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वर्ष २०१४, मन्दालवेणि! प्रतीक्षा? प्रेम?

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श्रीशः उपदंडक
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सब उलझा हुआ था यहां! शुरुआत से लेकर, इस कक्ष तक! बारिश अपना रूप दिखाए जा रही थी, छत के एक कोने से, पानी की कुछ लकीरें भी अंदर घुस आयी थीं! इस से तो पता चल ही जाता था कि बारिश ने जो ठानी है, सो तो वो पूरा करके ही रहेगी! वहाँ आसपास और भी कक्ष थे, अभी कइयों में तो दरवाज़े भी नहीं लगे थे! बस पन्नियों और तिरपालों का ही सहारा था! बाहर बड़े से आंगन में, पानी अब भर चुका था, वो तो ढलान थी, इसीलिए पानी रुक नहीं रहा था, नहर के लिए एक नाला था, उसमे ही जा पहुंचता था! थोड़ा सा आगे जाकर, एक सरकारी दफ्तर था, वहाँ टावर लगा था, उसकी जलती हुई बत्ती, जो टिम टिम करती थी, हमें इस संसार से जोड़े रख रही थी! हवा भी बहुत तेज ही चल रही थी! हमारी तिरपाल को धमकाते हुए, धक्का सा दे देती थी और बारिश की नन्ही नन्ही बूंदें, हमें ढूंढ ही लेती थीं! ढूंढतीं तो छपाक से हम पर चिकोटी काट लेती थीं! बड़ी राहत देती थी उनको संग लाती हवा! हाँ, मोमबत्ती बेचारी ज़रूर गालियां देती थी उन्हें! वे बूंदें, छोटे बच्चों के समान अठखेलियाँ कर, वापिस दौड़ जाती थीं! मेरे गिलास में भी कुछ बूंदे गिर जाती थीं! मुर्गा, जो अब तक, ठंडा हो चुका था, बार बार किसकी उंगलियां आगे बढ़ीं, देख ही लेता था!
"ओ? नरसिंह?" बोले प्रसाद बाबा,
"हाँ?" बोला वो,
"कैसे दीवार में घुस रहा है?' बोले वो,
"कहीं ना!" बोला वो,
"इसे गरम करा ले?" बोले वो,
"लाओ!" बोला वो,
उठा, और मुर्गे का थाल उठा लिया, चटनी भी ले जा रहा था कि शहरयार जी ने उसे रोक कर, चटनी की कटोरी नीचे रख ली थी!
"सुन?" बोले वो,
"जी?" बोला नरसिंह,
"मच्छी-वच्छी हो तो रखा लाइयो! मुर्गा तो मुझे बुड्ढा सा लगा रहा है, चबाते चबाते मसूड़े और दुःख लिए!" बोले वो,
"ठीक है!" बोला वो,
और चला गया, वो गया तो तेल से भीगे हाथ पोंछे शहरयार जी ने, ऊपर की जेब से सिगरेट निकाल ली, खोला पैकेट, और मेरी तरफ एक सिगरेट सरका दी, मैंने निकाल ली, और तब प्रसाद बाबा ने भी ले ली, बड़े बाबा ने मना कर दिया! तब प्रसाद बाबा ने माचिस निकाल कर, तीली जलाकर, एक ही तीली से तीनों सिगरेट जला, अपने हुनर का प्रदर्शन कर दिया था!
"बाबा?" कहा मैंने,
"हाँ?" बोले वो,
"बाबा केमिक, गुरु माँ के गाँव के थे, गुरु माँ जी ने, केमिक को ये बताया होगा, तब, केमिक, अपने चेलों के साथ चल पड़े होंगे!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
"तो बाबा कहाँ हैं, ये कैसे जाना उन्होंने?" पूछा मैंने,
"उनके लिए कोई कार्य असम्भव नहीं था!" बोले वो,
"लेकिन एक औघड़, और एक सात्विक?" पूछा मैंने,
"एक ही सिक्के के दो पहलू!" बोले वो,
"हाँ सच! लेकिन लम्भाष से 'युद्ध' क्यों हुआ?" पूछा मैंने,
"सोच के देखो, होना ही था, तय था!" बोले वो,
"एक...मिनट....!!" मैंने कहा, जैसे मुझे याद आया हो कुछ!
"बाबा? तो क्या बाबा मालव्य लौट आये थे?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
"जब लौटे, तो गुरु माँ जी को बताया होगा!" बोला मैं,
"हाँ!" बोले वो,
"और...................." पूरा नहीं किया मैंने वाक़्य!
"आ जा? रख दे!" बोले प्रसाद बाबा!
नरसिंह गरम करवा लाया था माल-मसाला! एक कटोरी में, चटनी भी भर लाया था, चटनी बड़े ज़ोर की थी! सिल पर पीसी हुई, जिसमे टमाटर के बीज और हरी मिर्च के छिलके आते थे मुंह में! खटास के लिए करौंदे डाले गए थे, बहुत ही बढ़िया और ज़ायकेदार थी चटनी! कभी-कभार, लहसुन का छिलका भी आ जाता था! मच्छी के साथ तो क्या स्वाद लगता था उसका!
"हाँ बाबा?" कहा मैंने,
तभी नरसिंह के पाँव से टकरा कर, कुल्हड़ गिर पड़ा प्रसाद बाबा के संगी का! उसमे मदिरा नहीं थी, नहीं तो नरसिंह को ओढ़नी पड़ जाती चादर, ढंग-बेढंग गालियों की!
"आराम से? देख कर?" बोले प्रसाद बाबा!
"हाँ हाँ!" बोला वो,
और बैठ गया अपनी ही जगह आकर!
मैंने मछली का टुकड़ा तोड़ा, मदिरा डाली गिलास में, और झट से खींच ली! मैंने खींची तो सभी ने उठाये गिलास अपने अपने!
"बड़े बाबा?" कहा मैंने,
"हाँ, अब बोलो!" बोले वो,
"जब मालव्य बाबा लौटे होंगे तब, उन्हें बाबा केमिक के अंजाम का पता न लगा होगा, तब, प्रतीक्षा की होगी गुरु माँ जी ने! जब बात न बनी होगी, तब, वे स्वयं चल पड़ी होंगीं, बाबा मेघ को, सौंप कर उन बाबा मालव्य को!" कहा मैंने,
"हाँ यही!" बोला मैं,
"क्या गुजरी होगी उस औरत पर...." कहा मैंने,
"हाँ, सोच कर ही कलेजा फटता है!" बोले वो,
"वो गयीं और नहीं लौटीं!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
"तब तो बाबा, यहां आकर, बाबा मालव्य, और गुरु माँ जी का भी किरदार समाप्त हो गया! अब रहे बाबा मेघ!" कहा मैंने,
"हाँ, उनका लालन-पालन बाबा मालव्य की पत्नी ने, अपने पुत्र की तरह किया!" बोले वो,
"हाँ! सच कहा!" बोला मैं,
"अब?" बोले वो,
"आ रहा हूँ बाबा!" कहा मैंने,
और उठ खड़ा हुआ मैं! और..................!!


