"समझ सकता हूँ!" कहा मैंने,
"हाँ, कई बार!" बोले वो,
"उद्देश्य यही?" पूछा मैंने,
"अधिकाँश!" बोले वो,
"बाबा?" कहा मैंने,
"हाँ?" बोले वो,
"आप कहाँ के रहने वाले हैं?" पूछा मैंने,
"मैं?" बोले वो,
"हाँ, आप!" कहा मैंने,
"मेरी बोली से कैसा लगता है?" बोले वो,
"बोली साफ़ है!" कहा मैंने,
"तब कहाँ का हुआ?" पूछा उन्होंने,
"नहीं कह सकता!" बोला मैं,
"मैं कुंडू ग्राम का हूँ!" बोले वो,
"ओह! तीर्थांकर श्री महावीर जी का ग्राम!" कहा मैंने,
"हाँ, श्री महावीर जी का जन्म-स्थान!" बोले वो,
"तभी आप में आध्यात्मिकता अधिक है!" बोला मैं,
"ये तो नहीं पता!" बोले वो,
"खैर बाबा, आपने क्या स्वयं मन्दालवेणि को देखा है?" पूछा मैंने,
"नहीं, कभी नहीं!" बोले वो,
"तब आपको ये सब गाथा कैसे याद है?" पूछा मैंने,
"अपने गुरु श्री से!" बोले वो,
"श्री गुरु जी का कोई सम्बन्ध?" पूछा मैंने,
"उनके पिता का था कुछ सम्बन्ध!" बोले वो,
"क्या?" पूछा मैंने,
"बाबा मालव्य से कोई लेना-देना रहा था!" बोले वो,
''समझा!" कहा मेरे,
"बाबा?" कहा मैंने,
"बोलिये?" बोले वो,
"कब निकलना है?" पूछा मैंने,
"परसों सुबह!" बोले वो,
"उसी दिन?" पूछा मैंने,
"हाँ, क्यों?" पूछा उन्होंने,
"खैर, वो आप जानो!" बोला मैं,
"परसों!" बोले वो,
"उचित है!" कहा मैंने,
"कल कोई आएगा यहां!" बोले वो!
"कौन?" पूछा मैंने,
"एक महिला!" बोले वो,
"कुछ मदद?" बोला मैं,
"उसे ज्ञात है सब!" बोले वो,
"क्या मार्ग?" बोला मैं,
"हाँ! स्थान भी!" बोले वो,
"आपको याद नहीं?" पूछा मैंने,
"पुराना याद है!" बोले वो,
"उसे नया?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
"जैसा आप कहें!" बोले वो,
"आपको वो पुंज देखना है न?" बोले वो,
"हाँ वही!" कहा मैंने,
"परसों, मध्य-रात्रि!" बोले वो,
"अहोभाग्य!" कहा मैंने!
"नरसिंह के यहां ठहरेंगे?" पूछा प्रसाद बाबा ने,
"नहीं!" बोले वो,
"क्यों?" पूछा प्रसाद बाबा ने,
"नहीं चाहता किसी को भान हो!" बोले वो,
"भान हो? क्यों?" पूछा मैंने,
"बता दूंगा!" बोले वो,
"क्या मनाही है?" पूछा मैंने,
"हाँ, यही समझो!" बोले वो,
"कौन मना करता है?" पूछा मैंने,
"हैं कुछ!" बोले वो,
"गाँव वाले?" पूछा मैंने,
"नहीं! वे तो सीधे सादे लोग हैं!" बोले वो,
"फिर?" पूछा मैंने,
"कुछ ठेकेदार धर्म के!" बोले वो,
"यहां भी?" पूछा मैंने,
"अब हर जगह!" बोले वो,
"सच है वैसे ये!" कहा मैंने,
तभी दरवाज़े पर दस्तक हुई, और मैंने देखा पीछे...............!!
दरवाज़े पर कोई आया था, बाबा प्रसाद ने अंदर आने के लिए कह दिया था उसे, जो अंदर आया था, वो कोई युवक था, कुछ सामान ले कर आया था, अंदर आते ही उसने कुछ गम्भीर सा चेहरा बनाया!
"हां बेटा?" बोले प्रसाद बाबा,
"वो, सामान मंगवाया था" बोला वो,
"हाँ हाँ! बेटे! रख दू, या लाओ, इधर दे दो!" बोले बाबा,
उस युवक ने, चप्पलें उतारी और हमारी तरफ आया, सामान दे दिया प्रसाद बाबा को और कुछ बचे हुए पैसे भी! उन पैसों में से एक पचास का नोट उस लड़के को थमाया, उसके चेहरे की गम्भीरता फौरन ही गायब हो गयी!
"प्लेट आदि लाये हो?" बोले वो,
"जी, सब लाया हूँ!" बोला वो,
"ठीक है!" बोले बाबा,
"कोई ज़रूरत ही तो बता दीजियेगा" बोला वो युवक,
"हाँ, बेटे, ठीक!" बोले बाबा,
अब लड़का लौटा, चप्पलें पहनीं और चला गया बाहर, दरवाज़ा बन्द करता गया था!
"क्या मंगवा लिया?" पूछा शहरयार जी ने,
"माल-मसाला!" बोले बाबा, उस सामान की पन्नी हटाते हुए!
"अच्छा!" बोले शहरयार जी!
अब शहरयार जी ने मदद की उनकी, कुछ डिस्पोजेबल सामान था, निकाला ये बाहर!
"प्याज तो जी भर कर लाया है!" बोले शहरयार जी!
"कह दी थी उसे!" बोले बाबा,
"दो पन्नियां?" बोले शहरयार जी,
"हाँ, दो जगह मंगवाई हैं!" बोले वो,
"मछली की गन्ध है इसमें!" बोले वो,
"वही है!" कहा उन्होंने,
"एक तरी वाली है और एक सूखी!" बोले बाबा,
"बहुत बढ़िया जी!" बोले वो,
तो अब चली हमारी महफ़िल आगे!
"बाबा?" कहा मैंने,
"हाँ?" बोले वो,
"तो ये जगह खुले में ही होगी?" पूछा मैंने,
"नहीं, आसपास से ही दीखती है, दूर से नहीं!" बोले वो,
"नदी के पास भी?" पूछा मैंने,
"हाँ, नदी वहाँ गहरी है!" बोले वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"और भी लोग आते हैं क्या उधर?" पूछा शहरयार जी ने,
"नहीं!" बोले वो,
"तो?" पूछा मैंने,
"जिन्हें पता है!" बोले वो,
"और किन्हें पता है?" पूछा मैंने,
"हैं वहीँ के कुछ सरभंग आदि!" बोले वो,
"सरभंग?" पूछा मैंने,
"हाँ, सरभंग!"बोले वो,
"साले घुटने तो नहीं रगड़ते?" पूछा मैंने,
"ऐसी मज़ाल नहीं!" बोले बाबा बड़े,
"इन सरभंगों ने कोई जगह नहीं छोड़ी!" बोला मैं!
"हाँ, और यहां तो टोला हैं उनके!" बोले वो,
"अच्छा जी?" पूछा मैंने,
"हाँ!" कहा उन्होंने,
"कोई टकराया तो फेंक ही दूंगा साले को नदी में!" बोले प्रसाद बाबा!
"हमें क्या करना है, उधर जाना है, देखना है, आपको दिखाना है, और वापसी!" बोले वो,
"बस?" पूछा मैंने,
"तो और क्या?" पूछा उन्होंने,
"मैंने तो सोचा आप कुछ करोगे!" कहा मैंने,
"सब कर लिया!" बोले वो,
"यही उत्तर स्पष्ट रूप से पता था मुझे!" कहा मैंने,
"समझ गए?" बोले वो,
"हाँ, एक बात बताइये?" पूछा मैंने,
"पूछो?" बोले वो,
"कलुष, क्रन्द, दुहित्र आदि मन्त्र आदि कार्य नहीं करते?" पूछा मैंने,
"वहाँ नहीं!" बोले वो,
"वो क्यों?" पूछा मैंने,
"ये भी जान ही लोगे!" बोले वो,
"ठीक!" कहा मैंने,
और तब हमने, अपने अपने गिलास खाली किये! पानी ज़रा सा भारी था यहां का, कुछ स्वाद में अजीब सा लगा!
"पानी कैसा है ये?" पूछा मैंने,
"भारी है!" बोले वो,
"नरसिंह?" बोला मैं,
"जी?" बोला वो,
"नीचे से बोतल वाला पानी ले आएगा?" पूछा मैंने,
"बिलकुल जी!" बोला और खड़ा हुआ वो!
"ले, एक दो लीटर वाली पकड़ लाना!" कहा मैंने,
"अच्छा, और कुछ?" बोला वो,
"नहीं, और कुछ नहीं!" कहा मैंने,
तो नरसिंह पानी लेने चला गया था, नरसिंह देखा जाए तो बड़े ही काम का आदमी था, चेला-मण्डली में सबसे 'उज्जवल' चेला कहा जाए तो समझ आये!
"बाबा?" पूछा मैंने,
"हाँ?" बोले वो,
"मैं ज़रा कुछ विशेष पूछूं?" बोला मैं,
"सब विशेष ही है!" बोले वो,
"हाँ, है तो!" कहा मैंने,
"पूछो!" बोले वो,
"जिस समय उसका आना होता है, मन्दालवेणि का, उस समय कैसा माहौल होता है?" पूछा मैंने,
"पावन!" बोले वो,
"और?" पूछा मैंने,
"सब शांत हो जाता है!" बोले वो,
"आकाश से क्या नभचर, श्लिष्व संग आते हैं? लिखा है कि गांधर्वी के आसपास ही इनका बसेरा रहता है!" बोला मैं,
"हाँ, आते हैं!" बोले वो,
"किस रंग के?" पूछा मैंने,
"श्वेत एवम लाल!" बोले वो,
मित्रगण! मैंने बहुत पहले एक संस्मरण में ये बताया था कि कुछ ऐसे भी प्राणी है इस संसार में, जो नभ-वासी हैं! इनमे कुछ सर्प भी हैं, ठीक वैसे ही श्लिष्व भी! श्लिष्व को अंग्रेजी में "फ्लाइंग रॉड्स' कहा जाता है! ये हमने बहुत पहले से जाना है, जिसको आधुनिक विज्ञान ने अब जानना आरम्भ किया है! ये न तो कीड़े ही हेम न मकौड़े, न कुछ अन्य! ये इस पृथ्वी में चौदह प्रकार के हैं, ये सूर्य-रश्मि से अपना भोजन प्राप्त करते हैं! ये चपल होते हैं, कई कई बार तो भूमि तक आ जाते हैं! ये सूक्ष्म, अति-सूक्ष्म और आँखों से देखे भी जा सकते हैं, जो आँखों से देखे जाते हैं, वे चार प्रकार के होते हैं! गान्धर्वो में से, एक ऊर्जा बहती है, ये ऊर्जा, सूर्य-रश्मि समान होती है! और जो श्लिष्व इनके पास मंडराते हैं, वे ललिभ-श्लिष्व कहलाते हैं, शेष श्लिष्व इनकी ऊर्जा में जीवित नहीं रह सकते और वायु में ही लोप हो जाते हैं! ये रूप में, कानखजूरे की तरह से होते हैं, लेकिन इनके शरीर पर, रोएं रहते हैं, लाल एवम गुलाबी रंग को अवशोषित करते हैं! इसी कारण से नज़र भी आते हैं! अब तो ऐसे कैमरे हैं जो इन्हें क़ैद कर लेते हैं, इनका रूप आदि कहीं कहीं, बदल सा भी जाता है!
