उनसे बात हुई, काफी देर तक, वे कल पहुंच जाते, फिर बाकी बातें बाद में ही होतीं! उनको कहां ठहरना है, ये भी बता दिया था! उसके बाद हम फिर से लग गए अपनी मच्छी और बातों में!
"मच्छी लाजवाब बनाई है!" कहा मैंने,
"ताज़ा ही है!" बोला वो,
"मिलती है ताज़ा यहां?" पूछा मैंने,
"क्या नहीं मिलता!" बोला वो,
"ये बात तो सही है!" कहा मैंने,
"देखो जी, भूख लगती है घासाहारी को, हमारे जैसे कलमिया तो मियां संग भी वैसा और सब संग ही वैसा! पेट ही तो भरना है, अब क्या घास और क्या मांस!" बोला वो,
"हां, हलक़ में न स्वाद ही और न घास या मांस!" बोला मैं,
"अरे जो खाना हो खाओ, बस किसी को विवश मत करो!" बोला वो,
"लाख पते की बात!" बोला मैं,
"अब एक बात बताओ, मच्छी हिन्दू या मुसलमान? ऊंच या नीच? खानी हो खाओ, नहीं खाने हो, तो कोई सरकारी फरमान तो है नहीं कि खाओ ही खाओ!" बोला वो,
"चढ़ गयी है!" कहा मैंने,
"नहीं!! बोल रहा हूं!" बोला वो,
"सही बात, अन्न का कोई धर्म नहीं, अन्न में गुण न हों तो कोई पूछ नहीं, अन्न का गुणधर्म, भूख मिटाना है, जीव-ईंधन देना है, सो ही जल, न हिन्दू ही न मुसलमान, न ऊंच और न नीच! कुत्ता भी पिए और सूअर भी, इंसान भी और आकाश में उड़ता बाज़ भी!" कहा मैंने,
"क्या चढ़ रहा है भगवान को आज? मंदिरों में देखो, फूल, कहां से आये? मोल के, किसने उगाये, मोल से, किसको चढ़े, मोल देके! सास मरे भूखी, ससुर लंगड़ाये, रोटी रोटी चिल्लाये, उनके पेट भरे नहीं जा रहे, भगवान का पेट भरने चले!" बोला वो,
"हां, जो सभी का पेट भर रहा है उसका पेट भरने चले! उसे इंसान ही नहीं देखने! जो बेचारे नेत्रहीन कीड़े-मकौड़े हैं उनका भी पेट भरना है, क्या मीन और क्या पक्षी, क्या कीड़े और क्या पशु! सब का सब गुड़-गोबर आज की दुनिया में तो!" बोला मैं,
"और फिर, नहा लिए, धो लिए, चले गए मंदिर! तन तो साफ़ हो गया, मन? मन कैसे साफ़ हो?" बोला वो,
"अबे गजनाथ?" कहा मैंने,
"हां जी?" बोला वो,
"कहीं मगहरतो नहीं हो कर आया तू?" पूछा मैंने,
"ना जी!" बोला वो,
"गया कभी?" पूछा मैंने,
"देखो जी, आप समझदार तो हो?" बोला वो,
"समझ गया! कहते हैं वहां से नरक का रास्ता खुलता है! यही न! अब कहां से नहीं खुलता रास्ता नरक का! कोई जगह नहीं ऐसी! तू इन श्वानों को देख! ये कैसे देख रहे हैं बेचारे एक एक टूक को, कि ये मेरा और ये मेरा! इसका सब्र देखो! सब्र अब कहां है इंसान में?" कहा मैंने और टुकड़ा तोड़, मुंह में रखा, उंगली चाट ली, चटनी में भीगी हुई!
"इसके जैसा सब्र वाला तो कोई नहीं!" बोला वो!
"हां, सही बात!" कहा मैंने,
"दे दो तो ठीक, न दो तो मांगने से रहा!" बोला वो,
"इंसान की तरह से गाली-गलौज भी न करे!" कहा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"ये तो सोचता है कि और आये इसके सामने ताकि मेरा पेट भरे!" बोला मैं,
"हां! और एक इंसान!" बोला वो,
"फिर भी शुद्ध!" कहा मैंने,
"फिर भी हाय स्वर्ग!" कहा उसने,
"जैसे स्वर्ग के दरवाज़े खुले ही रहते हैं, कि आ गए? आ जाओ! अब ंद हो जाएंगे दरवाज़े!" कहा मैंने,
और हम दोनों, खुल कर हंसे!
"और लाऊं!" बोला वो,
और मैंने और उसने, बचे हुए टुकड़े जो हाथ में थे, उन दोनों श्वानों को दे दिए! पंखे से पूंछ हिलायी उन्होंने!
फिर पानी पिया दो घूंट!
"लो!" ले आया था वो, रख दिए!
"अच्छा, एक बात बता?" पूछा मैंने,
"हां?" बोला वो,
"तू घर जाता है?" पूछा मैंने,
"अब कोई नहीं!" बोला वो,
"क्यों?" पूछा मैंने,
"दो भाई हैं, अपने अपने घर के, न माँ और न बाप, चाचा-ताऊ रहे नहीं, भाइयों में कोई पूछ नहीं, पत्नी थी, रही नहीं, अब करनी नहीं, क्यों किसी का और भाग फोड़ूं!" बोला वो,
"ज़मीन?" पूछा मैंने,
"अब कौन लड़े!" बोला वो,
"सही बात है!" कहा मैंने,
"और किसके लिए भला?" बोला वो,
"ये भी है!" कहा मैंने,
"तो बस, कट रही है!" कहा उसने,
"ठीक है भाई!" कहा मैंने,
"लो, और लो!" बोला वो, गिलास आगे बढ़ाते हुए!
मित्रगण! यहां बात हुई एक विशेष प्रकार की साधिका की, जिसे भग्गज कहा जाता है! इस साधिका में, स्त्री में, वयस्क कन्या में जो भग होता है, तो दृश्यमान नहीं होता, स्पर्श करने से भी उसका आभास नहीं होता! इसको कुछ इस प्रकार से समझें, यदि इस प्रकार की साधिका को नग्न खड़ा किया जाए तो सम्मुख से योनि-स्थान को देखने पर, पीछे भी आपको रिक्त स्थान ही दिखेगा, यदि भग भारी होगा तो ये स्थान दृश्यमान नहीं होगा, इस से, योनि साधारण श्रेणी वाली ही मानी जाती है, जैसा कि आपको पता ही है, तंत्र में योनि का एक विशेष महत्व हुआ करता है! योनि शक्ति एवं सृजन की जननी का प्रतीक है!
तंत्र-शास्त्र में कुल बारह प्रकार बताये गए हैं योनि के, एक बात का सदैव स्मरण रखिये, इसे गांठ बांध लीजिये, इस संसार में, पुरुष मात्र पूजक है, अर्थात, वो अंडाणु को निषेचित ही करता है, शेष कार्य स्त्री की प्रणाली में ही हुआ करती है! संभवतः, इसी कारण से, स्त्री की देह को रचने वाले ने उसे, लोचदार, स्निग्ध, अशक्त एवं भावनाओं से पूर्ण रहने वाली बनाया है! एक स्त्री का मान सदैव ही किया जाना चाहिए, जो पुरुष स्त्री का मान न करे वो स्वयं में ही कितना अज्ञानी है, ये जान ले! एक स्त्री किसी न किसी रूप में पुरुष की लौ-शक्ति बना करती है, माँ के रूप में, माँ से बढ़कर तो साक्षात ईश्वर भी नहीं! पत्नी के रूप में, बहन के रूप में, वो सभी का चलन परिपूर्ण रूप से निर्वाह किया करती है!
और चरित्र, चारित्रिक-दोष से तो स्वयं देवता भी न बच सके, हम मनुष्यों की तो बिसात ही क्या! हां, तो बात थी योनि-प्रकार की, ये कुल बारह तरह की हैं, सभी में सृजन शक्ति हुआ करती है! और काम, काम शारीरिक नहीं, मानसिक होता है, देह मात्र साधन भर हुआ करती हैं! तंत्र में संसर्ग को, आवश्यक बताया गया है, कारण उसका अत्यंत ही गहरा है! इसमें कोई अंगीकारिता, स्वीकारिता या अन्य रूप से एक होना ही हो, ऐसा नहीं है! तंत्र में संसर्ग उच्च-ध्यान की वो समाधिगत अवस्था है, जिसमे मनुष्य का ध्यान मात्र लक्ष्य पर ही केंद्रित रहा करता है! भग्गज साधिका द्वारा, संग देने पर, कुछ विशेष शक्तियां आकर्षित हुआ करती हैं और मार्ग लघुत्तर होता जाता है!
