अजीब सा ही सवाल नहीं था ये? सबसे अजीब बात, कि साथ, साथ क्या? इसका क्या मतलब? क्या कहना चाह रही थी वो?
"साथ?" पूछा मैंने,
"हाँ" बोली वो,
"क्या मतलब?" पूछा मैंने,
"ये, तुम, साथ, वहां?" बोली वो,
"तुम कैसे कह सकती हो कि हम जा ही रहे हैं?" पूछा मैंने,
वो हंस दी! पांवों की एड़ियों में, हाथ मारे अपने!
"बताओ?" पूछा मैंने,
"जाओगे!" बोली वो,
"कैसे कह सकती हो?" बोला मैं,
"जानती हूँ" बोली वो,
"कैसे?" पूछा मैंने,
"वो, बाबा ने कहा!" बोली वो,
अब मैं समझा! हल्का सा मुस्कुराया! काजल भी, सब समझ गई थी वो! ये बाबा, कैसे भी करके, मुझे वहां भेजने ही वाले थे!
"हाँ, जाऊँगा!" कहा मैंने,
"ये?" पूछा उसने,
अब तक, खाना, खत्म कर लिया था मैंने, काजल पहले ही खा चुकी थी, मैं उठा,
"आया अभी" बोला मैं,
"रुको?" बोली काजल,
मैं रुका, उसने हाथ बढ़ाया तो मैंने हाथ पकड़, उठा लिया उसको,
"हाथ साफ़ करने हैं?" पूछा मैंने,
"हाँ" बोली वो,
"आओ फिर" कहा मैंने,
"हाँ" बोली वो,
और हम, बाहर चले गए हाथ-मुंह साफ़ करने! किये, पोंछे, और फिर से, बनियारी के पास लौटे, बैठ गए, डकार आई, वो संभाली!
"बनियारी?" कहा मैंने,
"हाँ?" बोली वो,
"ये क्यों पूछा कि साथ?" अब मैंने पूछा उससे!
"सम्भाल रखना" बोली वो,
"क्या सम्भाल?" पूछा मैंने,
"ये!" बोली वो,
इशारा करते हुए, काजल की तरफ! और मैं, समझ गया उसका आशय!
"किस से?" फिर भी मैंने पूछा,
"उन से" बोली वो,
"कौन उन?" पूछा मैंने,
"उन से" बोली वो,
"कौन हैं वो उन?" पूछा मैंने,
"खतरा हे" बोली वो,
"जान का?" पूछा मैंने,
"हाँ" सर हिलाकर, हाँ कही उसने!
"तो काजल को क्यों?" पूछा मैंने,
"जौवनी है!" बोली वो,
"बनियारी!" कहा मैंने,
"हूँ?" बोली वो,
"मेरे होते हुए, इसे, कोई छू तो क्या, देख भी नहीं सकता उस नज़र से! हाथ तोड़कर कहाँ घुसाउंगा, देख भी नहीं पाएगा!" बोला मैं,
वो समझी, न समझी, पता नहीं, लेकिन मैंने अपनी भड़ास निकाल ली! मज़ाल कि कोई देख ले उसे वैसे?
"आओ काजल?" कहा मैंने,
"रुको?" बोली बनियारी!
"आओ?" कहा मैंने,
और उठी काजल!
"आओ!" कहा मैंने,
"रुको?" बोली वो,
"क्या है अब?" पूछा मैंने,
"मेरे साथ आओ" बोली वो,
"कहाँ?" पूछा मैंने,
''"आओ?" बोली वो,
और दूसरे रास्ते से बाहर चली!
"आना काजल?" बोला मैं,
"मामला क्या है?" बोली वो,
"देखते हैं?" कहा मैंने,
सामने ही बनियारी रुकी हुई थी, आसपास देखते हुए, पेड़ों के बीच, अनार के पौधों की टहनियों को हटाती हुई!
"आओ?" बोली वो,
"कहाँ?" पूछा मैंने,
"आओ तो?" बोली वो,
"हाँ" कहा मैंने,
मैंने काजल का हाथ पकड़ लिया और चला अब साथ उसे!
"कहाँ बनियारी?" पूछा मैंने,
"चलो" बोली वो,
हम उतरते गए वो ढलान! ठीक सामने एक मंदिर बना था, काले रंग का! कुछ सफेद भी था, टाइल्स लगाई गईं थीं उसमे!
"वो मंदिर है?" पूछा मैंने,
"नहीं" बोली वो,
एमी रुक गया!
"नहीं? तो फिर क्या?" पूछा मैंने,
"आओ" बोली वो,
"चलो" कहा मैंने,
मामला अजीब सा हुआ अब तो! जाने क्या दिखाना चाहती थी वो! खैर, हम भी चलते रहे! आ गए उस मंदिर के पीछे! रुक गई वो!
"वो यहाँ, लाएंगे" बोली वो,
"क्या लाएंगे?" पूछा मैंने,
"तुमको" बोली वो,
"क्यों?" पूछा मैंने,
"दिखाने" बोली वो,
"क्या?" पूछा मैंने,
"जगह" बोली वो,
"कैसी?" बोला मैं,
"देखना" बोली वो,
"आज?" बोला मैं,
"हाँ" कहा उसने,
"अभी दिखा दो?" कहा मैंने,
"नहीं" बोली वो,
"क्यों?" पूछा मैंने,
और तब वो बनियारी, ज़ोर से हंसी! अपने वक्ष में घूंसे मार मार कर हंसी! बड़ा ही अजीब सा व्यवहार था उसका! मैं और काजल तो सकपका ही गए कि एकाएक इस औरत में ऐसा क्या घुस गया? कैसे बदल गई ये?
"आओ काजल?" कहा मैंने,
काजल डर गई थी उसका व्यवहार देख!
"आ....हाँ!!" बोली वो,
मैंने पकड़ा उसका हाथ और लौट चला वापिस! पीछे देखा, बनियारी ज़मीन पर लेट, पागलों सी हंसे जा रही थी! अब न देखा हमने उसे, चुपचाप आगे बढ़ लिए, आगे आये तो रास्ता भटक गए! निकले कहीं और, सामने ही बाबा का कक्ष था, कहीं देख ही न लें, रास्ता बदला! एक पतली सी नाली मिली, उसे पार किया, झाड़ियां पकड़ पकड़, हम ऊपर की तरफ चढ़े! पीछे देखा, कोई नहीं, अब उस पागल बनियारी के ठट्ठे नहीं बज रहे थे, या तो वो चुप हो गई थी, या फिर बेहोश, हँसते हँसते!
हम लौट आये वापिस, मैं सीधा अपने कमरे में ही ले आया उस काजल को, मग में पानी भरा, और हाथ-मुंह धोए हमने, उसके बाद अंदर आ बैठे, दरवाज़ा ज़रा सा खुला छोड़, बाकी भेड़ लिया था!
"उसे, हुआ क्या?" पूछा उसने,
"पता ही नहीं?" कहा मैंने,
"कुछ देर पहले तो ठीक थी?" बोली वो,
"कुछ याद आया हो?" पूछा मैंने,
"याद आये और, पागल हो जाए?" बोली वो,
"पागल! किसने कहा पागल!" कहा मैंने,
"लगी तो पागल जैसी!" बोली वो,
"नहीं, व्यवहार कुछ पागल जैसा था!" कहा मैंने,
कुछ देर और बातें हुईं बनियारी के बारे में, और फिर, काजल चली गई, मैं अपने बिस्तर में लेट गया! बहुत ध्यान हटाया लेकिन ध्यान हटे ही नहीं! ऐसा अचानक हुआ क्या था उसे? कैसे एकाएक बदल गई? और वो मंदिर? वो है क्या आखिर? लगता तो मंदिर सा ही है? और ये बाबा लोग? ये कौन सी अलग ही लस्सी घोल रहे हैं? क्या माज़रा है? और इसी उठा-पटक में, मुझे आ ही गई नींद!
शाम साढ़े सात बजे, मुझे उठाया, आकर, काजल ने, मैं उठा, घड़ी देखी, और उतरा बिस्तर से!
"आज तो बड़ा सोये?" बोली वो,
"हाँ" कहा मैंने,
"आराम से?" बोली वो,
"हाँ?" कहा मैंने,
"मुझे नहीं आई नींद!" बोली वो,
"क्यों?" पूछा मैंने,
"सोचती रही उसके बारे में!" बोली वो,
"अरे जाने दो ना!" कहा मैंने,
"वैसे, सावधानी ज़रूरी है!" बोली वो,
"हाँ, ये तो है!" कहा मैंने,
"अब कहाँ चले?" बोली वो,
मैं तौलिया उठा, बाहर जाने लगा था, तभी पूछा उसने!
"स्नान करने!" कहा मैंने,
"ओ, ठीक, आओ!" बोली वो,
और मैं चला गया, जब जा रहा था, तब बनियारी को देखा मैंने, मुझे घूर रही थी, खड़ी खड़ी, जैसे अंजान ही हो मुझ से! न जाने क्या सोची मैंने, और मैं चल पड़ा उसके पास ही! वो भी आगे बढ़ी!
आ गया आमने सामने!
"क्या है?" पूछा मैंने,
आँखें फाड़े, देखे मुझे!
"क्या बात है?'' पूछा मैंने,
"हरदी.....हरदी......." बड़बड़ाई वो!
"क्या?" पूछा मैंने,
"हरदी.......हरदी........" फिर से बड़बड़ाई!
"सुन, एक तो तो औरत, एक उम्र में बड़ी, अब मेरे सामने न ही आ तो बेहतर!" कहा मैंने,
समझाना पड़ा उसे इस लहजे में, नहीं तो, नहीं चाहता था मैं ऐसा व्यवहार उसके साथ करना!
"तू......" बोली वो,
"हाँ?" कहा मैंने,
"तू...." बोली फिर से,
"बोल?" बोला मैं,
"वो......" बोली वो,
"कौन?" पूछा मैंने,
''वो......." बोली वो,
"हाँ?" कहा मैंने,
हंस पड़ी फिर से वो! इस बार जैसे उपहास उड़ाया हो उसने मेरा! ताली पीट ली उसने!
"अब जा!" कहा मैंने,
वो हंसे!
"जा, बनियारी, जा!" कहा मैंने,
"नहीं" बोली वो,
"जा?" कहा मैंने,
"नहीं" बोली वो,
"बनियारी??" चीखा मैं!
वो अब, और ज़ोर से हंसी!
मुझे आया अब गुस्सा! पचाया किसी तरह जबड़े भींचते हुए!
"ओ बनियारी?" आई आवाज़ एक!
पलट कर देखा मैंने, ये लाल बाबा थे! चले आ रहे थे पास हमारे! मैंने आने तक, नज़र में बांधे रखा उन्हें, वे आ गए!
"क्या है?" बोले बनियारी से,
"हरदी......." बोली वो,
"जा, अब जा!" बोले बाबा,
वो, लौट पड़ी, एक ही बार में, जबकि मैंने कई बार कहा था उसे लौटने के लिए, तब नहीं लौटी थी वो!
