वर्ष २०१४, मन्दालवे...
 
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वर्ष २०१४, मन्दालवेणि! प्रतीक्षा? प्रेम?

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श्रीशः उपदंडक
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"कुछ भी असम्भव तो नहीं?" बोली वो,
"आपके लिए! संभवतः!" बोले वो,
"आप एक बार कहो तो सही?" बोली वो,
"मार्ग छोड़ दो मेरा!" बोले वो,
"क्यों?" पूछा उसने,
"उत्तर सुनना बार बार कैसा लगता है?" पूछा उन्होंने,
"कहूँ कि पुनःश्च!" बोली वो,
"उत्तर समान ही रहगे!" बोले वो,
"मार्ग नहीं दूँ तो?" बोली वो,
"मैं स्वतः ले लूंगा!" बोले वो,
"इसे दुःसाहस कहूँ?" बोली वो,
"कुछ भी!" बोले वो,
"इसीलिए आप मेरे हुए!" बोली वो,
"पवन को बुलाकर, बहाया नहीं जा सकता! जल को रोका नहीं जा सकता!" बोले वो,
"मेरे लिए सम्भव है!" बोली वो,
"तभी कह रहा हूँ, अपने लोक, लौट जाओ!" बोले वो,
"उसे भुला दो!" बोली वो,
"नहीं!" बोले वो!
"अम्भ?" पूछा उसने,
"कहो!" बोले वो,
"मुझे प्रेम प्रतीत होता है!" बोली वो,
"मुझे नहीं!" बोले वो,
"क्यों?" पूछा उसने,
"प्रेम में अधिकार नहीं, वर्चस्व नहीं, समपर्ण होता है!" बोले वो,
"निःसन्देह!" बोली वो, और काँधे से चिपक गयी उनके!
"मुझे मार्ग दीजिये! ताकि मैं, अपना कर्तव्य निबाह कर सकूँ!" बोले वो,
"और कोई कर्त्तव्य नहीं?" पूछा उसने,
"इस से बड़ा तो कोई नहीं!" बोले वो,
"अम्भ!" बोली वो, और छिटक कर अलग जा खड़ी हुई!
"मैं नहीं होउंगी मुक्त!" बोली वो,
"जैसी इच्छा!" और ये बोल, कल पड़े, दूर, अपने साथियों की और!
"अम्भ? अम्भ? अम्भ?" न जाने कितनी बार वो, चिल्लाती रही! पर साहस न जुटा पायी  उनके सम्मुख आने की! वे मुड़े, और उस सौर-कुंड को प्रणाम किया! गर्दन मोदी, और चल पड़े आगे के लिए! सहसा, एक क्रंदन सा उठा! कि चीख कर रोया! वे जानते थे, मुस्कुराये, और अपने अश्व तक आ गए! चढ़े, क्रंदन अभी तक था! एड़ लगाई अश्व मुड़ा और चल पड़ा वापिस! क्रंदन, आता रहा!
"मेरा कर्तव्य पूर्ण हुआ! जाओ मन्दालवेणि! तुम आज़ाद हुईं!" बोले वो,
और दौड़ा दिया अपना अश्व ने संकेत समझ लिया! और लौट पड़ा! एक और क्रंदन! अश्व न रुक, और निकला उनके मुख से एक शब्द!
"प्रेम!" मुस्कुराये और उनके साथियों के अश्वों के खुरों की आवाज़ आयी! पकड़ी गति और हो गए वहाँ से ओझल!
सन्नाटा छा गया उधर! बाबा बैठ गए! मैं चुप्पी लगाए उस गाथा में गोते लगाता रहा!
"बाबा?" पूछा मैंने,
"हूँ?" बोले वो,
''फिर?" पूछा मैंने,
"फिर क्या प्रेम?" पूछा उन्होंने!
"प्रेम? प्रेम तो कहीं नहीं?" कहा मैंने,
"हाँ! कहीं नहीं!" बोले वो,
"हाँ, कहीं नहीं?" कहा मैंने,
"लेकिन था!" बोले वो,
"था?" पूछा मैंने,
"हाँ, था!" बोले वो,
"किसके?" पूछा मैंने,
"मन्दाल के विचार से क्या लगता है?" बोले वो,
"वो प्रेम नहीं, कामावेश रहा होगा!" कहा मैंने,
"इसकी जांच?" बोले वो,
"कैसी जांच?" पूछा मैंने,
"कि ये प्रेम ही है?" बोले वो,
"मुझे लगता है, कि हाँ, कहीं तो था प्यार! न था, तो उपजा होगा!" बोले शहरयार!
"कैसे?' पूछा मैंने,
"कोई तपी, पर-स्त्री को हाथ क्यों लगाएगा?" बोले वो,
"ये तो कोई तुक नहीं?" बोला मैं,
"है!" बोले वो,
''नहीं!" कहा मैंने,
"हाँ!" अब बोले बाबा,
"हाँ!" बोला मैं!
"हाँ!" बोले वो,
"कब? कहाँ?" पूछा मैंने,
"यही तो देखोगे आप!" बोले वो,
"अभी?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
"इसी समय?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
मैं उठ खड़ा हुआ!
कुछ पल आगे बढ़े...और तभी.कुछ....!!