"अच्छा!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
"बाबा तब तो उस समय का वातावरण अत्यंत ही सुखद सा होता होगा!" कहा मैंने,
"हाँ, स्वतः ही देख लेना!" बोले वो,
"अवश्य ही!" कहा मैंने,
तभी नरसिंह आया अंदर, और दे दी बोतल हमें पानी की, ये ठीक थी, वो बैठा और सभी के गिलासों में, मदिरा भरने लगा! भरने के बाद, सभी के गिलास, सरका दिए सभी के आगे, एक एक करके!
"हम कल ही निकलेंगे!" बोले वो,
"कल?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
"रुकेंगे कहाँ?" पूछा मैंने,
"कोई समस्या नहीं!" बोले वो,
"ये तो और भी अच्छा है!" बोला मैं,
तभी दरवाज़े पर एक हल्की सी दस्तक हुई! हम सभी ने देखा उधर!
"कौन?" बोले बड़े बाबा,
"सोमी!" आयी एक स्त्री की आवाज़!
''आया! अभी आया!" बोले बड़े बाबा,
उठे, और चल पड़े बाहर की तरफ! दरवाज़ा खोला और चले बाहर!
"कौन सोमी?" पूछा मैंने,
"बाबा की जानकार!" बोले वो,
"अच्छा वही, बाबा ने जो बताई थी?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोले प्रसाद बाबा,
"ये साथ जाएंगी?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
"यहीं रहती हैं न?" पूछा मैंने,
"हाँ, जानो ऐसे ही!" बोले वो,
"ठीक है!" कहा मैंने,
"इस सोमी की अच्छी पैठ है यहां!" बोले वो,
"कैसे?" पूछा मैंने,
"ये साथ हो, तो कोई दिक्कत ही नहीं होती!" बोले वो,
"टोका-टोकी करने वालों की?" पूछा मैंने,
"फिर ठीक!" बोला मैं,
"यहां दरअसल, बाबा के शत्रु बहुत हैं!" बोले वो,
"शत्रु?" मैंने चौंका!
"हाँ!" बोले वो,
"लेकिन क्यों?" पूछा मैंने,
"बाबा ने किसी शत्रु को, बागडोर नहीं दी न!" बोले वो,
"कैसी बागडोर?" पूछा मैंने,
"मन्दिर की, दूसरी जगह की!" बोले वो,
"ओह! व्यवसायिक!" कहा मैंने,
"हाँ वही!" बोले वो,
"तब तो ठीक किया!" कहा मैंने,
"हाँ जी!" बोले वो,
"बताओ यार! लोग ऐसी ऐसी दुश्मनी भी रखते हैं!" बोले शहरयार जी!
"हाँ, ये तो है ही! अब तो किसी भी क्षेत्र में देख लो! हर जगह यही है! हर जगह!" कहा मैंने,
"दूर क्यों जाओ हो? आजकल तो भगवान का भी वर्गीकरण एवम व्यवसायीकरण ही चुका है!" बोले शहरयार जी!
"हाँ, इसमें कोई शक ही नहीं!" कहा मैंने,
"अब तो जी, भगवान भी आपसे वालों के हो गए! गरीब तो यहां भी गरीब ही रह गया!" बोले वो,
"सच बात है!" कहा मैंने,
"मोटा दाम, मोटा काम! दर्शन मतलब!" बोले वो,
"हाँ! सब गड़बड़ घोटाला है!" बोला मैं,
तभी बड़े बाबा अंदर आ गए, उनके आते ही, हम 'उद्दंड' छात्र शांत हो गए! वो अपने साथ एक थैला ले आये थे, आये, थैला वहीँ रखा और बैठ गए!
"नरसिंह?" बोले वो,
"जी?" बोला वो,
"इसमें कुछ फल हैं, साफ़ कर ले, धो ले, और काट ला!" बोले वो,
"अभी!" बोला वो,
और थैला उठा, चल पड़ा बाहर की तरफ!
"सोमी आयी थी!" बोले वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"कल के रुकने के लिए स्थान बता दिया है" बोले वो,
"अच्छा!" बोले प्रसाद बाबा,
"क्या उस जगह से दूर है?" पूछा मैंने,
"ज़्यादा नहीं, बस कुछ ही!" बोले वो.
"तो कल कब निकलना है?" पूछा मैंने,
"करीब ग्यारह बजे!" बोले वो,
"ठीक है!" बोला मैं,
तो कल के लिए हमारे जाने का कार्यक्रम बन गया था! अब तो बस कल आये और सब ठीक हो! हम वहां जाएँ और हमारा उद्देश्य पूर्ण हो! यही मंशा शेष थी अब तो! तो उस रात हमने, खा-पी कर आराम किया!
और फिर आया अगला दिन! सुबह हम फारिग हुए, आज मौसम बड़ा अच्छा था, जैसे आज हमारी सुन ली गयी थी! बारिश होने के आसार तो नहीं थे! तो सुबह चाय-नाश्ता भी कर लिया और उसके बाद हमने अपना अपना सामान बाँध लिया! ठीक ग्यारह से कुछ पहले ही, हम वहाँ से निकल पड़े! यात्रा आरम्भ हो गयी थी, जब हम एक जगह बीच में थे, तो मेरे ठीक सामने एक छोटा सा मन्दिर था! बेहद ही पुराना सा और बहुत ही सुंदर था! छोटा सा! मैंने हाथ जोड़ लिए, और इस कामना की पूर्ति हो, अर्ज़ी पेश कर दी थी!
हम करीब, उस स्थान पर, जहां सोमी मिलनी थी, चार बजे पहुंचे! क्या सुंदर स्थान था वो! चारों तरफ पहाड़ी सी! और जहां हम थे, वो तलहटी सी बनती थी! इसी जगह यहां ये स्थान था! हम एक कक्ष में आ गए! ये अधिक बड़ा तो नहीं था, लेकिन था बढ़िया! शान्ति ही शान्ति थी यहां! सुंदर फूलों के पौधे लगे थे, गैंदे के फूल लगे थे! ये स्थान तो अपने आप में ही बेहद सुंदर था! एक ऐसा स्थान जहां न शोर-शराबा था और न ही किसी भी प्रकार का कोलाहल! लोग भी कम ही दिखे मुझे तो, सच पूछा जाए तो उस स्थान पर रहने वाले तो नज़र ही नहीं आये, कोई फूल वाला था, तो कोई सामान आदि लाने वाला! हम अपने कमरे में आ बैठे थे, बाबा लोग, दूसरे कमरे में चले गए थे!
"क्या बढ़िया जगह है!" बोले शहरयार जी!
"सच में!" कहा मैंने,
"ऐसी जगह पर तो जीवन ही काटा जा सकता है!" बोले वो,
"हाँ, सब कितना पावन सा है यहां!" कहा मैंने,
"कोई मुझे कहे कि यही रह जाओ, तो मैं तो रह लूंगा!" बोले वो,
"हाँ, सही बात है!" कहा मैंने,
"शहरों में अब रहा क्या? शोर-शराबा, बनावटी ज़िन्दगी, मिलावटी भोजन, नए नए रोग! व्यर्थ के क्लेश! सब बेकार!
"सो तो है ही!" कहा मैंने,
"यहां देखो! वो देखो बकरी! गाय, सारा चारा असली, ताज़ा हरा! ताज़ा खाएंगे जानवर तो ताज़ा ही दूध मिलेगा! शहरों में तो शायद, कुतिया का दूध ही बाजी मार ले हमारे फ्रिज में रखे दूध से!" बोले हंसते हुए वो!
"ये तो सच कहा!" कहा मैंने, और ज़ोर से हंस ही पड़ा!
तभी कमरे के बाहर आया नरसिंह! उसने हमें देखा, हम मूढ़े पर बैठे थे!
"हाँ जी?" बोला वो,
"हाँ?" बोले शहरयार जी,
"वो बड़े बाबा बुला रहे हैं!" बोला वो,
"अच्छा, चलो!" कहा मैंने,
हम उठे, कमरा बन्द किया और चल पड़े उसके साथ साथ! आ गए बड़े बाबा के पास हम!
"आराम कर रहे थे क्या?" पूछा उन्होंने,
"नहीं, बैठे ही थे!" कहा मैंने,
"भोजन आ रहा है, बैठो!" बोले वो,
''अच्छा!" कहा मैंने,
"ये है वो जगह जहां हम ठहरते हैं!" बोले वो,
"बहुत ही सुंदर स्थान है!" कहा मैंने,
"इधर, पीछे जी दुर्गा माँ का शक्ति-मन्दिर है!" बोले वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"घूम आना उधर भी!" बोले वो,
"हाँ, ज़रूर!" कहा मैंने,
"पुराना है बहुत!" बोले वो,
"अच्छा बाबा!" कहा मैंने,
"ये जो बसावट है, ये इसके कारण ही है!" बोले वो,
"आप सही कह रहे हैं!" कहा मैंने,
"नरसिंह?" बोले वो,
"हाँ जी?" बोला वो,
"पानी ले आ!" बोले वो,
"अभी!" बोला वो,
भोजन आ गया था! रख दिया गया था! भोजन में दाल अरहर और परमल की सब्जी थी! साथ में नींबू और मिर्च का अचार और थोड़ी थोड़ी करेले की भुजिया! हरी-मिर्च और प्याज! चावल और रोटियां! इस खाने की महक ने ही पेट में बंधे, चूहे पिंजरा तोड़ भागे! जी भर के खाते और फिर आ जाता! दूसरी बार थोड़ी कढ़ी भी आयी थी, मजा ही बाँध दिया उसने तो! सच कहूँ तो यही होता है भूख मिटाने वाला भोजन! खा कुछ भी लो, हम उत्तर भारतीयों को जब तक रोटी न मिले तब तक, कुछ अधूरा सा ही लगता है! ऐसा नहीं कि चावल से पेट नहीं भरता, भरता है, लेकिन रोटियां मिलें तो पहली पसन्द रोटी ही होती है! मिर्चे बड़ी ही अच्छी थी, मोटी मोटी सी! ताज़ा हो थीं, इसीलिए और मजा आया उनके साथ तो! नींबू का अचार, क्या बताऊं! कैसा बढ़िया, पूछें तो दादी और नानी जी के हाथों का डला, राई वाला अचार याद आ गया! कैसे नानी जी हमें, चूल्हे के पास, अरहर के पौधे का ईंधन बना, पानी वाली रोटियां सेंक, अपने घुटनों पर बिठा, खिलाया करती थीं! कैसे दादी जी बड़े प्यार से, ज़बरदस्ती कर, रोटियां, छाछ, गुड़, सिल पर पिसी चटनी, जिसमे लहसुन के छिलके भी आते थे, खिलाया करती थीं! अफ़सोस! अब कहाँ रहे वो दिन! कहाँ वैसा खाना ही अब! अब तो पनीर के सौ व्यंजन, गोभी के सौ व्यंजन! स्वाद किसी में भी नहीं, बस जीम लो, ताकि डकार आ जाए, मन को शान्ति मिले तन का क्या! कच्ची अम्बियाँ, आमी, की वो खुशबूदार चटनी! पानी न आये मुंह में तो शायद कभी खायी नहीं होंगी! कुछ ऐसा ही हुआ था, इस भोजन को खा कर! तब पानी पिया फिर!
"हरे मेरे राम!" बोले शहरयार जी उठते हुए! उठे तो डकार ली एक ज़बरदस्त सी! मेरी तो हंसी ही छूट गयी!
"भर गया पेट!" पूछा मैंने,
"बिलकुल जी!" बोले हंसते हुए!