"गजनाथ?" कहा मैंने,
"हां?" बोला वो,
"तूने कलाप देखे हैं उनके?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोला वो,
"सुना है?" पूछा मैंने,
"कई बार!" बोला वो,
"उनमे साधिका का क्या महत्व?" पूछा मैंने,
"सम्भवतः, शक्ति?' बोला वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
"फिर?" बोला वो,
"आसक्ति!" कहा मैंने,
"कैसी?" पूछा उसने,
"उद्देश्य के प्रति!" कहा मैंने,
"हो सकता है!" बोला वो,
"है ही ऐसा!" कहा मैंने,
"मान लिया!" बोला वो,
"क्या हमें बैठने देंगे?" पूछा मैंने,
"पता नहीं!" बोला वो,
''दादू कहे तो?" बोला मैं,
"तब कुछ हो!" कहा उसने,
"तेरा प्रयास!" कहा मैंने,
"करूंगा!" बोला वो,
"है कौन वहां?" पूछा मैंने,
"गांव का है कोई!" बोला वो,
"मदद होगी?" पूछा मैंने,
"पहले तो की?" बताया उसने,
"उसी से बात कर?" पूछा मैंने,
"उसी से करूंगा!" बोला वो,
"मान जाए तो बढ़िया!" बोला मैं,
"न बोले तो?" बोला वो,
"देखते हैं!" कहा मैंने,
"ये तो हो!" कहा मैंने,
"हो जाएगा!" बोला वो,
"हो जाए बस!" बोला मैं,
"दादू सत्तर का है?" पूछा मैंने,
"बढ़ता ही हो!" बोला वो,
"बूढ़ा है!" कहा मैंने,
"मान तभी होता है!" बोला वो,
"काहे का मान!" बोला मैं,
"क्यों?" बोला वो,
"ये साले भरोसे के लायक नहीं!" बोला मैं,
"वहां न बोलना!" बोला वो,
"जानता हूं!" कहा मैंने,
"आज तेरस?" बोला वो,
''हां!" कहा मैंने,
"परसों कुछ हो वहां!" बोला वो,
"तभी तो कहा!" कहा मैंने,
तो मित्रगण, हम निबट गए थे, भोजन भी कर लिया था, भोजन में रसे वाली मछली, चावल, बूंदी से बनाई एक अलग सी सब्जी, जिसमे, सभी सब्जियां काट के डाली गयी थीं, स्वाद बड़ा ही अच्छा था उसका! सलाद और वही तीखी हरी चटनी, मैंने रोटियां भी खायीं थीं, मछली सरसों में बनाई गयी थी और सरसों में बनी मच्छी का तो कोई जवाब ही नहीं! ऐसा बेहतरीन स्वाद आता है कि पेट भर जाए लेकिन नीयत नहीं! भारत के जितने राज्य, उतने ही उनके ज़ायक़े! कौन कम और कौन ज़्यादा! इसीलिए हमारे देश के खान-पीन का कोई जवाब ही नहीं! केरल में, ईमली डाल कर बनाते है, सारे मसाले हरे, ताज़े, उनकी लज़्ज़त का कोई जवाब ही नहीं!
खैर,
अगला दिन और अगले दिन गजनाथ ने अपने जानकार से बात कर ली थी, उसका जानकार एक तरह से जल्दी में था, इसीलिए उसने शाम का समय ही दिया था, आदमी शौक़ीन था तो हमने दो 'पौनी' ले ली थीं! अपने लिए अंग्रेजी क़ज़ा और उन जैसों को ये क़ज़ा सजा सी लगती है तो हमने बढ़िया 'कमांडर' ले ली थी, साथ में सिगरेट भी! इस तरह हम करीब सवा चार बजे उस जगह जा पहुंचे, झोला एक जगह रख दिया, जहाँ बिठाया गया था वो कड़ियों से बना एक कमरा था, एक बड़ा सा 'तूफ़ान' पखा चल रहा था उसकी हवा ही आ रही थी, छत पर कोई पंखा नहीं था! हां, दो भूरी सी छिपकलियां ज़रूर थीं उस छत पर, एक नर और एक मादा! एक दीवार पर, एक पुअरना सा कैलेंडर लटका था, इसमें, शिव जी थे, नंदी संग खड़े थे, माथे पर उनके ॐ बना था, पीछे शायद कैलाश पर्वत था, नीचे पढ़ा तो ये इलाहबाद के किसी सहकारी बैंक का कैलेंडर था! शायद दो बरस पुराण! जिस तखत पर हम बैठे थे, हमारे बैठते ही उसके मुंह से आह सी निकली, आह कम और कराह सी ज़्यादा! साफ़ था, अब अपने चौथेपन में था वो, कब टांगों में फालिज मार जाए, कुछ नहीं पता था, उस पर सफेद रंग का एक खेस बिछाया गया था, तकिये के नाम पर, कुछ गुड्ड-मुड्ड से कपड़े थे,, पहली ही नज़र में साफ़ हो गया था कि ये जिसका भी कमरा था वो उस कमरे पर ज़्यादा ध्यान नहीं देता था या अक्सर बाहर ही रहता था! जिस से मिले हम, उसका नाम दिनेश था, वो रहने वाला चम्पारण का था! नमस्कार हुई और उसने हमें बिठाया, हम बैठ ही गए थे!
"लो पानी!" बोला वो,
जग से पानी निकाल कर, गिलास में भरते हुए!
"अब पानी का समय है?" बोला गजनाथ,
"अजी क्यों न!" बोला वो,
"ले आये हम!" बोला वो,
''देख लिया!" बोला वो,
वैसे भी शराबी अपनी खुराक पहचान ही लेते हैं! उसने भी देर नहीं की थी!
उसने मेरा परिचय करवाया और फिर कुछ लोगों की बातें हुईं जिन्हें वो भी जानता था और मैं भी और फिर पते पर आ गए हम!
"दादू तो ठीक ही है!" बोला वो,
''फिर?" पूछा मैंने,
"एक है उनमे!" बोला वो,
"कौन?" पूछा मैंने,
"हालू नाम है उसका!" बोला वो,
"टेढ़ा आदमी है?" पूछा मैंने,
"बुरा आदमी है!" बोला वो,
"वहीं रहता है?" पूछा मैंने,
"हां!" बोला वो,
''आपकी बात हुई है?" पूछा मैंने,
"बात नहीं करता वो!" बोला वो,
"वही?" बोला मैं,
"बैर!" बोला वो,
"समझ गया!" कहा मैंने,
''फिर कैसे होगी?" बोला गजनाथ!
"बनाएंगे बात!" बोला वो,
"बन जायेगी?" पूछा मैंने,
"कोशिश तो करूंगा!" बोला वो,
"हां!" कहा मैंने,
"बनाएंगे!" बोला वो,
"उम्मीद है!" कहा मैंने,
"और सुनाओ, कुछ चाय-पानी?" बोला वो,
"चाय का वक़्त नहीं!" बोला वो,
"आया फिर!" बोला वो,
और उठ कर बाहर चला गया!
"बना लेगा बात!" बोला वो,
''बन जाए तो ठीक!" कहा मैंने,
"समझा दूंगा और!" बोला वो,
"हां!" कहा मैंने,
वो आदमी अंदर आया, साथ में पानी लिए गिलास लिए, एक लड़का भी आया था, उसकी तश्तरी में कुछ था, जब नीचे रखा तो अचार, ककड़ी और शलज़म थी कटी हुई!
"अबे ये क्या है?" पूछा गजनाथ ने,
"शुरू करो!" बोला वो,
"कुछ तड़केदार नहीं? नहीं तो मंगवा लें?" बोला गजनाथ,
"आ रहा है!" बोला वो,
"फिर ठीक है!" बोला वो,
और निकालने लगा सामान झोले से बाहर!
सामान निकाल लिया उसने! और एक एक कर नीचे रखता चला गया, अपने हिस्से का माल निकाल उसने, अपने घुटने के नीचे टिका लिया और हमारा हमारी तरफ सरका दिया!
"एक बात तो जानते ही हो!" बोला वो,
"क्या?" कहा मैंने,
"ये साले गंदे आदमी होते हैं!" बोला वो,
"जानता हूं!" कहा मैंने,
"और बिन रखे कुछ बताएंगे नहीं!" बोला वो,
"रखे?" मैंने चौंक कर पूछा,
"हां" बोला वो,
"और वो क्या?'' पूछा मैंने,
"बता रहा हूं!" बोला वो,
और सलाद दो हिस्सों में कर दी, एक में निम्बू निचोड़ दिया, बिना निचोड़ा, अपनी तरफ सरका लिया! उंगली छाती और पोंछ ली अंगोछे से!
"या तो कोई औरत हो!" बोला वो,
"औरत?" मैंने फिर से चौंक पड़ा,
"हां!" बोला वो,
"औरत क्यों?" पूछा मैंने,
"स्वाद के लिए!" बोला वो,
"स्वाद?" मैं थोड़ा सा विचलित हुआ!
"क्या खाएंगे उसे?" बोला गजनाथ,
"अरे ना!" बोला वो,
''फिर?" पूछा मैंने,
"**ने को!" बोला वो साफ़ साफ़!
"खुद पर कमी है?" पूछा मैंने,
"तो भी क्या!" बोला वो,
"लो!" उसने गिलास भर दिए थे, मेरा तो खोपड़ा ही गर्म कर दिया था इन सरभंगों की सरभंगी करतूतों ने!