 


   
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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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"बाबा?" कहा मैंने,
"कहो?" बोले वो,
"ये कैसा प्रेम?" पूछा मैंने,
"अद्वितीय!" बोले वो,
"कैसे मानूँ?" पूछा मैंने,
"यही प्रश्न तो किया था मन्दाल से बाबा अम्भ ने!" कहा उन्होंने,
"प्रश्न? कब ही किया?" पूछा मैंने,
"जब, उनकी गोद में आ पड़ी थी वो, नेत्र बन्द कर!" बोले वो,
"तब प्रश्न हुआ था?" पूछा मैंने,
"क्या मुख से, नेत्रों से ही प्रश्न किये जाते हैं?" बोले वो,
मैं सकते में पड़ा! अपनी मूढ़ता का ज्वलन्त उदाहरण दिया था मैंने, अभी ये प्रश्न कर! सच ही कहा बाबा ने, क्या प्रश्न मुख से या नेत्रों से ही किये जाते हैं? नहीं वे स्पर्श से, गन्ध से भी किया जा सकते हैं! जितना स्पार्शय कम होगा, प्रश्न उतना ही आधी गाढ़ा और क्लिष्ट होगा! नोंक से नोक! यही! यही आशय था उनका!
"नहीं बाबा! नहीं अन्य माध्यमों से भी प्रश्न किये जाते हैं!" कहा मैंने,
"सुनो! भाव से अभिव्यक्ति झलकती हे, अभिव्यक्ति वो अश्व है, जिसके लगाम छोटी होते है, भिन्न भिन्न प्रकार के उत्तर उसमे पिरोये जाते हैं, जैसे कि त्वरित, समय लेने वाले, स्वयं से जूझने वाले! ये आपकी योग्यता है कि आप किसे पकड़ते हो, रूप सब एक जैसा, मापन, सभी एक जैसा! एक से नकेल क्सेग़. अश्व दौड़ भागेगा, एक से, संकेत मिलेगा, मुड़ जाएगा, एक से उठान मिलेगा, अश्व उठ जाएगा, एक से ठहराव मिलेगा, ठहर जाएगा अश्व! बताओ, अश्व क्या है इसमें?" पूछा उन्होंने,
"प्रेम! मैं समझ गया!" कहा मैंने,
"उनका वो वार्तालाप, समय-वाहन था, दोनों तरफ से ही! बोली मात्र बने रहने को थी उस क्षण को थामने के लिए, प्रश्न तो अलग से ही हो रहे थे!'' बोले वो,
"हाँ! समझ गया!" बोला मैं,
"मुझे मार्ग दो, अर्थात, समय दो!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"नहीं, अर्थात, मुझे बताओ, कितना?" बोले वो,
"हाँ, सही कहा!" बोला मैं,
''तुम दम्भी हो! अर्थात, त्वरित निर्णय क्यों नहीं लेते!" बोले वो,
"हाँ बाबा!" कहा मैंने,
"दम्भी प्रतीत होते हो, अर्थात अपने प्रश्नों में ही फंसे हो!" बोले वो,
"क्रंदन! अर्थात, अब कैसे बन पाएगी! कैसे रह पाऊंगी!" बोले वो,
"हाँ, पीछे मुड़कर, न देखना, अर्थात मेरा ध्यान बना हुआ है!" बोले वो,
"हाँ! साँच को क्या आंच! जल को कौन उबलता ही रहने दे! पल में गर्म और पल में फिर से शीतल!" बोले वो,
"यथा ही, प्रेम!" कहा मैंने,
"हाँ, एक और क्लिष्ट स्थिति थी!" बोले वो,
"क्या बाबा?" पूछा मैंने,
"सन्तान-लाभ न होता!: बोले वो,
मैंने जैसे एक ज़ोरदार सा तमाचा खाया अपने मुख पर! मुझे जैसे सैंकड़ों तारे नज़र आ गए! ये मैंने क्यों नहीं सोचा? क्या बाबा अम्भ द्वारा वो सशक्त वंश-बेल काट दी गयी? चूँकि, बाबा अम्भ के बाद पुनः कोई नहीं! मुझे, चक्कर ही आने लगे उस क्षण! अब कुछ कुछ समझ आने लगा मुझे! मैं गम्भीर हो उठा, जी या अपनी मूर्खता पर रोऊँ! एक एक को जाकर बताऊं कि क्या मुझ से बड़ा मूढ़ है कोई इस से से कोई? मैं झुकता चला गया! जब तक बैठ नहीं गया!
"क्या अब समझे, बाबा त्रिनेत्री का प्रपंच?" बोले वो,
"हाँ बाबा, सब समझ गया!" बोला मैं,
"कोई होगा उनसे अधिक चतुर?" पूछा उन्होंने,
"नहीं!" कहा मैंने,
"क्या ये सब योजना नहीं?" बोले वो,
"हाँ, है!" कहा मैंने,
"कौन विजयी रहा?" पूछा उन्होंने,
"बाबा त्रिनेत्री!" कहा मैंने,
"मैंने बताया था, बाबा त्रिनेत्री का अंतःनेत्र खुला था, उनका एक एक कदम, आगे आगे और आगे समय में पड़ता था! वे बाबा समिध से तो न जीत सकते थे! परन्ति जीत का पुरूस्कार,उन्हें ही मिलना था, और वो घड़ी जिसकी वो प्रतीक्षा कर रहे थे, आ ही रही है!" बोले वो,
"अब सब समझ आ गया!" कहा मैंने,
"क्या?" पूछा मैंने,
"स्पर्धा!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
"क्या बाबा त्रिनेत्री और इस मन्दाल के बीच कुछ था?" बोले वो,
"हाँ, था!" बोला मैं,
"भला क्या?" पूछा उन्होंने,
""मुक्ति का प्रश्न!" बोला मैं,
"किसकी मुक्ति?" पूछा उन्होनें
"मन्दाल की!" कहा मैंने,
"कौन जीता?" बोले वो,
"बाबा अम्भ!" कहा मैंने,
"हाँ! हाँ! आशय समझ गए आप!" बोले वो,
"तो बाबा ने क्यों कहा, कि तुम मुक्त हो गयी हो?" बोला मैं,
"चेतावनी!" बोले वो,
"कैसी?" बोले वो,
"मुक्ति अभी कुंड से हुई! यदि, सौर-कुंड नष्ट हुआ, तो रूप-कुंड कदापि न होगा, चूँकि, वो मार्ग है, लम्भाष और और समिध का!" बोला मैं,
"हाँ!" बोले वो,
"तो बाबा त्रिनेत्री कहाँ हैं?" पूछा उन्होंने,
"सौर-कुंड में!" कहा मैंने,
"बहुत अच्छा!" बोले वो,
चुप्पी पसर गयी!
