिर,
"चंडीगढ़?" बोले दीप साहब,
"हाँ!" बोला मैं,
"अच्छा, तो रात को चले होंगे ये वहाँ से?'' बोले वो,
"हाँ!" बोले रजत जी,
"अच्छा" बोले दीप साहब,
"मैं करता हूँ कल पता!" बोले रजत जी,
''हाँ, कुछ पता तो चले?" बोला मैं,
"अगर है कहीं, तो मिल जायेगा!" बोले दीप साहब,
"अच्छा!" कहा मैंने,
चाय पी ली थी, और हम चल पड़े वापिस फिर!
जा पहुंचे दीप साहब के आवास पर, लेकिन मन उदास था अभी बहुत!
हम लौट तो आये, लेकिन मन नहीं माना मेरा तो, लगा, हम यहां, कंबल में लेटे हैं आराम से, और वो बच्ची, बेचारी, अकेली, भीगी सी कोहरे में, उस जंगल में, सड़क किनारे, इंतज़ार कर रही होगी, कि हम, डॉक्टर को लाएंगे, डॉक्टर आएगा, दवा देगा, और उसके मम्मी-पापा, उसका छोटा भाई नवु, खड़े हो जायेंगे तभी! फिर वो, पापा के साथ, चले जाएंगे आगे! कई कई बार तो, मेरी आँखें ही डबरा जातीं, बड़ी मुश्किल से मैं, अपने आप से ही झूठ बोलता! सुबह होने में बस कुछ ही समय बचा था, नींद नहीं लग पायी थी, बार बार, उसी बच्ची का ख़याल आ जाता था मन में! खैर, फिर भी आँखें बंद की, कंबल में घुसा और दिमाग़ को ज़रा हटाया वहां से, तो जाकर कहीं नींद आई!
मेरी नींद खुली करीब दस बजे! पूरी कसर निबटा ली थी मैंने! शर्मा जी, बाहर बैठे थे, लॉन में, दीप साहब के साथ, मैं उठा, फारिग हुआ, नहा-धो लिया, और उसके बाद, चला बाहर, वहां बैठा, चाय भी आ गयी, चाय पी फिर, साथ में, गोभी के परांठे! मजा आ गया, सुबह सुबह, मेरी सुबह, ही, बढ़िया सा नाश्ता कर लिया था!
"रजत साहब नहीं आये?" पूछा मैंने,
"वो गए हैं जी कहीं!" बोले वो,
"कहीं बाहर क्या?" पूछा मैंने,
"नहीं जी, कचहरी तक!" बोले वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
बातें करते रहे हम, दोपहर में, फिर से आराम किया, भोजन किया और मैं, फिर से सो गया, शर्मा जी और दीप साहब, ज़रा बाहर चले गए थे, शायद कुछ खरीदारी करने के लिए!
वे लोग आये चार बजे, साथ में रजत साहब भी आये थे! नमस्कार हुई उनसे, और वे बैठ गए फिर, दीप साहब ने, चाय के लिए कह दिया था, अब चाय ही पियो, बाकी शाम को देखा जाता!
"वो मैं कागज़ ले आया हूँ!" बोले रजत जी!
"कौन से कागज़?" पूछा मैंने,
"उस दुर्घटना के!" बोले वो,
"अच्छा!" मैं तो ये कहते ही उछल पड़ा!
उन्होंने कुछ कागज़ निकाले एक बैग से, बड़ा मोटा सा बंडल ले आये थे वे तो! मैं तो चौंक ही पड़ा था, इतने सारे कागज़?
"उस साल, यानि, दो हज़ार तीन में, वहां, कुल पांच दुर्घटनाएं हुई थीं, ये उन्हीं के कागज़ हैं, लेकिन, हैरत की बात है कि उनमे से, तीन लोग मरे हों, एक बालक के साथ, ऐसा नहीं है कोई भी कागज़?" बोले वो,
"क्या?" पूछा मैंने,
"हाँ, एक में तीन मरे थे, लेकिन वे तीनों ही मर्द थे, औरत कोई नहीं थी!" बोले वो,
"ऐसा कैसे हो सकता है?" पूछा मैंने,
"कागज़ तो, यही कहते हैं!" बोले वो,
"एक मिनट!" बोले शर्मा जी,
मैंने देखा शर्मा जी को,
"कहीं आगे पीछे भी हो सकता है?" बोले वो,
"आपका मतलब दो हज़ार दो या चार!" बोले रजत जी,
"हाँ?" बोले वो,
"वो भी लाया हूँ! नहीं हैं इसमें! ऐसी कोई मौतें नहीं!" बोले वो,
"क्या?" मैंने फिर से, हैरत से पूछा,
"हाँ, कोई ज़िक्र नहीं है कहीं!" बोले वो,
अब मामला हुआ पेचीदा!
अगर, दुर्घटना हुई थी, तो यहीं हुई होगी, और अगर यहां नहीं हुई, तो उनकी लाशें, यहीं मिली होंगी, क्योंकि, आज मैंने वो जगह देखी थी, खुद, अगर यहीं मिली होंगीं, तो मामला यहीं दर्ज़ हुआ होगा, लेकिन रजत साहब के मुताबिक़, ऐसा कहीं कोई ज़िक्र नहीं? इसका मतलब क्या हुआ फिर?
"इसका क्या मतलब हुआ?" पूछा मैंने,
"शायद कोई कागज़ कम है!" बोले शर्मा जी,
"नहीं साहब!" बोले रजत जी,
"फिर?" पूछा मैंने,
"कागज़ सभी पूरे हैं!" बोले वो,
"तो लाशों का कोई ज़िक्र क्यों नहीं है?" पूछा मैंने,
"ये नहीं पता!" बोले वो,
"तो कोई कागज़ कम है?" कहा मैंने,
"हाँ, और क्या?" पूछा शर्मा जी ने,
"क्या ऐसा नहीं हो सकता?" बोले दीप साहब,
"कैसा?" बोले शर्मा जी,
"कि उनकी लाशों को यहां फेंक दिया गया हो?" बोले वो,
"मैं भी तो यही कह रहा हूँ?" कहा मैंने,
"नहीं नहीं!" बोले वो,
"तो फिर?" पूछा मैंने,
"फेंक दिया गया हो मतलब, यहीं कहीं गाड़ दिया गया हो, जो कभी मिल ही न सकी हों?'' बोले वो,
मेरे तो कान लाल हो गए!
शर्मा जी का मुंह खुला रह गया!
रजत जी को, अपना चश्मा साफ़ करना पड़ गया!
"हो सकता है या नहीं?" बोले दीप साहब!
"बिलकुल हो सकता है!" कहा मैंने,
"अब समझे आप!" बोले वो,
"हाँ, ये सम्भव है!" बोले रजत जी,
"शायद, यही हुआ होगा!" बोले वो,
"क्या कभी उनका कोई कंकाल आदि भी नहीं मिला होगा?" पूछा मैंने,
अब, मेरी बात में भी वजन था!
"हाँ! हो सकता है!" बोले वो,
"तो क्यों न, ये जांचा जाए?" बोले शर्मा जी,
"हाँ, ठीक, मैं देखता हूँ, क्या कभी कोई कंकाल मिले थे यहां?" बोले रजत जी,
"अब समझ में आने लगा है!" कहा मैंने,
"क्या?" बोले दीप साहब,
"अगर उनकी मौत, सड़क दुर्घटना में हुई थी, जैसा कि हुआ भी होगा, लगता तो यही है, उनकी लाशों को, ठिकाने लगा दिया गया होगा!" बोला मैं,
"कैसे जाना जाए?" बोले शर्मा जी,
"आप तो जानते हैं, प्रेत हमेशा अपनी मौत के स्थान के आसपास ही भटकते रहते हैं!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
"तो वो, जंगल से आते हैं, सड़क पार करते हैं!" कहा मैंने,
"लेकिन सड़क क्यों पार करते हैं?" पूछा रजत जी ने,
"और जंगल से क्यों आते हैं?" कहा मैंने,
"हाँ?" बोले रजत जी!