   
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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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लघु-शंका का ज़ोर था, बहुत घुटने बदल लिए थे! उठा तो शहरयार जी को देखा!
"चल रहे हो?" पूछा मैंने,
"कहाँ?" पूछा उन्होंने!
"खलता खलाने!" कहा मैंने हंस कर!
"मैं तो बहुत देर से कोशिश में था, खलता खलाना था, अब रहा नहीं जा रहा था! चलिए!" बोले वो, और खड़े हो, जूते पहने उन्होंने भी और मैंने भी, चल दिए बाहर! बाहर तो गज़ब की बारिश थी, तो प्रसाद जी की छतरी ले ली!
"आप हो आओ!" बोले वो,
"ठीक!" बोला मैं,
गया और सुकून महसूस हुआ! लौट तो छतरी दे दी, बात नहीं हुई हमारी, मैंने हाथ साफ़ लिए, रुमाल से हाथ पोंछे और बैठ गया अपने जगह ही!
थोड़ी देर बाद ही, वे भी आ गए, छतरी बन्द की, रखी, जूते उतारे और आ बैठे हाथ साफ़ कर! अब तक नरसिंह मदिरा भर चुका था, एक घूंट लिया मैंने और रख दिया गिलास नीचे!
"पानी भरा है?" पूछा प्रसाद बाबा ने,
"नहीं, हाँ, कीचड़ ज़रूर हो गयी है!" कहा मैंने,
"सो तो होगी ही! बादलों में छेद जो हुआ है!" बोले वो,
"सही कही आपने बाबा!" बोले शहरयार जी! और उठा लिया एक टुकड़ा मुर्गे का, हाथ से तोड़ा खींच कर और फिर गिलास उठा लिया, आधा ही पिया फिर रख दिया!
"तो बड़े बाबा?" कहा मैंने,
"हाँ?" बोले वो,
"साढ़े नौ सौ किलोमीटर दूर गए वो?" पूछा मैंने,
"कौन?" बोले वो,
"बाबा समिध!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
"नेपाल होते हुए गए होंगे?" पूछा मैंने,
"हाँ, वही रास्ता रहा होगा!" बोले वो,
"और गुरु माँ भी?" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
"अब भैय्या वो थे पुराने दमदार लोग! मेहनतकश लोग, जो ठान ली सो ठान ली, आजकल के बालकों को देखो, जैसे छुआरा हो रहे हैं, बालकों को छोड़ो, घर में ऐसा कोई न होगा चालिसिया या पचासिया जो किसी चिकित्सक के पास न जाता हो! पहले कहाँ थे ये रोग? अन्न साफ़ था, देह साफ़ थी, अन्न में मिलावट होगी तो देह तो बैठेगी ही!" बोले प्रसाद बाबा!
"बिलकुल सही कहा आपने!" कहा मैंने,
"तभी तो आज अपराध बढ़ते जा रहे हैं!" बोले शहरयार जी,
"हाँ जी!" बोले वो,
"वैसे बाबा, सच में आज भी लम्भाष मिलता होगा?" पूछा मैंने,
"निःसन्देह!" बोले वो,
''और बाबा त्रिनेत्री आज भी रूप-कुंड में ही होंगे?" कहा मैंने,
"हाँ, वहीँ हैं!" बोले वो,
"एक बार मैंने भी सुनी थी ऐसी ही!" कहा मैंने,
"क्या?" पूछा बाबा ने,
"कोई अंग्रेज थे, दो युगल, अब जाने रास्ता भटक गए, या बर्फ ज़्यादा पड़ी, भगवान जाने, वे जा छिपे गुफा में एक, कि कोई तो आएगा कभी?" बोला मैं,
'फिर?" बोले प्रसाद बाबा!
"तीन दिन उनका खाना चला, और फिर खत्म! रास्ते बन्द हो गए, अब बर्फ में रास्ते बन्द हो जाएँ तो न रास्तों का पता, न दर्रों का, न दरार का और न ही नदी-नाले का!" कहा मैंने,
"ठीक कही आपने!" बोले प्रसाद बाबा!
"तो मदद के लिए भी सम्पर्क न हुआ उनका किसी से!" कहा मैंने,
"फिर? वहीँ मर गए?" बोले प्रसाद बाबा!
"ना!" कहा मैंने,
"अच्छा? क्या हुआ? कोई आया? कोई खोजी-दल?" पूछा उन्होंने,
"नहीं, पांचवें दिन सुबह, कोई महात्मा आये उधर!" कहा मैंने,
"ओहो!" बोले वो,
"उन्होंने उन्हें खाने को कन्द-मूल, फल दिए, पीने को पानी दिया! और उनको अपने साथ चलने को कहा, वो ले चले उनको साथ ही, रात एक जगह, बिताई कहीं! सुबह सब उठे तो महात्मा कहीं नहीं! और वो जहां लाये गए थे, उस से बस कुछ ही दुरी पर, फौजी मिले, तो बचा लिए गए वो!" बोला मैं,
"भाई जय हो! जय जय भोला!" बोले वो,
"जय जय भोला!" सभी बोले!
"अरे नरसिंह?" बोले प्रसाद बाबा!
"हाँ जी?" बोला वो,
"देख और रखी है क्या?" बोले बाबा!
"रखी है!" बोला वो,
"ले आ फिर!" बोले वो,
"अभी लो!" बोला वो,
हुआ खड़ा, और चला बैग की तरफ, और निकाल लाया! अंग्रेजी शराब ही थी! पहली वाली ही!
"वो भूमि पावन है!" बोले बड़े बाबा!
"हाँ बाबा!" कहा मैंने,
"वहाँ आज भी बड़े बड़े महात्मा हैं!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"उनमे योग-बल ऐसा है कि न तो सर्दी ही लगे, न भूख और न प्यास!" बोले बाबा बड़े!
"सही कहा आपने!" बोला मैं,
"कई कई सौ सालों से तप में बैठे हैं!" बोले वो,
"हाँ बाबा, जानता हूँ!" बोला मैं,
"कातिक चौदस शुक को जाओ वहां, आकाश से जैसे, रास्ता खुला को, टिमटिमाते दीपों का, ऐसे दीखते हैं वो बाबा सब!" बोले वो,
"हैं?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
"बड़े बाबा?" बोले शहरयार जी!
''हाँ?" बोले वो,
"हम ही गलत समय पर पैदा हुए!" बोले वो,
"वो क्यों?" पूछा बाबा ने,
"या तो तभी होते उस काल में, या फिर आगे हज़ार सालों बाद!" बोले वो, हंसते हुए!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"अब इस समय पर क्या ज़ोर!" बोले प्रसाद बाबा!
"हाँ जी, सही कहा!" बोले शहरयार!
"बाबा?" पूछा मैंने,
"जी?" बोले वो,
"देखा जाए तो भाद्रपद द्वादशी आने में कुछ ही दिन शेष हैं!" कहा मैंने,
"क्या कहना चाहते हो?" बोले वो,
"हम भी देखने के इच्छुक हैं!" कहा मैंने,
"किसे?" पूछा उन्होंने,
"कम से कम वो प्रकाश ही?" कहा मैंने,
"प्रकाश!" बोले वो,
"कम से कम!" कहा मैंने,
"इतनी जल्दी?" बोले वो,
"जल्दी? क्या मतलब?" पूछा मैंने,
"मतलब, आज ही जाना और अभी से निर्णय?" बोले वो,
"इसमें निर्णय क्या भला?" पूछा मैंने,
"क्या ये जाना कि बाबा अम्भ से क्या लेना देना उस मन्दालवेणि का?" बोले वो,
बात तो सोलह आने खरी थी! ठस्स दिमाग ने मेरे ये तो सोचा ही नहीं था! मैंने तो ये भी गौर से नहीं सुना था कि बाबा अम्भ की कहानी क्या थी?
"वो क्यों आती हे उधर?" बोले वो,
मैं चुप! कुछ बोल ही न पाऊं!
"वायदा तो लम्भाष ने किया, तब ये मन्दालवेणि किस कारण से आती हे भाद्रपद द्वादशी को? स्वयं लम्भाष भी आता हे या नहीं?
एक एक सवाल बड़ा ही भारी था! हल्दी की गाँठ मिले और बन्दर पंसारी बन गया! यही हाल था मेरा भी!
"बाबा?" कहा मैंने,
"पूछो?" बोले वो,
"लम्भाष और मन्दालवेणि का क्या सम्बन्ध हे?" पूछा मैंने,
"कोई सम्बन्ध नहीं!" बोले वो,
"लम्भाष स्वयं, यक्ष कुमार है और मन्दालवेणि स्वयं एक गांधर्वी! ये भला कैसा सम्बन्ध है?" पूछा मैंने,
"बताया न, कोई सम्बन्ध नहीं!" बोले वो,
"तब, रूपकुंड से किसने हटाया उसको? हटाया मायने स्थान बदल, वो आपने बताया कि बाबा त्रिनेत्री ने, मान लिया, उसको बाबा त्रिनेत्री ने हटाया, भेजा कहाँ? उस सौर-कुंड, जिसके बारे में, सिर्फ कहानी है हमारे पास, या फिर, बताई हुई बातें ही! वो क्षेत्र भी ऐसा नहीं, कि पाँवन-पाँवन खूँद सकें! ये असम्भव से भी असम्भव है!" कहा मैंने,
"हाँ! असम्भव ही है!" बोले वो,
"तब मुझे इसका उत्तर दे दो, कि मन्दालवेणि क्यों आती है ठीक उसी दिन?" पूछा मैंने,
"कहूँ कि उसकी इच्छा?" बोले वो,
"मुझे नहीं लगता!" कहा मैंने,
"क्यों नहीं लगता?" बोले वो,
"बाबा अम्भ!" कहा मैंने,
"क्या बाबा अम्भ?" बोले वो,
"वो ही यहीं हैं! और कोई नहीं!" बोला मैं!
"आपको बताया मैंने कुछ, याद आया?" बोले वो,
"क्या?" पूछा मैंने,
"बाबा मेघ!" बोले वो,
"हाँ, बताया!" कहा मैंने,
"इन पर ध्यान नहीं गया?" पूछा उन्होंने,
"कैसा ध्यान?" पूछा मैंने,
"बाबा मेघ ही सबसे अधिक महत्वपूर्ण हैं! "बोले वो,
"कैसे भला?" पूछा मैंने,
"मात्र वे ही थे, बाबा त्रिनेत्री के बाद, जिन्होंने वो सौर-कुंड को देखा था!" बोले वो,
"क्या?" पूछा मैंने,
"हाँ, चौंके?" बोले वो,
मैं तो कुछ बोल भी नहीं पाया! सौर-कुंड का अस्तित्व है! वो है! परन्तु कहाँ? और बाबा मेघ वहाँ कैसे पहुंचे? अभी भी कहानी में होल-झोल बचे थे! बाबा मेघ के विषय में, न तो अधिक बताया ही गया था, न मुझे ही कोई उत्कंठा हुई थी! परन्तु अब? अब तो जैसे मैंने किताब के मध्य आ गया था!
"ये कब की बात होगी?" पूछा मैंने,
"उसी समय की, अंतर है तो बस कुछ वर्षों का!" बोले वो,
"तो क्या?? ....?" मैंने अपना सवाल याद करते हुए पूछना चाहा तो दिमाग में ही कहीं छिप गया सवाल!
"बाबा?" कहा मैंने,
"हाँ?" बोले वो,
"क्या बाबा त्रिनेत्री का कोई सम्बन्ध था बाबा समिध से?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोले वो,
"कुछ भी नहीं?" बोला मैं,
"नहीं!" कहा उन्होंने,
"बाबा समिध! बाबा मेघ! बाबा अम्भ! ये सभी एक ही पंक्ति में हैं! फिर दूसरी पंक्ति, बाबा केमिक, बाबा मालव्य और अब तीसरी पंक्ति, जिसमे बाबा त्रिनेत्री हैं! ठीक कहा न मैंने बड़े बाबा?" बोला मैं!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"हाँ, ठीक कहा!" बोले वो,
"अब एक प्रश्न!" बोला मैं,
"पूछिये!" कहा उन्होंने,