"बाबा केमिक का क्या औचित्य?" पूछा उन्होंने,
"मार्ग उन्होंने ही सींच वो! उन कुंडो के मध्य!" बोला मैं,
"हाँ! सही उत्तर!" बोले वो,
"अब जान गया हूँ!" बोला मैं,
"बस, एक अंतर है!" बोले वो,
"क्या?" पूछा मैंने,
"गांधर्वी एक कदम पीछे है!" बोले वो,
"हाँ, है!" कहा मैंने,
"वो क्या?" पूछा उन्होंने,
"गांधर्व, आवागमन भूमि से नहीं कर पाते, अर्थात भूमिगत मार्ग से! परन्तु, यक्ष लम्भाष के लिए ये तनिक भी कठिन नहीं!" बोला वो,
''तो आओ! खड़े हो जाओ! लम्भाष तैनात हो चुका है! लील कर
 , इस पात्र को, जिसमे प्राण-वायु बंधी है, स्वयं बाबा अम्भ ने बाँध कर जो दी थी!" बोले वो,
मेरे कानों में तो पिघलता मोम सा जा घुसा! क्या क्या हुआ था यहां?
"जब तल लम्भाष है, गांधर्वी सफल न होगी! और अब आज समझे आप? दोनों ही, एक ही तिथि पर, भाद्रपद द्वादशी पर ही क्यों आते हैं अपने अपने वासों से?" बोले वो.
"हाँ बाबा! ये सब बाबा समिध की दूरदर्शिता 
 ही है!" कहा मैंने,
"आओ! देख लो!" बोले वो, और हम, सब कुछ हार कर बैठे हों, सिर्फ तमाशबीनों की तरह, चल दिए उधर, जहाँ ले जा रहे थे बड़े बाबा हमें!


   
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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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"बाबा?" कहा मैंने,
"हाँ?" बोले वो,
"ये कैसे प्रतिस्पर्धा?" पूछा मैंने,
"कैसे लगती है?" पूछा उन्होंने,
"मुझे ऐसा क्यों लगता है 'सबकुछ' बाबा समिध कल्याण हेतु ही था?" पूछा मैंने,
"यदि ऐसा ही हो तो?'' बोले वो,
"तब मुझे इसमें कुछ विशेष नहीं लगता, सिर्फ, एक चारित्रिक-कथा ही, और कुछ नहीं!" कहा मैंने,
"कुछ याद दिलाऊं?" बोले वो,
"हाँ, अवश्य!" कहा मैंने,
"जब त्रिनेत्री पहली बार आये तब क्या हुआ था?' पूछा उन्होंने,
"उसके विषय में कहूँ?" बोला मैं,
"इसीलिए पूछा!" बोले वो,
"तब लगता है, की मन्दालवेणि को सब ज्ञात ही था!" कहा मैंने,
"क्या ज्ञात?" पूछा उन्होंने,
"यही कि अंत क्या होगा!" बोला मैं,
"आपको ज्ञात है?" पूछा उन्होंने,
"सच पूछिये तो स्वयं को छला पाता हूँ!" बोला मैं,
"ऐसा क्यों?" बोले वो,
"क्या आदि और क्या अंत! दोनों सिरे मेरे हाथ में, मनके हिलाऊं, जब मर्ज़ी, रख दूँ, मेरी मर्ज़ी! क्या विशेष!" कहा मैंने,
वे हंस पड़े! मेरे कन्धे पर हाथ रखा उन्होंने!
"सुनो!" बोले वो,
"जी?" कहा मैनें,
"ये सत्य है, कि मन्दाल को भान था!" बोले वो,
"तो?" पूछा मैंने,
"परन्तु, बाबा अम्भ तो वहीँ प्राण देने वाले थे!" बोले वो,
"प्राण?" पूछा मैंने,
"हाँ, प्राण!" बोले वो,
"वो क्यों?" पूछा मैंने,
"यही चाहते थे बाबा त्रिनेत्री!" बोले वो,
"यही? कैसे?" पूछा मैंने,
"और यहां से, मन्दाल का हृदय-परिवर्तन हुआ!" बोले वो,
"आपके शब्दों में, प्रेम हुआ? यही न?" पूछा मैंने,
"नहीं, आम से शब्दों में!" बोल वो!
"बाबा? ये क्या चक्कर है??" पूछा मैंने,
"बताता हूँ!" बोले वो,
"जी?" कहा मैंने,
"बाबा समिध यहीं से गए?" बोले वो,
"हाँ, यहीं इसी स्थान से, तो?" बोला मैं,
"तब यहां त्रिनेत्री थे ही नहीं!" बोले वो,
"तो त्रिनेत्री से क्या लेना-देना उन्हें?" पूछा मैंने,
"वे दोनों ही जाने थे एक साथ!" बोले वो,
"दोनों ही?" पूछा मैंने,
"हाँ, तब त्रिनेत्री और समिध, एक ही स्थान पर थे, यहां!" बोले वो,
"फिर?" पूछा मैंने,
"बाबा समिध अकेले ही चल पड़े!" बोले वो,
"क्यों?" पूछा मैंने,
"चूँकि बाबा त्रिनेत्री प्रबल नहीं महाप्रबल थे!" बोले वो,
"समिध बाबा से भी?" बोले वो,
"हाँ!" कहा उन्होंने,
हम चलते रहे, रुक जाते, फिर चलते आगे!