"कैसा लगा?" पूछा मैंने,
"सच कहूँ?" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"नीयत नहीं भरी!" बोले वो!
ये सुन हम सभी हंस पड़े! बड़े बाबा भी अपना गस्सा, मुंह में रख हंसते चले गए! अब मैं भी खड़ा हुआ! पानी पिया!
"वाक़ई!" कहा मैंने,
"है न?" बोले वो,
"हाँ, लाजवाब!" बोला मैं,
"आइये, ये भोजन कर लेंगे, और हम ज़रा पेट से लड़ने चलें!" बोले वो,
पेट से लड़ना मायने उसे बाहर न निकलने देना! थोड़ा घूमना!
"आओ!" बोले वो,
"बाबा, आते हैं हम!" कहा मैंने,
"ठीक!" बोले बाबा,
और हम बाहर चले आये, बाहर आये तो मन्द मन्द बयार बह रही थी! एक बड़े से पेड़ के नीचे रुके हम! मैंने पेड़ को देखा, काफी बड़ा पेड़ था वो! उसके तने पर, चींटियां चढ़ रही थीं, शायद, अपने अंडे ले जा रही हों, इसका अर्थ था कि हो न हो, यहां अभी कुछ ही दिनों में, बरसात पड़ने वाली है बेहद ही तेज! मित्रगण! प्रकृति में अन्य कई ऐसे हज़ारों लाखों संकेत ये कीट-पतंगे, पक्षिगण, पशु आदि दिया करते हैं! कोई समझ ले तो सच कहता हूँ, शत-प्रतिशत भविष्यवक्ता ही बन जाए वो! उदारण लीजिये! यदि कौवा, सूखे, ठूंठ पेड़ पर बैठ कांव-कांव करे, और मुख दक्षिण में रखे तो उस वर्ष दुर्भिक्ष पड़ेगा! यदि पूर्व में मुख रखे तो प्राकृतिक आपदा का योग हो! उत्तर रखें, तो समृद्धि, उन्नति और यदि पश्चिम में रखे, तो अपार सुख देने वाला लक्षण है! ये स्थान विषयक हैं भी या नहीं, ये भी जाना जा सकता है, जैसे यदि जिस पेड़ पर बैठा हो, तो वो वृक्ष जहाँ जहाँ होता होगा, वहाँ का फल मानिए! अखरोट के पेड़ पर बैठे, तो समझिए पहाड़ी क्षेत्रों का ही फल मिलेगा! ये जान लेना चाहिए!
"बैठ जाएँ!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
रुमाल बिछाए और बैठ गए!
"ये कौन सा पेड़ है?" पूछा उन्होंने,
"कटहल का!" कहा मैंने,
"अच्छा! अरे हाँ, वो देखो!"बोले वो, एक कटहल दिखाते हुए!
"हाँ वही है!" कहा मैंने,
"साला किसी पर गिर जाए तो उड़ जाए हवा जिस्म से!" बोले वो,
"ये ऐसे कभी नहीं गिरते!" कहा मैंने,
"पकने पर भी?" पूछा उन्होंने,
"हाँ!" कहा मैंने,
"ये भी कमाल है!" बोले वो,
"सब प्रकृति है!" कहा मैंने,
"ये तो है ही!" बोले वो,
"सबकुछ हिसाब से बनाया गया है!" बोला मैं,
सर हिलाया हाँ में उन्होंने!
"हाँ?" बोले वो,
"क्या?" पूछा मैंने,
"कल निकलना है ना?" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"कब भला?" पूछा उन्होंने,
"जब बाबा कहें!" कहा मैंने,
"मन में बड़ी ही इच्छा है!" बोले वो,
"मेरी तो शुरू से ही!" कहा मैंने,
"जब यहां तक आ ही लिए तब वो भी पूर्ण हो जायेगी!" बोले वो,
"ये तो है!" बोला मैं!
तभी पास से एक बकरी गुजरी, संग उसके दो शैतान बच्चे! एकटक हमें देखने लगे थे!
"जाओ भाई जाओ!" बोले वो,
उन्होंने प्यारी सी मैं-मैं निकाली! हम दोनों ही हंस पड़े!
"जाओ यारो!" बोले वो,
"चले जाएंगे, जिज्ञासावश देख रहे हैं हमें!" कहा मैंने,
फिर उस बकरी का ध्यान वहां गया और वो ठेर लायी उन्हें! वे उचकते हुए, चले गए वो!
"लेट जाएँ ज़रा!" बोले वो,
"लेटो जी!" बोला मैं,
वो लेटे, आँखें बन्द हुई कि मुझे भी सुस्ती ने आ घेरा! मैं भी जगह बना लेट गया! बस फिर क्या था, कुछ सुस्ती का आलम, कुछ मन्द मन्द बयार! सो ही गए हम! आँखें तो खुलने का नाम ही न लें!
इसी तरह से दो घण्टे हो गए, अब कुछ ही देर बाद, सांझ हो जानी थी, हम उठे और स्नान कर आये!
शाम को कोई महफ़िल नहीं सजी! कल काम करना था इसीलिए, सामान तो था ही हमारे पास, बस जी ही नहीं किया!
वो रात हमने बातों में, कल्पनाओं में काटी! पल में लगे कि वो मन्दालवेणि अब चली और अब चली! एक एक करके सभी नाम आते चले गए! रात करीब एक बजे हम दोनों ही सो गए!
सुबह सात बजे नींद खुली, तैयार हुए, चाय-नाश्ता किया और सारा सामान बाँध लिया! हमें चार बजे वहाँ से निकलना था, क़ुदसी दूर तक सवारी मिल जाती फिर खरामा-खरामा आगे बढ़ना था! भोजन कर ही लिया था, मैंने उस दिन छाछ ज़्यादा पी थी, सफर में सबसे उम्दा रहा करती है ये! शरीर में पानी का सन्तुलन बनाये रखती है, ज़्यादा प्यास भी नहीं लगने देती! पानी की बोतलें भर ली थीं! और इस तरह हम चार बजे निकल गए थे, अब लौट कर आते तो कुछ न कुछ हाथ अवश्य ही लग जाता!
करीब साढ़े छह बजे हम एक मन्दिर के प्रांगण में थे, यहां एक हॉल बना हुआ था, उसके पुजारी जी, सोमी के परिचित थे, जानते तो बाबा को भी थे, हमने वहीँ आराम किया, चूल्हे पर बनी, धुंए के स्वाद वाली पतली पतली सी चाय मिली, उस चाय ने तो अमृत-संजीवनी सा कार्य किया था! हमने वहीँ आराम किया, अब यहां से वो जगह तक़रीबन दो घण्टे के बाद आ जाती! बाबा के पास एक टोर्च थी, और शहरयार जी के पास भी, हमने उन्हें जांचा प्रकश और इस तरह करीब ढाई घण्टे बाद हम निकल लिए वहाँ के लिए!
सोमी, बड़े बाबा, प्रसाद बाबा, नरसिंह, मैं और शहरयार जी, निकल पड़े थे, बाबा प्रसाद के का सहयोगी वहीँ मन्दिर-परिसर में रुक गया था, फ़ोन चालू थे, कोई विप्पति आगे समक्ष हो, तप कॉल की जा सकती थी!
"बड़े बाबा?" पूछा मैंने,
"हाँ?" बोले वो,
"क्या सभी बाबा लोग इसी मार्ग से आये होंगे?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोले वो,
"तो फिर?" पूछा मैंने,
वे रुके, सीधे हाथ की तरफ इशारा किया, मैंने देखा, टोर्च की रौशनी ने, उस अँधेरे को उधेड़ दिया था!
"उधर करीब पन्द्रह किलोमीटर दूर वो प्राचीन स्थान है!" बोले वो,
"कौन सा?'' पूछा मैंने,
"बाबा मेघ एवम बाबा अम्भ का स्थान!" बोले वो,
"नमन है उन्हें!" कहा मैंने,
"और हम जहां जा रहे हैं, वो लुम्बी है जगह!" बोले वो,
"मतलब वो त्रि-संग?" पूछा मैंने,
'हाँ वही, तिगड्डा!" बोले वो,
हम फिर से आगे चलने लगे! अजीब अजीब सी आवाज़ें आ रही थीं, कुछ पशुओं की और कुछ पंछियों की! कुछ बगुले अभी भी फुदक रहे थे आसपास! उधर, ऐसी कोई जगह नहीं थी जहां से मेंढकों की आवाज़ें नहीं आ रही हों!
"यहां पान्नुप मेंढक मिलता है!" बोले बाबा,
"ये कौन सा है?" पूछा मैंने,
"इसकी रीढ़ की हड्डी जैसे चमकती है, पानी में, पीले से रंग की!" कहा उन्होंने,
"कमाल है!" पूछा मैंने,
"कभी सुना नहीं?" पूछा उन्होंने,
"कभी नहीं!" कहा मैंने,
"इसके मांस से दुःसाध्य रोग ख़त्म हो जाते हैं!" बोले वो,
"अच्छा?"" कहा मैंने,
"हाँ इसकी चर्बी के तेल से!" बोले वो,
"वाह!" कहा मैंने,
"लेकिन ये दुर्लभ है!" बोले वो,
"लोग मार देते होंगे?" पूछा मैंने,
"हाँ, यही वजह है!" बोले वो,
"कुछ को सांप खाते होंगे!" कहा मैंने,
"सांप नहीं खाता इसे!" बोले वो,
"अरे?" मैंने हैरानी से पूछा!
"हाँ, ज़हरीला होता है!" बोले वो,
"सांप से भी?" पूछा मैंने,
"हाँ, होता ही होगा!" बोले वो,
"कमाल है ये भी!" बोला मैं,
और हम चलते रहे, बाबा उस रास्ते के अभ्यस्त थे, हम उन्हीं के पीछे पीछे चल रहे थे!
"वो देखो!" बोले वो,
मैंने रौशनी डाली उधर!
"क्या है?" पूछा मैंने,
"कुआं!" बोले वो,
"कुछ विशेष?" पूछा मैंने,
"कहते हैं दो रास्ते हैं इसमें!" बोले वो,
"क्या सच?" पूछा मैंने,
"हाँ, दो रास्ते हैं नीचे ही नीचे!" कहा उन्होंने,
"कहाँ जाते हैं ये रास्ते?" पूछा मैंने,
"एक तो पहाड़ पर कराता है और दूसरा कहीं, कहते हैं, बन-मेखला देवी का है मन्दिर आखिर में!" बोले वो,
"भूमि के अंदर?" पूछा मैंने,
"यहां बहुत कुछ है भूमि के अंदर!" बोले वो,
"रहस्य!" कहा मैंने,
"बहुत!" बोले वो,
पीछे खड़-खड़ सी हुई , मैंने रौशनी डाली.........और!
"क्या हुआ?" मैंने ज़ोर से पूछा,
शहरयार जी तो संग ही चल रहे थे मेरे, शायद और ही कोई बात हुई थी!
"कुछ नहीं, पाँव फिसल गया था, पत्थर नीचे गिरे थे!" आयी आवाज़ सोमी की!
"चोट तो नहीं लगी?" शहरयार जी ने पूछा!
"नहीं जी, चलो!" बोली वो,
"आराम से चलो!" बोले शहरयार जी!
"हाँ, ठीक है!" बोली वो और हम आगे चलने लगे! बड़ा ही घुप्प सा अँधेरा था, कहने को शुक द्वादशी थी, लेकिन अँधेरा ऐसा था, शायद पेड़ों की परछाइयों के कारण कि हाथ को पाँव नहीं सूझे और पाँव को गड्ढा!