तभी मेरी नज़र पड़ी मेरी कलाई-घड़ी पर, ग्यारह बजने को थे! समय कैसे निकले जा रहा था, पता ही नहीं चलता था! हमें बैठे बैठे करीब, तीन घण्टों से ज़्यादा का समय हो चला था, समय तो तीव्र जल-वेग की भांति भागे जा रहा था! बाहर, बारिश पड़ ही रही थी, हाँ, बादल अब नहीं गरज रहे थे, वो गर्जन अब, मेरे हृदय में कर रहे थे! समझ ही नहीं आता था, कहाँ से पकड़ूँ और कहाँ छोड़ दूँ! क्या रहने दूँ और क्या उठा लूँ!
"हाँ?" बोले बाबा जी.
"मुझे ये कैसे पता चलेगा कि मन्दालवेणि उस ही तिथि पर क्यों आती है?" पूछा मैंने,
"क्या करोगे जानकर?" पूछा उन्होंने,
"कम से कम मेरे हृदय को उत्तर तो मिल जाएगा!" कहा मैंने,
"क्यों बरसों में झांकते हो!" बोले वो,
"आप न बताते तो शायद कभी झाँक भी नहीं पाता!" कहा मैंने,
"प्रश्न तो अच्छा है तुम्हारा!" बोले वो,
"उत्तर भी अच्छा हो!" कहा मैंने,
"नहीं जानता अच्छा या बुरा!" बोले वो,
"जो जानते हैं, वो ही बता दें!" बोला मैं,
"बाबा मेघ की शिक्षा, बाबा मालव्य ने करवाई थी!" बोले वो,
"हाँ, अनुमान लगा सकता हूँ मैं!" कहा मैंने,
"बाबा मेघ, अपने पिता से भी कहीं आगे थे! बाबा मालव्य ने जब उनका ये गुण देखा, तब उन्हें, पशुपतिनाथ भेज दिया था, आयु बारह की थी तब बाबा मेघ की!" बोले वो,
"ओह! धन्य है या वंश!" कहा मैंने,
"वहाँ, बाबा शाम्भ ने, उनको शिक्षण दिया! आयु हुई, कुल सोलह और तब, बाबा शाम्भ ने, एक राज़ खोला
 बाबा मेघ के समक्ष!" बोले वो,
"राज़? कैसा राज़?" पूछा मैंने,
"बाबा शाम्ब, बाबा केमिक के जानकार थी, केमिक स्वयं ही महाप्रबल औघड़ थे, मात्र वही औघड़ थे, शेष सभी सत्व-मार्गी थे!" बोले वो,
"तब इसमें राज़ क्या?" पूछा मैंने,
"अभी बताया नहीं!" बोले वो,
''ओह! अच्छा!" कहा मैंने,
"राज़ था, कि बाबा मेघ के पिता, बाबा समिध जीवित हैं!" बोले वो,
"ओह! एक पुत्र का ठिकाना न रहा होगा ख़ुशी का! उसे तो ये जान जैसे स्वर्ग ही मिल गया होगा!" कहा मैंने,
"है, ठीक यही हुआ था!" बोले वो,
"फिर?" पूछा मैंने,
"फिर? बाबा मेघ बाबा शाम्भ के पीछे पड़ गए! अब चाहे ये बाल हठ ही हो, एक पुत्र अपने पिता से मिलने के लिए आतुर हो उठा!" बोले वो,
"ये तो स्वाभाविक ही है! अब कोई भी हो!" कहा मैंने,
"बाबा शाम्भ ने, ये चक्रवात, जिसका नाम मेघ था, कुछ समय तक रोके रखा! लेकिन! हवा के न था, न पाँव! चक्रवात की धुरी न काटी जाए! वही हुआ! बाबा मेघ ने प्रण लिया कि यदि, उनकी भेंट अपने पिता से हो गयी, तो अवश्य ही, वो प्रार्थना करेंगे उनसे!" बोले वो,
"प्रार्थना? कैसी?" पूछा मैंने,
"संग ले जाने की!" बोले वो,
"संग? कहाँ?" पूछा मैंने,
"वापिस, उनके घर, बाबा मेघ के घर! बाबा समिध का अपना घर!" बोले वो,
"तो क्या हुआ?" पूछा मैंने,
"अभी बताता हूँ!" बोले वो,
उठे ज़रा लहराते हुए, और बाहर चले गए! शायद लघु-शंका त्याग करने, वे गए, लेकिन मेरे सामने तो अब भी वही थे! जैसे मेरे सामने ही बैठे हों वो!
"प्रसाद बाबा?" बोला मैं,
"हाँ जी?" बोले वो,
"बड़े बाबा को ये सारी और बारीक़ सी जानकारी क्यों और कैसे है?" पूछा मैंने,
"मैं तो जी छोटा हूँ, बड़े बाबा, पहुंचे हुए हैं,. जीवन, इसी में लगा दिया सारा!" बोले वो,
"इनकी पत्नी, सन्तान?" पूछा मैंने,
"कोई नहीं, विवाह ही नहीं किया!" बोले वो.
"ओह! कोई भाई या बहन?" पूछा मैंने,
"दो बहनें हैं, और तीन भाई! सबसे छोटे ही आते हैं इनसे मिलने-जुलने या उनके बालक आदि!" बोले वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"क्या आपने रौशनी देखी है वो?" पूछा शहरयार जी ने,
"नहीं जी!" बोले वो,
"ह्म्म्म, बताया तो था!" बोले वो,
"बस जी, वो गांधर्व ज़रूर देखे थे, उस तालाब से निकलते हुए!" बोले वो,
"हाँ, बताया था!" कहा मैंने,
तभी बड़े बाबा के खांसने की आवाज़ आयी, वे आ गए थे चौखट तक! चप्पलें उतारीं, हाथ-सर पोंछ कर, आ बैठे अपनी जगह!
"बिजली दूर दूर तक नहीं!" बोले वो,
"हाँ, कोई होगी समस्या!" कहा मैंने,
"बहाना चाहिए बिजली को तो!" बोले प्रसाद बाबा!
"हर जगह यही हाल है, क्या कहें!" बोले शहरयार जी!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"हमने देखा है, इस तरफ बारिश पड़ती भी कुछ ज़्यादा ही है!" बोले प्रसाद बाबा,
"बड़े बाबा?" पूछा मैंने,
"हाँ?" बोले वो,
"रूप-कुंड के लिए जाना हो अगर, तो काठगोदाम से ही जाना पड़ता होगा?" पूछा मैंने,
"हाँ, यहीं से!" बोले वो,
"काठगोदाम तक रेल फिर मोटर-वाहन!" बोले प्रसाद बाबा!
"समझ गया!" कहा मैंने,
"और उनकी सोचना?" बोले वो,
"किनकी?" पूछा प्रसाद बाबा ने,
"उन बाबाओं की?" बोले शहरयार जी,
"हाँ, कमाल है! साढ़े नौ सौ पड़ता है!" कहा मैंने,
"वो भी अब सड़क है!" बोले प्रसाद बाबा,
"हाँ, तब तो भयानक जंगल होगा!" बोले वो,
"बड़े बाबा?" मैं चौंक पड़ा! एक साल आया मन में मेरे तभी!
"आपने कहा कि बाबा मेघ ने, वो सौर-कुंड देखा था?" पूछा मैंने,
"हाँ? यही बताया गया है!" बोले वो,
"किसने बताया है?" पूछा मैंने,
"अब वे नहीं हैं संसार में!" बोले वो,
"ओह!" मेरे मुंह से निकला!
"बांका में ही एक अति-प्राचीन मन्दिर है, भयहरण मन्दिर!" बोले वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"वहीँ जीवन काटा था उन्होंने!" बोले वो,
"कौन उन्होंने?" पूछा मैंने,
"बाबा शरण!" बोले वो,
"नमन उन्हें!" कहा मैंने,
तब सभी ने नमन किया उन्हें!
"वे मेरे जानकार थे, ये सब, उन्ही का बताया हुआ है!" बोले वो,
''अब समझ आया मुझे!" कहा मैंने,
"मैंने वो रौशनी देखी है!" बोले वो,
"जानता हूँ!" कहा मैंने,
"वो कौन है, ये भी बताया था मुझे!" बोले वो,
"अच्छा बाबा!" कहा मैंने,
"वो स्थल एक तिराहा सा बनाता है, बरसातों में!" बोले वो,
""भाद्रपद में तो बरसात होती ही है!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
"मन्दालवेणि वहीँ आती है!" बोले वो,
"क्या सारूप देखा है आपने?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोले वो,
"क्या किसी और ने?" पूछा मैंने,
"बाबा शरण ने!" बोले वो,
अब बाबा शरण का अवतरण हो गया था इस गाथा में! ऐसा लगता था, कि यहां कुछ रहस्यमय 'क्रीड़ा' खेली गयी हो! जिसमे मोहरे उतरें हों और बाजी तार अपनी अपनी, पूर्ण हो गए हों!
"बाबा, वो वहीँ क्यों आती है?" पूछा मैंने,
"कौन?" बोले वो मुस्कुराते हुए!
"वही, गांधर्वी?" पूछा मैंने,
"कौन गांधर्वी?" बोले वो,
"बाबा?" कहा मैंने, अचरज से!
"कौन?" पूछा उन्होंने,
"मन्दालवेणि!" बोले वो,
"लेकिन क्या अपनी इच्छा से?" पूछा मैंने,
"हाँ! इसीलिए मैंने प्रश्न किये उलजुलूल!" बोले वो,
"बताइये?" पूछा मैंने,
"बताता हूँ!" बोले वो,
"जी!" कहा मैंने,
"जब बाबा त्रिनेत्री ने, उस गांधर्वी को भेजा उस सौर-कुंड, तब भी वो स्वतन्त्र न थी!" बोले वो,
"स्वतन्त्र न थी? अर्थात?" पूछा मैंने,
"वो श्रापित हो, उस रूप-कुंड में बाँध दी गयी थी!" बोले वो!
"श्रापित? एक गांधर्वी?" मुझे बड़ी ही हैरानी हुई!
"किसने श्राप दिया?" पूछा मैंने,
"किसने बाँधा था, ये नहीं पूछोगे?" बोले वो,
"अ....हाँ वही!" कहा मैंने,
"उसे बाँधा था एक महाप्रबल तांत्रिक ने! नाम था उसका, शोणबल बाबा! उम्र में कम था, मात्र तेईस या चौबीस का रहा होगा, जपी-तपी, महाहठी! वो लाया था उसको उस रूप-कुंड में! उसने ईशान वेध किया, और तब, उस तालाब में ये गांधर्वी, मध्य में केंद्र में बाँध दी गयी!" बोले वो,
"लेकिन बाँधा ही क्यों?" पूछा मैंने,
"ये गान्धर्वी, किसी और स्थान पर थी, उसने बाबा से 'खेतक' किया, फलस्वरूप पकड़ी गयी, पराजित हो कर, विवश हो गयी! तब क्रोध में आ, बाबा ने उसे बाँध दिया! इसे ही श्राप समझो! उसके बाद बाबा शोणबल, कहाँ गए किसी को नहीं मालूम!" बोले वो,
"है मेरे ईश्वर!" बोले हम सभी!
"क्या बल रहा होगा उस युवक का! उस युवा, महातांत्रिक का! सोचते ही, गला सूखने लग जाता है!" कहा मैंने,
"जब बाबा केमिक खप गए, खेतक में, तब, ये चूँकि बंधी थी, मुक्त हो गयी! परन्तु, कुंड से बाहर न निकली! तब बाबा त्रिनेत्री ने, उसे, उस सौर-कुंड की रक्षिका बनाने हेतु, स्थान दे दिया!" बोले वो,
कुछ देर शांत रहे वो! और फिर बोले!
"वर्ष बीते कोई सत्ताईस, बाबा मेघ, अपने शिष्यों सहित, जा पहुंचे, रूप-कुंड! वे पाने पिता से मिलने आये थे, कोई मार्ग में आता, तो शेष नहीं रह पाता! और मार्ग में कौन आना था?" पूछा उन्होंने,
"लम्भाष यक्ष!" कहा मैंने,
"तब भी खेतक हुआ?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोले वो,
"नहीं?" पूछा मैंने,
"हाँ, नहीं हुआ!" बोले वो,
"फिर?" पूछा मैंने,
"बताता हूँ!" बोले वो,
"जी!" कहा मैंने,
"नरसिंह?" बोले बाबा,
"जी?" बोला वो,
"मदिरा दे!" बोले वो,
अब वे कुछ गम्भीर थे! कुछ न कुछ तो अवश्य ही चल रहा था उनके मन में! लेकिन क्या?
"लो जी!" बोला नरसिंह!