"इसका मतलब, उनके लाशों को, आसपास ही दबाया गया होगा!" कहा मैंने,
"अच्छा!" कहा रजत जी ने,
"अब जानवर भी खा सकते हैं लाशें!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"ठिकाने तो लग ही गए होंगे!" बोले वो,
"एक मिनट!" बोले शर्मा जी,
"क्या?" पूछा मैंने,
"सोचिये, अगर बारिश का समय होगा तो, लाशों को, बहाया भी जा सकता है?" बोले वो,
"संभावना है!" कहा मैंने,
"यहीं है ये पेंच!" बोले दीप साहब!
"रजत जी?" कहा मैंने,
"जी!" बोले वो,
"कल मालूम कजिये आप! क्या कहीं कंकाल मिले थे आसपास? तीनों सालों को जाँचिए!" कहा मैंने,
"जी, कल ही करता हूँ!" बोले वो,
रजत साहब, करीब एक घंटा और रुके, उन्होंने काफी सूझ-बूझ से बातें कीं, दरअसल उनके रिश्तेदार कचहरी में थे, एक अधिवक्ता हैं वो, तो वही ये काम कर रहे थे, अधिवक्ता जी मार्गदर्शन करते और रजत जी, फिर कागज़ जुटाने के लिए, कागज़ों का पेट भरते! वो शाम हमने वहीँ रह कर बिता दी, और उस रात, हम न गए उधर, वहां जाने के लिए, कोई ठोस जानकारी मिल जाती, तो जाना बेहतर होता!
उसी रात, करीब तीन बजे करीब से, बारिश शुरू हुई! मौसम ने अचानक ही करवट बदली! सर्दी बढ़ गयी अचानक से ही! पहाड़ों पर ऐसा ही होता है, कब बारिश हो जाए, कब मौसम के मिजाज़ बदल जाएँ, कुछ नहीं कहा जा सकता! हाँ, बारिश से कोहरा तो नहीं था, लेकिन दिन में मौसम कैसा रहेगा, इसका अनुमान सटीक तो लगाया ही जा सकता था!
वो दोपहर का समय था, बारिश तो बंद थी, लेकिन कभी-कभार आकाश में बादल आ कर, घुड़कियाँ देने लगते थे! जैसे पानी इकट्ठा करने जा रहे हों या ला रहे हों! शहर पर एक नज़र भरते, ठहरते, लोगों को डराते और फिर चले जाते! अब पता नहीं रात को क्या आलम होता, बारिश होती या नहीं! उम्मीद लगाये बैठे थे हम कि बारिश न ही पड़े तो बेहतर!
करीब चार बजे, उस समय बारिश होने लगी थी, हल्की -हल्की, रिमझिम सी, रजत जी आये थे, साथ कुछ कागज़ भी ले आये थे, ये कागज़ उन्होंने जुटा ही लिए थे, कैसे भी करके! दीप साहब भी, अपने दफ्तर से लौट कर आ चुके थे, मौसम बढ़िया था तो आज महफ़िल सजने वाली थी हमारी, रसोई में तैयारी होने लगी थी, रजत साहब, बढ़िया मदिरा ले आये थे, मदिरा रखी उन्होंने, और बैठ गए संग हमारे!
"ऐसा ही, कुछ कागज़ टटोले मैंने, और ये दो मिले, ये दो हज़ार दो से लेकर सात तक के हैं, इनमे से, दो केस ऐसे हैं, जिसमे ऐसा हुआ था!" बोले वो,
"कंकाल मिले थे?" मैंने सीधा सवाल किया,
"हाँ जी, एक में!" बोले वो,
"अच्छा, क्या मिला था?" पूछा मैंने,
"ये देखिये, इसमें लिखा है कि मानव-कंकाल मिले, लेकिन इसमें अनुमान ही लगाया गया है, कुल दो रहे होंगे, वो कंकाल!" बोले वो,
"बस दो?" पूछा मैंने,
"हाँ जी!" बोले वो,
"ये नहीं है फिर वो!" कहा मैंने,
"मुझे भी यही लगा था!" बोले वो,
"और दूसरे केस में?" पूछा मैंने,
"उसमे सिर्फ एक!" बोले वो,
"नहीं! ये भी नहीं है!" कहा मैंने,
अब गुत्थी उलझ गयी थी! डोर में गुंझल पड़ गए थे, ओर-छोर कहाँ था, अब कुछ पता नहीं था! अब बस जैसे धूल में लाठी भांजने वाली ही बात थी! इबु भी जाता तो भी उनके अस्थि-कंकाल के बारे में नहीं बताता! न सुजान ही!
"अब कैसे बनेगी बात?" बोले दीप साहब,
"बात तो बनेगी!" कहा मैंने,
"कैसे?" बोले रजत जी,
"पहले, सबसे पहले, ये पता करना होगा, कि उनके साथ हुआ क्या था!" कहा मैंने,
"अब मुझे कुछ बू आने लगी है!" बोले दीप साहब,
"सम्भव है!" कहा मैंने,
"लेकिन एक बात?" बोले शर्मा जी,
"वो क्या?" पूछा मैंने,
"वो थे किस पर?" बोले वो,
"मतलब?" पूछा दीप साहब ने,
"किस वाहन पर थे वे?'' बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"जैसे आपने बताया, उनके साथ दुर्घटना हुई, लेकिन वो किस वाहन में थे? उनका वाहन कहाँ है? क्या हुआ उसका?" पूछा उन्होंने,
"अरे हाँ!" बोले रजत जी!
"अगर सरकारी वाहन में होते, तो ऐसा मसभव नहीं, तब तो पूरी तहक़ीक़ात का ब्यौरा मिल ही जाता!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"और अगर अपना वाहन था, तो वाहन कहाँ है वो?'' बोले वो,
"कोई रिश्तेदार ले गया हो?" बोले रजत जी,
"या फिर इन्शुरन्स कंपनी?" बोले दीप साहब!
"मान लिया, लेकिन उसका ज़िक्र? कहीं तो होता?" बोले वो,
"यहां इंसानों का ज़िक्र भी यही शर्मा जी!" कहा मैंने,
"हाँ, इसका मतलब, ये कहानी वैसी नहीं है जैसी लग रही है!" बोले वो,
"मतलब?" पूछा मैंने,
"इसमें चाल-घाल है, कहीं न कहीं!" बोले वो,
"वो कैसे?" पूछा रजत जी ने,
"सोचो?" बोले वो,
"क्या?" कहा मैंने,
"सोचो कि उन्हें वहीँ फेंक दिया हो?" बोले वो,
"सम्भव है!" कहा मैंने,
"सोचो, दुर्घटना कही और हुई हो?'' बोले वो,
"मतलब, पीछे?" पूछा मैंने,
"हाँ?" बोले वो,
"यहीं तो कहा मैंने?" बोले दीप साहब!
"अरे नहीं यार!" बोले वो,
"फिर?" पूछा दीप साहब ने!
"हो न हो!" बोले वो, खड़े होते हुए,
"क्या?" पूछा मैंने,
"ये ज़रूर ही, है तो दुर्घटना, लेकिन इसे छिपा कर रखा गया है!" बोले वो,
"मान लिया!" कहा मैंने,
"उनके अवशेष भी न मिले!" बोले वो,
"हाँ?" कहा मैंने,
"कहाँ गए?" बोले वो,
"पता नहीं!" बोले दीप साहब,
"या तो अभी भी दफन हैं!" बोले वो,
"या?" कहा मैंने,
"या फिर, बहा दिए गए हैं!" बोले वो,
"तो यही तो कह रहा हूँ!" बोले दीप साहब,
"आप आधी बात कर रहे हो!" बोले शर्मा जी,
"वो कैसे?'' बोले दीप साहब,
"ये अभागे, अब गुमनाम हैं!" बोले वो,
"तो?" बोले वो,
"उनके रिश्तेदारों को भी खबर कैसे मिलती?" बोले शर्मा जी,
अब चुप हम सब!
"कोई रिकॉर्ड नहीं!" कहा उन्होंने,
"कोई निशानदेही नहीं!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"कोई कंकाल नहीं!" कहा उन्होंने,
"हाँ!" कहा मैंने,
"जैसे कभी थे ही नहीं!" कहा उन्होंने,
"हाँ!" बोला मैं!
