वर्ष २०१४, भैलवा के...
 
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वर्ष २०१४, भैलवा के सरभंग!

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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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"सुबह तक रुकते?" बोले वो,
"तब वो और चौकस होते!" बोला मैं,
"क्या अब नहीं?" बोले वो,
"अब बंटे होंगे!" कहा मैंने,
"अरे हां!" बोले वो,
"मामला यहीं खत्म?'' बोले वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
"मतलब?" बोले वो,
"ये दोनों हैं खतरे में!" कहा मैंने,
"कौन?'' बोले वो,
"ये दिनेश और गजनाथ!" कहा मैंने,
"समझा!" बोले वो,
"हम तो निकल जाएंगे! गुर्गे इन्हें ढूंढेंगे!" कहा मैंने,
"ओ?" बोले वो,
"हां?" बोला गजनाथ,
"जगह छोड़ दियो जल्दी ही!" बोले वो,
"यहां से तो निकलें?'' बोला वो,
"हम्म!" बोले वो,
और रोक दी गाड़ी!
"रास्ता?" बोले वो,
"हां?' कहा मैंने,
"ये जाएगा शायद!" बोले वो,
"अब पता नहीं!" कहा मैंने,
"देखें?" बोले वो,
"चलो!" कहा मैंने,
ये रास्ता उत्तर में था, इस से ही वो रास्ता जुड़ता या मुख्य सड़क तक का, तो काम बन जाता!
रास्ते में यहां कीकर के पेड़ थे लगे हुए, टकराती हुई शाखें, आवाज़ करती थीं! लेकिन हम निकले जा रहे थे धीरे धीरे!
मित्रगण! आधा घंटा हम ऐसे ही चले और एक जगह रुक गए, कुछ दिखा हमें!
"धीरे!" कहा मैंने,
"औरतें हैं क्या?" बोले वो,
"हां!" कहा मैंने,
"वहीं की?" बोले वो,
"पता नहीं!" कहा मैंने,
"रोका अगर तो?" बोले वो,
"मत रुकना!" कहा मैंने,
"ठीक!" कहा उन्होंने,
और हम फिर से आगे बढ़े! अचानक से वे दो औरतें रुक गयीं, हमारी गाड़ी को देखा, नीचे झुकीं, चिल्लाईं!
"लपेटो? लपेटो अभी?" कहा मैंने,
"हां, हां!" बोले वो,
और दबा कर लाये गाड़ी! मारी ज़बरदस्त सी टक्कर उन्हें! वे लुढ़क गयीं नीचे! मैंने पीछे देखा, शांत पड़ गयी थीं!
"अब नहीं रुकना!" कहा मैंने,
"अच्छा!" बोले वो,
"चलो अब!" कहा मैंने,
और हमने दौड़ाई गाड़ी तेज! जला दी बत्तियां! अब खून सवार हो चला था हम पर, बिन मारे नहीं बच सकते थे हम!
"वो देखो?" कहा मैंने,
"ये लो!" बोले वो,
और उलटी तरफ गाड़ी काट दी!
"दौड़ा दो!" कहा मैंने,
उन्होंने दबाया एक्सेलरेटर और गाड़ी दौड़ने लगी आगे! तेज और तेज! गड्ढों में से होती हुई और तभी टनाक! गाड़ी एक तरफ झूलने सी लगी!
"क्या हुआ?" पूछा गजनाथ ने,
"नीचे आ?" कहा मैंने,
नीचे आ कर देखा, तो गाड़ी के नीचे एक बड़ा सा पत्थर आ गया था उछट कर! वो शायद बेस-डिफरेंशियल से टकरा गया था! मैंने सब्बल मार मार उसको तोडा और गाड़ी ने फिर से लगाई जान! अब तक तो कोई नहीं आया था!
"बैठ?" कहा मैंने,
वो लपक कर आ बैठा!
"चलो!" कहा मैंने,
"थोड़ी देर में उजाला होगा!" बोले वो,
"तब तक निकल लेंगे!" कहा मैंने,
हम आगे चलते रहे! और.........
"वो देखो!" बोले वो,
"ये वो ही हैं!" कहा मैंने,
सामने, खरीद दस लोग खड़े थे! हाथों में त्रिशूल, पाइप आदि लिए हुए! वे हमें मार ही देते अगर हम उनके हाथ लग जाते अगर!
"एक काम करो!" बोला मैं,
"हां?" बोले वो,
"आओ, इधर आओ, मुझे उधर जाने दो!" कहा मैंने,
और हमने सीट, अंदर ही बदल लीं, मैंने बेल्ट पहनने की कोशिश की ही थी कि वे सब अर्रा के पड़े और भाग लिए हमारी तरफ!