"ये हरदी क्या है?" पूछा मैंने,
"पागल हो जाती है कभी कभी" बोले वो,
"आज तो पागल ही हुई!" कहा मैंने,
"दिमाग ठीक नहीं इसका!" बोले वो,
"लेकिन उस रात तो ठीक था?" पूछा मैंने,
"कभी कभी" बोले वो,
"खैर" कहा मैंने,
"आ जाओ दस बजे" बोले वो,
"हाँ, आता हूँ" कहा मैंने,
वे टहलते हुए चले गए, और मैं स्नान करने!
स्नान किया और लौटा फिर, अंदर आया कमरे में,
"इतनी देर?" बोली वो,
"वो बाबा मिल गए थे" कहा मैंने,
"छोटे, बड़े?" पूछा उसने,
"छोटे" कहा मैंने,
"क्या कह रहे थे?" बोली वो,
"दस बजे आ जाना" बोला मैं,
"अच्छा" बोली वो,
"हाँ" मैंने सर में तेल लगाते हुए उत्तर दिया,
"मुझे तो ले जाओगे?" पूछा उसने,
"क्या करोगी तुम?" पूछा मैंने,
"जो आप?" बोली वो,
"मैं तो बात ही करूंगा?" कहा मैंने,
"मैं सुन लूंगी!" बोली वो,
"ठीक!" कहा मैंने,
"आऊं फिर दस बजे?" बोली वो,
"हाँ, आ जाओ!" कहा मैंने,
और वो उठ कर चली वापिस! मैं बैठ गया, देखता रहा, सोचता रहा कि आखिर से सारा खेल है क्या?
तो जी,
बजे दस!
काजल आई और हम दोनों ही चल पड़े बाबाओं के पास! बाबा चाय पी रहे थे, हमने नमस्कार की, तो बिठा लिया हमें साथ ही उन्होंने, काजल से बातें हुईं, काजल कहाँ से है, क्या करती है आदि आदि!
"हाँ, बाबा?" पूछा मैंने,
"हाँ?" बोले वो,
"आज बात आधी रह गई थी!" कहा मैंने,
"हम्म" बोले वो,
"मैं पूछ रहा था कि वो रोकने क्यों आई थी?" पूछा मैंने,
"क्योंकि वो नहीं चाहती थी!" बोले बड़े बाबा,
"क्या?" पूछा मैंने,
"जी हम कर रहे थे!" बोले वो,
"साधना?" पूछा मैंने,
"हाँ" बोले वो,
"उसे क्या दिक़्क़त?" पूछा मैंने,
"उसे तो नहीं!" बोले वो,
"उसे नहीं?" मैंने चौंक कर पूछ!
"हाँ, उसे तो नहीं!" बोले वो,
"फिर भला किसे?" पूछा मैंने,
"बाबा अंजन नाथ को!" बोले वो,
"क्या कह रहे हो?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
"वो एक सिद्ध, उन्हें क्या परेशानी?" पूछा मैंने,
"अब ज़रा गौर से सुनो!" बोले वो,
"जी!" कहा मैंने,
"यामिनि साहिका की एक और बहन भी है!" बोले वो,
"ओह, अच्छा!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
''तो?" पूछा मैंने,
"उसे थी परेशानी!" बोले वो,
"क्या? भला उसे क्यों?" पूछा मैंने,
"बस, इतना ही जानता हूँ!" बोले वो,
"मैं समझा ही नहीं!" कहा मैंने,
"क्या?" पूछा उन्होंने,
"यामिनि की कबहन को आपसे परेशानी, भला क्यों? और वो भी सत्ताइस दिनों के बाद? अजीब सा लग रहा है!" कहा मैंने,
"कुछ अजीब नहीं!" बोले वो,
"तो परेशानी क्या?" पूछा मैंने,
"यही तो नहीं पता?" बोले वो,
"क्या पहेलियां बुझ रहे हो आप भी?" कहा मैंने, इस बार तो झुंझला कर! कभी ये, कभी वो, अब बहन भी आ गई!
"नाम क्या है उसकी बहन का?" पूछा मैंने,
"वो अब जीवित नहीं!" बोली वो,
"क्या बाबा?" मैंने हल्के से पूछा,
"हाँ, नहीं है जीवित!" बोले वो,
"उसे क्या हुआ?" पूछा मैंने,
"यही! यामिनि!" बोले वो,
"मतलब?" पूछा मैंने,
"नहीं समझे, या नहीं समझना चाहते?" बोले वो,
"सच में तो, समझा ही नहीं!" कहा मैंने,
''आहूत कर दिया उसे!" बोले वो,
"ऐसा कैसे सम्भव है? बहन थी उसकी वो!" कहा मैंने,
''तो?" बोले, ज़रा गुस्से से!
"कुछ नहीं बाबा!" कहा मैंने,
"काजल बेटी?" बोले अचानक से बाबा जगनाथ,
"जी?" बोली वो, सकपकाते हुए,
"आप वापिस चलो, आराम करो, भोजन भिजवा दूंगा अभी" बोले वो,
"जी बाबा!" बोली वो,
मुझे देखा, मैंने इशारा किया, आँखों से, और वो लौट पड़ी!
"काजल को क्यों भेज दिया?" पूछा मैंने,
वे मुस्कुराए, फिर लाला बाबा को देखा,
"बेटी के लिए खाना भिजवा दो, और लेते आओ" बोले वो,
"जी" बोले लाला बाबा, और बाहर चले गए,
"यही सोच रहे हो न, कि हम उस साधिका के विरुद्ध ही बोल रहे हैं?" बोले वो,
"हाँ, यही!" मैंने सच कह ही दिया!
"कोई बात नहीं, कोई भी सोचता!" बोले वो,
"जी" कहा मैंने,
"कल जा सकते हो?" बोले वो
"वहां, शालोम?" पूछा मैंने,
"हाँ?" बोले वो,
"क्यों नहीं!" कहा मैंने,
''अब सुनो!" बोले वो,
"यहां से बस मिलेगी" बोले वो,
"ठीक" कहा मैंने,
"बस, आपको, एक कस्बे तक छोड़ेगी" बोले वो,
"ठीक" कहा मैंने,
"वहां, सोनू नाम का एक आदमी आपको मिलगा, एक लकड़ी की टाल पर!" बोले वो,
"एक ही टाल है क्या उधर?" पूछा मैंने,
"हाँ, एक ही" बोले वो,
"अच्छा" कहा मैंने,
"उस आदमी से कहना कि आप लोग, लोना के यहां जाओगे!" बोले वो,
"वो यकीन कैसे करेगा?" पूछा मैंने,
"कहना, लाल बाबा ने भेजा है!" बोले वो,
"ठीक" कहा मैंने,
"वहां एक चौकी पड़ती है, कोई घबराने की बात नहीं, सोनू निकाल लगा" बोले वो,
"ये चौकी? इसमें क्या हड़बड़?" पूछा मैंने,
"तस्करी होती है वहां से" बोले वो,
"ओ!" कहा मैंने,
"हाँ, अगर जांच हो, तो भी कोई बात नहीं!" बोले वो,
"ठीक" कहा मैंने,
"अब यहां से, सोनू आपको आगे का रास्ता दिखा देगा!" बोले वो,
"आगे तक नहीं जाएगा?" पूछा मैंने,
"नहीं" बोला वो,
"फिर?" पूछा मैंने,
"फिर एक डेरा पड़ेगा! एक मंदिर ही है वो, वहां लोना को पूछ लेना, मेरा नाम बता देना!" बोले वो,
"फिर?" पूछा मैंने,
"लोना सब बता देगी" बोले वो,
तभी लाल बाबा आ गए, एक शराब की बोतल लेकर, पीछे पीछे एक लड़का भी, सामान लेकर! रख दिया सामान, पानी भी!
"ये लोना कौन है?" पूछा मैंने,
"जोगन" बोले वो,
''अच्छा!" कहा मैंने,
"हाँ, कोई दिक़्क़त नहीं होगी!" बोले वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"कुछ हो, तो लोना सा कहना!" बोले वो,
"ठीक, लेकिन एक बात?" बोला मैं,
"क्या?" पूछा मैंने,
"क्या यही शालोम है?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोले वो,
"तो हम, शालोम से कितनी दूर हैं?" पूछा मैंने,
"पास ही!" बोले वो,
"पास ही?" पूछा मैंने,
शालोम है भी नहीं, और पास भी?
"लोना बता देगी!" बोली वो,
"क्या?" पूछा मैंने,
"जाना कहाँ है!" बोली वो,
"कमाल है!" कहा मैंने,
"क्या?" बोले वो,
"टाल, सोनू, चौकी, लोना!" कहा मैंने,
"हाँ?" बोले वो,
"कई ये दो, दो, जानते हैं हमारे आने का उद्देश्य?" बोला मैं,
"सिर्फ एक!" बोले वो,
"वो लोना!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
"वैसे ये शालोम है क्या?" पूछा मैंने,
"देख लेना?" बोले वो,
"बताओ तो?" पूछा मैंने,
"अरे देख लेना, ये, ये लो!" बोले वो,
और गिलास भर कर, मुझे दिया! मैंने गिलास पकड़ा, एक टुकड़ा उठाया प्याज का, चटनी में डुबोया और गिलास, आधा किया! टुकड़ा चबाया फिर!
"आप भी यहीं गए थे?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
"हाँ, हम यहीं गए थे!" बोले वो,
"एक बात कहूं बाबा?'' बोला मैं.