"हाँ, समझा जा सकता है, कुछ न कुछ तो गड़बड़ है ही!" कहा मैंने,
"गड़बड़ ही नहीं, कोई साजिश सी लगती है!" बोले दीप साहब,
"हाँ, इंकार नहीं किया जा सकता!" बोले रजत साहब,
"अब एक ही काम हो सकता है!" कहा मैंने,
"और, वो क्या?'' बोले रजत जी,
"यही कि अब उस आदमी से बात की जाए, सीधे सीधे!" कहा मैंने,
"सम्भव है क्या?" बोले दीप साहब,
"हाँ, दो तरीके हैं!" कहा मैंने,
"भला वो क्या क्या?'' बोले रजत जी,
"एक तो, उनसे सीधे सीधे सवाल पूछे जाएँ, कौन हैं, कहाँ से आये हैं, कहाँ जा रहे हैं, उनकी यात्रा अभी खत्म नहीं हुई, स्मरण रहे!" कहा मैंने,
"हाँ, वे रुक गए हैं किसी कारण से!" बोले रजत साहब!
"बिलकुल ठीक!" कहा मैंने,
"उनको भी जल्दी होगी, कोई उनकी मदद करेगा, तो उन्हें भी तैयार होना ही चाहिए!" कहा मैंने, अब खड़े होते हुए!
"हाँ, लाजमी है!" बोले दीप साहब!
"तो आज करते हैं कोशिश!" कहा मैंने,
शर्मा जी ने बाहर झाँका, बारिश सब सुन रही थी, कान लगाये हुए थे उसने दीवारों से अपने!
"लेकिन ये बारिश?'' बोले वो,
"उम्मीद करो, बंद हो जाए तब तक!" कहा मैंने,
"हो जाए तो बात बने!" बोले रजत साहब!
"हाँ!" कहा मैंने,
फिर एक दो फ़ोन आये, बातचीत हुई, बैठे रहे हम, थोड़ा यहां की, थोड़ा वहां की, थोड़ी राजनीति की आदि आदि की बातें होने लगीं!
और हुई फिर शाम!
अब हुई शाम तो लगी हुड़क!
मौसम बे-ईमान, तो साहब! हो गयी शुरू महफ़िल! बारिश पड़ ही रही थी, उसके टप-टप में, हम भी शामिल हो गए! साथ में बढ़िया मसालेदार सामान था, अब ऐसे मौसम में मदिरा का हुस्न, ज़रा कुछ अलग से ही निखर कर सामने आता है! भर भर लूट, जाए न कुछ भी छूट! बस! आराम आराम से मजा लेते रहे!
करीब दस बजे तक, हम निबट गए थे, बारिश हल्की-हल्की पड़ रही थी, तो हम सभी ने अपना बिस्तर संभाला, और जा घुसे! अब नींद खुलनी थी, करीब हमारी, डेढ़ बजे, तभी जा पाते हम वहां!
तो आराम से, सो गए हम!
करीब डेढ़ बजे, शर्मा जी ने जगाया मुझे! अलसायेपन से मैं उठा, घड़ी देखी, तो डेढ़ का समय था! बाहर से कोई आवाज़ नहीं आ रही थी!
"बारिश है क्या?" पूछा मैंने,
"देखता हूँ!" बोले वो, बीड़ी सुलगाते हुए,
चले वो बाहर, और आये कुछ ही देर में अंदर!
"हाँ?" कहा मैंने,
"हाँ, पड़ तो रही है, लेकिन धीरे धीरे!" बोले वो,
"जाया जा सकता है?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
"तो चलो फिर!" कहा मैंने,
मैं उठा बिस्तर से, पहने चप्पल, चला गुसलखाने, फारिग हुआ, हाथ-मुंह धोये, पानी ऐसा ठंडा जैसे किसी बर्फ के पानी में मुंह डाल दिया हो! आया बाहर!
"मफलर लेना पड़ेगा!" कहा मैंने,
"हाँ, ठंड है बाहर!" बोले वो,
तभी दरवाज़े पर दस्तक हुई, दरवाज़ा शर्मा जी ने खोला, रजत साहब थे, तैयार सामने!
"आ जाओ, चाय तैयार है!" बोले वो,
"आते हैं!" कहा मैंने,
पहन जूते-जुराब, चल पड़े नीचे!
बैठे, चाय पी, और फिर चल पड़े, एक पचास हो चुके थे तब तक! आज छतरियाँ ले ली थीं हमने! काम पड़ सकता था उनका, कहीं रुकने-रुकने के लिए!
अब हम रास्ते पर थे, पानी भरा तो नहीं था, लेकिन कीचड़ ज़रूर हो गयी थी! बारिश भी हल्की-फुलकी पड़ ही रही थी!
"कहीं आएं ही न!" बोला मैं,
"वो क्यों?" बोले दीप साहब,
"बारिश में नहीं आते!" कहा मैंने,
"अच्छा जी?" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"देखते हैं!" बोले शर्मा जी,
"हाँ!" बोला मैं,
गाड़ी, आहिस्ता आहिस्ता से चला रहे थे रजत जी, रास्ते में भारी वाहन मिल रहे थे, कहीं कहीं तो काफिला सा लग गया था!
करीब आधे घंटे में, हम वहां आ पहुंचे थे!
अब गाड़ी लगा दी एक तरफ! बायीं तरफ,
"देखना ज़रा!" कहा मैंने,
"हाँ जी!" बोले रजत जी,
बत्ती थी नहीं, आज हमने ही बत्ती जलायी थी! रौशनी, वहां तक पड़ने लगी थी! सामने से, डिपर मरते हुए वाहन, सरपट भागे जा रहे थे!
तीन बज गए, कोई नहीं आया!
बहुत इंतज़ार किया हमने, लेकिन कोई नहीं आया, वजह, वही बारिश!
"आज की मेहनत बेकार!" बोले दीप साहब,
"हाँ जी!" बोले रजत जी,
तभी गाड़ी पर पीछे से दो बार जैसे किसी ने थाप दी हो, ऐसी आवाज़ हुई! हमने चौंकते हुए पीछे देखा! पीछे तो कोई नहीं था!
"आना?" कहा मैंने शर्मा जी से,
ली छतरी, खोली, और खड़ा हो गया वहीं!
"कहाँ?" बोले शर्मा जी,
"आओ!" कहा मैंने,
"चलो!" बोले वो,
हमने तभी सड़क पार कर ली, लैंप-पोस्ट तक आ गए, बारिश की पट-पट छतरी से टकराये जा रही थी! जो बूँदें हम पर गिरतीं, वो तो ओले से कम ठंडी नहीं लगती थीं!
"यहां तो कोई नहीं?" बोले शर्मा जी,
"रुको ज़रा!" कहा मैंने,
"अच्छा!" बोले वो,
"इधर खड़े हो जाओ!" कहा मैंने,
"अच्छा!" बोले वो,
"रुको! बस!" कहा मैंने,
मैंने उनका मुंह, जंगल की ओर कर दिया था, और पीठ बाहर सड़क की ओर!
"रुको, ऐसे ही खड़े रहो!" बोला मैं,
"खड़ा हूँ!" बोले वो,
मैंने एक मंत्र पढ़ा, नेहुच-मंत्र! इसे, सालिब-पेश कहा जाता है! इसमें, ऐसी किसी का सहारा लेना पड़ता है, जिसके दिल में पाप न हो, कोई बालक या बालिका, या कोई सीधा-सादा, सच बोलने वाला इंसान! कम आयु ही अधिक चला करती है! या फिर, साठ से अधिक उम्र वाला पुरुष!
मैंने उनके माथे पर कुछ लिखा!
"कुछ दिखा सामने?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोले वो,
अब गर्दन पर लिखा,
"कुछ दिखा?'' पूछा मैंने,
"नहीं!" बोले वो,
फिर छाती पर लिखा!
"कुछ दिखा?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोले वो,
"मुझे देखो!" कहा मैंने,
उन्होंने मुझे देखा तब!
"अब देखो पीछे! दिखा?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोले वो,
"तब कोई नहीं है यहां!" कहा मैंने!
"दिखेगा! अभी दिखेगा!" कहा मैंने,
तब, फिर एक और क्रिया की, मंत्र पढ़ा, और उनके दोनों कंधे, छाती, कमर और घुटने, पोषित कर दिए, फिर नेत्र बंद करवा कर, फूंक मार कर, वे भी पोषित कर दिए!
"आँखें खोलिए?" कहा मैंने,
अब उन्होंने खोली आँखें!