"बाबा?" बोला मैं,
"हाँ?" बोले वो,
"इस बन-मेखला के बारे में सुना तो है, देखा कभी नहीं!" कहा मैंने,
"जंगल की देवी होती है ये! नौ वर्ष की कन्या से, प्रौढ़ रूप में मिलती है! ये सिद्ध नहीं होती, जंगल कले सभी संसाधनों पर इसी का साधिकार रहता है!" बोले वो,
"वन-देवी यही है?' पूछा मैंने,
"नहीं, वो अलग है!" बोले वो,
"दोनों में अंतर क्या?" पूछा मैंने,
"वन-देवी, उनके पेड़ पर बैठती है, जहाँ बैठती है, उसके नीचे की भूमि गीली रहती है, ये पुरुषों को, किशोरों को भरमाती है!" बोले वो,
"तो समझो काम ख़तम उसका फिर!" कहा मैंने,
"ऐसा भी नहीं है!" बोले वो,
"समझा!" कहा मैंने,
"सिर्फ वन-देवी ही जंगल की सीमा तक आती है, बन-मेखला नहीं!" बोले वो,
"इसकी पहचान?" पूछा मैंने,
"हाँ इत्र की सी गन्ध आती है इसके आसपास!" बोले वो,
"किस प्रकार की गन्ध?" पूछा मैंने,
"जैसे मान लो कि रात की रानी पौधे की!" बोले वो,
"अच्छा, और रूप?" पूछा मैंने,
"सुंदर, सजीली! गोरे रंग की, माथे पर सुनहरी सी बिंदी लगाती है, भौंहों पर, ओंस सी होती है! और कद इसका हमेशा ऊँचा ही रहता है! एक ही वस्त्र से सारा शरीर ढके रहती है! और सिर्फ यही है, जो, खड़ाऊं पहनती है!" बोले वो,
"आपने देखी है?" पूछा मैंने,
"जब जवान थे, तब कुछ शौक हमारे भी अलग ही थे, निडर थे ही, चाचा हमारे, अच्छे साधक थे, डर कोई था नहीं, तब एक बार देखी थी हमने, देखा जाए तो ये माल्यवती गोटी है!" बोले वो,
"माल्यवती! यानि उप-देवी!" कहा मैंने,
"हाँ, इसका वास, पांच साँपों की बाम्बियों के नीचे, भूमि में रहता है! जब ये निकलती है वास में से, तो सर्प रूप में कुछ दूर जाती है, इस सर्प में शतरंज जैसे चौकड़ होते हैं, ये नीले और चँदीली रंग के सर्प जैसी देखती है!
"ये नहीं रिझाती पुरुषों को?" पूछा मैंने,
"रिझाती हैं इसकी सखियाँ!" बोले वो,
"सखियाँ?" पूछा मैंने,
"हाँ, वे हैं, काम्प्रि, कौलुषा, किन्वा, कलिंगी और कुर्षिणि! कुल पांच!" बोले वो,
"सभी का नाम क से ही है!" कहा मैंने,
"हाँ! जानते हो?" बोले वो,
"क्या?" पूछा मैंने,
"माँ कूष्मांडा एवम कात्यायिनि ये दोनों नाग-वंशी सिद्धानि हैं, अर्थात, ये सिद्ध देवियाँ हैं!" बोले वो,
"सिद्धानि हैं ये तो पता है, नाग-वंशी हैं ये नहीं पता, सुना था कभी पहले! और आपने कहा कलिंगी, कलिंग-देश में ही तो चौंसठ योगिनियां सर्प-रूप से निकली हैं! अब आया समझ!" कहा मैंने,
"हाँ, इसीलिए, हमारे यहां सर्प पूज्य होते हैं!" बोले वो,
"अब कहाँ बाबा? अब तो मार ही देते हैं इन बेचारों को!" बोला मैं,
"हाँ, तभी तो पछताता है वंश उनका? बालक होते नहीं, होते हैं तो बचते नहीं, बचते हैं तो शारीरिक-दोष होता है, अथवा मानसिक भी!" बोले वो,
"ये तो मैंने देखा है बाबा, कई मामले ऐसे देखे हैं मैंने!" कहा मैंने,
"यदि सर्प आपसे सम्मुख हो, राह देने पर भी न हटे, तो समझो उसने अपना ही कोई देख लिया है सामने, कोई पुरखा, सर्प-रूप में!" बोले वो,
"हाँ, ये भी सुना है बाबा!" कहा मैंने,
"सर्प यदि गलती से भी मार दिए जाए, जा जला दिए जाएँ, तब भी महापाप तो होता ही है!" बोले वो,
"हाँ बाबा, यदि सर्प काट ले, और कोई दवा उपलब्ध न हो, झाड़न न हो तो श्री दैत्यगुरु शुक्राचार्य माँ मन्त्र जप, उस काटे पर, थूक लगा लेना चाहिए! विष-स्तम्भित हो जाता है, जीते रहने के अवसर बन जाया करते हैं!" कहा मैंने,
"हाँ, मात्र उन्ही का है ये मन्त्र!" बोले वो,
"हाँ, जब गले में लटके वासुकि श्री शिव से क्रुद्ध हो गए किसी बात पर, तब दैत्यगुरु शुक्राचार्य ने मन्त्र रचना की उनके लिए! तब जाकर, श्री शिव के गले में जा पड़े!" कहा मैंने,
"वो तो भोले हैं! बालक भी क्रुद्ध हो जाए तो स्वतः ही चले आते हैं मनाने! जय भोले भंडारी! न मैं जड़ा, न पुजारी!" बोले वो!
"आओ इधर!" बोले वो,
"हाँ बाबा!" कहा मैंने,
और हम एक जगह ऊपर के लिए चढ़ गए!
"ये रमास के पौधे हैं?" पूछा मैंने,
वे चुप्प!
"नहीं ये रमास नहीं है!" कहा मैंने,
"ये भन्क है!" बोले वो,
"किस काम आती है?" पूछा मैंने,
"इसमें बाँझ को भी मातृत्व देने की शक्ति है!" बोले वो,
"सच में?" पूछा मैंने,
"हाँ, सच में!" बोले वो,
"और ये, ये षिलोण झाडी है!" बोले वो,
"इसका लाभ?" बोले वो,
"इसके पत्तों के सेवन से, अस्थमा, क्षय-रोग आदि का शमन हो जाता है!" बोले वो,
"अद्भुत!" कहा मैंने,
उस रास्ते से चढ़ते हुए, हम आगे की ओर चल पड़े! ये रास्ता चढ़ने में कुछ ऊंचाई सी लिए था! सांस सी चढ़ने लगी थी! एक तो अँधेरा बहुत था, टोर्च न होती तो शायद दिशा भी भूल जाए कोई भी! अगर ध्रुव-तारे का ज्ञान नहीं हो, तो वही भटकता चला जाए आम आदमी तो! न कोई शहर की बत्ती ही नज़र आ रही थी, न कोई अन्य पहचान वाला स्थान! ऐसा लगता था, 'निर्जन-देवता' आ पसरे हो यहां और आराम फरमा रहे हों!
"बड़ा ही घुप्प अँधेरा है!" कहा मैंने.
"और उस वक़्त की सोचो?" बोले वो,
"हाँ, कमाल ही है!" कहा मैंने,
"वे लोग अभ्यस्त थे!" बोले वो,
"अवश्य ही होंगे!" कहा मैंने,
"वे विशेष था, आजकल की तरह नहीं, कि अँधेरे की भभक से ही दिल रुक जाए इस से पहले कि कोई कारण दिखे!" बोले वो,
"सच बात है!" कहा मैंने,
"गाँव-देहात में आज भी ऐसे लोग हैं, चल लें कई कई कोस पैदल ही!" बोले वो,
"साफ बात है, विज्ञान ने हमें जहाँ 'शार्ट-कट' दिया है, आरामतलब बनाया है, इसका उल्टा ही असर हमारे शरीर पर हुआ है!" बोला मैं.
"और क्या!" बोले वो,
"अब और कितना?" पूछा मैंने,
"बस कोई एक किलोमीटर!" बोले वो,
"ओहो! बहुत है!" कहा मैंने,
"कुछ भी नहीं!" बोले वो,
"अरे बाबा, आप हो पुराने चावल और हम हैं मिलावटी खाने वाले!" कहा मैंने,
"ये तो है!" बोले वो,
"तो हमारा क्या मुक़ाबला!" कहा मैंने,
"आगे रास्ता नीचे चलेगा!" बोले वो,
"अच्छा, बाबा!" कहा मैंने,
जगह समतल हुई थी अब, कोई बड़ा पेड़ न दिख रहा था, ये कोई रास्ता था, जो शायद चलता होगा, अब वहां से ढलान आनी थी!
"अरे? नरसिंह?" बोले बाबा,
"हाँ जी?" आयी उसकी आवाज़,
"आगे आ ज़रा?" बोले वो,
नरसिंह दौड़ता हुआ आया आगे!
"अरे सुन?" बोले वो,
"हाँ जी?" बोला वो,
"कुछ खाने-पीने को लाया है?" पूछा गया!
"हाँ जी, पूरियां और शाक है!" बोला वो,
"ये बढ़िया हुआ!" बोले वो,
"रख ली थीं, वो प्रसाद बाबा ने कह दी थी!" बोला वो,
"पोत पड़ जाएगा सभी का?" पूछा बाबा ने,
"हाँ हाँ!" बोला वो,
"बस आ लिए हम फिर!" बोले वो,
बाबा और नरसिंह बातें करते हुए, आगे चलने लगे! यहां मैं और शहरयार जी एक हुए! उधर, पीछे प्रसाद बाबा सोमी के साथ हुए!
"लोगे मसाला? पजार दूँ?" बोले वो,
"ले आये थे?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
"तो लगाओ यार!" बोला मैं,
"रुको ज़रा!" बोले वो, और मैं रुक गया!
"जय जय भोले!" बोले वो, और जेब से दो भरी हुई सिगरेट निकाल लीं! एक जलाई और मुझे दी! चटक-चटक की आवाज़ आयी!
मैंने भरा कश!
और चल पड़े हम दोनों आगे, अब सबसे पीछे हो लिए थे हम!
"माल चोखा है?" पूछा शहरयार जी ने!
"मस्त मस्त है!" बोला मैं!
"अब तो यूँ कहो न आप कि साड़े में गोड़ी काढ़ दै, तो अभी काढ़ दूंगा!" बोले वो,
"हैं? इतना जोश?" बोला मैं,
"बम बम का माल, करे कमाल!" बोले वो,
"हाथ में त्रिसूल, और रखै न ढाल!!" कहा मैंने,
"आयो आयो रे, भोले तेरे संगी!" बोले वो,
"आज जा, बलधर कौन सा बजरंगी!" बोला मैं!
"चिलम फूंक रौ मैं, भर कै धतूरा-भांग!" बोले वो,
"आजा री इन्दर की साली, रचा लै औघड़ सांग!" बोला मैं,
""इंतज़ार पजरौ है, लेटो मैं, उतारन के लँगोट!" बोले वो,
"आ जा ब्रह्मा की लाडली, देखें कामै कितनी चोट!" बोला मैं!
"जय बम बम बम बम!" बोले वो!
"जय भंडारी भोला बम बम बम!" बोला मैं
और हमारी हुई सिगरेट ख़त्म! सूँत ली, जब तक कि होंठ न जले हमारे! नीचे गिरायी और मिट्टी में लपेट दी नीचे!