"तो ये क्या कोई बैर हुआ?' पूछा मैंने,
"नहीं!" बोले वो,
"तब?" पूछा मैंने,
"बाबा समिध नहीं सोच सके कि किस प्रकार सामना कर सकें बाबा त्रिनेत्री का!" बोले वो,
"तब?" बोला मैं,
"सौर-कुंड का निर्माण हुआ!" बोले वो,
"ओ! अच्छा!" कहा मैंने,
"लेकिन बाबा समिध कभी नहीं मिल सके, और ये स्थान, रूप-कुंड उनके द्वारा अभिशप्त हुआ! कुछ न रह सकेगा! तो कौन लाएगा बाहर? कुंड-स्वामिनि वो मन्दालवेणि!" बोले वो,
"समझा! इसीलिए, ये भाग बरसा बाबा समिध पर कि लम्भाष उन्हें मिला!" कहा मैंने,
"हाँ, कह सकते हो!" बोले वो,
"तब?" पूछा मैंने,
"तब वही सब!" बोले वो,
"क्या सब?" पूछा मैंने,
"अब बाबा मेघ को दिए वचन को ही पूर्ण करना था उन्हें! उस कुंड में भस्म प्रवाहित कर, बाबा त्रिनेत्री से क्षमा-याचना कर!" बोले वो,
''ओह! अच्छा!" कहा मैंने,
"और तब सामना हुआ बाबा अम्भ का उस मन्दाल से प्रथम बार!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"मन्दाल रीझ गयी!" बोले वो,
"मुक्त होने को?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोले वो,
''फिर?" पूछा मैंने,
"बहुत हुआ था उसके साथ! अपनी कोई इच्छा नहीं, सब एक दासता की भांति! बाबा अम्भ से छिपा कुछ नहीं! वे समझ गए थे, लेकिन, और और गूढ़ बात!" बोले वो,
"क्या बाबा?" पूछा मैंने,
"अब तक सभी वही हुआ था कि मन्दाल रीझेगी! परन्तु?" बोले वो,
"क्या परन्तु?" पूछा मैंने,
"परन्तु अम्भ नहीं रीझे!' बोले वो,
"अब ये कौन सा कारण हुआ, आपने कहा कि प्रेम हुआ, अब कहा कि नहीं रीझे? क्या अर्थ लूँ?" पूछा मैंने,
"समझता हूँ, उत्तर समझना थोड़ा कठिन है!" बोले वो,
"कठिन? नहीं! असम्भव ही है!" कहा मैंने,
बाबा मुस्कुराये!
"यदि बाबा अम्भ, नही दर्शाते कि वो रीझे हैं तो मन्दाल कभी मुक्त ही न होती! यही तो शर्त थी जिसके लिए, मन्दाल को प्रतीक्षा थी! अफ़सोस, वो न समझ सकी और आज भी, प्रतीक्षा में है वो!" बोले वो,
"आज भी?" बोला मैं,
"हाँ!" बोले वो,
"कैसी प्रतीक्षा?" पूछा मैंने,
"प्रेम की!" बोले वो,
सच कहूँ? जी तो किया, भाग लूँ यहां से! न समझूँ कोई भी फेर! ये क्या हो रहा था, एक कदम पर हाँ, एक कदम पर न! एक परिपाटी सत्य लगे, वो ही असत्य! कौन त्रिनेत्री, कौन समिध! कौन मेघ और कौन ये बाबा अम्भ? क्या प्रेम, जिसके प्रतीक्षा है, और कौन सी प्रतीक्षा जिसमे प्रेम है!
"बस सामने ही!" बोले वो,
न मैंने हाँ कही, और ना, चलता रहा उनके पास! रौशनी डाली बाबा ने, तो एक समतल सा, उठा हुआ किनारा दीखा!
"आओ!" बोले वो,


   
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श्रीशः उपदंडक
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और तभी! तभी सामने के उस जल में, लाल अभ्रक की सी रौशनी कौंधी! ये ठीक ऐसी ही थी, कि ताँबे के चूरे में, या ताम्र-चूर्ण में यकायक कोई चिंगारी छू गयी वो! पानी में से, जल के छींटे उस अभक के रंग को जल्दी जल्दी से सोखने चली हों! कोई शोर नहीं! ऐसा लगे कि शोर कहीं और हुआ होगा, यहां मात्र परिछायन ही नाम-मात्र को हुआ है, इसको ऐसा समझें, कोई द्रुत गति से आती हुई रेलगाड़ी आँखों के सामने से गुजरे लेकिन कोई शोर ही न हो, जब वो दृष्टि से ओझल हो जाए तो ऐसा शोर को, कि कैसे भूमि में छेद हो गया हो! जल जो छिटका था ऊपर, बिना किसी ध्वनि के आहिस्ता से, वो रंग सोख, तह पर जा गिरा! सतरँगी सा प्रकाश फूटा जल पर! हमारे चेहरों पर, रंग आते और जाते चले गए! ऐसा लगातार होता था, वक़्त रहा होगा करीब एक बजे के आसपास का! ये सब अलौकिक था, पार-सत्ता से निकल हुआ कोई दृश्य! होंठ सूख कर रह गए! हलक़ सूख गया! नेत्र जैसे पथरा ही गए! शून्य में किसी ने छेद कर डाला हो! फिर से एक बार ऐसा हुआ! इस बार नीली आभा सी प्रकट हुई! ऐसा चटख रंग था उसका कि शायद, कोई भी चित्रकार उस रंग की कल्पना ही न कर सके! वो रंग ऐसा था, किस उस रँगे के भीतर से ही सब दीख पड़ता था, आर-पार!