मैंने गिलास लिया, छींटें नीचे डालीं और रख लिया हाथ में, पानी ठंडा था, नहीं तो उस माहौल में शराब बाहर को ही भागती!
"और जो औरत न हो?" बोला मैं,
"तो मुर्दा!" बोला वो,
"मुर्दा?" बोला मैं,
"हां!" बोला वो,
"पेड़ पर लटक रहे हैं?" कहा मैंने,
"उन्हें नहीं मतलब!" बोला वो,
"बड़ी मुश्किल है!" कहा मैंने,
"अब है तो है!" बोला वो,
"तू किसे ले गया था रे?" कहा मैंने गजनाथ से,
"किसी को नहीं?" बोला वो,
"कैसे घुसा?" पूछा मैंने,
"साथ था किसी के!" बोला वो,
"नहीं!" बोला दिनेश,
"नहीं? क्या?" पूछा मैंने,
"वैसे तो ये गया था!" बोला वो,
"फिर?" पूछा मैंने,
"उनकी क्रिया के समय होती है ये मांग!" बोला वो,
"ओहो!" कहा मैंने,
"अच्छा!" बोला गजनाथ!
"अब के कोई मुझे मिला तो समझो साले के ** काट के गले में पहना दूंगा!" कहा मैंने,
हंस पड़े वो दोनों!
"और जो हम धरे गए?" बोला गजनाथ,
"हथियार है कोई?" पूछा मैंने,
"नहीं ले जाने देंगे!" बोला वो,
"क्यों?" पूछा मैंने,
"दिमाग फिर जावे तुम्हारा?" बोला वो,
''तब?" पूछा मैंने,
"निकालते हैं कोई रास्ता!" बोला वो,
"कब?" पूछा मैंने,
"करूंगा बात!" बोला वो,
"सीधी सी बात है, हम देखेंगे बस!" कहा मैंने,
"नहीं मानेंगे!" बोला वो,
"निकालो यार रास्ता?" कहा मैंने,
"एक है तो सही!" बोला वो,
"कौन है?" पूछा मैंने,
"सम्मा!" बोला वो,
"वहीं है?'' बोला मैं,
"पता करना पड़ेगा!" बोला वो,
"पकड़ है उसकी?" पूछा मैंने,
"है तो सही!" बोला वो,
"है कितनी दूर यहां से?" पूछा मैंने,
"करीब पचपन!" बोला वो,
"और आसपास?" पूछा मैंने,
"सभी यही!" कहा मैंने,
"आम बसावट?" पूछा मैंने,
"कोई नहीं जाता!" बोला वो,
"अरे?" कहा मैंने,
"कभी कभी पुलिस डोल आती है!" बोला वो,
"खतरनाक जगह है!" कहा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"साले काट-पीट देंगे!" बोला मैं,
"हां! नदी में बहा देंगे!" बोला वो,
"तब?" कहा मैंने,
"तब सोच लो!" बोला वो,
"कोई और तरीका?" पूछा मैंने,
"कैसे?" पूछा उसने,
"चोरी छिपे?" बोला मैं,
"सम्भव ही नहीं!" बोला वो,
"ऐसा?" बोला मैं,
"हां!" कहा उसने,
"कोई पैसा-पूसा ले ले?" बोला मैं,
"मुकर जाएगा!" बोला वो,
"समझ गया!" कहा मैंने,
"आया मैं!" बोला वो,
वो चला गया!
"मुझे नहीं लगता कि ये काम करेगा!" बोला मैं,
"अरे नहीं!" बोला वो,
"इसकी बातें सुनीं?" बोला मैं,
"दिखा नहीं रहा!" बोला वो,
"जज़्बा ही नहीं!" कहा मैंने,
"है!" बोला वो,
"तुमसे न बनता हो तो मैं निकालूं तरीका?" बोला मैं,
"क्या?" बोला वो,
"निकालना ही पड़ेगा!" कहा मैंने,
"अरे क्या?" बोला वो,
"हम खुद ही पहुंच जाएंगे!" कहा मैंने,
"कैसे?" बोला वो,
''अब है कोई तरीक़ा!" कहा मैंने,
"अधिकारी बनकर?" बोला वो,
"हां!" कहा मैंने,
"कागज़?" बोला वो,
"सब हो जाएगा!" कहा मैंने,
"नकली?" बोला वो,
''और क्या असली?" बोला मैं,
तभी वो आ गया, एक बड़ी सी चिलमची लाते हुए, रख दी, कान पर फ़ोन लगाया हुआ था, चिलमची रखी तो उसमे मुर्गा था, मैंने एक टुकड़ा उठा लिया और चबाने लगा, साथ में सिर्फ सूखा सा मसाला था! मुर्गा भी बूढ़ा था, मसूड़े घायल करने वाला! फिर वो फ़ोन बंद कर आ गया!
"सम्मा कर देगा काम!" बोला वो,
"बात हो गयी?" पूछा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"क्या कहता है?" बोला मैं,
"कल आ जाओ, आठ बजे!" बोला वो,
"रात को?" बोला मैं,
"हां!" कहा उसने,
"किसी ने कुछ कहा तो?" बोला मैं,
"ना! सम्मा साथ ही रहेगा!" बोला वो,
"ये ठीक है!" कहा मैंने,
"तदुआ देगा वो!" बोला वो,
"ये क्या है?" पूछा मैंने,
"मतलब उनकी पहचान!" बोला वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"पहनना होगा?" बोला वो,
"हां!" कहा उसने,
"कोई बात नहीं!" कहा मैंने,
"चलेंगे कैसे?" बोला वो,
"आप देखो?" बोला वो,
"गजनाथ?" बोला मैं,
"हां?" बोला वो,
"हां?" बोला वो,
"गाड़ी का प्रबंध हो जाएगा?" पूछा मैंने,
"हो जाएगा!" बोला वो,
"है कोई जानकार?" बोला मैं,
"है!" बोला वो,
"पैसे-वैसे देख लेंगे!" कहा मैंने,
"उसकी कोई बात नहीं!" बोला वो,
"तो ठीक है!" कहा मैंने,
"तो कल आप आ जाओ छह बजे यहां!" बोला दिनेश,
"आ जाते हैं!" बोला मैं,
"कितने आदमी हो जाएंगे?" पूछा उसने,
"भाई तीन तो हम ही हैं!" बोला मैं,
"और कोई?" बोला वो,
"एक और हैं, आ रहे हैं!" कहा मैंने,
"अच्छा, चार आदमी!" बोला वो,
"हां!" बोला मैं,
''तो बैठने वाले वहां तुम दो ही होंगे?" बोला वो,
"तीन!" कहा मैंने,
"कौन?" बोला वो,
"एक ये गजनाथ!" कहा मैंने,
"हां, मैं भी आसपास ही रहूंगा!" बोला वो,
"ठीक!" कहा मैंने,
"कोई गड़बड़ न हो बस!" बोला गजनाथ!
"नहीं होगी!" बोला वो,
"बस फिर क्या?" बोला वो,
"हमने कुछ करना ही नहीं है!" कहा मैंने,
"और कोई पूछे तो?" बोला गजनाथ,
"कुछ नहीं बोलो!" बोला वो,
"न माना तो?" बोला मैं,
"बोलना, भेतिया से आये हैं!" बोला वो,
"ये क्या है?" पूछा मैंने,
"अड्डा!" बोला वो,
"किनका?" पूछा मैंने,
"इन्हीं का!" बोला वो,
"और ये है कहां भला?" बोला मैं,
"गंगा-पार!" बोला वो,
"किसी के बारे में पूछा तो?" बोला मैं,
"नहीं पूछेगा कोई!" बोला वो,
"देखो, तैयार रहना चाहिए!" कहा मैंने,
"सो तो है!" बोला गजनाथ,
"वो कल बता दूंगा!" बोला वो,
"दादू मिलेगा?" पूछा मैंने,
"मिलेगा!" बोला वो,
"हमसे तो कुछ न कहे?" पूछा मैंने,
"ना!" बोला वो,
"हालू?" बोला मैं,
"नहीं बोलेगा!" बोला वो,
मैंने मन में सोचा, ये दो पसली का आदमी, और बात करता जा रहा है इतने विश्वास से, या तो ये गलत है या फिर हम! खैर, अपनी तरफ से तो इंतज़ाम करके रखना ही था, कैसे भी करके, कम से कम इतना कि कुछ बचाव तो हो ही!
"लो!" बोला वो,
और गिलास भर दिए!
"हां!" कहा मैंने,
"मुर्गा है या चील?" बोला गजनाथ!
"क्यों? क्या हुआ?" बोला वो,
"बहुत कड़ा है?" बोला वो,
"और भुनवा दूं?" बोला वो,
"हां, ये तो जबड़ा ही छील दे यार!" बोला वो,
वो उठा और चला गया!