"हाँ, अवश्य!" बोले वो,
"आप वहाँ, क्या करने गए थे?" बोले वो,
"नहीं बाबा!" कहा मैंने,
"नहीं?" चौंके वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"क्यों?" पूछा उन्होंने,
"अब दो में से एक चीज़ गलत है!" कहा मैंने,
"वो क्या क्या?" पूछा उन्होंने,
"पहली, ये सत्ताइसवें दिन की घटना!" कहा मैंने,
"और दूसरी?" बोले वो,
"ये कि वो आपको हटाने नहीं, आप हारे थे उस से!" कहा मैंने,
"नहीं, हम नहीं हारे थे!" बोले वो,
"हारे थे बाबा!" कहा मैंने,
"कैसे कह सकते हो?" पूछा उन्होंने,
"जब वो सत्ताइसवें दिन तक नहीं आई, तो मात्र चार दिन ही तो शेष थे आपके पास?" पूछा मैंने,
"इस से क्या सिद्ध हुआ?" बोले वो,
"ये, कि आप मुझे सच नहीं बता रहे!" कहा मैंने,
"वाह! प्रखर बुद्धि के धनी हो तुम!" बोले वो,
"इतना भी नहीं!" कहा मैंने,
"कैसे जाना?" बोले वो,
"आपने ये बताया कि, वहां कोई कंदरा है!" कहा मैंने,
"हाँ, है!" बोले वो,
"और वो कन्दरा, शालोम में है!" कहा मैंने,
"हाँ!" कहा उन्होंने,
"अब आप, शालोम साधना करने ही गए, ये मैं नहीं मान सकता!" कहा मैंने,
"मत मानिए!" बोले वो,
"क्योंकि, वो तो आप कहीं भी कर सकते थे!" कहा मैंने,
"हाँ, लेकिन उसके लिए, कन्दरा का होना आवश्यक है!" बोले वो,
''आपके आसपास, कइयों होंगी!" कहा मैंने,
"हाँ, पर वैसी नहीं!" बोले वो,
"वैसी?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
"क्या विशेष?" पूछा मैंने,
"वो कन्दरा बाबा अंजन नाथ की है!" कहा उन्होंने,
"बाबा? उनकी कन्दरा?" पूछा मैंने,
"हाँ, सिद्ध है वो कन्दरा!" बोले वो,
"तब तो आपने चोरी की!" कहा मैंने,
"नहीं!" बोले वो,
"आपको ये पता था!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
"तब भी?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
"और इसीलिए, आपत्ति हुई उस साधिका को!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
"कोई बहन नहीं?" कहा मैंने,
"नहीं!" बोले वो,
"तब तो भेंट भी नहीं मानता!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
"आप, अब भी छिपा रहे हैं मुझ से कुछ!" कहा मैंने,
"नहीं!" बोले वो,
"खैर बाबा! जाने को मेरा मन नहीं! लेकिन मैं जाऊँगा! ज़रूर जाऊँगा! कम से कम उस साधिका से मिल तो सकूँ, जिसने, नौ साधकों को लौटा दिया!" बोला मैं,
"नहीं लौटाया!" बोले वो,
"ये आप कहते हो!" कहा मैंने,
"सब जानते हैं!" बोले वो,
"कौन सब?" पूछा मैंने,
"वे नौ!" बोले वो,
"दो आप हुए, और सात कौन?" पूछा मैंने,
"अभी उत्तर ज़रूरी है?" पूछा उन्होंने,
"नहीं!" कहा मैंने,
"इसका भी उत्तर, वहीँ मिल जाएगा!" कहा मैंने,
"उम्मीद है!" कहा मैंने,
"लो!" बोले वो,
मैंने दूसरा गिलास भी खत्म कर लिया! माल बहुत तगड़ा था! जीभ पर चिपक सा गया! जैसे पुरानी सी रम, सिरके जैसी लगने लगती है!
"ये!" बोले वो,
और मांस का एक टुकड़ा दे दिया मुझे! मैंने उसे लिया और देखने लगा, कि ये है किसका मांस!
"खरगोश!" बोले वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
और चटनी से लबरेज़ कर, खा लिया!
"उस क्षेत्र से परिचित हो?" पूछा उन्होंने,
"थोड़ा बहुत!" कहा मैंने,
"देहाती हैं लोग!" बोले वो,
"हाँ, समझता हूँ!" कहा मैंने,
"लेकिन ईमानदार हैं!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"लो!" बोले वो,
एक और गिलास, उठाया मैंने और फिर..........................
गिलास खाली कर लिया था मैंने, अब मामला ऐसा हो, तो नशा क्या करेगा! अब चाहे गडुआ आये, चाहे डोलची या फिर मटका ही! अब न असर पड़ने वाला था कुछ भी! नशा हो, तो हो कहाँ? नशा भी तभी होता है जब शान्ति हो देह में, दिमाग में! अशांत मन तो ऐसे ही और अशांत हो जाएगा! नशे से गम नहीं मिटते, और धारदार हो जाते हैं, बस, सोचने, समझने की शक्ति क्षीण होने लगती है! तब, नींद आ जाती है! आधे से ज़्यादा तो इस प्रकार का ही नशा करते हैं!
"खैर बाबा! अब चलता हूँ, सुबह आता हूँ आज्ञा लेने!" कहा मैंने,
''सामान, सामग्री आदि सब लोना उपलब्ध करा देगी!" बोले वो,
"यदि आवश्यकता हुई तो!" कहा मैंने,
"हाँ, यही अर्थ भी था मेरा!" कहा मैंने,
और मैं लौट पड़ा, सवाल हज़ारों, लेकिन उत्तर सभी, वहीँ, शालोम में ही! अब ठान ही लिया था कि जाना ही है, तो अब क्या सोच-विचार! मंथन! नहीं, अब कुछ नहीं! बस, अब शालोम! कमरे में आया, तो बारह के पास का वक़्त था, काजल हालंकि सोई न होगी, लेकिन मैंने नहीं परेशान किया उसे! फिर से सबकुछ दोहराना पड़ता! इसीलिए, दरवाज़ा किया बंद और धड़ाम से बिस्तर पर गिर गया! कुछ ही देर में, मुंह सा बिचकाते हुए, नींद आ ही गई!
सुबह!
सुबह मेरी नींद खुल गई करीब छह बजे ही! मैं उठा, और फारिग होने चला गया, स्नान आदि से निबटते निबटते, सात बज ही गए! करीब सात बजे ही, काजल आई मेरे पास, नमस्ते हुई! आज गहरी हरी साड़ी पहनी थी उसने! जी तो, कब नहीं मचलता! किसका नहीं मचलता! लेकिन यहां नहीं मचला! या साफ़ साफ़ ही कहूं तो, नियंत्रण कर ही लिया!
"कैसी हो?" बोला मैं,
"ठीक, लेकिन गुस्सा!" बोली गुस्से से!
"क्यों? क्या हुआ?" पूछा मैंने,
"अब होश आया है?" बोली वो,
"मतलब?" बोला मैं,
"अब ली खबर?" पूछा उसने,
"रात ज़्यादा हो चली थी, सोचा, क्या जगाऊँ!" कहा मैंने,
"ओहो जी!" बोली वो,
"अब क्या?' बोला मैं,
"छोड़ो, क्या बात रही?" पूछा उसने,
"हो गई बात, तैयार तो हो ही, चल रहे हैं साथ हम!" कहा मैंने,
"कहाँ?" बोली वो,
"शालोम!" कहा मैंने,
"वाह!" बोली वो,
"खुश?" कहा मैंने,
"बहुत!" कहा उसने,
"सामान तैयार है?" पूछा मैंने,
"हाँ, आपका?" पूछा उसने,
"अभी बस!" कहा उसने,
"आप बात करके आओ, मैं बाँध देती हूँ!" बोली वो,
"हाँ, ठीक!" कहा मैंने, और चलने को हुआ बाहर,
"सुनो?" बोली वो,
"हाँ?" कहा मैंने,
"बाहर कोई कपड़ा तो नहीं सूखा?" पूछा उसने,
"नहीं, एक है सो रख लूंगा अभी" कहा मैंने,
"मैं रख लेती हूँ, अब बात करो वहां, जाओ!" बोली वो,
"काजल?" कहा मैंने,
"हाँ?" बोली वो, मेरे कपड़े, तह करते हुए!
"कुछ नहीं, आता हूँ अभी!" कहा मैंने,
और मि चला अब बाबा के पास, नौ बजे तो बस पकड़ ही लेनी थी, तब जाकर, कहीं शाम तक, या कुछ पहले पहुंचते, कुछ समय, शायद ज़्यादा ही लगाया था मैंने, चूँकि अक्सर ही ऐसा होता है, बस की यात्रा में!
तो मैं बाबा के पास पहुंचा, दोनों ही बैठे हुए थे, खीर खा रहे थे!
"नमस्कार!" कहा मैंने,
"आओ!" बोले वो,
और बैठने को जगह दी! मैं बैठ गया!
"तैयारी हो गई?" पूछा लाल बाबा ने,
"हाँ" कहा मैंने,
"मेरा नंबर तो है न आपके पास?" बोले वो,
"हाँ" कहा मैंने,
"कोई दिक़्क़त हो तो फोन कर लेना" बोले वो,
"हाँ, करना ही होगा फिर!" कहा मैंने,
"खाओगे?" पूछा उन्होंने,
"नहीं, धन्यवाद!" कहा मैंने,
"नौ बजे बस चलेगी, लाल बाबा छोड़ देंगे" बोले वो,
"ठीक!" कहा मैंने,
''आराम से जाइये!" बोले वो,
"ज़रूर! आज्ञा दें!" कहा मैंने,
"अवश्य!" बोले वो और सर पर हाथ रखा!
"लाला बाबा?" कहा मैंने,
"हाँ?" बोले वो,
"मैं आपको साढ़े आठ बजे मिलता हूँ!" कहा मैंने,
"हाँ" बोले वो,
"कहो तो पहले?" पूछा मैंने,
"ना! ठीक साढ़े आठ, चाय-नाश्ता कर लो इतने!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
और मैं निकल पड़ा, आया काजल के पास, सामान बाँध दिया था उसने मेरा, रुमाल दे दिया मुझे, और बिठा लिया!
"आओ, चाय-नाश्ता?" कहा मैंने,
"हाँ, चलिए!" बोली वो,
तो जी, हम जाकर, चाय-शाय, निबटा आये, नाश्ता अच्छा कर लिया था, अब तैयार थे हम, बस निकलने को वहां से! ठीक साढ़े आठ बजे, हमने अपना अपना सामान उठाया और चले बाबा की तरफ, वे मिले, और हमें ले चले, हम बाहर तक आये, एक खटारा सा तिपहिया मिला, उसमे बिठाल दिया गया हेम और इस तरह से, उस जगह से हम निकल लिए, अब अगर कहीं रुकना ही था वो वो जगह थी, उस लोना के डेरे पर! तिपहिया वाहन, कभी ये टांग उठाता कभी वो, और कभी थूथनी ही उठा लेता! रास्ता बड़ा ही हड्ड-तोडू! आखर में, एक छोटी सी जगह आ पहुंचे! छोटा सा क़स्बा था ये! लगता था, देश हमारा, भूल ही बैठा है इसे! लोग ऐसे देखें जैसे कहीं और से आये हैं हम! तिपहिया चालक ने मदद की, और चला लेकर संग अपने, सारी बसें, छोटी ही वहाँ! एक से बात हुई और हमें दे दी गई सीट, टिकट भी ले लिया और हम कुछ देर बाद ही, चल पड़े! रास्ता, हरियाली भरा था, खूबसूरत नज़ारे थे वहां! लोग जैसे बसते ही न थे वहां! बस भी खाली ही रही! कोई चढ़ता और कोई उतर जाता! क्या मुर्गी-मुर्गा और क्या बकरी के बच्चे, सभी सफर का आनंद ले रहे थे उस बस में!