"बाबा दीख रहे हैं?" पूछा उन्होंने,
"हाँ वहाँ हैं!" कहा मैंने,
"दौड़ लो!" बोले वो,
और हम तेज क़दमों से दौड़ लिए बाबा के पास जाने के लिए!
"बाबा ने तो पहिया लगा लये!" बोले वो,
मैं हंस पड़ा! और चलता रहा आगे आगे!
"बताया नहीं, बाबा घाघ हैं बहुत! वो भी टेढ़े! काम की बात ही करते हैं, मात्र विषय से सम्बन्धित ही!" कहा मैंने,
"हाँ, ये बात तो देखी है मैंने!" बोले वो,
"वो देखो, सोमी और प्रसाद बाबा!" कहा मैंने,
"हाँ चलो, कहीं डांट ही ना मार दें!" बोले वो,
"डांट भले ही ना मारें, सुना ज़रूर देंगे!" कहा मैंने,
"ऐसा ही होना चाहिए इंसान को वैसे!" बोले वो,
"हाँ, सही कहा!" कहा मैंने,
और अब हमने बाबा प्रसाद को लगभग पर ही किया था कि,
"कहाँ रह गए थे?" बोले बाबा प्रसाद,
"पीछे ही थे!" कहा मैंने,
"पीछे नहीं, आगे चलो!" बोले वो,
"हाँ बाबा!" कहा मैंने,
अब बड़े बाबा के साथ हुए, उन्होंने हमें देखा, कोई भाव नहीं, चले जा रहे थे वो, उनकी टोर्च की रौशनी आगे रास्ता दिखाए जा रही थी!
"बाबा जी?" बोले शहरयार!
"हाँ, बोलो?" बोले वो,
"और कितना?' पूछा उन्होंने,
"क्यों क्या हुआ?" बोले वो,
"हुआ नहीं, पंक्चर होने वाला है!" बोले वो,
"सम्भाल कर रखो!" बोले वो,
और आगे जाकर, बाबा रुक गए! नरसिंह भी! हम भी आ गए, सामने का क्या विहंगम नज़ारा था! साक्षात जैसे स्वर्ग-वाटिका! मैं और शहरयार जी तो जैसे ज़मीन में ही धँस गए! दूर तक जल ही जल! कहीं चलता और कहीं ठहरता सा! उस जल में, आकाश के तारे और चन्द्र दीख रहे थे! जैसे, एक बहुत बड़ा ही जाल नीचे गिरा हो! एक बहुत बड़ा जाल! जहां तक देखो, वहीँ तक! चन्द्र जैसे अपने जुड़वां, ज़मीनी भाई से मिलने चले आये हों! संग लाएं हो सैंकड़ों तारों के समस्त परिषद! क्या छोटे और क्या बड़े! कुछ टिमटिमाते से, कुछ धूमिल! कोई कोई ऐसा तीव्र परकास लिए हुए, कि वो बस अब आया और अब आया नीचे! लाल, केसरी से, कोई चंदीला सा, कोई आग जैसे रंग का, कहीं अंगारों का झुरमुट और कहीं चटखदार नीले! वाह रे बनाए वाले! तेरी रचना तू ही जाने! क्या सजाया है तूने इस ब्रह्मांड का कोना कोना! तेरी रचना को, तेरे वैभव को तो कभी शब्दों में न पिरो सकूँ और न चित्र पर काढ़ सकूँ! न पाषाण पर उकेर सकूँ! न किसी मूर्ति में ही ढाल सकूँ! मेरे पास ऐसा कोई साधन नहीं! कोई यन्त्र नहीं, कोई संयंत्र नहीं! है मेरे ईश! मेरा तो तू प्रणाम ही स्वीकार करे तो मैं तो धन्य हुआ! धन्य हुआ!
मैं जैसे मद्य के प्रभाव में था! मेरी तो पलकें ही नहीं झपक रही थी! कहीं कोई दृश्य ही न चूक जाऊं!
"वो, उधर?" बोले बड़े बाबा,
"कहाँ?" पूछा मैंने,
"सामने!" बोले वो,
"अँधेरा है वहां!" बोला मैं,
"इधर आओ!" बोले वो,
मैं उधर गया, सामने देखा, लगा कि किसी वृक्ष पर दीये से बंधे हों! ये अत्यंत ही क्षीण थे, कभी नज़र आते, कभी नहीं! आँखों पर ज़ोर लगाओ, तो दीखते थे!
"हाँ, प्रकाश सा है उधर!" कहा मैंने,
"बाबा अम्भ का स्थान!" बोले वो,
"क्या?'' मैंने तो जैसे फटने से पहले पूछा हो!
"हाँ! बाबा अम्भ!" बोले वो,
"ओ मेरे भगवान! ओ मेरे भगवान!" कहा मैंने,
"जय बाबा समिध! जय बाबा मेघ! जय हे बाबा अम्भ! और जय शेष अन्य! मेरा रक्त-प्रणाम!" बोले बाबा!
"प्रणाम!" बोले हम सभी!
"तो बाबा? वहाँ कोई रहता है?" पूछा मैंने,
"हाँ, कुछ लोग!" बोले वो,
"कौन लोग?" पूछा मैंने,
"बेघर लोग!" बोले वो,
"इतने वर्षों बाद में, कल्याण-सेवा!" कहा मैंने,
"यही है मनुष्य का कर्तव्य!" बोले वो,
"यही सार है!" कहा मैंने,
"तो बाबा आज रात्रि?" पूछा मैंने,
"लौकिक मन्दालवेणि अवतरित होगी!" बोले वो,
"वो कहाँ? यहां?" पूछा मैंने,
"लौकिक?" शहरयार जी ने शब्द पकड़ा! मुझे प्रसन्नता हुई!
"हाँ, बाबा अम्भ भी तो लौकिक ही थे!" बोले वो,
"ओह! समझ गया!" कहा मैंने,
"आओ, नीचे चलें!" बोले वो,
"चलिए बाबा!" कहा मैंने,
और बाबा, नीचे चलने लगे!
"आहिस्ता से! झंखाड़ बहुत हैं!" बोले वो,
"अवश्य ही!" कहा मैंने,
हम नीचे उतरने लगे, जैसे जैसे नीचे उतरे, नमी की अधिकता बढ़ने लगी, दरअसल आसपास वनस्पतियां बहुत थीं, इसी कारण से, नमी बनी हुई थी! कुछ पत्थर भी थे वहां बड़े बड़े, जिन्होंने दिन की धूप को अवशोषित किया हुआ था, अब वो गर्मी के कण टूट-फाट रहे थे!
"आ जाओ!" बोले वो,
और रास्ता, अब बराबर सा हुआ!
"हाँ जी!" कहा मैंने,
एक नज़र पीछे देखा, सभी आ रहे थे धीरे धीरे! और जब हम उस तलहटी पर पहुंचे, तो तरावट के कारण, ठंडक हुई पड़ी थी, दूर दूर तक जो पेड़ थे, वो काफी दूर और ऊंचाई पर थे, हाँ, सरकंडों ने यहां अच्छी पकड़ बनाई हुई थी! ये कुर्रा-सरकंडा था, कुर्सी, पर्दा, चटाई आदि में प्रयोग की जाती है, ये नमी को नहीं सोंखती. इसीलिए मज़बूती से बनी रहती हैं! हाँ इसकी ज़मीन से काट सिर्फ एक कुशल व्यक्ति ही सकता है! कहीं एक जगह भी खरोंच लगी, तो उस्तरे जैसा घाव बना देता है! जिसने टाँके भी बड़ी ही मुश्किल से लगते हैं!
"इनसे बचना!" बोले बाबा,
"हाँ जी!" कहा मैंने,
और कुछ दूर जाकर, बाबा रुक गए, आसपास रौशनी डाली, ये जगह साफ़-सुथरी थी, बाढ़ या बारिश की कोई सम्भावना नहीं थी! उन्होंने दो चार क़दम आगे जाकर, जांच-पड़ताल सी की!
"नरसिंह?" बोले वो,
"हाँ जी?" बोला वो,
ये जगह ठीक है!" बोले वो,
"जी!" बोला वो,
"बिछा?" बोले वो,
"अभी लो!" बोला वो,
उसने कुछ छोटे-मोटे से पत्थर उठा क्र, दूर फेंके, हमने भी मदद की! रेतीली ज़मीन थी, सूखी हुई, लेटने में कोई नमी नहीं होती! तब नरसिंह ने, बिछावन बीच दिए! आ गए जी बाराती बरात में! सभी बैठ गए, आराम से, जो पत्थर अड़ा, उसे दूर फेंक दिया! अब सारा सामान रख दिया उधर ही!
"पहले कुछ भोजन-पानी ले लो, बाद में जूठन बचेगी, कीट-पतंगे चले आएं, कोई जानवर भी आ सकता है, तब मैं कील दूंगा!" बोले वो,
"जो आज्ञा!" बोले प्रसाद बाबा जी!
"नरसिंह, पानी पकड़?" बोले वो,
"जी" बोला वो,
उसने पकड़ा पानी और हमने हाथ धो लिए, एक तरफ ही! और आ जाते थे बिछावन पर! बैठ जाते!
"निकाल ले भोजन?" बोले वो,
"निकाल रहा हूँ!" बोला वो,
दोनों ही टोर्चें ऐसे रखीं कि उस जगह रौशनी हो, तो लगाया गया भोजन, खाना शुरू किया और करीब बीस मिनट में ही खान-पीन निबट गया!
"यहीं रहो!" बोले बाबा,
और चल पड़े! उस स्थान से जूठन एक तरफ रखवा दिया नरसिंह ने, हाथ धोये और उस स्थान को कीट-पतंगों के आक्रमण से, पशुओं से बचाव हेति कीलन कर दिया! और आ बैठे! मैंने घड़ी देखी, सवा ग्यारह बज चुके थे यहां पर!
"वो समय कब का है?" पूछा मैंने,
"मध्य-रात्रि!" बोले वो,
"अभी तो देर है" कहा मैंने,
"हाँ लोट जाओ!" बोले वो,
'हाँ, ठीक!" कहा मैंने,
सर के नीचे बैग लगाया, और लेट गए! ऊपर तारे अपना ही श्रृंगार क्र, हमें ही दिखा रहे थे! चन्द्रमा को, आदि छितराई से बदरी ने ढका हुआ था!
"जगह कितनी प्यारी है!" बोले शहरयार जी,
"सच!" कहा मैंने,
"कहीं शहरों में देखी?" बोले वो,
"वहां तो सूरज ही मध्यान्ह में दिखे!" कहा मैंने,
"इधर देखो!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"प्रकृति का जादू है ये!" बोले वो,
"सही बात!" कहा मैंने,
"आब-ओ-हवा अच्छी मिले तो समझो उस से बढ़िया दवा नहीं!" बोले वो,
"इसीलिए प्रकृति-व्यवहार उचित माना गया है!" कहा मैंने,
"यहां बीमारी होगी कैसे?" बोले वो,
"यही उत्तर है!" कहा मैंने,
"ऊपर देख, थाल मोतियों का!" बोले वो,
"हाँ थाल! तारों का!" कहा मैंने,
"अच्छा सुनो?" आयी आवाज़ बाबा की!