और जैसे ही खोलीं, उन्होंने, अपना सर, और नज़रें, सामने से लाते हुए, पीछे तक ले गए, ज़मीन से पाँव हटा लिया था उन्होंने! माँ समझ गया था, कुछ तो देखा है इन्होने अब!
"क्या दिख रहा है?'' पूछा मैंने,
"खून!" बोले वो,
"खून?'' पूछा मैंने, हैरत से! ऐसे कैसे देख लिया खून उन्होंने? और अगर देखा भी था, तो वो किसका था?
"कहाँ है खून?" पूछा मैंने,
"ये यहां से आ रहा है, आओ!" बोले वो,
"चलो!" कहा मैंने,
वो पीछे गए तब, और उस रास्ते के बाएं चलने लगे, धीरे धीरे!
"यहाँ भी है!" बोले वो,
"और?" पूछा मैंने,
"आगे तक है, आओ!" बोले वो,
"चलो! जहाँ से आ रहा है, वहाँ तक चलो!" कहा मैंने,
हम आगे चल पड़े, मुझे रोक लेते थे बार बार! और फिर, एक जगह रुक गए! देखा गौर से, वो एक सड़क का हिस्सा था! वहां एक पैच बना था सड़क पर, शायद मरम्मत हुई थी!
"यहाँ से आ रहा है!" बोले वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
शायद, यही वो जगह थी, जहां उनके साथ वो दुर्घटना पेश हुई थी! जहाँ वो सड़क पर पैच बना था, शायद ठीक वहीँ! अब इसका क्या मतलब? मतलब ये, कि, उनके शरीर उस दुर्घटना में, बुरी तरह से क्षत-विक्षत हुए होंगे, उनके शरीरों को, यहां से उठाया गया होगा, और ठीक वहां, जहां वो जंगल में नज़र आते थे, वहीँ उन्हें फेंक दिया गया होगा, या दफना दिया होगा! लेकिन हम जब अंदर तक गए थे वहां, तो हमें कुछ चट्टानें ही देखी थीं, अगर वहां उनको ठिकाने लगाया गया होता, तो मृत-शरीर से उठती वो सड़ांध नहीं छिप सकती थी, अगर, किसी जानवर ने भी खाया हो, तब भी उनके कुछ हिस्से, बचे रह जाते, उनसे ही सड़ांध आना तो तय ही था! और फिर इंसान की लाश से तो ऐसी भयानक सड़ांध उठती है, कि चक्कर ही आ जाएँ किसी भी इंसान को! ऐसी भयानक सड़ांध होती है वो!
अब एक और जिज्ञासा, जो आप जानना चाहते होंगे, वो ये, कि शर्मा जी को वो खून कैसे दिखा? जो क्रिया उन पर की थी मैंने, वो दचक-क्रिया थी! इसमें, ये प्रेतों की राजी हो, तो इस क्रिया को साध कर, आप उस दृश्य को देख सकते हैं! ऐसा अक्सर, पुराने प्रेतों में ही होता है! इसका साफ़ साफ़ मतलब था, कि वे प्रेत, अभी ही, निरंतर ये बताने को प्रयासरत थे कि उनके साथ जो हुआ, उसको जाना जाए! इसी कारण से ये क्रिया सफल हुई थी! कह सकते हैं, कि उन प्रेतों ने, कुछ निशान छोड़े थे, जो अब हमारे हाथ लग चुके थे!
"एक काम करते हैं, दोपहर बाद आते हैं!" कहा मैंने,
"ठीक!" बोले वो,
और तब मैंने उस क्रिया को वापिस कर लिया! अब नेत्र खोले, तो सब सामान्य ही था! मैं दचक क्रिया नहीं कर सकता था, फिर मैं प्रश्नों के उत्तर नहीं प्राप्त कर सकता था, मात्र देख ही सकता था!
हम वापिस आ गए, गाड़ी में बैठे, दोनों ने उत्सुकता से सवाल पूछे, और शर्मा जी ने सब बता दिया! उन दोनों के होश ही उड़ गए वो सब सुनकर! ऐसा भी होता है? ऐसा कैसे सम्भव है? घर पहुँचने तक, इसी में उलझे रहे!
दोपहर बाद,
भोजन कर लिया था, अब तो जैसे, उत्सुकता अपने शिखर पर जा पहुंची थी! क्या हुआ, कैसे हुआ, किसने किया आदि आदि सवाल! गाड़ी भी तेज भागी इस बार हमारी! और हम पहुँच गए उस स्थान पर! आज बारिश नहीं थी, हाँ, सूरज नहीं निकला था उस दिन! बादल बने हुए थे, छितरे छितरे!
"आप साथ चलोगे या यहीं रहोगे?" पूछा मैंने,
"साथ चलें?" बोले रजत साहब,
"आपकी मर्जी?" कहा मैंने,
"चलते हैं फिर!" बोले दीप साहब!
"आओ, चलो फिर!" कहा मैंने,
और तब हम, वहीँ आ गए! अब फिर से दचक-क्रिया आरम्भ की, और जब नेत्र खोले शर्मा जी ने, तो फिर से वही खून दिखने लगा उन्हें!
"यहां!" बोले वो,
"आप आगे आगे चलो!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
हम चलते रहे, आगे, एक जगह, चट्टान पार कर, आये उधर, यहां से, एक ढलान उतरती थी नीचे, भुरभुरी मिट्टी थी, बारिश से और हाल खराब था उसका! और कोई रास्ता था नहीं! तब मैंने एक टहनी तोड़ी, आगे जाकर, उस भुरभुरी मिट्टी में गाड़ी कम से कम एक फुट मिट्टी धसक गयी! इसका मतलब, खतरा था नीचे जाने में वहाँ से!
"यहां से नहीं!" कहा मैंने,
"फिर?" बोले रजत साहब!
"कोई और जगह देखते हैं!" कहा मैंने,
"अच्छा!" बोले दीप साहब,
हम आसपास देखने लगे! एक जगह, जगह सही सी मिली, मिट्टी नहीं थी और पेड़ लगे थे, उन्हें पकड़ कर, नीचे उतरा जा सकता था!
"ये ठीक है!" कहा मैंने,
"आओ!" बोले शर्मा जी,
"चलो!" कहा मैंने,
और हम उतरने लगे नीचे!
मैं शर्मा जी के पीछे था, कि अचानक से वो रुके! हम भी रुक गए!
"आवाज़!" बोले वो,
"हाँ! पानी की आवाज़!" कहा मैंने,
"कोई नदी-नाला तो नहीं?" बोले रजत जी,
"हाँ, लगता तो है!" बोले वो,
"आओ, देखते हैं!" कहा मैंने,
आहिस्ता और आराम से, हम नीचे उतरने लगे!
"वो देखो!" बोले शर्मा जी,
"हाँ, नाला ही है!" कहा मैंने,
"काफी बड़ा है!" बोले शर्मा जी!
"हाँ! अब निशान?" पूछा मैंने,
"यहां तो नहीं हैं!" बोले वो,
"वापिस चलो!" कहा मैंने,
और तब कुछ आने लगा समझ में मेरे!
"जानते हो?" पूछा मैंने, शर्मा जी से,
"क्या?" बोले वो,
"लाशें क्यों नहीं मिलीं?" पूछा मैंने,
"क्यों?" बोले रजत साहब!
"क्योंकि, वो बह गयी होंगी!" कहा मैंने,
"हाँ, ये वजह हो सकती है!" बोले दीप साहब!
"हो नहीं सकती, यही है!" कहा मैंने,
और तब, मैंने शर्मा जी से वो दचक-क्रिया वापिस ली, अब वे फिर से सामान्य हो चले थे! अब एक बार फिर से, जांच आगे बढ़ानी थी! और उसके लिए, अब सबसे ज़रूरी था, उन प्रेतों से साक्षात्कार करना! इसके लिए, मुझे उस आदमी से मिलना था, जो इस गुट का मुखिया था और जिसने ही, उन सभी को अभी तक यहीं थामा हुआ था! और इसके लिए, फिर से यहीं आना था, आज अगर बारिश न रहे, तो आज रात ये काम किया जा सकता था! उनकी क्या प्रतिक्रिया होगी, क्या करेंगे वो? क्या साथ देंगे? या भयातुर होने के कारण वे लुकाछिपी का खेल खेलने लगेंगे? प्रेतों के संग सबसे अधिक जटिल कार्य यही होता है, उनको सच्चाई से कराना! कई मान जाते हैं और कई, अपनी ज़िद पर ही अड़े रहते हैं! चाहे लाख समझा लीजिये! तब, इबु का भय ही उन्हें सही ठिकाने पर लाया करता है! उस समय, तातार नहीं था मेरे पास, उसको वर्ष में तीन बार छोड़ा जाता है, इक्कीस-इक्कीस दिनों के लिए, इबु को दो बार, नौ-नौ दिन के लिए! तो तातार नहीं था, हाँ, इबु तब ही लौटा था! उसकी ज़रूरत पेश होती, तो मैं बे-हिचक उसका इस्तेमाल करता!