खैर साहब, कभी ऊंघते, कभी जागते, इस तरह हम, तीन बजे तक पहुंचे वहाँ! बस ने कुछ तेजी तो की थी, लेकिन रास्ते और मोड़, बड़े ही संकरे थे! बस एक जगह आकर रुकी! यहां मवेशी खड़े थे पास में, उनके रम्भाने की आवाज़ों ने, साफ़ बता दिया कि ये उन्ही का क्षेत्र है! एक जगह, मंदिर सा था, वहीं बैठ, सुस्ताए हम, पानी की हौदी से हाथ-मुंह धोए! फिर एक आदमी से उस लकड़ी की टाल के बारे में पूछा, शायद, हिंदी भाषियों में रहा था, मदद की उसने और बता दिया! हम वहीँ के लिए चल पड़े! कोई आधा किलोमतेर दूर जाकर, एक बूढ़ी सी टाल दिखाई दी, बांसों की बनी हुई, बड़ा सा तराजू लटका हुआ! वहां एक आदमी लकड़ी उठा रहा था, उस से उस सोनू के बारे में पूछा, उसने बताया और चला गया अंदर, कुछ देर बाद, एक मोटा सा आदमी बाहर आया, उसने हँसते हुए नमस्ते की और हेम लेकर चला एक तरफ!
"फ़ोन आ गया था बाबा का" बोला,
"अच्छा, अच्छा हुआ!" कहा मैंने,
"भूख लगी होगी?" पूछा उसने,
"हाँ, लगी तो है!" कहा मैंने,
"आओ!" बोला वो,
और एक कमरे की सीढ़ियां चढ़ते हुए, हम उस कमरे की तरफ चले, लकड़ी से ही बन था सबकुछ! कमरा खोला उसने, अंदर, एक गद्दा पड़ा था, एक तकिया भी,
"आओ, बैठो, आराम करो, मैं भिजवाता हूँ!" बोला वो,
और इस से पहले मैं कुछ कहता, वो लौट गया नीचे!
"आओ, लेट जाओ!" कहा मैंने,
हाँ" बोली वो,
और वो, चप्पलें उतार, लेट गई! मैं ज़रा बाहर चला, आसपास देखा, नीचे, शौचालय बना था, इतना तो था वहाँ पर!
चार बज चुके थे, मैं कमरे में वापिस चला आया!
"निकलते हैं बस, कुछ खा-पी कर!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
"उधर जाना हो, तो नीचे है सुविधा" बोला मैं,
"अच्छा" बोली वो,
कुछ देर में, एक आदमी, खाना ले आया, दाल-भात, कोई भुजिया सी, पता नहीं क्या थी, थोड़ी सी दही और कुछ कटे टमाटर! अब भूख लगी थी, सो खाया हमने, अब स्वाद कौन देखता है! पेट भरा तो चैन आया, बर्तन ले गया वापिस तो फिर चाय ले आया! और फिर, करीब पांच बजे, सोनू आ गया हमारे पास!
"अब लोना के पास?" पूछा उसने,
"हाँ" कहा मैंने,
"ठीक" बोला वो,
"चलें?" बोला मैं,
"सामान?" बोला वो,
"यही है" कहा मैंने,
''आओ फिर" बोला वो,
और हमने सामना उठाया अपना, चल दिए साथ उसके! एक सफेद रंग की पुरानी सी एम्बेसडर कार खड़ी थी, उसमे ही बिठा लिया, सामान रख लिया हमने उसमे! और गाड़ी चल पड़ी!
"यहाँ से कितना?" पूछा मैंने,
"डेढ़ घंटा" बोला वो,
"दूर है!" कहा मैंने,
"रास्ता सही नहीं" बोला वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"छोटा सा रास्ता है" बोला वो,
"दिख रहा है!" कहा मैंने,
''वहाँ तो ये भी नहीं!" बोला वो,
"फिर?" पूछा मैंने,
"मिट्टी!" बोला वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"तो लोना का ऐसी जगह डेरा?" पूछा मैंने,
"मंदिर है" बोला वो,
"तो वहीँ आवास?" पूछा मैंने,
"हाँ" कहा उसने,
"क्या करती है वो?" पूछा मैंने,
"जोगनी है" बोला वो,
"अच्छा" कहा मैंने,
"पूजा वगैरह!" बोला वो,
''समझ गया!" कहा मैंने,
"आप पहली बारे आये हो?" बोला वो,
"हाँ" कहा मैंने,
"हम्म!" बोला वो,
"जगह तो अच्छी है!" कहा मैंने,
"जंगल है!" बोला वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"कौन रहता है यहां!" बोला वो,
"गाँव तो होंगे?" बोला मैं,
"हैं, दूर दूर!" बोला वो!
"आप रास्ते देखो न?" बोला वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
मैं फिर सीट पर पीछे हो गया, बैठ गया काजल के साथ! वो मुंह में, अपने बालों की एक लट फंसाए, बाहर देख रही थी!
"ए?" मैंने कोहनी मार, पूछा,
"हाँ?" बोली वो,
"कहाँ खोयी हो?'' पूछा मैंने,
"कहीं नहीं!" बोली वो,
"यात्रा लम्बी हो गई!" कहा मैंने,
"नहीं तो?" बोली वो,
"फिर?" पूछा मैंने,
"कुछ नहीं!" बोली वो,
"कुछ न कुछ तो?" कहा मैंने,
वो मुस्कुराई!
सर हिलाया, धीरे से, ना में!
"कुछ नहीं!" बोली फिर!
"इधर आओ?" मैंने धीरे से कहा,
"हाँ?" बोली वो,
"आओ तो?" कहा मैंने,
आई वो पास,
"कान दिखाओ?" बोला मैं,
"हाँ?" बोली वो, और कान मेरे पास ले आई!
"अगर जाना हो, जाना! तो बता देना!" कहा मैंने,
हाँ में, मुझे बिना देखे, सर हिलाया!
"पानी देना?" बोली वो,
"लो" कहा मैंने,
और दिया पानी उसे, उसने पानी पिया, बोतल बंद की, और दे दी मुझे!
"सोनू?" कहा मैंने,
"हाँ?" बोला वो,
"और कितना?" पूछा मैंने,
"आधा घंटा" बोला वो,
"अच्छा" कहा मैंने,
"बस यहीं से अंदर जाना है!" बोला वो, और मोड़ ली गाड़ी एक तरफ! और चल दिए हम! टेढ़ी सी सड़क सी थी, एक तरफ से उठी सी हुई!
"उधर क्या है?" पूछा मैंने,
"नदी" बोला वो,
"बरसाती?" पूछा मैंने,
"हाँ, बरसाती, छेमा कहते हैं इसे!" बोला वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"पहाड़ी नदी है!" बोला वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"पानी तो साफ़ होगा?" पूछा मैंने,
"बिलकुल!" बोला वो,
और तभी उसने गाड़ी रोक ली! सामने देखा, मैंने सोचा कोई बिलाव आदि होगा!
"क्या है?" पूछा मैंने,
"वो सामने देख रहे हो आप?'' बोला वो,
"कहाँ?" मैंने आगे बढ़ते हुए पूछा,
"उधर!" बोला वो, ठुड्डी आगे करते हुए!
"वो तो पहाड़ी है कोई?" कहा मैंने,
"यही तो है, शालोम!" बोला वो,
"ओह! शालोम!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोला वो,
"ये कोई गाँव है?" पूछा मैंने,
"नहीं" बोला वो,
"फिर?" पूछा मैंने,
"बसेरा!" बोला वो,
"क्सिका?" पूछा मैंने,
"बाबा अंजन नाथ का!" बोला वो,
और तब, मैंने दरवाज़ा खोला, बाहर आया, गौर से देखा, करीब आठ या दस किलोमीटर दूर रही होगी वो पहाड़ी! कुछ नहीं दिख रहा था उस पर, शायद, हम दूर थे वहां से अभी!
"आ जाओ!" बोला वो,
"हाँ" कहा मैंने,
और अंदर आ बैठा, दरवाज़ा बंद कर लिया!
"आगे चौकी है!" बोला वो,
''अच्छा!" कहा मैंने,
"आप बैठे रहना!" बोला वो,
"ठीक!" कहा मैंने,
"सामान में कोई चीज़ तो नहीं?" बोला वो,
"नहीं, अगर हो तो?" बोला मैं,
"उसी हिसाब से बात करूंगा फिर!" कहा उसने,
"ऐसा कुछ नहीं है!" कहा मैंने,
"ठीक, चलें?" बोला वो,
"हाँ" कहा मैंने,
और हम चल दिए! आगे पड़ी एक चौकी! नाका था, दो आदमी आये, सोनू बाहर उतरा, बात की, एक आया सामान देखने, मुझे देखा, फिर काजल को, सामान बाहर निकाल लिया! और खोल खोल कर, जांचता रहा! जब कुछ आपत्तिजनक नहीं मिला, तो रख दिया सामान!
इतने में सोनू भी आ गया, नाका, खुल गया और हम, अंदर चले आये!
"ये कौन सी चौकी है?" पूछा मैंने,
"वन विभाग" बोला वो,
''अच्छा अच्छा!" कहा मैंने,
"तस्कर, जानवरों की तस्करी करते हैं!" बोला वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"रात दिन मुस्तैद रहते हैं यहां!" बोला वो,
"अच्छा है!" कहा मैंने,
गाडी ने काला धुंआ छोड़ा पीछे, और हम चले आगे! मिट्टी उड़ाते हुए! अब जाना था सीधा, लोना के डेरे!
हम आगे बढ़े और चलते रहे, अब गाड़ी ने सड़क पर नाचना शुरू कर दिया था, कभी काजल मेरे पास, कभी मैं काजल के पास, कभी हम दोनों ही आपस में टकरा जाएँ! खाया-पिया सब गोल हो गया पेट में, बस अब, उफ़ निकलने की ही देर थी!
"और कितना?" पूछा मैंने,
"बस आ गए!" बोला वो,
अब तक, धुंधलका होने में कुछ ही पल बीते थे, आसपास मुझे तो कुछ दीख नहीं रहा था, बस जंगल झाड़ियां और कुछ बड़े बड़े से जंगली पेड़, और कुछ नहीं, अब तो नदी भी साथ छोड़ चुकी थी!
तभी एक मोड़ आया, गाड़ी मुड़ी, और चले सीधा, उस रास्ते में नालियां इतनीं कि झटके खा खा के, झटक ही लिए हम! और तब पड़ा एक छोटा सा गाँव! दूर में कहीं कहीं रौशनी दीख जाती, बल्ब तो नहीं थे, या तो अलाव थे या फिर रौशनी के लिए जलाए दीप आदि!
"बत्ती नहीं है यहां?" पूछा मैंने,
"खम्भे बस!" बोला वो,
"खम्भे?" पूछा मैंने,
"हाँ, आ ही जायेगी साल-दो साल में!" बोला वो,
"समझ गया" कहा मैंने,
अब सरकारी काम है, कब आये कब फाइल खुले ये तो सरकार ही जाने! कहर जब आती तब आती, अभी तो बस दीया-बाती!
गाड़ी कुछ तेज हुई, रास्ता ठीक था अब, लगता था, और फिर से गाँव छोड़ा हमने, छोटा सा गाँव था, जल्दी ही छूट गया पीछे!
"अब कहाँ?" पूछा मैंने,
"बताता हूँ!" बोला वो,
और गाड़ी चलती रही!