"गजनाथ?" बोला मैं,
"हां?" कहा उसने,
"ये मुझे कुछ ठीक नहीं लग रहा!" बोला मैं,
"क्या हुआ?" बोला वो,
"इसकी इतनी अच्छी पकड़ है तो हमारी बात मान ले?" बोला मैं,
"सो क्या?" बोला वो,
''दादू से कहो, लड़ाई-झगड़ा कोई नहीं, कुछ देखना है, दिखा दे और क्या?" बोला मैं,
"हो नहीं पायेगा!" बोला वो,
"कहीं कुछ ऊंच-नीच हो गयी ना, तो समझ हुआ फिर खेल!" कहा मैंने,
"नहीं होगी!" बोला वो,
"तू एक काम करना, मेरी बात गाड़ी के चालक से करवाना!" बोला मैं,
"ठीक!" बोला वो,
"गाड़ी कौन सी है?" पूछा मैंने,
"जीप है!" बोला वो,
"बहुत बढ़िया!" कहा मैंने,
दिनेश आ गया था, उबले अंडे ले आया था कटवा कर, उस कड़े मुर्गे से तो यही बेहतर था! कड़ा मुर्गा रसे या सालन में हो, तो ही खाया जाए!
"एक बात और बताऊं!" बोला वो,
"हां!" कहा मैंने,
"किसी भी औरत से बात नहीं करना उनकी!" बोला वो,
"हमें क्या ज़रूरत!" कहा मैंने,
"गले पड़े, तब भी!" बोला वो,
''ठीक है!" कहा मैंने,
तब हम खाते पीते रहे, और फिर समय पर ही निकल पड़े वहां से, मेरे दिमाग मैं कई प्रकार के विचार उमड़-घुमड़ रहे थे, ऐसा हुआ तो क्या और वैसा हुआ तो क्या, रास्ता क्या हो, क्या न हो, दादू क्या कहेगा और हालू?
हम आ गए गजनाथ के स्थान पर, अब भूख लगी थी तो खाना मंगवा लिया आज बढ़िया दाल थी अरहर की, कच्चा आम पड़ा हुआ था, साबुत हरी मिर्च के साथ, ज़ीरे और लहसुन का तड़का सा लगा था, एक सब्जी थी, ये गांठ-गोभी, मटर और कच्चे केले के टुकड़ों से बनाई गयी थी, स्वाद बड़ा ही बढ़िया था उसका! साथ में पनियारी-दही, साबुत हरी मिर्च, प्याज और पुदीने की चटनी! थोड़ा सा कुछ अलग भी था, ये तवे पर कटे-भुने करौंदे थे, स्वाद में बेजोड़! रोटियां खायीं और चावल भी! छक कर खाया हमने! और फिर आराम किया! सो गए!
सुबह, फारिग हो स्नानादि से, चाय पी, चाय के संग कुछ मीठे-फीके से शकरपारे से थे, जैसे अक्सर शादी-ब्याह में मिलते हैं! चाय के साथ तो अच्छे ही लगते हैं!
दिन में करीब साढ़े ग्यारह बजे, गाड़ी का भी प्रबंध हो गया और उस चालक से मैंने बात भी कर ली, वो चालक, राजनीति की अच्छी जानकारी रखता था, मस्त-मौला क़िस्म का, तीस-बत्तीस बरस का रहा होगा! रहने वाला वो बलिया का था! जिला बलिया!
एक बजे करीब हम बस अड्डे पहुंचे, शहरयार जी से बात हुई, वे अभी डेढ़ घंटा देरी से थे, तो उधर ही चाय आदि पी, आलू-पूरी ही खा लीं!
और फिर वे आ गए, इंतज़ार लम्बा लगा बहुत! कुछ प्रणाम और हाल-चाल और फिर हम चल पड़े गजनाथ के स्थान के लिए! वहां पहुंचे, उन्होंने सामान रखा, और सबसे पहले स्नान करने चले गए! चेहरे से साफ़ पता चलता था कि यात्रा ने अच्छी मात्रा में मशक़्क़त करवाई है उनसे!
जब तैयार हो, आये तब आराम किया उन्होंने, थोड़ा सा आध-पौने घंटा ही, तब तक मैंने उन्हें अब तक का सारा हाल बता दिया था कि किन्नरी-साधना में नहीं बैठ सका मैं, कारण भी बता दिया और अब क्या कार्यक्रम है, क्या जोखम हैं, सब बता दिए!
"तो आज उन **भंगों के यहां चलना है!" बोले वो,
"हां!" कहा मैंने,
"चलो जी!" कहा उन्होंने,
"क्या बोलते हो?" बोला मैं,
"किस बारे में?" बोले वो,
"चलना ठीक है?" कहा मैंने,
"आपने ठानी, तो ठीक है, अब क्या दाएं बाएं देखना!" बोले वो,
"कोई बात हुई तो?" बोला मैं,
"तो दो-चार तो मैं ही टपका दूंगा!" बोले वो,
"इतने मैं भी!" कहा मैंने,
हंसते हुए, मज़ाक़ में ही!
"ऐसी नौबत ही ही क्यों आये?" बोला गजनाथ,
"आ भी जाए!" बोले वो,
"और क्या!" कहा मैंने,
"ऐसे तो टूटेंगे नहीं!" बोले वो,
"ये तो है ही!" कहा मैंने,
"कहां के हैं?" पूछा उन्होंने,
"पचपन किलोमीटर दूर हैं!" बोला गजनाथ,
"घंटा भर?" बोले वो,
"हां!" कहा मैंने,
"कोई बात नहीं!" बोले वो,
"गजनाथ?" मेरे दिमाग में कुछ आया, तो पूछा,
"हां?" बोला वो,
"उधर, उस डेरे के पूर्व में क्या है?" पूछा मैंने,
''जंगल!" बोला वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"क्यों?" बोला वो,
"ऐसे ही पूछा!" कहा मैंने,
और तभी एक लड़का चाय ले आया, गजनाथ ने चाय पकड़ाई मुझे और उन्हें, दोनों को, साथ में कुछ नमकीन थी!
"वैसे कैसे आयी दिमाग में?" बोले वो,
"ऐसे ही, अचानक!" कहा मैंने,
"ठीक भी है!" बोले वो, चुस्की भरते हुए!
तो जी, हमने चाय पी ली, भोजन भी कर ही लिया था, कुछ ज़रूरी सा सामान भी रख लिया था, अपने तांत्रिक-आभूषण उतार कर रख दिए थे, कुल मिलाकर, एक साधारण से ही सहायक हों, ऐसे बन गए थे हम, सर पर गमछा बांध, देहाती से बनने की कोशिश की थी! खैर जी, क्या कोशिश, अब जो है सो है ही! करीब पौने छह बजे वो ड्राइवर भी आ गया था, मुझे अफ़सोस हुआ, तो जीप नहीं लाया था, वो वैन ले आया था! बस इतना शुक्र था कि गाड़ी अच्छी दशा में थी, नई सी लगती थी, बस कोई दिक्कत न करे, यही उम्मीद रखनी थी!
"शहरयार जी?" कहा मैंने,
"जी?" बोले वो,
"पोटली दबा ली?" पूछा मैंने,
"हां!" बोले वो हंसते हुए!
"बस फिर!" कहा मैंने,
"गजनाथ?" बोला मैं,
"हां?" बोला वो,
"चलें?" पूछा मैंने,
"दिनेश को बता दूं!" बोला वो,
"हां, बता दो!" कहा मैंने,
उसने फ़ोन मिलाया और उस से बात हो गयी! वो भी तैयार था, उसने सम्मा से बात कर ली थी, कुछ शर्तों पर हमारा काम हो ही जाना था, शर्तें भी कोई बड़ी नहीं थीं, वही बस, ध्यान रखने की!
"चलो भाई!" कहा मैंने,
"जी!" बोला वो,
और गाड़ी स्टार्ट की, चल पड़े हम!
"रास्ते से कुछ लेना तो नहीं?" बोला गजनाथ,
"नहीं तो?" बोला मैं,
"क्योंकि फिर कुछ नहीं मिलेगा!" बोला वो,
"कोई ज़रूरत नहीं!" कहा मैंने,
अब गाड़ी ने भागना शुरू किया, हम उस इक्का-दुक्का बड़ी गाड़ी से बचते हुए निकल रहे थे, जो बस अब मदिरा के लिए अकड़े से पड़े थे! मदिरा अंदर जाती तो उनकी देह की अकड़न-जकड़न दूर होती!
"कुछ लेना-लाना है?" बोला वो,
"ले लेंगे!" कहा मैंने,
"कहां?" बोला वो,
"आधे रास्ते में ही!" बोला वो,
"आगे एक क़स्बा सा पड़ेगा, जो मिले ले लेते हैं!" बोला वो,
"ठीक है!" बोला वो,
पहुंचे हम उस कस्बे तक, क़स्बा सिर्फ नाम का ही था, ये कुछ आद खोमचे भर थे, जिनमे कुछ बेल्ट, जनरेटर आदि सा सामान भरा था! एक जगह एक खोमचे पर, कुछ सब्जियां सी दिखीं!
"रोको!" कहा मैंने,
"अभी!" बोला ड्राइवर, और रोक दी गाड़ी!
"आओ जी!" बोला गजनाथ!