"आओ!" कहा मैंने,
"चलिए!" बोले दीप साहब!
और तब हम, वापिस हुए, आये गाड़ी तक, बैठे, गाड़ी मोड़ी और तब वापिस चले! आज अपने यहां ले जाने वाले थे रजत साहब, उनका आवास, दीप साहब के आवास से, थोड़ा ही दूर था बस, यहीं आज महफ़िल सजने का कार्यक्रम था! उनक दफ्तर थी वो जगह! यहीं इंतज़ाम किया गया था महफ़िल का!
रजत साहब का दफ्तर, दूसरी मंजिल पर था, पहली मंजिल पर, एक ट्रेवलिंग-एजेंसी का दफ्तर था, यहां से वाहन मिला करते थे, आगे जाने के लिए या शिमला के आसपास घूमा-घूमी के लिए! रजत साहब ने गाड़ी लगाई एक जगह, और हम सभी उतरे, रजत साहब के जानकार मिलने लगे, सभी नमस्कार करते हमें भी, हम भी नमस्कार का जवाब दिया करते!
"आइये, यहाँ से!" बोले रजत साहब,
एक गैलरी थी, उसके अंदर से सीढ़ियां गयी थीं ऊपर के लिए, वे चढ़े, और उनके पीछे पीछे हम भी चढ़ लिए थे! आ गए दफ्तर में उनके, वहां एक लड़का मिला, उसका नाम पीतम था, जम्मू का रहने वाला था वो लड़का, सीधा-सादा सा, उसने नमस्कार की, पानी का प्रबंध किया और तब रजत साहब ने, उसको कुछ समझाया, तभी एक और लड़का आ गया, उसका नाम विजय था, वे दोनों ही, चल पड़े थे वहां से, शायद कुछ सामान आदि लेने के लिए, नीचे से!
ये दफ्तर, रजत साहब के बड़े भाई का था, वे नहीं थे वहां, कहीं गए हुए थे शायद, और फिर दफ्तर से संबंधित जो कार्य था, वो उस समय ठंडा ही था, बारिश थी और कहें तो सीज़न भी नहीं था उसका!
"दफ्तर तो काफी बड़ा है!" कहा मैंने,
"हाँ जी!" बोले रजत साहब!
"जगह भी बढ़िया है!" कहा मैंने,
"अब शिमला भी बढ़ता जा रहा है साहब! नयी नयी बसावट बढ़े जा रही है, बस, तब ही बनवा लिया था ये दफ्तर!" बोले रजत साहब!
"बढ़िया है!" कहा मैंने,
कुछ और बातें भी होने लगीं हमारी, कुछ राजनीति की, कुछ मौसम की और कुछ बाज़ार में आई हुई मंदी की, सभी व्यवसाय उस समय जूझ रहे थे, मंदी की ममता सभी पर छायी हुई थी! कोई भी काम ऐसा नहीं बचा था, जो उस समय, मंदी के ममतामयी आँचल से दूर हो! टूरिस्ट कम आ रहे थे, आसपास का होटल व्यवसाय भी प्रभावित था, हस्तकरघा उद्योग भी लपेटे में ही था! रजत साहब के बड़े भाई साहब का काम इसी से जुड़ा था! इसी कारण से, दफ्तर खुलता तो रोज ही था लेकिन काम कभी-कभार ही आता था!
"सामान आ गया!" बोले दीप साहब!
"हाँ!" बोले रजत जी और सामान लेने चले, लिया और रख दिया मेज़ पर,
"विजय? यहीं लगा दो!" बोले दीप साहब!
सामान-सट्टा जुटाया गया और महफ़िल सजी फिर हमारी!
"गुरु जी?" बोले रजत जी,
"जी?" कहा मैंने,
"मान लो, कोई सुध न ले उन की, तो वो वहीँ भटकते रहेंगे?" पूछा रजत जी ने,
"हाँ!" कहा मैंने,
"कब तक?'' पूछा उन्होंने,
"बरसों तक, ये सिलसिला नहीं टूटेगा!" बोले शर्मा जी!
"ओह!" बोले दीप साहब!
"हाँ, वे भटकते ही रहेंगे!" कहा मैंने,
"ये तो सजा हो गयी!" बोले रजत जी!
"सजा से भी बुरी!" बोले दीप साहब!
"हाँ, सही बात है!" बोले रजत जी,
"हमारे गाँव के बाहर, एक पुराना सा मंदिर है, कहते हैं वहां आज भी प्रेत वास करते हैं, पता नहीं कब से हैं, मैंने तो नहीं देखे, न आभास ही हुआ, लेकिन गाँव वालों का यक़ीन है!" बोले रजत जी,
"सम्भव है!" कहा मैंने,
"क्या क्या भरा पड़ा है इस संसार में!" बोले दीप साहब!
"ये तो एक झलक ही है!" बोले शर्मा जी,
"हाँ जी!" बोले दीप साहब!
तो जी, हम शाम तक, देर शाम तक, आनंद उठाते रहे मदिरा का, भोजन भी वहीँ कर लिया था, अच्छी बात ये, कि बारिश नहीं हुई थी!
"बस, आज न पड़े बारिश!" बोले दीप साहब!
"आसार तो नहीं हैं!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले रजत जी,
"आइये!" बोले दीप साहब!
"चलें?" पूछा मैंने,
"एक और जगह ले जा रहा हूँ आपको!" बोले रजत जी,
"कहाँ?" पूछा मैंने,
"आइये तो सही!" बोले वो,
"चलो!" कहा मैंने,
और हम, वहां से निकल पड़े, चाबी, विजय और दूसरे लड़के को दे दी थी, कुछ और भी समझा दिया था उन्हें रजत साहब ने!
"कहाँ चल रहे हैं?" पूछा मैंने,
"आएं तो सही!" बोले रजत जी,
"ठीक है!" बोले वो,
तो हम चल पड़े वहाँ के लिए! शहर पीछे छूटता जा रहा था, पता नहीं कहाँ ले जा रहे थे हमें वो! और इस तरह करीब पौने घंटे में, एक बड़े से मकान के सामने गाड़ी रोकी उन्होंने!
"आइये!" बोले वो,
"ये?" पूछा मैंने,
"आज रात यहीं गुजारिये!" बोले रजत साहब!
"अच्छा!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
"रजत साहब?" बोले शर्मा जी,
"हाँ जी?" बोले वो,
"किसका है ये?" बोले शर्मा जी,
"आपका ही है!" बोले वो,
"अच्छा जी!" कहा उन्होंने,
और हम आ गए अंदर! अभी काम ज़ारी था उसमे, सामान पड़ा था, नया मकान बनवाया जा रहा था, अब पता चलता था!
"ये भाई साहब ने लिया है!" बोले वो,
"अच्छा!" कहा मैंने, सोफे में घुसते हुए!
"हाँ, आधा तो तैयार है!" बोले वो,
"जगह तो बढ़िया है!" बोले शर्मा जी,
"जी!" बोले रजत साहब!
"रुकिए! आया मैं!" बोले रजत साहब,
और चले ज़रा आगे की तरफ!
तो थोड़ा सा और मजा उठाया हमने मदिरा का! और फिर, आराम से, लम्बी चादर तान, सो गए! अब यहां से डेढ़ बजे निकलना था, आज टोर्च के लिए ही कह दिया था मैंने, टोर्च होती पास, तो मदद मिल जाती हमें! तो हम, खर्राटे बजा कर सोये! मौसम बढ़िया था, बिस्तर, आरामदेह था और जगह, खूबसूरत थी! ऊपर से मदिरा की ख़ुमारी! नींद किसे नहीं आती फिर!