"ये लम्भाष-आगमन है!" बोले वो,
मैं कुछ न कह सका! सम्भतः पहली बार ही ऐसा कुछ घटते देखा था! पानी में सतरँगी सी फिरकियां चल रही थीं, छोटी छोटी भँवरें उस जल के चेहरे पर, किसी गौर-वर्णा के चेहरे पर बने गड्ढे थे, जैसे उसके चित में, प्रसन्नता भर उठी हो! इसे ही कहते हैं, दृष्टि-स्तम्भन! इसे ही शायद, शून्य-स्तम्भन भी कहा जाता है, और इसे ही, अब मैं विश्वास करता हूँ कि, द्वि-लोकसत्ता का मिलन होता है!
"लम्भाष का स्थान खुल गया है! बाबा अम्भ के उस भस्म-पात्र को उसने अपनी ग्रीवा में धारण कर रखा है!" बोले बाबा!
"बाबा?" बोला मैं,
"हाँ?" बोले वो,
"लम्भाष ही क्यों?" पूछा मैंने,
"ये अंतिम ही प्रश्न था!" बोले वो,
"हाँ, शायद, फिर मैं सब समझ ही जाऊँगा!" कहा मैंने,
''मुझे उम्मीद भी यही है!" बोले वो,
"अब उत्तर का आकांक्षी हूँ!" कहा मैंने,
"'लम्भाष स्वयं ही मित्रता हेतु चला आया था! मित्रता से बड़ा और दीर्घ, कुछ बन्धन नहीं! चूँकि, न इसमें रक्त-सम्बन्ध है, न अधिकार-सम्बन्ध! बस मात्र भाव-सम्बन्ध! मानते हो?" बोले वो,
"हाँ, मानता हूँ!" कहा मैंने,
"इसीलिए, पलड़ा, लम्भाष का भारी है!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
:और मन्दाल, आज तक आदेशानुपालन ही कर रही है, वो भी बस, आज्ञा प्राप्त कर, यहां चली आएगी!" बोले वो,
"आज्ञा? क्या त्रिनेत्री बाबा की?" पूछा मैंने,
"हाँ उन्हीं की!" बोले वो,
"चलो, अब कुछ समझ आयी!" बोला मैं!
"सब आ जाएगा!" बोले वो,
और सम्मुख जो जल में क्रीड़ा हो रही थी, अब शांत हो गयी थी! लम्भाष, अब पूर्ण रूप से सक्रिय था! हो चला था!
अब शान्ति! परम शान्ति! कोई शोर नहीं, कोई कोलाहल नहीं! और अचानक ही, आकाश से जैसे, चरण-रज्जुल नीचे उतरी! सीढ़ीनुमा! लेकिन, जो उतर, व हमें तो न  दिखाई दिया? कौन उतरा? 
"देखते रहो!" बोले वो,
कमाल ही हुआ! जैसे कोई उतरा हो, और उतरी हुई रज्जुल पीछे से, आयु में लोप होती चली गयी! और फैली एक स्ताम्भिक सी गन्ध! स्ताम्भिक का अर्थ हुआ, जिसमे, सब इंद्रियों को स्तम्भन हो जाए! यही हुआ था!
"झपाक!"
ऐसी तेज आवाज़ सी हुई! जल में कोहराम सा मच! जैसे जल के नीचे से कोई बड़ा सा बुलबुला सा फूटा हो! हमारी साँसें, ऊपर की ऊपर और नीचे की नीचे! और जल फिर से शांत हुआ! तेज, चकाचौंध सी रौशनी, दूधिया रंग की, फ़ैल गयी! आसपास का रेत सफेद हो उठा! जल के कण जूझने लगे! लाल-अभ्रक का सा रंग, गायब होने लगी! पल में पलड़ा उधर और पल में पलड़ा उधर! भीमक्रंदन सा हुआ और अचानक से ही, वहाँ अँधेरा व्याप्त हो गया! व्याप्त हो गया या या हम नेत्रहीन हो गए! आँखें कुछ   भी न देख सकें या दीखे ही नहीं कोई वस्तु भी! अब तो छोड़ा अपने आप को, उस परिस्थिति में ही!
शांत! सब शांत!
और अगले ही पल, एक छोटा सा कलश उछला जल पर! उसने, चार ठीकरियां खायीं और फिर से लोप! पहले दूधिया रौशनी आयी ऊपर! एक दैविक-स्वरूप सी स्त्री, काले वस्त्रों में चढ़ चली ऊपर! बस, पृष्ठ भाग ही देखा, मुख नहीं, रज्जुल तेजी से चढ़ने लगी ऊपर! और लोप हो गयी! उसके लोप होते ही, जल फिर से रक्तिम हो उठा! और कुछ ही क्षणों में, वो भी लोप! ये सब कब आरम्भ हुआ, कब अंत हुआ इसका, पता ही नहीं चला, सर पकड़े, मैं तो वहीँ बैठ गया! कुछ नहीं समझ आया! कुछ समझ भी न आता, अब बस, बाबा ही कुछ समझाएं तो समझ आये!
बाबा बैठ गए नीचे, मुझे देखा, चेहरा न दिखे, बस आवाज़ ही आयी!
"ये, ये दृषय देखते, जीवन गुजरा कुछ नहीं आया समझ! तब, कुछ किया मैंने!" बोले वो,
"क्या बाबा?" पूछा मैंने,
"देह-सिद्धि!" बोले वो,
"क्या?" मैं तो गिरते गिरते बचा!