"गिलास मत लेना, वो हैं यहीं!" बोला ड्राइवर,
"कितने?" पूछा मैंने,
"हो जाएंगे!" बोला वो,
"एक काम कर!" बोला मैं,
"क्या?" बोला वो,
"तू ठंडा पानी पकड़ ले, मैं यहां देखूं!" कहा मैंने,
"ठीक है!" बोला वो,
मैंने सब्जियां देखीं, कुछ ख़ास नहीं, बस ककड़ी मिलीं, सो वो ही ले लीं, पैसे चुका दिए, पन्नी में डाल, ले लीं,
"सुनो भाई, यहां पकौड़ी नहीं मिलतीं?" बोले शहरयार,
"आगे देख लो, मंदिर के पास!" बोला वो,
''अच्छा अच्छा!" बोले वो,
और हम, फिर बैठ चले, ड्राइवर को मंदिर का बता दिया, वहां एक रेहड़ी दिखाई दी, कड़ाही चढ़ी हुई थी, दो-चार लोग भी बैठे थे!
"आओ! बन गया काम!" बोले शहरयार!
मूंग की दाल की, पालक की और आलू की पकौड़ियां ले लीं, साथ में इमली वाली खट्टी चटनी! खा के देखीं तो सच में ही बेहद कड़क! आ गए गाड़ी में!
"एक एक बजरंग तो यहीं खींच लो!" बोले शहरयार!
"अजी दो लो!" कहा मैंने,
हमने एक एक बजरंगी-पैग नीचे उतार लिया गले के! बोतल तो पानी की खाली!
"अबे ओ गजनाथ?" बोला मैं,
"पानी?" बोला वो,
"हां!" बोला मैं,
"लाया!" बोला वो,
तभी ड्राइवर भी उठ कर चल पड़ा उसके साथ!
"मूंग वाली ज़बरदस्त हैं!" बोला मैं,
"हां!" बोले वो,
"बढ़िया बनाई हैं, महंगी भी नहीं!" बोला मैं,
"छोटी जगह है! बढ़िया ही मिलेगा!" बोले वो,
तभी वे दोनों लौट आये, ड्राइवर, पन्नी में बर्फ ले आया था! समझदार आदमी था, अब ज़रा गले को 'ग्रीस' सी लग जाती! बनाये पैग फिर......और....!
अब जो बर्फ पड़ी गिलास में, तो मदिरा की हुई जंग उस से! मदिरा कह तुझे घोलूं और बर्फ कहे तुझे जमाऊं! लुत्फ़ उठायें हम! साथ में पकौड़ी मूंग की और वो लाल सी खट्टी चटनी! आनंद, परमानंद! महानंद! मदिरानन्द!
"बर्फ सही लाया यार!" बोले शहरयार!
"गर्मी ही बहुत है!" बोलै ड्राइवर,
"हां, और फिर ये ज़रूरी भी है!" कहा मैंने,
"ये लो आप!" कहा उन्होंने,
"क्या है?" पूछा मैंने,
"प्याज का पकौड़ा है!" बोले वो,
"वाह!" कहा मैंने,
और लेकर, खाया, गरम प्याज का पकौड़ा था, मजा ही बांध दिया!
अगर बलगम वाली खांसी हो तो एक प्याज भून लो, उसमे, काला-नमक डाल कर, चार फाड़ कर लो, और दिन में दो बार खिलवा दो, एक घंटे तक कुछ नहीं खिलाना पिलाना है, बलगम बाहर और खांसी ठीक, तीन दिन में, परहेज दही और चावल का रखें! प्याज दो तरह की होती है, एक सफेद छिलके वाली, इसमें पानी कम होता है, सूखी सी होती है, और दूसरी गहरी प्याजी सी, इसमें पानी ज़्यादा होता है, यही प्याज अच्छी होती है खाने में! प्याज की झल(जलन) से बचना हो तो उसकी गांठ को चाक़ू से निकाल कर, पानी में डुबो दो, पांच मिनट बाद काट दो, कोई झल नहीं लगेगी! बालतोड़ हो गया हो तो नौसादर और प्याज का गर्म सा अर्क मिलाकर, इस पर रुई का फाया बांध दो, दर्द से मुक्ति और बालतोड़ ठीक! बालकों के सर में यदि जुएं हो जाएं तो प्याज का दो चम्मच अर्क, पतली सी लस्सी में डाल कर मालिश करवा दें, कभी नहीं होंगीं! भूख नहीं लगती हो तो प्याज का अर्क एक चम्मच, भुनी हींग के साथ दो बार ले लें, खुल कर भूख लगने लगेगी!
खैर,
तो हमने अपना कोटा पूरा किया तब का और आगे के लिए चल पड़े! अभी करीब एक घंटा और लगना था बातों बातों में समय काट रहे थे!
"क्रिया तो रात को ही करते होंगे?" बोला मैं,
"हां जी!" बोला गजनाथ,
"सम्मा से पूछी?" पूछा मैंने,
"दस बजे करीब!" बोला वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"तब साढ़े नौ बजे ठीक?" बोले शहरयार जी,
"कुछ जल्दी!" बोला वो,
"नौ बजे?" बोला मैं,
"हां, ये ठीक!" बोला वो,
"हर सरभंग पूनम की रात को ही पूजन करता है!" बोला मैं,
"हां!" कहा उसने,
"तो आज पूनम ही है!" कहा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"क्या बात है?" पूछा मैंने,
"आंखें भर रही हैं!" बोला वो,
"नींद से?" पूछा मैंने,
"शराब से!" बोले शहरयार!
"अबे जा यार!" कहा मैंने,
"आप मलंग हो!" बोला वो,
"और तू?" पूछा मैंने,
"छोटे हैं जी!" बोला वो,
"बड़ा बन फिर?" कहा मैंने,
"अब क्या करना?" बोला वो,
"वहीं रह जा फिर!" कहा मैंने,
"कहां?" पूछा उसने,
"सरभंगों के पास!" बोला मैं,
"इनकी माँ की **!" बोला वो,
"क्यों?" पूछा मैंने,
"वो कोई इंसान हैं?" बोला वो,
"फिर?" पूछा मैंने,
"मुर्दाखोर!" कहा उसने,
"तूने देखे?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोला वो,
"कैसे जाने?" पूछा मैंने,
"सुनी तो है?" बताया उसने,
"देख लियो आज!" बोले शहरयार जी!
''हां जी!" बोला वो,
चेहरे पर पानी डाला उसने, जागने की कोशिश करने लगा!
"रास्ता बता दियो?" बोला मैं,
"ये बता देगा?" बोला वो,
"ओ दिनेश?" कहा मैंने,
"जी?" बोला वो,
"बोलता क्यों नहीं?" बोला मैं,
"बता दूंगा!" बोला वो,
अब तक चुपचाप सा ही बैठा था वो! अब बोला था कुछ!
तो हम सरपट दौड़ते रहे, अब कुछ कुछ यातायात कम होने लगा था, ये दरअसल दूर-देहात के क्षेत्र हैं, यहां लोगों की आमद-जामद कम ही रहती है, खेती भी यहां नहीं होती ज़्यादा, होती भी है तो धान की और सम्भवतः ये धान का मौसम भी नहीं था, सूखा पड़ा हो जैसे, ऐसा लग रहा था, इक्का-दुक्का रास्ता ज़रूर फट जाता था उस सड़क से, एक बड़ा सा पेड़ आता और फिर वहीं से कोई रास्ता जा रहा होता, कहीं कहीं कोई छोटा सा तालाब दिखाई दे जाता! आसपास, खजूर के पेड़ लगे थे, झुरमुटे ऐसे बड़े बड़े कि कोई छिप जाए तो पता ही न चले! दूर दायीं तरफ शायद कोई पहाड़ी थी, वही साफ़ दीख रही थी, इंसान नहीं नज़र आता था, कभी-कभार कोई सियार व लोमड़ी ज़रूर सड़क से दूर भागती नज़र आ जाती थी!
"कैसा वीरान सा है!" बोले शहरयार!
"हां!" कहा मैंने,
"रात-बेरात तो छोड़ो, दिन में ही आदमी भीग जाए!" बोले वो,
"सही बात!" कहा मैंने,
"गजनाथ? ओ गजनाथ?" बोला मैं,
"हां जी?'' बोला वो हड़बड़ा कर!
"इसके तो कुत्ते फेल से लग रहे हैं!" बोले शहरयार!
"क्या बात है?" पूछा मैंने,
"कुछ नहीं!" बोला वो,
''अबे कैसे 'चुसा' सा हो रहा है?" बोले शहरयार!
चुसा सा! मेरी हंसी मेरे बंद मुंह से बाहर दौड़ी निकल कर! और हंसी फिर ठहाके में तब्दील हो गयी!
वो गजनाथ भी हंसने लगा, फिर सभी हंसने लगे!
"है? क्या कह रहे हो?" बोला गजनाथ!
"और क्या? ऐसा लग रहा है जैसे पेड़ पर खाली घोंसला लटका हो बया का!" बोले वो,
अब और हंसी छूटी मेरी तो!