"बस वो!" बोला वो,
मैंने वहीं देखा, एक पुराना सा मंदिर था, काफी बड़ा रहा होगा अपने समय में! अब कुछ ही शेष बचा था!
"यहीं है लोना!" बोला वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"हाँ, चल रहे हैं!" बोला वो,
"और तुम तो अब यहीं रुकोगे?" पूछा मैंने,
"नहीं" बोला वो,
"लौटोगे?" पूछा मैंने,
"हाँ" बोला वो,
"इतनी रात?" पूछा मैंने,
"कोई दिक्कत नहीं!" बोला वो,
"जैसी तुम्हारी मर्ज़ी!" कहा मैंने,
और गाड़ी, एक जगह आकर, रुक गई! इंजन बंद हुआ उसका!
"आओ" बोला वो,
"हाँ" कहा मैंने,
और उठाने लगा सामान!
"इसे यहीं रहने दो, उठवा लूंगा!" बोला वो,
"ठीक" कहा मैंने,
बड़ी ही अजीब और डरावनी सी जगह थी वो! घुप्प अँधेरा और जलते हुए तेल की गंध! कोई दिखाई ही न दे वहाँ! न इंसान और न ही कोई पशु!
"पुरानी जगह है!" कहा मैंने,
"हाँ" बोला वो,
और हम, एक जगह आ कर रुके! उसने, एक आदमी को आवाज़ दी, कुछ देर बार, एक वृद्ध सा आदमी बाहर आया, हमें देखा, नमस्ते की, हमने भी की! सोनू ने उस से कुछ कहा, और वो, हमें ले चला, हाथ में एक दीपदान से लेकर! वो जलाया तो नहीं था अभी, लेकिन अँधेरा घिरने को ही था! वो जहां हमें लय वहां कुछ पुराने से कक्ष बने थे, सभी कक्षों के बाहर, रस्सियाँ सी लटकी थीं! पता नहीं किसलिए!
"आओ" बोला सोनू,
"हाँ" कहा मैंने,
और हम आ रुके एक कक्ष के सामने! वो वृद्ध अंदर गया, और बाहर आया, खांसते हुए, और किया इशारा अंदर जाने का!
हमने जूते उतार दिए, और चले अंदर! अंदर, एक बड़ा सा कक्षनुमा प्रांगण सा था, खम्भे दीख रहे थे, अब काले पड़ गए थे, उन खम्भों में से कुछ फलक निकलीं थीं, उन्हीं पर दीये रख दिए गए थे! कुल मिलाकर, अच्छा प्रकाश था, कम से कम, एक दूसरे की शक्ल तो दीख ही रही थी!
"लोना?" बोला वो,
"आ रही" आई आवाज़,
आवाज़ बड़ी ही कड़क सी, न लगे कि किसी वृद्ध या प्रौढ़ अवस्था वाली किसी स्त्री की हो!
"सोनू?" बोली एक औरत, हमने पीछे देखा, वो मुख्य द्वार से अंदर आई थी! मैंने देखा तो बिन चकित हुए न रहा गया! उसकी आयु, चालीस के आसपास रही होगी, लेकिन उसकी सुगठित देह और अंग-प्रत्यंग किसी नव-यौवना जैसे ही थे! पतली सी कमर, और सुगठित सी देह! भुजाएं, बड़ी ही मज़बूत सी, हाथों की उंगलियां, बड़ी ही लम्बी लम्बी! अंगूठा ऐसा सुंदर कि पूछिए मत! जंघाएं, कसी हुईं जो उदर-स्थल से अधिक बाहर थीं! उसने, धोती पहनी थी, सर नहीं ढका था, केश भी काले ही थे! गले के हाँसुलों में, गढ्ढा था, ऐसा बेहद ही कम होता है! जबड़े की अस्थियां और मांस, सुगठित थीं, माथा चौड़ा और कान आमृरिका समान! नासुल, कमल-पादुपि समान! होंठ, सेमल की नवयौवना कली समान! मैं तो बिन आश्चर्य में पड़े बिना न रह सका! ये तो मुझे बड़ा ही अजीब सा लगा!
"हाँ लोना!" बोला वो, जाकर, चरण छुए उसने उसके, और फिर हमारा परिचय करवाया, सुनते हुए भी, उसके होंठों पर मुस्कान ही तैरती रही!
"आइये!" बोली वो,
"हाँ, चलो!" बोला सोनू,
"आओ काजल!" कहा मैंने,
और हम चल पड़े उसके पीछे पीछे! ए एक कक्ष तक, अंदर आये, तो दरी बिछी थी, हम बैठ गए सभी, सोनू ने बताया कि जाना है उसे, और हैरत की बात ये, कि उसने भी रोका नहीं उसे! अब तक तो अँधेरा छा गया था! ये भी अजीब सी बात! सामान की बता कर, सोनू चला गया, हमसे नमस्ते हुई और लोना, उसको शायद, छोड़ने चली गई उसके साथ!
"उम्र में चालीस की, लेकिन देह से तो बीस-बाइस की ही लगती है ये लोना, क्यों काजल?" पूछा मैंने,
"हैरत नहीं मुझे!" बोली वो,
"हैं? वो क्यों?" पूछा मैंने,
"ये साधना का प्रभाव है!" बोली वो,
"ये भी सम्भव है!" कहा मैंने,
"यही है!" बोली वो,
"हाँ! मान लिया चलो!" कहा मैंने,
"मानना ही पड़ेगा!" बोली वो,
अब एक स्त्री, भला दूसरे स्त्री के रंग-रूप, सौंदर्य की अनुशंसा करने से तो रही, प्रशंसा तो बहुत दूर की बात है! यही कारण था, उसके इस प्रकार से हुए, अचानक ही तेज स्वर का!
"मान लिया!" कहा मैंने,
"वैसे ये स्थान दुर्गम है!" कहा मैंने,
"हाँ, कुछेक ही जानते होंगे!" बोली वो,
"हाँ, वो भी सीधी पहुंच नहीं रही होगी किसी की!" कहा मैंने,
"ये तो है!" कहा मैंने,
तभी बाहर पदचाप सी हुई, उन पत्थरों पर, कट-कट की सी आवाज़ गूंजी, नज़र वहीँ रखी, और जो आई, वो लोना ही थी, साथ उसके एक और औरत थी! ये आवाज़, कट-कट की, इसी दूसरी औरत के पांवों में पहने हुए या तो बिछुओं की रही होगी या फिर पायजेब की सी! कट-कट की आवाज़ से, मैं, ये तो भांप ही गया था कि जो आ रहा था वहां, वो एक स्त्री ही होगी! कदम छोटे थे उसके, चलने में, मर्दों की तरह, धम्म-धम्म नहीं!
"काजल?" बोली लोना,
"जी?" कहा काजल ने,
"आप स्नानादि से निबट लो, इसके साथ चली जाओ, लष्मी नाम है इसका!" बोली वो,
लक्ष्मी नहीं, लष्मी! कोई बात नहीं, अर्थ समझ आना चाहिए!
काजल थोड़ा हकबका सा गई!
"आपका सामान, आपके विश्राम-कक्ष में पहुंचा दिया गया है, आप दोनों का ही!" बोली लोना!
अब मैं समझ गया, कि पहले लष्मी के साथ काजल जाए, वो मदद करेगी और फिर स्नान!
"जाओ काजल!" कहा मैंने,
"जी" बोली वो,
और चली गई, अपनी साड़ी सम्भालते हुए!
वो गई, तो लोना पास आ बैठी मेरे! अब उसकी आँखें देखीं! ओह.........बता नहीं सकता! जैसे किसी को, एक ही पल में, किसी पुस्तक की तरह, एक बार में ही पढ़ ले वो! बड़ी बड़ी, कजरारी सी, रूपहैली सी! एकदम साफ़, सफेद से पर्दे में जड़े दो काले, चमकदार से हीरे! रत्न जैसी आँखें! जैसे किसी केली के पत्ते! जो, ऊपर जा, नेत्र-पुष्पिकाएं सी बन जाती हैं! आप मानिए या न मानिए, साक्षात रति का जीवंत अंश समाहित था उसकी देह में! सेमल की फूली हुई, कली समान ही होंठ थे उसके! ठीक वैसा ही रंग भी था! जो एक बार देखे, तो बस, आकर्षण से ग्रस्त हो, अपना अस्तित्व ही भूल जाए!
"आपकी साधिका हैं ये, काजल?" पूछा उसने,
"ज...जी...!" कहा मैंने,
"बहुत अच्छी हैं!" बोली वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
''आप स्नान करेंगे?" पूछा उसने,
"हाँ, दिन भर का चला हूँ!" बोला मैं,
"अवश्य ही!" बोली वो,
"जी" कहा मैंने,
''आइये" बोली वो,
वो उठी, और चली बाहर!
"वो उधर, देखिये?" बोली वो,
"ह..हाँ!" कहा मैंने,
"कुआँ है!" बोली वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"रस्सी भी है, पात्र भी!" बोली वो,
"जी, वो मैं कर लूंगा!" कहा मैंने,
"नहीं नहीं! आइये!" बोली वो,
और चल पड़ी आगे, कुआँ था वो, सामने एक केले के वृक्ष के पास, दीये लगे थे, उन्हीं का प्रकाश था वहां!
"आप वस्त्र ले आइये, जल मैं निकाले देती हूँ!" बोली वो,
"जी...धन्यवाद!" कहा मैंने,
और जाने को हुआ, तो पीछे से हंसने की सी आवाज़ आई! मैं रुका और देखा पीछे, वही हंस रही थी! न जाने क्यों मैं भी हंस गया! तब याद आया कि वस्त्र रखे कहाँ हैं? कौन सा कक्ष है वो?
"आइये" बोली वो,
"जी" कहा मैंने,
हम चले, थोड़ा सा ही, एक कक्ष पर, दीया जला था, नीचे, बाईं तरफ!
"ये है कक्ष!" बोली वो,
"जी, अब आप जा सकती हैं, मैं स्नान कर लूंगा!" कहा मैंने,
"हाँ, चलती हूँ" बोली वो,
मैं अंदर जाने को हुआ तो, फिर से रुकी वो! मैं भी!
"वो स्नान पश्चात, भोजन यहीं भिजवा दूँ?" बोली वो,
"ये ठीक रहेगा!" कहा मैंने,
"ठीक, आराम कीजिये, सुबह मिलना होगा!" बोली वो, और चली गई! मैं कक्ष में आ गया! यहां से वस्त्र लिए और चल पड़ा फिर से कुँए की तरफ! जल का प्रबंध कर ही दिया था उसने, तो आराम से नहाया! पानी भले ही थदना था, फुरफुरी सी चढ़ जाती थी, लेकिन आनंद आ गया स्नान करके! और तब, उसके बाद, मैं वापिस हुआ उस कक्ष तक!