   
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बाबा को उनका प्याला पकड़ा दिया गया था! बाबा ने प्याला पकड़ा और नीचे रख लिया, चने के थाल से चने उठाने से पहले, प्याज और हरी मिर्च इकठ्ठा कीं, बनाया एक गस्सा और खा लिया!
"बाबा मेघ जा पहुंचे थे रूप-कुंड पर! उनके साथ कुल सोलह लोग थे, सभी के सभी औघड़! प्रवीण औघड़ कहूंगा उन्हें, वे सभी अपना अपना वर्चस्व रखते थे!" बोले वो,
और चने उठाये, मुंह में रखे, चबाने लगे! फिर एक घूंट मदिरा का पीया!
"वे वहीँ ठहरे होंगे?" पूछा मैंने,
"रूप-कुंड से थोड़ा ही पहले, कुछ कंदराएँ पड़ती हैं, वहीँ जा रुके थे, ईंधन आदि इकठ्ठा कर ही लिया था, हाड़ जमाने वाला जाड़ा पड़ रहा था, लेकिन, वो जाड़ा उनके हृदय में समायी उस अग्नि के समक्ष कुछ न था, उस इच्छा के समक्ष जिसमे उनका उनके पिता से मिलन होना था! कुछ ऐसी ही इच्छा रही होगी उनकी!" बोले बाबा,
"फिर बाबा?" पूछा मैंने,
"दिन सवेरे ही, वे उठ गए थे, बाहर कोहरा पड़ रहा था, हाथ को हाथ न सुझाई दे, इंतज़ार लकिया, सूरज कम ही निकलता हे वहां, यही रूप-कुंड से उसकी सन्धि हुई है! उस दिन में मध्यान्ह पश्चात मौसम खुलना शुरू हुआ था, दूर से, वन-बिलावों के चिल्लाने की आवाज़ें आती थीं, रीछ बहुतेरे थे, गुलदार आदि सब के सब, शिकार के लिए, दृष्टि पैनाए बैठे थे!" बोले वो,
"हाँ बाबा, ऐसा ही होता है!" कहा मैंने,
"मध्यान्ह पश्चात, बाबा मेघ अपने दस साथियों को ले, शेष को वहीँ छोड़, ताकि भटकाव न हो सके, चल पड़े थे! और अपराह्न से पहले वे जा पहुंचे! विहंगम नज़ारा था वहां! हिम में जैसे, कांच जड़ा हो कोई, कांच पर जैसे ओंस जमी हो, ऐसा नज़ारा था रूप-कुंड का! वे आगे बढ़े, जल, जमा नहीं था, लेकिन ठंडा बहुत था, उस जल के आसपास अस्थियां ही अस्थियां सजाई हुई थीं! वे बेतरतीब नहीं रखी गयी थीं, आज भी नहीं रखी गयी हैं! आजमाइश हुई है, अस्थियां बिखेर दी गयी, प्रातः वे सभी अपने ही अस्थिखण्ड के साथ ही रखी मिलीं!" बोले वो,
"जय भोले!" बोले बाबा प्रसाद!
हम सब भी बोले! अचानक से बिजली कौंधी! जैसे, अब चेताने आ रही हो बड़े बाबा को की बस, अब और अंदर प्रवेश नहीं करो! वो बिजली इतनी ज़ोर से गूंजी थी, की कान फट से गए हमारे! कुछ सेकण्ड्स तक, प्रकाश छ गया था उस जगह! उस प्रकाश में, अशोक के पेड़, पीपल के पेड़, शांत खड़े थे, जैसे उन्होंने भी कान लगा रखे हों हमारे ही कक्ष से आती हुई आवाज़ों पर!
हम सभी उस कक्ष के वासी, यहां से बहुत दूर, इतिहास के कुछ पलों को जी रहे थे! न जाने क्यों लगता था की मैंने एक एक चरित्र को अपनी आँखों से देखा है! क्यों बाबा लोग, सभी के सभी, वहां से, मेरी आँखों के सामने चले आ रहे थे! पता नहीं, शायद कल्पना शक्ति की उर्वरकता परिशुद्ध रूप से कार्य करने लगी थी! बस यही एक मुनासिब सी वजह लगती थी मुझे तो!
"फिर बाबा?" पूछा मैंने,
"बाबा ने अपना त्रिशूल, उस किनारे गाड़ दिया! अपना ओढ़ा हुआ चर्म, सम्भवतः, व्याघ्र-चर्म अथवा किसी बनैले पशु का चर्म उतार कर, अपने त्रिशूल पर टांग दिया था! वे उतरे ठंडे जल में, और अपने दोनों हाथों में अंजुल बना, जल उठाया, अपनी माँ का नाम लिया और फिर, जल से कुछ पूछा! नेत्र बन्द हुए! जल से पूछने का अर्थ, किसी विद्या का सन्धान किया ऐसा मानिये, वे तीन दिशाओं में घूमे, और फिर, पीठ पर जल छिड़क लिया! आये बाहर, चर्म ओढ़ा और त्रिशूल उखाड़ लिया, अपने साथियों को कुछ आदेश किया, और वे चल पड़े वहां से!" बोले वो,
इतना कह बाबा, एक लम्बी सांस ले, चुप हो गए! हम इंतज़ार ही करते रह गए! की कब वे बोलें! उन्होंने इतर बन्द कर लिए थे, और जब खोले तो बाहर झाँका!
"फिर क्या हुआ था?" पूछा मैंने,
"वर्षा!" बोले वो,
"वर्षा?" मैंने हैरानी से पूछा!
"हाँ, तीव्र वर्षा!" बोले वो,
"उसके बाद?" बोला मैं!
"वे लौटे!" बोले वो,
"कहाँ?" पूछा मैंने,
"कंदरा में!" बोले वो,
"कंदरा में?" पूछा मैंने,
'हाँ!" कहा उन्होंने,
"किसलिए?" पूछा मैंने,
"बताऊंगा!" बोले वो,
"जी! लेकिन जल ने क्या बताया?" पूछा मैंने,
"यही बताऊंगा!" बोले वो,
अब अपना प्याला खत्म कर दिया! मैंने भी अपना गिलास गटक लिया, शहरयार जी ने, मच्छी का एक टुकड़ा ,उझे दिया, मैंने खा लिया!
"हाँ बाबा?" पूछा मैंने,
"वे सभी कंदरा में लौट पड़े!" बोले वो.
"फिर?" पूछा मैंने,
"अब आह्वान किया!" बोले वो,
"आह्वान?" मैंने अचरज से पूछा!
"हाँ, आह्वान!" बोले वो,
"किसका?" पूछा मैंने,
"लम्भाष यक्ष का!" बोले वो,
"लम्भाष का?" मैंने पूछा, जैसे मैंने अभी अभी नींद तोड़ी हो अपनी!
"लेकिन किसलिए?" पूछा मैंने,
"कुछ जानने के लिए, जिसे, सिर्फ लम्भाष ही जानता था!" बोले वो,
मैं चुप हो गया! अभी भी इस गाथा में कुछ घुमाव बचे थे, कुछ चढाव और फिर उतार और तभी..अचानक ही.....!!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"उस सन्ध्या बाबा मेघ ने अलख उठा दी! भगदड़ मचा दी सभी अशरीरियों में! उनके जाप-मन्त्र वज्र समान थे! उनके शिष्य सभी, तोरण-मन्त्र पढ़े जा रहे थे! अलख से उठता धुंआ, बाहर की हिम की सफेदी पर, एक लकीर सी बना दी थी! ज्यों ज्यों जाप आगे बढ़, एक एक कर सभी सत्ताएं जो वहाँ अपना वर्चस्व रखती थीं, आती चली गयीं! वे उत्तर देती और चली जातीं! और इसी प्रकार उपस्थित होना पड़ा लम्भाष को!" बोले बाबा!
"जय बाबा मेघ!" हम सभी ने कहा,
"फिर बाबा?" पूछा मैंने,
"फिर?" बोले वो,
"हाँ, हाँ बाबा, फिर?" कहा मैंने,
"लम्भाष प्रकट हुआ! राजसिक वेशभूषा में! गौर-वर्ण, उन्नत देह वाला, सजा-धजा, पूरी कंदरा में लाल रंग की लालिमा छा गयी! अजीब बात ये थी, कि लम्भाष ने प्रकट होते ही, प्रणाम किया बाबा मेघ को! बाबा मेघ ने प्रणाम स्वीकार किया! और तब, लम्भाष से, अपने पिता के विषय में जानकारों मांगी!" बोले वो,
"क्या सामर्थ्य रहा होगा बाबा मेघ का!" कहा मैंने,
"क्या बताया फिर लम्भाष ने?" पूछा शहरयार जी ने!
"लम्भाष ने बताया कि बाबा समिध, घोर तप में लीन हैं, और अब किसी का कोई सामर्थ्य नहीं कि उनको इस बीच टोका जाए! हाँ, यदि दर्शन करने हों तो वो सूक्ष्म द्वार से दर्शन करवा सकता है!" बोले बाबा,
"तब?" पूछा मैंने,
"तब अन्य कोई चारा नहीं था, पिता के दर्शन हो जाएँ, भला उस पुत्र को क्या आपत्ति होती! स्वीकार हुआ अनुनय! और बाबा मेघ, यथावत ही बैठे रहे, अब बागडोर, उस सन्धान की, उनके सभी शिष्यों पर आन पड़ी! वे सभी, बाबा मेघ की उस 'देह' की रक्षा व देखभाल में जुट गए! बाबा मेघ का सूक्ष्म, चल पड़ा था लम्भाष के संग!" बोले वो,
"क्या क्या उन्नत रहा है इस धरा पर!" कहा मैंने,
"तो दर्शन हुए?" पूछा शहरयार जी ने!
"जैसे ही लम्भाष ने सूक्ष्म को मुक्त किया, सामने उस सूक्ष्म के, एक जोगी बैठा था! उसकी दाढ़ी भूमि तक आ चुकी थी, उसकी देह अभी भी ऐसी ही थी कि जैसे वो जोगी अभी अभी ही बैठा हो तप में! देह पर मालाएं कसी हुई थीं! आसपास का क्षेत्र, साफ़-सुथरा एवम पावन था! और इसका श्रेय उस लम्भाष का था!" बोले वो,
"प्रणाम लम्भाष!" बोले हम सभी!
"पुत्र मेघ के आँखों से आंसू टपक पड़े! मेघ जिसके अंश थे, वो तो सम्मुख था! जी चाह, दौड़कर, चिपक जाए अपने पिता से! सौ तो शिकायतें करें, सौ बार गुस्सा ही! सौ बार ही डांट खाये और सौ बार ही आशीष ले उनका! मेघ का सर झुक गया! और तभी!!" बोलते बोलते रुके बाबा जी, मैंने देखा, उनके नेत्र भी गीले हो चुके थे! जैसे, वे स्वयं ही वहाँ कभी रहे हों! उस दृश्य के साक्षी!
"बाबा?" कहा मैंने,
बाबा ने कुछ नहीं कहा, बस अपने हाथ से, अपने वृद्ध नेत्रों से आंसुओं की वो चादर हटाई, जो वक़्त के साथ साथ अब ज़रा फट चुकी थी! झाल और सांट आ गयी थीं!
"बाबा?" कहा मैंने,
"और तभी, उस झुके हुए पुत्र के सर पर, एक हाथ रखा गया, आशीष का! सर उठाया तो समकछ, पिता स्वयं समिध खड़े थे! बाबा मेघ, न आश्चर्यचकित हुए! होते तो पिता के सामर्थ्य पर भरोसा नहीं हो पाता! बस 'पिता जी' कहते हुए, लिपट पड़े उनसे! अश्रुओं से भिगो दिया बाबा समिध को उन्होंने! और बाबा समिध, अपने हाथ से, उनका सर और पीठ ही सहलाते रहे!" बोले वो,
"फिर बाबा?" पूछा मैंने,
"फिर?" बोले वो,
एक लम्बी सांस ली उन्होंने!
"लम्भाष वहीँ था? बोले शहरयार जी!
"फिर एक पुत्र ने घर लौटने का प्रस्ताव रखा! लेकिन वो जोगी! उसका भला अब घर क्या! उसके घर का निर्माण तो कहीं और ही चल रहा था! ये धरा अब उस पवन जोगी हेतु न रही थी!" बोले वो,
'हाँ! सत्य कहा आपने!" बोला मैं!
अब बाबा चुप हो गए, दो दाने चने के उठाये, एक एक क्र, उन्हें आगे वाली दांतों से तोडा और कुछ अधिक ही प्रयास कर, चबाते हुए, उन्होंने वो दाने खाये!
"उस रात वहां लम्भाष था! मूर्ति की भांति खड़ा हुआ! परन्तु एक और सूक्ष्म भी था वहाँ! जो न तो बोला ही था, न प्रकट ही हुआ था!" बोले बाबा,
"कौन?" बोले शहरयार!
"क्या गुरु माँ?" बोले प्रसाद बाबा,
"नहीं! मैं जानता हूँ!" कहा मैंने,
"कौन?" बड़े बाबा के अतिरिक्त सभी ने कहा ये!
"बाबा त्रिनेत्री!" कहा मैंने,
"क्या??" वे सभी बोल उठे!
"हाँ! बाबा त्रिनेत्री!" बोले बड़े बाबा!
"परन्तु वे तो अभी भी लम्भाष के संग खेतक में हैं न?" बोले प्रसाद बाबा,
"हाँ! परन्तु खेतक यहां अत्यंत ही तीक्ष्ण है!" बोला मैं,
"वो कैसे?" पूछा सभी ने,
"खेतक ये, के किसके सम्मुख बाबा समिध अपने नेत्र खोलें!" कहा मैंने,
"ओह! हाँ, अत्यंत ही तीक्ष्ण!" बोले सभी!
"क्यों बड़े बाबा?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
"उस रात क्या हुआ होगा, मैं ये समझ गया हूँ!" कहा मैंने,
"क्या?" बोले वो,
"ये मन्दालवेणि की ही गाथा है! अब समझ गया हूँ! क्यों वो बार बार आती है, ये भी जान गया हूँ मैं!" कहा मैंने,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"क्या? क्या जान गए हैं आप?" हैरत में पड़ते हुए, बाबा प्रसाद ने पूछा!
उन्होंने उस समय आर्यसमाजी जैसी पगड़ी ही बाँधी थी, उसके फाल से मुंह पोंछा था! मैं तो था ही विस्मय में अपने ढंग से, परन्तु वहां मौजूद सभी हैरत में पड़े थे!
"अभी तो बाबा बेहतर जानते हैं, मैं तो बाबा का पाँव-धोवन भी नहीं!" कहा मैंने,
मेरा ये कथन सुनते ही, बाबा ने मेरे सर पर हाथ फिरा दिया! बुज़ुर्गों से अच्छा दोस्त, मददगार, तज़ुर्बेकार, खरी और खालिस सलाह देने वाला कोई नहीं हो सकता! बुज़ुर्ग लोग, सभी आदरणीय हैं! हमसे कहीं अधिक तज़ुर्बा है उन्हें ज़िन्दगी जीने के, खूब चप्पू चलाये हैं उन्होंने इस जीवन रूपी नैय्या के! वृद्ध होना ही अपने आप में उस परमेश्वर की रजा है! इसीलिए, वृद्ध कोई भी हो, अब भले कोई पशु ही क्यों न हो, हमारे द्वारा कभी कष्ट नहीं पहुंचना चाहिए! इसी प्रयास में रहें सदा! वे बुज़ुर्ग हैं, ईश्वर के करीब हैं, गवाही देंगे, शायद नाम भी बोलेन हमारा, अब देखें, किस स्याही से लिखे जाते हैं हमारे नाम, काली से कि लाल से!
"हाँ बड़े बाबा? अब रुकियो मत! बताओ, क्या हुआ?" बोले अब प्रसाद बाबा जी!
बड़े बाबा ने खखार कर गला साफ़ किया अपना, फिर से चार-पांच दाने उठाये चने के! और एक एक कर चबाने लगे!
"ओ नरसिंह?" बोले प्रसाद बाबा,
"जी?" बोला वो,
"घाल भाई?" बोले वो,
"अभी!" बोला और घुटने छोड़े अपने उसने, अजीब से उकड़ू अंदाज़ में बैठ जाता था ये नरसिंह भी! मैं बैठूं तो गाँठ ही पड़ जाए देह में! तो उसने मदिरा भर दी, मैंने एक मछली का बढ़िया गोश्त वाला टुकड़ा उठाया और बाबा को दे दिया! बाबा ने लिया और अपनी तश्तरी पर रख लिया!
"उस रात बाबा समिध और बाबा मेघ के बीच बहुत बातें हुईं! एक समय में ही, एक काल की बातें! समझ रहे हो न?'' पूछा मुझसे,
"हाँ बाबा, सब समझ रहा हूँ!" कहा मैंने,
"बाबा समिध लौट नहीं सकते थे, अब कुछ शेष नहीं था लौटने को, गुरु माँ, जल-समाधि ले चुकी थीं! ये सब वो जानते थे, हाँ, अपने पुत्र से मिलना की जो 'इच्छा' थी, जो भविष्य देखा था झाँक कर, वो भी उस रात पूर्ण हो लिया था! बस! एक इच्छा!" बोले वो,
"क्या यही इच्छा?" पूछा मैंने,
"नहीं, अभी एक इच्छा और थी, जिसका कारण वे स्वयं ही थे, शेष थी! वे, सर्वभागी हो चुके थे, दुःख-सुख से दूर! न अब मानस ही थे, न पाषाण ही! न वर्तमान के बचे थे, न भूतकाल के, भविष्य में उनका मार्ग प्रशस्त हो चुका था!" बोले बाबा,
"क्या इच्छा बाबा?" पूछा मैंने,
"मन्दालवेणि!" बोले वो,
"मन्दालवेणि?" मैंने अचरज से पूछा!
"हाँ, मन्दालवेणि!" बोले वो, तीन बार!
"लेकिन वो तो इस प्रकरण में मात्र कुंड-रक्षिका तक ही तो सीमित थी?" बोला मैं,
"हाँ, थी!" बोले वो,
"तो फिर?" पूछा मैंने,
"यही! यही तो कारण है हम में और उन महान समिध में!" बोले वो,
"हम? समिध? क्या अर्थ?" पूछा मैंने,
तभी आकाश की बिजली कड़की! इस बार जैसे कुछ लायी थी, फेंका उसे, उस छोटे से श्मशान के पीछे के आवास-क्षेत्र में, और लौट गयी थी, भयानक सा क्रंदन कर! उसके कड़कते ही, बरसात पर जैसे अब, अल्हड़ता सी और चढ़ी! जैसे, कोई नव-यौवना चलते हुए, न जाने कितने दृष्टि-बाण झेलती है अपनी सौंदर्य-ढाल पर! ऐसे ही ये तड़िता आयी, गुजरी और चली गयी!
"बाबा?" कहा मैंने,
"हम?" बोले वो,
"क्या वही उत्तर है इसका, जो मैं समझ रहा हूँ?" बोला मैं,
"हाँ, वही!" बोले वो,
अब तो सभी कभी मुझे देखें और कभी बड़े बाबा को!
अचानक से ही मोमबत्ती फड़फड़ाई! मेरी नज़र गयी, नरसिंह की गयी, वो तो बिलकुल ही ख़तम होने की कगार पर थी!
"नरसिंह?" बोले प्रसाद बाबा,
"आ हाँ, अभी दूसरी लगा देता हूँ!" बोला वो, और उठ खड़ा हुआ, मेरे पीचेह से, पन्नियों की खड़खड़ की सी आवा होने लगी! और कुछ ही देर में, नरसिंह फिर से आ कर बैठ गया!
"बाबा?" बोला मैं,
"हाँ?" कहा उन्होंने,
"उस रात बाबा समिध ने, अपने पुत्र से कुछ माँगा!" बोला मैं,
"हाँ! शत-प्रतिशत!" बोले वो,
"और वो था, मन्दालवेणि की मुक्ति!" बोला मैं,
'हाँ! हाँ! यही!" बोले वो,
"बाबा समिध के अनुसार, इस पूरे प्रकरण में, न तो पक्ष गलत था बाबा केमिक का, न उन त्रिनेत्री बाबा का, न ही शोणबल बाबा का! ये तो जैसे कुछ चरित्र थे, जो भविष्य में होने वाली किसी अहम घटना के पूरक-अंश ही थे! परन्तु, जिसका कुछ लेना-देना नहीं था, उसको ही सब झेलना पड़ा! चाकी में घुन की तरह से पीसी गयी वो!" कहा मैंने,
"निःसन्देह!" बोले वो,
"तब, और तब! तब, बाबा मेघ ने सोची थी उस मन्दालवेणि की मुक्ति की!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
"और इस बार फिर से सामना होना था उनका उस महाहठी त्रिनेत्री बाबा से!" कहा मैंने,
'हाँ, यही! बाबा त्रिनेत्री के लिए तो ये अस्तित्व की सी लड़ाई थी! सीधे सीधे बाबा त्रिनेत्री की, उन बाबा मेघ द्वारा खिलाफत! वो भी खुलकर!" कहा उन्होंने!
"और फिर से खेतक आरम्भ!" बोला मैं,
"और आरम्भ हुआ फिर खेतक!" बोले वो,