रात एक बजे, दरवाज़े पर दस्तक हुई, ये दीप साहब थे, हमें जगाने आये थे, वे जल्दी ही उठ गए थे! हम भी उठे, हाथ-मुंह धोये और फिर कपड़े पहन, चले नीचे की तरफ! नीचे पहुंचे, टोर्च मिली, बढ़िया टोर्च थी, रौशनी दूधिया थी उसकी, चमकदार! दूर तक दीखता था आराम से उसमे!
"चलें?" बोले रजत जी,
"हाँ, चलो!" कहा मैंने,
हम बाहर चले फिर, चाबी वहीँ रहने वाले एक चौकीदार को दे दी थी, अब वहां आना नहीं था, वहां से दीप साहब के पास ही जाना था, तो समझा दिया गया था चौकीदार को! गाड़ी में बैठे, मुझे तो अभी तक नींद के झटके लग रहे थे! मौसम बढ़िया था खुला हुआ, चांदनी फैली थी! बारिश थी नहीं!
"बारिश तो है नहीं!" बोले शर्मा जी,
"हाँ! अच्छा है!" कहा मैंने, उबासी आई थी बड़ी ही भयानक मुझे तो! आधे शब्द, उसी की भेंट चढ़ गए!
"कैसे?" बोले शर्मा जी,
"नींद आ रही है यार!" कहा मैंने,
"पानी पियो फिर!" बोले वो,
"लाओ यार!" कहा मैंने,
मुझे पानी दिया गया, पानी पिया मैंने फिर, पानी ठंडा था, हलक से नीचे उतरा तो कुछ कुछ पाँव सिकोड़े नींद ने!
अब हम मुख्य-मार्ग पर आ गए थे, यहां गाड़ी ने ज़रा सी रफ़्तार पकड़ी, और वहाँ मुझे नींद ने फिर से आग़ोश में ले लिया! उबासी ही उबासी!
"होश सम्भालो!" बोले शर्मा जी,
"हाँ!" कहा मैंने,
मैंने गाड़ी का शीशा खोल दिया, ठंडी हवा आई तो कुछ बात बनी! हवा ने नींद को पीछे धकेला तब! और करीब दस मिनट में, नींद हवा हो गयी!
इस तरह हम, करीब दो बजे तक, वहाँ पहुँच गए थे, आज लैंप-पोस्ट की बत्ती जल रही थी! कीट-पतंगे उसके आसपास, अपनी अपने गाँव-देहात का अता-पता दे रहे थे! घेर रखा था उसे चारों तरफ से! हम सड़क के एक तरफ जा खड़े हुए! पानी पिया मैंने, शर्मा जी ने भी, और बैठे रहे गाड़ी में ही!
दो बजकर तीस मिनट................
हमारी नज़रें सामने ही लगी थीं! गाड़िया अभी भी फुर्र से दौड़ी जा रही थीं! छोटी-बड़ी, सब! सभी जैसे जल्दी में थे! ऐसे ही, ये बेचारे, सुबह के इंतज़ार में निकले थे, इनकी सुबह, कभी न हो सकी! वे तो, इस रास्ते के बीच में ही अटक कर रह गए, आज तक अटके थे, बेचारे!
हक़ीक़त बेहद ही कड़वी हुआ करती है! कोई हक़ीक़त से रु-ब-रु होना ही नहीं चाहता! वो तो बस, अपने ही रचाये मिथ्या-जाल में, फंसा ही रहता है! लेकिन यहाँ कोई मिथ्या-जाल नहीं था, वे बस, उसी राह में अटक कर रह गए थे! और इस तरह दस सालों से, यहीं इसी जगह, फंसे थे! रोज का काम था उनका! रोज ही दर्द बर्दाश्त करना था उन्हें! रोज! बिना किसी अंत के! कितना खौफनाक होता है ये! कैसे, जानलेवा! कैसा न खत्म होने वाला जाल!
दो बज कर चालीस मिनट.....
"श्ह्ह्!" बोले शर्मा जी,
और नज़रें लगाईं सामने!
कुछ पल, बर्फ जैसे बीत गए!
"वो!" बोले फुसफुसा कर दीप साहब!
"हाँ, वही लड़की है!" कहा मैंने,
"इसके हाथों में क्या है?" पूछा रजत साहब ने,
"एक मिनट!" कहा मैंने,
गौर से देखा सामने, उस लड़की को, कुछ उठाये हुई थी अपने हाथों में!
"कोई बैग सा लगता है!" कहा मैंने,
"हाँ, वही है!" बोले शर्मा जी,
तभी वो लड़की आई सामने, सड़क को देखा, गर्दन टेढ़ी कर के!
"क्या कर रही है?" पूछा दीप साहब ने,
"शायद, देख रही है हमें!" कहा मैंने,
"अरे बाप रे!" बोले रजत जी!
"श्ह्ह्ह!" बोले शर्मा जी,
वो लड़की, सामने लैंप-पोस्ट तक आई, और हो गयी खड़ी! पीछे देखा उसने! फिर उस चबूतरे पर बैठ गयी! पाँव हिलाने लगी एक!
तभी पीछे से वही आदमी आया, उसके कंधे पर बैग लटका था! लड़की उसको देख कर, खड़ी हो गयी! उस आदमी ने, उस लड़की को चिपका लिया अपनी टांगों से, और देखने लगा पीछे! इंतज़ार कर रहा था अपनी पत्नी का!
"आओ!" कहा मैंने,
"चलो!" बोले शर्मा जी, ले ली टोर्च, जला भी ली, मारी रौशनी सामने!
और हमने झट से दरवाज़े खोले! जैसे ही दरवाज़े खुले, आवाज़ हुई हल्की सी, कि उस आदमी आर लड़की ने, हमें देखा, उस आदमी ने, एक ही झटके से, पीछे कर लिया उस लड़की को! और पीछे हटने लगा!
"भागो!" कहा मैंने,
और हम भागते हुए, सड़क पार कर गए!
आये लैंप-पोस्ट के पास! हुए खड़े उधर!
"कहाँ गए?' बोले शर्मा जी,
"यहीं हैं!" कहा मैंने,
"कहाँ?" बोले वो,
"रुको!" कहा मैंने,
आसपास देखा, कुछ आवाज़ें गूंजीं!
"डिंपल?'; बोला मैं,
कोई उत्तर नहीं आया!
"डिंपल?" मैंने फिर से आवाज़ दी!
कोई उत्तर नहीं! इस बार भी!
"आओ डिंपल? डरो नहीं?' बोला मैं,
तब, कुछ देर बाद, एक झाड़ी के पीछे से, उसका सर दिखा! वो हमें ही देख रही थी! मैं जानबूझकर, मुस्कुराया!
"आओ?" कहा मैंने,
उसने गौर से देखा हमें! एक एक करके!
"वो, उठा दो!" बोली वो,
"क्या है?" पूछा मैंने,
"वो, उठा दो!" बोली वो फिर से,
"आओ शर्मा जी!" कहा मैंने,
उनका हाथ पकड़, मैं चल पड़ा, आगे, उस झाड़ी की तरफ ही!
"कहाँ हो?" पूछा मैंने,
कोई जवाब नहीं!
"डिंपल?" बोला मैं,
"इधर?" बोली वो,
आवाज़ सामने से आई थी!
"आओ!" कहा मैंने,
"इधर!" बोली वो,
सामने, एक झाड़ी के पास, वो जैसे छिप कर खड़ी थी! हमे देखती थी बार बार, फिर पीछे देखती थी!
"आओ?" कहा मैंने,
"इधर आओ?" बोली वो,
हम चल पड़े आगे! वो और पीछे हुई!
"रुको?" कहा मैंने,
"आओ?" बोली वो,
हाथ के इशारे से!
"डिंपल? रुको?" कहा मैंने,
डिंपल को न जाने क्या हुआ था? आज तो अजीब सा ही व्यवहार था उसका, आज वो ऐसा जतला रही थी, कि जैसे वो न जानती हो हमें! ऐसा क्यों हो रहा था, मुझे पता नहीं चल सका, शायद और अवश्य ही, हाँ, अवश्य ही! कोई न कोई बात तो ज़रूर थी! या तो वो, कुछ बताना चाह रही थी हमें, या कुछ दिखाना चाह रही थी! लेकिन वो रुके, कुछ बात करे, कुछ बताये, तो हमें कुछ पता चलता! लेकिन वो तो, लुकाछिपी का सा खेल खेले जा रही थी!