जब लौट रहा था, तब एक आवाज़ से आई! जैसे, कहीं, हुलारा सा बज रहा हो! कहीं दूर! और ये, स्त्रियां ही थीं, वे ही जैसे, हुलारा गा रही थीं! मैं रुक गया था, आसपास तो कोई नहीं था, फिर क्या किसी गाँव से, किसी मंदिर से??
"आओ?" आई आवाज़,
मैं चौंका! ये काजल थी! केश सम्भालते हुए!
"हाँ!" कहा मैंने,
"हो गया स्नान?" पूछा उसने,
"हाँ!" कहा मैंने,
और तभी फिर से, हुलारा सा बजा! मैं रुका फिर से और तभी........................!!
"क्या हुआ?" पूछा उसने,
"श्ह्ह्ह्ह्ह्!" कहा मैंने,
और ज़रा गौर से अपने कान लगाए, कहीं कानों में पानी ही न बैठ गया हो, इसी कारण से, ऊँगली डाल, झनझना भी लिए थे, लेकिन वो हुलारा, बहती हुई हवा के साथ, बहता हुआ, कभी शोर से, कभी कम आवाज़ पर, लगातार सा बजे चला जा रहा था! खड़ताल से बजते थे और स्त्रियों का समूह गाने लगता था!
"कुछ....सुनाई दे रहा है काजल?" पूछा मैंने,
"क्या?" उसने पूछा,
"ध्यान से सुनो, शांत हो कर!" कहा मैंने,
उसने गौर से सुनना आरम्भ किया, आँखें बंद कर लीं अपनी!
कुछ पल! कुछ और पल और फिर.....
"हाँ, ये तो कोई रतजगा सा है?" बोली वो,
"हाँ, वही!" कहा मैंने,
"लेकिन यहां तो कुछ नहीं?" बोली वो,
"शायद किसी गाँव में?" कहा मैंने,
"हो सकता है!" कहा मैंने,
तभी सामने आया कोई, दो औरतें थीं, भोजन ले कर आई थीं! देखा जाए, तो कोई ज़्यादा समय नहीं हुआ था, नौ के आसपास ही रहा होगा, लेकिन यहां तो अंधकार ऐसा था की जब सुबह हो, तभी पता चले कि उजाला, इसको कहते हैं!
उन औरतों ने भोजन वहीँ रख दिया, जल-पात्र भी!
"सुनो?" एक से पूछा, काजल ने,
"हूँ?" बोली एक,
"कोई मंदिर आदि है इधर?'' पूछा गया,
"नहीं, यहीं है" बोली वो,
"किसी गाँव में?" पूछा उसने,
"नहीं" बोली वो,
"कोई मंदिर ही नहीं?" बोली वो,
"है" बोली वो,
"कहाँ?" पूछा उसने,
"दूर" कहा उसने,
"ये रतजगा चल रहा है उधर?" पूछा उसने,
"रोज चलता है" बोली वो,
"रोज?" अब मैंने देखा काजल को!
इतने में, वे दोनों औरतें, निकल चलीं बाहर!
"रोज?" बोली वो,
"होता होगा!" कहा मैंने,
"हाँ, हो सकता है!" बोली वो,
"हाँ, और क्या, आओ भोजन करें!" कहा मैंने,
"हाँ" बोली वो,
और हम दोनों वहीँ बैठ गए साथ ही, कपड़ा उठाकर देखा, तो एक सब्जी, चखकर देखी, तो ये कटहल था, बढ़िया बना हुआ! एक दाल, डाल, मसूर की, लहसुन का छौंक लगाया हुआ, साबुत ही लहसुन का! लेकिन स्वाद! पूछो ही मत! लहसुन, पुदीना, हरी मिर्च, धनिया आदि की पीसी हुई चटनी! पतली सी दही, शायद रायता रहा हो, उसमे, पुदीने के साबुत पत्ते और खट्टे-मीठे आम के टुकड़े! बड़ी बड़ी हरी मिर्चें, प्याज, टमाटर! अब ऐसा देसी खाना सामने हो, तो रुका किस से जाए! मैंने पहले तो रोटियां साफ़ कीं! फिर चावलों पर हाथ फेरा! पेट भर के खाया! जब भी निबटता, और आ जाता! पेट भर कर भोजन किया! गले से लेकर, पेट तक, पूरा ही भर लिया! चावल जल्दी पच जाते हैं, इसीलिए कोई तकलीफ भी नहीं होनी थी! खाना खाया और फिर आराम किया! भले ही पंखा नहीं था, लेकिन कक्ष में कोई गर्मी भी नहीं थी! और फिर, देह को तो जैसा ढालो, ढल ही जाती है, नहीं तो इस से आरामतलब, जीव, इस संसार में कोई नहीं! दिन भर के थके थे, लेटते ही नींद आ गई! और हम, फन्ना के सो गए!
सुबह, तड़के ही नींद खुल गई मेरी! मई उठा, खाँसा तो काजल ने भी आँखें खोल दीं! उठ बैठी वो, अंगड़ाइयां भरे!
"क्या बजा?" पूछा उसने,
"चार" कहा मैंने,
"बस?' बोली वो,
"हाँ" कहा मैंने,
"आप तो वैसे भी कम ही सोते हो!" बोली वो,
"हाँ, कुल छह घंटे!" कहा मैंने,
"पता है!" बोली वो,
"तुम सो जाओ, नहीं तो उंघोगी दिन भर!" कहा मैंने,
"अब नहीं, ना!" बोली वो,
"आओ फिर!" कहा मैंने,
"अभी तो अँधेरा है?" बोली वो,
"आओ तो सही?" कहा मैंने,
"आई" बोली वो,
और मैं चला बाहर, पानी लिया और हाथ-मुंह धो लिए! काजल आई तो उसके भी हाथ-मुंह धुलवा दिए! पोंछे हमने!
"अभी अँधेरा है!" बोली वो,
"हाँ" कहा मैंने,
"लेकिन सर्दी सी है!" बोली वो,
"खुला है न!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
"थोड़ा उजाला हो, तो घूमा जाए!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
"आओ फिर, अंदर ही चलें!" कहा मैंने,
"हाँ" कहा उसने,
और मैं चला आया अंदर, वो बाहर ही रही! वहीँ टहलती रही! मैंने अंदर आ कर, जूते पहन लिए, अपना फोन रखा जेब में, फोन में सिगनल बड़े ही कमज़ोर थे, तब मैंने उसको ऊपर वाली जेब में रखा! और तब आया बाहर!
कुछ पौने घंटे बाद कुछ उजाला सा होना शुरू हुआ! भोर के पक्षी, आ जुटे! और हुआ उनका मिलना-जुलना एक-दूसरे से! कोई कुछ बताता होगा और कोई कुछ! कोई हाँ में सर हिलाता होगा और कोई ना में!
"आओ!" कहा मैंने,
"हाँ, चलो!" बोली वो,
और उसको पकड़, मैं ले चला, सामने की ओर, यहां कुछ खुला सा क्षेत्र था, सुलना और ढकोली के जंगली से पेड़ लगे थे, पीले से पत्तों वाले!
हम आगे चले, सन्नाटा पसरा था उस जगह अभी! अगर पक्षी अपनी चहचहाहट से उस जगह को नहीं सजीव बना रहे होते, तो किसी अत्यन्त ही, वृद्ध चित्रकार की सी कृति का अंश रहा होता यह! ऐसा नहीं है की ये स्थान निर्जीवता को थामे खड़ा था, हाँ, कुछ हद तक तो, कहा ही जा सकता है, लेकिन कई मायनों में ये स्थान, कुछ सजीव सा भी प्रतीत होता था! वहाँ कुछ दीवारों पर, आले से बने थे, आलों के कारण, वो जगह, काली पड़ने लगी थी, ये दीया आदि रखने के लिए प्रयोग होते होंगे!
"ये तुलसी है?" उसने पत्ता तोड़ते हुए पूछा एक तुलसी जैसे पौधे का!
"नहीं, ये गोहना है!" कहा मैंने,
"ये क्या होता है?" उसने हाथ साफ़ करते हुए पूछा,
"जंगली तुलसी, गंधरहित!" कहा मैंने,
"ये किसलिए लगाई है?'' पूछा उसने,
"इसका गंधहीन तेल, मक्खी-मच्छर दूर रखता है!" कहा मैंने,
"ओ, अच्छा!" बोली वो,
"हाँ, आओ, सामने चलते हैं!" कहा मैंने,
"चलो!" बोली वो,
और हम चले सामने तब, खुली सी जगह थी ये! जंगली पेड़ लगे थे, उन पर, जंगली फल भी लगे थे, पीले पीले से! कोई पक्षी नहीं खा रहा था उन्हें तो मतलब, वे खाने लायक भी नहीं थे!
"इसका फल कैसा है?" बोली वो,
"हाँ, कदम्ब की तरह!" बोला मैं,
"गंध में तो, आंवले जैसा है!" बोली वो,
"कोई द्रव्य होगा, क्षार!" कहा मैंने,
"हाँ, यही है!" कहा उसने,
"वो देखो!" कहा मैंने,
"ओह! इतना बड़ा छत्ता!" बोली वो,
"हाँ, और ये डेरे वाले ही, निकाल लेंगे शहद इसका!" कहा मैंने,
"हाँ, ये तो है!" बोली वो,
"आओ, हटें यहां से!" कहा मैंने,
"हाँ, चलो" बोली वो,
सामने एक पतली सी जलधारा बह रही थी, शायद नदी अब सिमट कर इस रूप में आ गई थी!
"वहां चलते हैं!" बोली वो,
"चलो" कहा मैंने,
हम जा पहुंचे वहां! बड़ी ही सुंदर सी जगह थी! नीद के आसपास, अब सूख चुके पेड़-पौधे पड़े थे, नए हरे पौधे, निकल चुके थे, नदी के तल में, कुछ अजीब से ही पौधे निकल कर बाहर आ चुके थे!
"वो मछलियां!" बोली वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"कितनी सारी!" बोली वो, चहक कर!
"हाँ!" कहा मैंने,
"बेचारी!" बोली वो,
"क्यों?" पूछा मैंने,
"खा ली जाएंगी, छुटपन में ही!" बोली वो,
"और जो बचेंगी, वे ही तो आगे और पैदा करेंगी! यही तो चक्र है! सभी बच जाएंगीं तो सभी को भोजन कैसे मिलेगा, कमज़ोर, रोगी होंगी, और इस तरह, विलुप्त हो जाएंगी!" कहा मैंने,
''हाँ, यही तो नियम है!" बोली वो,
"हाँ, लो, शिकारी भी आ गए इनके!" कहा मैंने,
और तब, जल-पक्षी अपने अपने घरौंदों से निकल कर, रोज की अपनी दिनचर्या पर लौट आये थे! मछलियां फुदकतीं, और धरी जातीं! पक्षी, गले में बनी थैली में, अपने बच्चों के लिए इकठ्ठा करने लगे थे उन्हें!
"आओ!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
और वो, उठते ही रुकी!
"वो देखो!" बोली वो,
सामने देखा मैंने, एक पहाड़ी! पहाड़ी पर बना एक सफेद सा मंदिर! दूर था, हालांकि, लेकिन रहा होगा बड़ा ही!