"हाँ बाबा?" बोला मैं,
"सोना हो तो सो जाओ, तीन घण्टे हैं, बाद में नहीं मिलेगा समय!" बोले वो,
"अच्छा बाबा!" कहा मैंने ,
बाबा ने कह तो दी थी कि आराम करना हो, तो सो जाओ! पर आज रात नींद किसे आनी थी! आज तो नेत्रों में हमारी नींद के जुगनू जल-बुझ रहे थे! टिमटिमा रहे थे, उस दृश्य में, मेंढकों की टर्र-टर्र आवाज़ें आ रही थी! लेकिन हैरत तो ये, कि आवाज़ें हमे सदा इस मूर्त-संसार में बरबस खींच लाती हैं, लेकिन ये आवाज़ें तो हमें शून्य-केंद्र में खींचे रही थीं! कैसे किसे अनूठे उदहारण हैं इस संसार में! उनको देखो, तो पता चलता है उनका अस्तित्व! उनका महत्व! आप नागफनी को लीजिये, कोई लाभ? नहीं, हों भी तो, सुरक्षा मात्र दीवारों पर लगाकर उनके पौधे या झाड़ियाँ! अब देखी, निर्जन रेगिस्तान, एक एक गरम हवा, आपके शरीर का पानी सुखाती चली जाए! सर पर सूरज, यमराज बन, सब देख, हंस रहे हों! और ये नागनी, आमंत्रित प्रदान करती है, इसका गूदा जल, तरल एवम खनिजों से भरपूर रहता है! गूदे के भरोसे ही, कई दिन काटे जा सकते हैं! इसमें बने पक्षियों के नदी, भोजन हुआ करते हैं, जड़ों में रेगिस्तानी बड़े चूहे मिलते हेम उनके बिल खोदो, अन्न या सामग्री मिल जायेगी! दिवः समय इसकी छाय में नमक सोखने की प्रचुरता होती है, शरीर से, विषजन्य पदार्थ बाहर आ जाएंगे! और ये स्वयं:? कुछ नहीं खाती! प्रकाश से साझा करती है, मिला भोजन, अपने ऊपर पलने वालों को! तब इस से बड़ा जीवन-दायक कौन? क्या अनूठा उदहारण है! जल में मीन हैं, केकड़े हैं और भी हैं, जिन्हें भोजन रूप में खाया जा सकता है! वनस्पतियां हैं! वृक्ष नोंकदार पत्तों वालों के फल विषैले नहीं होते! गोल वालों के होते हैं! यदि वर्षा-वन हैं तो तब गोल पत्तों वाले वृक्षों के फल भी खाने योग्य रहेंगे! जैसे अंजीर, कटहल आदि! ये प्रकृति हमारा लालन-पोषण करती है, और हम, इसका मर्दन! रौंदते जा रहे हैं, काटे जा रहे हैं, वन-सम्पदा नष्ट होती जा रही है, इस से पशु, दुर्लभ पशुओं की संख्या, गिनती पर गिन लो! औषधियों का नाश हो रहा है, और ज़िम्मेवार कौन?: मात्र हम! 'समझदार, विवेकी, पढ़े लिखे, सभ्रान्त लोग' ही तो!
जब से पानी टँकी से निकला है, मिलावटी, जल-जन्य रोग बढ़ ही रहे हैं! न सब्जियों में ही वो गुण, न पानी में गुण! तो गुण आएं कहां से भला!
"क्या कहते हो?" पूछा मैंने,
"किस बारे में?" बोले वो,
"नींद?" कहा मैंने,
"आपको आयी है?" पूछा उन्होंने,
"नहीं" कहा मैंने,
"मुझे भी नहीं!" बोले वो,
"सुनो?" आयी आवाज़ बाबा की!
"जी? जी हाँ?" मैंने उठते हुए कहा,
"आपने पूछा था न कि प्रतीक्षा या प्रेम?" बोले वो,
"हाँ बाबा!" कहा मैंने,
वे अब चुप हुए, उनका रुका अश्व, अब वर्तमान से पीछे लौटने लगा! कई अवरोध आये, जाने, पहचाने! और फिर ठहरा एक जगह! कहाँ? सौर-कुंड!
"बांधेय?" बोले वो,
"आदेश!" कहा मैंने,
"ये सौर-कुंड है!" अपने हाथों से सामने संकेत कर के कहा! मैं जानता था ये सौर-कुंड नहीं! परन्तु, उनके नेत्रों में वही सौर-कुंड था!
"वो वहां, हिमकुट!" बोले बाबा,
"जी!: कहा मैंने,
"सर्वत्र, श्वेत ही श्वेत!" बोले वो,
"जी!" कहा मैंने,
"वे रुक गए हैं, पीछे देखा, चार अश्व और!" बोले वो,
"जी!" कहा मैंने,
"बाबा की दाढ़ी पर, हिम जमने लगी हेम त्रिशूल जैसी हो चली है!" बोले वो,
"जी बाबा!" कहा मैंने,
"ऊपर देखा, छह हिमकुट!" बोले वो,
"जी बाबा!" कहा मैंने,
"बाबा के हाथ में, एक अस्थि-पात्र है!" बोले वो,
"अस्थि-पात्र?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोले वो!
आँखें बन्द कर लीं अपनी! इसे उच्च-श्राविक ध्यान करना कहते हैं!
"पात्र में क्या है?" पूछा मैंने,
"बाबा मेघ की भस्म!" बोले वो,
मेरा हृदय, धक्क से हुआ!
"ये क्यों बाबा?" पूछा मैंने,
"इच्छा!" बोले वो,
"किसकी?" पूछा मैंने,
"बाबा अम्भ!" बोले वो,
"ओह! अच्छा!" बोला मैं,
"अब एक छोटा सा हिमनद आया है, एक बार में एक गुजर रहा है!" बोले वो,
"जी बाबा!" कहा मैंने,
"आगे एक हिम-शैल है! छोटा सा! रुक गए बाबा!" बोले वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"यहां पाँव टिका अश्व से उतर गए वो! और अपना शव, लगाम से हांक लिया आगे, ताकि सभी अश्व-सवार उतर सकें!" बोले वो,
"जी बाबा!" बोला मैं,
"और......................!!
"अश्व से उतरे तो हर तरफ देखा, मुंह पर, किसी गरम कपड़े के, जो किसी पशु-चर्म से बना था, लपेट रखा था! उनके चारों साथियों ने भी ऐसे ही वस्त्र धारण किये हुए थे, हिम किसी भी देह की आखिरी हद तक परीक्षा लेती है! देह की ऊष्मा, वस्त्र और त्वचा में बीच बनी रहे, खून जमे नहीं, दिल धड़कता रहे, इस सभी का परीक्षा! वे जपी-तपी मनुष्य थे, 'उष्ण' से उष्ण में भी बने रहने वाले लोग! यहां के जो मूल-निवासी हैं, वे बेहद ही अलग हैं! वहाँ हर वस्तु ठंडी रहती है, ऐसे ही वे विशेष पशु भी! यहां वो ही रह सकता है ज़िंदा जिसमे जीवट नाम की अभेद्य ढाल हो! जानते हो न?'' बोले वो,
"हां बाबा, जानता हूँ!" बोला मैं!
मैंने बोल तो दिया था, पर, पल भर में ही मुझे शीतलता का सा एहसास होने लग! लगा मेरे आसपास भी चीड़ के वृक्ष लगे हैं और हिम ने उन्हें बड़ी ही खूबी से सजाया है! लगा, हिम से रिसता हुआ जल, मेरे पांवों की एड़ियों से छूकर जा रहा है, जैसे मैं ठिर्रा रहा होऊं! उस हिम-स्थल की शान्ति में बस, कुछ टपके हुए जल की बूंदें ही सुनाई दे रही हों! अब अंदाजा लगाना आसान था, की हिम के उस 'कूप' में आ जाना और फिर, निकल आना, पढ़ने में, लिखने में जितना सरल सा प्रतीत होता है, उस से सहस्त्र गुना, वहाँ का माहौल, एक पल को जीने जैसा है! श्वेत हिम ही हिम! कोई इस फट जाएं, या एड़ियां फट जाएँ तो उस श्वेत धरातल पर लकीर ही बन जाएँ गाढ़े रक्त की, लाल और लाल!
अब तो हमारे पास सौइयों उपाय हैं, पल में आग जला लो, पल में ही गर्मी पैदा कर लो, पल भर में वायु-रहित असबाब कस लो! दवाइयां, ऑक्सीजन गैस, सब उपलब्ध हैं, आधुनिक संयंत्र हैं! तब? तब क्या था, सब यही देह रही होगी! बस ये ही देह! हिम में चमड़ा कैसा सख्त हो जाता है, फिर वो अश्व? कैसे लौह के बने होंगे! कैसा मांस उनका लौह का रहा होगा! सोचते ही फुरफुरी सी चढ़ती है!
"चौड़ा पौरुषिक वक्ष! चौड़े स्तम्भ जैसे खम्बे और जंघाएँ, उभरी हुई मांस-पेशियाँ, कद ऐसा विशाल कि हम तो कोई दूसरी ही सत्ता समझ लें उसे! चौड़ा, उन्नत ललाट! चौड़ा ही चेहरा और ढाल जैसे हाथ और पाँव!'' बोले वो,
"मैं कल्पना कर सकता हूँ बाबा!" कहा मैंने,
"कैसी भी कल्पना करो, वे उस से अधिक ही होंगे!" बोले वो,
"अवश्य ही होंगे!" कहा मैंने,
"सामने, उधर(अपने सीधे हाथ से इशारा करते हुए) सौर-कुंड है! जम हुआ, बीच में कच्चा हिम, जिसमे अपना अक्स दिखाई दे, वही था! वो बाबा अम्भ, जिसकी आयु मात्र चौबीस रही होगी, उस अस्थि-कलश को ले आगे बढ़, शेष चार, पीछे ही रह गए! कलश को, पात्र को, सर से ऊपर किया, भगवान सूर्य को नमस्कार किया और चारों दिशाओं में पात्र घुमाया और, चल पड़ा वो आगे! अपने पुत्र-धर्म को निभाने के लिए! उस पिता के लिए, जिसने जतन तो लाख किये, लेकिन यही पूर्ण न हो पाया! यही उस पिता का, इस पुत्र के हाथों तर्पण ही कहा जाएगा!" बोले वो,
"अवश्य बाबा!" कहा मैंने!
"सन्तान कोई भी हो, दो के ऋण से मरणोपरांत भी उऋण नहीं हो पाता! यही शाश्वत बन्धन है! वे दो, माता और पिता का ऋण! मानो तो ये ऋण है न मानो तो कुछ नहीं, मात्र एक छोटा सा शब्द ही!" बोले वो,
"निःसन्देह बाबा!" कहा मैंने,
बाबा चुप हुए, चन्द्र को देखा!
"चन्द्र को देखते हो?" बोले वो,
"हाँ बाबा!" बोला मैं,
"यही ऋण चुका रहे हैं, युगों से, कभी आह नहीं, उफ़ नहीं, आंधी, तूफान, सौर-प्रचण्डिका, वर्ष, ग्रहण में ग्रास होते हैं, परन्तु अगले ही क्षण, उसी ऋण में डूब आगे बढ़ चले हैं!" बोले वो,
"हाँ बाबा, जानता हूँ!" कहा मैंने,
"मैं क्या कोई नहीं कहता कि चंचलता स्वाभाव में हो, तो और प्रखर हो जाता है स्वाभाव! चन्द्र चंचल है, कलाएं बनाते हैं, सूर्य स्थिर हैं, समतापी हैं, परन्ति, सखा होते हुए भी कभी ये दोनों, मिल नहीं पाते! एक आता है, और एक जाता है! सदियाँ गवाह हैं, युग गवाह हैं, पर चन्द्र, हे चन्द्र! आप धन्य हो! आप तो प्रत्यक्ष गवाह हो! प्रणाम स्वीकार करें है चंद्रदेव!" बोले बाबा हाथ जोड़ते हुए!