 


   
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श्रीशः उपदंडक
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"बाबा?" पूछा मैंने,
"हाँ?" बोले वो,
"क्या ये खेतक ही था?" पूछा मैंने,
"नहीं!" कहा उन्होंने,
"तो?" बोला मैं,
"हठ!" बोले वो,
"किसलिए?" पूछा मैंने,
"त्रिनेत्री बाबा तो हठी थे ही!" बोले वो,
"तब, किस वजह से हठ?" पूछा मैंने,
"अब समझने वाला समझे!" बोले वो,
"समझता हूँ! न यक्ष-विद्या चाहिए थी, न गांधर्व-विद्या! ये खेतक था, अब सिद्ध हुए बाबा समिध के संग! अवश्य ही कुछ ऐसा प्राप्त होता, जिसकी कोई कल्पना भी न कर सके!" बोला मैं,
"बिलकुल यही!" बोले वो,
"यही था न हठ?" पूछा मैंने,
"हाँ, परन्तु, उनका खेतक कभी भी नहीं हुआ उस लम्भाष से, है न बाबा?" पूछा मैंने,
"हाँ, कभी नहीं हुआ!" बोले वो,
"लम्भाष को ये पता था!" कहा मैंने,
"हाँ, पता था!" बोले वो,
"तब, त्रिनेत्री उतरे जल में!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
"और तब, तब उनका खेतक आरम्भ हो गया था, जबकि उन्होंने कोई प्रयास ही नहीं किया था! कैसे दिग्गज रहे होंगे बाबा त्रिनेत्री!" बोला मैं!
"निःसन्देह यही!" बोले वो,
"अब रहे मालव्य!" कहा मैंने,
"हाँ?" बोले वो,
"तो मालव्य एक सूत्र बने, मात्र एक सूत्र ही!" बोला मैं,
"हाँ! और केमिक!" कहा मैंने,
"क्या?" पूछा उन्होंने!
"बाबा केमिक ने ही तो कहा था न बाबा त्रिनेत्री को, यदि वे खेप रहे तब मार्ग प्रशस्त समझना उनका! यही न? बाबा केमक और बाबा त्रिनेत्री अवश्य ही एक दूसरे को जानते थे!" कहा मैंने,
"वाह पुत्र! वाह!" बोल पड़े बाबा तभी और मेरे कन्धे पर हाथ फिरा दिया!
"ये सब सोचा-समझ सा खेल था बाबा! बस, कोई समझ नहीं तो वो, वो बेचारी मन्दालवेणि! उसको श्राप लगा, वो श्रापित हुई! तभी, कुछ ही समय पहले बाबा त्रिनेत्री ने, योग-बल से एक कुंड बनाया, सौर-कुंड!" कहा मैंने,
"बिलकुल सही!" बोले वो,
मेरे सामने मदिरा का गिलास सरकाया बाबा प्रसाद ने, मैंने जल की तरह, तीन घूंटों में ही खत्म कर दिया वो गिलास!
"वैसे एक बात समझ नहीं आयी?" बोले बाबा प्रसाद,
"वो क्या?" पूछा मैंने,
"ये कैसा खेल? हमें तो समझ आयी ही नहीं?" बोले वो,
''बाबा प्रसाद?" कहा मैंने,
"हाँ जी?" बोले वो,
"ये खेल ही था! खेल कुछ दिग्गजों का! मेरे जैसे आम लोगों के लिए तो ये एक रहस्य ही रहता! ये खेल खेला था नियति ने, कुछ विशेष मोहरों के साथ! इसमें दो ही मुख्य थे, एक बाबा समिध और एक बाबा त्रिनेत्री! मैंने कहा था, कि वे एक दूसरे को जानते थे, इसका अर्थ क्या हुआ?" पूछा मैंने,
"यही कि संगत रही थी दोनों की?" बोले वो,
"नहीं! संगत नहीं बल्कि वैमनस्यता!" कहा मैंने.
"कैसे?" अब कि तो ज़ोर से हिचकी लेते हुए पूछा उन्होंने!
"दोनों के मत अलग ही थे! मत अलग हों, तो एक पायदान पर एक ही चढ़ेगा! हाँ, वे कभी खुलकर नहीं आये सामने! समझदार शत्रु और मुर्ख शत्रु यही होता है! बाबा समिध आयु में बड़े थे, कुछ ही वर्ष! परन्तु, तप में कोई सानी नहीं था उनका! अब काँटों को चाहे आप लोहे से ढको, ध्यान तो रखोगे ही कि कहीं चुभ ही न जाए!" बोला मैं,
"हाँ, ये तो सच है ही!" बोले बाबा प्रसाद!
"तो काँटा चुभने लगा था! उसका निदान आवश्यक था!" कहा मैंने,
"मतलब हटाने का?" बोले वो,
"नहीं, हटाने से तो सब समाप्त हो जाता!" बोले वो,
"फिर?" बोले वो,
"मार्ग रोकना था!" कहा मैंने,
"तो बाबा? क्या मार्ग रुका?" पूछा शहरयार जी ने!
"जिस मार्ग को पवन स्वयं बनाये, जल बनाये वो बाद में पवन और जल से भी मार्ग नहीं रुकता!" बोले बाबा!
"ये तो है ही!" बोले प्रसाद बाबा,
"समझने का प्रयास करता हूँ!" बोले शहरयार जी!
"बड़े बाबा?" बोले प्रसाद बाबा,
"हाँ?" बोले वो,
"जब बाबा मेघ लौटे, तब क्या हुआ?" पूछा उन्होंने,
"वे लौटे! हाँ! अंतिम बार ही!" बोले वो,
''अंतिम बार?" कहा मैंने,
"हाँ, बाबा मेघ, अंतिम बार!
"तब वो क्या सौर-कुंड गए?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोले वो,

 