"शालोम!" कहा मैंने,
"शालोम, शायद इस पहाड़ी का नाम होगा!" बोली वो,
"हो सकता है, या कोई गाँव?" कहा मैंने,
"दीख तो नहीं रहा कोई गाँव?" बोली वो,
"शायद, पीछे हो?" कहा मैंने,
"ये हो सकता है!" बोली वो,
"आओ, बैठते हैं!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
एक साफ़ सी जगह मिली और हम बैठ गए उधर!
"जगह तो शानदार है!" कहा मैंने,
"हाँ, शांतिदायक!" बोली वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"ये जो लोना है?" बोली वो,
लोना! सहसा ही मेरा ध्यान उस पर जा लगा!
"हाँ?" कहा मैंने,
"क्या वो जानती होगी उस साधिका को?" पूछा उसने,
"अभी पता नहीं!" कहा मैंने,
"शायद" बोली वो,
"शायद, जानती ही हो!" कहा मैंने,
"लगता तो यही है!" कहा उसने,
"बात करेंगे उस से!" कहा मैंने,
"हाँ" बोली वो, सर हिलाते हुए,
"वैसे लोना विशेष ही है!" कहा मैंने,
"कैसे?" पूछा उसने,
"जानती तो हो?" बोला मैं,
"हम्म्म!" बोली वो,
"मेरा ध्यान अभी अभी वहीँ जा लगा है!" कहा मैंने,
"जानती हूँ!" बोली वो,
"पता नहीं क्यों?" कहा मैंने,
"क्यों?" पूछा उसने,
"पता नहीं क्या!" कहा मैंने,
"समझ सकती हूँ" बोली वो,
"इस लोना में कुछ अलग ही आकर्षण सा है, दैहिक तो है ही, लेकिन कुछ और भी!" कहा मैंने,
"क्या जैसे?'' पूछा उसने,
"जैसे, वो अपने आप में अकेली नहीं है!" कहा मैंने,
"खूब! सही कहा आपने!" बोली वो,
"जैसे कोई अंजान सी, अदृश्य, शक्ति, उसके आसपास, उपस्थित है!" कहा मैंने,
"मुझे तो ऐसा नहीं लगता?' बोली वो,
"फिर कहा क्यों कि खूब?" पूछा मैंने,
"आपके भाव को जानकर!" बोली वो,
"नहीं, जो है, मैंने बताया!" कहा मैंने,
"आपने भांपा होगा?" बोली वो,
"हाँ, कल ही" कहा मैंने,
"ठीक है, मैं भी प्रयास करूंगी!" बोली वो,
"अवश्य ही!" कहा मैंने,
कुछ दूर ही, छोटी छोटी सी गायें, लेकिन लम्बे सींगों वाली, गुजर रही थी, घास मिलती, तो चर लेतीं, कोई कमी न थी घास की वहाँ, इसीलिए, जहाँ अच्छी घास होती, वहीँ चरतीं वो! फिर दो पुरुष भी गुजरे, सर ढके हुए थे उन्होंने, वे बातें भी न कर रहे थे, बस उन गायों के साथ ही साथ, चले जा रहे थे!
इधर, पेड़ पर, कुछ पक्षी आ बैठे थे, अजीब सी आवाज़ें करते हुए, कभी कभी तो लगता, कि शायद धनेश पक्षी आ गए हों! बेहद ही सुंदर पक्षी होता है धनेश! चौड़ी, लम्बी चोंच, माथे और, जैसे ढाल, बख्तरबंद सा, मज़बूत से पाँव और उस चोंच में, बड़े बड़े से फलों को तोड़ कर खाते देखना, बहुत ही अच्छा लगता है! अंजीर खाता है, और यही तो वाहक भी हैं इन अंजीरों के बीजों के! प्रकृति ने, कितनी समझ-बूझ के साथ अपनी एक एक कृति को, दूसरी कृति से जोड़ते हुए गढ़ा है, ये तो देखते ही बनता है! इसी प्रकृति में, इन्हीं नगण्य से जीवों ने ही, प्रकृति-चक्र का बोध कराया था भगवान बुद्ध को! उन्होंने देखा, किसान ने हल से खेत जोता, जोतने से, कृमि बाहर आया, एक बड़े कृमि ने उसके खाया और उस बड़े कृमि को एक पक्षी ने! कितना सरल, लेकिन कितना जटिल भी! खैर, वे पक्षी, अपने अपने गीतों में मग्न थे! और दो बड़े कृमि, नीचे! हम! आपस में बातें करते जा रहे थे!
कुछ समय बीता, कि सूर्यदेव ने, मुखड़ा दिखाया अपना, क्षितिज से! वो डेरा, वैसे डेरा नहीं कहूंगा उसे, बसेरा ही ठीक, अक्सर, गाँव के लोग ही, पूजा-पाठ कराने, मन्नत पूरी होने पर, जिमाने, भोग चढ़ाने आदि आ जाते हैं, शाक-सब्जी, दाल-चावल, अन्न आदि, मिल ही जाता है! हम भी, लौटते वक्त, जो बन पड़ता है, दे ही आते हैं! ये सही भी रहता है! आगे का मार्ग, खुल जाता है!
लेकिन ये लोना ऐसी नहीं थी! न तो ये पुजारिन ही थी, न, कुलेड़ी(जो समस्त देख रख किया करती है, किसी देव-स्थल या देवी-स्थल की) ही, न उसका पहनावा भी ऐसा था! हालांकि, श्रृंगार के नाम पर, कुछ नहीं धारण कर रखा था, उसका तन ही उसका सम्पूर्ण श्रृंगार था! ये विचार, बार बार आता था मेरे मन में, कि आखिर, ये लोना, है कौन?
तो जी, सारथि अरुण ने, अश्वों को लगाई ऐड़ और अश्व चले आगे, सम्भाला अपना सिंहासन सूर्यदेव ने!
"आओ, चलें!" कहा मैंने,
"हाँ" बोली वो,
"स्नानादि से निबट लें!" कहा मैंने,
"हाँ" बोली वो,
और हम आ गए वापिस, उधर जब आये, तो कुछ पुरुष दिखे! कल शाम के बाद, जो पुरुष देखे, वो ये ही थी, सभी ने हाथ जोड़, नमस्कार की! हमने भी की! सभी अपने अपने कामों में लग गए थे! स्त्री भी, पुरुष भी, और तब मैंने दक्षिण की तरफ देखा, वहाँ बाढ़ लगी थी, इसका अर्थ था, सरकारी अधिग्रहण हो चला था, अब शायद ही ये बसेरा रहे! या तो कोई जीर्णोद्धार करवाए इसका, कोई सम्पन्न इसका पुनःनिर्माण करवाए नहीं तो, ये बसेरा, ये पुराना सा स्थल अधिक दिनों तक शेष नहीं रहने वाला था! हालांकि, अधिग्रहण वाली भूमि अभी दूर ही थी, और कब काम शुरू हो, पता नहीं था, लेकिन जब यहां तक हो गया, तो आगे कब हो जाए, कुछ नहीं पता!
तो हम स्नानादि से फारिग हो लिए! और अपने कक्ष में लौट आये, चाय मिलेगी, उम्मीद तो न थी, शायद ही कोई पीता हो उधर! लेकिन ऐसा हुआ नहीं, हमें बाक़ायदा चाय मिली! वो अलग बात की छनी हुई नहीं थी, और मीठा भी कुछ ज़्यादा ही था! साथ में कुछ नहीं, बस, चाय ही, अब चाहे और ले लो! पेट भर लो! तो हमसे आधा आधा ही पी गई! उसके बाद, कुछ देर आराम किया!
दिन में कोई दस बजे करीब, बाहर कोई ट्रक के से रुकने की आवाज़ आई, मैंने उठ कर देखा, तो ये ट्रक नहीं था, कोई आदमी था, लकड़ियां ले कर आया था, शायद सोनू ने ही भेजा हो, ऐसा मेरा सोचना था!
"पता करो?" बोली वो,
"अब पता नहीं है कहाँ?" कहा मैंने,
"पता करूं?" बोली वो,
"कर लो?" कहा मैंने,
"अभी आई, ठहरो!" बोली वो,
मैं वहीँ खड़ा था, खड़ा रहा! जितनी जल्दी बात हो, आगे बढ़ा जाए, यहां तो न दिन का पता और न रात का, घंटा भी पूरा दिन सा ही लगे था! वो दस मिनट तक नहीं लौटी, तो मैं कमरे में आ गया! कुछ ही मिनट के बाद, वो भी आ गई!
"चले जाना अभी!" बोली वो,
"इतनी देर कैसे लगी?" पूछा मैंने,
"कुछ बातें चल रही थीं!" बोली वो,
"किस से?" पूछा मैंने,
"लोना से ही!" बोली वो,
"कहाँ है वो?" पूछा मैंने,
"अभी तो मिल रही है किसी से" बोली वो,
''अच्छा" कहा मैंने,
"गाँव-देहात से कुछ आदमी आये हैं" बोली वो,
"होगा कोई काम!" कहा मैंने,
"हाँ, और क्या!" बोली वो,
"ठीक है, मैं कब जाऊं?" पूछा मैंने,
'आधे घंटे बाद तक!" बोली वो,
"ठीक!" कहा मैंने,
तो आधे घंटे को जैसे तैसे, अकड़-पकड़, धक्का दिया! बीता आधा घंटा और फिर मैं चल पड़ा उस लोना से मिलने! अब तक काफी चहल-पहल बढ़ चुकी थी वहां, कुछ लोग लकड़ियां उतारने में लगे थे, कुछ इकठ्ठा करने में और कुछ लोग, उन्हें ढोने में! पर जो लोग मिलने आये थे, वे भी अब लौट रहे थे, कुछ औरतें थीं और कुछ मर्द भी! ख़ुशी से भरे चेहरे थे उनके, पक्का था, लोना न कोई आश्वासन दिया था उन्हें! वहाँ अब लोना नहीं थी, तो मैंने एक लड़की से ही पूछा, तो उसने बता दिया मुझे, अब तक सभी को शायद खबर हो चुकी थी, कि बाबा जगनाथ और लाल बाबा ने हमें भेजा था वहां! वैसे ये अभी तक, केवल मेरा ही अंदाजा था! शायद यही व्यवहार रहता हो उनका और नए आये लोगों के साथ! वो ही जानें!
तो मैं चल पड़ा आगे, लोना से मिलने, रात में और अब में, माहौल और स्थान जैसे बदल चुके थे, जो जगह मुझे कल सीधी और सरल सी लगी थी, अभी वो, मुझे एकदम अंजान और अलग सी लग रही थी!