''हाँ! देह-सिद्धि!" बोले वो,
"कितने वर्ष?" पूछा मैंने,
"नौ वर्ष!" बोले वो,
"यहीं पर?' पूछा मैंने,
"वहां, अम्भ-स्थान पर!" बोले वो,
"आपको सब पता था!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
"ये कब तक चलेगा?" पूछा मैंने,
"अनवरत!" बोले वो,
"अंत नहीं इसका?' पूछा मैंने,
''मुझे तो ज्ञात नहीं!" बोले वो,
"आज, क्या हुआ था?'' पूछा मैंने,
"कुछ विशेष नहीं!" बोले वो,
"मेरे लिए तो है!" कहा मैंने,
"अनुनय! विनती!" बोले वो,
"कैसी विनती?" पूछा मैंने,
"भस्म-अंश की!" बोले वो,
"किसलिए?" पूछा मैंने,
"अम्भ के लिए!" बोले वो,
"प्रयोजन?" पूछा मैंने,
"यही नहीं आया समझ!" बोले वो,
"तो कैसी देह-सिद्धि?" पूछा मैंने,
"जब तक केमिक हैं, तब तक कुछ नहीं!" बोले वो,
"अर्थात?" पूछा मैंने,
"प्रहरी हैं!" बोले वो,
"ओह! समझा!" कहा मैंने,
"मैं, अब अधिक नहीं!" बोले वो,
''आशय?" पूछा मैंने,
"नहीं सम्भाल पाता कुछ भी अब, सम्भाले नहीं सम्भलता!" बोले वो,


   
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"क्या नहीं सम्भलता?" पूछा मैंने,
"समय!" बोले वो,
"कौन सा समय?" पूछा मैंने,
"प्रतीक्षा का!" बोले वो,
"किसकी प्रतीक्षा?" पूछा मैंने,
बाबा चुप हो गए! इधर-उधर देखने लगे!
"बताइये?" बोला मैं,
"इस मन्दाल की!" बोले वो,
"उस से आपको क्या?" पूछा मैंने,
"है, बहुत कुछ!" बोले वो,
"क्या बहुत कुछ?" पूछा मैंने,
"समझाता हूँ!" बोले वो,
"नहीं, अब नहीं!" पुच्छ मैंने,
"क्या कह रहे हो?" बोले वो,
"बाबा, आप तो थे ही इस पचड़े में पड़े हुए, हमें भी डाल दिया! आपने सरल को कठिन और कठिन को सरल बनाने का प्यास किया, अब हुआ क्या, कि इस गाथा को हमने आपकी ज़ुबान से सुना, आपके मोड़ों के साथ मुड़े, आपने रोका, हम रुके, लेकिन हाथ क्या आया? कुछ नहीं, आप बीस साल लगे, या चालीस साल, सब खाक़-धूर! या तो आपका मस्तिष्क उसे मानने को तैयार नहीं, या फिर, उस पर अपना रंग जोड़ा! अब आप ज़रा मुझ पर रहम कीजिये, जो पूछता हूँ बताइये!" कहा मैंने,
बाबा को ये सुन, काटो तो खून नहीं!
"सबसे पहला प्रश्न, आप कौन हैं? न आप समिध के यहां से हैं और न ही बाबा त्रिनेत्री की तरफ से, उत्तर मैं जानता हूँ! पर सुनना चाहता हूँ, आपने इस सवाल को हमेशा छिपाया, अब आप बताइये?" कहा मैंने,
"अ...ब......ब........क्या बताऊं?" बोले वो,
"आप बाबा मालव्य की तरफ से हैं! हैं न?" बोला मैं!
"बाबा माल्वय कभी भी बाबा त्रिनेत्री या बाबा केमिक के विरुद्ध नहीं हो सकते थे! ये तो सोचा-समझ एक खेल था! दरअसल, खेल, बाबा समिध की योग्यता को कम आंकने का! इसीलिए, बाबा समिध, बिन त्रिनेत्री से मिले बगैर चले गए थे! क्या मैं गलत हूँ?" बोला मैं,
कुछ न बोले, बगलें झाँकने लगे!
"और बताता हूँ!" कहा मैंने,
"बाबा समिध ये जानते थे कि बाबा त्रिनेत्री के लिए उन तक पहुंचना सम्भव था! अतः उन्होंने अपने मित्र लम्भाष से सारी बात हुई थी, मित्रता की आन थी, उसे निभाना था, ये तो कुछ ऐसा था कि बाबा समिध को कुछ नहीं करना पड़ा! तब पहुंचे बाबा केमिक! किसी भी प्रकार से बाबा समिध से मिलना आवश्यक था, परन्तु वे नहीं मिले, खेतक रहा, और इस खेतक में बाबा केमिक खप गए! बाबा केमिक को कुछ पता चला था, परन्तु जो पता चला था, वो बाबा त्रिनेत्री से बचा रहा, उन्हें ऐसा अंदाजा भी नहीं था, कोई बचा भी नहीं! अब क्या हो? इसीलिए बाबा त्रिनेत्री पहुंचे! उनको रोकना किसी के बस में नहीं था, लेकिन, उन्होंने, ये जानना चाहा, बताये कौन? तब कौन था उनके साथ? क्यों बड़े बाबा? बताइये?" पूछा मैंने,
"क....कौन?" बोले वो,
"स्वयं बाबा मालव्य!" कहा मैंने,
अब तो वो ऐसे हुए, जैसे मैंने उन्हें धक्का दे दिया हो सहारा देने की बजाय! मैं उनकी बातचीत सुन तो रहा था, उखाड़ भी रहा था, कहाँ रुके, कहाँ बढ़े, कहाँ क्या बदल, ये मैं भांपे जा रहा था!