   
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श्रीशः उपदंडक
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"बाबा मेघ ने प्रयास किया या नहीं?" पूछा मैंने,
"क्या लगता है, किया होगा? अथवा नहीं?" मुझ से ही पूछ लिया उन्होंने,
"हाँ, किया ही होगा अवश्य ही!" कहा मैंने,
"हाँ, किया था!" बोले वो भी,
"पर, क्या वो गए सौर-कुंड तक?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोले वो,
"समझ गया!" कहा मैंने,
"वो गए तो होंगे, परन्तु मिला ही नहीं होगा, चूँकि वो अदृश्य ही होगा!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
"तब क्या हुआ बाबा?" पूछा मैंने,
"लाख जतन किये, सौर-कुंड नहीं मिला! सौर-कुंड, सिर्फ तभी मिलता जब, स्वयं या तो बाबा त्रिनेत्री ही पता बताते या फिर, स्वयं वो मन्दालवेणि ही!" बोले वो,
"और यही बाबा चूक गए!" बोला मैं,
"हाँ!" बोले वो,
"अब भले ही, बाबा समिध उनके पिता होंगे, समझ सकता हूँ, पर, वे सिद्धत्व चढ़ चुके थे, फिर लम्भाष का शक्ति-पुंज और उनके सिद्धत्व का तप-आकषण, बाबा मेघ की शक्तियों का अपघटन करने लगे होंगे!" बोला मैं,
"यही हुआ!" बोले वो,
"तब वे लौटे होंगे वापिस, अब ज़ोर लगाना, सम्भवतः मृत्यु वरण करने जैसा रहा होगा, चूँकि, अवरुद्ध तो कोई और ही कर रहा होगा, बाबा त्रिनेत्री! समझ गया हूँ मैं!" कहा मैंने,
"हाँ, बाबा मेघ के मन पर बहुत भार था, एक ओर जहां प्रसन्नता थी उन्हें, पिता से मिलने कि वहीँ दूसरी ओर, वे पिता की इच्छा पूर्ण न कर पाने की अवस्था में, बहुत दुखी हुए होंगे!" बोले वो,
"समझ गया! वे लौटे, तो इसी 'भार' तले दबे रहे!" कहा मैंने,
"हाँ, वे जल्दी ही इस भार से मुक्ति चाहते थे! बाबा मालव्य ने, एक योग्य कन्या ढूंढ उनका विवाह सम्पन्न करवाया! और तब!" बोलते बोलते रुके वो!
"और तब, बाबा अम्भ का जन्म हुआ! ओह! कितना गूढ़ रहा ये सब! और वो, प्रतीक्षा ही करती रही! बेखबर सी! कुंड-स्वामिनि, वो मन्दालवेणि!" कहा मैंने,
"हाँ, यही हुआ!" बोले वो,
"और बाबा मेघ?" पूछा मैंने,
"बाबा मेघ, बाबा अम्भ की चौदह वसन्त तक साथ रहे, पन्द्रहवीं से पहले वे भी छूट गए! तब तक, उन्होंने, अपना समस्त प्रदान कर दिया बाबा अम्भ को! और बाबा अम्भ से एक कर्तव्य निभाने हेतु वचन लिया!" बोले बाबा!
"यही था वो वचन! और बाबा अम्भ का कर्तव्य! धन्य हो बाबा अम्भ! धन्य हो ये वंश! और धन्य हो वे सब, जो इस धारा में, बिन लोभ बहते रहे! और महाधन्य हो वो मन्दालवेणि, जिसका कोई चरित्र ही नहीं था इस धारा में! फिर भी, इसी मन्दालवेणि ने, सभी को बांधे रखा! अब मैं समझ गया हूँ बाबा!" कहा मैंने,
"एक कर्तव्य! समझे?" बोले वो,
"हाँ, समझ गया!" कहा मैंने,
''अब?" बोले वो,
"अब?" बोला मैं भी,
"अब चाहता हूँ, कि सिर्फ केंद्रीकरण मात्र दो पर रहे, जानते हो कौन?" बोले वो,
"हाँ, मन्दालवेणि एवम बाबा अम्भ!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
"जी, जो आज्ञा बाबा!" कहा मैंने,
मैं अब खड़ा हुआ, शहरयार जी भी खड़े हुए, बाहर नहीं जा रहे थे, वहीँ थे, दोनों ही अपनी अपनी सोच की नदियों में, विचारों की नैय्या में, अपने ही तौर पर, चप्पू चलाते हुए! खेते हुए उसे! क्या क्या हो गया! क्या क्या हो रहा है! क्या क्या होगा! ये कैसी लीला है उसकी भी! पता नहीं, हंसता है कि दुखी होता है! पता नहीं उपहास उड़ाता है कि सहानुभूति रखता है! कुछ नहीं पता! और सच में तो है, मार्ग के दोनों ओर, शिलाएं हों, पहाड़ हो, तो याद रहते हैं, इधर उधर बिखरे कंकड़ों की क्या बिसात भला! कभी इसके पाँव तले, कभी उसके पाँव तले, धूप मिली तो गरम हुए, छाँव मिली तो शीतल! वर्षा मिली तो स्नान हुआ! न मिली तो वहीँ के वहीँ! अब कौन याद रखता है कंकड़ों को! हम सभी कंकड़! सभी के सभी! किस किस की कहूँ! जो शिलाएं हैं, उनको कैसे देखूं! जो पहाड़ हैं, तो देखने की औक़ात क्या! बस, इंसान हैं, यही बहुत है! एक नाम है, इस देह का बस, आत्मा का नहीं! मेरी आत्मा का नाम क्या है, मुझे नहीं पता! झूठ क्या बोलूं! अब नहीं पता तो नहीं पता! पता किसी को है, तो सिर्फ उसको! जो महज़ एक बार बोलेगा और ये, इस देह का चोला छोड़, दौड़ी चली जायेगी! रह जाएगा नाम बस! वो भी दो-चार पीढ़ियों तक! बस! अब बाढ़ में डूबी हुई सीढ़ियों को गिनता कौन है!
तो साहब, अंगड़ाई ली, आज तो मदिरा ने भी धोखा दे दिया था! आज तो चढ़ी ही नही थी! पानी सरीखी ही लग रही थी!
"बैठो!" बोले प्रसाद बाबा,
"हाँ बाबा!" कहा मैंने,
और हम दोनों ही बैठ गए!
"बाबा?" पूछा मैंने,
"पूछो?" बोले बड़े बाबा,
"इस भाद्रपद द्वादशी का क्या अर्थ हुआ? इसे ही नहीं सुलझा पा रहा हूँ मैं!" कहा मैंने,
"जान जाओगे!" बोले वो,
"कब बाबा?" पूछा मैंने,
वे चुप हुए! एक घूंट मदिरा कण्ठ में उतारी!
"बारिश है अभी?" पूछा उन्होंने,
"हाँ, है!" बोले वो,
"मौसम खुले तो कुछ बात बने!" बोले वो,
"समझ गया बाबा!" कहा मैंने, मुस्कुरा पड़ा था मैं, बड़े बाबा भी मुस्कुरा पड़े थे मुझे मुस्कुराते देख कर!


   
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श्रीशः उपदंडक
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मुझे इस भाद्रपद द्वादशी का अर्थ, पहले कुछ और ही समझ आया था, और अब, इसका दूसरी बार अलग ही समझना था! वहां लम्भाष से तय हुआ था मिला, बाबा समिध का, उस भाद्रपद द्वादशी को! ज़रा सा भी ध्यान लगाएं तो अब दो घटनाएं एक साथ, समानांतर चल रही थी! एक, लम्भाष और बाबा समिध की गोष्ठी और दूसरी ये, इस मन्दालवेणि का वहां, बाबा अम्भ के पास आना! बाबा अम्भ के पास आना! हाँ, इसीमे तो ये सम्पूर्ण रहस्य दबा हुआ था!
"बाबा?" पूछा मैंने,
"हाँ?" बोले वो,
"बाबा अम्भ! मुझे प्रतीत होता है, बाबा अम्भ, अवश्य ही मिले होंगे उस मन्दालवेणि से!" कहा मैंने,
वे आगे झुके, और मुझे गौर से देखा! भाव, पाषाण जैसे हो गए थे उनके ये सुनते ही!
"कैसे?" पूछा उन्होंने,
"यदि कोई सम्पर्क नहीं होता तो अवश्य ही, वो यहां नहीं आती!" कहा मैंने,
"हाँ! यही!" बोले वो,
"हाँ, अब आप बताइये मुझे सौर-कुंड के बारे में!" कहा मैंने,
बाबा ने सीने पर हाथ रख लिया अपना! कुछ अप्रत्याशित सा घटा था उसी क्षण उनके हृदय में!
"क्या कहना चाह रहे हो?" पूछा उन्होंने,
"यही कि बाबा आपने ये, सौर-कुंड देखा है?" पूछा मैंने,
"नहीं! नहीं देखा!" बोले वो,
"लेकिन पता अवश्य ही है!" बोला मैं,
"मात्र दिशा ही!" बोले वो,
"आ गए भी! पत्यास भी किया!" बोला मैं,
"कैसे कह सकते हो?" बोले वो,
"कंदराएँ! भला किसे मालूम हैं!" कहा मैंने,
बाबा की जिव्हा जैसे कील ही दी मेरे स्पष्टीकरण ने, उसी क्षण!
"किये न प्रयास?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
"जीवन ही लगा दिया खोज में!" कहा मैंने,
"हाँ, सम्पूर्ण ही!" बोले वो,
"विवाह भी नहीं किया!" कहा मैंने,
"हाँ, सच है!" बोले वो,
''और बाबा, एक बात और बता दो मुझे!" कहा मैंने,
"क्या?" पूछा उन्होंने, हैरत से!
"कि आप किसकी वंश-बेल से हो? बाबा केमिक, मालव्य अथवा स्वयं ही समिध!" बोला मैं,
"किसी की नहीं!" बोले वो,
"रह गए दो अब!" कहा मैंने,
"कौन?" पूछा उन्होंने,
"बाबा त्रिनेत्री और बाबा शोणबल!" कहा मैंने,
"नहीं, मैं किसी की वंश बेल से नहीं!" बोले वो और हंस पड़े! ज़ोर ज़ोर से! जैसे, सीने में दबे कई तूफान हों, उन्हें दबाने में लगे हों!
"बाबा?" कहा मैंने,
हंसते हंसते, हाँ कहीं उन्होंने!
"बता भी दो?" कहा मैंने,
"क्या बता दूँ?" बोले वो, हंसते हुए!
''आपको इतनी बारीकी से कैसे पता?" पूछा मैंने,
"नरसिंह?" बोले वो,
"जी?" बोला वो,
"बता इन्हें?" बोले वो,
"क्या?" पूछा उसने,
"जो ये पूछ रहे हैं!" बोले इस बार खांसते हुए वो!
"हाँ नरसिंह?" पूछा मैंने,
"बाबा, बड़े बाबा जी, किसी बेल से नहीं!" बोला वो,
"तो इतनी बारीकी से कैसे पता?" पूछा मैंने,
"वे जानते हैं!" बोला वो,
"कैसे?" पूछा मैंने,
"मुझे नहीं पता!" बोले वो,
"मुझे पता है!" कहा मैंने,
"क्या?" पूछा दोनों ने ही!
"वो प्राचीन मन्दिर! भयहरण मन्दिर, अब तो शायद तीन या चार बार अपना रूप भी बदली किया उसने, या फिर अधिक ही!" कहा मैंने,
"हाँ, तो?" बोले वो,
"किसने निर्माण करवाया?" पूछा मैंने,
"मुझे क्या पता?" बोले वो,
"अच्छा?" कहा मैंने,
"और क्या?" बोले वो,
"ठीक है!" बोला मैं,
"क्या ठीक?" बोले वो,
"सब ठीक है!" कहा मैंने,
"अरे? बताओ तो?" बोले गिलास आगे खिसकाते हुए!
नरसिंह ने गिलास भर दिया उनका, उन्होंने गिलास उठाया, इस बार हाथ कांप उनका! मैं समझ गया था इसका कारण! हो न हो, बड़े बाबा का कुछ कम या अधिक लेना देना तो है ही इस घटना से!
"हाँ? क्या ठीक?" बोले वो,
मैं चुप रहा, सोचा, क्या जवाब दूँ, देना था तो दिया!
"मौसम खुलने दो!" कहा मैंने,