"वो हिलता-हालता न रहवै?" बोले वो,
"अरे छोड़ो भी!" कहा मैंने,
"क्या हिलै?" बोला गजनाथ,
"देख! देख इस हरामी आदमी को, पूछ रहा है क्या हिलै!" बोले वो,
अब कि बार तो गाड़ी पर भी रफ्तार ढीली पड़ी! सभी हंसने लगे हम, गजनाथ को जब समझ आयी तो जान कर वो भी हंसने लगा!
"अबे जा!" बोले वो,
"अब क्या हुआ?" बोला वो,
"नाम गजनाथ! और देह देख! जैसे चूहे के **!!" बोले वो,
ओहो! हंसी का फव्वारा फूट पड़ा! पेट पकड़ लिया मैंने तो! जब भी गजनाथ को देखूं वहीं याद आये!
"भाई वाह!" बोला ड्राइवर,
"भाई हम तो ऐसे ही हैं!" बोले वो,
"बढ़िया है जी!" बोला वो,
''और क्या!" बोले वो,
"पानी ठंडा होगा? दिनेश?" बोले वो,
"है जी!" बोला वो,
"बना दे यार एक कड़क सा!" बोले वो,
"आपको?" पूछा मुझ से,
"बना दे!" कहा मैंने,
उसने झट से दो पैग बनाये, वो हिल कर गिरें नहीं अंगोछे में रख बढ़ा दिए आगे, मैंने उठा लिया और उधर शहरयार जी ने भी!
"अरे निकालिये?" बोले वो,
"क्या?" बोला गजनाथ,
"ककड़ी! और क्या?" बोले वो,
और फिर उन्होंने जो बोला, गिलास ही छूटे हाथ से फिर तो! बचा लिया हमने!
"एक बात बताओ साहब!" बोला गजनाथ,
"दो पूछ!" बोले वो,
"फ़ौज में ऐसे ही करें सब?" बोला वो,
"ना!" बोले वो,
"आप फिर?" बोला वो,
"तेरी कौन सी धोती उतार दी मैंने!" बोले वो,
"हां जी?" बोला दिनेश,
"हां?" कहा मैंने,
"धीरे चलो अब, वहां से बाएं जाना है!" बोला वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
और गाड़ी बाएं हो गयी! थोड़ा आगे चलते हुए, एक जगह पड़ी, ये जगह सरभंगों की थी! था तो कोई नहीं लेकिन वहां का सन्नाटा बता रहा था की आज सभी अंदर ही हैं वहां!
"हमें कहां जाना है?" पूछा मैंने,
"आगे ही!" बोला वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"यहां सब बाबा लोग हैं?" बोला ड्राइवर,
"हां, सभी के सभी!" बोला मैं,
अब बस थोड़ी ही देर में धुंधलका हो जाता, यहां न कोई बत्ती ही थी, और न कोई अन्य व्यस्वस्था, मेरी नज़र बायीं तरफ एक डेरे पर पड़ी, यहां कुछ लिखा था, साफ़ तो दिखा नहीं रहा था लेकिन वो कुछ जूट सा लिखा था, अब आगे क्या हो, पता नहीं, जंग ने चाट लिया था उसे! वो डेरा बल ही था, लेकिन जिस तरह से उसका बड़ा सा लोहे का दरवाज़ा था, वहां झाड़-झंखाड़ सी लगी थी, अंदर कुछ दीवारें दीख रही थीं, शायद कोई नहीं रहता था यहां, या भविष्य में कोई बनाये इसे, या फिर किसी ने बेच दिया होगा उसे!
अब हम आगे चले, रास्ता बड़ा ही जानलेवा सा था, गड्ढे ही गड्ढे! कहीं बड़े और कहीं छोटे, कहीं मिट्टी के ढेर से और कहीं पत्थर टूटे हुए! खैर, हम धीरे ही सही, चले जा रहे थे, फिलहाल तक कोई नज़र नहीं आया था!
"कहां है?" पूछा मैंने,
"अभी तो आगे है!" बोला दिनेश,
"कितना?" पूछा मैंने,
"पौन किलोमीटर!" कहा उसने,
"ओहो! कम से कम आधा घंटा!" कहा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"एक तो रास्ता ही ज़बरदस्त है!" बोले शहरयार!
"हां!" कहा मैंने,
"लगता है जैसे अठारहवीं सदी में आ गए!" बोले वो,
"वैसा ही मानो!" कहा मैंने,
तभी सामने से दो औरतें आती दिखाई दीं, हड्डी सी, सूखी सी, वे हमें आते देख रुक गयी थीं, हम जा रहे थे और वो आ रही थी, तो हम रुके नहीं, वो ज़रूर रुक गयी थीं!
"कोई गांव है यहां?" बोला मैं,
"नहीं तो?" बोला गजनाथ,
"होगा!" बोले शहरयार!
"पता नहीं!" बोला वो,
"शाक-सब्जी, वस्तुएं भी तो लाते ही होंगे?" बोले वो,
"हो सकता है!" बोला वो,
"रुको!" बोला दिनेश,
"क्या हुआ?" पूछा मैंने,
रुक गए थे हम!
"एक मिनट!" बोला वो,
और उतर गया नीचे!
"इसे क्या हुआ?" पूछा मैंने,
"देखता हूं!" बोला गजनाथ!
और वो भी बाहर चला, दस मिनट में आ गया वापिस!
"क्या हुआ?" पूछा मैंने,
"सम्मा आ रहा है!" बोला वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"वो तदुआ देगा न?" बोला वो,
"अरे हां!" कहा मैंने,
"ये क्या है?'' बोले शहरयार!
"बताया नहीं था?" कहा मैंने,
"नहीं तो? या याद नहीं रहा!" बोले वो,
"सरभंग-माल!" कहा मैंने,
"ओह! लो!" बोले वो,
"क्या हुआ?'' पूछा मैंने,
"ये साले बनवा के छोड़ेंगे!" बोले वो,
"अरे नहीं!" कहा मैंने,
"मुझ से कोई अकड़ा ना, तो साड़े की नाड़ ही तार दूंगा!" बोले वो,
"नौबत नहीं पड़ेगी!" कहा मैंने,
"आ गया वो!" बोला गजनाथ!
एक अधेड़ सा आदमी आ रहा था, कंधे पर झोला रखे हुए, झूलता-झालता!
"इसके तो गियर्स फेल दीखैं!" बोले वो,
मैं हंस पड़ा, वो ड्राइवर भी! आ गया सम्मा! चेहरा ऐसा जैसे पहले कभी डाकू रहा हो, और अब सजा काट, सरकारी योजना का लाभ ले रहा हो!
"अहोम!" बोला वो,
"अहोम!" बोले हम सभी!
"आ लिए?" बोला वो,
"हां जी!" कहा मैंने,
"गजनाथ?" बोला वो,
"हां?" आया कहते हुए गजनाथ नीचे!
"ले, पहना दे!" बोला वो,
"अच्छा!" ले लिया झोला उसने,
"लो जी!" बोला वो,
झोला पकड़ा दिया शहरयार को!
"निकाल लो!" कहा मैंने,
"अभी लो!" बोले वो, और निकालने लगे बाहर वो तदुआ की मालाएं!
वो तदुआ भी अजीब सा था, एक धागा सा, जो कि लगता था कि जैसे कीकर की छाल से बनाई हुई रस्सी का बना हो, सूखा और कड़ा सा, बीच में एक गण्डा सा बंधा था, मैंने गंडे को दबाकर देखा तो अजीब सा महसूस हुआ, जैसे रुई सी भरी हो उसमे!
"ये क्या भरा है इसमें?" पूछा मैंने,
"पता नहीं!" बोले वो,
उन्होंने सूंघ कर देखा तो थूक दिया!
"क्या हुआ?'' पूछा मैंने,
"बड़ी ही बास वाली चीज़ है कोई!" बोले वो,
अब मैंने सूंघ कर देखा, बड़ी ही अजीब सी, जैसे जली हुई सी लकड़ी या कोयला, जैसे जलती लकड़ी पर घी डाला हो और लकड़ी थोड़ी धीमे जल रही हो!
"पता नहीं क्या है?" कहा मैंने,
"होगी कोई सरभंगी ही चीज़!" बोले वो,
अब तक सम्मा आ गया था पास हमारे!
"चलें क्या?" पूछा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"बैठ फिर!" बोला गजनाथ,
वो बैठ गया पीछे ही, उसमे से पसीने की बदबू उठ रही थी, शायद कोई मेहनत वाला काम करके आया था या शराब ऐसी जगह पी थी जहां हवा की कमी थी!
"सम्मा?" कहा मैंने,
"हां?" बोला वो,
"क्या करता है उधर?" पूछा मैंने,
"कुछ नहीं!" बोला वो,
"कुछ नहीं? मतलब?" बोला मैं,
"बड़ा भाई बाबा है इधर!" बोला वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"तो आता रहता हूं!" बोला वो,
बता तो ऐसा रहा था जैसे कोई तीर्थ-स्थान हो वो! वहां बस आये तो सरभंग, या पुलिस या मुर्दाखोर कोई जानवर ही! अब अंधेरा घिरने लगा था, हमने गाड़ी की बत्ती जला ली थी!