"डिंपल?'' मैंने फिर से कहा,
अब वो, झाड़ी के पीछे से गायब हो गयी थी, अब नज़र ही नहीं आ रही थी! कहाँ गयी थी? हम यही ढूंढें जा रहे थे, टोर्च की रौशनी, जंगल छाने जा रही थी!
"यहां!" आई उसकी आवाज़!
आवाज़, दायीं तरफ से आयी थी, मैंने फौरन ही रौशनी उधर कर दी! वहां, एक पेड़ के सहारे, बैठी थी वो, बैठी ही थी, यही लग रहा था मुझे तो!
"वहीँ रहो, मैं आता हूँ डिंपल!" कहा मैंने,
और हम, धीरे से आगे चले, धीरे से, ताकि वो कहीं भाग न जाए, उसे जैसे मजा आ रहा था हमें छकाने में! जैसे, हम उस तक आते तो वो वहां से खिसक जाती थी! लेकिन अभी तो सामने ही थी!
"वहीँ रुकना डिंपल!" कहा मैंने,
और हम, कुछ ही देर में, वहां जा पहुंचे! वो पेड़ के संग बैठी थी, जैसे ही हम सामने गए, हमारे होश उड़ गए! ये क्या? ये क्या देख रहे थे हम? मैंने और शर्मा जी ने, एक दूसरे को विस्मय से देखा तभी के तभी!
बेचारी डिंपल के पेट से नीचे का भाग नहीं था, उसकी टांगें नहीं थीं, योनि-स्थल नहीं था, नाभि से नीचे का पूरा हिस्सा गायब था! ओह..............मन में भयंकर पीड़ा उठी, ऐसा हाल होते ही, बेचारी ने दम तोड़ दिया होगा, कितना भयानक क्षण होगा वो, पता नहीं, जाग रही थी, या सो रही थी उस वक़्त, इसीलिए वो, नीचे बैठी थी, अपने दोनों हाथों से टेक देकर, शेष शरीर को, रक्त बह रहा था, आँतों के हिस्से नीचे मिट्टी से चिपके थे, लोथड़े मांस के, बाहर लटक रहे थे, वो बेचारे, भयानक पीड़ा में थी, हे मेरे भगवान! तो बालकों को तो कम से कम, इन सबसे अछूता रखा कर! यही सब निकला मेरे मुंह से, पल में ही मैं भगवान का सबसे बड़ा विरोधी हो चला था! कैसे? कैसे भगवान ऐसा निर्दय और तमाशबीन बना रह सकता है? इतनी प्यारी, दुलारी बच्ची और उसका ये हश्र? जी खट्टा हो गया था सोच सोच कर, पता नहीं, गालियां भी दे दी हों, तो याद नहीं!
"वो, उठा दो?" बोली वो,
मैंने झट से टोर्च की उधर ही, जहाँ उसने इशारा किया था!
वहाँ, आपस में गुंथी हुई टांगें रखी थीं, एक टांग हवा में उठ गयी थी, एक पृष्ठ भाग में थी और एक मुख-भाग में, उनकी लाशों को फेंकने वालों ने शायद, इसी तरह से, इसी मुद्रा में उनको वहां फेंका होगा!
"ला दो अंकल?" बोली वो,
ओह........मेरे दिल में हज़ारों छेद हो गए उसी वक़्त, जब उसने मुझे अंकल कहा, मेरा दिल, स्पंज जैसा हो चला था, आंसूओं से भीगा हुआ, हाँ, इन आंसूओं में खून इकट्ठा था तब! सच कहता हूँ, मैं हत्या आदि में विश्वास नहीं रखता, परन्तु उस समय, उनके वो हत्यारे वहां होते, तो सच कहता हूँ, तातार के हवाले कर देता उन्हें! बोटी बोटी नोंच लेता वो उनकी! खाल को कागज़ बना देता मार मार कर उनकी! या फिर मैं, मैं ही क़त्ल कर डालता उन्हें, उसी क्षण!
"हाँ........हाँ.............बेटे!" बुझे हुए दिल से कहा मैंने,
और चल पड़ा, उन अलग हुई, हुई टांगों की ओर,
वहां तक पहुंचा, पूरी टांगें खून-आलूदा थीं, बेहद ही वीभत्स लग रही थीं! कोई और होता तो उल्टियाँ कर-कर, जान ही दे देता अपनी!
मैं बैठा, सम्मान से वो कटी हुई टांगें उठायीं, उनके लोथड़ों से, घास चिपक गयी थी, चरफ-चरफ की सी आवाज़ हो रही थी, उनमे से, जब मैं खींच रहा था उन टांगों को, उस घास से, बड़ा ही ख़ौफ़नाक सा मंजर बन पड़ा था उस वक़्त! उन टांगों में मुश्किल-बा-मुश्किल दस या बारह किलो ही वजन रहा होगा, टांगों के टखने, पतले-पतले और एड़ियां, सब अपनी जगह से खिसक गए थे, जैसे सैंकड़ों जगहों से टूट गए हों उस दुर्घटना के समय, एक ही पल में!
मैं ले आया उन्हें पकड़ कर, और रख दीं डिंपल के पास, वो बेचारी, एक एक टांग को उठाती, और जोड़ने की कोशिश करती! मासूम, लाचार! कहाँ मर जाऊं? ऐसा शर्मसार हुआ कि कोई जगह ही न मिले मरने के लिए! कहाँ डूब कर मर जाऊं? कहाँ जाकर, होंठ सील लूँ अपने, कहाँ जाकर, अपनी आँखें फोड़ लूँ? किसको बताऊँ ये दृश्य? कहाँ जाऊं? मुझे ही क्यों दिखाई दिया ये सब?
जब टांगें न जुड़ीं तो, वो अपने हाथों का सहारा लेकर, उन पर ही बैठ गए, कैसा वीभत्स सा दृश्य था! एक प्यारी सी बच्ची, जूझते हुए! अपने छोटे छोटे हाथों का सहारा लेते हुए!
"डिंपल?" कहा मैंने,
"हाँ?" बोली वो,
मुझे, देखते हुए, अपना, सर उठाते हुए!
"तुम्हारे पापा कहाँ हैं?" पूछा मैंने,
"घर में होंगे!" बोली वो,
घर? घर में होंगे? क्या? तो फिर, ये कौन है? कौन है ये आदमी इनके संग?
"तो बेटे, वो कौन हैं, जो साथ होते हैं तुम्हारे?" पूछा मैंने,
"वो, मेरे बड़े मामा, अखिलेश!" बोली वो,
ओह! दिमाग में विस्फोट की गूँज उठी! जिसे मैं, पिता समझ रहा था, दरअसल वो डिंपल के मामा जी थे, अब कहने में, और पेंच कसा! अगर, ये बड़े मामा जी हैं, तो अवश्य ही, डिंपल के पिता जी, आज भी जीवित होंगे! लेकिन सवाल ये, क्या हुआ था उस रात?
"बेटे डिंपल?" पूछा मैंने,
"हाँ?" बोली वो,
"पापा कहाँ हैं? घर में?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
"और घर कहाँ है?" पूछा मैंने,
"शिमला से थोड़ा आगे!" बोली वो,
दिमाग की घड़ी की हुईं गरारियां फेल!
कब बजे छह, कब तीन, कब बारह और कब नौ! कुछ नहीं पता!
दिमाग ऐसा घूमे, ऐसा घूमे, कि जैसे घड़ी के सारे संयंत्र अब बाहर ही आने वाले हों! चकरी घूमे जाए! एक के बाद एक फाटक को लांघे जाए! सवाल उड़ उड़, दिमाग में चमगादड़ों की भांति, फुर्र ही फुर्र मचाएं!
"तुम चंडीगढ़ से आ रहे हो न बेटे?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
"तो पापा शिमला में, और तुम चंडीगढ़ में, ऐसा क्यों बेटे?" पूछा मैंने,
"वो, रक्षा-बंधन था न कल? याद नहीं? मामा आये थे लेने, और अब वही छोड़ने जा रहे हैं!" बताती गयी वो मासूम! पल भर के लिए भी न अटकी!