खैर, एक से और पूछा और तब मुझे लोना का कक्ष मिल गया! बाहर ही एक औरत खड़ी थी, लोना उसी से बातें कर रही थी, उस औरत के हाथों में कुछ रुपये थे, ये देखा था मैंने, मैं जब वहां गया, तो वो औरत, चल पड़ी नीचे उतरने के लिए, सिर्फ दो ही सीढ़ियां थीं वहाँ, वो उतरी, मैंने इंतज़ार किया और चढ़ा उप्र, जूते उतारने के लिए झुका, उस बड़ी सी चौखट पर, लोना ही खड़ी थी! मैंने जूते उतार दिए और चला अब अंदर की तरफ!
"नमस्कार!" कहा मैंने,
"नमस्कार!" बोली वो,
बड़ी ही कड़क सी आवाज़ थी लोना की!
"आइये!" कहा उसने,
"जी" बोला मैं,
और चला अंदर उसके साथ, अंदर वही दरी पड़ी थीं, उन पर ही बिठाया गया मुझे, कक्ष में, एक कोने में, एक तिकोनी सी हौदी सी बनी थी, ज़्यादा बड़ी नहीं थी, लेकिन उसमे, धूपदान रखा था और चार अगरबत्तियां सुलग रही थीं! कक्ष में, चंदन की सी महक फैली थी! भीनी भीनी सी!
"रात आराम से सोये या नहीं?" उसने तपाक से पूछा,
मैं तो हड़बड़ा सा ही गया! अमूमन ऐसे सवाल कोई ख़ास या करीबी ही पूछा करता है! उसने इस तरह से पूछ कि मैं चौंक ही पड़ा था!
"ह....हाँ...ठीक!" कहा मैंने,
"कल तो थक भी गए होंगे, सफर लम्बा है यहां तक का!" बोली वो,
"हाँ, थकावट तो हो ही गई थी!" कहा मैंने,
"अभी यहां गर्मी नहीं, वैसे कम ही पड़ती है!" बोली वो,
"हाँ, आज सुबह तो, ठंडक सी थी!" कहा मैंने,
"हाँ, ऐसी ही सुबह होती हैं यहां!" बोली वो,
"ये तो अच्छा है, बस, अँधेरा रहता है शाम को!" कहा मैंने,
बोलना था रात को, बोल गया शाम को!
"हाँ, अब शायद ये बसेरा कहीं और ही चला जाए!" बोली वो,
"वो कहाँ?" पूछा मैंने,
"शालोम!" बोली वो,
"शालोम?" कहा मैंने,
"हाँ, शालोम!" बोली वो,
''वो पहाड़ी?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोली वो,
क्या? वो पहाड़ी शालोम नहीं?
"मैं तो समझ रहा था कि शालोम उस पहाड़ी का नाम है?" बोला मैं,
"नहीं!" बोली वो,
"तो फिर?" पूछा मैंने,
"शालोम एक गाँव है!" बोली वो,
"गाँव? यहीं आसपास?" पूछा मैंने,
"हाँ, आसपास!" बोली वो,
"उसी पहाड़ी में कहीं?" पूछा मैंने,
"नहीं" वो बोली,
"फिर?" पूछा मैंने,
"उस से थोड़ा सा आगे!" बोली वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
"तो कुछ पूछ सकता हूँ?" पूछा मैंने,
"इसीलिए तो आये हो? है या नहीं?" बोलते बोलते हंसी वो, होंठ बंद कर! मैं तो उस कामुक चेहरे को देख ही न सका, फेर लिया मुंह! किसी के बस में हों, मेरे बस में नहीं, हाथ और पांवों से चप्पू चलाना, वो भी एक साथ!
"है न?" पूछा उसने,
"हाँ, इसीलिए!" कहा मैंने!
''अब आपका पहला सवाल ये कि मैं कौन हूँ? है न?" बोली वो,
कमाल था! कैसी स्त्री है ये? क्या कहूं इसे! ठीक यही तो सवाल था कि आप कौन हो! मेरे पूछने से पहले ही सवाल, सीधा बाहर ही खड़ा कर दिया!
"हाँ! यही सवाल!" बोला मैं,
"मेरा नाम लोना है, आप जान गए होंगे, मैं बाबा जगनाथ की रिश्तेदार हूँ, पितृ-पक्ष से!
लोना और रिश्तेदार? बाबा जगनाथ के पितृ-पक्ष से? बड़ा ही लम्बा रिश्ता होगा फिर तो!
"ये मुझे बाबा ने नहीं बताया?" कहा मैंने,
"आपको आना था, तो सोचा होगा कि पता चल ही जाएगा!" बोली वो,
"हाँ, ये भी ठीक!" कहा मैंने,
"अब सवाल ये, कि मैं यहां क्या कर रही हूँ?" पूछा उसने,
"ह...हाँ!" कहा मैंने,
"तो मैं यहां नहीं निवास करती!" बोली वो,
"तो फिर कहाँ?" पूछा मैंने,
"ये भी जान जाओगे!" बोली वो,
'फिर भी?" पूछा मैंने,
"रक्सौल के समीप!" बोली वो,
"ओ, अच्छा!" कहा मैंने,
"तो अब सवाल, मैं यहां क्या कर रही हूँ?" पूछा उसने,
"जी यही!" कहा मैंने,
"तो उत्तर ये, कि ये बसेरा भी मेरी एक बहन का है, बड़ी बहन! वो हैं नहीं यहां, और मुझे वहां काम नहीं, तो यहां चली आई हूँ!" बोली वो,
"समझा! अब मैं पूछूं?" कहा मैंने,
वो हंसी फिर से! उसी तरह! मैंने फिर से मुंह फेरा अपना!
"पूछिए!" बोली वो,
"जी!" कहा मैंने,
"मैं पूछ रहा था कि इस साधिका, यामिनि का, आखिर सत्य क्या है?" पूछा मैंने,
"कैसा सत्य?" पूछा उसने,
"यही कि वो षकदूल विद्या की जानकार है?'' पूछा मैंने,
"हाँ, है!" बोली वो,
"और क्या ये त्रिखंड-विद्या, वही है, जो मुझे बताई गई है?" पूछा मैंने,
"हाँ, वही है!" बोली वो,
"तीनों ही कालों में विचरण?" कहा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
"संज्ञान सहित?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
"आश्चर्य!" कहा मैंने,
"क्यों?" बोली वो!
"सम्भवतः कोई और हो उस जैसा!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
"वो विरली ही है!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
"यही तो है आश्चर्य!" कहा मैंने,
"नहीं!" बोली वो,
"क्यों?" पूछा मैंने,
"उसकी ये विद्या, अभी पूर्ण नहीं!" बोली वो,
"हैं? क्या मतलब?" पूछा मैंने,
"हाँ, अभी सतत क्रियारत है!" बोली वो,
"चलो, मान लिया!" कहा मैंने,
"क्या?" बोली वो,
"कि वो अभी क्रियारत है!" कहा मैंने,
''फिर?" बोली वो,
"कभी न कभी तो पूर्ण करेगी ही?" कहा मैंने,
"हाँ?" बोली वो,
"तब?" कहा मैंने,
"तब क्या?" पूछा उसने,
"आश्चर्य!" कहा मैंने,
"मान लेते हैं!" बोली वो,
"मानना ही चाहिए!" कहा मैंने,
"आगे कहिये?'' बोली वो,
"क्या, वो साधिका, इस विषय में, कुछ बता सकती है?" पूछा मैंने,
''असम्भव!" बोली वो,
"क्यों?" पूछा मैंने अचरज से!
"प्रयास भी नहीं कर सकता कोई?" बोली वो,
"कैसा प्रयास?" पूछा मैंने,
"उस से मिलने का!" बोली वो,
"ऐसा है क्या?" पूछा मैंने,
"हाँ" बोली वो,
बड़ी ही हैरत में डालने वाली बात कही लोना ने तो! भला वो क्यों नहीं मिलेगी? कौन उसे आहत करेगा? किसकी क्या मज़ाल?
"क्या आपने देखा है उसे?" पूछा मैंने,
"एक बार" बोली वो,
"कब?" पूछा मैंने,
"कोई आठ माह पहले" बोली वो,
"कहाँ?" पूछा मैंने,
"शालोम में!" बोली वो,
"आपका आना-जाना है वहां?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"तब तो आप मदद करेंगी!" कहा मैंने,
"यथासम्भव!" बोली वो,
"इतना ही काफी है!" कहा मैंने,
"और यदि......यदि....?" बोलते बोलते रुकी वो,
"वो मुझ पर छोडिए!" कहा मैंने,
"ऐसा विश्वास?" बोली वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"अच्छी बात है!" बोली वो,
"है न?" पूछा मैंने,
"क्या?" बोली वो,
"आश्चर्य!" कहा मैंने,
अब वो हंसी! और उस बार, होंठ खुल गए उसके! मादकता छलक पड़ी! मैंने अपने पाँव उचका दिए, कहीं छू ही न जाऊं! कहीं छू गया तो बड़ी मुसीबत होगी!
"हाँ, है आश्चर्य!" बोली हँसते हँसते वो!
"एक बात और?" पूछा मैंने,
"हाँ?" बोली वो,
"मेरी मुलाक़ात उस से कब सम्भव है?" पूछा मैंने,
"जब चाहो!" बोली वो,
"क्या?" मैंने हैरानी से पूछा!
"हाँ? जब चाहो!" बोली वो,
''और जो आपने, अभी कहा?" कहा मैंने,
"क्या?" बोली वो,
"प्रयास?" बोला मैं,
"मैंने कहा? कब?" बोली वो,
"अभी तो?" कहा मैंने,
"मुझे तो याद नहीं?" बोली वो,
"क्या?" पूछा मैंने,
"हाँ?" बोली वो,
"लगता है, बाद में आऊं, तो अच्छा है!" कहा मैंने,
"नहीं!" बोली वो,
"तब बताओ?" कहा मैंने,
"सुनो!" हुई वो गम्भीर अब!
"हाँ?" कहा मैंने,
"प्रयास करोगे तो पछताओगे!" बोली वो,
"पछताऊंगा?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
"क्यों?" पूछा मैंने,
"उम्र ही न बीत जाए!" बोली वो,
"तब?" पूछा मैंने,
"छीनना होगा हमें!" बोली वो,
मेरे जिस्म में जैसे बर्फ सी टूटी!
"हमें?" कहा मैंने,
"हाँ! हमें!" बोली वो,
"और छीनना क्या?" पूछा मैंने,
"समय!" बोली वो,
अजब सी पहेली! बुझाए भी वो वही, सुझाए भी वो ही!
"कैसा समय?" पूछा मैंने,
"उसका समय!" बोली वो,
"उसका समय? समझा नहीं?" कहा मैंने,
''समय कम है उसके पास!" बोली वो,
"समय कम है? इसका क्या अर्थ?" पूछा मैंने,
"समझ आ जाएगा!" बोली वो,
मैं हंसा, हल्का सा, सुनकर, उसका समझ शब्द सुनकर! चाहता तो न समझना था, लेकिन, उसकी समझ से समझना, समझ ही थी!
"हाँ, कैसी समझ?" बोला मैं,
वो झुंझलाई! सर हिलाया और.............................!!