   
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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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"अपने सर नीचे रखना!" मैं चिल्लाया!
और बढ़ा दी रफ्तार! ढप्प-ढप्प! उनके पाइप, डंडे, त्रिशूल टकराये, शीशे टूट गए! और दो सरभंग उनके साथ ही फंस भी गए! मैंने नहीं रोकी! रुक जाता तो सब काम ख़तम! पीछे वाले लगे दौड़ने! एक सामने गिरा, गाड़ी चढ़ी उस पर, हल्का सा ऊपर हुई आगे के पहियों से और हम आगे बढ़ चले! गालियों के मारे हमने तूफान खड़ा कर दिया था! सच कहता हूं, कोई हथियार होता तो इन सभी का भेजा खोल कर रख देता वहीं!
एक की टांगें गयीं और एक का सर कुचल गया होगा शायद, जिसकी टांगें गयी थीं उसको उठा रहे थे दो लोग! और जिसका शायद सर कुचला था उसको टांग पकड़ कर एक तरफ कर दिया गया था, मेरे दाएं हाथ की तरफ का शीशा टूट गया था, नज़र कुछ नहीं आ रहा था! मैं बस भगाये जा रहा था! कुछ पीछे भाग रहे थे शोर मचाते हुए और कुछ बाएं से निकल कर दौड़े आ रहे थे! हम दौड़ाते रहे, जहां रास्ता मिलता, उत्तर की तरफ का दौड़ाते जाते! दौड़ाते जाते!
"वो! वो!" चिल्लाये वो!
मैंने सामने देखा, एक ट्रक जा रहा था! मुख्य रास्ता मिल गया था! जान बच गयी थी हमारी! मैंने गाड़ी सरपट दौड़ाई, गाड़ी के कोने कोने से खून टपक रहा था, अब टपके तो टपके! हम भागे और सीधा रास्ते पर आ गया! यहां रोका मैंने गाड़ी को! बाहर निकला, पीछे देखा! कोई नहीं, सुबह की शीतल हवा बहने लगी थी! सूरज उगने वाला था, हमारे प्राणों की तरह!
मैं वापिस आ बैठा! अब सीधे ही दौड़ा दी! ऐसी शांति पसरी गाड़ी में कि सब अपने अपने हिसाब से, उन सरभंगों से सामना कर रहे थे!
मित्रगण!
कौन मरा, कौन जीया! नहीं पता आज तक! दिनेश लौट गया अपने दूसरे डेरे पर, दूर! गजनाथ, चला गया नेपाल किसी के पास!
लेकिन वो रात, वो डेरा, वो सामना....आज तक ज़िंदा है! और हां, उनका वो शोर! आज तक याद है!
जल्दी में खबर मिली, दादू पूरा हो गया!
हो जाने दो! हां, अब एक बात पक्की कर ली, इन सरभंगों के डेरे पर, सरभंग ही जाय! या फिर...शीश गंवाय!
कुछ खबरें मिलीं, कि कुछ सरभंग आपस में भिड़ गए थे और कुछ मारे गए...वो डेरा अब बंद पड़ा है, खैर, जिस राह जाना ही नहीं, वहां पांव करके भी क्या सोना!
जय श्री भैरव नाथ!
साधुवाद! 


   
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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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@rajkaran श्रंगी ऋषि की जन्मस्थली


   
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