अब कुछ कुछ समझ आने लगा!
शर्मा जी ने मुझे देखा! मैंने उन्हें!
"बेटा?' बोला मैं,
"हाँ?" बोली वो,
"मामा को बुलाओ ज़रा?" पूछा मैंने,
"आ रहे होंगे!" बोली वो,
"यहीं हैं न?'' पूछा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
"कहीं दूर तो नहीं?" पूछा मैंने,
"नहीं, उधर हैं!" बोली इशारा करते हुए, एक तरफ!
"आ ही रहे होंगे?" कहा मैंने,
"हाँ, आ रहे होंगे!" बोली वो,
और मोड़ लिया सर अपना, उस ही दिशा की तरफ! हमारे सर भी, वहीँ के लिए घूम गए!
एक बात और मित्रगण! पापा कहाँ हैं? उस रात तो पापा कह कर सम्बोधित किया था उसने? फिर? यही मैं अब जानना चाहता था! इसीलिए, सब सुनता रहा इत्मीनान से!
बड़ी अजीब सी स्थिति थी उस वक़्त, अब पांचवां किरदार भी आ गया था, ये अखिलेश, कथित रूप से, मामा, इस डिंपल का, इसका मतलब कि वो भी साथ ही होगा इनके, लेकिन अगर वो साथ ही था, तो तब कहाँ था वो जब हम मिले थे उन लाशों से? लाशें जो वहां पड़ी थीं और ये बच्ची डिंपल, किसे कह रही थी अपने पापा? खोपड़ा भन्ना के रह गया था मेरा तो! ये तो कोई गठित ही, जिसमे पांच लोग, हलाक़ हो गए थे, गुमनामी में थे आज तलक! और ऐसा, आज के समय में, भले ही दस बरस ही बीते हों, कैसे सम्भव है? ये तो ठीक वैसा ही हुआ जैसे, आसमान खा गया हो उन्हें, यकायक या फिर, ज़मीन लील गयी हो!
"डिंपल?" कहा मैंने,
"हाँ?" बोली वो,
"तुम्हारे मामा कहाँ हैं, हम ही मिल लें?'' पूछा मैंने,
"आते होंगे ना?" बोली इस बार, झल्ला कर!
जैसे, बच्चे खीझ कर बोला करते हैं! कितना अच्छा और हंसी वाला व्यवहार होता है उनका ये खीझ भरा! खीझ, उसके ऊपर, जो हम कपटियों के लिए कोई मायने नहीं रखता! जैसे, उसका वो पीला-सुनहरा सा पर्स, जो अभी भी उसके गले में पड़ा था, उसको अभ भी, संभाल कर रखा हुआ था उसने! कहने को बस, सजावटी ही था, रेक्सिन से बना हुआ, कोई मोल नहीं उसका, लेकिन उस डिंपल से पूछो! तो उस से अनमोल और कुछ नहीं होगा उसके लिए!
"अच्छा अच्छा! गुस्सा मत करो!" कहा मैंने,
"गुस्सा दिल क्यों रहे हो फिर बार बार पूछ कर? हूँ?' बोली वो,
बड़ी ही नकचढ़ी सी बच्ची थी वो! लाड़ली रही होगी, अपने मम्मी-पापा की आँखों का तारा वो भी सबसे प्यारा! दुलारा! मन में जहाँ उसकी खीझ देख कर, उल्लास जा जाग उठता था, वहीँ उसकी पीड़ा देख, मारे गुस्से के, उन दोषियों के ऊपर ऐसा गुस्सा आता था, ऐसा गुस्सा आता था कि किसी सरभंग के हवाले ही कर दूँ उन्हें! रोज, क़तरा क़तरा मांस उलीचे उनका और रोज पका कर खा जाए!
"वो देखो!" बोली वो,
हमने वहीँ देखा!
एक शख्श आ रहा था, उसकी गर्दन बार बार ढुलक जाती थी, वो उसको हिलाकर, ठीक करता था बार बार, वो आता गया करीब, जब वो चल कर आ रहा था, तो वो बीच बीच में, झुक जाता था! शायद, ये उसकी चोटों के कारण रहा होगा! और जब वो वहाँ आया, तो मैं पहचान गया उसको! ये वही था, वही लैंप-पोस्ट वाला आदमी! इसका मतलब, वो उसका मामा था! वो रुक गया था हमारे पास आते आते, चेहरे पर, क्रोध था उसके, आँखें लाल हुई, हुईं थीं, वो खड़ा खड़ा कब हम पर हमला कर दे, पता नहीं था!
"डिंपल?" बोला वो,
"हाँ?" बोली वो,
"इधर आ?" चीख कर बोला वो,
"आप आ जाओ?" बोली वो,
"आ?" बोला वो,
"आओ?" बोली वो,
"रुको!" मैंने कहा,
"ऐ? हट यहां से? हट जा?" बोला वो आदमी!
"हम कोई नुकसान नहीं पहुंचा रहे हैं!" कहा मैंने,
"चल, हट?" बोला वो, गुस्से से!
"आप डिंपल से पूछ लो?" कहा मैंने,
"नाम न ले?" बोला वो,
"आप गलत न समझें! डिंपल जानती है हमें! हैं न डिंपल?'' पूछा मैंने, उसको देखते हुए!
"हाँ, अंकल को जानती हूँ मैं, बताया था न?" बोली वो, अपने मामा से!
"नहीं! नहीं! जाओ! जाओ!" बोला वो,
और पीछे भाग छूटा! झुकता-झुकाता! भागता चला गया! और जैसे ही हमने, उस डिंपल को देखा, वो भी गायब! अब नहीं थी वो वहाँ!
"अरे?' बोले शर्मा जी,
"ले गया वो!" बोला मैं,
"अब?" बोले वो,
''रुको!" कहा मैंने,
"डिंपल?" मैंने चिल्ला कर आवाज़ दी!
मैं आगे चला, उस तरफ, जिस तरफ वो भाग गया था!
"आओ?" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
"ऐसे कहाँ ढूंढेंगे हम?" बोले वो,
"आओ तो सही!" कहा मैंने,
हम आगे चलते रहे, अब यहां से आगे जान, सम्भव नहीं था, यहां झाड़-झंखाड़ बहुत थे, स्संप आदि भी हों तो कहा नहीं जा सकता था, वन-बिलाव तो होते ही हैं!
"कुछ और किया जाए? क्यों?" बोले वो,
"अभी नहीं!" कहा मैंने,
"वो क्यों?" पूछा उन्होंने,
"अभी पूरे नहीं हैं वो!" कहा मैंने,
"आप अब ज़बरदस्ती ही करो!" बोले वो,
"नहीं, अभी नहीं!" कहा मैंने,
"तो ऐसे तो पता नहीं कब आएं वो?" बोले वो,
"आएंगे!" कहा मैंने,
"कैसे?'' बोले वो,
"देखो तो सही!" कहा मैंने,
"डिंपल?'' मैंने फिर से आवाज़ दी!
"डिंपल?" अब आवाज़ दी शर्मा जी ने,
"डिंपल?" मैंने दी आवाज़!
"यहां!" आई एक तेज आवाज़!
इस बार दायें से!
"चलो उधर!" बोला मैं,
टोर्च ले, हम भाग लिए उधर के लिए!
"यहां!" बोली वो,
"कहाँ?" मैंने आवाज़ दी, रुक कर!
"आगे!" आई आवाज़!
"आओ!" कहा मैंने,
मित्रगण!
ये खेल, कम से कम बीस मिनट चलता रहा, और हम उस सड़क के किनारे ही आ गए थे! वो हमें, यहां तक ले आई थी!
"कहाँ हो?" पूछा मैंने,
"यहां?" बोली वो,
"चलो!" कहा मैंने,
और जहाँ हम आये, वहाँ बड़ी बड़ी चट्टानें थीं! यहीं कहीं से आवाज़ें आ रही थीं उसकी! जहाँ से आती, हम वहीँ दौड़ जाते! मैं सिर्फ जतला रहा था, कि हम सिर्फ, मामूली से इंसान हैं, जो उनकी मदद के लिए आये हैं, उन्हें हमसे कोई खतरा नहीं है! इसीलिए, ये दौड़म-भाग ज़ारी थी हमारी!