"अब?" पूछा मैंने,
"पास ही है!" बोला वो,
"क्या बोलना है?" बोला मैं,
"भेतिया से आये हैं!" बोला वो,
"बस?" बोला मैं,
"हां, बाकी मैं हूं!" बोला वो,
"ठीक!" कहा मैंने,
"मैं तुम्हें चुपचाप बिठा दूंगा!" बोला वो,
''अच्छा!" कहा मैंने,
"बात नहीं करना!" बोला वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"मैं होऊंगा पास ही!" बोला वो,
"बस फिर!" कहा मैंने,
"और कुछ?" पूछा मैंने,
"और कपड़े रख देना गाड़ी में!" बोला वो,
"कपड़े?" पूछा मैंने,
"हां?'' बोला वो,
"तो जाएंगे कैसे?' पूछा मैंने,
"कच्छे में!" बोला वो,
"ओ बहन**!" निकला मेरे मुंह से!
"नहीं तो पहचान लेंगे!" बोला वो,
"कच्छा तो रहेगा ही?" बोला गजनाथ,
"और क्या नंगे?" पूछा मैंने,
"कोई बात नहीं!" बोले शहरयार!
"रोको!" बोला वो,
गाड़ी रुकी, गंध आयी बड़ी ही तेज! पीछे ज़रूर ही जंगल था, अंदर से तेज प्रकाश उठ रहा था, सरभंगों की जमात इकट्ठी हो गयी थी! आ गयी थी घड़ी अब अंदर जाने की!
"एक तरफ बिठा दूंगा, और सेचर दे दूंगा!" बोला वो,
"सेचर?" बोले शहरयार!
"सामग्री!" कहा मैंने,
"मैंने सोचा कुछ और!" बोले वो,
"कपड़े यहीं उतार लो!" बोला वो,
"लो जी!" कहा मैंने,
और हम सभी ने उतार लिए कपड़े! ड्राइवर आश्चर्य से हमें देखता रहा! मैंने उसे समझा दिया कि कब क्या हो, वो तैयार रहे बस! आदमी जीदार था! उसे तो जैसे रोमांच ही हो उठा!
हमने उतार लिए कपड़े अपने! तदुआ ठीक किये उसने हमारे, एक बार देखा और तब पीछे आने को कहा!
हम उसके साथ चले, वो हमको, मुख्य-द्वार से नहीं ले गया, वो एक संकरे से रास्ते से अंदर लाया, अंदर आये तो ठीक सामने, पेट्रोमैक्स जलते दिखाई दिए, ये एक जगह, कोने के पास रखे थे, यहां कुछ चहल-पहल थी, हम जैसे ही उधर आये कि उनके पालतू श्वान हम पर अर्रा के पड़े! सम्मा ने अपनी ही भाषा बोली उनसे, तो वे चुप हो गए! लेकिन कान खड़े कर, हमें घूरते रहे! ज़रा सा भी अलग होते तो पकड़ लेते वो और भंभोड़ डालते! श्मशान के श्वान और ऐसी जगह के श्वान बेहद ही खतरनाक हुआ करते हैं! नैसर्गिकता पूर्ण उभर कर आ जाती है उनकी, जबड़ा मज़बूत और देह भारी होती है! श्वान वैसे भी जंगली ही है अपनी नैसर्गिकता से! तो ये अपना ही कर्तव्य निबाह रहे थे! वहां एक जगह पर कुछ पौधे भी लगे थे, अब पौधे कौन से थे, ये नहीं जान सका था मैं!
"आ जाओ!" बोला सम्मा,
"चलो!" मैं फुसफुसाया!
वो हमें एक कमरे में ले आया, कमरे की कुंडली खोल दी थी उसने, हम एक एक करके अंदर चले आये! अंधेरे में कुछ भी जायज़ा नहीं लग रहा था, ऐसा लगता था कि जैसे हम किसी बड़े से पुल के नीचे खड़े हों और ऊपर प्रकाश हो, जहां हम रहें वहां अंधेरा ही अंधेरा!
"सुनो?" बोला वो,
"हां?" कहा मैंने,
"मैं अभी भसम लाता हूं!" बोला वो,
''अच्छा!" कहा मैंने,
"कोई भी आवाज़ दे, मत आना बाहर! मैं ही खोलूंगा, तब आना!" बोला वो,
"ठीक है!" कहा मैंने,
वो चला गया बाहर, दरवाज़ा कर दिया बंद उसने, अब हम उसी कमरे में जैसे क़ैद हो गए!
"ये जगह अजीब ही है!" बोले शहरयार!
"बहुत अजीब!" कहा मैंने,
"इनका स्थल कहां है?" बोले वो,
"उधर होगा शायद!" कहा मैंने,
इशारा करते हुए, जहां से रौशनी आ रही थी!
तभी सम्मा अंदर आया, एक झोले में भस्म ले कर!
"लो!" बोला वो,
"हां!" कहा मैंने,
और हम सभी ने भस्म लीप ली अपनी देह पर, अब भस्म, भस्म एक जैसी ही होती है! सो आराम से लेप ली!
"आओ!" बोला वो,
"चलो!" कहा मैंने,
हम बाहर आये, लेटे हुए श्वान फिर से बैठ गए! हमें ही देखने लगे!
"काटेंगे तो नहीं?" बोला मैं,
"नहीं!" बोला वो,
"आओ!" बोला वो,
और एक जगह से ले चला हमें उधर के लिए! अब आने लगी आवाज़ें! हंसने की, हंसी-ठिठोली की! औरतों के हंसने की!
"चलते रहो!" बोला वो,
हमने वो कमरा सा पार किया और आगे चलते रहे! पूनम की रात भले ही थी, लकिन उस जगह तो अमावस का सा अहसास हो रहा था!
"रुको!" बोला वो,
"हां!" हम रुक गए और बोले,
"वो देख रहे हो?" बोला वो,
मैंने आगे हो कर देखा, एक भारी-भरकम सा, गंजा आदमी था वहां, तोंद निकली हुई और मालाएं ही मालाएं पहने हुए! वो किसी से बात कर रहा था वहां खड़ा हुआ!
"कौन है ये?" पूछा मैंने,
"हालू!" बोला वो,
"जैसा नाम वैसा खुद!" बोला मैं,
"आओ!" बोला वो,
और हम, एक खेत की सी मुंडेर के पास में से चले, तभी किसी ने ढेले फेंकने शुरू किये हम पर! हम रुक गए अचानक से ही! तब सम्मा ने कुछ बोला और ढेले फिंकने बंद हो गए!
"ये क्या था?" पूछा मैंने,
"पेशाब!" बोला वो,
"पेशाब?" पूछा मैंने,
"हां, औरतों की जगह है, पेशाब करने की!" बोला वो,
"अबे!" बोले शहरयार!
हमने वो मेंढ़ सी पार की और आगे चले, यहां कुछ केले के पेड़ से लगे थे, वायु में नमी सी आयी, कुछ गर्माहट भरी, मैं समझ गया कि शायद या तो कोई तालाब है वहां या नदी है, मुड़ती हुई!
"कितनी दूर?" पूछा मैंने,
"अभी आगे है!" बोला वो,
"चलो!" बोला गजनाथ, और हम आगे चलते रहे,
तभी...............!!! अचानक से....पीछे से............!!
"सम्मा?" एक आवाज़ आयी पीछे से, ये एक औरत थी, सम्मा रुक गया और हाथों के इशारे से हमने रुके रहने को कहा, हम वहीं रुके रहे और सम्मा उस औरत की तरफ बढ़ा, गया, वो एक पचास बरस की औरत रही होगी, शक्ल पूरी याद तो नहीं, लेकिन चेहरा भारी था उसका, उसने, नीचे लंगोट सो पहनी थी, स्तन उघड़े पड़े थे, वहां मालाएं धारण किये हुए थी वो, ये शायद कोई महिला-सरभंग थी! पेट बाहर निकला हुआ था, और स्तन सूखे से हो, नीचे तक लटके थे, बेहद ही डरावनी सी थी, सर पर जूड़ा बांधे हुए थी! उसके बात हुई सम्मा से और फिर सम्मा के अंग हमारे पास तक चली आयी, सर उठाकर, हमें देखा उसने! एक एक करके!
"मैदान तक?" बोली वो,
"हो!" बोला सम्मा,
"हूं!" बोली वो,
और जब मेरे पास आयी तब मेरे पेट पर हल्की सी दो बार थाप दी उसने, और फिर पलट गयी, एक बार पीछे देखा पलट क्र, और चली गयी! मैंने सांस अब पूरी की, मैंने क्या, सभी ने! शहरयार जी की फ्रेंच दाढ़ी उसने गौर से देखी थी!
आ गया सम्मा हमारे पास!
"ये कौन थी?" पूछा मैंने,
"कौड़ी!" बोला वो,
"बहन की **!" बोले शहरयार तभी, तपाक से, और जब बोल लिए तब सकपका गए! समझ गए थे, ये ऐसी जगह नहीं!