"हे चन्द्रदेव! प्रणाम!" कहा हम सभी ने भी!
बाबा ने पल भर बाद ही नेत्र बन्द कर लिए! कुछ क्षण समय की ओखली में, प्रतीक्षा के मूसल से कूटे गए! और फिर बाबा ने आगे बोलना आरम्भ किया!
''ये मनुष्य है या फिर कोई भटकता देव? कोई यक्ष या गांधर्व? या कोई असुर राजकुमार? द्वंदा या फिर, विद्याधर? कौन है ये?? जल के नीचे से किसी के सर्पिल से नेत्रों ने अवलोकन किया! अवलोकन करते ही, काम-मंजरी से खटास सी उभरी उसकी ग्रीवा में! विह्वलता चरमोत्कर्ष पर जा पहुंचे! जी करे उसका, जिसको सदैव ही, हृदय में एक कोठरी देनी चाही, जो अब तक रिक्त ही थी, वो अतिथि आन पहुंचा!" बोले वो,
"मन्दालवेणि! अलौकिक! इस बार!" बोले वो,
अब मैं चुप हो गया! मुझे तो जैसे चस्पा कर दिया गया उस अक्स झलकाने वाले जल में! कृमि तो बहुत ही बड़ा हो, मैं तो सूक्ष्मतम स्तर पर रहूँ, यही मेरे लिए महापार सम्पदा से न्यून नहीं!
"धन्य बाबा अम्भ!" कहा मैंने,
"और उस सौर-कुंड के मध्य में एक भँवर उठी! बाबा रुक गए! उस भँवर के शीर्ष पर, मन्दालवेणि स्वयं हो खड़ी थी! अपार सौंदर्य सम्पदा की स्वामिनि, बड़े बड़े गुलाबी नेत्र! सुनहरी रोएं, काले चटकीले, स्वर्ण-खचित से वस्त्र! अंग ऐसे, कि विद्रोह कर रहे हों! पीछे जल में, लटकती हुआ उसकी, केशों की छोटी! उस छोटी से लिपटे, कामद-सर्प जैसे आभूषण! उसके तीव्र प्रकाश से कोई भी नेत्र-ज्योति खो बैठे! परन्तु अम्भ? लेशमात्र भी प्रभाव नहीं!" बोले बाबा!
"हे देवपुत्र! मेरे संग वास करें!" बोली वो, अनुनय से! वाणी ऐसी कि कोई भी आपा खो दे! कर दे न्यौछावर समस्त तप का फल उसके अनुनय को स्वीकार कर! परन्ति अम्भ? विशाल एवम अडिग से खड़े रहे बाबा अम्भ!
"रूपसी, मेरा मार्ग छोड़िये!" बोले वो,
किस कारण से है देवपुत्र?" बोली वो,
"मैं देव पुत्र नहीं! मनुष्य हूँ!" बोले वो,
"मैं नहीं मान सकती!" बोली वो,
"मुझे तर्पण करना है!" बोले वो,
झट से जल में गहरा एक कूप बना! तीव्र घूमते जल जा!
"दीजिये स्थान इधर!" बोली वो!
"नहीं रूपसी! बस मैं और ये सौर-कुंड! और कोई नहीं!" बोले वो,
"मैं, मन्दालवेणि हूँ देवपुत्र!" बोली वो, कुम्हलाते हुए, नृत्य की भांति सर्पेश मुद्रा में देह में गठाव देते हुए!
"दम्भी प्रतीत होते हो!" बोली वो,
"ये दम्भ है? यदि कर्तव्य-निबाह दम्भ है, तो सही सोचा आपने!" बोले बाबा अम्भ!
"गंतव्य दूर है!" बोली वो,
"दूर ही तो, अगम्य तो नहीं, मन्दालवेणि!" बोले वो.
"मैं इस कुंड की स्वामिनि हूँ!" बोली वो,
"तो? कोई अचम्भा?" पूछा उन्होंने, ये सुन, मन्दालवेणि, झूम उठी! मुख-मण्डल पर तीव्र सुनहरी लालिमा आ गयी! रक्तिम से होंठ, स्वर्णप्रभा सादृश्य हो गए! और एक तक, दोनों हाथ बाँध, उन्हें ही देखने लगी!
"मार्ग दो देवी!" बोले वो,
"और न दूँ तो?" पूछा उसने,
"तब, भी तर्पण तो होगा!" बोले वो,
"क्या ये सम्भव है? मेरे होते, देवपुत्र!" बोली वो,
"अम्भ के लिए कुछ भी सम्भव है!" बोले वो,
"प्रसन्न हुई मैं!" बोली वो,
"न होतीं तब भी अम्भ यही करता!" बोले वो,
"अच्छा?" पूछा इठलाते हुए!
"क्या कर पाओगे?" बोली वो,
"अवमानना आपकी ही होगी देवी!" बोले वो,
अचानक से, परभव-मुद्रा में अपनी देह को आगे मोड़ा उसने, और हाथ से, संकेत किया की तर्पण कर के दिखाएं!
"एक सरल ही मुस्कुराहट अम्भ के होंठों पर आयी! उन्होंने मन्त्र पढ़, जल ने मार्ग दिया, वे आगे बढ़े! मारे कौतूहल के, मन्दालवेणि चकित होती तो भी क्या करती! खैर, वो उस पुरुष अम्भ के और निकट आ गयी! बाबा ने, पात्र सर के ऊपर किया! मन्त्र पढ़ और वो भस्म, स्वर्ण से बन, उस कुंड के बीच में, जलधारा सी बनाती हुई, कुंड में जा बसी! पल भर के लिए, बाबा मेघ की भस्म से, वो सम्पूर्ण जल, स्वर्ण बनता चला गया! उसकी चौंध, किसी को भी नेत्रहीन कर देती! ये था बाबा अम्भ का सामर्थ्य!
पात्र में जल भर, नौ नैवेद्य दिए, और पात्र को आदेश दिया, जब तक कुंड रहे, तू वहीं बसना! मित्रगण! वर्ष में दो बार, ये जल स्वर्णिम हो उठता है! वो जल-कुंड, अपने आपको जहां सौभाग्यशाली समझता है, उस पात्र का धन्यवाद करता है! ये दोनों प्रकार के ग्रहणों के दौरान होता है!
"हे देवपुरुष!" बोली वो,
"हाँ देवी?" पूछा उन्होंने!
''आप कौन हैं, परिचय दीजिये?" पूछा उसने,
"मैं बाबा समिध का पौत्र, बाबा मेघ का पुत्र सम्भ हूँ!" बोले वो,
"मुझे आभास था! कि ये सामर्थ्य मात्र उनकी वंश-बेल से ही साध्य है!" बोली वो,
"धन्यवाद, प्रणाम!" बोले वो,
और जल जिसने मार्ग दिया था, उनके पीछे आते आते, बन्द हो, एक समान होते चला गया!
"रुको?" बोली वो,
"हाँ?" बोले वो,
"मेरा निवेदन स्वीकार नहीं करोगे?" पूछा उसने,
"कैसा निवेदन? बताया ही नहीं?" बोले वो,
"मुझे अर्धांगिनी बना लो! मैं और आप, इस कुंड में वास करेंगे!" बोली वो, समीप आ कर!
बाबा अम्भ, एक बार फिर से हंसे! मुस्कुराये! अब ऐसा कौन सा माटी का पुतला होगा, कौन सा मनुष्य होगा, तो उस राजसिक वैभव, राजसिक-काम से वंचित होना चाहेगा! कम से कम एक ही हुआ, और वो, मात्र बाबा अम्भ!
"स्वीकार करें!" बोली वो,
कुछ न बोले अम्भ!
"मैं, नटज्ञ ही रहूंगी आपकी!" बोली वो,
बाबा फिर कुछ न बोले, वे तो ऐसे खड़े थे, जैसे उनके समझ कोई अबोध सी नवयौवना ऐसा कुछ किये जा रही हो, जिसे अपने ही शब्दों का बोध न हो!
"अम्भ?" बोली वो,
"हूँ?" बोले वो,
"स्वीकार करो!" बोली वो,
"न करूँ तो?" बोले वो,
"कोई मुझसा है?" पूछा उसने,
"नहीं, नहीं देखा!" बोले वो,
"क्या मैं योग्य नहीं?" पूछा उसने,
"मैंने मना नहीं किया!" कहा उन्होंने,
"कोई ऐसा सुख, जो दे न सकूँ?" बोली वो,
"मुझे चाह नहीं!" बोले वो,
"इतने कठोर हो?" बोली वो,
"नहीं तो?" बोले वो,
"फिर मान जाओ ना?" बोली वो,
"जो मेरा नहीं, वो मेरा नहीं!" बोले वो,
"मैं आपकी ही बनना चाहती हूँ!" बोले वो,
"असम्भव!" बोले वो,
"क्यों?" पूछा उसने,
"भस्मीकृत कर देगा मेरा लघु सा भी कोना आपको देवी!" बोली वो,
"बुझाना आता है!" बोली वो,
"नहीं आता! अबोध हो!" बोले वो,
"ऐसा नहीं है!" बोली वो,
"ऐसा ही है!" बोले वो,
"नहीं!" बोली वो,
"है!" बोले वो,
और आगे बढ़ चले, सहसा ही आगे प्रकट हो गयी वो!
"देवी, सत्य कहता हूँ, मुझ से भी अधिक योग्य वर, तुम्हारे लोक में हैं, होंगे, मैं एक मनुष्य, पल पल खण्डित हो रहा हूँ! एक दिन, भस्मस्वरूप हो जाऊँगा!" बोले वो,
"नहीं, ऐसा कदापि न होगा!" बोली वो,
"समझदार हो!" बोली वो,
"तभी बोल रही हूँ!" बोली वो,
"वैसी समझदार नहीं!" बोली वो,
और लपक कर, बढ़ी आगे, आलिंगनबद्ध होने को, बाबा हट गए! काम-आल्हादित वो गांधर्वी पानी से छू गयी! पल भर में, खौल उठा वो जल! मित्रगण, वर्ष में एक बार, पुनः ऐसा ही खौल करता है उसका जल! समझदार, समझ जाता है, कि एक काम-पीड़ित गांधर्वी, फिर से, अस्वीकारोक्ति प्राप्त कर आयी है! ये कुंड रहस्यों से भरा पड़ा है!
"देवपुत्र?" बोली इस बार तनिक क्रोधी सी होकर! समझ आता है उसका क्रोध भी! वो उस कुंड की स्वामिनि, स्वर्ण जिसको छू लेने को आतुर हो! स्वयं पवन-गण जिसको मात्र छू लेने में अपने आप को धन्य समझें, जल, जो अपना मूल भुला उसको अपने अंदर जगह दे! गांधर्व, जिसको अपनी ही बना, आनन्दातिरेक से झूम उठें विद्याधर, जिसको प्राप्त करने में, सदियों तक गुज़ार दें! उसको, एक मानव से गुज़ारिश करनी पड़े? सोच के देखिये तनिक! वो विशाल वट-वृक्ष जो, अपना सीना चौड़ा, मात्र आकाश से ही वार्तालाप करे, वो उस लघु-कृषा पौधे पर दृष्टि जमाये, भले ही टूट जाए बीच में से, जिस फूल का मुख ही उसके पत्तों में हज़ार जगह जाकर शरण ले! ये कैसा कृषाज़? ये कैसा बूल? ये कैसा अपार अस्तित्व? ये कौन है? क्यों मिथ्या कहता है कि वो मात्र, मानव ही है? क्या मानव भी ऐसे होते हैं? ऐसे? जो किसी भी देव के तेज को मद्धम कर, ऐसा असीम विश्वास! ऐसा असीम प्रभुत्व? कौन है?