"अब रही बात, बाबा समिध की! समिध से मुलाक़ात हुई थी उनकी! बाबा त्रिनेत्री ने, उस कुंड को श्राप दिया, जो है अंदर, वो बाहर आये, कौन आया? सिर्फ मन्दाल! सिर्फ मन्दाल! और कोई नहीं! ये मन्दाल ही थी जो उनको रोक सकती थी, उसने रोका भी! परन्तु बाबा, इस स्त्री गांधर्वी से नहीं भिड़े! वो अंदर गए और कुछ सुलह हुई, मन्दाल जानती थी कि आगे होना क्या है! बाबा त्रिनेत्री की पूरी साख इस कुंड पर लगी थी, अतः, उन्होंने उसी क्षण उसे उस कुंड से मुक्त कर दिया! अब यहां सब समाप्त हो जाना था! परन्तु नहीं हुआ, चूँकि, समिध पुत्र मेघ को पिता से संग ही आना था! त्रिनेत्री ने ऐसा न होने दिया! बाबा त्रिनेत्री सदैव बाबा बाबा समिध से भिड़े ही रहे! कुंड छोड़ न सकते थे! तब, बाबा त्रिनेत्री ने उस सौर-कुंड का सृजन किया! क्योंकि, मन्दाल का अधिकार अब यहां न बचा था! और श्राप को उसका नैवेद्य चाहिए था! ऐसा कर, वे तो सन्तुष्ट हुए!" बोले वो,
चुप्पी सी छा गयी! काठ मार गया!
"ये सिलसिला कब तक चलता? कुछ नहीं पता, समय का बोध तो हम मानवों तक ही सीमित है! न बाबा समिध आये स्तर पर और न ही बाबा त्रिनेत्री! और मुक्ति? किस की मुक्ति? कोई मुक्ति नहीं! प्रेम? कोई प्रेम नहीं! तब कैसी मुक्ति भला? किसकी मुक्ति? यहां इस गाथा की सबसे बड़ी गाँठ है बड़े बाबा!" कहा मैंने,
"किस......की?" टूटी सी आवाज़ आयी!
"बाबा! ये मन्दालवेणि, बेचारी मन्दालवेणि! फंस कर रह गयी! वो तो मुक्त हो कर भी मुक्त न हुई! उसे तो रोका जाने लगा! आज भी रोका गया! क्यो; क्यों रुके? क्योंकि यहां बाबा समिध और बाबा त्रिनेत्री, स्वतः ही आये! और पहले की तरह ही, कोई हल नहीं निकल सका!" कहा मैंने,
"क्या अर्थ हुआ?" बोले प्रसाद बाबा!
"बताता हूँ!" कहा मैंने,


   
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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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Topic starter  

"बोलो बाबा? क्या ये यक्ष और वो गांधर्वी, सब जानते नहीं? क्या वे, ये नहीं मानते कि वे दोनों ही, दो उच्चकोटि के महासिद्धों के बीच मात्र गोटियां ही हैं? अंतर है तो मात्र मार्ग का! मैं ये नहीं कहता कि कौन उच्चतर और कौन निम्नतर! साध्य यदि हाथ लगे तो मार्ग नहीं देखा जाता! ये मैं मांत्र हूँ, ये अलग बात है कि इसे कौन कैसे देखता है! मैं इस विषय में नहीं पड़ रहा! और अब पड़ने का कोई लाभ भी नहीं है! वो समय, वो लोग, अब बीत चुके, शेष कौन? शेष एक प्रतीक्षा! प्रतीक्षा, जिसे रोका गया है! किसने रोका बाबा समिध ने! रुका कौन? दोनों ही! बाबा समिध के पास एक माह-अस्त्र है, उनका मित्र, मित्र कम, हितैषी अधिक! उधर? उधर कौन? उधर वो मन्दाल! हुआ क्या है? जो हो न सका! किसके कारण? बाबा मेघ के कारण, क्या बाबा मेघ को पता था? हाँ पता था! सब पता था, सुलह किसने करवाई? बाबा मेघ ने! तो कैसे हो अब? हो? सुलह? सुलह से कौन मुकरा? बाबा समिध! किस कारण से, पहले आगे कौन बढे? जो आगे बढ़ेगा वो सौर-कुंड का भी स्वामी होगा! सौर-कुंड ही क्यों? चूँकि, गांधर्वी मन्दाल भूमि-गमन में असमर्थ है! और तब लाभ किसे? बाबा समिध को! लेकिन! बाबा त्रिनेत्री के होते ऐसा सम्भव नहीं! लम्भाष उनके सम्मुख आ नहीं सकता! न ही आया, सिर्फ संग ही खड़ा रहा बाबा समिध के! तो अब क्या हो? हो? हाँ! हो! क्या? ये कि बाबा त्रिनेत्री भी आगे बढ़ें! किस शर्त पर? कि वंश-बेल समाप्त हो बाबा समिध की, मेघ नहीं माने, तो कौन माना? माने बाबा अम्भ!" कहा मैंने,
सभी अचरज से मुझे ही देख रहे थे, स्वयं बाबा भी हैरान थे! मैंने जो जाना था, जो सुना था, असलियत वो तो थी ही नहीं! असलियत तो वो थी, जो छिपी हुई थी!