   
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श्रीशः उपदंडक
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उस कक्ष में, अचानक से ही शान्ति पसर गयी थी! कहाँ से बात निकल कर, कहाँ तक आन पहुंची थी! कितने सारे चरित्र अपना अपना परिचय करवा चुके थे, कितनों से हम भी परिचित हो गए थे! और अब जो दो बचे थे, वही दो, जो इस गाथा के प्रथम भाग में संलिप्त थे, अब अंत के भाग में भी जुड़े हुए थे! इतिहास आज यहां आकर, फिर से साँसें लेने लगा था! न जाने उसे मालूम भी था या नहीं! लेकिन आज तो इस कक्ष में उसी की महिमा का गान हो रहा था!
"लो!" बोले शहरयार जी,
और गिलास मेरी तरफ सरका दिया! न जाने कितनी मदिरा हम पी चुके थे, लेकिन न तो आज उसमे धार ही थी और न ही तीखापन! वो तो बस महज़ पानी का सा स्वाद देती थी, हर बार! अब मच्छी भी ख़त्म हो गयी थी, मुर्गा तो पहले ही लील लिया गया था, बचे थे चने, सो चल रहे थे!
"बाबा?" पूछा मैंने,
"हाँ?" बोले वो,
"ये सौर-कुंड क्या हिमाचल वाला ही है?" पूछा मैंने,
"मैंने नहीं देखा!" बोले वो,
"शायद वही हो?" कहा मैंने,
"सम्भव है!" बोले वो,
"तो क्या आज भी वो मन्दालवेणि उसी सौर-कुंड की स्वामिनि है?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोले वो,
"तो?" पूछा मैंने,
"यदि वहां की होती, तो आती कैसे यहां, उस बन्धन को तोड़कर?" बोले वो,
"अरे हाँ! ये मैं कैसे भूल गया!" कहा मैंने,
"वो तो लौट गयी थी!" बोले वो,
"कहाँ?" पूछा मैंने,
''अपने लोक!" बोले वो,
"तो आती क्यों है?" पूछा मैंने,
"इसका निर्णय कोई नहीं कर सकता, न मैं कर सका, और शायद कोई भी कर ही सके!" बोले वो, चने उठाते हुए!
"क्या बाबा अम्भ ने विवाह किया?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोले वो,
"तो गुत्थी सुलझ जायेगी!" कहा मैंने,
"कैसे?" बोले वो,
"बताऊंगा, पहले ज़रा पुख्ता हो जाऊं!" कहा मैंने,
"तो इसका मतलब, बाबा समिध की वंश-बेल यहां आ, कट गयी!" कहा मैंने,
"ऐसा कह सकते हो!" बोले वो,
"सकते हो?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
"पक्का क्यों नहीं?" पूछा मैंने,
"ये स्वयं ही जान जाओगे!" बोले वो,
"ठीक!" कहा मैंने,
अब मदिरा खत्म, रात हुई ज़्यादा! कुछ घण्टे ही सो जाएँ तो गनीमत हो! बहुत हल चलाया था हमने आज इतिहास में! अब थकान नुमाया थी हम सभी पर!
"अच्छा बाबा! सुबह मिलते हैं!" कहा मैंने,
"ठीक!" बोले वो,
"प्रसाद बाबा, सुबह!" कहा मैंने,
"हाँ हाँ!" बोले वो,
और हम दोनों बाहर चले आये, ओसारे के साथ साथ, कुछ भीगे-भागे, लेकिन अपने कक्ष तक आ पहुंचे! बत्ती थी नहीं, मोमबत्ती भी नहीं थी, शहरयार जी ने माचिस जलाई, कुण्डी खोली और हम अंदर आ गए! अंदर सीलन की गन्ध आ रही थी, अब क्या करते, रात तो बितानी ही थी! सो, थोड़ी देर बातें हुईं और हम, सो गए!
सुबह जब उठे, तो नौ के आसपास का समय था, मैंने बाहर झाँका, बारिश ने कुछ सांस तो ली थी! सामने खड़े पेड़, बड़े ही खुश थ! पत्ते उनके चटख हरे हो चले थे! कुछ पक्षी आ गए थे, सुबह का नज़ारा ही अलग था! मेरे सामने के मैदान में कुछ पानी जमा था, वहां, मुर्गे और मुर्गियां दाना चुग रहे थे, बकरी के मैं-मैं भी सुनाई दे रही थी! बीच बीच में, कोई मुर्गा, सर उठा, कलगी तना बांग दे देता था! मैंने अपने बैग से दातुन निकाली, नीम की दातुन, और करने लगा! शहरयार जी भी आ गए! और हम इस तरह से दैनिक-कर्म इत्यादि से फारिग हो गए! पानी बड़ा ही ठंडा लगा था नहाने में! अब तो बस, गड़ुए वाली चाय मिले तो राहत आये!
"कमाल की रात थी कल!" बोले वो,
'हाँ!" कहा मैंने,
"क्या क्या है इस संसार में!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"सब अजब-गज़ब!" बोले वो,
"सही बोले!" कहा मैंने,
तभी नरसिंह दिखा, जग लाते हुए, साथ में दो गिलास भी थे!
"आ गया पट्ठा!" बोले वो,
"चाय लाया होगा!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
"प्रणाम जी!" बोला मुंह से अंगोछा हटाते हुए!
"प्रणाम नरसिंह!" कहा मैंने,
"चाय पी लो!" बोला वो,
"ला यार!" बोले वो,
हमें गिलास दिए उसने, और चाय भर दी!
"नाश्ता तो बाद में ही मिलेगा!" बोला वो,
"कोई बात नहीं!" कहा मैंने,
"वो अभी सामान लाना पड़ेगा!" बोला वो,
"कोई बात नहीं!" कहा मैंने,
"अरे? बाबा उठ लिए?" पूछा उन्होंने,
"नहीं, जगाया भी नहीं!" बोला वो,
"ठीक किया!" बोले वो!
"कब सोये थे?" पूछा मैंने,
"करीब एक घण्टे बाद" बोला वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
और चाय की चुस्की भरी!
"आऊंगा बाद में" बोला वो और लौट चला!
"वैसे एक बात तो है!" बोले वो,
"क्या?" पूछा मैंने,
"सवाल लाख तीर भरे थे आपके!" बोले वो,
"होता है ऐसा!" कहा मैंने,
"टटोल लिया बाबा को!" बोले वो,
"अभी नहीं!" कहा मैंने,
"क्यों?" पूछा उन्होंने,
"बाबा का कुछ लेना-देना तो अवश्य ही है!" कहा मैंने,
"क्या हो सकता है?" पूछा उन्होंने,
"मुझे भी नहीं पता!" कहा मैंने,
"बता देंगे वो?" बोले वो,
"कहलवा कर ही छोडूंगा!" कहा मैंने,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"पता है, मैं जानता हूँ!" चुस्की भरते हुए बोले वो!
"यहां बहुत ही गूढ़ रहस्य है!" कहा मैंने,
"ये तो लग ही रहा है!" बोले वो,
उसके बाद हम इसी विषय पर बातें करते रहे! चाय ख़तम की तो वापिस लेट गए! बादल बने हुए थे, लेकिन बरसात नहीं हो रही थी, लेकिन सूरज भी नहीं निकला था! मौसम ठंडा हो गया था, इतना ज़रूर था!
करीब एक बजे, खाना आ गया था, खाना खाया और फिर से आराम किया! और फिर करीब ढाई बजे, हम दोनों ही बाबा से मिलने चले गए! वे अंदर ही थे, प्रसाद बाबा और उनका संगी भी वहीँ बैठे थे, नरसिंह नहीं था उधर!
"प्रणाम बाबा!" मैंने कहा,
"प्रणाम!" बोले वो,
और हम बैठ गए उधर ही, बत्ती तो अभी तक नहीं आयी थी, कोई बड़ी ही समस्या हो गयी थी!
"हाँ बाबा, कल हम कहाँ थे?' पूछा मैंने,
"यहीं पर!" बोले
  प्रसाद बाबा हंसते हुए!
"सो तो थे ही!" बोले शहरयार जी!
"आप उस मन्दालवेणि के विषय में बात कर रहे थे!" बोले बड़े बाबा,
"हाँ!" कहा मैंने,
"यही कि वो भाद्रपद द्वादशी को ही क्यों आती है?" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"इसका उत्तर मैं वहीँ दूंगा!" बोले वो,
"क्या हम जा रहे हैं?" पूछा मैंने,
''हाँ!" बोले वो,
"कब?" पूछा मैंने, खुश हो कर!
"अभी चार दिन हैं!" बोले वो,
"हाँ, हैं चार दिन!" कहा मैंने,
"तैय्यारी कर लो!" बोले वो,
"कैसी तैयारी?" पूछा मैंने,
"सामान आदि बाँध लो!" बोले वो,
"वो तो तैयार सा ही है!" कहा मैंने,
"ठीक, कल निकलते हैं!" बोले वो,
"ये तो बहुत अच्छा रहेगा!" कहा मैंने,
"अब शेष बातें वहीँ होंगी!" बोले वो,
"ये ठीक है!" कहा मैंने,
तो मित्रगण! अब हमारा कार्यक्रम वहाँ जाने का, पक्का हो ही गया! हमें यहां से बांका जाना था, यात्रा लम्बी थी, लेकिन इस प्रकार के यात्र में दूरी और समय को क्या देखना!
तो अगले दिन, हम निकल लिए, पहले बस से, फिर रेलगाड़ी से वहां हम जा पहुंचे, यहां, बड़े बाबा के जानकार थे, उनका स्थान था, वैसे वो कोई श्मशान आदि न था, बस यौन कहा जाए कि धर्मार्थ ही जगह थी वो! जब हम पहुंचे थे, तब रात हो गयी थी, जाते ही, भोजन किया, जो मिला और सो गए! अब कल की कल ही देखते!
अगले दिन सुबह, नींद खुली, निवृत हुए हम सभी! ये जगह बेहद अच्छी थी, कहीं कहीं पहाड़ियां थीं हरी-भरी सी! इस तरफ बसावट भी कम ही थी, कुछ मन्दिर दीख पड़ते थे उधर, कुछ पुराने और कुछ नए से!
"बहुत सुंदर जगह है!" बोले शहरयार जी!
"हाँ, तराई का सा क्षेत्र है ये!" कहा मैंने,
"हाँ, हरियाली बहुत है!" बोले वो,
"वही बात है!" कहा मैंने,
तभी दरवाज़े पर दस्तक हुई, हम दोनों ने ही देखा उधर, दस्तक फिर से हुई, दूसरी बार!
"आ जाओ, खुला है!" बोले शहरयार जी!
एक लड़का आया था, कोई पन्द्रह वर्ष का, चाय-नाश्ता ले आया था!
"यहां रख दो!" बोले शहरयार!
उसने चाय और नाश्ता रख दिया, नाश्ते में, दो दो छोटे छोटे से समोसे थे, चटनी के साथ, चटनी खट्टी-मीठी सी थी!
"बाबा जाग गए?" पूछा लड़के से उन्होंने,
"हाँ, चाय दी है" बोला वो,
"ठीक!" बोले वो,
इसके बाद, लड़का चला गया वहाँ से, बाहर जाने के बाद, कक्ष का दरवाज़ा बन्द कर दिया था उसने!
"लो जी!" कहा मैंने,
"आप लो!" बोले वो,
चाय उठायी समोसा उठाया दूर हाथ से, चटनी से लगाया और खाने लगे हम!
"बढ़िया बनाया है!" बोले वो,
"ताज़ा ही है!" कहा मैंने,
''हाँ" स्वाद से ही पता चल गया!