"सुनिए?"
न रुके बाबा अम्भ! चलते ही रहे आगे! वो सहसा फिर से प्रकट हुई, पल भर को बाबा के नेत्रों में एक एक कर दृष्टि डाली!
"व्यर्थ है मन्दाल!" बोली वो,
"पत्यास तो करने दीजिये!" बोली वो,
"शिला पर, उकेरा तो जा सकता है, परन्तु छिद्रण नहीं हो पाता!" बोली वो,
"मैं नेत्रों से शिलाएं फोड़ दूँ!" बोली वो,
''फूटेंगी ही, नष्ट नहीं होंगी!" बोले वो,
"भस्म ही न कर दूँ?" बोली वो,
"सम्भव है?" बोले बाबा,
"मेरे लिए क्या असम्भव?" बोली वो,
"अम्भ असम्भव है!" बोले वो,
"यही तो सम्भ है न आप में?" बोली वो,
"प्रतिवाद एवम प्रतिरक्षण को दम्भ भी कहते हैं, आपसे ही सुना!" बोले बाबा!
"संग रहो, और भी जानोगे!" बोली वो,
"कोई लाभ नहीं!" बोले वो,
"लाभ ही देखते हो?" बोली वो,
"कहूँ हाँ, तो अनुचित क्या?' बोले बाबा,
"तब मेरा कोई लाभ नहीं तुमसे!" कहा मैंने,
"बिन जाने कैसे कह सकते हो?" बोली वो,
"जानना ही नहीं!" बोले वो,
"क्यों?" पूछा उसने,
"मेरी इच्छा!" कहा उन्होंने,
"या फिर, कुछ और ही अर्थ?" बोली इस बार, काम-तिक्त सी होकर!
"कुछ अन्य अर्थ?" बोले वो,
"हाँ?" बोली वो,
"क्या अर्थ?" पूछा उन्होंने,
"कि टूट ही न जाओ!"' बोली समीप आते हुए!
और इस बार एक ठहाका सा गूंजा! बाबा अम्भ का!
"कुछ अनुचित कहा मैंने?" पूछा उसने,
"सर्वथा अनुचित!" बोले वो,
"क्या अनुचित?" पूछा उसने,
"टूटने से पहले, नेच होता है, बाहरी रूप में परिवर्तन होता है, फिर मुड़ाव और फिर, टूटना होता है!" बोले वो,
हैरान रह गयी वो! ऐसा उत्तर? ऐसा उत्तर तो कभी सोचा भी न था उसने! वो और समीप आयी!
अपना हाथ, बाबा के चेहरे पर किया, थोड़ा दूर से, कुछ जायज़ा सा लिया! फिर बाबा की गर्म श्वास से छुआ हाथ अपना, जब श्वास टकराती, तो स्वर्ण-जल सा हाथ का, भाप सा बन जाता!
"आप ही हो वो!" बोली वो,
"कौन?" पूछा उन्होंने,
"बस आप ही!" बोली वो,
"कौन?" फिर से पूछा! और अगले ही पल, दृश्य बदल गया! ये स्थान, कुंड सब था वहां, पर उष्ण नहीं रहा था! ये तो स्वार्गिक सा उपवन था! जहां, रंग बिरंगे से पक्षिगण चहचहा रहे थे! भूमि पर, प्याजी से रंग की घास थी, आकाश ऐसा उज्जवल था कि जैसे कई सहस्त्र एक साथ ऊपर नभ में, नभ-चाकरी कर रहे हों! बाबा का जिस्म, गहरा ला सा, और अधिक सुंदर हो गया था, और वो गांधर्वी, मात्र अपने सौंदर्य का ओढ़ना सा ओढ़े हुई थी, वस्त्र के बजाय, अपना मादक-सौंदर्य! बाबा ने एक नज़र भर के देखा, फिर दूर पहाड़ी की तरफ देखा, जहां पर, पीले रंग का धूम्र सा बिखरा था!
"यहीं वास करो आप!" बोली वो,
बाबा ने ना में सर हिलाया!
"क्या ये लोक, उस लोक से सुंदर नहीं?" पूछा उसने,
"मुझे तुम यहां लायी हो! लो!" बोले वो,
और दृश्य बदला!
बाबा ने अपने सामर्थ्य से, वापिस कर ली थी, उनको तो हुई ही थी, संग वो गांधर्वी भी चली आयी थी उनके! अब अचंभित करने जैसा हुआ था! ये कैसे सम्भव हुआ? कैसे?
"मैं यावलराज पुत्री, मन्दालवेणि हूँ! मेरा वरन कीजिये! ये मेरी विनती भी है, और बलवती इच्छा भी!" बोली वो, सम्मुख आते हुए!
"आप एक देवी हैं! आपको ऐसा कहना, शोभा भी नहीं देता और मेरे मन में संशय भी प्रकट करता है!" बोले वो,
सहसा ही, वो और आगे आयी! आते ही देखा उसने, कण्ठ में पड़े सभी तंत्राभूषण कौंध पड़े! जैसे अंगार सोख लिए हों उन्होंने!
"बस!" बोले वो,
"अस्वीकार करना मेरा अपमान नहीं?" बोली वो,
"नहीं!" बोले वो,
'कैसे?" पूछा उन्होंने!
"तुमने को डोर नहीं बाँधी, न कोई हार-जीत ही!" बोले वो,
"मुझमे देखो!" बोली वो,
"क्या?" पूछा उन्होंने,
"मैं तो सर्वस्व ही हार गयी हूँ!" बोली अब गम्भीरता से!
"नहीं, तुम लौट जाओ अपने लोक में, मैं यहीं का हूँ, यहीं उत्पन्न भी हुआ और सन्ध्या पश्चात अवसान भी यहीं होगा!" बोले वो,
वो मुस्कुराई बाबा अम्भ का उत्तर सुनकर, एक हल्का सा झटका दिया चेहरे को अपने! ओंस जैसी बूंदें, बदन से जा चिपकीं बाबा अम्भ के! बाबा अम्भ ने कोई प्रतिक्रिया नहीं की!
"मैं अवसान-रहित हूँ!" बोली वो,
"जानता हूँ!" बोले वो,
"मैं समय-वेध में पारंगत हूँ!" बोली वो!
"मृत्यु-वेध में नहीं!" बोले वो,
"मृत्यु तुम देहधारियों की होती है!" बोले वो,
"इसलिए समय को नष्ट नहीं करना चाहिए, जैसे कि मैं आपसे!" बोले वो,
वो मुस्कुराई!
"मुझ से मांग लो! प्रसन्नता से दूंगी!" बोली वो,
"क्या देवी?" पूछा बाबा ने,
"वेध-क्रिया!" बोले वो,
"तब शेष क्या?" पूछा बाबा ने,
"शेष से अर्थ क्या?" पूछा उसने,
"मेरा समानांतर संसार?" बोले वो,
"गति जानते हो?" बोली वो,
"हाँ!" बोले वो,
"क्या रख छोड़ोगे?'' पूछा उसने,
"मेरा स्व-संसार!" बोले वो,
"जैसे, कप्प का मण्डूक?" बोली वो,
"उसको भी तो राहत है, संसार की अपने!" बोले वो,
"प्रत्यूत्तर भ्रामक हैं!" बोली वो,
"मेरा मार्ग छोड़ देवी!" बोले वो,
"न छोडूं तो?" बोली वो,
"स्त्री शक्ति का स्वरुप है, आदरणीय है, परन्तु इस समय मेरा कर्तव्य-निबाह, स्वयं मृत्यु-देव भी हों, तो मेरा रुकना सम्भव नहीं!" बोले वो,
"ओह! इतना भी दम्भ नहीं!" बोली वो,
''आपसे क्या दम्भ-आशय!" बोले वो,
"कुछ भूल रहे हो?" बोली वो,
"नहीं!" कहा उन्होंने,
"क्या?" पूछा उन्होंने,
"इस कुंड से आपकी मुक्ति!" बोली वो,
"न चाहूं तो?" बोली वो,
"तब आपकी इच्छा!" बोले वो,
और इतने में ही, उसके कन्धे पर हाथ रख दिया मन्दाल ने! कोई और होता तो उसी समय भस्म में परिवर्तित हो जाता! इस भीषण से अंगार में, मन्दाल के नेत्र डूब गए! उसे, अपार सुख प्राप्त का! जी किया, पूरी से लिपट कर, साड़ी अंगार की ऊर्जा, अपने में समेट ले!
"आज्ञा दीजिये?" बोले वो,
कुछ नहीं बोली वो! काम-परवाह में बहे जा रही थी! छोड़ दिया था अपने आपको उसने! उसकी पकड़, कन्धे पर, कड़ी और कड़ी हुए जा रही थी!
"मार्ग दीजिये देवी!" बोले वो,
"नहीं!" बोली वो,
"तो मुक्त हो जाओ!" बोले वो,
"नहीं!" बोली वो,
"काम-लाभ उठाओ अपने लोक में!" कहा उन्होंने,
"नहीं!" बोली वो,
"तब?" पूछा उन्होंने,
"ऐसे ही भली!" बोले वो,
बाबा मुस्कुराये!
"नेत्र खोलो!" बोले वो,
"नहीं खुल रहे!" बोली वो,
"धकियाओ!" बोले वो,
"नहीं धकिया सकती!" बोली वो,
"मुझे आज्ञा दो!" बोले वो,
और उसने धीमे से नेत्र खोले अपने! ये क्या? उसने झटका सा खाया! ये क्या! रूप-कुंड?
"मस्तिष्कातमन?" बोली वो,
"नहीं!" बोले वो,
"तब ये क्या?" पूछा उसने!
"तुम्हारे लोक का द्वार!" बोले वो,
"नहीं!" भयातुर सी हुई और जा लिपटी बाबा से! बस, यहीं बाबा का मन पसीज गया! मानव है न? उदगार दिखा सकता नहीं, भाव छिपाए नहीं छिपते!
"देवी?" बोले वो,
"क्या?" बोली वो,
"मेरे नेत्रों में देखो!" बोले वो,
"दीखता है अब!" बोली वो,
और दृश्य, बदल गया, ये सौर-कुंड था, उस गांधर्वी को, अब गोद मिल चुकी थी बाबा अम्भ की! तब और विश्वस्त हो चुकी थी! अचानक ही, उनकी दाढ़ी के केश, उसके उभरते हुए उरोजों के बीच जा छिपे! बाबा ने निकालने नहीं, चूँकि, उसने निकालने नहीं दिए! भींच लिए!
"देवी!" बोले वो,
''हाँ अम्भ!" बोली वो,
"तुम सरल हो बहुत!" बोले वो,
"नहीं! अब कठोर हूँ!" बोली वो,
"यही तो सरलता है!" बोले वो,
"अम्भ?" बोली वो,
"हाँ?" बोले वो,
"मुझे स्वीकार लो! भाकृतिक रहूंगी सदैव!" बोली वो,
"असम्भव ही है ये!" बोली वो,
अचानक से लगा, कोई जकड़ रहा है, बाबा के शरीर को! ये उसके काले-खुले केश थे, जो, बाबा अम्भ को कसे जा रहे थे!
"बोलो अम्भ?" बोली वो,
"समझ तो रही हो?" बोले वो,
"सुनना चाहती हूँ!" बोली वो,
"परासुख कैसे भोगा जा सकता है!" बोले मुस्कुराते हुए!