"अब हुआ क्या? क्या मन्दाल ने प्रेम का पाश फेंका? नहीं! नेत्रों से नेत्र मिलाये? हाँ मिलाये, क्या स्पर्श से कुछ बताया उसने? हाँ बताया! तब, निर्णय लिया गया कि इस सिलसिले को अब बन्द कर दिया जाए! और वही हुआ! परन्तु, एक और कर्तव्य शेष था बाबा अम्भ पर! वो क्या? वो ये, कि ये उनका अपने स्वतन्त्र विचार था कि सन्तति का सन्त हो! न बाबा मेघ चाहते थे, और न ही वो मन्दाल ही! मन्दाल तो मन्दाल रही ही नहीं थी! उसका अपना कुछ शेष रहा ही नहीं था, हाँ, उसके बन्द मुख और शांत से स्वर में वो इच्छा शेष थी, कि वो मुक्त हो जाए! और यही हुआ! मन्दाल मुक्त होती, परन्तु, न होने दी, किसने बाबा समिध ने! सब उलझ गया था! तब हुआ क्या? हुआ यही कि जहाँ से बीज है, उस बीज को समाप्त होना था, वो बीज कौन? बाबा अम्भ!! बाबा त्रिनेत्री का पक्ष, बेहद ही मज़बूत रहा था, चुके कौन? बाबा समिध! अब कौन उसको ठीक करे? मात्र, बाबा अम्भ! आखिर, बाबा अम्भ ही वो अंतिम मनका थे, जो टूट जाता तो वो माला जो, बार बार घूम कर सामने आ जाती थी, अब खुल जाए! क्यों बड़े बाबा?" बोला मैं,
कुछ बोले न बन पड़ा उनसे तब!
"तब, भाद्रपद द्वादशी के दिन, सबकी उपस्थिति में ही, बाबा अम्भ ने, देह-त्याग कर दी! उन्हें रोका गया, बदल भी होने को हुई, चूँकि वे प्रपौत्र से, अब बाबा समिध की ओर ही जा झुके! अब होना क्या है? ये सभी मुक्त हो जाएंगे, लेकिन शेष रह जाएगा एक, कौन? स्वयं बाबा अम्भ! तब क्या होगा? तब बाबा त्रिनेत्री उन्हें आगे बढाने के लिए, सचेत रहेंगे, पूरा साथ देंगे! अब रोकेगा कौन? बाबा समिध! मुक्ति होते ही, सब समाप्त हो जाएगा, लम्भाष लौट जाएगा, मन्दालवेणि लौट जायेगी! और तब, कुछ शेष नहीं रहेगा! परन्तु अफ़सोस! आज शायद ही कोई ऐसा होगा जो इस क्रिया का निष्पादन करे! मैं तो अपने को कहीं गिनता ही नहीं, मैं तो बाबा केमिक के चरणों का धोवन भी नहीं, जिन्हें जानता हूँ, वो उनकी मर्ज़ी! रहे आप! आप क्या करोगे? कुछ नहीं! हार मान कर ही बैठे हो, इसीलिए विवाह नहीं किया! अपना बोझ किसी पर नहीं डाल सकते और यही अब, नहीं सम्भाले सम्भल रहा! है न बाबा?" बोला मैं,
एक आह सी निकली उनके मुंह से और फिर, अगले ही पल, फफक-फफक कर रो पड़े! "बाबा ये ज़िम्मा मेरा नहीं कि कौन उस प्राण-वायु को मुक्त करे! ये, आप पर ही आयद है, आपको ही करना पड़ेगा! मैं यहां आया, मेरा नसीब, परन्तु अब दुबारा आने का साहस नहीं है मुझ में!" कहा मैंने साफ़ साफ़!
बाबा नीचे बैठते चले, घुटनों पर, हाथ रख, ज़ोर ज़ोर से विलाप करने लगे! अब नहीं आयी दया मुझे! भला आती ही क्यों? एक नज़र मैंने उस स्थान को देखा, आसपास में देखा, सभी तो सामान्य था? जैसा कल था, ऐसा ही आज भी? जो घटा था, वो तो घट ही रहा है, वर्षों से! कब तक? नहीं जानता!
कुछ मिनट बीते! अब जी खराब होने लगा! लम्भाष का क्या लेना? कुछ नहीं, उस महान गांधर्वी का क्या लेना, कुछ नहीं! और अब, मेरा क्या लेना? वो भी कुछ नहीं!
"आओ आप!" मैंने कहा शहरयार जी से,
"हूँ" बोले वो,
और हम दोनों, चल पड़े वापिस, जहां वो चटाई और चादर बिछे थे! बैठे, पानी पिया और बाबा को दरकिनार कर दिया अपनी नज़रों से मैंने! न दया ही, न कोई विशेष सम्मान ही! हाँ, उम्र का तक़ाज़ा था, वो निभाना बनता था!
दो दिन बीते, और हमने वापिस जाने की सोची! बाबा को बस बताया, सामान उठाया, सभी को प्रणाम किया, वापिस एक बार, उस जल के पास गए, कुछ फूल, अर्पित किये, किसके लिए? मात्र उस मन्दालवेणि के लिए!
चौथे दिन वापिस आ गए, अब तो भूल ही चुका था मैं ये प्रकरण! खबर मिली कि बड़े बाबा का देहांत हो गया है, कुछ पृष्ठ खुल गए! अंतिम प्रणाम करना विस्वश्त तो है, किया! और कर भी क्या सकता था!
रही ये गाथा, तो कुछ निर्णय नहीं लिया मैंने अभी तक! ले भी क्या सकता हूँ! द्वन्द उधर ज़ारी है या नहीं, कुछ नहीं पता! उस दिन के बाद से, सिर्फ मन्दाल नाम ही याद रहता है या फिर वो बाबा अम्भ, जिन्होंने काश अपने लिए भी कुछ सोचा होता! रूप-कुंड वहीँ है, और सौर-कुंड भी! और रहेंगे भी! कब क्या हो, पता नहीं! मेरे वश की बात नहीं!
साधुवाद!

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