 


   
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श्रीशः उपदंडक
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उस दिन हमने आसपास घूम कर अपना वक्त बिताया, हमें जहाँ जाना था, वो यहां से साठ किलोमीटर दूर था! यहां शहरी आबादी अवश्य ही थी, परन्तु लोग सीधे और मेहनतकश ही लगे! अपने ही कामों में मशगूल से रहने वाले! खैर, हमें यहां लोगों से कुछ नहीं लेना था, हम तो अपने उद्देश्य के लिए आये थे, यहां जैन-मंदिर बहुत ही भव्य हैं, मन को असीम सी शान्ति मिलती है! एकरसता झलकने लगती है! और वैसे व्यक्ति को, सभी धर्मों का सम्मान करना चाहिए, कोई भी धर्म, रातोंरात नहीं उठ खड़ा होता! उसका कोई ठोस आधार अवश्य ही रहता है! धर्म चाहे कोई भी हो, सभी का उद्देश्य मानव-हित ही है! ऐसा ही सभी को मानना चाहिए! हमारा महान देश भारत तो विविधताओं में एकता का सबसे बड़ा उदाहरण है! यहां तो हर साठ किलोमीटर पर, पानी और बोली बदल जाते हैं! परन्तु सभी में एकरसता अवश्य ही झलक आने लगती है! तो वो दिन हमने घूम कर ही बिठाया, उधर मन्दिरों के आसपास कुछ कंठियाँ, मालाएं बेकी जा  रही थीं, सभी की सभी नकली! रुद्राक्ष नकली, तुलसी की माला नकली, चन्दन की मालाएं और वस्तुएं नकली! इसमें बेकन वालों का कोई दोष नहीं! आज का इंसान, हम मेहनत में अधिक की आकांक्षा रखता है! विश्वास जैसा भाव और करण अब पल पल, मोम की तरह से पिघलता चला ही जा रहा है! खैर, ये संसार है, संसार में जहाँ मधुरता है वहीँ तिक्तता भी! ये तो हमारे चित्त एवम विवेक पर निर्भर करता है कि हम क्या अपनाएँ!
उसी शाम का वक़्त....करीब सात बजे!
हम सही, वो ही लोग, जो उस कक्ष में बैठे थे, आज भी बैठे थे इस कक्ष में, महफ़िल सजी थी, हाँ उस दिन 'भोजन-सामग्री' वहीँ की बनी थी, यहां हम लाये थे, बड़े बाबा के पास तो रहती ही है, एक मेरा पास भी थी, और एक खरीद ली थी! यहां पर हर जगह मैंने आलू की टिक्कियां बिकती देखीं तो कुछ ले ली थीं! बढ़िया से सेंकी गयी थीं वे! चने नहीं मिले थे, पता चला, सुबह ताड़ी के संग मिला करते हैं! हाँ, उबले सिंगाड़ों की मींग ज़रूर ले ली थी! उबला सिंगाड़ा वैसे ही बेहद काम का होता है! शरीर में वात-दोष हो, मोटापा अधिक हो, स्मरण-शक्ति क्षीण हुए जा रही हो, अवसाद बढ़े जा रहा हो, थाइरोइड की समस्या हो, या स्त्रियों में माह सम्बन्धी दिक्कतें हों तो ये बहुत काम आता है! इसकी सुखा कर बनाया गया इसका आटा भी ठीक यही काम करता है!
तो हमारी महफ़िल सज चुकी थी, दो जग ठंडा पानी भी मिल गया था, इस जगह पर दो और परिवार रुके थे, एक में एक बिटिया थी छोटी करीब सात-आठ साल की, वो छलकी आयी थी अंदर, शहरयार जी ने उसको आलू की टिक्की और कुछ सिंगाड़े की मींग दे दी थी! हम सभी से बेहद खुल गयी थी, कई बार तो दरवाज़े पर थपक देकर भाग जाती थी! उसके पिता जी, बार बार नीचे आ, उसे उठाकर ले जाया करते थे, सुशील परिवार था वो, तो जब भी वो थपक देती, शहरयार जी, उसे कुछ न कुछ अवश्य ही देते थे! बच्चों का मन कांच जैसा होता है, एकदम साफ और सच्चा! वे किसी के भी हाव बड़ी तेजी से पढ़ते हैं! तो उस बिटिया के लिया, हमने पहले से ही मींग और टिक्कियां अलग रख दी थीं, ये तो कर था जो हमें चुकाना था!
"हाँ बड़े बाबा?" कहा मैंने,
"हाँ?" बोले वो,
"क्या बाबा अम्भ का स्थान यहीं था? या अभी भी है?" पूछा मैंने,
"अब नहीं है, हाँ यहीं था!" बोले वो,
"बाबा एक सौर-कुंड जिला कुल्लू, हिमाचल में भी है, इसे देखो तो प्राकृतिक सा नहीं लगता, ऐसा लगता है कि जैसे किसी ने बनाया हो उसे, ये अत्यंत ही कठिनता से ही पहुँच में है, और यदि रूप-कुंड से दूरी नापी जाए तब वो साढ़े छह सौ किलोमीटर तो होगी ही, सड़क द्वारा, रेल से ज़्यादा और अंदर ही अंदर चलें तो कम होगी सभी से!" बोले शहरयार जी!
"मैंने देखा नहीं, बता नहीं सकता, इतना पता है कि उस कुंड के आसपास, श्वेत-नुपिणी के फूल पैदा होते हैं! अन्यत्र कहीं नहीं! इन फूलों की ये विशेषता है, कि यदि इन पर भौंरा भी बैठे तो उसका रंग लाल हो उठता है! इसकी गण्ड हम मनुष्यों को नहीं आ पाती, परन्तु यक्ष, गांधर्व, असुर, मुराल, विद्याधर, किम्पुरुष, द्वन्दा आदि को आती है, वे बरबस चले आते हैं खिंच कर उधर!" बोले बड़े बाबा!
"मतलब ये कि ये पुष्प दैविक है!" कहा मैंने,
"बताया न?" बोले वो,
"क्या बाबा?" पूछा मैंने,
"ये सारा का सारा, हिमालय का क्षेत्र रहस्य के तले दबा है! यहां तो आज भी वो सब है, जिसके बारे में हम सभी ने पढ़ा
 है, और वो भी, जो नहीं पढ़े हैं हम!" बोले वो,
"ये तो सत्य ही है!" कहा मैंने,
"यहां इस क्षेत्र के कुछ पृथक पृथक से नाम हैं!" बोले वो,
"कैसे नाम?" पूछा मैंने,
"जैसे यौरमेश-स्थल, बाहल्लीक-स्थल आदि आदि!" बोले वो,
"ये तो कहीं नहीं लिखा है!" बोले शहरयार जी!
"सबकुछ कभी नहीं लिखा जा सकता!" बोले वो,
"हाँ, सच कहा आपने!" बोले शहरयार जी!
"और ये क्षेत्र हमारे लिए ही नहीं, नेपाल, चीन आदि में भी प्रसिद्ध है कि यहां कुछ न कुछ तो विशेष है ही!" बोला मैं,
"हाँ, यही सच है!" बोले वो,

 


   
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श्रीशः उपदंडक
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"ये स्थान जितना दुर्गम है उतना ही रहस्य भी छिपाये है! यहां आज भी, ऐसे ऐसे तपस्वी, तपस्विनी हैं, जिन्होंने, काल पर ही विजय प्राप्त कर ली है!" बोले वो,
"काल पर विजय?" पूछा मैंने,
"हाँ, अब काल घूमता है इनके इर्द-गिर्द!" बोले वो,
"क्या मतलब?" पूछा मैंने,
"जिस तपस्वी की आयु मानो चार सौ वर्ष हो गयी हो, क्या ये काल विजय लक सूचक नहीं?" बोले वो,
"हाँ, इस अर्थ में तो!" कहा मैंने,
"कालयवन का नाम तो सुना होगा?" बोले वो,
"हाँ, अवश्य ही!" बोला मैं,
"वो यवन था!" बोले वो,
"हाँ, तब?" पूछा मैंने,
"उसने श्री शिव को प्रसन्न कर काल पर विजय का वर प्राप्त किया था! ये अलग बात है, कि ये वर कब खण्डित होता, और खण्डित हुआ, इस प्रकार, कालयवन काल के गाल में समा गया!" बोले वो,
"हाँ, दुर्योधन से उसने कहा था कि वो उसके पक्ष में युद्ध करेगा!" कहा मैंने,
"हाँ, वी एक ही वार से, एक अक्षौहिणी सेना का संहार किया करता था!' बोले वो,
"हाँ, पढ़ा है मैंने!" कहा मैंने,
"अलायुध की वो ताम्रि-कंदरा आज भी है, लेकिन कहाँ है, कोई नहीं जानता!" कहा उन्होंने,
''अलायुध तो असुर था, जिसने कौरवों की तरफ से युद्ध लड़ा था?" पूछा मैंने,
"हाँ, उसका वास, उसकी प्रजा यहां उसी भूमि के नीचे कहीं है, अब कहाँ है, ये नहीं पता! सैंकड़ों भू-स्खलन हुए, भूकम्प आये, ये और वो!" बोले वो,
"हाँ, सच है!" कहा मैंने,
"आपने रूप-कुंड तो देखा होगा?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
"सुना है कि ग्रीष्म अयनांत पर उसका जल इंद्रधनुषी हो, सात रंगों की आभा बिखेरता है?" पूछा मैंने,
"सुना तो मैंने भी है!" बोले वो,
"क्या आपने देखा है?" पूछा मैंने,
"कभी नहीं!" बोले वो,
"और ये भी सुना है कि शीत अयनांत पर, न जाने कहाँ कहाँ से वहाँ सर्प चले आते हैं, जैसे सना करने आये हों, उनमे कोई उनका वर्तमान का नृप, प्रभंजक भी आता है?" बोला मैं,
"नहीं, ये नहीं सुना!" बोले वो,
"पता नहीं, क्या क्या रहस्य हैं इस रूप-कुंड के और!" कहा मैंने,
"हां ये तो है!" बोले वो,
"अरे नरसिंह?" बोले प्रसाद बाबा!
"हाँ जी?" बोला वो,
"ज़रा बना दे?" बोले वो,
"मैं तो सोच ही रहा था!" कहा उसने,
"आज बारिश नहीं है, शुक्र है!" कहा मैंने,
"हाँ, अच्छा है, कल और न हो!" बोले बड़े बाबा!
"लो जी!" बोला नरसिंह गिलास आगे करते हुए!
''बाबा को दो पहले!" कहा मैंने,
"लो बाबा!" मैंने गिलास आगे किया उनकी तरफ! उन्होंने गिलास पकड़ा, ऊँगली डुबोई, सात बार छींटे नीचे गिराया और एक जोगी-मन्त्र पढ़ा! मन्त्र मैंने पकड़ा! ये एक बहुत ही बड़े जोगी का सिद्ध मन्त्र है! इसको फक्कड़-मन्त्र कहते हैं! इसमें जो वाहन है वो हाथी है, जिसे दो सेवक चलाते हैं काले पीर के!
"ये लो जी!" बोला नरसिंह मुझे गिलास देते हुए! अब मैंने भी मारा चोबा उस गिलास में, और एक मन्त्र पढ़ दिया! ये भी फाकड़ी-मंतर है! इसमें जो वाहन है तो श्वान है, जिसे, दो महाभीम महाप्रेत पुकारते रहते हैं!
"फाकड़ी!" बोले प्रसाद बाबा!
'हाँ जी, वही!" कहा मैंने,
"जय धानुक घण्टालिनी!" बोले वो,
"जय हो! सभी बोले!
"हाँ तो बाबा?" कहा मैंने,
"पहले निबटाओ!" बोले मेरी कमर पर हाथ मारते हुए!
"जो आज्ञा!" कहा मैंने,
अब मैंने गिलास उठाया और मुख से लगाया, फिर पांच बार हल्के हल्के से, घूंसे मारे छाती में! कभी कर कर देखिये, बताइये क्या होता है!
"हाँ, अब बोलो!" बोले वो,
"कौन सी बार आ रहे हो आप यहां?" पूछा मैंने,
"पता नहीं!" बोले वो,
"अनेक बार, मतलब!" कहा मैंने,
"हाँ, यूँ ही समझ लो!" बोले वो!

 


   
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