"ये क्या करती हे यहां?" पूछा मैंने,
"सेवका है!" बोला वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"आओ!" बोला वो,
"चलो!" बोला मैं,
"सम्मा?" बोला गजनाथ,
"हां?" बोला वो,
"मैदान क्या?" पूछा उसने,
"स्थल!" उसने बताया,
"पूजन?" कहा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"आ गए क्या?" पूछा मैंने,
"रुको!" बोला वो,
हम रुक गए, बाएं से कुछ लोग जा रहे थे, नंग-धड़ंग से, सभी झूमते हुए! ये सरभंग अपने आपको शिव-गण कहते हैं, वैसे ही आगे बढ़ते जा रहे थे, भस्म उड़ाते हुए! हाथ में फरसे, चाक़ू, त्रिशूल पकड़े हुए!
"ये भी वहीं?" पूछा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"मैदान ना?" बोला मैं,
"हां!" बोला वो,
वो टोली गुजर गयी और हम अब फिर से अकेले से पड़ गए!
"आओ!" बोला वो,
"चलो!" बोला मैं,
और हम आगे चले, जैसे ही उधर आये, ठिठक कर रह गए! सामने तो चार चिताएं जल रही थीं! ये नंग-धड़ंग सरभंग, बावरे से हो, उनके चारों तरफ नाच रहे थे! चिल्ला रहे थे! अपने अपने हथियार उछाल उछाल कर झूमे जा रहे थे! मरघट ही था वो! खुली सी जगह! एकांत सी जगह! वहां, चिताएं जो जल रही थीं, उनकी लपटें बड़ी ही ऊंची थीं! अमूमन ऐसा नहीं होता, ऐसा अजीब ही था, न जाने क्या वजह थी!
"अहोम!" बोला कोई,
मैंने पीछे मुड़कर देखा!
ये एक युवक था वो! कोई पच्चीस बरस का रहा होगा!
"अहोम!" कहा हम सभी ने,
और वो आगे चलता चला गया आगे, मैदान के लिए!
"वो रहा हालू!" बोला वो,
हालू वहीं बैठा था, उसके चारों तरफ, सामान आदि रखा था, उसके सेवक और सेविकाएं भी वहीं बैठे थे!
"ये तो सामने ही बैठा है?" कहा मैंने,
"इंतज़ार करो!" बोला वो,
"तब क्या होगा?" पूछा मैंने,
"दादू बाबा आएंगे!" बोला वो,
"यहीं हैं?" पूछा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"तो दादू ही करेगा सब?" बोला मैं,
"हां!" कहा उसने,
"सम्मा?" एक औरत की आवाज़ आयी!
"हो?" बोला वो,
"ईबे नाईं?" बोली वो,
"हो!" बोला वो,
तभी वो हमें देख आगे आयी!
"कौन?" बोली वो,
"भेतिया से!" बोले शहरयार!
"भेतिया? याह??" बोली वो,
"हां!" बोला मैं,
"हो?" बोली वो,
"मैदान? छे?" बोली वो,
अब सम्मा ने कुछ कहा, और वो आगे चली गयी!
"बुला रही थी?" पूछा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"क्या बोले?" बोला मैं,
''आते हैं!" कहा उसने,
"आओ! उधर!" बोला वो,
"चलो!" कहा मैंने,
"एकांत ठीक!" बोला वो,
"हां!" कहा मैंने,
"यहां तो रास्ता है शायद!" बोला गजनाथ!
और हम, वहां से हट गए! एक तरफ आ गए!
"ये ठीक है!" कहा मैंने,
"हां!" बोला सम्मा भी!
""सम्मा?" कहा मैंने,
"हां?" बोला वो,
"ये पूजन कब तक चलता है?" पूछा मैंने,
"वेला-काट तक!" बोला वो,
"ब्रह्मकाल तक?" पूछा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"तब तक?" पूछा मैंने,
''यहां चार चरण होते हैं!" बोला वो,
"कौन कौन से?" पूछा मैंने,
"ये तो नहीं पता!" बोला वो,
"अभी जान जाएंगे!" बोला गजनाथ,
"हां!" कहा मैंने,
और अचानक वे सभी खड़े हुए, अपनी तोंद को सहलाता हुआ वो हालू भी खड़ा हो गया!
"आ जाओ, यही समय है!" बोला वो,
और हम सभी भागते हुए, पश्चिमी टोली की तरफ, सबसे पीछे आ खड़े हुए! चिता की दहक यहां तक पहुंच रही थी! अब मैंने देखा कि वो इतनी ऊंची क्यों लग रही थीं, दरअसल, मुर्दे को लोहे की तारों से लपेट कर बांध दिया गया था, नीचे आग जल रही थी, ये तो तंदूर की सी स्थिति थी! मुर्दे जल रहे थे, वसा और मांस, ईंधन बन, उन लकड़ियों पर पड़ते और अग्नि दहक जाती!
"ऐसी अमानवीयता" बोले शहरयार,
"मुर्दों संग!" कहा मैंने,
"कुछ भी!" बोले वो,
अहोम!
अहोम!
अहोम नटेश्वेर! अहोम!
गूँज उठा वो स्थल इस जय-जयकार से!
शिव का नटेश्वर स्वरूप! इसका क्या अर्थ हुआ? मित्रगण! शिव की चौरासी भंगिमाएं हैं, और कुल पांच, भगेशि-रूपाचार, दश कमलपुष्टि, सोलह संहारिकाएं! अठारह लक्ष गण एवं इक्कीस हज़ार स्थानिकायें!
इन पांच भगेशियों में से एक, महानटेश नटेश्वर हैं! शिव ने नटेश्वर रूप क्यों धारण किया, कोई नहीं जानता! नटेश रूप में शिव, न किसी के पिता हैं, न किसी के पति ही! अर्थात, शिव इस रूप में मात्र अकेले ही रहते हैं! ताण्डवोपरांत की मुद्रा नटेश्वर है उनकी! इस रूप में वे अपने साधक को, भक्त को मनचाहा, बिना तोले वरदान देते हैं अथवा पर्याय बनते हैं! इस रूप में शिव, सर्वभोजी बनते हैं, सर्वग्राह्यणकृता! बस इसी को, सरभंग सम्प्रदाय अपना उद्गम मानता है! ये शिव को, मानव-बलि, प्रिय-बलि आदि चढ़ाते हैं! उन्हें प्रसन्न करने हेतु सभी वो कार्य करते हैं जिन्हें इन्हें पाशविक-वृति वाले कहा जाए तो कुछ गलत नहीं होगा!
शिव के अनेक रहस्य हैं! उन्हें क्रमबद्ध रूप से लिखना सम्भव नहीं! अतः इसे यहीं विराम देता हूं!
तो वहां जयकार गूंज उठे थे! जलते मुर्दों की गंध हर तरफ फैली थी, श्वान, आसपास चक्कर लगा रहे थे! समझा जा सकता था कि ये उनका नियम होगा!
"दादू?" पूछा मैंने,
"अभी नहीं पहुंचे!" बोला सम्मा,
"कब तक?" पूछा मैंने,
"मत्त-भोज तक!" बोला वो,
"मत्त?" पूछा मैंने,
''हां?" बोला वो,
"ये क्या है?" पूछा मैंने,
"एक साथ!" बोला वो,
"और भोज क्या?" मैंने थूक गटकते हुए पूछा,
"भेड़!" बोला वो,
"ओह!" कहा मैंने,
"आप क्या समझे?" बोला वो,
"वही!" कहा मैंने,
वो हंसने लगा!
"बाद में!" बोला वो,
"बाद में?' पूछा मैंने,
"समापन पर!" बोला वो,
"न लें तो?" पूछा मैंने,
अब चुप हो गया वो, गजनाथ को, दिनेश को देखा उसने!
"क्या?" पूछा मैंने,
"बताया नहीं?" बोला वो,
"क्या?' पूछा मैंने,
"कि सम्भव भी है!" बोला वो,
ओहो! मेरी तो आंतों में हौला सा उठा! एक वायु-गोला सा लगा सीना फाड़ने! मुंह बिचकाया शहरयार जी ने भी!
"न लें तो?" बोला मैं,
"हो ही नहीं सकता!" बोला वो,
"क्यों?" पूछा मैंने,
"दादू देंगे!" बोला वो,
"दादू?" बोला मैं,
"हां, समापन पर!" बोला वो,
"तू लेता है?" बोले शहरयार!
"और नहीं क्या?" बोला वो, अकड़ते हुए, उसे अब हमारी बातें अच्छी नहीं लग रही थीं, ये साफ़ हो चला था! पर क्या करें? शेर से बचने के लिए हाथी संग चलना अधिक हितकर रहता!
"हंथा!" बोला हालू!
"अहोम!" बोले वो सब,
"हंथा!" बोला फिर से,
अब सभी ने सर झुकाया और चीखने से लगे!
"ये हंथा क्या?" पूछा मैंने,
"साथी!" बोला वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"हंथा!" तीसरी बार बोला वो!
